हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 32 ☆ सब को सदा सद्बुद्धि दो ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “सब को सदा सद्बुद्धि दो“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

? हमारे मार्गदर्शक एवं प्रेरणादायी गुरुवर प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी को हिंदी अकादमी, मुंबई द्वारा साहित्य भूषण सम्मान द्वारा सम्मानित किये जाने के लिए ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें? 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 32 ☆

☆ सब को सदा सद्बुद्धि दो 

हे जगत की नियंता सब को सदा सद्बुद्धि दो

सब सदाचारी बनें पारस्परिक सद्भाव हो

मन में रुचि हो धर्म के प्रति सबके प्रति सद्भावना

जगत के कल्याण हित पनपे हृदय में कामना

हो न वैर विरोध कोई किसी से न दुराव हो

प्राणियों और निसर्ग के प्रति सदा पावन भाव हो

जिंदगी निर्मल रहे हो आप की आराधना

बन सके जितना हो संभव सभी के हित साधना

जगत में हर एक से निश्चल सुखद व्यवहार हो

मन में सबके लिए हो करुणा और पावन प्यार हो

उचित अनुचित क्या है करना इसका तो अनुमान हो

हर एक को दो शुभ बुद्धि इतनी सबको इतना ज्ञान दो

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

vivek1959@yahoo.co.in

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#45 – तीन गांठें ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#5 – तीन गांठें ☆ श्री आशीष कुमार☆

भगवान बुद्ध अक्सर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे। बुद्ध समय पर सभा में पहुंचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे। करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी। बुद्ध ने आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में गांठें लगाने लगे।

वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब बुद्ध आगे क्या करेंगे; तभी बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं, अब मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है, जो गाँठें लगाने से पूर्व थी?

एक शिष्य ने उत्तर में कहा, गुरूजी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है, ये वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है। एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं; अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं। पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि बाहर से देखने में भले ही ये बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो ये वही है जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरुप अपरिवर्तित है।

सत्य है !  बुद्ध ने कहा, अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ। यह कहकर बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दुसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा, तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को खोल सकता हूँ?

नहीं-नहीं, ऐसा करने से तो या गांठें तो और भी कस जाएंगी और इन्हे खोलना और मुश्किल हो जाएगा। एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।

बुद्ध ने कहा, ठीक है, अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को खोलने के लिए हमें क्या करना होगा?

शिष्य बोला, इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा, ताकि हम जान सकें कि इन्हे कैसे लगाया गया था, और फिर हम इन्हे खोलने का प्रयास कर सकते हैं।

मैं यही तो सुनना चाहता था। मूल प्रश्न यही है कि जिस समस्या में तुम फंसे हो, वास्तव में उसका कारण क्या है, बिना कारण जाने निवारण असम्भव है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर लोग बिना कारण जाने ही निवारण करना चाहते हैं , कोई मुझसे ये नहीं पूछता कि मुझे क्रोध क्यों आता है, लोग पूछते हैं कि मैं अपने क्रोध का अंत कैसे करूँ? कोई यह प्रश्न नहीं करता कि मेरे अंदर अंहकार का बीज कहाँ से आया, लोग पूछते हैं कि मैं अपना अहंकार कैसे ख़त्म करूँ?

प्रिय शिष्यों, जिस प्रकार रस्सी में में गांठें लग जाने पर भी उसका बुनियादी स्वरुप नहीं बदलता उसी प्रकार मनुष्य में भी कुछ विकार आ जाने से उसके अंदर से अच्छाई के बीज ख़त्म नहीं होते। जैसे हम रस्सी की गांठें खोल सकते हैं वैसे ही हम मनुष्य की समस्याएं भी हल कर सकते हैं।

इस बात को समझो कि जीवन है तो समस्याएं भी होंगी ही, और समस्याएं हैं तो समाधान भी अवश्य होगा, आवश्यकता है कि हम किसी भी समस्या के कारण को अच्छी तरह से जानें, निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा। महात्मा बुद्ध ने अपनी बात पूरी की।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -12 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 12 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

मेरी एम.ए. की पढ़ाई ज़ोरों से चल रही थी। लेकिन मुझे प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण हुए बिना एम.ए. में प्रवेश नहीं मिलने वाला था। दीदी ने मुझसे पूरी तैयारी करवा ली और मैं प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण हो गई। मेरे मन में मिश्रित भावनाएं थी। एक तरफ जिज्ञासा और खुशी, तो दूसरी तरफ पढ़ाई की जिम्मेदारी। एक तरफ मम्मी पापा के सेहत की बहुत चिंता थी। वैसे देखा जाए तो मुझे और दीदी को यह जिम्मेदारी उठानी थी और हमने वह सफलता से उठाई भी।

नृत्य के पहले दिन की और अभी की पढ़ाई, रियाज में जमीन-आसमान का अंतर था। अब शारीरिक और मानसिक गतिविधि के माध्यम से दर्शकों तक भावनाएं पहुंचानी थी। शारीरिक हलचल मतलब अंग, प्रत्यंग और उपंग। मतलब हाथ, पैर, सिर यह शरीर के अंग; हाथों की उंगलियां, कोहनी, कंधा यह प्रत्यंग और आंख, आंख की पलक, होंठ, नाक, ठोड़ी यह उपांगे। इनके गतिविधि से और मन के भावों से अभिनय को आसान माध्यम से मुझे दर्शकों तक पहुंचाना था। निश्चित रूप से यह मेरे लिए बहुत कठीन था और इसमें बहुत एकाग्रता की जरूरत थी।

नृत्य की शुरूआत के पल में दीदी मुझे स्पर्श से मुद्रा सिखाती थी। उसकी एक संकेतिक भाषा भी निश्चित थी। स्पर्श से मुद्रा जान लेना यह मैंने बहुत आसानी से सीख लिया था और इसकी मैं अभ्यस्त हो गई थी। लेकिन अब मुझे नृत्य का अभिनय कौशल्य, उसकी उत्कृष्टता दर्शकों के मन में अलंकृत होगी ऐसे प्रस्तुत करनी थी और वह भी संगीत के सहयोग से। क्योंकि नृत्य के शुरुआत के पल में बाजू में खड़े हुए व्यक्ति को भी मैं दोनों हाथों की बगल से, सिर्फ उंगली दिखा कर भी पहचान सकती थी। लेकिन अब इन दोनों के साथ मुद्राएं गर्दन, नजर, और  चेहरे के हाव-भाव के साथ, दर्शकों को दिखानी थी। मेरे मामले में नजर का मुद्दा था ही नहीं। मुझे परीक्षक और दर्शक इनको यह चीज बिल्कुल समझ में नहीं आनी चाहिए, ऐसे मेरा अभिनय, नृत्य पेश करना था।

मुझे इस अभ्यास में सबसे ज्यादा पसंद आयी हुई रचना मतलब अभिनय के आधार पर बनी, ‘कृष्णा नी बेगनी बारू’ (कन्नड़-मतलब-कृष्णा तुम मेरे पास आओ) इस पंक्तियों में मुझे यशोदा मां के मन के भाव, मातृभाव, बाल कृष्ण की लीलाएं अभिनय से पेश करना था। इसमें बाल कृष्ण रूठा हुआ है और उसके मनाने के लिए यशोदा मां कभी मक्खन दिखाती है, तो कभी गेंद खेलने बुलाती है। और बाल कृष्ण उसे अपनी लीलाओं से परेशान करता है। आखिर में उसी के मुंह में अपनी माता को ब्रम्हांड का दर्शन करवाता है। यह दोनों भाव अलग अलग तरीके से पेश करना यह मेरे लिए बहुत मुश्किल था। मैंने वह नृत्य में मग्न होकर, पूरे मन के साथ पेश की और उस अभिनय के लिए सिर्फ परीक्षकों ने हीं नहीं अपितु दर्शकोंने की भी बहुत सराहना मिली।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.४॥ ☆

 

आनन्दोत्थं नयनसलिलम्यत्र नान्यैर निमित्तैर

नान्यस तापं कुसुमशरजाद इष्टसंयोगसाध्यात

नाप्य अन्यस्मात प्रणयकलहाद विप्रयोगोपपत्तिर

वित्तेशानां न च खलु वयो यौवनाद अन्यद अस्ति॥२.४॥

 

जहाँ यक्ष जन के नयन मात्र प्रेमाश्रु

को छोड़ आँसू नहीं जानते हैं

प्रिया का मिलन शमन उपचार जिसका

उसी ताप को ताप पहचानते हैं

जहाँ रति कलह के सिवा अन्य कोई

विरह दुख किसी को नहीं व्यापता है

जहाँ और सबकी उमर की अवधि को

अभय एक यौवन सतत नापता है

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 61 – मी एक ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 61 – मी एक ☆

मी एक

असे  आईची आस

बाबांचा श्वास

अंतरीचा

 

मी एक

ताई म्हणे परी

दादाच्या अंतरी

बाहुलीच

 

मी एक

करी प्रयत्न खास

प्रगतीचा ध्यास

अविरत

 

मी एक

राणी आहे सजनाची

माझ्या मनमोहनाची

अखंडीत

 

मी एक

बनली कान्हाची मैय्या

जीवन नैय्या

सानुल्याची

 

मी एक

जरी हातात छडी

मनात गोडी

विद्यार्थ्यांची

 

मी एक

सदा भासते रागीट

प्रेमही अवीट

सर्वांसाठी

 

मी एक

कशी सांगू बाई

सर्वांची माई

योगायोग

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पहाट ☆ श्री प्रकाश लावंड

☆ कवितेचा उत्सव ☆ पहाट ☆ श्री प्रकाश लावंड ☆

     कितीकदा खरडावी

जिण्यावरली  काजळी

किती  टाकू  तराजूत

माझ्या कष्टाच्या ओंजळी

 

सारं आयुष्य टांगलं

असं पासंगाच्या पारी

तरी  पारडं  राहिलं

कायमच  अधांतरी

 

किती भरावा रांजण

त्याची थांबंना गळती

येता येता सुखं सारी

वाऱ्यावरती  पळती

 

जादा मागत नाहीच

मोल कष्टाचं रं व्हावं

शेतामध्ये  राबताना

गाणं सर्जनाचं गावं

 

उत्साहात उगवावी

माझी प्रत्येक पहाट

समाधानानं लागावी

राती धरणीला पाठ

 

© श्री प्रकाश लावंड

करमाळा जि.सोलापूर.

मोबा 9021497977

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – नास्तिक ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

 

 

 

 

☆ जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – नास्तिक ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

रोमाच्या यजमानांच्या गाडीला मोठा अपघात झाला. शर्थीचे प्रयत्न करूनही त्यांचा जीव वाचू शकला नाही. आणि त्यामुळे आज सगळं घरच रोमाकडे ‘खाऊ की गिळू‘ अशा संतप्त नजरेने पहात होते.

“नास्तिक कुठली. माझ्या मुलाला मारून खाऊन टाकलंस तू.”…. रोमाची सासू आक्रोश करत होती, आणि पुन्हा पुन्हा त्या दिवसाचा उद्धार करत शिव्याशाप देत होती. त्या दिवशी रोमाच्या लग्नानंतर पहिल्यांदाच आलेल्या ‘कडवा चौथ‘ या व्रताबद्दल तिने रोमाला सांगितलं होतं की – ” सूनबाई, उद्या तुला हे व्रत पाळायचे आहे. चंद्रोदय होई – पर्यंत तू पाणीही प्यायचे   नाहीस”.

रोमाला त्यासारख्या सगळ्या चालीरीती माहिती होत्या. ती व्यवहारदक्षही होती. पण तिच्या शिक्षणाने तिला वैज्ञानिक दृष्टिकोन दिला होता. त्यामुळे प्रत्येक गोष्टीच्या बाबतीत, ती गोष्ट योग्य की अयोग्य याचा विचार करणं हा तिचा स्वभावच झाला होता. त्यामुळे तेव्हा तिने सासूला सांगितलं होतं की…”सासूबाई, माझ्याच्याने इतकं कठीण व्रत केलं जाणार नाही. त्यातून मला पित्ताचाही त्रास आहे. पूर्ण दिवसभर मी पाणीही प्यायले नाही तर माझी तब्बेत बिघडेल”

“हे बघ, हे व्रत तुझ्या नवऱ्याला दीर्घायुष्य लाभावे यासाठी आहे”.

“सासूबाई, मी व्रत केल्याने यांचं आयुष्य कसं वाढू शकेल?”… रोमाने त्यांनाच प्रतिप्रश्न केला होता.

“हे बघ सूनबाई, कितीतरी शतकांपासून हा रिवाज चालत आलेला आहे”

“असेलही. पण मी अशी थोतांड मानत नाही. जन्म मृत्यू आधीच ठरलेले असतात. आणि तुम्ही म्हणता तसे होत असते ना, तर हे व्रत करणाऱ्या देशातल्या सगळ्या बायका कायम सौभाग्यवतीच राहिल्या असत्या.”

रोमाच्या या युक्ती – वादापुढे तिची सासू त्यावेळी काहीच बोलू शकली नव्हती. पण आज मात्र फक्त सासूच नाही, तर इतर सगळेच रोमाला दोषी ठरवत होते.

… आणि रोमा आजही हाच विचार करत होती की…. ‘मान्य आहे मी ते व्रत केलं नाही. पण सासूबाई तुम्हीतर किती वर्षांपासून मुलांसाठी कसली कसली व्रते करता आहात. आणि वड पौर्णिमाही करता आहात ना ?…..”

 

मूळ हिंदी कथा : डॉ. लता  अग्रवाल

अनुवाद :  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ अंगण ☆ सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे

सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे

परिचय

बी.एससी, बीएड. २१ वर्षे हायस्कूल मध्ये नववी दहावी ला बीजगणित व सायन्स विषय शिकवले. मुख्याध्यापिका म्हणून निवृत्त झाले.

बोर्डाच्या बीजगणित परीक्षक व शास्त्र प्रात्यक्षिक परीक्षा परीक्षक एसएससी बोर्ड सेंटर कंडक्टर तीन वर्षे

छंद  वाचन, लेखन व पर्यटन

दरवर्षी दोन तीन दिवाळी अंकात कथा छापून येतात

☆ विविधा ☆ अंगण ☆ सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे ☆ 

ये ग ये ग चिऊताई! बाळाच्या अंगणी! तुला देईल चारा पाणी! माझी सोनुली राणी! असं म्हणताच माझा ५ वर्षांच्या नातवाने विचारले अंगण‌ म्हणजे काय ग आजी? फ्लॅटमध्ये रहात असल्यामुळे प्रश्न पडणे स्वाभाविकच.

अंगण म्हणजे काय हे सांगताना मी बालपणी अंगणात रमून गेले.

अंगण म्हणजे घराची शोभा. अंगणातील तुलसी  वृंदावन म्हणजे घराचं पावित्र्य. रेखीव रांगोळी काढलेल्या तुळशी समोर उदबत्तीचा सुगंध दरवळायला.याच अंगणात उंच मोरपिसाची टोपी घालून वासुदेव यायचा,माकडांचा खेळ रंगायच्या.बाहुला बाहुलीचे लग्न अंगणात लागायचे, वरमाई कोण आणि कोणाला वरमाईचा मान कोणाला द्यायचा याचं भांडण अंगणात जुंपायचे. दुपारी मुलींचे गजगे,काचकवडया,टिकरया तर संध्याकाळी मुलांचे  गोटया, विटीदांडू, लगोरी हे खेळ रंगायचे.अबोली चे गुच्छ,तळहाताएवढे जास्वंदीचे फूल, मंजिऱ्या मुळे घमघमणारी तुळस अंगणात असायची. गुढीपाडव्याला गुढी, आषाढीला पालखी सजवून वारी निघायची.नागपंचमीला उंच झोक्याची चढाओढ चालायची. अंगणात हंडी फोडली जायची. काल्याचा प्रसाद खायचा काय सुरेख चव असायची काल्याची!

नवरात्रात फेर धरून हादगा चालायचा, उंच स्वरात हादगा गाणी चालायची. खिरापत हातात पडताच मुली शेजारच्या अंगणात धावत जात.

दिवाळीत किल्ला तयार करून त्यावर शिवाजी महाराज विराजमान व्हायचे. सर्व मुले आपल्या घरातील मावळे किल्ल्यावर उभे करायचे व किल्ला सजवायचे.

उन्हाळ्यात अंगणात पथारी पसरून गप्पा.विनोद, गाणी यांना ऊत यायचा.. मन भरलं की रातराणीचा,मोगरयाचा सुगंध घेत झोपी जायचं.

मी अंगणाच्या आठवणीत एवढी रमून गेले की “आजी मला दूध दे ना गं!” असे तो म्हणताच मी एकदम भानावर आले.

 

©  सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे

पुणे

मो. ९९६०२१९८३६

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ कुत्रा छंद नव्हे संगत – भाग-2 ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

 ☆ पुस्तकावर बोलू काही ☆ कुत्रा छंद नव्हे संगत – भाग-2 ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई ☆ 

“कुत्रा छंद नव्हे संगत “पुस्तकाचे अंतरंग  भाग २

पहिल्या प्रकरणात कुत्रा आणि माणसाचा संबंध कसा आहे याचे दाखले दिले आहेत. वेदकाळात सरमा ही इंद्राची कुत्री आणि शामला आणि अबला ही तिची दोन पिल्ल.तसेच  धर्मराजाचे श्वानप्रेम, दत्तात्रेयांजवळचे चार कुत्रे, शिवाजी महाराजांच्या वाघ्याची स्वामिनिष्ठा, शाहू महाराजांचा खंड्या अशी कुत्र्याबद्दलची आदरणीय उदाहरणे त्यांनी सांगितली आहेत. त्याचप्रमाणे  युद्धभूमीवर काम करणारी  श्वानपथके ,त्यांचे पराक्रम , पोलिसांना गुन्हेगार पकडण्यात मदत करणारे, अनेक ठिकाणी हेरॉईन  स्फोटकांचा शोध घेणारे, मेंढ्यांच्या कळपावर राखण करणारे अशी  कुत्र्यांच्या महती ची अनेक उदाहरणे त्यांनी दिली आहेत, चर्चिल यांचे लिखाण लॉर्ड बायरनच्या कविता श्वानाच्या सानिध्यातच झालेल्या आहेत.

कुत्रा घरात आणताना निवड कशी करावी , घराचा आकार, पाळण्याचा हेतू, आरोग्य कसे राखावे, शिक्षण कसे द्यावे, वेगवेगळ्या कुत्र्यांच्या जाती, रंग, बांधा, रुप, स्वभाव यासह माहिती त्यांनी आपल्या पुस्तकात सोप्या पद्धतीने सांगितली आहे. हाॅलीवुड मधील कोली जातीचा लसी कुत्रा कसा श्रीमंत झाला त्याचे रसदार वर्णन केले आहे.

श्वान प्रदर्शनांना  सुरुवात कशी झाली, केंनेल क्लब मध्ये कुत्र्यांच्या कुटुंबाचा इतिहासात कशी नोंद होते ,स्पर्धेचे परीक्षक कसे गुण देतात त्यांचे फॅन्सी ड्रेस, सगळ्या गोष्टींप्रमाणेच श्वान प्रदर्शन  का  भरवली जातात, त्यांचे फायदे काय, हेही सांगितले आहे. पुस्तकात त्यांनी आपल्या प्रिन्स ला शिकविताना चे फोटो व अनेक जातींच्या कुत्र्यांचे फोटो दिले आहेत.

युद्धभूमीवर अनेक सैनिकांचे प्राण वाचविण्याचे पराक्रम केलेल्या कुत्र्यांची नावे आणि मर्दूमकीही वर्णन केली आहे. त्याचप्रमाणे पोलीस खात्यातही जिथे पोलीस शोध घेऊ शकत नाहीत, तेथे कुत्रा कशी मदत करतो याची उदाहरणे वाचताना तोंडात बोट घातले जाते.

कुत्र्यांचे आजार त्यावर पथ्य आणि होमिओपाथी ची औषधे ही त्यांनी सांगितली आहेत. पुस्तकाच्या शेवटच्या प्रकरणात अनेक श्वान प्रेमींचे प्रश्न आणि त्यावर दिलेली उत्तरे यातून कितीतरी माहितीचे भांडार मिळते.

श्वान धर्माच्या उदाहरणाचा भाग पुढील भागात

क्रमशः….

©  सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

बुधगावकर मळा रस्ता, मिरज.

मो. ९४०३५७०९८७

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 85 ☆ अहं बनाम अहमियत ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख अहं बनाम अहमियत।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 85 ☆

☆ अहं बनाम अहमियत ☆

अहं जिनमें कम होता है, अहमियत उनकी ज़्यादा होती है… यह उक्ति कोटिशः सत्य है। जहां अहं है, वहां स्वीकार्यता नहीं; केवल स्वयं का गुणगान होता है; जिसके वश में होकर इंसान केवल बोलता है; अपनी-अपनी हाँकता है; सुनने का प्रयास ही नहीं करता, क्योंकि उसमें सर्वश्रेष्ठता का भाव हावी रहता है। सो! वह अपने सम्मुख किसी के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। इसका मुख्य उदाहरण हैं… भारतीय समाज के पुरुष, जो पति रूप में पत्नी को स्वयं से हेय व दोयम दर्जे का समझते हैं और वे केवल फुंफकारना जानते हैं। बात-बात पर टीका-टिप्पणी करना तथा दूसरे को नीचा दिखाने का एक भी अवसर हाथ से न जाने देना… उनके जीवन का मक़सद होता है। चंद रटे-रटाये वाक्य उनकी विद्वता का आधार होते हैं; जिनका वे किसी भी अवसर पर नि:संकोच प्रयोग कर सकते हैं। वैसे अवसरानुकूलता का उनकी दृष्टि में महत्व होता ही नहीं, क्योंकि वे केवल बोलने के लिए बोलते हैं और निष्प्रयोजन व ऊलज़लूल बोलना उनकी फ़ितरत होती है। उनके सम्मुख छोटे-बड़े का कोई मापदंड नहीं होता, क्योंकि वे अपने से बड़ा किसी को समझते ही नहीं।

हां! अपने अहं के कारण वे घर-परिवार व समाज में अपनी अहमियत खो बैठते हैं। वास्तव में वाक्-पटुता व्यक्ति-विशेष का गुण होती है। परंतु आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु का सेवन हानिकारक होता है। अधिक नमक के प्रयोग से उच्च रक्तचाप व चीनी के प्रयोग से मधुमेह का रोग हो जाता है। वैसे दोनों ला-इलाज रोग हैं। एक बार इनके चंगुल में फंसने के पश्चात् मानव इनसे आजीवन मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। उसे तमाम उम्र दवाओं का सेवन करना पड़ता है और वे अदृश्य शत्रु कभी भी उस पर किसी भी रूप में घातक प्रहार कर जानलेवा साबित हो सकते हैं। इसलिए मानव को सदैव अपनी जड़ों से जुड़ाव रखना चाहिए और कभी भी बढ़-चढ़ कर नहीं बोलना चाहिए। यदि मानव में विनम्रता का भाव होगा, तो वे बे-सिर-पैर की बातों में नहीं उलझेंगे और मौन को अपना साथी बना यथासमय, यथास्थिति कम से कम शब्दों में अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति करेंगे। बाज़ारवाद का भी यही सिद्धांत है कि जिस वस्तु का अभाव होता है, उसकी मांग अधिक होती है। लोग उसके पीछे बेतहाशा भागते हैं और उसकी उपलब्धि को मान-सम्मान का प्रतीक स्वीकार लेते हैं। इसलिए उसे प्राप्त करना उनके लिए स्टेट्स-सिंबल ही नहीं; उनके जीवन का मक़सद बन जाता है।

आइए! मौन का अभ्यास करें, क्योंकि वह नव- निधियों की खान है। सो! मानव को अपना मुंह तभी खोलना चाहिए, जब उसे लगे कि उसके शब्द मौन से बेहतर हैं, सर्वहितकारी हैं, अन्यथा मौन रहना ही श्रेयस्कर है। मुझे स्मरण हो रहा है रहीम जी का दोहा ‘ऐसी वाणी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, खुद भी शीतल होय’ में वे शब्दों की महत्ता व सार्थकता पर दृष्टिपात करते हुए, उनके उचित समय पर प्रयोग करने का सुझाव देते हैं। यह कहावत भी प्रसिद्ध है ‘एक चुप, सौ सुख’ अर्थात् जब तक मूर्ख चुप रहता है, उसकी मूर्खता प्रकट नहीं होती और लोग उसे बुद्धिमान समझते हैं। सो! हमारी वाणी व हमारे शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। इसलिए केवल शब्द ही नहीं, उनकी अभिव्यक्ति की शैली भी उतनी ही अहमियत रखती है। हमारे बोलने का अंदाज़ इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। परंतु यदि आप मौन रहते हैं, तो समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त रहते हैं। इसलिए संवाद जहां हमारी जीवन-रेखा है; विवाद संबंधों में विराम अर्थात् विवाद शाश्वत संबंधों में सेंध लगाता है तथा उस स्थिति में मानव को उचित-अनुचित का लेशमात्र भी ध्यान नहीं रहता। अहंनिष्ठ मानव केवल प्रत्युत्तर व ऊल-ज़लूल बोलने में विश्वास करता है। इसलिए विवाद उत्पन्न होने की स्थिति में मानव के लिए चुप रहना ही कारग़र होता है। इन विषम परिस्थितियों में जो मौन रहता है, उसकी अहमियत बनी रहती है, क्योंकि गुणी व्यक्ति मौन रहने में ही बार-बार गौरवानुभूति करता है। अज्ञानी तो वृथा बोलने में अपनी महत्ता स्वीकार फूला नहीं समाता । परंतु विद्वान व्यक्ति मूर्खों के बीच बोलने का अर्थ समझता है; जो भैंस के सामने बीन बजाने के समान होती है। ऐसे मूर्ख लोगों का अहं उन्हें मौन नहीं रहने देता और वे प्रतिपक्ष को नीचा दिखाने के लिए बढ़-चढ़ कर शेखी बखानते हैं।

सो! जीवन में अहमियत के महत्व को जानना अत्यंत आवश्यक है। अहमियत से तात्पर्य है, दूसरे लोगों द्वारा आपके प्रति स्वीकार्यता भाव अर्थात् जहां आपको अपना परिचय न देना पड़े तथा आप के पहुंचने से पहले लोग आपके व्यक्तित्व व कार्य-व्यवहार से परिचित हो जाएं। कुछ लोग किस्मत में दुआ की तरह होते हैं, जो तक़दीर से मिलते हैं। ऐसे लोगों की संगति से ज़िंदगी बदल जाती है। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो हमें दुआ के रूप में मिलते हैं। ऐसे लोगों की संगति प्राप्त होने से मानव की तक़दीर बदल जाती है और लोग उनकी संगति पाकर स्वयं को धन्य समझते हैं।

‘रिश्ते वे होते हैं/ जिनमें शब्द कम, समझ ज़्यादा हो/ तकरार कम, प्यार ज़्यादा हो/ आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो’…यह केवल बुद्धिमान लोगों की संगति से प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वहां शब्दों का बाहुल्य नहीं होता है, सार्थकता होती है। तकरार व उम्मीद नहीं, प्यार व विश्वास होता है। ऐसे लोग जीवन में वरदान की तरह होते हैं; जो सबके लिए शुभ व कल्याणकारी होते हैं। इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि ‘मित्र, पुस्तक, रास्ता व विचार यदि ग़लत हों, तो जीवन को गुमराह कर देते हैं और सही हों, तो जीवन बना देते हैं।’ वैसे सफल जीवन के चार सूत्र हैं… ‘मेहनत करें, तो धन बने/ मीठा बोलें, तो पहचान/ इज़्ज़त करें, तो नाम/ सब्र करें, तो काम।’ दूसरे शब्दों में अच्छे मित्र, सत्-साहित्य, उचित मार्ग व अच्छी सोच हमें उन्नति के शिखर पर पहुंचा देती है, वहीं इसके विपरीत हमें सदैव पराजय का मुख देखना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है कि परिश्रम, मधुर वाणी, पर-सम्मान व सब्र अर्थात् धैर्य रखने से मानव अपनी मंज़िल पर पहुंच जाता है। इसलिए सकारात्मक बने रहिए, अहंनिष्ठता का त्याग कीजिए, मधुर वाणी बोलिए व सबका सम्मान कीजिए। ये वे श्रेष्ठ साधन हैं, जो हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचाने में सोपान का कार्य करते हैं। सो! सुख अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की… दोनों स्थितियों में उत्तीर्ण होने वाले का जीवन सफल होता है। इसलिए सुख में अहं को अपने निकट न आने दें और दु:ख में धैर्य बनाए रखें… यह ही है आपके जीवन की पराकाष्ठा।

परंतु घर-परिवार में यदि पुरुष अर्थात् पति, पिता व पुत्र अहंनिष्ठ हों, अपने-अपने राग अलापते हों और एक-दूसरे के अस्तित्व को नकारना, अपमानित व प्रताड़ित करना, उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य हो, तो सामंजस्यता स्थापित करना कठिन हो जाता है। जहां पति हर-पल यही राग अलापता रहे कि ‘मैं पति हूं, तुम मेरी इज़्ज़त नहीं करती, अपनी-अपनी हांकती रहती हो। इतना ही नहीं, जहां हर पल उसे नीचा दिखाने का उपक्रम अर्थात् हर संभव प्रयास किया जाए; वहां शांति कैसे निवास कर सकती है? पति-पत्नी का संबंध समानता के आधार पर आश्रित है। यदि वे दोनों एक-दूसरे की अहमियत को स्वीकारेंगे, तो ही जीवन रूपी गाड़ी सुचारू रूप से आगे बढ़ सकेगी, वरना तलाक़ व अलगाव की गणना में निरंतर इज़ाफा होता रहेगा। हमें संविधान की मान्यताओं को स्वीकारना होगा, क्योंकि कर्त्तव्य व अधिकार अन्योन्याश्रित हैं। यदि अहमियत की दरक़ार है, तो अहं का त्याग करना होगा; दूसरे के महत्व को स्वीकारना होगा, अन्यथा प्रतिदिन ज्वालामुखी फूटते रहेंगे और इन असामान्य परिस्थितियों में मानव का सर्वांगीण विकास संभव नहीं होगा। जीवन में जितना आप देते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। सो! देना सीखिए तथा प्रतिदान की अपेक्षा मत रखिए। ‘जो तोको कांटा बुवै, तू बुवै ताहि फूल’ के सिद्धांत को जीवन में धारण करें। यदि आप किसी के लिए फूल बोएंगे, तो आपको फूल मिलेंगे, अन्यथा कांटे ही प्राप्त होंगे। जीवन में यदि ‘अपने लिए जिए, तो क्या जिए/ ऐ दिल तू जी ज़माने में, किसी के लिए’ अर्थात् ‘स्वार्थ का त्याग कर, सबका मंगल होय’ की कामना से जीना प्रारंभ कीजिए। अहं रूपी शत्रु को जीवन में पदार्पण न करने दीजिए ताकि अहमियत अथवा सर्व-स्वीकार्यता बनी रहे। ‘रिश्ते कभी कमज़ोर नहीं होने चाहिएं। यदि एक खामोश है, तो दूसरे को आवाज़ देनी चाहिए।’ दूसरे शब्दों में संवाद की स्थिति सदैव बनी रहे, क्योंकि इसके अभाव में रिश्तों की असामयिक मौत हो जाती है। इसलिए हमें अहंनिष्ठ व्यक्ति के साये से भी दूर रहना चाहिए, क्योंकि विनम्रता मानव का सर्वश्रेष्ठ आभूषण तथा अनमोल पूंजी है। इसे जीवन में धारण कीजिए ताकि जीवन रूपी गाड़ी सामान्य गति से निरंतर आगे बढ़ती रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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