हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#45 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #45 –  दोहे  ✍

प्यार प्रकट हमने किया, उसने दिया जवाब।

याद दर्द आंसू दिये, बिखराये सब ख्वाब।।

 

आंखें होती चार जब,  जलता प्रेम प्रदीप।

मोती मिलकर जनमते, हो जाते तन सीप।।

 

सुध बुध अपनी भूलकर, खो बैठे सन्यास।

मुनि कौशिक जी ये हुए, रूपराशि के दास।।

 

बादल आकर छा गए, आंखों के आकाश।

मन की धरती सूखती, कौन बुझाए प्यास।।

 

गंध कहीं से आ रही म हक उठा मन देश।

बिखराये हैं आपने, शायद सुरभित केश।।

 

गलत सही जो कुछ कहो, याकि भाव अतिरेक।

जिसको मैं अर्पित हुआ, वह है केवल एक।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#3 – [1] नहीं  [2] मिनिस्टर ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में आज से शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “नहीं “एवं “मिनिस्टर ”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#3 – [1] नहीं  [2] मिनिस्टर ☆

[1]

नहीं

लड़की सयानी हुई तो रिश्तेदारनीउसका रिश्ता लेकर आई। बोलो- पांच भाइयों में से एक बड़े की तरफ लड़की का रिश्ता चलाएँ?

अपनी रिश्तेदारनी की बात सुनकर लड़की बोली- न जी न बुआजी । चार देवरानियां ब्याहते –  ब्याहते बूढ़ी हो जाऊंगी। छोटे से ब्याह रचाएंगी तो भारी भरकम गिफ्ट देने से बचूँगी। सबका प्यार भी पाती रहूंगी, अभी तो किसी तरह भी नहीं।

[2]

मिनिस्टर

लड़की को देखने वाले आए। बोले- आपकी लड़की का होनै वाला ससुर मिनिस्टर है। लड़की दिल्ली रहेगी। नौकरों की फौज रहेगी। अपने हाथ से गिलास भरकर पानी भी नहीं पिएगी ।?

‘मिनिस्टर है कोई युधिष्ठिर नहीं’.. वहाँ तो सच सुनने को तरस जाऊँगी। मुझे तो ऐसा घर चाहिए जहां  मेरी पूछ परख हो। मेरी पाक कला की पूछ हो, घर की नींव खून पसीने की हो। अपनत्व हो…. दिखावटीपन मुझे पसंद नहीं।

लड़के वाले दांत पीसकर रह गये।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -1 ☆  श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

आज से  प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 1 ☆  संजय भारद्वाज ?

 पात्र परिचय

‘एक भिखारिन की मौत’ के कुल 8 स्तंभ हैं। रमेश और अनुराधा पत्रकार हैं। छह अन्य पात्र अलग-अलग क्षेत्र के प्रतिनिधि हैं। रमेश और अनुराधा द्वारा लिए जाने वाले साक्षात्कारों के माध्यम से और इन पात्रों की भूमिका द्वारा शनै:-शनै: कथानक का विकास होता है। कथानक की शीर्ष नायिका ‘भिखारिन’ जिसके इर्द-गिर्द कथा चलती है, मंच पर कहीं नहीं है। कथानक के विकास में सहयोगी बने पात्रों का चरित्र चित्रण करते समय नाटककार की कल्पना में चरित्र कैसा था, इसका वर्णन करना ही इस परिचय का उद्दिष्ट है। इससे नाटककार की कल्पना मंच पर उतारने में निर्देशकों को आसानी होगी। नाटककार के निर्देशक होने का लाभ भी अन्य निर्देशकों को मिल सकेगा।

नज़रसाहब – नज़रसाहब चित्रकार है। आयु लगभग 65 वर्ष। अपने आप में खोया चरित्र। प्रसिद्धि की ऊँँचाइयों पर होते हुए भी प्रसिद्धि की प्यास मरी नहीं है। स्वाभाविक रचनात्मक अहंकार का शिकार। अपने मोह  में दूसरे को महत्व न देने वाला, पत्रकारों को बीच-बीच में टोकते रहने के लिए कहनेवाला पर टोकने पर मना करने वाला, एक खास तरह की सनक ओढ़ा हुआ व्यक्तित्व।

मंच  पर कुर्ता-पायजामा पहने, मेहंदी रंगे लाल से बाल और चेहरे पर उच्चवर्गीय लाली पात्र को बेहतर स्वरूप दे सकती है। उसकी भाषा में उर्दू की बहुतायत और बोलने का ख़ास उर्दू लहज़ा है।

एसीपी भोसले – आयु लगभग 45 वर्ष। पारंपरिक भारतीय पुलिस का पारंपरिक असिस्टेंट कमिश्नर। खुर्राट, बेहद चालाक किस्म का चरित्र। एक ओर मीडिया से गहरी मित्रता का स्वांग करता है तो दूसरी ओर पत्रकारों से बातचीत में बेहद सतर्क भी रहता है। यह उसकी प्रोफेशनल एफिशिएंसी भी है। पुलिसिया चरित्र में वरिष्ठ स्तर का ओढ़ा हुआ काईंयापन उसके चरित्र में है।

वह सरकारी वर्दी में है। उसकी भाषा में उच्चारण में स्थानीय भाषा का पुट रहेगा। नाटककार ने स्थानीय प्रभाव की दृष्टि से मराठी का प्रयोग किया है। अन्य प्रांतों में प्रदेश धर्म के अनुरूप भाषा का परिवर्तन चरित्र को दर्शकों से ज्यादा आसानी से जोड़ सकेगा।

मधु वर्मा – हिंदी फिल्मों में जगह बनाने के लिए संघर्षरत अभिनेत्री। सफलता के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। आयु लगभग 20 वर्ष। निर्माता की इच्छा और सफलता की चाह के बीच व्यावसायिक संतुलन की समझ रखने वाली। स्वाभाविक रूप से आलोचकों से चिढ़ने वाली।

मधु को आधुनिकतम वस्त्रों में दिखाना अपेक्षित है। उसकी भाषा पर अंग्रेजी का बहुत अधिक प्रभाव है। हिंदी के जरिए पेट भरकर अंग्रेजी बोलने वाले कलाकारों का प्रतीक है मधु वर्मा। उच्चारण में हिंदी का कॉन्वेंट उच्चारण उसके चरित्र को जीवंत करने में सहायक सिद्ध होगा।

प्रोफेसर पंत – विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र का विभागाध्यक्ष। आयु लगभग 55 वर्ष। केवल अपनी बात कहने का आदी होने के कारण दुराग्रही चरित्र। ज्ञानी पर अभिमानी। उसके विचारों से असहमति उसे मान्य नहीं होती।

कोट-पैंट, मोटे फ्रेम का चश्मा चरित्र के अनुकूल होगा। प्रोफेसर की भाषा शुद्ध है। कहने का, समझाने का अपना तरीका है। अपनी बात को अपने आग्रहों और अपनी तार्किकता से रखने वाला चरित्र।

रमणिकलाल – एक छुटभैया नेता। आयु लगभग 50 वर्ष। नेताई निर्लज्जता और टुच्चेपन का धनी। प्रचार का ज़बरदस्त भूखा, चरित्रहीन व्यक्तित्व। अख़बार में अपने प्रेस नोट भेजकर उन्हें प्रकाशित देखने की गहरी ललक रखनेवाला, प्रचार के लिए उल-जलूल बेसिर-पैर का कोई भी हथकंडा अपनाने के लिए तैयार।

उसे कुर्ता, पायजामा, टोपी में दिखाया जा सकता है। उसकी भाषा पर देहाती उच्चारण का प्रभाव है। अपेक्षित है कि वह ‘श’ को ‘स’ बोले जिससे उसके चरित्र को उठाव  मिलेगा।

रूबी – पेशे से कॉलगर्ल। आयु लगभग 25 वर्ष। सकारात्मकता का नकाब ओढ़े हुए सारे नकारात्मक चरित्रों के बीच एकमात्र सच्चा सकारात्मक चरित्र है वह। उसके भीतर और बाहर कोई अंतर नहीं है। अपने भोगे हुए यथार्थ के दम पर खड़ी एक ईमानदार पात्र। समाज का काला मुँँह देख चुकी है, अतः समाज के प्रति उसके मन में आक्रोश फूट-फूटकर भरा है। बेबाक बात कहनेवाली। गहरी संवेदनशील।

रूबी की वेशभूषा में स्कर्ट ब्लाउज या स्कर्ट टी-शर्ट अपेक्षित है। उच्चारण में कोई खास पुट नहीं है किंतु भाषा कथित अश्लील है। जिन शब्दों को सभ्य समाज घुमा-फिराकर कहता है, उन्हें वह सीधे-सपाट कहती है। आक्रोश के क्षणों में उसकी भाषा में गालियों का समावेश है।

अनुराधा – रमेश के साथ नाटक की सूत्रधार। समाचारपत्र की उपासंपादिका। आयु लगभग 35 वर्ष। पत्रकारिता की आवश्यकता और अपेक्षा को पूरी करनेवाली। रमेश के साथ तालमेल रखते हुए वह इंटरव्यू सीरीज़ को सफल करने में जुटी है। चूँकि उसे सम्मोहन का ज्ञान है, वह इस नाटक के सारे सूत्र हाथ में रखते हुए मंच पर नायिका के रूप में उभरती है। सम्मोहन के दृश्यों में विविधता लाने उससे अपेक्षित है। उसके चरित्र में मंचन की दृष्टि से ढेर सारे रंग हैं।

अनुराधा की भाषा साफ़ और उसके पेशे के अनुकूल है। हर चरित्र का इंटरव्यू करते समय भिन्न वस्त्रभूषा का प्रयोग किया जा सकता है। सम्मोहन के दृश्यों को दृष्टिगत रखते हुए पोशाकों का चयन करें। संभव हो तो कुछ दृश्यों में सम्मोहन के लिए सायक्लोड्रामा का उपयोग करें।

रमेश – समाचारपत्र का संपादक। पूरे नाटक का प्रधान सूत्रधार। आयु लगभग 40 वर्ष। सुलझा हुआ पेशेवर चरित्र। अपने अख़बार को आगे ले जाने की इच्छा रखने वाला। इस इच्छा के चलते ‘बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा’ का सूत्र अपनाने में उसे कोई हिचक नहीं है। पत्रकारिता के हथकंडों के साथ अपने विषय का ज्ञानी। संपादक के रूप में सामने वाले को पढ़ सकने में समर्थ।

रमेश की भाषा शुद्ध है। चूँकि अनुराधा के साथ लह भी पूरे समय मंच पर है, अत: विविधता की दृष्टि से पोशाकों में परिवर्तन अपेक्षित है। थोड़े बढ़े हुए बाल, दाढ़ी, जींस- कुर्ता, सफारी आदि का प्रयोग किया जा सकता है।

प्रथम अंक

प्रवेश एक

(रंगमंच पर विशेष नेपथ्य की आवश्यकता नहीं है। बाएं भाग में एक मेज, कुर्सी, कैलेंडर आदि लगाकर दैनिक ‘नवप्रभात’ का कार्यालय दिखाया जा सकता है। दाएं भाग में अन्य पात्रों के लिए आवश्यक नेपथ्य इस तरह से लगाया जाए कि पात्रानुसार थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ उसी मंचसज्जा का उपयोग किया जा सके।

रंगमंच पर समतोल बनाए रखने के लिए कुछ पात्रों को बाएं भाग में प्रस्तुत करना भी निर्देशक से अपेक्षित है। पर्दा उठने पर रमेश खबर पढ़ते हुए नजर आता है। वह रंगमंच के अगले हिस्से पर है। उसके लिए एक स्पॉटलाइट का प्रयोग किया जा सकता है।)

रमेश-  कल देर रात अर्द्धनग्न भिखारिन मेन पोस्ट के सामने वाले फुटपाथ पर मरी मिली। आश्चर्यजनक बात यह थी कि लाश के शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था। वह पूरी तौर से…, ऊँ हूँ, ख़बर में दम नजर नहीं आता। किसी और ढंग से लिखा जाए। फिर यह ख़बर फ्रंट पेज पर शॉर्ट न्यूज़ में क्यों? दिस केन बी सेंसेशनल हेडलाइन, न्यूड डेड बॉडी एंड डेड सेंसेटिविटी। …एक नंगी मुर्दा औरत और मुर्दा संवेदनशीलता!  वाह! साला सारे अखबारों की हेडलाइंस को पीछे छोड़ देगी यह ख़बर! हड़कंप मच जाएगा। लोग ‘नवप्रभात’ खरीदने के लिए टूट पड़ेंगे।मुखपृष्ठ पर एक बड़ी सारी तस्वीर होगी उस भिखारिन की। तस्वीर के नीचे शीर्षक होगा, ‘चर्चित भिखारिन की रहस्यमयी नंगी लाश! …चर्चित! ‘ (अनुराधा प्रवेश करती है।)

अनुराधा- हाँँ वह भिखारिन चर्चित तो थी ही। सभ्य समाज में कोई स्त्री योंं अर्द्धनग्न शरीर के ऊपरी हिस्से में बगैर कुछ पहने, कमर पर लिपटे जरा से वस्त्र से खुद को थोड़ा बहुत ढके, वह मुख्य शहर के मुख्य चौक पर भीख मांगने बैठी थी।

रमेश- एक बात समझ में नहीं आती। वह चौक में भीख मांगने बैठी ही क्यों थी?… केवल चर्चित होने के लिए..? पर उसे चर्चा की ज़रूरत ही क्या थी? चर्चा उसकी ज़रूरत तो हो ही नहीं सकती।

अनुराधा- पता नहीं। हो सकता है हाँ, हो सकता है ना। फिर भी ऐसा नहीं लगता रमेश कि सारा समाज कितना स्वार्थी और कितना पत्थर-सा हो गया है। निष्प्राण हैं हम सब। पिछले चार दिनों से यह औरत शहर भर में अपनी नग्नता की वजह से चर्चित रही और इस दौरान किसी ने उसके बदन पर एक टुकड़ा कपड़ा भी नहीं फेंका।

रमेश-  यू आर राइट। संवेदनशीलता का संकट एक कड़वा सच है। हज़ारों लोग गुज़रे होंगे मेनपोस्ट के उस फुटपाथ से जहाँँ वह भिखारिन बैठी थी। कितने ही लोगों ने उसे इस हालत में हाथ फैलाते देखा होगा लेकिन..!

अनुराधा- लेट इट बी। चाय पिओगे रमेश?

रमेश-  पूछने की क्या जरूरत है? पत्रकारों के सबसे ज्यादा रुचि दो ही बातों में होती है। एक, कोई सेन्सेशनल न्यूज़  और दूसरा चाय का प्याला।

अनुराधा- हाँ चाय या कॉफी का प्याला ना हो तो देश और समाज की घटनाओं पर घंटों बुद्धिजीवी चर्चाएँ कैसे होंगी?

रमेश- (चाय पीते हुए) अनुराधा, एक विचार आया है मन में। इस भिखारिन की मौत फिलहाल शहर का सबसे ‘हॉट इशू’ है। क्यों न हम इस पर एक इंटरव्यू सीरीज़ करें!

अनुराधा- कैसी इंटरव्यू सीरीज़?

रमेश- हम शहर के कुछ ऐसे चुनिंदा लोगों का इंटरव्यू करें जिन्होंने इस भिखारिन को वहाँँ उस हालत में भीख मांगते देखा है। अलग-अलग क्षेत्र के अलग-अलग व्यक्तित्व। देखें कि इनडिविजिल रिएक्शन, व्यक्तिगत मत क्या है और सामूहिक प्रतिक्रिया क्या है? हम लगभग एक सप्ताह तक इस सीरीज़ को चला सकते हैं। ‘नवप्रभात’ की ज़बरदस्त चर्चा होगी और अखबार अपने आप ज़्यादा बिकेगा।

अनुराधा- यू आर ए टैलेंटेड एडिटर। ‘नवप्रभात’ को एस्टेब्लिश करने का अच्छा मौका है। लेकिन रमेश कल प्रेस क्लब में पोद्दार मिला था। ‘माय सिटी’ शायद इस मामले पर पाठकों की प्रतिक्रिया इकट्ठा कर रहा है। हाँँ लेकिन एक बड़ा फ़र्क आया है। कल तक वह भिखारिन ज़िंदा थी जबकि आज उसकी मौत के बाद संदर्भ बदल गए हैं।

रमेश- वैसे मेरा विचार कुछ अलग था। हम लोगों का इंटरव्यू तो करें पर….!

अनुराधा- पर…?

रमेश- अनुराधा, मेरी समझ से हर व्यक्ति में एक पशु छिपा है। ख़ासतौर पर जिस विकृत मानसिकता में हमारा समाज जीता है, उसमें यह पशु ज्यादा प्रभावी और हिंसक है।

अनुराधा-  मैं समझी नहीं।

 रमेश- अनुराधा, यह भिखारिन युवा थी, फिर लगभग नग्न। मेरी स्पष्ट समझ है कि जिस किसी ने भी उसे देखा होगा, उसके भीतर का पशु थोड़ी देर के लिए ही क्यों न सही, अनियंत्रित ज़रूर हुआ होगा। सवाल यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने भीतरी पशु के अनियंत्रित होने की बात पत्रकारों के सामने स्वीकार कैसे और क्यों करेगा?

अनुराधा- पर क्या हासिल होगा रमेश?

रमेश- ज़बरदस्त विवाद। इस भिखारिन के बहाने हम समाज के हर वर्ग का चेहरा देखेंगे।.. और मान लो कोई बड़ी हस्ती ‘नवप्रभात’ के खिलाफ गई तो भी लाभ हमें ही होगा। जितना विवाद होगा, उतनी ही चर्चा भी तो होगी। इस इंटरव्यू सीरीज़ से मैं सात महीने पुराने ‘नवप्रभात’ को सत्तर साल पुराने अखबारों के बराबर लाकर खड़ा कर देना चाहता हूँँ।… लेकिन समस्या वही है कि कोई भी व्यक्ति अपने अनियंत्रण का स्वीकार कैसे करेगा?

अनुराधा- (रमेश को सम्मोहित करती है।) यहाँँ देखो… मेरी आँखों में देखो…मेरी आँखों में देखो… मेरी आँखों में देखो… (थोड़े से प्रतिरोध के बाद रमेश सम्मोहित हो जाता है।)

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 22 ☆ व्यंग्य ☆ एवरगिवन इन स्वेज़ ऑफ इंदौर ….. ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “एवरगिवन इन स्वेज़ ऑफ इंदौर…..” । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 22 ☆

☆ व्यंग्य – एवरगिवन इन स्वेज़ ऑफ इंदौर ….. ☆

स्वेजनहर में फंसे एवरगिवन जहाज़ के चालक दल के सभी पच्चीस सदस्य भारतीय अवश्य थे मगर वे इंदौरी नहीं थे. होते तो जाम लगने की वजह भी खुद बनते और खुद ही निकाल भी ले जाते. अपन के शहर में ये ट्रेनिंग अलग से नहीं देना पड़ती, आदमी दो-चार बार खजूरी बाज़ार से गुजर भर जाये, बस. एक इंदौरियन विकट जाम में कैसा भी वाहन निकाल सकता है. डिवाईडरों की दो फीट दीवारों पर से एक्टिवा तो वो यूं निकाल जाता है जैसे मौत के कुएँ में करतब दिखा रहा हो. वो ओटलों, दुकानों में से होता हुआ तिरि-भिन्नाट जा सकता है. जब एक्सिलरेटर दबाता है तब जाम में उसके आगे फंसे वाहनों की दीवार ताश के पत्तों सी भरभरा कर ढह जाती हैं. इस वाले काउंट पे जेंडर इक्वलिटी है, मैडम भी स्कूटी ऐसे ई निकाल लेती है.

आईये आपको घुमाकर लाते हैं. ये देखिये, ये अपन की एवरगिवन है, मारुति सियाज़ और ये है अपन की स्वेज़ नहर, खजूरी बाजार इंदौर. इत्ती पतली नहर और इत्ता चौड़ा एवरगिवन!! निकल जाएगी भिया – सीधी आन दो, डिरेवर तरफ काट के, भोत जगा है, सीधी आन दो. अपन की स्वेज़ नहर में अपन की एवरगिवन डेढ़ इंच भी टेढ़ा होना अफोर्ड नहीं कर पाती. हो जाये तो जो जाम लग जाता है उसमें अपन की वाली को टगबोट लगाकर सीधा नहीं करना पड़ता. वो आसपास से गुजरनेवाली आंटियों की गुस्से भरी नज़र से ही सीधी हो जाती है. गुस्सा क्यों न करें श्रीमान ? एक तो चिलचिलाती धूप में एक हाथ मोबाइल कान पर रखने में इंगेज़ है, दूसरे में मटकेवाली कुल्फी का एक टुकड़ा पिघलकर गिरा गिरा जा रहा है, उपर से जेम्स बॉन्ड का नाती हॉर्न पर हॉर्न बजाये जा रहा है. एक टुकड़ा कुल्फी ही तो सुख है – उड़ती धूल, जहरीला धुआँ, कानफोडू हॉर्न, डीजल और पेट्रोल की बदबू के बीच. ‘सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है’ – शहरयार साहब अब इस दुनिया में रहे नहीं वरना अपने इस सवाल का जवाब उन्हें यहीं मिल जाता.

कहते हैं ताईवान के एवरगिवन के नीचे से रेत निकाली गयी तब जाकर वह हिला. अपन के इधर नीचे गड्ढ़े में रेत भरनी पड़ती है तब जाकर एवरगिवन बाहर आ पाती है. मिस्र देश की नहर में दिक्कत ये है कि पानी गहरा होने के कारण दुकान का काउंटर साढ़े छह फीट आगे तक नहीं निकाला नहीं जा सकता. इधर की स्वेज़ में ये सुविधा है. सुविधाएं और भी हैं – सड़क पे ई होता वेल्डिंग, पंक्चर पकाने की सुविधा, भजिये के ठेले और सांड की टहलकदमी, जुगाड़ के वाहन, बच्चों से लदा-फदा स्कूल-ऑटो, एम्बुलेंस, सूट-टाई में गर्दन पर पैंतीस हारों का बोझ लादे शाकिरमियां की घोड़ी पर पसीने से तरबतर बन्ना और राजकमल बैंड के ‘दिल ले गई कुडी पंजाब दी’ पर झूमते बाराती. बताईये पानी वाली नहर में कहाँ ये सुख है.

चलिये अच्छा उधर देखिये, मैजिक पूरा भरे जाने के लिये बीचोंबीच खड़ा है, इस बीच सामने से आता हुआ दूसरा मैजिक रुक गया है, सवारी को अपने घर के सामने ही उतरना है, वो उतर भी गयी है मगर नाराज़ है. उसका मकान पांच मकान पीछे था, मैजिकवाले ने बिरेक देर से मारा. अब पीछे की ओर ज्यादा चलना पड़ेगा अगले को, पूरे तेरह कदम.

आपके यहाँ गाड़ियों के लिये अलग अलग लेन नहीं होती ? नहीं जनाब, ट्रैफिक के मामले में हम शुरू से ही बे-लेन रेते हेंगे. हम लोग जाम से शिकायत नहीं रखते उसे एंजॉय करते हैं. किवाम-चटनी के मीठेपत्ते का मजा ही कनछेदी की दुकान के सामने बाईक आड़ी टिका के चबाने-थूकने में है, अब जाम लगे तो लगे. मेरिन पुलिस टाइप भी कुछ है नहीं यहाँ. जाम से असंपृक्त वो जो दो पुलिसवाले खड़े हैं रात आठ बजे बाद के जाम का इंतज़ाम मुकम्मल कर रहे हैं. एक के हाथ में रसीद कट्टा है और दूसरे के डंडा. जुगलबंदी कारगर.

ऐसे घनघोर माहौल में कोई इंदौरियन ही वाहन सनन निकाल सकता है, फिर वो स्वेज़ में फंसा एवरगिवन ही क्यों न हो, विकट भिया.

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 44 – पेड़ सभी बन गए बिजूके  … ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “पेड़ सभी बन गए बिजूके … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 44 ।। अभिनव गीत ।।

☆ पेड़ सभी बन गए बिजूके  …  ☆

अध-बहियाँ

पहन कर सलूके ||

धूप , छेद ढूंढती

रफू के ||

 

आ बैठी रेस्त्रां

दोपहरी

देख रही मीनू

टिटहरी

 

हैं यहाँ तनाव

फालतू के ||

 

स्वेद सनी

गीली बहस सी

लहलहा उठी

फसल उमस की

 

पेड़ सभी

बन गए बिजूके ||

 

बादल के श्वेत –

श्याम द्वीपों

गरमी है खुले

अंतरीपों

 

मैके में

मौसमी  बहू के ||

 

इधर -उधर

भटकी छायायें

अब उन्हें कहो

घर चली जायें

 

बादल शौक़ीन

कुंग- फू के ||

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

३०-०३-२०१७

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 90 ☆ परसाई की कलम से …. ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं 9साहित्य में  सँजो रखा है। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। आज प्रस्तुत है विशेष आलेख परसाई की कलम से ….। )  

स्व.  हरीशंकर परसाई 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 90

☆ परसाई की कलम से …. – प्रस्तुति श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

एक सज्जन अपने मित्र से मेरा परिचय करा रहे थे ‘यह परसाईजी हैं। बहुत अच्छे लेखक हैं। ही राइट्स फ़नी थिंग्ज़।’

एक मेरे पाठक (अब मित्रनुमा) मुझे दूर से देखते ही इस तरह की हँसी की तिड़तिड़ाहट करते मेरी तरफ़ बढ़ते हैं, जैसे दीवाली पर बच्चे ‘तिड़तिड़ी’ को पत्थर पर रगड़कर फेंक देते हैं और वह थोड़ी देर तिड़तिड़ करती उछलती रहती है। पास आकर अपने हाथों में मेरा हाथ  ले लेते हैं और ही-ही करते हुए कहते हैं—‘वाह यार, खूब मिले। मज़ा आ गया।’ उन्होंने कभी कोई चीज़ मेरी पढ़ी होगी। अभी सालों में कोई चीज़ नहीं पढ़ी; यह मैं जानता हूँ।

एक सज्जन जब भी सड़क पर मिल जाते हैं, दूर से ही चिल्लाते हैं ‘परसाईजी, नमस्कार ! मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना !’ बात यह है कि किसी दूसरे आदमी ने कई साल पहले स्थानीय साप्ताहिक में’ एक मज़ाक़िया लेख लिखा था, ‘मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना।’ पर उन्होंने ऐसी सारी चीज़ों के लिए मुझे ज़िम्मेदार मान लिया है। मैंने भी नहीं बताया कि वह लेख मैंने नहीं लिखा था। बस, वे जहाँ मिलते ‘मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना’ चिल्लाकर मेरा अभिवादन करते हैं।

कुछ पाठक यह समझते हैं कि मैं हमेशा उचक्केपन और हलकेपन के मूड में रहता हूँ। वे चिट्ठी में मखौल करने की कोशिश करते हैं ! एक पत्र मेरे सामने है। लिखा है—‘कहिए जनाब, बरसात का मज़ा ले रहे हैं न ! मेंढकों की जलतरंग सुन रहे होंगे। इस पर भी लिख डालिए न कुछ।’

बिहार के किसी कस्बे से एक आदमी ने लिखा कि ‘तुमने मेरे मामा का, जो फ़ारेस्ट अफ़सर हैं, मज़ाक उड़ाया है। उनकी बदनामी की है। मैं तुम्हारे खानदान का नाश कर दूँगा। मुझे शनि सिद्ध है।’

कुछ लोग इस उम्मीद से मिलने आते हैं कि मैं उन्हें ठिलठिलाता, कुलाँचें मारता, उछलता मिलूँगा और उनके मिलते ही जो मज़ाक़ शुरू करुँगा तो हम सारा दिन दाँत निकालते गुज़ार देंगे। मुझे वे गम्भीर और कम बोलनेवाला पाते हैं। किसी गम्भीर विषय पर मैं बात छेड़ देता हूँ। वे निराश होते हैं। काफ़ी लोगों का यह मत है कि मैं निहायत मनहूस आदमी हूँ।

एक पाठिका ने एक दिन कहा—‘आप मनुष्यता की भावना की कहानियाँ क्यों नहीं लिखते ?’

और एक मित्र मुझे उस दिन सलाह दे रहे थे—‘तुम्हें अब गम्भीर हो जाना चाहिए। इट इज़ हाई टाइम !’

व्यंग्य लिखने वाले की ट्रेजडी कोई एक नहीं। ‘फ़नी’ से लेकर उसे मनुष्यता की भावना से हीन तक समझा जाता है। मज़ा आ गया’ से लेकर ‘गम्भीर हो जाओ’ तक की प्रतिक्रियाएँ उसे सुननी पड़ती हैं। फिर लोग अपने या अपने मामा, काका के चेहरे देख लेते हैं और दुश्मन बढ़ते जाते हैं। एक बहुत बड़े वयोवृद्ध गाँधी-भक्त साहित्यकार मुझे अनैतिक लेखक समझते हैं। नैतिकता का अर्थ उनके लिए साद गबद्दूपन होता है।

लेकिन इसके बावजूद ऐसे पाठकों का एक बड़ा वर्ग है, जो व्यंग्य में निहित सामाजिक-राजनीतिक अर्थ-संकेत को समझते हैं। वे जब मिलते या लिखते हैं, तो मज़ाक़ के मूड में नहीं। वे उन स्थितियों की बात करते हैं

जिन पर मैंने व्यंग्य किया है, वे उस रचना के तीखे वाक्य बनाते हैं। वे हालातों के प्रति चिन्तित होते हैं।

आलोचकों की स्थिति कठिनाई की है। गम्भीर कहानियों के बारे में तो वे कह सकते हैं कि संवेदना कैसे पिछलती आ रही है, समस्या कैसे प्रस्तुत की गयी—वग़ैरह। व्यंग्य के बारे में वह क्या कहें ? अकसर वह यह कहता है—हिन्दी में शिष्ट हास्य का अभाव है। (हम सब हास्य और व्यंग्य के लेखक लिखते-लिखते मर जायेंगे, तब भी लेखकों के बेटों से इन आलोचकों के बेटे कहेंगे कि हिन्दी में हास्य-व्यंग्य का अभाव है) हाँ, वे  यह और कहते हैं—विद्रूप का उद्घाटन कर दिया,  पर्दाफ़ाश कर दिया है, करारी चोट की है, गहरी मार की है, झकझोर दिया है। आलोचक बेचारा और क्या करे ?

जीवन-बोध, व्यंग्यकार की दृष्टि, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिवेश के प्रति उसकी प्रतिक्रिया, विसंगतियों की व्यापकता और उनकी अहमियत, व्यंग्य-संकेतों के प्रकार, उनकी प्रभावशीलता, व्यंग्यकार की आस्था, विश्वास—आदि बातें समझ और मेहनत की माँग करती हैं। किसे पड़ी है ?

अच्छा, तो तुम लोग व्यंग्यकार क्या अपने को ‘प्राफ़ेट’ समझते हो ? ‘फ़नी’ कहने पर बुरा मानते हो। खुद हँसते हो और लोग हँसकर कहते हैं—मज़ा आ गया, तो बुरा मानते हो और कहते हो—सिर्फ़ मज़ा आ गया ? तुम नहीं जानते कि इस तरह की रचनाएं हलकी मानी जाती हैं और दो घड़ी की हँसी के लिए पढ़ी जाती हैं।

(यह बात मैं अपने आपसे कहता हूँ, अपने आपसे ही सवाल करता हूँ।) जवाब : हँसना अच्छी बात है। पकौड़े-जैसी नाक को देखकर भी हँसा जाता है, आदमी कुत्ते-जैसे भौंके तो भी लोग हँसते हैं। साइकिल पर डबल सवार गिरें, तो भी लोग हँसते हैं। संगति के कुछ मान बने हुए होते हैं—जैसे इतने बड़े शरीर में इतनी बड़ी नाक होनी चाहिए। उससे बड़ी होती है, तो हँसी होती है। आदमी आदमी की ही बोली बोले, ऐसी संगति मानी हुई है। वह कुत्ते-जैसा भौंके तो यह विसंगति हुई और हँसी का कारण। असामंजस्य, अनुपातहीनता, विसंगति हमारी चेतना को छेड़ देते हैं। तब हँसी भी आ सकती है और हँसी नहीं भी आ सकती—चेतना पर आघात पड़ सकता है। मगर विसंगतियों के भी स्तर और प्रकार होते हैं। आदमी कुत्ते की बोली बोले—एक यह विसंगति है। और वन-महोत्सव का आयोजन करने के लिए पेड़ काटकर साफ़ किये जायें, जहाँ मन्त्री महोदय गुलाब के ‘वृक्ष’ की कलम रोपें—यह भी एक विसंगति है। दोनों में भेद, गो दोनों से हँसी आती है। मेरा मतलब है—विसंगति की क्या अहमियत है, वह जीवन में किस हद तक महत्त्वपूर्ण है, वह कितनी व्यापक है, उसका कितना प्रभाव है—ये सब बातें विचारणीय हैं। दाँत निकाल देना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है।

—लेकिन यार, इस बात से क्यों कतराते हो कि इस तरह का साहित्य हलका ही माना जाता है।

—माना जाता है तो मैं क्या करूँ ? भारतेन्दु युग में प्रताप नारायण मित्र और बालमुकुन्द गुप्त जो व्यंग्य लिखते थे, वह कितनी पीड़ा से लिखा जाता था। देश की दुर्दशा पर वे किसी भी क़ौम के रहनुमा से ज़्यादा रोते थे। हाँ, यह सही है कि इसके बाद रुचि कुछ ऐसी हुई कि हास्य का लेखक विदूषक बनने को मजबूर हुआ। ‘मदारी’ और ‘डमरू’, ‘टुनटुन’—जैसे पत्र निकले और हास्यरस के कवियों ने ‘चोंच’ और ‘काग’—जैसे उपनाम रखे। याने हास्य के लिए रचनाकार को हास्यास्पद होना पड़ा। अभी भी यह मजबूरी बची है। तभी कुंजबिहारी पाण्डे को ‘कुत्ता’ शब्द आने पर मंच पर भौंककर बताना पड़ता है कि काका हाथरसी को अपनी पुस्तक के कवर पर अपना ही कार्टून छापना पड़ता है। बात यह है कि उर्दू-हिन्दी की मिश्रित हास्य-व्यंग्य परम्परा कुछ साल चली, जिसने हास्यरस को भड़ौआ बनाया। इसमें बहुत कुछ हल्का है। यह सीधी सामन्ती वर्ग के मनोरंजन की ज़रूरत में से पैदा हुई थी। शौकत थानवी की एक पुस्तक का नाम ही ‘कुतिया’ है। अज़ीमबेग चुगताई नौकरानी की लड़की से ‘फ्लर्ट’ करने की तरकीबें बताते हैं ! कोई अचरज नहीं कि हास्य-व्यंग्य के लेखकों को लोगों ने हलके, ग़ैर-ज़िम्मेदार और हास्यास्पद मान लिया हो।

—और ‘पत्नीवाद’ वाला हास्यरस ! वह तो स्वस्थ है ? उसमें पारिवारिक सम्बन्धों की निर्मल आत्मीयता होती है ?

—स्त्री से मज़ाक़ एक बात है और स्त्री का उपहास दूसरी बात। हमारे समाज में कुचले हुए का उपहास किया जाता है। स्त्री आर्थिक रूप से गुलाम रही, उसका कोई अस्तित्व नहीं बनने दिया गया, वह अशिक्षित रही, ऐसी रही—तब उसकी हीनता का मजा़क़ करना ‘सेफ़’ हो गया। पत्नी के पक्ष के सब लोग हीन और उपहास के पात्र हो गये—ख़ास कर साला; गो हर आदमी किसी-न-किसी का साला होता है। इस तरह घर का नौकर सामन्ती परिवारों में मनोरंजन का माध्यम होता है। उत्तर भारत के सामन्ती परिवारों की परदानशीन दमित रईसज़ादियों का मनोरंजन घर के नौकर का उपहास करके होता है। जो जितना मूर्ख, सनकी और पौरुषहीन हो, वह नौकर उतना ही दिलचस्प होता है। इसलिए सिकन्दर मियाँ चाहे बुद्धिमान हों, मगर जानबूझकर बेवकूफ़ बन जाते हैं। क्योंकि उनका ऐसा होना नौकरी को सुरक्षित रखता है। सलमा सिद्दीकी ने सिकन्दरनामा में ऐसे ही पारिवारिक नौकर की कहानी लिखी है। मैं सोचता हूँ सिकन्दर मियाँ अपनी नज़र से उस परिवार की कहानी कहें, तो और अच्छा हो।

—तो क्या पत्नी, साला, नौकर, नौकरानी आदि को हास्य का विषय बनाना अशिष्टता है ?

—‘वल्गर’ है। इतने व्यापक सामाजिक जीवन में इतनी विसंगतियाँ हैं। उन्हें देखकर बीवी की मूर्खता बयान करना बड़ी संकीर्णता है।

और ‘शिष्ट’ और ‘अशिष्ट’ क्या है ? अकसर ‘शिष्ट’ हास्य की माँग वे करते हैं, जो शिकार होते हैं। भ्रष्टाचारी तो यही चाहेगा कि आप मुंशी की या साले की मज़ाक़ का ‘शिष्ट’ हास्य करते रहें और उसपर चोट न करें वह ‘अशिष्ट’ है। हमारे यहाँ तो हत्यारे ‘भ्रष्टाचारी’ पीड़क से भी शिष्टता बरतने की माँग की जाती है—‘अगर जनाब बुरा न मानें तो अर्ज है कि भ्रष्टाचार न किया करें। बड़ी कृपा होगी सेवक पर’। व्यंग्य में चोट होती ही है। जिन पर होती है वे कहते हैं—‘इसमें कटुता आ गयी। शिष्ट हास्य लिखा करिए।’

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३३॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३३॥ ☆

 

जाने सख्यास तव मयि मनः संभृतस्नेहमस्माद

इत्थंभूतां प्रथमविरहे ताम अहं तर्कयामि

वाचालं मां न खलु सुभगंमन्यभावः करोति

प्रत्यक्षं ते निखिलम अचिराद भ्रातर उक्तं मया यत॥२.३३॥

तुम्हारी सखी का गहन नेह मुझपर

इसे मैं भलीभांति पहचानता हॅू

दशा इस प्रथम विरह में अतः उसकी

यही है हुई,  खूब मैं जानता हॅू

नही यह कि अपनत्व का भाव मुझसे

मेरी प्रियतमा की प्रशंसा कराता

वरन यही प्रत्यक्ष मैने कहा

उसे तुम स्वंय लखोगे शीघ्र भ्राता

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 40 ☆ थेंब … ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 40 ☆ 

☆ थेंब … ☆

थेंबाला माहीत नव्हतं

कुठे कसं पडायचं

आभाळाने सोडल्यावर

कुणाच्या आश्रित व्हायचं…१

 

आला बिचारा खाली

वेग त्याचा मंदावला

असंख्य थेंबात मग

त्याला सहारा मिळाला…२

 

कुणी कुठे कुणी कुठे

याला गटार मिळाली

हवेच्या प्रचंड झोतात

याची दिशा बदलली…३

 

थेंब अवतरण्यापूर्वी

होता शुद्ध, निर्मळ

गटारात पडताच पहा

याच्या भोवती कश्मळ…४

 

सहवास महत्वाचा असतो

आचार तेव्हाच साधतो

जन्माने कुणीच नसतो श्रेष्ठ

कर्माचा वाटा, मोठा ठरतो…५

 

मला इतकेच, सांगायचे

राज हेच होते, खोलायचे

उच नीच श्रेष्ठ नि कनिष्ठ

यातून बाहेर सर्वांनी पडायचे…६

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्याम गझल – त्याच वाटा तीच वळणे ☆ श्री सोमनाथ साखरे

☆ कवितेचा उत्सव ☆ श्याम गझल – त्याच वाटा तीच वळणे ☆ श्री सोमनाथ साखरे ☆ 

 

उधळून रंग काही रिझवून शाम गेली

या कोरडेपणाला भिजवून शाम गेली.

 

गजगामीनी अशी की लय-ताल चालतांना

श्वासात पावलांच्या थबकून शाम गेली.

 

मौनातही सखीच्या भावुक बोल काही

मिटवून अधर ऐसें सुचवून शाम गेली.

 

गुज बोललो गुलाबी कानात मी सखीच्या

ऐकून अनुभवाचे शरमून शाम गेली.

 

आकाश चांदण्यांनी हळुवार गोंदतांना

भारावल्या दिशांना उजळून शाम गेली.

 

ती बावरी सखी की राधाच श्रीहरीची

या सावळ्या घनाला समजून श्याम गेली.

 

गजऱ्यात मोगऱ्याच्या लपवून गंध काही

दिलदार शायराला भुलवून शाम गेली

 

© श्री सोमनाथ साखरे

नाशिक..

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सांजवात…भाग 1 ☆ सुश्री गायत्री हेर्लेकर

सुश्री गायत्री हेर्लेकर

☆ जीवनरंग ☆ सांजवात…भाग 1 ☆ सुश्री गायत्री हेर्लेकर ☆

चप्पल पायात सरकवून.. ज्योती दार  बंद करणार… मनात शंका आली.. गीझर, गॅस,मायक्रो.. सर्व बंद केले ना? आत जाऊन खात्री केली. पर्समध्ये मोबाईल, किल्ली, सॅनिटायझर, आणि हो, चिवडा लाडुचे पुडे घेतलेत हे पण बघितले, मास्क अडकवून घाईघाईने स्कूटर काढली.

आवरायला जरा घाईच झाली होती. ८, १० दिवस स्वाती ताईकडे लग्नाला गेलेली ती.. सकाळच्या फ्लाईटने आली होती. आज एक हे कारण होते, पण हल्ली रोजच असे होते,. आई म्हणजे सासूबाई होत्या तोपर्यंत बरे होते, मागचे काही बघावे लागत नसे. पण मागच्या वर्षी त्या गेल्यापासून जरा ओढाताण च होते. दोन्ही मुले शिक्षणासाठी बाहेर होती, पण सत्येन.. अजिबात मदत नाही. उलट त्याचीच कामे करावी लागतात तशी तिची नोकरीसारखी नोकरी नव्हती म्हणा. आवड म्हणुनच.. समाजसेवा,. ९ मैत्रिणींच्या “नवविधा समुहा” तील संचालिका… कार्याशी कार्यकर्ती, ९ वेगवेगळ्या प्रकारचे सामाजिक उपक्रम… विशेषत: स्त्री समस्यांसंबंधी समूहाने हाती घेतले होते, त्यापैकीच एक ज्येष्ठ नागरिकांसाठी निवृत्तीनिवास.. “सांजवात”. त्याचे कार्यालयीन आणि इतरही सर्वच कामकाज ज्योती बघत असे.

रोजच्याप्रमाणे आधी निवासातुन चक्कर न टाकता ती तडक ऑफिसमध्येच गेली. अपेक्षेप्रमाणे टेबलवर कागदपत्रांचा ढीग होता. कामाला सुरवात करणार तोच माया… तिची मदतनीस आली.

लग्न, प्रवास ई, जुजबी बोलणे सुरु असतांनाच ज्योतीलाच लक्ष मायाच्या हातातील पिवळ्या फाईलकडे गेले.

पिवळी फाईल म्हणजे नविन प्रवेश.

“काय ग माया.. नविन प्रवेशाचा अर्ज?” ज्योती

“ताई,नुसता अर्ज नाही, रहायला सुध्दा आल्यात, दुसर्या मजल्यावरची ती  स्पेशल रुम दिली रेखाताईंनी. तसे अजुन सायरन केले नाही, तुम्ही आल्यावर तुमचा सल्ला घेऊन निर्णय घ्यायचा म्हणत होत्या”

“माझा सल्ला? वेडी झालो के काय रेखा? अग, काही कागदपत्र अपुरी असतील,नाहीतर पैशाचा प्रॉब्लेम ?”

“”नाही हो, तसे काहीच नाही, बघाना फाईल. पण ही केस जरा वेगळीच आहे असे त्या अन् सुरेशदादा म्हणत होते”.

“अं? वेगळी केस? आहे तरी कोण?” ज्योती

“अनुराधा जोशी आहेत ७०, ७२ वर्षांच्या, पण एकदम छान आहेत हं आजी. अगदी शांत, डिसेंट,. बोलावू का त्यांना? का आपणच जाऊया खोलीत?

“माया अनुराधा जोशी… नाव ऐकुन ज्योती जरा चपापली, नावासारखी नावे खुप असतात. असतील दुसर्या कोणीतरी, तेवढ्यात मायाने फाईल समोर ठेवली, नावासारखे नाव अस शकते असे जरी ज्योतीला वाटले तरी फाईल ऊघडल्यानंतर अर्जावर.. नांव ::अनुराधा गोविंद जोशी दाखल करणार्यांना नाव:: नंदन गोविंद जोशी दोघांचे फोटो, आधार कार्ड पाहिल्यावर ज्योतीला धक्काच बसला.

डॉक्टर सर्टिफिकेट, शिफारसपत्र, हमीपत्र, सर्व व्यवस्थित,अन् चेक तोही २५ लाख रुपयांचा तिची खात्रीच पटली.

तेवढ्यात फोन, रेखाचाच, नेहमीचा ऊत्साही आवाज “हाय ज्यो! कशी आहेस? स्वातीताईनी बुंदीचे लाडू, चिवडा दिलाय ना माझ्यासाठी? पण sorry हं, मला यायला, जरा उशीर होईल, आल्यावर सापडते”

ज्योतीकडुन काहीच प्रतिसाद नाही म्हणुन पुढे तीच, “ज्यो…फाईल बघितली? पण Please don’t get upset तुला त्रास होईल असा कोणताच निर्णय आपण घेणार नाही.

आल्यावर बोलुया detail”.

रेखा आणि ती.. नुसत्याच सहकारी नव्हत्या, तर जीवाभावाच्या मैत्रिणी. म्हणुन ज्योतीचे पुर्वायुष्य बारीकसारीक तपशिलासह तिला माहित होते,. अजुनही धक्क्यातून न सावरल्यामुळे ज्योतीचे…. अर्जाकडे अन् फोटोकडे परतपरत पहाणे सुरुच होते.

©  सुश्री गायत्री हेर्लेकर

201, अवनीश अपार्टमेंट, कोथरुड, पुणे.

दुरध्वनी – 9403862565

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares