हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 87 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 87 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

गोरी तुझसे  कर रहा, थोड़ी सी मनुहार।

होली का त्यौहार है, खोलो चितवन द्वार।

 

होली के त्यौहार में, छाई ख़ुशी उमंग।

भोले का सब नाम ले , छान रहे हैं भंग।

 

होली का त्योहार है, बना रहे हैं स्वांग।

बम भोले का नाम ले,खूब छानते  भांग।

 

सजनी साजन से कहे, क्यों पी ली है भांग

अंग-अंग फड़कन लगे, क्यों करते हो स्वांग।

 

होली के हर रंग में, मिला प्यार का रंग।

रंग बिरंगी हो गई, लगी पिया के अंग।

 

मन ही मन तुम सोच लो, सजना का है संग

अबीर गुलाल के बिना, चढ़ा प्यार का रंग

 

लाल,लाल हर गाल है, उडत अबीर गुलाल ।

होली के हर रंग में,  मन भी होता लाल ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 77 ☆ कहाँ गई नन्ही  गौरैया ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता  “कहाँ गई नन्ही  गौरैया। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 77 ☆

☆ कहाँ गई नन्ही  गौरैया ☆

कहाँ गई नन्ही  गौरैया

पूछ रहा अब मुनमुन भैया

 

फुदक फुदक कर घर आँगन में

बसे सदा वह सब के मन में

करती थी वो ता ता थैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

 

पेड़ों की हो रही कटाई

जंगल सूखे गई पुरवाई

सूख गए सब ताल-तलैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

 

घर में रौनक तुम से आती

चुगने दाना जब तुम आती

खुश हो जाती घर की मैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

 

हमें अब अफसोस है भारी

सूनी है अब घर-फुलवारी

बापिस आ जा सोन चिरैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

 

तुम बिन अब “संतोष” नहीं है

माना हम में दोष कहीँ है

बदलेंगे हम स्वयं रवैया

घर आ जा मेरी गौरैया

 

रखी है पानी की परैया

बना रखी पिंजरे की छैयां

अब घर आ मेरी गौरैया

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मनिषा खटाटे और इतिहास के साथ पहल! ☆ सुश्री मनिषा खटाटे

सुश्री मनिषा खटाटे

परिचय 

सुश्री मनिषा खटाटे जी एक प्रयोगवादी लेखिका हैं। आपका साहित्य अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है. इस योगदान के लिये ‘रणरागिणी’ पुरस्कार प्राप्त हुआ है. साहित्य और दर्शन तथा मनोविज्ञान का प्रभाव आपकि साहित्यिक कृतियों में स्पष्ट रुप से पाया जाता है. साहित्य से भी सृजनशील मानवता का जन्म हो सकता है. साहित्य भी मनुष्य की आत्मा को प्रकाशित कर सकता है.टिप्पणियाँ इस अवधारणा के साथ सकारात्मक साहित्य की उपज हो सकती है. अज्ञात लेखक की टिप्पणियाँ (उपन्यास), मेरे आयाम की कहानियाँ (कथा संग्रह), मरुस्थल (काव्य संग्रह) प्रकाशनधीन हैं. आपका एक यूट्यूब चैनल भी है.

यूट्यूब लिंक >>>> Maisha Khatate

 ☆ आलेख ☆ मनिषा खटाटे और इतिहास के साथ पहल ! ☆ सुश्री मनिषा खटाटे ☆ 

(सुश्री मनिषा खटाटे जी के उपन्यास ‘अज्ञात लेखक की टिप्पणियाँ’ का एक अंश)

मनिषा खटाटे और इतिहास के संदर्भो के साथ जो पहल हुई वह एक अज्ञात लेखक की आत्मा और मैं के बींच एक ग्रंथालय में हुई. वह ग्रंथालय पुरानी और नयी किताबों की अनंत संभावनाये लेकर खडा था. इतिहास और वर्तमान के कई रहस्य अपने आप में छुपाये हिम्मत से अपनी जडों को संभाल रहा था. वह मुझे पुराने किले की तरह भी छायांकित कर रहा था. उसके तहखाने में प्रवेश करना जैसे समय के अंधेरे में हाथ में दीया लेकर उतना ही देखना है कि जितनी दीये के प्रकाश की आभा है. उन पुरानी किताबों को वर्तमान के दीये तले ही पढना होता है. इतिहास समय के चक्रव्यूह में फँसी हुई मनुष्य के अस्तित्व की एक पहेली हैं. जो अस्तित्व के अर्थ खोजने का अंतहीन, अर्थहीन प्रयास है.

मुझे सामने वाली दीवार पर लटकी हुअी घडी में प्रवेश करके काटों पर सवार होकर समय को पीछे की तरफ धकेलना होता है. मूलस्रोत तक पहँचने की यात्रा में मुझे इतिहास के उन काले पन्नो को भी पढना होता है, जहाँ पर नासमझियों के पहाड खडे है. परंतु, मेरी वेदना यह है की सिर्फ देखने सिवाय हाथों मे कुछ नहीं है. आत्मा पर एक और बोझ चढ जाता है. लेखिका होने के नाते मैं उन पन्नों को मेरी इच्छा के अनुसार लिख भी नहीं सकती. ये स्वतंत्रता सिर्फ मेरी कहानियाँ मुझे देती हैं.

यह पहल मुझे ईसा मसिह की जीवनी का स्मरण करा देती है. उनका पूरा जीवन पुराने  भविष्यवक्ताओं के वचनों को जिंदा करने में बीता. सूली चढने के समय वे बच सकते थे. मगर उनको मसीह होने के अंतिम वचन को सिद्ध करना था. जो पुनरुत्थान के बाद ही हो सकता था. इतिहास भी पुनरुत्थान जैसा है. जो उसके बाद समय पर छा गये. इतिहास की सीमा रेखा पर मृत्यु खडी थी. जो स्वयं की आत्मा का पुनरुत्थान करके अनंत आकाश में छा गया.. इतिहास नियति के द्वारा नियत नही होता है, वह तो संघर्ष तथा युध्द की अमिट गाथाये है. इतिहास में मनुष्य या समाज की जडे खोज सकते हैं मगर इतिहास के काले पन्नो को मिटा नही सकते. इतिहास की किताबों की धूल झटकने के बाद मै के अस्तित्व की शुरुआत नयी चेतना के साथ करनी चाहिये.

इतिहास भी पुनरुत्थान जैसा है. सूली पर चढने के बाद और पुनरुत्थान के बाद वे इतिहास बने और पूरी मनुष्यता पर छा गये. इतिहास की सीमा रेखा पर मृत्यु खडी थी. जो स्वयं की आत्मा का पुनरुत्थान करके अनंत आकाश में छा गयी.

इतिहास पिता के आज्ञा की तरह भी होता हैं, जो उसकी आज्ञा अपने बच्चों के प्रति नियम का काम करती है. आत्मप्रकाश के लिये अपने संतान के लिये त्याग और संघर्ष की मांग करती है. हम इतिहास के पुत्र है, इतिहास की सत्ता के सामने हमारा कोई वजूद नहीं है. हम स्वतंत्र है ऐसा सोचकर हम स्वयं के अस्तित्व के नये नये अर्थ खोजते रहते है. आज्ञा को तोडने के बाद हम सजा के भी हकदार बनते है. इतिहास मनुष्य चेतना की प्रेरणा है, जो साहस बढाने का काम करता है. मैं अपना इतिहास जिंदा रखने के लिये जीती और मरती हूँ. अहिंसा को सिद्ध करने के लिये हिंसा करती हूँ. समानता स्थापित करने के लिये मनुष्यता की बलि लेती हूँ. मै स्वयं से हराने के लिये स्वयं से प्रतिबद्ध हूँ. मेरे सम्मुख मेरे सिवाय कोई नही है. मेरे कदम हर रास्ते पर पडते हैं, हे खुदा कहीं तेरे ऊपर आंच ना आ जाये, मेरा रास्ता देखकर कहीं तू अपना रास्ता ना बदल दे. क्या है तेरे दिल में, बयां कर किसको, क्या मेरे दिल में तू बसता है? क्या यह मै समझूँ कि मेरे दिल से जो आवाज निकलती है, वहीं तुम हो ? क्या ईश्वर के बाद मेरा नाम लिया जायेगा? अगर लिया भी गया तो हे! ईश्वर क्या तुम मेरे आत्मा में बसते नहीं हो?

मनिषा खटाटे इतिहास का एक छोटा सा संदर्भ है. उन संदर्भों के साथ संवाद करने के लिये भाषा ही एकमात्र माध्यम है. परंतु भाषा भी मनुष्य की रचना है. वह माया है. अंतिम सत्य नही है. लेकिन मैं सत्य हूँ! मेरा अस्तित्व भी सत्य है, मेरी संवेदनाओं के साथ, मेरी भावनाये और मेरे विचारों के साथ. दुर्भाग्यवश यह जगत भी सत्य हैं और मनिषा खटाटे भी!

© सुश्री मनिषा खटाटे

नासिक, महाराष्ट्र (भारत)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.२५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.२५॥ ☆

 

उत्सङ्गे वा मलिनवसने सौम्य निक्षिप्य वीणां

मद्गोत्राङ्कं विरचितपदं गेयम उद्गातुकामा

तन्त्रीम आर्द्रां नयनसलिलैः सारयित्वा कथंचिद

भूयो भूयः स्वयम अपि कृतां मूर्च्चनां विस्मरन्ती॥२.२५॥

या मलिन वसना धरे गोद वीणा

मेरे नाममय गीत को उच्च स्वर में

गाने मेरी याद में उमड़ आये

नयनवारि से सिक्त ले वीण कर में

बड़े कष्ट से पोंछकर तार उसके

फिर आलाप कर भूल भरती रुलाई

यों भाव भीनी दशा में तुम्हें मेघ

आलोक में वह पड़ेगी दिखाई .

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कवितेचे झाड… ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक

श्रीमती अनुराधा फाटक

☆ कवितेचा उत्सव ☆ कवितेचे झाड… ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक ☆ 

माझ्या कवितेच्या झाडाला

विचारांच्या शाखा

शब्दांचे गुच्छ बहरती सहज

 

माझ्या कवितेच्या झाडाला

विविध रंगी फुले

रसिकतेची फुलपाखरे

बागडती सभोवती

 

माझ्या कवितेच्या झाडाची मुळे

पसरती रानोमाळ

शोषण्या अनुभवपाणी

 

माझ्या कवितेच्या झाडाचे खोड

प्रतिभेची ओल

साठली तेथे

 

माझ्या कवितेचे झाड

मनाच्या अंगणी

होते निगराणी नकळत

 

असे माझे काव्यझाड

बहरावे सदोदित

हीच माझी प्रार्थना

शारदा मातेला!

 

© श्रीमती अनुराधा फाटक

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 80 – विजय साहित्य – चाहूल ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 80 – विजय साहित्य  ✒ चाहूल ✒ ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

मी सताड उघडे ठेवले आहे

माझ्या घराचे दार.

माझ्यातले अवगुण

दिले आहेत हाकलून.

मी उघडल्यात

घराच्या सर्वच खिडक्या

पहातोय डोकावून

आणि देतोय

घालवून

वळचणीला

थांबलेले

माझ्यातलेच

काही हट्टी

चुकार दोष.

मी करतोय स्वागत

येणाऱ्या पाहुण्यांचे.

संस्कारीत , आणि

संवेदनशील

आचार विचारांचे.

घेतोय चाहूल

माझ्याच…

कलागुणांची ..

प्रसंगी हरवत

चाललेल्या

माणसातल्या

माणुसकीची….!

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कथा – ‘पुरस्कार’ – भाग – 5 ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

☆ जीवनरंग ☆ कथा – ‘पुरस्कार’ – भाग – 5 ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

“कोण टँली करून बघतय” हे सरांचं पालुपद सारखं चालूच होत. शेवटची ‘संकीर्ण ‘  नावाची फाईल होती. सरांची भाषणं, कुटुंब नियोजनाची केस करणं, साक्षरता प्रसार अशा कामांच्या बातम्या, फोटो, शीर्षकासह त्यात होत्या.

“तुम्ही ही जी कार्य करता तिथले फोटो कसे मिळतात?”

“फोटो काढतातच तिथे. एक दोन कॉप्या मागूनच टाकतो. शिपाई बरोबर असतो. तो मोबाईल वरुन फोटो मारतो. क्लार्क बातम्यांच्या चार पाच झेरॉक्स काढून ठेवतो. सगळ्यांना ट्रेनिंग दिलेलं आहे.

“चार पाच झेरॉक्स? त्या कशाला?”

“म्हणजे बघा ,एकच बातमी-उदा. व्रुक्षारोपणाची बातमी शालेय विकास, मूल्य शिक्षण, नवोपक्रम ह्या सगळ्या फाईलीत टाकायची.”

“पण पुरस्काराचे तपासनीस हरकत नाहीत घेणार?”

“हरकत काय घेतात!फायलीचे नि फोटोंचे ढिगारे बघून डोळे दिपतात त्यांचे. कपाटभर कागदं बघून पार चक्रावतात.

“त्यानीन च सगळीकडे माझ्याबद्द्ल सांगितलंय्, “पाकुर्ड्याचे ढेकळे सर म्हणजे अफाट गावचा अचाट माणूस. डोंगरा एव्हढं काम केलय शाळेसाठी. पुराव्यासकट सगळं जिथल्या तिथं. ब्र काढायचं काम नाही.”

“पण एव्हढं सगळं करायला वेळ कसा काढता?निकालही चांगले लागतात बोर्डाचे, शिकवता कधी ?”

“माझा हिंदी विषय,तो सुधरायचं काम टीव्ही, सिनेमे करतात की. माझी सगळी पोरं हिंदीत पास. आता बोर्डपण हिथच. एखादी चक्कर मारायची. अधिकाऱ्यांना द्राक्ष बाग लावायची होती. लाऊन दिली. तोंडं गोड करावी लागतात. गेल्या वर्षी ग्रामीण भागात , मागासवर्गात तिसरा आणला.”फोटो, शीर्षक होतच. ‘शाळेचं भूषण !’

“आता ह्या फायली मी केल्या म्हणता? स्टाफ, पोरं काम करतात. अँडमिनिस्ट्रेशनच कडक आहे.”

“सर, तुम्ही मुख्याध्यापक कधी झालात? ह्या पदावर असल्याशिवाय एव्हढं अवाढव्य काम करणं शक्यच झालं नसतं.”

“नेमणूकच झाली त्या पदावर.” सर अभिमानाने म्हणाले.

कुणाला ठाऊक! आपल्याला ते पद मिळावं म्हणून शाळाच काढली असावी. माझ्या मनात आलं.

“मी परीक्षक असते ना तर तुम्हाला आणखी एक पुरस्कार दिला असता.”

“कोणता?” सर निरागस आशाळभूतपणे म्हणाले.

“प्रयत्न आणि चिकाटी पुरस्कार.” मी दिलखुलासपणे म्हटलं. सरानी माझं बोलणं  भलत्याच गांभीर्याने घेतलं. एक नक्षिदार कागद माझ्यासमोर  ठेऊन ते म्हणाले, “हां. ह्यावर लिहा मजकूर.”

सरांच्या कर्तृत्वपूर्ण कारकिर्दीने मी आधीच पुरती भारावून, भांबावून, चक्रावून वाकले होते. त्यामुळे त्या कागदाकडे दुर्लक्ष  करून मी म्हणाले “राष्ट्रीय पुरस्कारासाठी शुभेच्छा! “हसऱ्या बाईंसकट सर्वांचा निरोप घेऊन मी बाहेर पडले. सुटलेच तिथून.”

“शुभेच्छा लेखी कळवा.” सर हात हलवून मला मोठ्याने सांगत होते.

समाप्त 

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

सांगली

मो. – 8806955070

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆  शिवथर घळ ☆ सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे

सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे

☆ मनमंजुषेतून ☆  शिवथर घळ ☆ सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे☆ 

सह्याद्रीच्या डोंगररांगात अनेक घळी आहेत, अनेक घळींना इतिहास आहे आणि त्या प्रसिद्ध ही आहेत पण सर्वात प्रसिद्धीला आली ती श्री रामदास स्वामींची शिवथरघळ!

महाराष्ट्रातील रायगड जिल्ह्यात, वरंधा घाटाच्या कुशीत ही घळ विराजमान झालेली आहे. ही घळ चारी बाजूंनी हिरव्यागार झाडांनी झाकून गेली आहे. सतराव्या शतकात श्री.रामदासांनी निबीड अरण्यात, निसर्गसंपन्न स्थळी असलेल्या ह्या घळीची ध्यान धारणेसाठी निवड केली. समर्थांनी बावीस वर्षे इथं वास्तव्य केले आणि ह्या घळीतच दासबोधा सारख्या आध्यात्मिक ग्रंथाची निर्मिती झाली. श्री. कल्याणस्वामी नी हा ग्रंथ अक्षरबंद केला. ह्या ग्रंथाद्वारे रामदासस्वामींनी सर्व जाती,पंथ, धर्माच्या स्त्री पुरुषांना उपदेश केला आणि सकारात्मक दृष्टिकोन दिला.शिवराय आणि समर्थ रामदासांची पहिली भेट  ह्याच घळीत झाली.

या घळीत रहाण्या मागचा रामदासांचा ग्रंथनिर्मिती हा एकमेव हेतू नव्हता तर त्यांचा महत्त्वाचा हेतू होता की शिवरायांना स्वराज्य बांधणीत मदत करणे. डोई जड झालेले जावळीचे चंद्रराव मोरे शिवाजी महाराजांची खबर विजापूरला कळवतात, हे ध्यानात येताच समर्थांनी मठा मंदिरा द्वारे जावळी खोऱ्याची संबंध प्रस्थापित केले. तेथील आम जनतेला स्वराज्याच्या बाजुला ओढून घेतले. पुढे शिवाजी महाराजांनी मोर्‍यांचा निपात केला तेव्हा बाजीप्रभू देशपांडे आणि मुरारबाजी हे दोन्ही हिरे शिवाजी महाराजांना गवसले.

अफजलखान  विजापूरहून निघाला त्यावेळी याच घळीतून रामदासांनी शिवबांना निरोप धाडला “केसरी गुहेसमीप मस्तीत चालला”.

“एकांती विवेक करुनी इष्ट योजना करावी.”

समर्थ रामदास स्वामींच्या पदस्पर्शाने पवित्र झालेली भूमी म्हणजे शिवथर घळ.

समर्थानंतर तब्बल अडीचशे वर्षे कुणालाच या घळीची माहिती नव्हती. “रामदास गोसाव्याची गुहा” असं या घळीला म्हटले जायचे. समर्थ साहित्याचे अभ्यासक आणि संशोधक धुळ्याचे शंकरराव देव यांनी काही कागदपत्रांच्या आधारे एकोणीशे तीस साली या घळीचा शोध लावला. नंतर एकोणीसशे पन्नास साली समर्थ सेवा मंडळाची स्थापना झाली. त्यांच्या पुढाकाराने या संपूर्ण जागेचे नूतनीकरण करण्यात आले, पर्यटकांना चढण्यास सोपे जावे म्हणून पायऱ्या बांधून दोन्ही बाजूला लोखंडी रॉड लावले गेले. पायथ्यापासून शंभर पायऱ्या चढून आल्यावर घळीपाशी पोचता येते. घळीत समोरच समर्थांच्या बसण्याची जागा आहे. सुमारे एक हजार चौरस फूट क्षेत्रफळ असलेल्या या घळीत दगड आणि माती यांचं बांधकाम केलेल्या तीन भिंती आहेत. हवा खेळती राहावी म्हणून खिडकी सारख्या पोकळ्या ठेवल्या आहेत. या घळीच्या  बाजूला असलेला धबधबा 100 फुटावरून खाली पडतो, उन्हाळा व हिवाळ्यात या धबधब्याचे पाणी शांत व मनोहरी दिसते. पण पावसाळ्यात हेच पाणी तांडव नृत्य करणाऱ्या शंकराचे रूप घेते.  घळीत आजही शांतता आणि गारवा जाणवतो निसर्गाचा हा गारवा यांत्रिक एअर कंडिशनिंग पेक्षा जास्त गार आहे. या घळीत रामदास स्वामी दासबोध सांगताहेत आणि कल्याण स्वामी लिहून घेत आहेत अशा दोन मूर्ती पहावयास मिळतात.

शिवथर घळ येथे सेवा समितीच्या इमारतीमध्ये राहण्याची सोय होऊ शकते.

समर्थांनी या घळीला “सुंदर मठ असे म्हटले आहे.”

ही जागा अशी आहे की एक वेगळीच मनशांती इथे लाभते. अशी मनशांती मिळण्याचे भाग्य आम्ही सहलीला  गेलो तेव्हा मला लाभली. अशी ही अद्भुत घळ आपणही पहावी म्हणून हा सारा खटाटोप.

।।जय जय रघुवीर समर्थ.।।

©  सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे

पुणे

मो. ९९६०२१९८३६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – क्षण सृजनाचे ☆ जगू नव्याने… ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

☆ क्षण सृजनाचे ☆ जगू नव्याने… ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆ 

काही दिवसांपूर्वी आमच्या ज्येष्ठ नागरिक संघाच्या व्हाट्सअप ग्रुपवर एक व्हिडिओ आला. तो पाहून त्यावर कोणाला काय सुचते ते कवितेच्या स्वरूपात लिहा,असा मेसेज दिला होता.

जवळपास ७५ वर्षानंतर भेटणाऱ्या दोन वृद्ध मैत्रिणी. त्यांचे वय असेल ८०-८५ च्या घरात. शाळेत बालपणी एकत्र खेळल्या, बागडलेल्या मैत्रिणी. इतक्या वर्षांनी भेटल्यावर ‘काय करू अन् काय नको ‘ असे त्यांना झालेले. पण पाठीची कमान झालेली, हातात काठी, तोंडाची बोळकी. उत्साहाने भरभरून आनंद व्यक्त करायला तेवढी शारीरिक क्षमता नाही. पण सतत तोंड भरून हसत हसत पुन्हा पुन्हा हातात हात धरणाऱ्या ‘त्या ‘ मैत्रिणीं ची सगळी देहबोली आनंदाने फुलूनआली होती.

हे चित्र पाहिल्यावर झटकन मन पन्नास-पंचावन्न वर्षे मागे गेले.आठवले ते शाळेतले सुंदर, फुलपाखरी दिवस. शाळेची ती छोटीशी टुमदार इमारत. तिच्या पुढे- मागे मोठी मैदाने. त्यावर खेळणाऱ्या, धावणाऱ्या, चिवचिवणाऱ्या अनेक मैत्रिणी. वेगवेगळे खेळ,वेडी गुपिते, रुसवेफुगवे, मनधरणी आठवून हसू आले.त्यावेळच्या सगळ्या गोड, रम्य आठवणींनी  मनात फेर धरला आणि मनाच्या आतल्या खोल कप्प्यातून शब्दांची लड झरझर उलगडत गेली.व्हिडिओतल्या ‘ त्या ‘ दोन वृद्ध जीवांना जणू नवसंजीवनी मिळाली आणि ते पाहून त्या  निष्पाप निरागस मैत्रीने शब्द रूप घेतले.

☆ जगू नव्याने… ☆

बालपणीच्या दोन सख्या

कित्येक वर्षांनी भेटल्या

एकमेकींना बघताच

खळाळून हसत सुटल्या ||

 

डोईवरी रूपेरी कापूस

तोंडाची झाली बोळकी

हसत हसतच दोघींनी

एकमेकींना दिली टाळी ||

 

ओळखलंच नाही बघ

किती बाई बदललीस!

मला म्हणतेस बयो,

तू कुठं पहिली राहिलीस ?

 

कशा होतो ग आपण

नाजुकश्या कळ्या सुंदर !

एकेक पाकळ्या गळत गेल्या

आयुष्य आहे मोठं बिलंदर ||

 

किती खेळलो भांडलो

रोज नवीनच खोडी !

अजूनही आठवते बघ

चिमणीच्या दातांची गोडी ||

 

कमा, सुमा, नंदू, रंजू

पुन्हा कोणी भेटलेच नाही !

प्रत्येकीची कहाणी वेगळी

ढाचा मात्र एकच राही ||

 

फुलपाखरापरी स्वच्छंदी

माहेरघरात वावरलो !

सासरची रीतच न्यारी

प्रत्येक गोष्टीत बावरलो||

 

भलेबुरे अनुभव घेतले

दुसर्‍यांसाठीच धावलो !

अजूनही झोळी रिकामीच

आधारावरच राहिलो ||

 

जाऊ दे सये,विसर सारं

पुन्हा नव्यानेच भेटूयात !

होय ग बयो,दोघी मिळून

संध्या गीत गाऊयात ||

 

© सौ. ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – मैं नहीं जानता ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – मैं नहीं जानता  ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

बस में कदम रखते ही एक चेहरे पर नज़र टिकी तो बस टिकी ही रह गयी । यह चेहरा तो एकदम जाना पहचाना है । कौन हो सकता है ? सीट पर सामान टिकाते टिकाते मैं स्मृति की पगडंडियों पर निकल चुका था ।

अरे, याद आया । यह तो हरि है । बचपन का नायक । स्कूल में शरारती छात्र । गीत संगीत में आगे । सुबह प्रार्थना के समय बैंड मास्टर के साथ ड्रम बजाता था । परेड के वक्त बिगुल । हर समारोह में उसके गाये गीत स्कूल में गूंजते । हर छात्र हरि जैसा हो ….. अध्यापक उपदेश देते न थकते ।

घर की ढहती आर्थिक हालत उसे किसी प्राइवेट स्कूल का अध्यापक बनने पर मजबूर कल गयी। अपनी अदाओं से वह एक सहयोगी अध्यापिका को भा गया। पर ,,, समाज दोनों के बीच दीवार बन कर खड़ा हो गया । जाति बंधन पांव की जंजीर बनते जा रहे थे। ऐसे में हरि और उस अध्यापिका के भाग जाने की खबर नगर की हर दीवार पर चिपक गयी थी। कुछ दिनों तक तलाश जारी रही थी, कुछ दिनों तक अफवाहों का बाज़ार गर्म रहा था। फिर मेरा छोटा सा शहर सो गया था। हरि और वह लड़की कहां गये, क्या हुआ शहर इस सबसे पूरी तरह बेखबर था। हां, लड़की के पिता ने समाज के सामने क्या मुंह लेकर जाऊं, इस शर्म के मारे आत्महत्या कर ली थी।

मैंने बार बार चेहरे को देखा, बिल्कुल वही था। हरि और साथ बैठी वह महिला? हो न हो वही होगी। अनदेखी प्रेमिका।

चाय पान के लिए बस रुकी तो मैं उतरते ही उस आदमी की तरफ लपका।

– आपका नाम हरि है न?

– हरि ? कौन हरि ? मैं नहीं जानता किसी हरि को।

– झूठ न कहिए । आप हरि ही हैं।

– अच्छा ? आपका हरि कैसा था ? कहां था ?

– हम एक ही स्कूल में पढ़ते थे। याद कीजिए वह शरारतें, वह बैंड बजाना ,,,गीत गाना,,

-नहीं नहीं। मैं किसी हरि को नहीं जानता।

हम बस के पास ही खड़े थे। खिड़की के पास बैठी हुई वह महिला हमारी बातचीत सुनने का प्रयास कर रही थी। उसने वहीं से पुकार लिया -हरि क्या बात है ? क्या पूछ रहे हैं ये ?

अब न शक की गुंजाइश थी और न किसी और सवाल पूछने की जरूरत रह गयी थी।

मैं चलने लगा तो उसने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा – भाई बुरा मत मानना। मैं नहीं चाहता था कि बरसों पहले जिस कथा पर धूल जम चुकी हो उसे झाड़ पोंछ कर फिर से पढ़ा जाये। मैं तुम्हारा नायक ही बना रहना चाहता था पर वक्त ने मुझे खलनायक बना दिया। खैर, जिस हरि को तुम जानते थे वह हरि मैं अब कहां हूं ? उसकी आंखों में नमी उतर आई । शायद खोये हुए हरि को याद करके ….

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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