हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 2 ☆  संजय भारद्वाज ?

अनुराधा- (रमेश को सम्मोहित करती है।) यहाँँ देखो… मेरी आँखों में देखो…मेरी आँखों में देखो… मेरी आँखों में देखो… (थोड़े से प्रतिरोध के बाद रमेश सम्मोहित हो जाता है।)

अनुराधा- क्या नाम है तुम्हारा?

रमेश- रमेश अय्यर।

अनुराधा- क्या करते हो?

 रमेश- ‘नवप्रभात’ अख़बार का संपादक हूँ।

अनुराधा- उपसंपादक कौन है?

रमेश- अनुराधा चित्रे।

अनुराधा-  कौन?

रमेश-अनुराधा चित्रे।

अनुराधा-  बोलते रहो।

रमेश-  अनुराधा चित्रे, अनुराधा चित्रे, अनुराधा चित्रे। (अनुराधा सम्मोहन समाप्त करती है।)

रमेश- अज़ीब-सा क्या हुआ था मुझे?

अनुराधा- श्रीमान रमेश अय्यर, प्रधान संपादक, ‘नवप्रभात’ को पता होना चाहिए कि अखबार की उपसंपादिका अनुराधा चित्रे को सम्मोहनशास्त्र का अच्छा ज्ञान है। इस ज्ञान को अभी-अभी वह साबित कर चुकी है। यदि संपादक महोदय चाहेें तो इस ज्ञान का उपयोग लोगों के भीतर के पशु को बाहर लाने के लिए किया जा सकता है।

रमेश- फैंटेस्टिक! वाह अनुराधा! सुपर्ब।

अनुराधा- और सुनो। मैंने तुम पर बहुत हल्के सम्मोहन का प्रयोग किया था। हम जिसका इंटरव्यू करेंगे, उस पर इसका गहरा सम्मोहन इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके चलते उसे इंटरव्यू के दौरान पूछी बातें याद आने में सात से आठ दिन का वक्त लग सकता है।

रमेश- इतने वक्त में तो हम सीरिज़ पूरी कर प्रकाशित भी कर देंगे। बस अब देखो, हर तरफ नवप्रभात, नवप्रभात, नवप्रभात।

अनुराधा- ओके रमेश, मैं ऐसे चुनिंदा लोगों की लिस्ट तैयार करती हूँ जिन्होंने उस भिखारिन वहाँँ देखा था। मेरे ख्याल से हम आज दोपहर से इंटरव्यू शुरू कर सकते हैं।

रमेश- राइट। लिस्ट तैयार करके ले आओ। 1:00 बजे निकलते हैं। लंच बाहर कहीं होटल में ले लेंगे।….अरे अनुराधा, कल के  फ्रंट पेज के लिए उस भिखारिन की लाश के चार फोटोग्राफ्स हैं। जरा देख लो, कौन सी डाली जाए। मेरे ख्याल से यह दो तो डाल नहीं सकते, कथित अश्लील हैं।

अनुराधा- यह बैक पॉश्चर डाल देना।

रमेश-  देख लो फिर कहीं अश्लीलता, वल्गैरिटी….।

अनुराधा-  नॉट अट ऑल। फ्रंट पोर्शन को लोग वल्गर मानते हैं और बैक पॉश्चर को आर्ट (हँसती है)। ओके देन, सी यू एट वन ओ क्लॉक, बाय।

रमेश-  (तस्वीर हाथ में है)  शहर की चर्चित भिखारिन की लाश।

प्रवेश दो

(प्रसिद्ध चित्रकार नज़रसाहब का घर है। यहाँँ-वहाँँ बेतरतीब-सा पड़ा सामान। एक ओर दो-तीन कुर्सियाँ। एक तिपाई। बीच में स्टैंड पर लगभग पूरी तैयार एक अर्द्धनग्न महिला की पेंटिंग। तिपाई पर रंग, ब्रश आदि बिखरे पड़े हैं। प्रकाश होने पर रमेश, अनुराधा और नज़रसाहब दिखाई देते हैं। ग़ज़ल का एक रेकॉर्ड बज रहा है।)

अनुराधा- नज़रसाहब, सुना है कि आपकी आने वाली पेंटिंग जिसे आपने ‘खूबसूरत’ नाम दिया है, उस मेनपोस्ट वाली भिखारिन से प्रेरित है।… तो ऐसा क्या था उस भिखारिन में जिसने आपको इतना प्रभावित किया।

नज़रसाहब- यह सच है कि हमारी पेंटिंग ‘खूबसूरत’ मेनपोस्ट वाली भिखारिन से प्रेरित है। दो-चार रोज से अखबारों में उस भिखारिन का चर्चा हो रहा था। नेचुरली हमारे भीतर का चित्रकार भी उसे देखने की तमन्ना करने लगा।

रमेश- तो आपने….

नज़रसाहब-  भाई जब कोई बात कर रहे हों तो पूरा करने दिया करो। बीच में टोकने से मज़ा नहीं आता। हाँ तो क्या कह रहे थे हम?

अनुराधा- उस मेनपोस्ट वाली भिखारिन की चर्चा सुनकर आपके इच्छा होने लगी थी उसे देखने की।

नज़रसाहब-  हूँ….और उस इच्छा के चलते हम एक दिन…. जुमां के पहले वाला दिन था, हाँँ, बृहस्पतिवार की बात है। सो बृहस्पतिवार को हमने फैसला कर लिया उस भिखारिन को देखने का।…… ऐसे मुँँह क्या देख रहे हो तुम दोनों?…. पूछो फिर क्या हुआ?…. एकदम नौसिखिए,  नए-नए जर्नलिस्ट हुए दिखते हो। इंटरव्यू लेते वक्त बीच-बीच में टोकते रहना चाहिए।

रमेश- जी आपने ही तो कहा था कि…. एनीवे, हम जानना चाहेंगे नज़रसाहब कि आपने उस भिखारिन को कब देखा? आई मीन कौन से दिन, किस वक्त, दोपहर, शाम, रात या फिर सुबह?

नज़रसाहब- किबला….(पानदान में पान थूकता है।)  कहा ना कि बृहस्पतिवार के अख़बार में उसके बारे में पढ़ा तो सोच लिया कि आज तो इस बला को देखना ही पड़ेगा। मियाँ दोपहर हो गई थी नहाने-धोने में। तब तक बड़े बेचैन-से रहे हम। लगता रहा कि बस उसे जब तक एक बार देख लेंगे चैन नहीं पड़ेगा। तैयार होकर करीबन दो बजे निकले होंगे घर से। शायद सवा दो बज रहा हो। हो सकता है कि ढाई बजा हो। अबे कमबख़्त वक्त  भी तो ठीक से याद नहीं रहता ना।

रमेश- जब आप मेनपोस्ट पहुँँचे…

नज़रसाहब- ठहरो यार! कोई भी बात पूरी बताने दिया करो। फिर अगला सवाल पूछो….और ये तुम टोका मत करो बीच में। हमारा सारा टोन खराब हो जाता है।.हाँँ तो..

अनुराधा- आप कह रहे थे कि आप की घड़ी में सवा दो बजा था।

नज़रसाहब- हां तो सवा बजे हम घर से निकले। नीचे जाकर टैक्सी के लिए खड़े हो गए। तुम लोग तो जानते ही हो कि आजकल तो टैक्सी भी जल्दी नहीं मिलती। खड़े रहे, खड़े रहे.., खड़े-खड़े तकरीबन आधा घंटा गुज़र गया।

रमेश- तो आधा घंटे बाद आपको टैक्सी मिल गई।

नज़रसाहब- मिलना ही थी। दरअसल उस आधा घंटे में कोई टैक्सी वहाँँ से गुज़री ही नहीं। जो पहली टैैक्सी आई, ख़ुुुद-ब-ख़ुद आकर ठहर गई पास। बड़े अदब से दरवाज़ा खोला बेचारे ने और इज्ज़त से बोला, ‘ तशरीफ़ लाइए नज़रसाहब।’ हम तो भौंंचक्के रह गए। पूछा, ‘मियाँँ, पहचानते हैं आप हमें?’ जानते हैं क्या जवाब दिया उसने? बोला, ‘आपको तो सारा हिंदुस्तान जानता है। इतना भी बेशर्म सिटिजन नहीं हूँ जो आपको न पहचानूँ।  नज़रसाहब को नहीं जाननेवाला हिंदुस्तान को नहीं जानता।’… यह बात ख़ास  तौर पर नोट करें और लिखें अपने परचे में।… और एक और ख़ास बात यह कि टैक्सीवाले ने हमसे पैसे भी नहीं लिए।

रमेश- तो आप पहुँँच गए मेनपोस्ट पर।

नज़रसाहब- पहुँँचना ही था भाई।

रमेश- जब आप की निगाहें पहले पहल उस भिखारिन पर पड़ी तो आपके मन में आई पहली, तुरंत पहली प्रतिक्रिया क्या थी?

नज़रसाहब- एक मिनट मियाँ। इस पेंटिंग के बारे में एक आइडिया आया है, ज़रा उसको पूरा कर लूँ। (पेंटिंग पर  ब्रश से कुछ  स्ट्रोक्स मारता है। रमेश, अनुराधा एक दूसरे को देख कर मुस्कराते हैं। काम पूरा करने के बाद पीकदान में पीक थूँकता है।)

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 94 ☆ ओ मातृभूमि! – डॉ सुधा कुमारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक चर्चा /समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  डा सुधा कुमारी द्वारा लिखित काव्य संग्रह   “ओ मातृभूमि !” – की चर्चा।

ओ मातृभूमि ! – कवि – डा सुधा कुमारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक – ओ मातृभूमि !

(पांच खण्डो में काव्य रचनाओ का पठनीय संकलन)

कवि – डा सुधा कुमारी

पृष्ठ संख्या – १६०

मूल्य  – ४५० रु,  हार्ड बाउंड

ISBN- 9788194860594

प्रकाशक – किताब वाले, दरिया गंज, नई दिल्ली २

रचना को गहराई से समझने के लिये वांछित होता है कि रचनाकार के व्यक्तित्व, उसके परिवेश, व कृतित्व का किंचित ज्ञान पाठक को भी हो, जिससे अपने परिवेश के अनुकूल लिखित रचनाकार का साहित्य पाठक उसी पृष्ठभूमि पर उतरकर हृदयंगम कर आनन्द की वही अनुभूति कर सके,  जिससे प्रेरित होकर लेखक के मन में रचना का प्रादुर्भाव हुआ होता है. शायद इसीलिये किताब के पिछले आवरण पर  रचनाकार का परिचय प्रकाशित किया जाता है. आवरण के इस प्रवेश द्वार से भीतर आते ही भूमिका, व प्राक्कथन पाठक का स्वागत करते मिलते हैं, जिससे किताब के कलेवर से किंचित परिचित होकर पाठक रचनाओ के अवगाहन का मन बनाता है, और पुस्तक खरीदता है. पुस्तक समीक्षायें इस प्रक्रिया को संक्षिप्त व सरल बना देती हैं और समीक्षक की टिप्पणी को आधार बनाकर पाठक किताब पढ़ने का निर्णय ले लेता है. किंतु इस सबसे परे ऐसी रचनायें भी होती हैं जिन पर किताब अलटते पलटते ही यदि निगाह पड़ जाये तो पुस्तक खरीदने से पाठक स्वयं को रोक नहीं पाता. ओ मातृभूमि ! की रचनायें ऐसी ही हैं. छोटी छोटी सधी हुई, गंभीर, उद्देश्यपूर्ण. दरअसल ये रचनायें लंबे कालखण्ड में समय समय पर लिखी गईं और डायरी में संग्रहित रही हैं. लगता है अवसर मिलते ही डा सुधा कुमारी ने इन्हें पुस्तकाकार छपवाकर मानो साहित्य के प्रति अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर उस प्रसव पीड़ा से मुक्ति पाई है जिसकी छटपटाहट उनमें  लेखन काल से रही होगी.

डा सुधा कुमारी में कला के संस्कार हैं. वे उच्चपद पर सेवारत हैं, उनकी बौद्धिक परिपक्वता हर रचना में प्रतिबिंबित होती है.  वे मात्र शब्दों से ही नहीं, तूलिका और रंगों से केनवास पर भी चित्रांकन में निपुण हैं. ओ मातृभूमि में लघु काव्य खण्ड, देश खण्ड, भाव खण्ड, प्रकृति खण्ड, तथा ईश खण्ड में शीर्षक के अनुरूप समान धर्मी रचनायें संग्रहित हैं.

मैं लेखिका को कलम की उसी यात्रा में सहगामी पाता हूं, जिसमें कथित पाठक हीनता की विडम्बना के बाद भी प्रायः रचनाकार समर्पण भाव से लिख रहे हैं, स्व प्रकाशित कर, एक दूसरे को पढ़ रहे हैं. नीलाम्बर पर इंद्रधनुषी रंगो से एक सुखद स्वप्न रच रहे हैं.

लेखिका चिर आशान्वित हैं, वे लिखती हैं ” समानांतर रेखायें भी अनंत पर मिलती हैं, तुम्हारे साथ चलने की वजह यही उम्मीद रखती है “. या “बुद्धिरूपी राम को दूर किया, अनसुनी कर दी तर्क रूपी  लक्ष्मण की, फिर से दुहराई गई कथा , हृदय सीता हरण की. ” अब इन कसी हुई पंक्तियों की विवेचना प्रत्येक पाठक के स्वयं के अनुभव संसार के अनुरूप व्यापक होंगी ही.

देश खण्ड की एक रचना का अंश है.. ” नित्य जब सताई जाती हैं ललनाएँ, या समिधाओ सी धुंआती हैं दुल्हने तो चुप क्यों रह जाते हो ? तुमने पाषाण कर दिया अहिल्या को ” नारी विमर्श के ये शब्द चित्र बनाते हुये डा सुधा की नारी उनकी लेखनी पर शासन कर रही दिखाई देती है.

ओ मातृभूमि, पुस्तक की शीर्षक रचना में वे लिखती हैं ” तेरा रूप देख कूंची फिसली, मेरे गीत में सरिता बह निकली, ऊंचे सपने जैसे पर्वत, बुन पाऊँ, ओ देश मेरे ” काश कि यही भाव हर भारतीय के मन में बसें तो डा सुधा की लेखनी सफल हो जावे.

उनका आध्यात्मिक ज्ञान व चिंतन परिपक्व है. ईश खण्ड से एक रचना उधृत है ” बंधन में सुख, सुख में बंधन, अर्जुन सा आराध मुझे ! प्रेम विराट कृष्ण सा कहता, आ दुर्योधन! बांध मुझे. बनती मिटती देह जरा से, कर इससे आजाद मुझे. तू लय मुझमें मैं लय तुझमें, दे बंधन निर्बाध मुझे. जीवन स्त्रोत प्रलय ज्वाला हूं, तृष्णा से मत बाँध मुझे. पूर्ण काम हूं, निर्विकार हूं, अंतरतम में साध मुझे.

भाव खण्ड में अपनी “अकविता” में वे लिखती हैं ” क्या कहूं, क्या नाम दूं तुझे ? गीत यदि कहूं तो सुर ताल की पायल तुझे बाँधी नहीं, कविता जो कहूँ तो, किसी अलंकार से सजाया नही. अनाभरण, अनलंकृत, फिर भी तू सुंदर है, संगीत भर उठता है, मन आँगन में जब जब तू घुटनों के बल चलती है, अकविता मेरी बच्ची ! ”

काव्यसंग्रह चित्रयुक्त है एवं देशखण्ड में महामानव सागर तीरे में  संदेश है कि अंतरिक्ष की खोज से पहले   संपूर्ण धरा का जीवन सुखमय बनाना आवश्यक है,  यह उल्लेखनीय है.

यद्यपि छंद शास्त्र की कसौटियों पर संग्रह की रचनाओ का आकलन पिंगल शास्त्रियो की समालोचना का  विषय हो सकता है किंतु हर रचना के भाव पक्ष की प्रबलता के चलते  मैं इस पुस्तक को खरीदकर पढ़ने में जरा भी नही सकुचाउंगा. आप को भी इसे पढ़ने की सलाह देते हुये मैं आश्वस्त हूं.

समीक्षक .. श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ जनरेशन गेप ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज  प्रस्तुत है  एक विचारणीय कहानी जनरेशन गेप। )  

☆ कथा कहानी – जनरेशन गेप ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

बेंगलूरु से गुलबर्गा की एक स्पेशल ट्रेन दोपहर चार बजे चली। कुछ घंटो बाद रास्ते में आना ने खाने के लिए मुंगफली और चॉकलेट भी ली। फिर अपनी उदासी दूर करने के लिए उसने चाय भी ली। फिर भी बीती हुई बात से बहुत परेशान थी। वह ट्रेन से बाहर हरियाली देख रही थी। नज़ारा बहुत अच्छा लग रहा था। रास्ते में उसने समुंदर को भी देखा। उस वक्त उसे लगा कि समुंदर में पानी के बहाव के साथ उसकी सोचने समझने की शक्ति भी बूढी हो चली है। ट्रेन में हर जगह शोर मच रहा था। कोई चाय बेच रहा था तो कोई फर्श साफ करके रुपया मांग रहा था। कोई खिलौना बेच रहा था। दूसरी ओर बच्चे रो रहे थे। आना हर हफ्ते ट्रेन में सफर करती है। उसको काम के लिए दूसरी जगह जाना पड़ता है। हर बार कोई न कोई वक्त काटने के लिए उसे मिल जाता है। आज उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। उसे लग रहा था कि वह सबसे चिल्लाकर चुप रहने के लिए कह दे, वो भी संभव नहीं था। फिर भी आज वो शोर भी पसंद नहीं आ रहा था। वह कुछ भी नहीं कर पा रही थी। वह किसी से भी बात नहीं करना चाहती है। मन में सागर की लहरें उमड रही थी। उसका मन बहुत परेशान था। अचानक वह अपने मन को थाह देने के लिए आसमान की ओर देखने लगी। उसे सारा अस्तित्व जैसे शून्य सा लग रहा था। उसकी सोच रुक सी गई थी।

करें भी तो क्या करें ? कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। अनेकों सवालों ने उसके मन में घेरा जमा लिया था, जिसका उत्तर खोज रही थी। आना को कोई उस पर हमदर्दी जताए वह पसंद नहीं था, ना तो खुद भी किसी पर हमदर्दी जताती थी।

आना इतनी गहरी सोच में थी। अचानक सामने की सीट पर बैठी औरत बात करती है, आप कहाँ जा रही हो? आना ने उसे सुनकर जवाब दिया। धीरे-धीरे दोनों के बीच बातचीत का दौर बढा। आना को थोडा अच्छा महसूस होने लगा। उसे लगा, एक राजदार मिल गया। इनसे कोई भी बात कह देंगी चलेगा। यह तो सफर है, अनेक लोग मिलते-बिछडते है। आना बहुत बातुनी थी। सिर्फ आज वह किसी कारण से खामोश थी। उस औरत ने जैसे ही आना की चुप्पी तोड़ी फिर आना बात करने लग गई। आना ने कुछ देर सोचकर कहा, जी आपने अपना क्या नाम बताया?

जी, गीता। और आप?

मेरा नाम आना है। मेरा और ट्रेन का सफर दोनों रहता ही है। जी मैं गुलबर्गा काम के लिए जाती हूँ। मैं कई लोगों से मिलती हूँ। अच्छा सुनिए गीता जी, सफर में हम अनेक लोगों से मिलते है। इतना ही नहीं बात करते हुए अपनी जिंदगी के रहस्यों को भी बताते है। थोडा मन भी हल्का हो जाता है। हमें किसी बात की चिंता या शक नहीं होता। मतलब कि आप किसी को भी हमारे बीच की बातों को बताएंगी नहीं। अगर बता भी देती है तो मुझे कोई फर्क भी नहीं पडता। आगे हमारा मिलना लिखा है या नहीं वो भी पता नहीं चलता। कितना अच्छा है कि हम मन की बाते खुलकर कर सकते है। यह कहते हुए आना ने सूक्ष्मता से मन का समाधान भी कर लिया और गीता जी को सचेत भी कर दिया।

जी सही कहा आपने। मैं कभी कभी इस तरह से ट्रेन में आती जाती रहती हूं। अक्सर मैं सफर तय नहीं करती हूं। मैं एक बात कहूं, आप बहुत सुंदर दिख रही हो।

मैं ….जी, मेरी तो उम्र हो चुकी है। मेरा एक बडा बेटा भी है। अब इस उम्र में क्या सुंदर?…..कहते हुए आना मुंगफली खाती और गीता को भी देती है।

गीता बस उसे देखती रह जाती है। इस उम्र में भी इस तरह से सुंदर रहना, अपनी सेहत को इस तरह से संजोकर रखना मुश्किल है। गीता को आना के कटे हुए बाल, गालों पर पड रहे डिम्पल, उसकी हंसी बहुत पसंद आयी। गीता ने तो मन की बात को आना के सामने रखते हुए कहा, लगता नहीं कि आपकी उम्र हो चुकी है। आज भी आप बेहद खूबसूरत दिख रही हो। कहते हुए गीता थोडा पानी पीती है।

आना ने उनको तनखियों से देखते हुए कहा, उम्र का पता नहीं चलता…कभी-कभी यही परेशानी हो जाती है। मैं तो लोगों को खुलकर बताती हूँ कि मेरा बडा बेटा है। उनको तो कोई भी फर्क नहीं पडता है। वे सिर्फ मर्द और औरत को ही जानते है। आज कल प्यार की परिभाषा ही बदल गई है। नवयुवक प्यार नहीं, बस कुछ और की ही अपेक्षा रखता है।

गीता को अजीब लगा और उसने तुरंत कहा, बुरा मत मानिएगा, आप गलत समझ रहे हो। आज भी कई लडके है, जो इस तरह के प्यार में विश्वास नहीं रखते। आप एक या दो की वजह से अगर पूरे संसार के मर्दों पर तोहमत नहीं लगा सकती। हम तो यही सोचते है कि आजकल बच्चे भविष्य के प्रति सतर्क हो चले है। कई बच्चे पढाई के साथ परिवार की जिम्मेदारी भी निभा रहे है। मानते है कि आप जिनसे मिली है, शायद वह लडका ऐसा हो। हम फिर ऐसे लोगों को देखकर ही कहते है कि जनरेशन गेप है। हां मानती हूँ कि उनका पहनावा बदल गया है। उनका आदर करने का तरीका बदला है मतलब यह नहीं कि उनकी सोच इतनी बदल गयी है कि आज के युवकों की दृष्टि सिर्फ वही तक सीमित नहीं है, वे तो बहुत आगे निकल चुके है। मैं आपकी बातों से सहमत नहीं हूँ, आना जी। आप ज़रा खुलकर बताएंगे तो सही रहेगा। लगता है आपको जिंदगी में गहरी चोट लगी है।

आना को भी गीता की बात सही लगी। फिर भी जो बात वह कहना चाहती है, शायद वह नही कह पा रही है। एक झुंझलाहट महसूस कर रही है। फिर थोडी देर मौन के बाद वह स्वयं में हिम्मत लेकर बात करती है। हां जी आपने सही कहा, आज एक बात तो माननी पडेगी कि नवयुवक अपनी बात को दूसरों के समक्ष रखने में थोडी सी भी हिचकिचाहट महसूस नहीं करते। पहले कोई भी बात कहने से पहले हम सोचते थे।

जी, सही है। आज कल में इतना बदलाव तो आया है। कहते है कि कृष्ण भी बदले थे। हम भी इन्सान है। अगर हम में बदलाव नहीं आएगा तो किसमें आएगा?  अच्छा बताइए आप कुछ कह रही थी, कहते हुए गीता थोडी ठीक बैठती है।

आना अपनी बात को रखते हुए कहती है, गीता जी, मैं स्वास्थ्य का बहुत खयाल करती हूं। इसलिए जिम भी जाती हू। थोडी कसरत हो जाती है। मुझे दूसरी औरतों की तरह चाय पीते हुए बैठना, दूसरों के घर के बारे में चर्चा करना आदि सब अच्छा नहीं लगता। कसरत के स्थल पर तरह-तरह के लोग आते है। हर उम्र के लोग आते है। वहां पर मेरी दोस्ती एक लडके से हुई। दोनों ने अपना-अपना फॉन नंबर एक्सचैंन्ज किया। दोनों की गहरी दोस्ती हुई। वह लडका उम्र मुझसे करीबन बीस साल छोटा है। उसने एक रात मैसेज किया और कुछ और बात की चाहत रखी। मैं परेशान हो गई।

मैंने उसे समझाते हुए कहा, देखो तुम उम्र और तजुर्बे में मुझसे बहुत छोटे हो। तुम्हें पता नहीं चल रहा है कि तुम क्या मांग रहे हो? अब दोस्ती एक तरफ और ये सब …? कहते हुए थोड़ी देर रुककर अपनी बात को आगे बढाती है। ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं है। वह किसी भी हाल में नहीं मान रहा था। मुझे उसका दिल दुखाने का मन नहीं था फिर भी कहा, देखो मैं अपने पति को धोखा नहीं दे सकती हूं। क्षमा करें। बाद में उसने मुझसे बात करना ही छोड दिया। मुझे भी उसका स्पर्श अच्छा लगता था। उसका मेरे साथ बतियाना भी लेकिन..लेकिन मैं कैसे अपनी मर्यादा भूलकर जा सकती थी? नहीं हो सकता था। मेरी निजी जिंदगी में लाख परेशानी हो फिर भी मर्यादा का खयाल तो रखना ही था।

सही कहा आना। इसीलिए तुम परेशान थी, पता ही नहीं चला। ठीक है समय के रहते वह लडका भी संभल जाएगा। इतना परेशान नहीं होना चाहिए। अरे! जनरेशन गेप उम्र का फासला मात्र रह गया है। आजकल तो शादी भी ऐसी ही हो रही है, गलत नहीं है। मुझे तो लगता है कि व्यक्ति की सोच मिलनी चाहिए।

आगे सुनिए तो, मैंने सोचा कि वह लडका सुधर जाएगा। अचानक फिर से एक दिन मुझे मैसेज आता है कि मुझसे आकर मिलों वरना मैं तुम्हारे पति को सारी बात बता दूँगा। मैंने सोचा, यह तो हद हो गई। ऐसे भी लोग दुनिया में रहते है। उसे सिर्फ मेरी ज़रुरत थी, और कुछ नहीं। वह तो ज़िद्द पर अड गया। बाद में मैंने अपने पति को सारी बाते बताई।

अरे! आना जी आप को भी दाद देनी पड़ेगी। आपने यह सारी बात आपके पति को बताई। फिर क्या हुआ? आपके पति ने आपको कुछ नहीं कहा। कहते हुए गीता जी ने उत्सुकता जताई।

मेरे पति बहुत अच्छे है। देवता समान है। उनको सजदा करने को मन करता है। सच में कभी तो लगता है कि मैं उनके चरणों की धूल भी नहीं हूँ। वो मुझसे प्यार और भरोसा भी बहुत करते है। उनको पता है कि मेरी पत्नी सिर्फ मुझसे ही प्यार करती है। वह सब सच्चाई बताएगी। वह भी एक मित्र की तरह मेरी मदद करते है। वे हंमेशा मेरे साथ रहते है। जिंदगी हर मोड पर जब भी मेरे पैर लडखडाए उन्होंने मेरा साथ दिया। इस बार भी उन्होंने मेरी बात को समझा और मेरा साथ दिया। तब जाकर वह लडका ठीक हुआ। अब आज के नवयुवकों के बारे में आप क्या कहेंगी?

अभी भी मैं तो वही कहूँगी, जिंदगी में ऐसे भी नवयुवक होते हैं जो आदर्शवान भी होते है। सब उनके अपने दोस्तों पर भी निर्भर करता है। कहते हुए वह चायचाले से दो कप चाय लेती है।

अरे! मैंने तो अभी-अभी चाय पी है। कोई बात नहीं चलिए दुबारा आपके साथ पीने का मौका मिल गया। सच बताऊँ तो आपके साथ विषय के बाँटने से मन भी थोडा अच्छा महसूस कर रहा है। जो भी हो आज नवयुवक हो या युवती बेझिझक- बेधडक बात कर लेते हैं। खुलकर हर कोई बात करते हैं। कोई भी बात मन में रखते नहीं है। हमारे समय में हम लोग बात करने से बहुत डरते थे। यौन संबंधी बातें तो दूर की बात है। हमें तो उस बारे में कुछ भी पता नहीं था। आज तकनीक के कारण नवयुवक बहुत कुछ सीख भी रहे है और दूसरी ओर गुमराह भी हो रहे है।

सही कहा,आना जी आपने। लीजिए, बात-बात में कब वक्त निकल गया? पता भी नहीं चला। अगले स्टेशन पर हमें जाना है। आप जैसी हस्ती से मिलकर अच्छा लगा। कभी-कभी ऐसे विरले व्यकित से मुलाकात होती है। चलिए, फिर कभी मुलाकात ऐसे ही ट्रेन के सफर में होगी। फिर भी एक बात तो सच है आपकी ये मुस्कान और आप बहुत सुंदर दिख रहे है। अच्छा मिलते है, कहते हुए गीता जी विदा लेती है। आना मुस्कुराती उनकी ओर ताकती रह जाती है।

 

©  डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

लेखिका व कवयित्री, सह प्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, जैन कॉलेज-सीजीएस, वीवी पुरम्‌, वासवी परिसर, बेंगलूरु।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 84 – लघुकथा- मैरीज होली विशेज़ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  होली पर्व पर  एक विशेष लघुकथा  “मैरीज होली विशेज।  इस  धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्म सद्भाव पर आधारित भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 84 ☆

?? लघुकथा- मैरीज होली विशेज ??

नंदिनी अपनी शादी के बाद पहली होली खेलने अपने पतिदेव के साथ मायके आई हुई थी। अभी- अभी पड़ोस में एंग्लो- इंडियन क्रिस्चियन परिवार रहने आया था। ज्यादा जान पहचान नहीं हुई थी हाव भाव हैलो हाय हो रहा था।

चूंकि हमारी भारतीय परंपरा रही है कि होली पर सभी के माथे पर तिलक लगा, मिलकर होली की शुभकामना कह कर बड़ों से आशीर्वाद और छोटों को प्यार दिया जाता है। नंदिनी भी सुबह से चाहक रही थी क्योंकि अपने पतिदेव के साथ मायके की पहली होली बहुत ही यादगार और प्रभाव पूर्ण बनाना चाहती थी।

गुलाल के कई रंगों की पुड़िया लिए निकल पड़ी अपने अपार्टमेंट में होली खेलने। रंगों से लिपि पुती बस उन्हीं के यहाँ नहीं गई क्योंकि उसको लगा शायद यह थोड़े बुजुर्ग आंटी अंकल है। और क्रिस्चियन है, तो पता नहीं अभी आए हैं और होली का तिलक लगाएंगे भी या नहीं।

यह सोच कर वह घर आ गई। नहा-धोकर तैयार हो गई। उसी समय उनके घर का काम करने वाला नंदिनी से आकर बोला – “मैडम और सर ने आपको बुलाया है।” नंदिनी ने आवाक होकर देखती रही। पतिदेव के साथ थोड़ी ही देर में उसके घर पहुंच गई।

आपस में बातचीत हुई। बहुत ही सुंदर वातावरण। आंटी ने एक थाली में थोड़ा सा चाँवल,गुलाल, लिफाफा और एक सुंदर सी साड़ी लेकर बाहर निकली। अंग्रेजी में बात करने लगी, बोली -” हम जानते हैं कि तुम्हारी यह पहली होली है। हमको तुम्हारे यहां का रिवाज पूरी तरह मालूम नहीं है। अभी सर्वेंट से पूछा तो उसने बताया। यह हमारी तरफ से आप का पहला होली का गिफ्ट है और “Wish you a very Happy Holi” कह कर गुलाल लगाई और चाँवल को आँचल में डाल, गिफ्ट दे गले लगा ली।

नंदिनी ने आंटी को कसकर गले लगा लिया। ‘मैरी आंटी’ आंटी का नाम मैरी था। “आपका गिफ्ट मुझे हमेशा याद रहेगा। आपने मेरी और मेरे पतिदेव की होली की खुशी को यादगार बना कई गुना अधिक कर दिया है।” (I will always remember your gift. You have made my and my husband’s happiness of Holi memorable many times more.)

खुशी के मारे मैरी आंटी-अंकल गदगद हो गये और वे बोली – “अब जब भी घर आओगी, घर आना हमारे पास। हम तुम्हारा इंतजार करेंगे। “गुलाल से सरोबार करते पतिदेव ने भी मैरी आंटी – अंकल को खूब हँसाया। मैरी विश पाकर नंदिनी खिल उठी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३४॥ ☆

 

रुद्धापाङ्गप्रसरम अलकैर अञ्जनस्नेहशून्यं

प्रत्यादेशाद अपि च मधुनो विस्मृतभ्रूविलासम

त्वय्य आसन्ने नयनम उपरिस्पन्दि शङ्के मृगाक्ष्या

मीनक्षोभाच चलकुवलयश्रीतुलाम एष्यतीति॥२.३४॥

 

कज्जल बिना तेज से हीन जिनकी

अलकजाल से रूद्धगति नैनवाली

सुरापान के त्याग ने कर दिये हो

जिन्हें लास्य भ्रूभंग से पूर्ण खाली

पहुंच मृगनयनि के निकट मौन गति से

चपल कमल की भांति मै मानता हॅू

लखोगे फडकता हुआ नेत्र बांया

उसका वहां तुम मै अनुमानता हॅू

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 92 ☆ आपलाही सूर्यास्त ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 92 ☆

☆ आपलाही सूर्यास्त  ☆

ढगांच्या गादीवर पहुडलेला सूर्य

स्तब्ध आहे जागेवर

पृथ्वी ठरवतेय

त्याच्या उगवण्या मावळण्याची दिशा

वाटतोय तो स्वतःहाच्याच कक्षेत

येरझारा घातल्या सारखा

स्वतःहाच्याच किरणांमुळे

झालाय हैराण

घामाच्या वाहू लागल्यात धारा

ओली चिंब होतेय धरती

त्यातून पुटणारा अंकुर

हळूहळू उमलत जाणारं

कोवळ रोप वयात येतं

हिरव्या शालूतील ते सौंदर्य पाहून

मनाला होणारा हर्ष

कणसात दाणे भरताच

काळजीचं लागलेलं ग्रहण…

 

काढणी, मळणी नंतर

कवडी किमतीला

बैलगाडीतून विदा केलेलं धान्य

पुन्हा भरडलं जातं

नजरे समोरून दूर झाल्यावर देखील

सोन्यासारख्या धान्याची

झालेली अवस्था पाहून

मन विषण्ण होतं…

 

उगवत्या सूर्याला नमस्कार करणारे हात

व्यस्त आहेत

आपापल्या कामात

सूर्यकिरणं टेकलीत डोंगरमाथ्याला

त्यांच्या आधारानं

पायउतार होत चाललाय सूर्य

जगाचं लक्षही नाही त्याच्याकडं

पश्चिमेकडे निघालेले लोक

पहातायेत त्याचं मावळणारं रूप

आपलाही सूर्यास्त

जवळ आलाय

याची पुरेपूर जाणीव असलेले…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आभाळ भरता! ☆ श्री मुबारक उमराणी

श्री मुबारक उमराणी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ आभाळ भरता! ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

दुःख आभाळ भरता

श्वासी गडगडे मेघ

हुंदक्यात अश्रूधार

कडाडते वीज रेघ

 

डोळा डोंगर कपारी

अश्रूधार बरसते

गंगा यमुना नयनी

प्रेमभेटी तरसते

 

प्रेमे आशिष मिळता

बाष्प स्पर्शे सूर्य  तनी

पाठीवरी हळुवार

हस्तस्पर्श, हर्ष मनी

 

अश्रूथेंब क्षारयुक्त

समुद्रही  फिका पडे

तन भुमी रे शिंपता

भिजे ह्दयीचे कडे

 

सुख समाधान पिक

कोंब अंकुरेल  मनी

जिद्द, उत्साह कणीस

भरे रोमरोमी कणी

 

पंख पाखरु फिनिक्स

झेप पतंगी रे दंग

इंद्रधनु नसनसी

सुखरंगी सप्तरंग

 

मनमोर थयथय

नाचे आनंदे क्षितीजी

प्रेमवारा गारस्पर्श

कडाडते मन विजी

 

शब्द सळसळे पाणी

हर्ष जलदा शिपिंता

झरझरे ते मोदाश्रू

तृष्णा लोपते रे पिता

 

जन्मी दुःखाश्रू  सुखाश्रू

नेत्री मेघालयी  खुले

सुखदुःख हले झुला

शंकरपार्वती झुले

 

© श्री मुबारक उमराणी

शामरावनगर, सांगली

मो.९७६६०८१०९७.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सांजवात…भाग 2 ☆ सुश्री गायत्री हेर्लेकर

सुश्री गायत्री हेर्लेकर

☆ जीवनरंग ☆ सांजवात…भाग 2 ☆ सुश्री गायत्री हेर्लेकर ☆

अनुराधा जोशी… तिची आई… हो, सावत्र असली तरी तिची आईच, तिची अनुआई. अन् नंदन… अनुआई चा सख्खा मुलगा, तिचा सावत्र भाऊ. तिला आणि अनुआई कधीही एकत्र न येऊ देणारा.

त्याला आईच्या प्रेमात आणि बाबांच्या इस्टेटीत वाटणी नको होती म्हणुन. अन् आता त्याने हा निर्णय का घेतला असेल?

खरं तर गेल्या २०,२२ वर्षांत… तिचे लग्न झाल्यापासून त्या कोणाशी च तिचा काहीच संपर्क नव्हता. स्वातीताईकडच्या लग्नात कदाचित भेट होईल असे वाटले होते, तिने स्वातीताईला तसे विचारलेही, ती म्हणाली तिने रितसर आमंत्रण दिले, फोन करुन पण सांगितले. नंदुदादाने मात्र बघतो, जमेल असे वाटत नाही, आईला पाठवणे पण अवघड आहे, अशी उडवाउडवीची उत्तरे दिली, म्हणुन येणे अपेक्षित नव्हते.

ज्योती फोटोकडे परतपरत बघत राहिली. आणि तिला ३५, ३६ वर्षांपुर्वीची अनुआई….. त्यांच्या घरी लग्न होऊन आलेली आठवली, बरोबर नंदुदादा होता. ज्योती तेंव्हा असेल ५, ७ वर्षांची. आणि तिच्यापेक्षा ७, ८ वर्षांनी स्वातीताई मोठी.

तिच्या जन्मानंतर सारखी आजारी असलेली त्यांची आई लवकरच गेली, बाबा मोठे व्यावसायिक, कामाचा व्याप खुप. नातेवाईकांचे फारसे संबंध नव्हते, म्हणुन तिचे सगळे स्वातीताईने नोकरमाणसांच्या मदतीने केले.

बाबांचे जवळचे मित्र, दुर्धर व्यक्तीने अचानकच गेले, त्यांची बायको आणि मुलगा अगदी निराधार. त्यांची जबाबदारी स्वीकारली, अन् लोकापवाद नको, म्हणुन हे लग्न केले, नंदनलाही कायदेशीर दत्तक घेतले.

वयाने लहान…. फारशी समज नाही म्हणुन ज्योतीलाच त्यात वावगे काहीच वाटले नाही. उलट आई दादा मिळाले म्हणुन आनंदच झाला. स्वातीताईला मात्र हे फारसे रुचले नव्हते, तिने ज्योतीलाच निक्षून सांगितले, “हे बघ ज्यो, ही आपली सख्खी आई नाही, अन् मुद्दाही नाही, तिला अनुआई च म्हणायचे, त्याच्याही फार जवळ जायचे नाही”.

तिने जवळ जायचा प्रश्णच ऊद्भवला नाही. कारण तोच त्या दोघींपासुन लांब.. अंतर ठेवुन.. अगदी तुसडेपणे वागे. तसा तो स्वातीताईपेक्षा २, ४ वर्षांनी मोठाच. त्यालाही हे लग्न मान्य नव्हतेच. पण अत्यंत चालाख आणि धूर्त. बाबांच्या इस्टेटीचे आकर्षण म्हणुन रीतसर तडजोड स्विकारली. त्याने हुषारीने, बाबांची मर्जी संपादन केली, अगदी त्यांचा उजवा हात झाला. पण त्या दोघींवर मात्र राग, अनुआईला मात्र त्या दोघींचे कौतूक, लाड करायला आवडे. पण ती जेंव्हा तसे करी तेंव्हा त्याची चिडचिड, धुसफुस सुरु होई, अन् अनुआईला त्याच्यासाठी माघार घ्यावी लागते.

स्वातीताईचे लग्न लवकरच झाले. नंदुदादाचेही. पण वहिनी तुसडेपणाच्या बाबत नंदुदादाच्या पुढे एक पाऊल. सावत्र नणंद हीच अंडी कायम मनात ठेवुन वागत असे.

बाबा होते तोपर्यंत जरा तरी ठीक. पण नंतर सर्वच कारभार त्या दोघांच्या हातात. आणि अनुआईचे दबावाखाली, सतत माघार घेऊन, घाबरुन वागणे. खरं तर ज्योतीलाच ते पटत नसे. निदान मनाप्रमाणे लग्न करायला तरी तिने पाठिंबा द्यावा असे तिला वाटत होते.

सत्येन तिच्या आयुष्यात आला तो ती MBA करत होती तेंव्हा. हुशार, दिलदार, तडफदार.  मुख्य म्हणजे त्याचे कौटुंबिक वातावरण अत्यंत हसतखेळते. म्हणुन साधारण परिस्थिती आणि काहीशी कनिष्ठ जात हे तिला अगदी गौण मुद्दे वाटले.

पण नंदुदादाने मात्र हलक्या जातीचा, पैशावर डोळा ठेवूनच लग्न करतो म्हणुन त्याचा अपमान आणि अपमानाच केला. कारण ज्योतीचे लग्न वहिनीच्या भावाशी लावुन देण्याचा बेत होता त्याचा.

त्याच दरम्यान अनुआईशी बोलावे म्हणुन ज्योती एकदा तिच्या खोलीत गेली. ती नव्हती खोलीत. पण तिची डायरी दिसली, डायरी वैयक्तिक असते, ईतरां नी वाचुन नये, हे खर तर ज्योतीलाच माहित होते, तिचा तो स्वभावाही नव्हता, पण त्या दिवशी ज्योती जरा चिडलेलीच होती, बघुया तरी म्हणुन सहज वाचायला घेतली. तर त्यातील शब्दांशब्दांमधुन अनुआईची अगतिकता, परावलंबित्व, याचीच दु:खद कहाणी तिने सांगितली होती. माहेरी वडिल, भाऊ,नंतर पहिला नवरा, दुसरा नवरा आता मुलगा सर्वांच्याच सतत दबावाखाली, त्यांचीच मर्जी राखत होत जगणे, सुरुवातीची गरिबी, आता पैसा असुनही स्वातंत्र्य नाहीच त्यामुळे सतत कुतरओढ.

ज्योतीचे डोळे पाणावले, पण अनुआईकडुन पाठिंब्याची अपेक्षा ठेवणे म्हणजे तिला अडचणीत टाकणे हे जाणवून आपला मार्ग आपणच निवडला. कारण तिला तिचा जीवाभावाचा जोडीदार सत्येन गमवायचं नव्हता.

नंदुदादा विरुध्द जाऊन ती अनुआईसाठी काहीही करु शकणार नव्हती.

स्वातीताईच्या पुढाकाराने त्यांचे लग्न झाले, पण नंदुदादा आणि अनुआईशी ही संबंध संपले, ते कायमचे च दुरावले.

 

©  सुश्री गायत्री हेर्लेकर

201, अवनीश अपार्टमेंट, कोथरुड, पुणे.

दुरध्वनी – 9403862565

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ केतकीच्या बनी तिथे नाचला गं मोर… ☆ सौ ज्योती विलास जोशी

सौ ज्योती विलास जोशी

 ☆ विविधा ☆ केतकीच्या बनी तिथे नाचला गं मोर… ☆ सौ ज्योती विलास जोशी ☆ 

आठवणीं मग त्या कटू असोत किंवा गोड; अविस्मरणीय क्षणांच्या स्वरूपात मनांत दाटलेल्या असतात. त्यांची चाहूल मनात काहूर माजवते. लुप्त आठवणींचा कधीकधी असा कवडसा पडतो की मन हळवं होतं.

माझ्या मनाचे पापुद्रे उलगडत उलगडत ह्या सगळ्या आठवणीत रमायला मला फार आवडतं.

एखादा जुना झालेला पिवळा फोटो पाहून, जुन्या गाण्याचा एखादा आर्त स्वर ऐकून जशी मनात विचारांची गर्दी होते ना तसं काहीतरी हा प्रसंग आठवून झाली. आणि……. अर्थातच मला तुम्हाला ही गोष्ट सांगावीशी वाटली….

बऱ्याच दिवसांनंतर माझं घराचं स्वप्न पूर्ण झालं होतं.नवीन घर तसं गावाच्या थोडं बाहेरच !अर्थात मी नवीन घरात आल्यावर घरकामात आणि घर सजवण्यात रमले पण केतकी मात्र कंटाळली. तिला काही करमेना… वाड्यातलं गोकुळ सोडून आली होती ना ती!!

दुपारपर्यंत गद्रे बाईंसोबत बालवाडीत असायची. त्यानंतर मीच तिच्या बरोबर खेळायची पण संध्याकाळी मात्र तिच्या सोबत खेळायला कोणीच नसायचं. तिला थोडा विरंगुळा हवा ना? पण माझा नाईलाज होता. जवळपास फारसं कुणी शेजारीपाजारी नव्हतं.सगळा औद्योगिक परिसर.. त्यादिवशी आम्ही दोघी घराच्या गच्चीवर गेलो होतो. “आई, तो बघ आपला वाडा..” दूरवर तिला आमचा राहता वाडाच दिसला.”अग बाई हो का? आणि वाड्यात कोणकोण दिसतंय?” तिनं सगळ्यांची नावं घेतली. मलाही तिची कीव आली.” आपण जाऊया रविवारी वाड्यात सगळ्यांना भेटायला.” मी तात्पुरती समजूत काढली खरी पण तेवढ्यानं तिचं समाधान झालं नाही.

तेवढ्यात एक ओळखीचा आवाज आला. “आई कसला आवाज आला गं?” आवाज माझ्या ओळखीचा होता पण तो आवाज मला इथे अपेक्षित नव्हता,त्यामुळे मी त्याकडे दुर्लक्ष केलं, पण पुन्हा एकदा तो आवाज आला आणि मी त्या दिशेने पाहिलं आणि मोहरले.

“अगं किटू, तो बघ मोर!” समोरच्या एका छोट्याशा घराच्या अंगणात मोर दिसला मला! त्याची केकाच मला ऐकू आली होती.मला खूप आश्चर्य वाटलं. “मोर असा ओरडतो? चल ना आई आपण पाहायला जाऊ.” मला तिचं मन मोडवेना.

घराच्या अंगणात पायरीवर एक आजी बसल्या होत्या.”या” त्यांनी आमचं उबदार स्वागत केलं.”बरं झालं आलात. मी येणारच होते तुमची ओळख करून घ्यायला.”आजी बोलल्या आणि त्यांनी आपलंसं करून टाकलं आम्हाला!

केतकी कडे बघून त्या म्हणाल्या, “बाळाबाई, नाव काय तुझं?”केतकी म्हणाली, “आम्ही मोर पाहायला आलोय”मुद्द्याचं बोलून रिकामी झाली ती. “हा मोर तुमचा आहे ?जंगलातनं आणलाय तुम्ही? तो पिसारा का फुलवत नाही?”.तिला विचारलेल्या कोणत्याही प्रश्नांची उत्तरे न देता तिची स्वतःच्या प्रश्नांची सरबत्ती चालू होती.डोळ्याच्या पापण्या देखील न लवता केतकी मोर पाहण्यात रमली होती.

“अंधार झाला चल आता” मी म्हटलं, पण तिचा काही पाय निघेना. “आता मोर पण झोपणार आहे बाळा, उद्या ये हं !” त्या इवल्याश्या जीवाचं इवलसं अंतकरण जड झालं होतं हे जाणवलं मला…..

झोपेपर्यंत ती मोराबद्दलच बोलत होती. तिला मुख्य प्रश्न पडला होता तो असा की,मोर पिसारा केव्हा फुलवणार ? मग पाऊस कधी पडणार? आंब्याच्या वनात आपण कधी जायचं?….

केतकी मनात रंग सोहळ्याच्या स्मृती घेऊन स्वप्न सफरीवर गेली होती.आज तिचं रमलेलं मन अगदी पटकन निद्रादेवीच्या अधीन झालं होतं. सकाळी उठल्यावर मी कामाच्या गडबडीत होते त्यामुळे स्वारी बाबांकडे वळली. मोराबद्दल मलाही जितकं ज्ञान नव्हतं तितकं या बाप-लेकीच्या संवादानं मला समजलं.

आज ती दुपारी शाळेतून आली तशी तहानभूक विसरलेली ती लगेचच पळाली मोराकडे !! एव्हाना आजींची आणि तिची गट्टी जमली होती. आजीनाही तिच्या शिवाय चैन पडत नसते. “आई आता आकाशात ढग येणारेत मग मोर पिसारा फुलवून नाचणाराय” निरागस मन मला सांगत होतं.

आजींचं आणि माझं विशेष बोलणं व्हायचं नाही.गॅलरीतून नुसतेच हातवारे आणि मूक संभाषण पण…. आज केतकीनं निरोप आणला.”आई,आजीने तुला बोलवलंय.”मला हाताला धरून घेऊन देखील गेली ती….. आजी आपल्या बद्दल काहीतरी तक्रार सांगतील असंच तिचं साशंक मन स्वसमर्थन करायच्या तयारीत होतं.

“उद्या गौरी यायच्या. केतकीला साडी नेसून पाठवा. तिलाच नळावर पाठवते. इथेच जेवेल घासभर…” असं आजी म्हणाल्या, आणि केतकीच्या आनंदाला उधाण आलं होतं. उद्या कधी येतो असं झालं तिला… गौरी-गणपतीचे दिवस आज सकाळपासून आभाळ भरून आलं होतं केतकीच्या आनंदाला पारावर उरला नव्हता. मोर पिसारा फुलवून नाचेल असा विश्वास वाटत असावा का त्या जीवाला ?……

सकाळी तिचे डोळे उघडले तसं “आई आज मला कुठली साडी नेसवणार ?बांगड्या कुठल्या घालायच्या?” एक वेगळाच आनंद आणि उत्साह तिच्या चेहऱ्यावर दिसत होता.

गौराई नटली होती. एक गोड पापा देऊन पळाली ती आजीकडे. दुपार झाली तरी अजून ती आली नाही. तशीही ती कधीच बोलल्याशिवाय येत नसे आणि आजी तिला कधीच जा म्हणत नसत.

इतक्यात तिच्या “आई,आई” अशा हाका ऐकू आल्या. गॅलरीत पोहोचते अन् पाहते तो काय? मोरानं पिसारा फुलवला होता आणि माझी गौराई त्याच्यासोबत उभी होती. अवर्णनीय असं ते दृश्य मी डोळ्यांत साठवून घेत होते.मोर अन् केतकी दोघेही नाचत होते. आंब्याच्या वनात जाण्याची आस ठेवणारी केतकी स्वतःच्याच बनात मोराला नाचताना पाहत होती.

मोरानं तिचा आजचा दिवस खास करून टाकला होता.’देता किती घेशील दो कराने’ इतका आनंद तिच्या ओंजळीत टाकला होता. मी मनोमन मोराचे आभार मानले.

लगबगीने कॅमेरा घेऊन खाली पळत सुटले. मी पोचेस्तोवर मोर उडून कठड्यावर जाऊन बसला. “माझ्यासोबत मोराचा फोटो काढायचा होता ना गं” असं म्हणून केेतकी रडू लागली.

“थांब हं किटू, मी मोराला घेऊन येते.” असं म्हणून केतकीला आजींच्या ताब्यात घेऊन मी कॅमेरा घेऊन मोरा पाठीमागे धावणार तोच….. तो पुन्हा उडून माझ्या घराच्या गच्चीच्या कठड्यावर बसला. मी पळत पळत गच्चीवर आले. त्याच्या नकळत लपून त्याच्याकडे पाहत बसले. त्याला हळूच एका क्षणी मी माझ्या कॅमेऱ्यात कैदही केलं…. दुसऱ्याच क्षणी तो पुन्हा उडाला आणि एक जोरदार धमाका झाला, आणि दिसेनासा झाला. तो बसलेल्या ठिकाणाच्या जवळच इलेक्ट्रिकचा डांब होता. त्याचा त्याला शाॅक बसला होता.

मी पुढे जाऊन पाहिलं तर…. माझ्या अंगणात मोरपिसांचा सडा पडला होता. माझ्या कॅमेरात कैद झालेला तो जगाच्या बंदिवासातून मुक्त झाला होता. तो क्षण मोराचा ‘प्राण प्रयाणोत्सव’ ठरला….. तिसऱ्याच क्षणी माझ्या मनांत केतकीचा विचार आला आणि मी शहारले. मी ताबडतोबीनं मृत मोराची विल्हेवाट लावली जेणेकरून केतकीच्या नजरेत हे सारं येऊ नये.

केतकी माझ्या वाटेकडे डोळे लावून बसली होती. मी मोराला घेऊन येणार असा तिचा माझ्यावर विश्वास होता.

मला पाहताच केतकीच्या डोळ्यातलं पाणी पापण्यांवर येऊन थांबलं. ती मला बिलगली. मोठ्या आवाजानं घाबरली होती ती. तिची नजर मोराला शोधत होती. “आई,मोर कुठे गेला?”

“मोर उडून गेला बाळा! आपण आता दुसरा आणू हं!”. आजीनं जड अंतकरणाने माझ्या निरागस लेकराची समजूत काढली आणि, गाभण ढग फुटल्यासारखं त्यांच्या डोळ्यातून अश्रूंचा पाट वाहू लागला.

केतकीला विषयाचं गांभीर्य समजू नये म्हणून”जाताना तुला कितीच्या काय पीसं देऊन गेलाय बघ” असंही त्या म्हणाल्या.

“इतकी सगळी पिसं मला एकटीला दिलीत? यातलं एक सुद्धा मी कोणालाही देणार नाही”. मनाचा पक्का निर्धार करून मृत्यूचं गम्य नसलेलं ते निरागस मन पीसं गोळा करत होतं.

माझी अवस्था धीर सोडलेल्या,गहिवरल्या मेघा सारखी झाली होती. मला आणि आजीना एक माणूस गेल्याचं दुःख झालं होतं. केतकीचा एक प्रिय मित्र गेला होता.केतकीच्या बाल मनाचा विरंगुळा होता तो!

त्याच्या पिसारयातील पीसं आणि त्यातील रंग पहात केतकी स्वप्न रंगात रंगली होती. पिसाच्या हळुवार स्पर्शानं मोहरुन गेली होती.

जीवन जितकं सुंदर तितकंच मरणही सुंदर असतं का हो? असेलही ! वसंत ऋतू जितका रम्य तिचकाच शिशिरऋतू ही रम्य असतोच ना?

मोराचं जाणं हा प्रयाणोत्सव होता जणू…. माझ्या निरागस जीवाला परमानंद देऊन गेला होता तो!!

© सौ ज्योती विलास जोशी

इचलकरंजी

मो 9822553857

jvilasjoshi@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ थोडक्यात..पण महत्त्वाचे ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक

श्रीमती अनुराधा फाटक

 ☆ इंद्रधनुष्य ☆ थोडक्यात..पण महत्त्वाचे ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक ☆ 

एका वर्षाचे महत्त्व अनुत्तीर्ण झालेल्या विद्यार्थ्यांला विचारावे, एका महिन्याचे महत्त्व मातृत्वाच्या वाटेवर असलेल्या महिलेला विचारावे, एका सप्ताहाचे महत्त्व साप्ताहिकाच्या संपादकास विचारावे,एका दिवसाचे  महत्त्व मजुरी न मिळालेल्या मजुरास विचारावे, एका तासाचे महत्त्व आपले अर्धे राज्य देऊन एक तास मृत्यू लांबविण्याचा आग्रह धरणाऱ्या सिकंदराला विचारावे, एका मिनिटाचे महत्त्व वर्ल्ड ट्रेड सेंटरची इमारत कोसळण्याच्या एक मिनिट आधी सुरक्षितपणे बाहेर पडणाऱ्या भाग्यवंताला विचारावे आणि एका सेकंदाचे महत्त्व केवळ एका सेकंदामुळे सुवर्णपदक न मिळू शकलेल्या ऑलिंपिकमधील धाव स्पर्धकाला विचारावे.

 

संग्राहक – श्रीमती अनुराधा फाटक

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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