हिन्दी साहित्य- कविता – * ब च प न * – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

ब च प न

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। )
मैंने देखा-
कि पास से गुजरती एक स्कूल बस में,
एक बच्चा पूरी सांस से बांसुरी फूंके जा रहा था
मानों बताना चाह रहा हो कि,
बस कारों वाहनों की पें पें में भी – बचपन अभी ज़िंदा है।
मैंने देखा-
कि मेरी कॉलोनी के संकरे से तथाकथित ग्राउंड में,
बच्चे पूरी ताकत से गेंद उछाल रहे थे
मानो कहना चाह रहे हों कि,
ऊँची- ऊँची इमारतों के बीच भी – बचपन अभी ज़िंदा है।
मैंने देखा-
कि मोबाइल टॉवरों के समूह एवं डीटीएच की छतरियों के बीच,
एक बच्चा लगन से पतंग उड़ाने का असफल प्रयास कर रहा था
मानो दिखलाना चाह रहा हो कि,
संचार की इस गगनचुंबी उड़ान में भी – बचपन अभी ज़िंदा है।
मैंने देखा-
कि हर व्यक्ति के दोनों कानों से सुनी जा रहा अनवरत-
मोबाइल चर्चा के बीच भी
एक बच्चा अपनी नन्हीं सी सखी के कान में फुसफुसा रहा था
मानो अहसास दिलाना चाह रहा हो कि,
इलेक्ट्रॉनिक्स के भावनाशून्य संसार में भी –
बच्चे,
बचपन,
और
उनका प्यारा संसार
अभी ज़िंदा है।
©  सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर,गायत्री तीर्थ  शांतिकुंजहरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण  से जुड़े हैं एवं गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवासरत हैं । )

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आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (22) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

( दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन )

( अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग )

 

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्‌।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥22॥

लड़ने को तैयार जो उनको लूं पहचान

कौन उपस्थित युद्ध की इच्छा ले बलवान।।22।।

भावार्थ :  और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिए॥22॥

So that I may recognise,my oponents desirous to fight, and know with whom I must fight when the battle begins.॥22॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

vivek1959@yah oo.co.in

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * उधार प्रेम का बंधन है * – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

उधार प्रेम का बंधन है

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का  व्यंग्य – “उधार प्रेम का बंधन है”।)

आज रामलाल की दूकान पर पान खाने पहुँच गया। पान खाकर पैसे देने लगा तो उन्होंने नोट देखकर कहा – भैया छुट्टे नहीं हैं। तब मैंने कहा – कल ले लेना। तब नई-नई चिपकी सूक्ति की ओर इशारा किया जिसमें लिखा था – उधार प्रेम की कैंची है। दूसरी ओर इशारा किया, वहाँ लिखा था – आज नगद कल उधार। बस मेरा भेजा उखड़ गया – क्या तमाशा है, यह सब गलत है, इस संबंध में भ्रम फैला रहे हो तुम। मैंने कहा तो यह सुनकर वह मुस्करा दिया। उसकी मुस्कराहट में व्यंग्य छिपा था, जो मुझे अंदर तक भेद गया। अब वक़्त आ गया है कि उन्हें एक लम्बा डोज़् पिलाऊं। वैसे उनकी आदत है साल-छः महीने में एक लम्बे डोज़् की। तभी वे काफी समय तक ठीक रहते हैं।

रामलाल जी आप गलतफहमी मत पालिए आज उधार का जमाना  है – उधार बिन सब सून। उधार प्रेम का बंधन है। उधार से प्रेम के रिश्ते बनते हैं और लम्बे चलते हैं। नहीं चलते हैं तो चलाना पड़ता है। उधार ऐसा माध्यम है जिसमें दोनों पक्षों को प्रेम सम्बंध बनाए रखना पड़ता है। इससे ऐसी संभावना बलवती रहती है कि सम्बंध बने रहेंगे। ऐसे सम्बंध में हर रंग और स्वाद मौजूद रहता है। आप उधार ले लो, उधार देने वाला आपकी पूरा ध्यान और खोज-ख़बर रखने लगता है। वह समय-समय पर आपको फोन करता है। कभी-कभी आपके घर भी आ जाता है, यह पता लगाने के लिए आप ठीक-ठाक तो हैं न…। आप ठीक रहेंगे तो उधार भी चुका ही देंगे। यहाँ वह याचक सा हो जाता है। अपने पैसे की सलामती के लिए वह भगवान से दुआ मांगता है कि आप स्वस्थ और प्रसन्न रहें। प्रसन्नता का निर्णय उधार देने वाला करता है। आप बीमार हैं तो आपको इलाज के लिए पैसा दे देता है ताकि आप ठाक हो जाएं। वरना उसकी उधारी…? पहले उधारी शर्म की बात मानी जाती थी। मगर आज वही शान की बात है – कि देखो हमारी औकात इतनी है, कि लोग हमें उधार देने खड़े रहते हैं।

मान लीजिए कि उधार अब एक फैशन हो गया है। आपके पास इतना पैसा है कि आपका काम आसानी से चल सकता है। फिर भी आप उधार लेते हैं। टी.व्ही., फ्रिज, सिलाई मशीन, मिक्सी, मोबाइल, प्रेशर कुकर, माइक्रोवेव आदि अनेक चीज़् बाजार में हैं जो आपके घर आने को उतावली हैं। बस आप अपनी इच्छा व्यक्त कीजिए, एक-एक कर वे घर आने लगेंगी। इज्जत का फालूदा न निकले इसलिए पहले लोग उधार छिपाते थे। पर इसके उलट अब प्रचार करते हैं कि उन्होंने मकान, गाड़ी या किसी अन्य चीज़् – जो उनका सम्मान बढ़़ाती है – के लिए लोन लिया है। मतलब यह कि घर में जो महँगी नई चीज़् है वह लोन की। अब यह बताना पड़ता है कि कौन सी चीज़् बिना लोन के खरीदी गई है। जो लोग लोन नहीं लेते उन्हें पिछड़ा समझा जाता है। और जो पिछड़ा नहीं दिखना चाहते या कहलाना चाहते वे लोन लेकर कुछ ने कुछ खरीदते ज़रूर हैं।

उधार विकास की कुंजी है।’ इसके बिना विकास रूपी ताला खुल नहीं सकता। उधार से आप सम्पन्न हो जाते हैं। उधार से आपके पास हर चीज़् पलक झपकते आ सकती है। विकास की गति तीव्र हो जाती है। बस इशारा करना पड़ता है। उधार का बंधन ऐसा अटूट है कि आदमी उसमें जकड़ जाता है। उधार या कहें लोन के लिए एक बात और निहायत ज़रूरी है… कि आप उधार लो और भूल जाओ… वरना आप हर पल तनाव में रहोगे। यह काम अगले का है कि वह आपका ख़्याल रखे। मतलब ‘टेंशन लेने का नहीं देने का…।’ अपन यह कह सकते हैं कि अधार टेंशन मुक्त जीवन का अवसर देता है। बस, आपमें उधार लेने का टेलेण्ट होना चाहिए कि आप अवसर का लाभ उठा सकें। जो लोग उधार लेकर टेंशन में रहते हैं उनके लिए ‘बेवकूफ’ से अच्छा शब्द किसी कोश में नहीं।

उधार की महिमा अपरम्पार है।’ जिसने इस सूक्ति वाक्य को समझ लिया उसका इहलोक तो संवर ही गया, परलोक भी सुधर जाता है। आगे आने वाली पीढ़ियाँ आपको याद कर इस रास्ते पर आत्मविश्वास से विकास रथ पर सवार हो आगे बढ़ती जाती हैं।

यह संसार विचित्र है। यहाँ उधार देने वालों की कतार लगी रहती है। आप एक से उधार मांगते हो और कई लोग कतार तोड़ आप पर झपट्टा मारने के दौड़ पड़ते हैं। इसलिए उधार लेने वालों के आजकल भाव बढ़े हुए हैं। उधार देने वाले से उधार लेने वाले अब बड़े माने जाने लगे हैं।

उधार लेने और देने से चरित्रगत परिवर्तन भी आ जाते हैं। ऐसे लोग सामान्य धारा से अलग दिखते हैं। देने वाले के चेहरे पर आत्मविश्वास टपकता-टपकता सा दिखाई देता है। चेहरे पर कठोरता आ जाती है। रहम का भाव केवल उधार देते वक़्त दिखाता है। उसकी भाषा विकसित हो जाती है। माषा में माँ-बहन से सम्बंधित मृदु वचन धारा प्रवाह निकलने लगते हैं। उसकी सहनशक्ति विकसित हो जाती है। कज़र्दाता चाहता है कि उसे ब्याज मिलता रहे। मूलधन न भी मिले तो चलेगा। वह उपदेशक हो जाता है। साधुओं के बाद वही अर्थतंत्र और बाजार तंत्र की व्यवस्था को समझता समझाता है। एक सिद्ध पुरुष की तरह उसे अपने ऊपर पैसा खर्चना अपमान लगता है। सिर्फ उधार लेने वाले से पैसा खर्च करवाना अपना उसे धर्म प्रतीत होता है।

इसी तरह उधार लेने वाले के चरित्र में भी आमूल परिवर्तन आ जाता है। उसमें  माँ-बहन से सम्बंधित वचन सुनने और सहने की क्षमता बढ़ जाती है। कभी-कभार एकाध हाथ भी सह लेता है। वह पैसे की महत्ता को समझने लगता है। उसे पैसे लौटाने की अपेक्षा लटकाने में अधिक विश्वास रहता है। वह छुपा-छुपी के खेल में भी माहिर हो जाता है, बहाने बनाना सीख जाता है। समय आने पर बहानों का, वह रक्षा कवच की तरह भलीभाँति उपयोग करने लगता है। उसमें एक कला और विकसित हो जाती है। वह टोपी बदलना सीख कर अपनी टोपी दूसरे, तीसरे को पहनाने की कुशलता हासिल कर लेता है। यह अद्भुत कला अर्थतंत्र में जादुई महत्व रखती है। और उधार लेने की कला से ही यह गुण पनपता विकसित होता है।

बड़े-बड़े लोग और उनकी कम्पनियाँ उधार लेना अपनी शान समझती हैं। खुद का पैसा लगाना उन्हें बेवकूफी लगती है। वह कम्पनी, कारख़ाना, प्रतिष्ठान खोलने के लिए सरकार या बैंक को चूना लगाते हैं। उनको लगता है पराये चूने से पान का रंग और स्वाद बढ़ जाता है। ‘‘हर्रा लगे न फिटकरी और रंग चोखा।’’ बिन पैसे का खेल और उसका मजा। मतलब  बाय वन  गेट वन फ्री। मतलब धंधा चल कर रफ़्तार पकड़ गया तो पैसा चुका दिया और साख बनाकर दुगना उधार ले लिया और न चला तो कुण्लली मार कर चिंता का त्याग कर चुपचाप बैठ जाओ। देश में न बैठ सको तो विदेश में आसन जमा लो। चिन्ता फिर सरकार करेगी या बैंक। बस कोशिश यह होनी चाहिए कि उधार इतना हो कि सरकार या बैंक वसूलते वसूलते थक जाएँ, पर वसूल न कर पायें। प्रतिभाशालियों के लिए यह बहुत आसान है। इसमें शान तो बनती ही है मुफ़्त में प्रचार भी मिलता रहता है। इसमें राजयोग और तंत्रयोग का सहयोग मिलना निहायत ज़्ारूरी है अन्यथा उधार योजना में आपकी सफलता संदेह से परे नहीं।

अभी कुछ समय पहले की बात है। एक उद्योगपति शराब पिलाकर पहले दूसरों को हवा में उड़ाते रहे। फिर उन्होंने सोचा कि ख़ुद ही क्यों न उड़ा जाये। सरकार, बैंक और अन्य शासकीय संस्थाओं की मदद से वे हवा में उड़ने लगे। फिर उन्होंने इतनी ऊंचाई पर उड़ान भरी कि सबके होश उड़ गये। मदद देने वाले और उसमें हाथ बंटाने वालों के तो हाथ-पाँव ही फूल गए। वे उड़ते गये… ऊंचे और ऊंचे… जब उन्हें समझ में आया कि अब ज़्यादा उड़ना ख़तरनाक होगा तो अपनी लेंडिंग विदेश में कर ली। अब जिम्मेदार लोग उनकी लेंडिंग देश में कराने के प्रयास में जी जान से लगे हैं। अब वह बड़ा उधारची है। यह सब उधार का कमाल है।

अब यही लफड़ा देश के मामले में है। देश का विकास करना है तो उधार लो भी और दो भी। उधार नहीं दोगे तो कोई माल को नकद नहीं खरीदेगा और माल डंप होगा। उधार और विकास का चोली-दामन का सम्बंध है। दोनों एक दूसरे के लिए बने हैं। एक दूसरे के बिना दोनों असहाय।

मुझे रोकते हुए रामलाल ने कहा – भाई साहब बस करो अब। मैं पूरी तरह समझ गया। मुझे माफ कर दो। आपसे पैसा मांगकर हमने गल्ती कर दी। आप अब उधार ही रहने दें। रामलाल ने खड़े होकर भाई साब से माफी मांगने लगे और भाई जी पीक को दूकान के बाजू में थूककर आगे बढ़ गये।

© रमेश सैनी , जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य- कविता/गजल – * यहाँ सब बिकता है  * – डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

यहाँ सब बिकता है 

(प्रस्तुत है  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी  की एक बेहतरीन गजल)

 

खुला नया बाज़ार यहाँ सब बिकता है,
कर लो तुम एतबार यहाँ सब बिकता है॥

जाति धर्म उन्माद की भीड़ जुटा करके,
खोल लिया व्यापार यहाँ सब बिकता है॥

बदल गई हर रस्म वफा के गीतों की,
फेंको बस कलदार यहाँ सब बिकता है॥

दीन धरम ईमान जालसाजी गद्दारी,
क्या लोगे सरकार यहाँ सब बिकता है॥

एक के बदले एक छूट में दूँगा मैं,
एक कुर्सी की दरकार यहाँ सब बिकता है॥

सुरा-सुन्दरी नोट की गड्डी दिखलाओ,
लो दिल्ली दरबार यहाँ सब बिकता है॥

अगर चाहिए लोकतन्त्र की लाश तुम्हें,
सस्ता दूँगा यार यहाँ सब बिकता है॥

 

©  डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल, मुंबई 

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आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (20-21) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

( दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन )

( अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग )

 

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्‌कपिध्वजः ।

प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ।।20।।

 

तब कुरू सेना को सजी और व्यवस्थित देख

उद्यत लड़ने पार्थ भी हुआ धनुष्य सहेज।।20।।

 

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।

अर्जुन उवाचः

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।।21।।

 

तभी कहा श्री कृष्ण से अर्जुन ने यह वाक्य

अर्जुन ने कहा-

अच्युत,रथ को ले चलो सेना मध्य तत्काल।।21।।

 

भावार्थ :  हे राजन्‌! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंधियों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए॥20-21॥

 

Then, seeing all the people of Dhritarashtra’s party standing arrayed and the dischargeof weapons about to begin, Arjuna, the son of Pandu, whose ensign was that of a monkey, took up his bow and said the following to Krishna, O Lord of the Earth! place my chariot, O Krishna,In the middle of the two armies. ॥20-21॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

vivek1959@yah oo.co.in

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * तलाश एक अदद प्रेमिका की * – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

तलाश एक अदद प्रेमिका की

पिछले कुछ दिनों से श्रीमती जी हमारी साहित्यिक गतिविधियों पर जरूरत से ज्यादा नजर रखने लगीं थीं । उनकी पैनी निगाहैं न जाने हमारे किस अन किये अपराध को ढूंढने में लगी रहती थीं। जब उन्हें कुछ समझ नहीं आया तो आखिर एक दिन मुझसे पूछ ही बैठीं- “क्यों जी, शादी के पूर्व आपकी कोई प्रेमिका थी क्या?”

उनके इस सवाल पर हमने आश्चर्य चकित हो उनकी ओर देखते हुए उनसे ही पूछा – “क्यों, क्या बात है ? आज तुम्हारी तबियत तो ठीक है न।”  “अरे तबियत खराब हो मेरे दुश्मनों की, में सिर्फ यह पूछ रही हूँ कि तुम्हारी कोई प्रेमिका है या नहीं । क्योंकि हमने पिछले दिनों  टी.व्ही. में देखा था जिसमें तुम्हारे  ही जैसे लेखक ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि ये सब लिखने की प्रेरणा मुझे अपनी प्रेमिका से ही मिलती है, पत्नी से नहीं।”

श्रीमती जी के इतने दिनों की जासूसी का रहस्य मुझे आज समझ आया था कुछ देर तो हम चुप रहे फिर एक जोरदार ठहाका लगाया और श्रीमती जी से कहा -“अरी भागवान, उसने जो कहा ठीक ही कहा । प्रेमिका की प्रेरणा से रचनाकार महान हो जाता है किंतु पत्नी की प्रेरणा से अच्छे से अच्छा लेखक भी  आटा, दाल, तेल, घी, शक्कर के प्रपंच में उलझकर सिर्फ आदमी रह जाता है । लेकिन मेरी बन्नो यदि मेरी कोई प्रेमिका होती तो मैं भी  उसकी प्रेरणा से  शादी से पहले श्रंगार रस का कवि एवं शादी के बाद उसकी याद में विरह रस का कवि बनकर कविता के आकाश की ऊंचाइयां नाप रहा होता । दोनों ही स्थिति में मेरी जिंदगी में रस तो होता , लेकिन हमारी किस्मत इतनी अच्छी कहां जो हमें एक प्रेमिका भी नसीब होती । यही तो मेरी बदकिस्मती है तभी तो मैं कवि न बनकर व्यंग्यकार बन गया हूँ,  हाय तुमने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया है । मेरी वर्षों  से सोई हुई तमन्ना  को जगा दिया है अब तुम्हीं बताओ में कैसे प्रेमिका की तलाश करूं।”

श्रीमती ने मुझे कल्पना के सागर  में गोते लगाने से पहले ही यथार्थ के कठोर धरातल पर पटकते हुए कहा – “बस बस बहुत हो गयी आपकी ये रामायण, आप मुझसे ही मेरी सौतन का पता पूछने चले हैं, खबरदार जो ये ख्याल भी अब मन में लाया, नहीं तो आपकी इस रामायण के बाद में अपनी महाभारत की तैयारी शुरू करूं।”

श्रीमती जी के चंडी रूप का ध्यान आते ही हमने उन्हें शांत कर कहा  -“बस देवी जी, फिलहाल महाभारत के ये एपिसोड अभी शुरू मत कीजिये,  दर्शक (यानि हमारे बच्चे) अपने घरेलू महाभारत के दृश्य देख देख कर बोर हो चुके हैं।”

हमारे दिमाग में प्रेमिका ढूढ़ने का कीड़ा कुलबुलाने लगा।  बस क्या था हम घर से थोड़ा सज संवर कर निकले, कालोनी में प्रेमिका ढूंढना बेकार था क्योंकि बहुत जल्दी पोल खुलने की संभावना रहती है और वैसे भी कालोनी की प्रायः सभी खूबसूरत विवाहित- अविवाहित कन्यायें हमें अंकल जी के लेबिल से नवाज चुकी  हैं । अतः हमने  अपना प्रेमिका ढूंढो अभियान कालोनी के बाहर से ही प्रारंभ किया । सड़क पर हर आती जाती लड़की में  मैं अपनी प्रेमिका की छवि ढूढ़ने लगा ।

दो तीन दिन में यहां से वहां भटकता रहा, बहुत सी प्रेमिकाएं नजर आईं लेकिन वे सब किसी और  की थीं , मेरी कोई भी प्रेमिका नजर नहीं आ रहीं  थीं । एक दिन मेरे मित्र ने मुझे सलाह दी कि यार क्या तुम यहाँ से वहां भटकते फिर रहे हो । अरे प्रेमिका चाहिये तो लड़कियों के  कालेज के पास खड़े हो जाओ, एक ढूढोगे हजार मिलेंगी । हमने अपने मित्र की नेक? सलाह मानकर अपने खिचड़ी बालों  पर हाथ फेर लड़कियों के कॉलेज के पास खड़ा हो  गया । कुछ देर इधर उधर ताकने के बाद  में निराश होकर घर लौटने ही वाला था कि मुझे एक रूपसी बाला नजर आयी जो मेरे नजदीक से इठलाती बलखाती एक तिरछी चितवन और मोनालिसा सी मुस्कान बिखेरती आगे बढ़ गई ।

मेरा दिल अचानक बल्लियों उछला (ऐसा तो श्रीमती जी को शादी के बाद पहली बार देखकर भी नहीं उछला था) और दिल से बस यही आवाज निकली – “यूरेका -यूरेका” यानी पा लिया, पा लिया । और दिल के हाथों हम मजबूर होकर उस रूपसी बाला के पीछे हो लिये, हमारे कदम उस रूपसी के हमकदम होने को बेताब थे और हम ख्यालों में खोये प्रेमिका पा जाने की खुशी में फूले न समा रहे थे तभी हमारे गालों पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद हुआ और हम ख्यालों की दुनिया से निकलकर यथार्थ की सड़क पर जा गिरे और हमारे कानों में ‘मारो साले को’ की आवाजें थोड़ी देर तक गूंजती रहीं और हम पर लातों घूसों की बारिश होती रही ।

हमें जब होश आया तो हम अस्पताल के बिस्तर पर थे और हमारे चारों ओर हमारे परिचितों के साथ ही पुलिस के सिपाही भी थे , उनमें एक खाकी वर्दी वाली महिला पर नजर पड़ी तो हमारे होश पुनः फाख्ता हो गये क्योंकि जिसे हमने समझा था प्रेमिका, वह निकली महिला पुलिस ।

बस जनाब आगे का किस्सा क्या  सुनायें , आप लोग खुद समझदार हैं ।

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

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हिन्दी साहित्य – कविता – ‘शब्द’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

शब्द !
यह जानते हुए भी कि
हर शब्द
हर कविता में फिट नहीं बैठता
ज़िद बस
कवि गण
बिना ढक्कन की
कोने में फेंक दी जाने वाली
खाली बोतल-सी
 कविता में
ऊपर से ठोंकी गई
खुखड़ी की तरह
ठोंकते ही रहते हैं
छवि विहीन
मनचाहे शब्द
और ,
शब्द हैं कि
ठुँक भी जाते हैं
अपनी कमर छिलाकर
कुछ कम नहीं हैं
ये भी
नई चाल की हर कविता पर
लार टपकाते …
थिरक उठते हैं
किसी कामी की तरह
असमय विधुर हुए शब्द !
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

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आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (19) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

( दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन )

( दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का कथन )

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्‌।

नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्‌ ।।19।।

वह स्वर कौरव सैन्य के हदयों को तब चीर

हुआ व्याप्त नभ-धरा पै गहन और गंभीर।।19।।

भावार्थ :   और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात आपके पक्षवालों के हृदय विदीर्ण कर दिए॥19॥

 

The tumultuous sound rent the hearts of Dhritarashtra’s party, making both heaven and earth resound ।।19।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

vivek1959@yah oo.co.in

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – आलेख – * पैसा कमाने के चक्कर में निजी अस्पतालों ने दिया सिजेरियन डिलीवरी को बढ़ावा * – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

पैसा कमाने के चक्कर में निजी अस्पतालों ने दिया सिजेरियन डिलीवरी को बढ़ावा

(सुश्री ऋतु गुप्ता जी  का एक सार्थक, सामयिक  एवं सटीक लेख। सुश्री ऋतु जी ने एक अत्यंत ज्वलंत  समस्या  पर अपने विचार रखे हैं । इस विषय  पर  हमारे साथ ही चिकित्सा जगत से जुड़े लोगों को मानवीय दृष्टिकोण से विचार करने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त मैं यह भी कहना चाहूँगा कि अभी भी  कुछ सम्माननीय चिकित्सक हैं, जो बिना हिम्मत हारे अथक प्रयास करते  हैं ताकि सर्जरी की आवश्यकता न पड़े। हम उनका सादर सम्मान करते हैं।) 

जब मैनें 20 जनवरी रविवारीय दैनिक ट्रिब्यून में एक न्यूज का हैडलाइन पढ़ा कि मोटी कमाई के लिए सिजेरियन डिलीवरी को बढ़ावा दे रहे हैं निजी अस्पताल, मेरे अपने साथ बीती एक-एक घटना मेरी आँखों के सामने तैर गई।आज क्या आज से दस साल पहले भी तो यही तो होता था। तब भी तो सिजेरियन डिलीवरी के नये -नये बहाने खोज लिए जाते थे और बेचारे घरवाले डॉक्टर्स के सामने कुछ बोल नहीं पाते और मजबूरन हाँ भर देते।

मुझे पूरा टाईम हो चुका था  डिलीवरी कभी भी हो सकती थी। एक दिन जब मेरी तबीयत थोड़ा बिगड़ी तो मैं अपने डॉक्टर के पास गई उसने कहा कि तुरंत एडमिट करना पड़ेगा बच्चे ने अंदर ही पॉटी कर ली है।मुझे आर्टिफिशियल दर्द चालू किये गये लेकिन असफल रहे। इंजेक्शन व दवाओं के जरिये कोशिश की जाती रही लेकिन दर्द रूक रहे थे। मैं जब तक होश में थी मुझे याद है कई डाक्टर व स्टाफ के लोग खड़े थे।मेरे कानों में यह शब्द साफ पड़ रहे थे कि बच्चे का सिर नीचे फंस चुका है,ऑपरेशन भी नहीं कर सकते फोरसेप्स डिलीवरी करनी पड़ेगी वो भी जल्दी क्योंकि बच्चे की हार्ट बीट कम होती जा रही हैं।उसके बाद पता नहीं मुझे होश नहीं रहा मालूम नहीं जान बूझ  कर बेहोश किया गया था या फिर दवाओं की ओवरडोज से ऐसा हुआ था। मेरे शरीर का ज्यादातर ब्लड बह चुका था शायद गलत कट लग गया था। मुझे 24घंटों के बाद होश आया। बेटे को 5 दिन तक नर्सरी में डाल दिया गया।बहुत कोशिशों के बाद  ही मेरी तबीयत में कुछ सुधार आना शुरू हुआ।बाद में उन डॉक्टर्स में से हमारे जान पहचान के एक ने बताया कि केस बिगड़ चुका था. दूसरे अस्पताल में शिफ्ट करने की पूरी योजना बना ली थी अगर कुछ झण और देरी होती तो। बाद में पता चला इतने नामी नर्सिंगहोम में भी ज्यादातर डिलीवरी सिजेरियन के चक्कर में ऐसे ही करते हैं। एक बार तो दिल किया कि केस कर दें डॉक्टर पर लेकिन सबूत क्या था कि मुझे यह समस्या नहीं थी। सिजेरियन डिलवरी तो नहीं हो पाई मेरी पर फोरसेप्स डिलीवरी व नाजुक हालत की वजह से कई दिन वहाँ रख पूरा पैसा वसूल लिया।

पिछले एक दशक में एनएचएफएस के अनुसार सिजेरियन डिलीवरी की प्रतिशत दुगुनी हो गई है जो 2005 में 8.5%  थी वह 2016 तक  17.2% पहुंच गई। निजी अस्पतालों में 40% व सरकारी अस्पतालों में 16.44% डिलीवरी सीजेरियन होती हैं। डॉक्टर्स के अनुसार वे बहुत जरूरत पड़ने पर ही ऐसा करते हैं, उनके अनुसार ऐसी कई विभिन्न परिस्थितियों में जैसे यूटरस का मूहँ नहीं खुलना, बी.पी. हाई होना,बच्चे की धड़कन कम होना, गले में गर्भनाल फंसना, बच्चे का, उल्टा या फिर कमजोर होना इत्यादि। लेकिन जो भी है निजी अस्पतालों में नॉर्मल डिलीवरी का इंतजार न कर आननफानन में कुछ ऐसा प्रेशर बना देते हैं कि हार कर घरवाले तैयार हो जाते हैं।

सरकार भी चिंतित है इन सिजेरियन डिलीवरी की वजह से क्योंकि एक तो प्रसूता के शरीर पर इससे गलत असर होता है,दूसरे नॉर्मल डिलीवरी व सिजेरियन डिलीवरी के खर्चे में कई गुणा अंतर है। जहाँ नॉर्मल में दस हजार के आसपास तो सिजेरियन में लगभग पचास हजार के आसपास का खर्चा है।स्वास्थय मंत्रालय ने इन बातों को ध्यान में रखते हुए सीजीएचएस से जूड़े सभी प्राईवेट व सरकारी अस्पतालों के लिए जरुरी कर दिया है कि इस तरह हर दिन हुई डिलीवरी को बोर्ड लगा कर सार्वजनिक करें।

सुप्रीम कोर्ट में भी गुहार लगाई गई है कि कोई ऐसा कानून व नियम निकाले जाये कि बेवजह सिजेरियन डिलीवरी से बचा जा सकें। वैसे भी निजी अस्पतालों पर इल्जाम लगते रहें हैं कि पैसा कमाने के चक्कर में मरीज को जबरदस्ती ज्यादा दिन एडमिट रखते हैं, जबरदस्ती की ज्यादा दवाईयां आदि लिख देते हैं।इन शिकायतों में भी कुछ सुधार हो सकेगा। इसके लिए भी और ज्यादा जागरूक होना पड़ेगा कि प्रेग्नेंसी के दौरान उचित व पौष्टिक डाइट, कैल्शियम, आयरन व अन्य जरूरी विटामिन मिल सके।उचित देखरेख से इन परस्थितियों से बचा जा सकता है। भगवान स्वरूप डॉक्टर्स को भी चाहिए की वे बिना किसी जरूरी वजह ऐसी डिलीवरी करने से बचें। क्योंकि इससे स्वास्थ्य व पैसे दोनों का ही नुकसान हैं। वे अपने इस सम्मानजनक पेशे व ओहदे का ध्यान रखें।

© ऋतु गुप्ता

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हिन्दी साहित्य – कविता – * कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो * – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो

 

तरक्की कहाँ से कहाँ लेके आई

बेफिक्री वाली वो दुनिया भुलाई

सबकुछ तो है पर सुकून खो गया है

कोई फिर से मेरी वो बेफिक्री लौटा दो

कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो

वो चिकनी मिट्टी से पुता घर-आँगन लौटा दो

कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो..

 

रोज बनाती हूँ नए आयाम

भागती हूँ दौड़ती हूँ छूने को ऊँचाइयाँ

गगन चुंबी इमारतों में खुद ही खो जाती हूँ

शाम को लौटकर दो पल सुकून के तलाशती हूँ

सुकून से भरी वो सूखी घास की ठंडी छत

कोई ला सकता हो तो फिर से ला दो

वो चिकनी मिट्टी से पुता घर-आँगन लौटा दो

कोई मुझे……..

 

वो नानी और दादी की परियों की कहानी

राजा रानी के मरने से होती खतम थी

अम्मा की डाँट और दादी की पुचकार

चंदा की रोशनी से जगमग तारों भरी रात

वो तारों को गिनती हुई ठंडी रातें लौटा दो

दादी की कहानियों की सौगातें लौटा दो

कोई मुझे……

 

वो बरसाती अंधेरी रातों में जुगनू का चमकना

वो जुगनू संग आकाश का धरती पे उतरना

बंद कर हथेली में फिर उनको उड़ाना

वो रंग-बिरंगी तितलियाँ के पीछे दौड़ लगाना

वो कोयल की कूक सुन उसको चिढ़ाना

कोई तो कोयल की मधुर कूक फिर सुना दो

वो रंग-बिरंगी तितलियाँ कोई फिर दिखा दो

कोई मुझे……

 

वो घर से निकलते स्कूल की पगडंडी पर

लहलहाते खेत गन्नों के वो फिर से दिखा दो

चलो खाएँ गन्ने खाएँ छीमियाँ मटर की

अपने छोड़ दूजे खेतों की राह फिर दिखा दो

नून मिर्च की चटनी संग चने के फुनगी का साग

भूल गई रसना वो स्वाद फिर चखा दो

बड़ी हो गई हूँ फिर बच्चों सी चोरी सिखा दो

कोई मुझे……..

 

बच्ची थी जब तब ये बड़प्पन था लुभाता

तरह-तरह के सब्जबाग था दिखाता

बताया नहीं इसने कभी

कि गया बचपन न लौटेगा

पाने को इसको कभी फिर मन तरसेगा

फिर न देखूँगी बड़े होने के सपने….2

ले लो सारे सपने वो बेफिक्री लौटा दो

कोई मुझे…….

 

वो बारिश के पानी में घंटों नहाना

वो हल्दी वाले दूध संग माँ की मीठी डाँट खाना

भूल सारी मस्ती माँ के गर्म आँचल में दुबक जाना

और बिना देरी किए माँ का वैद्य से दवाई ले आना

और नहीं कुछ तो वैद्य की वो कड़वी पुड़िया ही लौटा दो

वो चिकनी मिट्टी से पुता घर-आँगन लौटा दो

कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो।

 

जीवन की भाग-दौड़ में जीना ही भूल गई हूँ

माँ के बिन जीते-जीते

बचपन से कितनी दूर आ गई हूँ

नहीं चाहिए ऊँचाई

मुझे रोज की वो ठोकरें लौटा दो

वो गिरकर फूटे घुटनों के

घाव फिर दिखा दो

वो घाव पे हल्दी लगाती माँ की मीठी सी छुवन फिर लौटा दो

कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो

वो चिकनी ……….

 

आज डनलप के मुलायम गद्दे हैं पर नींद रूठ गई

पहले सर्दी में दादी पुआल बिछाती थी

बड़े ही सुकून भरी वो रात होती थी

एक ही रजाई में पुआल के गद्दे पे

सोते थे सभी साथ, होती थी चुहलबाजियाँ

वो पुआल की मीठी सी गरमाहट तो ला दो

नींद वाली सुकून भरी रातें ही लौटा दो

कोई मुझे…….

चिकनी मिट्टी…….

 

दिवाली पे आँगन में मिट्टी के घरौंदे

रंग मिले चूने की सफेदी से थे चमकते

बड़ों की दुनिया से जुदा

दिवाली के दीयों से जगमगाता…

हमें महलों का अहसास था कराता।

वो मिट्टी का घरौंदा फिर से बना दो

उसमें वो राम दरबार की तस्वीर भी सजा दो

कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो

चिकनी मिट्टी से पुता…..

 

बड़ी हो गई हूँ तरक्की भी कर लिया है

कमा के रुपैय्या बैंक बैलेंस भर लिया है

फिरभी

फिर भी आँखें खोजती हैं वो मिट्टी की गुल्लक

जिसमें भरे होते बाबूजी के दिए अठन्नी चवन्नी के सिक्के

मेरे बैंक खातों को कोई वो गुल्लक का पता दो

ले लो चेक मेरे बैंक बैलेंस भी ले लो

फिर से मुझे उस गुल्लक की खनक तो सुना दो

कोई मुझे….

वो चिकनी मिट्टी……

 

© मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️

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