हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 22 – सजल – मौन खड़ी है अब तरुणाई… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत  “मौन खड़ी है अब तरुणाई… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 22 – सजल – मौन खड़ी है अब तरुणाई … 

समांत- आई

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 16

 

नैतिकता की हुई धुनाई।

मौन खड़ी है अब तरुणाई

 

गली मुहल्ले घूम रहे हैं,

जिनने सबकी नींद उड़ाई।

 

जीवन जीना नर्क बन गया,

शैतानों ने खोदी खाई।

 

सज्जनता दुबकी है बैठी,

दुर्जनता के बीच लड़ाई।

 

आताताई हैं मुट्ठी भर

बहुसंख्यक की नहीं सुनाई।

 

डंडा लिए खड़े रखवाले,

पता नहीं किसकी परछाई।

 

कष्टों की पहनाई माला,

नेताओं ने खूब निभाई ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

11 जुलाई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆☆”संदूक” – अंतिम भाग ☆☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “संदूक – अंतिम भाग”.)

☆ संस्मरण ☆ “संदूक” – अंतिम भाग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(यादों के झरोखे से)

सत्तरवें दशक के अंतिम वर्षों में संदूक सजावट और उपयोग की परिभाषा से मात्र उपयोग की ही वस्तु बन कर रह गया था।रेल यात्रा में जब तक थर्ड क्लास थी, लंबी दूरी की पारिवारिक यात्रा पर इसके बड़े लाभ थे, छोटा बच्चा आराम से सो कर निद्रा प्राप्त कर लेता था, वैसे इस पर बैठने की क्षमता दो लोगो को सुविधा पूर्वक यात्रा के लिए पर्याप्त हुआ करती थी।सह यात्री के पास भी संदूक होता था तो फिर साधारण लम्बाई के व्यक्ति की नींद में खलल नहीं पड़ता था। रेल का मैनेजर (गार्ड) अभी भी छोटे काले रंग  के संदूक को साथ लेकर गाड़ी की व्यवस्था बनाता हैं।

निम्न माध्यम वर्गीय परिवार अपनी पुरानी विरासत को जल्द विदा नहीं करता हैं। संदूक का उपयोग घरों में बैठने के लिए होने लगा। संदूक पर गद्दा बिछा कर उसको चादर से पूरा ढक कर इज्जत से स्थान दिया जाता था। एक जोड़ी संदूक को ईंट के ऊपर करीने से बैठक खाने में उपयोग आम बात हुआ करती थी। वो बात अलग है,मेहमान को कुर्सी आदि पर आसन प्रदान किया जाता था, मेज़बान इसका उपयोग स्वयं के लिए ही करता था।

ट्रंक या बॉक्स के नाम से जानने वाले घर में “बड़े ट्रंक” से भी भली भांति परिचित  होंगे। सर्दी की रजाई, कंबल या अनुपयोगी वस्तुओं के संग्रह में इसकी क्षमता का कोई सानी नहीं हैं। अब स्टील कि आलमारियों ने इनकी कमी पूरी करने के प्रयास किए हैं। बैंक में इसका उपयोग अनचाहा मेहमान (आडिटर) अपने गोपनीय कागज़ात को रखने के लिए करते थे। अब तो उनके पास भी  चलायमान कंप्यूटर ( लेप टॉप) है, जिसमें सब कुछ निजी रह सकता हैं।

टीवी सीरियल  सीआईडी में भी इसका उपयोग लाश या बड़ी धन राशि को ठिकाने लगाने में किया जाता हैं। पुराने समय में घर की बुजर्ग महिलाएं अपने संदूक को ताला लगाकर संचय की गई प्रिय, निजी वस्तुएं और थोड़ी सी जमा पूंजी को उनके विवाह में मिले संदूक में ही सुरक्षित रख पाती थी। उनके जाने के बाद उस संदूक को “दादी का खजाना” की विरासत की संज्ञा दी जाती थी। अब तो ये सब कहानियों और किस्से की बातें होकर रह गई हैं।

 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य#114 – लघुकथा – रात पाली ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “*रात पाली *”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 114 ☆

? लघु कथा- ⛈️? रात पाली  ?

शहर से दूर एक आलीशान अपार्टमेंट बन रहा था। गाँव से बहुत मजदूर वहाँ काम करने आए थे। इस में महिलाएं भी शामिल थी। उनके साथ केतकी अपनी माँ के साथ आई थी। 15 साल की भोली भाली लड़की जिसकी उसके माँ के अलावा इस दुनिया में कोई सगा संबंधी और जान पहचान वाला नहीं था। माँ बेटी मिलकर काम किया करते थे।

गाँव से दूर रहने का कोई ठिकाना नहीं था इसलिए सभी वहीं पर डेरा डाल कर रहने लगे थे। यौवन से भरपूर केतकी जब मिट्टी रेत का तसला उठा कर चलती तो सभी की नज़रें उस पर टिकी रहती थी।

आखिर बीमार माँ कब तक निगरानी कर पाती। वह दिन भर चिंता और परेशानी लिए बीमार रहने लगी। अपार्टमेंट में काम करने वाले ठेकेदार से लेकर कर वहाँ के जो भी लोग थे सभी केतकी की सुंदरता और उसकी खिलखिलाती हंसी पर सभी नजर लगा हुए रहते थे।

    ठंड अपनी चरम सीमा पर थी उस पर बारिश। सभी रजाई शाल पर दुबके शाम ढले चुपचाप बैठे थे। उसी समय केतकी की माँ की अचानक तबीयत खराब हो गई और वह दौड़ कर ठेकेदार के पास गई।

उसने कहा मेरी माँ की तबीयत बहुत खराब है, आप कुछ मदद कर दीजिए डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा। ठेकेदार ने समय की नाजुकता का फायदा उठा तत्काल कहा… तुम रात पाली  पर काम कर लो। तुम्हारी माँ को कुछ नहीं होगा।

माँ को अस्पताल भिजवा दिया गया। माँ अपनी ममता के पीछे केतकी ठेकेदार की मंशा भाप चुकी थी, परन्तु बेबस चुप रही।

सुबह सारे अपार्टमेंट और सभी के बीच हल्ला था कि ठेकेदार साहब बहुत भले आदमी है। कल रात उन्होंने केतकी की माँ की जान बचाई।

भगवान भला करे। ऐसे आदमी दुनिया में मिलते कहाँ हैं?

हम सब की उम्र भी उनको लग जाए। हम सब गरीबों के भगवान हैं। परन्तु केतकी की लगातार आँखों से बहते आँसू  कुछ और ही कह रह रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (6 – 10) ॥ ☆

सर्गः-13

 

युग समाप्ति पर विष्णु जी कर जग का संहार।

सोते इसमें होता तब ब्रह्मा का अवतार।।6।।

               

शत्रु त्रस्त ज्यों भीत नृप, महाबली नृप पास।

जाते वैसे, विवश नगर कई का यह आवास।।7।।

 

जब वछाह बन विष्णु ने किया धरा-उद्धार।

तब पृथ्वी-घूंघट बना इस का जल विस्तार।।8।।

 

अधर दान में पान हित कुशल नदी ज्यों नारि।

को चुंबन हित तरंगित यह उलटा व्यवहार।।9।।

 

पी जीवों संग सरित-जल जलचर विविध प्रकार।

कर मुखमीलित छोड़ते शीशछिद्र से धार।।10।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २२ फेब्रुवारी – संपादकीय (1) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? २२ फेब्रुवारी –  संपादकीय  ? 

लक्ष्मणराव देशपांडे

लक्ष्मणराव देशपांडे मराठीतील एक बहुरंगी, बहुआयामी लेखक, नाटककार. नाट्यदिग्दर्शक व अभिनेते होते. त्यांनी लिहिलेया, दिग्दर्शित केलेल्या आणि सादर केलेल्या ‘वर्‍हाड चाललंय लंडनला’ या त्यांच्या एकपात्री प्रयोगासाठी त्यांचं नाव गिनीज बुक ऑफ वर्ड रेकॉर्डमधे नोंदवलं गेलं आहे. त्यांचा जन्म ५ डिसेंबर१९४३ मधला. लहानपणी गणेशोत्सवात होणार्‍या मेळ्यातून ते काम करायचे. इथेच त्यांच्या कलावंताची जडण-घडण झाली. घराची प्रतिकूल परिस्थिती असूनही त्यांनी एम.ए. एम.एड. (मास्टर ऑफ ड्रॅमॅटिक्स) ही पदवी घेतली. मराठवाड्यातील डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर या विद्यापीठात काम केले. १९८०च्या सुमाराला ते या विभागाचे प्रमुख झाले. याच दरम्यान त्यांनी ‘वर्‍हाड चाललंय लंडनला’ ची निर्मिती केली.या नाटकाने अनेक विक्रम प्रस्थापित केले. हजारांच्या संख्येने लोक कार्यक्रमाला उपस्थित रहात. या नाटकाचा पहिला प्रयोग त्यांनी १९७९ मधे केला. तेव्हापासून या नाटकाचे १९६०पेक्षा जास्त प्रयोग झाले आहेत. ३ तासाच्या या एकपात्री नाटकात ते ५२ रुपे सादर करत. त्यामुळे लोक त्यांना वर्‍हाडकर म्हणू लागले. त्यांच्या या एकपात्री नाटकाचे प्रयोग अमेरिका, कॅनडा, इंग्लंड, मस्कत, ऑस्ट्रेलिया, कतार, कुवेत, सिंगापूर, थायलंड, नायजेरिया इ. ठिकाणी झाले.

त्यांनी ‘रेशीमगाठी’ आंणि ‘पैंजण’ या चित्रपटातूनही कामे केली. पर्भणी इथे झालेल्या अखिल भारतीय नाट्यसंमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.

लक्ष्मणराव देशपांडे यांचे प्रकाशित साहित्य  –

  • ‘वर्‍हाड चाललंय लंडनला’ या नाटकाचे पुस्तक निघाले. 
  • प्रतिकार हे एकांकिकांचे त्यांचे पुस्तक प्रकाशित झाले.
  • मौलाना आझाद – पुंनर्मूल्यांकन याचे त्यांनी संपादन केले.
  • महाराष्ट्र शासनातर्फे प्रकाशित करण्यात आलेल्या ‘अक्षरनाद’चे त्यांनी संपादन केले.

लक्ष्मणराव देशपांडे यांना मिळालेले पुरस्कार

  • महाराष्ट्र शासनाचा कलावंत पुरस्कार
  • .विष्णुदास भावे पुरस्कार
  • अखिल भरातीय नाट्यपरिषदेतर्फे साहित्यसम्राट आचार्य अत्रे पुरस्कार

आज त्यांचा स्मृतीदिन (२२ फेब्रुवारी २००९) . या निमित्त त्यांच्या बहुरंगी प्रतिभेला मानाचा मुजरा.

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २२ फेब्रुवारी – संपादकीय (2) – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? २२ फेब्रुवारी –  संपादकीय  ? 

विनायक सदाशिव वाळिंबे (वि. स. वाळिंबे) (11ऑगस्ट 1928 – 22 फेब्रुवारी 2000)

वि. स. वाळिंबे या लेखक व पत्रकारांचे शिक्षण पुण्यात झाले. इ. स.1948साली गांधीहत्येनंतर रा. स्व. संघावर घालण्यात आलेल्या बंदीच्या विरोधातील सत्याग्रहात सहभागी झाल्यामुळे त्यांना तीन महिने येरवडा कारागृहात ठेवण्यात आले. त्यामुळे त्यांच्या शिक्षणात खंड पडला.

1962-63मध्ये ते ‘केसरी’ वृत्तपत्रात वृत्तसंपादक म्हणून काम करू लागले. पत्रकारितेच्या प्रशिक्षणासाठी ते  कार्डिफ येथे गेले होते.

त्यांनी विशेषकरून ऐतिहासिक कादंबऱ्या लिहिल्या. ‘1857ची संग्रामगाथा’, ‘गरुडझेप’, ‘मध्यरात्रीचा स्वातंत्र्यसूर्य ‘, ‘वॉर्सा ते हिरोशिमा ‘, ‘व्होल्गा जेव्हा लाल होते ‘, ‘श्री शिवराय ‘, ‘सावरकर’, ‘हिटलर’ यासारख्या अनेक ऐतिहासिक कादंबऱ्या त्यांनी लिहिल्या.

त्याचप्रमाणे ‘अरुण शोरी : निवडक लेख’, ‘इंदिराजी ‘, ‘इन जेल’, ‘भारत विकणे आहे ‘वगैरे बऱ्याच पुस्तकांचे मराठीत अनुवाद केले.

इतिहास वा तो घडवणारी माणसे यांचे त्यांना आकर्षण होते. तीच त्यांची प्रेरणा होती. इतिहासाचे वस्तुनिष्ठ विश्लेषण असूनही त्यांचे लिखाण क्लिष्ट, कोरडे झाले नाही की इतिहासाला जिवंत करण्याच्या  नादात भावाविवशही झालं नाही.

अभ्यास आणि कष्ट करून त्यांनी निवडून -पारखून घेतलेला तपशील, ते वाचनीयता व रसवत्ता राखून उत्तम रीतीने मांडत असत.

त्यांच्यावर लिहिल्या गेलेल्या साहित्यामध्ये ‘उमदा लेखक, उमदा माणूस ‘ या अरुणा ढेरे संपादित लेखसंग्रहाचा समावेश आहे.

ओघवत्या वा चित्रदर्शी निवेदनशैलीने ऐतिहासिक लेखन करणाऱ्या वि. स.वाळिंबेंना त्यांच्या स्मृतिदिनानिमित्त ई -अभिव्यक्ती परिवाराकडून नम्र आदरांजली. ????

 

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : शिक्षण मंडळ कऱ्हाड: शताब्दी दैनंदिनी, इंटरनेट.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रेयसीचे वदन माझ्या… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

☆ प्रेयसीचे वदन माझ्या… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

लाजणारा चंद्र नभीचा ना कधी कुणी पाहिला

वाहणारे चांदणे वा ना कधी कुणी पाहिले

हासताना मौक्तिमाला ना कधी कुणी पाहिली

बोलताना वा जलाशये ना कधी कुणी पाहिली

 

प्रेयसीचे वदन माझ्या चंद्र जणू तो लाजतो

हास्य करता चांदण्याचा ओघ जणू तो वाहतो

हास्य दावी दंतपंक्ती, मोती जणू ते हासती

बोलके ते दोन डोळे, जलाशये जणू बोलती.

 

© श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 126 ☆ निर्माल्याची ओटी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 126 ?

☆ निर्माल्याची ओटी ☆

तुझ्या प्रेमाखातर मी

हात ढगाचा सोडला

खाली येऊन पाहिले

माझा कणाच मोडला

 

खाचखळगे मिळाले

चाललोय धक्के खात

बांधावर मी थांबतो

मला आवडते शेत

 

वाहणाऱ्या ह्या नदीला

नको निर्माल्याची ओटी

काहीजण घासतात

तिथे भांडी खरकटी

 

सागराच्या भेटीसाठी

होउनीया आलो झरा

आत्मा माझा हा निर्मळ

आणि सोबती कचरा…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ संत  वेणास्वामी – भाग -4 ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई ☆

सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

?  विविधा ?

☆ संत  वेणास्वामी – भाग -4 ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई ☆

(सूर्याच्या लेकी या महाग्रंथासाठी निवड झालेला सौ.पुष्पा प्रभूदेसाई यांचा संत वेणास्वामी हा लेख क्रमशः ई-अभिव्यक्ती च्या वाचकांसाठी:

 त्या काळात मिरजेच्या किल्ल्यावर आदिलशहाचा किल्लेदार दलीलखान काम पहात होता. तो अहंकारी होता. समर्थांनी त्याला रामाची अनुभूती देऊन, अहंकार उतरवला. तो समर्थांचा भक्त झाला. समर्थांना “तुम्हाला काय हवे ते देतो, पण इथेच राहा” म्हणून आग्रह करू लागला .पण समर्थांनी त्याला सांगितले की, या आमच्या शिष्या वेणास्वामी मिरजेच्या आहेत. तेव्हा त्या राहतात, ती जागा मठ म्हणून करा. दलील खानने समर्थांना आश्वासन दिले की ,”वेणा स्वामींना काहीही त्रास होणार नाही,” पुढे समर्थांनी वेणाबाईंना विधिवत मठपती म्हणून स्थानापन्न केले. (शालिवाहन शके १५७७ , इ.स. १६५५, श्रावण अष्टमी) आणि क्रांतिकारी पाऊल टाकले .आता समर्थ जायला निघाले. वेणास्वामींना वाईट वाटले. समर्थांनी राम-लक्ष्मण-सीता मारुती यांच्या मूर्ती आणि स्वतःच्या चरणपादुका ,त्यांच्या स्वाधीन केल्या. दलिलखान हनुमानाचा आणि  वेणास्वामींचा भक्त झाला .तो नित्य दर्शनासाठी येताना, फळे-फुले, मिठाया घेऊन यायचा. कधी वेणास्वामींशी धर्म आणि तत्त्वज्ञान यांच्या विषयावर सल्ला घ्यायचा. मठाधिपती झाल्यानंतर  वेणास्वामीनी आपल्या मठास सामाजिक, सांस्कृतिक आणि धार्मिक केंद्र म्हणून विकसित केले. तरुणांमध्ये भक्ती बरोबर शक्ती हवी, म्हणून कीर्तन, प्रवचन, दासबोध पारायण, त्याचबरोबर आखाडा ही बनविला गेला. मुलांवर चांगले संस्कार व्हावेत, म्हणून रामरक्षा, मनाचे श्लोक शिकवू लागल्या. लवकरच मिरजेचा रामदासी मठ विख्यात केंद्र बनला. वेणास्वामी राम जन्मोत्सवासाठी महिनाभर चाफळला जात असत. कीर्तनाद्वारे जागृती करत असत. अनेक ठिकाणी त्यांचे शिष्य होते. तेथे आखाडे स्थापित झाले. वेणास्वामीनी उत्तर भारताची यात्राही केली होती. त्यांनी कबीर, मीराबाई यांच्या पदांचा अभ्यास केला होता. त्यामुळे त्यांनी काही हिंदुस्थानी भाषेतील पदेही रचली आहेत. उत्तर भारतात त्यांचे अनेक शिष्य आणि आखाडेही होते.

एकदा समर्थ मिरजेच्या मठात आले असताना, काशीराज या विद्यार्थ्याने सोवळ्यातील पाणी पाय धुवायला आणून दिले.  तेव्हा वेणा बाईंनी सांगितले की, दासबोधातील शिकवण– देव तसा  गुरु. आपण देवरूप आहात म्हणून त्यांनी सोहळ्यातील पाणी आणून दिले. वेणास्वामी कडक शिस्तीच्या होत्या. त्यांना चाफळला असताना एक महंत पालथा पडून दासबोध वाचत असल्याचे दिसले. त्यांनी त्याच्यासमोर खाली वाकून नमस्कार केला.  त्याला चूक समजली. आणि तो खजिल झाला.

इ.स.१६७८मधे वेणा स्वामींना समर्थांनी निरोप पाठवला की यावेळी आक्का स्वामी तेथे नसल्याने, व मीही ऐनवेळी येणार असल्याने ,सर्व व्यवस्था तुम्हाला एकटीलाच पहावी लागणार आहे. प्रथम त्या गोंधळून गेल्या. चाफळ मठाची सर्व व्यवस्था आक्का स्वामींच्या विचाराने चालत असायची. पण यावेळी त्या रामदासींच्या बरोबर भिक्षेसाठी कराड, कोल्हापूरच्या भागात जाणार होत्या. नेहमी आक्कास्वामी आणि मदतीला वेणास्वामी अशा मिळून, रामनवमीच्या उत्सवाची तयारी करीत असत.

क्रमशः….

©  सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

बुधगावकर मळा रस्ता, मिरज.

मो. ९४०३५७०९८७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ गटुळं – भाग-7 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

? जीवनरंग ❤️

☆ गटुळं – भाग-7 ☆ श्री आनंदहरी 

(रंगाचा सोपा.. शक्य असेल तर सोप्यात धुरपदाचा हार घातलेला फोटो.. बाकी नेपथ्य पूर्ववत )

भामा  :- ( हातात धुरपदाचं गटूळं )  बरं झालं बाई.. म्हातारी गेली तवा कुनाच्याबी नदरंला पडायच्या आगुदरच म्या गटूळं लपीवलं त्ये.. न्हायतर सारजीची नदार त्येच्यावं पडली असती तर समदंच केल्यालं पान्यात गेलं आसतं.. म्हातारीचं समदं दिस होस्तंवर .. पावनं पै जकडल्या तकडं जास्तंवर..  गटूळं कवा बगतीया.. आन  माळ- पैका आडका कवा घितीया आसं झालं हुतं .. आता  गटूळयातलं पैकं आन माळ  समदं माजं येकलीचंच..

(खाली बसते.. गटूळं उलगडते.. काहीच दिसत नाही.. अविश्वासाने गटूळ्यातला एकेक कपडा इकडं तिकडं टाकते…माळ दिसते तशी खुशीत येऊन माळ उचलते.. )

भामा :-   आँ ss ! येक पैका बी न्हाय गटूळ्यात.. तवा तर म्हातारीनं शंभराची नोट काडलीवती.. पर माळ घावली ही ब्येस झालं..

(खुशीत माळ गळयात घालू लागते तेवढ्यात काहीतरी जाणवून माळ डोळ्यासमोर घेऊन पाहते…) आँ ss !  ही सोन्याची न्हाय … असली माळ तर धा-इस रुपैला बाजारात मिळती .. ( माळ दूर भिरकावते आणि कपाळावर हात मारून घेत ) आरं माज्या दैवा.. म्हातारीनं फशीवलं की मला…

(भामा कपाळावर मारलेला हात तसाच असताना स्तब्ध होते..)

रंगा :- (आतून प्रेक्षकांसमोर येत.. भामाकडे हात करून हसत ) अश्या सुना भेटल्याव.. परत्येक सासुनं आसंच गटूळं सांभाळाय पायजेल… ही बाकी खरं हाय बरंका !

(वर आकाशाकडे पहात हात जोडून उभा राहतो.)

(हळूहळू पडदा पडतो)

समाप्त

© श्री आनंदहरी

अद्वैत, मंत्रीनगर, इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099/9422373433

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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