हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 97 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 8 – मम्मा के आंगे ममयावरे की ने हाँको… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 97 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 8 – मम्मा के आंगे ममयावरे की ने हाँको … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

मम्मा के आंगे ममयावरे की ने हांकों

शाब्दिक अर्थ :-एक जानकार के सामने अपना आधा अधूरा ज्ञान प्रस्तुत करना।

इस बुन्देली कहावत के पीछे जो संभावित कहानी हो सकती है वह कुछ कुछ ऐसी होगी :-

वर्तमान में उद्योग धंधों से विहीन  बुंदेलखंड  पुरातन काल में भी ऐसा ही रहा होगा। बहुसंख्य आबादी गाँव में रहकर खेती करती होगी और कुछ कुछ दूरी पर छोटे मोटे कस्बे होंगे जहाँ व्यापारियों के परिवार रहते होंगे जो ग्रामीणों की घर ग्रहस्थी की जरूरते पूरी करते होंगे।

ऐसे ही कोपरा नदी के किनारे बसे एक गाँव चोपरा में एक कृषक परिवार रहता था। उसकी एक बहन गाँव से थोड़ी दूर स्थित एक कस्बे हरदुआ में ब्याही थी और बहनोई छोटा मोटा एक व्यापारी था।  कृषक का पुत्र कलुआ  एक बार अपनी बुआ के घर हरदुआ गया। परम्परा के अनुसार भाई ने बहन के लिए गाँव से सब्जी भाजी, तिली, झुंडी (ज्वार) दूध आदि उपहार भेजे। कलुआ को अपने घर आया देख बुआ बड़ी खुश हुयी। बुआ ने अपने दोनों लड़कों बड़े बेटे पप्पूँ और छोटे बेटे गुल्लु से कलुआ की  दोस्ती करवाई और फिर अपने मायके के हालचाल पूंछने लगी कि भइया भौजी कैसे हैं, पड़ोसन काकी के क्या हाल चाल हैं, कुँआ वाली बुआ जिंदा है कि मर गयी और बरा (बरगद) वाली मौसी अभी भी बहु को गरियाती है कि नहीं, तला वाली बिन्ना (बहन) अभी अभी चुखरयाई (चुगलखोरी) करती है कि नहीं आदि आदि। कलुआ भी बुआ की सभी बातों का अपनी गमई जबान से जबाब देता जा  रहा था और बता रहा था कि आजकल अम्मा को कैसे बात बात मैं चिनचिनों लग जाता है ( किसी भी छोटी छोटी बात का बुरा लगा जाना) और बुआ अब तो घर घर मटयारे चूल्हे हो गयें हैं। इन सब बातों में पप्पूँ और गुल्लु को बड़ा मजा आ रहा कि अचानक बुआ ने बातचीत की धार यह कहते हुये मोड़ी कि सरमन बेटा को ऐसी बातें करना शोभा नाही देता है  और  खेती किसानी के बारे में पूंछने लगी । कलुआ को तो अब मानो मनमाफ़िक विषय मिल गया क्योंकि संझा सकारे (शाम और सुबह) खेत का चक्कर लगाना तो उसका प्रिय शगल था। वह बुआ को बताने लगा कि आजकल  खेती किसानी बहुत अच्छी नहीं रह गई है और हरवाहों को हर काम के लिए अरई गुच्चनी पड़ती है, फसल अच्छी होती है तो पड़ोसी गाँव के किसान जरबे मरबे लग जात हैं (ईर्ष्या करने लग जाते हैं)। कलुआ खेती किसानी की परेशानियाँ बता ही रहा था कि बड़ा बेटा पप्पूँ जो कस्बे के स्कूल में पढ़ता था बीच में ही उचक पड़ा और खेती किसानी पर अपना ज्ञान बघारने लगा तभी बुआ  पप्पूँ को डपटते हुये बोली  कि मम्मा के आंगे ममयावरे की नई हाँकी जात

और शायद  तभी से यह कहावत चल पड़ी होगी। इसी से मिलती जुलती एक और कहावत है “बूढ़ी बेड़िनी खौं काजर “ जिसका शाब्दिक अर्थ भी जानकार को ज्ञान बताना है। (बेड़िनी बुंदेलखंड के लोकनृत्यों की नर्तकी है)

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (11-15)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (11 – 15) ॥ ☆

सर्गः-13

 

देखो उछल विभाजते जल को ये गज-ग्राह।

फेन कि जिनके कान पै दिखता चमर-प्रवाह।।11।।

 

सर्प तरंगों दीर्घ सम वायुपान हित तीर।

आये दिखते चमकते मणि से वृहद् शरीर।।12।।

 

तव अधरों सी शोभती मूँगों की चट्टान।

पर तरंगहत दीखते कम हैं शंख महान।।13।।

 

भँवरवेग से भ्रमित धन करते से जलपान।

देख है आता मंदराचल से मन्थन का ध्यान।।14।।

 

ताल वृक्ष की छाँव से नीलउदधि तट हार।

दिखता दूर है, चक्र के तट ज्यों जंग प्रसार।।15।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पैलतिरावर जाणे ☆ श्री रवींद्र सोनावणी

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पैलतिरावर जाणे ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆ 

सूर विखुरले दाही दिशांना, आता कुठले गाणे ?

तीर दिसेना ऐलतिरावर, पैलतिरावर जाणे ||धृ||

 

कुठे कशाचे बंध न उरले, 

सुखस्वप्नांचे स्वप्नही विरले,

दिशाहीन तो फिरे कारवां, घुमवित जीवन गाणे ||१||

 

पर्णहीन त्या कल्पतरूवर,

धुंडीत फिरतो मधू मधुकर,

आकांक्षेच्या स्वैर वारूवर, भिरभिरतात दिवाणे ||२||

 

फुलपंखांनी लहरत यावी,

माळावर त्या रिमझिम व्हावी,

आणि कोरले जावे अवचित, खडकावरती लेणे ||३||

 

शिशिरानंतर वसंत यावा,

चैतन्याचा मयूर झुलावा,

आणि अचानक बरसत यावे, भूवर गगन तराणे ||४||

 

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 121 ☆ वृत्त-अर्कशेषा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 121 ?

☆ वृत्त-अर्कशेषा ☆

आजकाल मी इथेच वाट पाहते ना

दूर दूर होत एकटीच राहते ना

 

पंचमीस रंग खेळला कुणी दुपारी

शब्द एक लागला मलाच तो जिव्हारी

 

लावलाच ना कधी गुलाल मी कुणाला

डाग एक तो उगाच लाल ओढणीला

 

“लोकलाज सोडली” मलाच दोष देती

ना कळे कुणास प्रेम आकळे न प्रीती

 

एक दुःख जाळते मनास नेहमीचे

ना कुणास माहिती प्रवाह गौतमीचे

 

तारतम्य पाळतेच स्त्री ,वसुंधराही

प्रीतभाव ना कळे पुरूष, सागराही

 

एकटीच शोधते खुणा इथेतिथे ही

सोडते स्वतःस त्या जुन्याच त्या प्रवाही

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ संत  वेणास्वामी – भाग -5 ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई ☆

सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

?  विविधा ?

☆ संत  वेणास्वामी – भाग – 5 ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई ☆

(सूर्याच्या लेकी या महाग्रंथासाठी निवड झालेला सौ.पुष्पा प्रभूदेसाई यांचा संत वेणास्वामी हा लेख क्रमशः ई-अभिव्यक्ती च्या वाचकांसाठी:)

रामनवमीच्या उत्सवासाठी वेणास्वामी चाफळला आल्या. आल्यानंतर दोन-चार दिवसातच त्यांना ताप भरला. थंडी तापाने गाठले. तशाच अवस्थेत नदीवर जाऊन, त्या स्नान  करून आल्या. त्यामुळे तब्येत आणखीच बिघडली. औषधे घेतली ,पण औषधांचा काहीही परिणाम होईनासा झाला. त्यांना आता काळजी लागली. रामाचा उत्सव कसा होणार! मनाची तळमळ सुरू झाली. काय करावे काही सुचत नव्हते. रामनवमीचा उत्सव होणार याची मात्र खात्री होती. तरीही काळजी लागून राहिली होती .शेवटी त्या खुरडत, खुरडत रामाच्या मंदिरात गेल्या. अशक्तपणामुळे उभे राहणेही कठीण जात होते. खांबाला धरून उभे राहायला येते का, ते पहात होत्या. पण तेही कठीण झाले. शेवटी स्वतःला त्यांनी आपल्याच लुगड्याच्या पदराने, खांबाला बांधून घेतले. अश्रू गळत होते. श्रीरामाची प्रार्थना करायला लागल्या .अंतकरण भरून आले. श्रीरामाच्या मूर्तीकडे पाहिले, आणि त्यांना दिसले की, श्रीरामाच्या डोळ्यातून पाणी यायला लागले आहे. माझ्या भक्तवत्सल रामाला माझ्यामुळे किती दुःख सोसावे लागले, असे म्हणून त्या दुःखी झाल्या .रामभक्त आणि राम यांचे नाते जुळले .अत्यंत हृदयस्पर्शी असे काव्य त्यांना सुचभले. पतित पावना जानकी जीवना। अरविंद नयना रामराया। ——- आता पुन्हा पुन्हा उत्सवाचे कसे होणार याची काळजी लागली .

रमाबाई नावाची एक बाई, “मला उत्सवाची कामे करण्यास,आक्कास्वामींनी पाठविले आहे”, असे सांगून वेणा स्वामींकडे आली. तिने वेणा स्वामींना औषधोपचार केले. तापही उतरला. त्यांच्या देखरेखीखाली रमाबाई सर्व कामे भराभर करू लागली. उत्सवाचा दिवस उजाडला .समर्थ, आक्का स्वामी आणि दूरदूरचे लोक उत्सवासाठी यायला लागले. वेणास्वामीनी अक्का स्वामी व समर्थांना, रमाबाईंनी केलेल्या कामाचा तपशील सांगितला. आक्का स्वामी म्हणाल्या, “मी तर कोणालाच पाठवले नव्हते”. रमाबाईंचा शोध घेतला. पण रमाबाई  गायब झाली होती. भक्तांच्या आनंदोत्सवाच्या निमित्ताने, श्री रामप्रभूनीच काम केले,अशी खात्री झाली.

आजारपण, उत्सवाची जबाबदारी, कामे यामुळे वेणा स्वामींना अशक्तपणा जाणवत होता .बरेच दिवसात त्या माहेरी कोल्हापूरला गेल्या नव्हत्या. समर्थांकडे तशी त्यांनी इच्छा व्यक्त केली. पण समर्थांनी सांगितले की,” उद्या आपल्याला सज्जनगडावर जायचे आहे. तुमचा थकवा कमी झाला ,बरे वाटू लागले की ,मग बघू “.दुसरे दिवशी अक्कास्वामी आणि प्रभू रामचंद्राचा निरोप घेऊन सर्वजण सज्जनगडावर जायला निघाले.  अशक्तपणामुळे वेणास्वामींची पावले हळूहळू पडत होती. थांबून, थांबून चालावे लागत होते. वर पोहोचल्यानंतर कल्याण स्वामींनी आपल्या गुरु  भगिनीची औषध पाणी ,खाण्यापिण्याची खूप काळजी घेतली. आठ दहा दिवसात त्यांना बरेही वाटू लागले. समर्थांनी घोषणा केली .”चैत्र वद्य चतुर्दशीला, दुपारी चार वाजता वेणा स्वामींचे कीर्तन होईल. आणि मग त्या माहेरी जातील. स्वतः  वेणास्वामींना खूप आनंद झाला. त्याचबरोबर आजूबाजूचे लोकही आनंदित झाले .कारण बरेच दिवसात त्यांनी वेणा स्वामींचे कीर्तन ऐकले नव्हते. आज आपण आपल्या गुरुं समोर कीर्तन करणार ,त्याचा त्यांना अभिमान आणि धन्य धन्य वाटत होते.

क्रमशः….

©  सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

बुधगावकर मळा रस्ता, मिरज.

मो. ९४०३५७०९८७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हृदय मिलन – भाग 1 ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆

श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

? जीवनरंग ❤️

☆ हृदय मिलन – भाग 1 ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆

आजचा तिसरा दिवस होता. रजनीला रोज एकाच नंबरवरून फोन येत होता आणि रोज तोच तो…..मी मंगेश पराडकर असे सांगायचा आणि मला तुम्हाला भेटायचे आहे असे सांगून  रजनीकडे तिला भेटण्यासाठी वेळ मागायचा.

रजनी मुंबईतली परेल परिसरात राहणारी मध्यमवर्गीय ‘हम दो हमारे दो ‘ अशा चौकोनी घरातली मुलगी. एका  वर्षापूर्वी तिचे वडील अल्पशा आजराने गेले आणि घरचा सगळा भार रजनीवर पडला.  नुकतीच कॉमर्स शाखेतली पदवी घेऊन एम. बी. ए.  करण्याचा विचार करत असणाऱ्या रजनीला आई आणि लहान भावाच्या शिक्षणासाठी कॉलेज सोडून ठाण्यातल्या विवियाना मॉल मध्ये एका साडीच्या दुकानात सेल्स मॅनेजर म्हणून नोकरी करायला भाग पडले. दिसायला साधारण पण हुशार असणाऱ्या रजनीने आधी त्या ओळख ना पाळख अशा मंगेश पराडकरला भेटायला नकारच दिला पण आज जेंव्हा तिसऱ्यांदा त्याचा फोन आला तेंव्हा तिला त्याचे काहीतरी काम असणार ह्याची  जाणीव झाली आणि उद्या आपण भेटायची जागा आणि वेळ ठरवू असे सांगून तिने त्याचा सांगून फोन ठेवला.

रजनीकडे मंगेशला भेटायच्या आधी हातात पूर्ण दिवस होता. त्याची काही माहिती मिळावी म्हणून तिने पूर्ण सोशल मिडिया  पालथे घातले. मंगेश पराडकर नावाचे जवळ जवळ २० जण तिला फेसबुकवर मिळाले. त्यातला हा मंगेश पराडकर कोण ह्याचा अंदाज घेण्यासाठी त्याचे वय माहित असायला पाहिजे ते ही रजनीकडे नव्हते. रजनीचा तो पूर्ण दिवस आणि रात्र त्या मंगेश पराडकरच्या नावाने बैचैनीत गेली.

ठरल्याप्रमाणे दुसऱ्या दिवशी रजनीला त्याचा फोन आला, “हॅलो…. मी मंगेश…. मंगेश पराडकर. ” अशा नेहमीच्या सुरात त्याने बोलायला सुरवात केली. ” हां बोला ….. मला  फक्त अर्धा तास सुट्टी मिळेल. त्यामध्ये आपल्याला भेटता येईल. तुम्ही असे करा ….. मला विवियाना मॉल मध्ये स्टारबक्स मध्ये बरोबर २ वाजता भेटा. मी तेथे येते. ” रजनीने त्याला काही न बोलू देता तिच्यानुसार भेटायचे ठिकाण आणि वेळ ठरविली. त्यानेही त्याला दुजोरा दिला आणि फोन ठेवला.

रजनीने अनोळखी असणाऱ्या त्या मंगेशला भेटायला बोलविण्यासाठी सुरक्षित अशी जागा शोधून तिचा वेळही फुकट जाऊ नये म्हणून लंच टाइममध्ये त्याला बोलाविले होते.

त्याला ओळखायचे कसे हा प्रश्न तिला होताच पण तो  स्टारबक्स मध्ये आल्यावर तिला फोन करेलच हयाची तिला खात्री होती.

बरोबर दोन वाजता रजनीने स्टारबक्समध्ये प्रवेश केला आणि एक उंच, देखणा, रुबाबदार, सुटाबुटातला साधारण वयाने २५ ते २८ च्या तरुणाने तो बसलेल्या टेबलावरून उठून तिच्या  समोर येत ” हाय रजनी ….. मी … मी मंगेश पराडकर. ” प्रथम तर  रजनी त्याच्याकडे बघतच राहिली….. तिच्या तोंडून काही शब्दच फुटेना. कसेबसे तिने त्याला हाय केले आणि त्याने तिला तो बसलेल्या टेबलवर बसायला नेले.

रजनीने भानावर आल्यावर विचार केला, ह्याने मला ओळखले कसे…. रजनीला त्याच्याआधी कधी त्याला भेटलेले  किंवा बघितलेले आठवत नव्हते. त्याने त्याच्या खिशातून त्याचे व्हिजीटींग कार्ड तिला दिले आणि रजनीला तिच्या आवडीनुसार कॉफी ऑर्डर देण्यासाठी रिक्वेस्ट केली. रजनीने दोन कॉफी ऑर्डर करून ते व्हिजिटिंग कार्ड वाचायला सुरवात  केली. सी इ ओ ऑफ पराडकर अँड पराडकर पॅकेजिंग इंडस्ट्रीज.

रजनीच्या मनात खूपच खळबळ चालू होती. एवढ्या मोठ्या इंडस्ट्रीजच्या सी इ ओ चे माझ्याकडे काय काम असेल, का हा सगळा फसवा प्रकार चालू आहे. तिला काहीच कळत नव्हते तरीही तिने त्याचे काय काम आहे ते तरी बघू असे स्वतःलाच समजावून त्याला ” हा …. बोला  काय काम काढलेत माझ्याकडे…हो…. त्याच्याआधी मला एक सांगा, आपण ह्या  आधी कधी भेटलो आहोत का ….. म्हणजे तुम्ही  मला ओळखले कसे.” त्याने हसूनच उत्तर दिले , ” नाही …. आपण आज पहिल्यांदाच भेटत आहोत. गेल्या सहा महिन्यांपासून मला  तुम्हांला भेटायचे होते पण तुमचा कॉन्टॅक्ट नंबर मला मिळत नव्हता पण खूप प्रयत्न करून, खूप जणांच्या हातापाया पडून तो आत्ता चार दिवसांपूर्वी मिळाल्यावर मी तुम्हाला फोन केला. तसे आत्ता आपण भेटेपर्यंत माझे असे काही खूप  महत्वाचे काम नव्हते. फक्त तुम्हांला भेटून मनापासून तुमचे आभार मानायचे होते आणि तुमच्या काही माझ्याकडून अपेक्षा असतील तर, मी त्या पूर्ण करण्याचा प्रयत्न करणार होतो पण आत्ता तुम्हांला भेटल्यावर माझा विचार बदलला आहे आणि आता माझे तुमच्याकडं खरंच एक काम आहे.’   

क्रमश:….

© श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

ठाणे

मोबा. ९८९२९५७००५ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक १९ – भाग १ – विद्या आणि कला यांचं माहेरघर – ग्रीस ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १९ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ विद्या आणि कला यांचं माहेरघर– ग्रीस ✈️

मुंबईहून इस्तंबुल इथे विमान बदलून ग्रीसची राजधानी अथेन्स इथे उतरलो. मनात ग्रीसबद्दल प्रचंड कुतूहल होतं .प्राचीन काळातील ग्रीस म्हणजे आजच्या युरोपीयन संस्कृतीचं मूलस्थान आहे. अनेक विद्या आणि कला यांचे हे माहेरघर! विख्यात गणिती आर्किमिडीज, भूमितीवरील पहिलं पुस्तक लिहिणारा युक्लिड, आधुनिक वैद्यक शास्त्राची देणगी जगाला देणारा हिप्पॉक्रेटिस,  सुप्रसिद्ध तत्त्वज्ञ सॉक्रेटिस, प्लेटो, अरिस्टॉटल अशा एकाहून एक नररत्नांची ही जन्मभूमी.इलियट आणि ओडिसी ही महाकाव्यं लिहिणारा होमर हा श्रेष्ठ कवीही इथलाच! लोकशाहीचा पहिला हुंकार जिथे उमटला ते ग्रीस! जगातील पहिलं ऑलिम्पिक जिथे खेळलं गेलं ते हे अथेन्स!

ऐतिहासिक आणि सांस्कृतिक वारशाप्रमाणे ग्रीसला निसर्गाचं वरदानही लाभलं आहे. पूर्वेकडे एजिअन समुद्र, पश्चिमेकडे आयोनियन समुद्र आणि दक्षिणेकडे भूमध्यसागर अशी १४ हजार किलोमीटर्सहून अधिक लांबीची किनारपट्टी लाभली आहे. या सागरात ग्रीसची दोन हजार लहान-मोठी बेटे आहेत.

हॉटेलपासून पॉसेडॉनच्या देवालयापर्यंत जाताना संपूर्ण बासष्ट किलोमीटरचा देखणा समुद्रकिनारा पाहून मन आणि डोळे तृप्त झाले. पारदर्शक पोपटी रंगाचा भल्यामोठ्या एमरेल्ड (Emerald )रत्नासारखा तो समुद्र वाटत होता. ग्लीफाडा,वौला,वार्किझा अशी श्रीमंत उच्चभ्रू उपनगरं या समुद्रासमोर उभी आहेत. समुद्रकिनाऱ्यावर गाड्या पार्क करून लोक तासनतास पोहण्याचा आनंद घेतात. ताजी, मोकळी ,स्वच्छ हवा, लहान मुलांना खेळायला, सायकल फिरवायला मोकळी जागा, हॉटेल्स,  बार्स , ओपन एअर सिनेमा थिएटर्स, वाळू आणि पाण्यातले खेळ यात ग्रीक अभिजन वर्ग रमून गेला होता. आरामात पाय पसरून बसायला खुर्च्या होत्या आणि त्या खुर्च्यांच्या डोक्यावर पांढऱ्या स्वच्छ चौकोनी छत्र्या होत्या. गोरे, उंच, सशक्त, नाकेले, निळ्या- घाऱ्या डोळ्यांचे ग्रीक स्त्री-पुरुष त्यांना लाभलेल्या समुद्र किनार्‍याचा मनसोक्त उपभोग घेतात. पांढऱ्या शिडांच्या होड्या,याटस्  यांचीही गर्दी होती.

या सुंदर रस्त्याच्या शेवटी एका उंच खडकावर पॉसिडोनच्या देवालयाचे भग्नावशेष आहेत. इतिहासाप्रमाणे ग्रीसला पौराणिक कथांचा मोठा वारसा लाभला आहे. आपल्या महाभारतासारखे मनुष्य स्वभावाचे कंगोरे यात रेखाटलेले असतात. आमची गाईड डोरा सांगत होती की अडीचहजार वर्षांपूर्वी पॉसीडॉन आणि अथेना यांच्यातली  स्पर्धेमध्ये अथेनाने ग्रीसमधील पहिली ऑलीव्ह वृक्षाची फांदी लावली. तिचा विजय झाला. तिच्यावरून या शहराचं नाव अथेन्स असं पडलं. या खडकाळ टेकडीवरील रोमन पद्धतीच्या पॉसिडॉनच्या देवालयाचे आयताकृती पायावरील मार्बलचे खांब गतकालाची साक्ष आहेत. गाईडने सांगितलं की लॉर्ड बायरन या इंग्लिश कवीने आपली नाममुद्रा यातील एका खांबावर कोरलेली आहे. टेकडीच्या टोकावरुन एजिअन समुद्रातला सोनेरी सूर्यास्त भारून टाकीत होता.

अथेना देवीचं देऊळ ॲक्रोपॉलिसवर आहे आहे.आहे म्हणजे कोणे एके काळी होतं. ॲक्रोपोलीस म्हणजे ग्रीसचा मानबिंदू! साधारण पाचशे फूट उंच टेकडीवर अडीचशे फूट उंचीचे  एक  भव्य स्वप्नशिल्प पेरिक्लस राजाच्या काळात म्हणजे सुमारे अडीच हजार वर्षांपूर्वी साकारण्यास सुरुवात झाली. एक हजार फूट लांब व पाचशे फूट रुंद असं हे शिल्पकाव्य राजाच्या मित्राने म्हणजे फिदिआस  याने उभारले. फिदिआस हा उत्कृष्ट  शिल्पकार होता. त्याच्यासह अनेक शिल्पकार, स्थापत्यकार, कलाकार या निर्मितीसाठी आपला जीव ओतत होते. त्यांनी अंतर्बाह्य अप्रतिम देखण्या ,भव्य वास्तू उभारल्या. अथेना देवीचे भव्य मंदिर उभारलं.तिचं मुखकमल आणि हात हस्तिदंताचे होते. आणि बाकी सर्व अंग ११४० किलो सोन्याच्या पत्र्याने बनविलेले होते. ही प्रचंड मोठी वास्तू उभारण्यासाठी वापरलेले १४ हजार मार्बल ब्लॉक १६ किलोमीटर दूर असलेल्या माऊंट पेटली इथल्या खाणीतून आणण्यात आले होते.ग्रीक सूर्यपूजक होते. विशिष्ट वेळी देवळात सूर्यप्रकाश येई आणि अथिनाचं पायघोळ सुवर्ण वस्त्र व रत्नजडित डोळे सूर्यप्रकाशात तेजाने चमकत असत. (गाइडच्या तोंडून हे ऐकताना आपल्या कोल्हापूरच्या श्री महालक्ष्मीची आठवण आली).  तिथे अनेक डौलदार इमारती होत्या. त्यातल्या विशाल नाट्यगृहाचे अवशेष, आरोग्यधामाचे अवशेष आणि सुंदर कोरीव काम केलेले मार्बलचे विखुरलेले तुकडे बघण्यासाठी जगभरातील कलावंत तिथे येतात . ते शिल्पकाम पाहून त्यांच्या प्रतिभेला नवे पंख फुटतात.एकसारख्या चुण्या घातल्यासारखे दिसणारे, मार्बलचे   पस्तीस फूट उंच खांब, एकाच अखंड दगडातून कोरल्यासारखे आपल्याला वाटतात पण ते खांब  एकावर एक दगड रचून उभारलेले आहेत. त्यांच्या सांध्यात चुना वगैरे काही भरलेलं नाही. इतके ते मोजून-मापून काटेकोर बनविलेले आहेत. देवळाचं छत तोलण्यासाठीचे खांब म्हणून मार्बलच्या सहा सुंदर युवती उभ्या आहेत.  त्यांची चुणीदार वस्त्रे, केशभूषा ,दागिने ,चेहऱ्यावरील भाव पहाण्यासारखे आहेत, मात्र या युवतींची ही मूळ शिल्पं नसून त्यांच्या प्रतिकृती बनवून तिथे उभारल्या आहेत. मूळ शिल्पांपैकी काही तिथल्या ॲक्रोपॉलिस म्युझियममध्ये आहेत तर यातील एक युवती ब्रिटिश म्युझियमची शोभा वाढवीत आहे. गाइड म्हणाला की  दोन हजार वर्षांपूर्वी प्राचीन ग्रीक संस्कृती लयाला गेली. त्यानंतर ग्रीकांवर रोमन्स, बेझेन्टाईन,अरब, ख्रिश्चन,क्रुसेडर्स,ऑटोमन्स (तुर्की मुस्लिम ) अशा अनेक राजवटी आल्या. ऑटोमन्सच्या काळात त्यांनी ॲक्रोपोलीसचा मार्बलच्या खाणीसारखा उपयोग केला. या भव्य वास्तूंच्या खांबांवरील सहा फूट रुंद सलग पट्टिकांवर  ग्रीक पुराणातील देवदेवता,ट्रोजन वॉर व इतर शत्रूंबरोबरच्या लढाया असे कोरलेले होते. लॉर्ड एल्गिन या ब्रिटिश सरदाराने अशा अनेक पट्टिका तोडून- फोडून काढल्या व इंग्लंडमध्ये नेल्या.

मध्यंतरी ग्रीसमधील एका इतिहासतज्ञ स्त्रीने ब्रिटिश म्युझियममध्ये असलेला हा ग्रीसचा ठेवा ग्रीसला परत मिळावा यासाठी राजकीय पातळीवरूनही पाठपुरावा केला पण त्याचा काही उपयोग झाला नाही. गाइडच पुढे म्हणाली, ‘कसा मिळणार तो ठेवा परत? एकदा  ग्रीसला त्यांच्या अमूल्य वस्तू परत केल्या तर साम्राज्यावर कधीही सूर्य न मावळणाऱ्या ब्रिटिश सरकारने जगभरातून ब्रिटनमध्ये जे जे नेले ते ते इतर सर्व देश परत मागतील. मग ‘ब्रिटिश म्युझियम’मध्ये काय उरेल? काही नाही!’ आपणही आपला अमूल्य कोहिनूर हिरा व इतर असंख्य मौल्यवान वस्तू आठवून आवंढा गिळण्यापलीकडे काय करू शकतो?

ॲक्रोपोलीस  टेकडीवरून खालच्या दरीतली पांढरीशुभ्र छोटी- छोटी घरं दिसत होती. जुन्या आणि नव्या शहराच्या सीमारेषेवरील ‘आर्च ऑफ हेड्रियन’ ही कमान रोमन सम्राट हेड्रियन याने इ.स. १३२ मध्ये उभारली. कॉन्स्टिट्यूशन स्क्वेअर, हाऊस ऑफ पार्लमेंट बिल्डींग, नॅशनल लायब्ररी या बिल्डिंग बसमधून पाहून पॅन्थेनाक  स्टेडियम इथे उतरलो. इथेच १८९६ मध्ये ऑलम्पिक गेम्स खेळले गेले. अर्धवर्तुळाकार उतरत्या दगडी पायऱ्यांच्या अंडाकृती स्टेडियमचं पुनरुज्जीवन करून ते नेटकं सांभाळलं आहे.

ग्रीकांना मानवी देहाच्या आरोग्याचं महत्त्व माहीत होतं तसंच मनाच्या आरोग्याचं महत्त्वही ते जाणून होते. एकमेकांशी खिलाडू स्पर्धा करण्याच्या विचारातून ऑलिंपिकचा जन्म झाला. व्यायाम शाळा, स्टेडियम यांची उभारणी झाली. नाट्यकलेतून लोकांना देव, धर्म, राजकारण, समाजकारण यांची ओळख झाली. प्रत्येक धार्मिक व ऐतिहासिक ठिकाणी ॲ॑फी थिएटर असावे असा नियम होता. तत्वज्ञान विद्यापीठ या उंच खांबांच्या इमारतीच्या प्रवेशद्वारी सॉक्रेटिस  व त्याचा शिष्य प्लेटो यांचे संगमरवरी मोठे पुतळे आहेत. जवळच अथेन्स विद्यापीठाची भव्य सुंदर इमारत व लायब्ररी आहे. एकोणिसाव्या शतकातील अथेंस सिटी हॉल व नॅशनल थिएटर हे उत्तम स्थापत्यशास्त्राचे नमुने आहेत.

ग्रीस भाग १ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ वीरु ने लिहिले जयला पत्र… सुश्री प्रभा हर्षे ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

? वाचताना वेचलेले ??‍?

☆ वीरु ने लिहिले जयला पत्र… सुश्री प्रभा हर्षे ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

प्रिय जय,

तू जाऊन आता जवळजवळ चाळीस वर्षे झाली. आज एका फेसबुक समूहातील एका उत्कृष्ट उपक्रमाच्या निमित्ताने तुला पत्र लिहायची संधी मिळाली!

मित्रा, माझ्या जिवलगा आपल्या मैत्रीच्या वेळेपासून जग खूपच बदलले आहे. आपली साईड कार वाली येझदी आता भंगारात किलोच्या भावाने विकली जाते. तू वाजवत असलेला माऊथ ऑर्गन यांत्रिक वाद्यांच्या कोलाहलात गंज लागून पडून आहे. मारामारीसाठी आपण वापरत असलेले सुरे आणि पॉईंट टूटू रायफल आता फक्त पोलिसांकडे क्वचित आढळतात. घोडे तर आता टांग्याला देखील ओढत नाहीत. फक्त रेसकोर्सवर एखाद्या डर्बीत धावतात!

आपल्या रामगढ मध्ये आता माझ्यासारखी काही म्हातारी खोडं सोडली तर कोणीच राहात नाही. गाव ओसाड झालाय. सगळे शहराकडे गेले आहेत. शहरांचा श्वास घुसमटतो आहे . इथे आता लुटण्यासारखं काही नसल्याने डाकू यायची शक्यताच नाही. तसही आपण दोघांनी गब्बरला संपवल्यावर रामगढकडे वाकड्या डोळ्यांनी बघायची हिम्मत कोणत्याच डाकुत नव्हती. पण मित्रा गब्बर परवडला रे! अगदी त्याने तुला मारला असला तरी! तो दाखवून, सांगून, वागून खुलेआम डाकू होता. घोड्यावरून यायचा आणि गाव लुटून जायचा. पण हल्ली डाकू हसतमुख चेहर्याने कधी पांढरा, कधी काळा, कधी खाकी, कधी इतर कोणत्याही रंगात येतात. हसतमुख चेहरा, महागड्या गाड्या, सोफिस्टिकेटेड रुपात येतात आणि नकळत लुटून जातात. पूर्वी डाकू गावापासून लांब, जंगलात, डोंगरात राहायचे. आता ते आपल्या शेजारच्या घरात, नात्यात, रोजच्या व्यवहारात, रस्त्यात कुठेही असू शकतात. आता सामान्य माणूस डाकुंच्या वस्तीत रहातो आणि रोज विविध गोंडस नावाच्या धाडी पडून लुटला जातो.

असो. पण आपले दिवस खरंच मस्त होते रे मित्रा. खूप साधे आणि सोपे. माणसं काळी किंवा पांढरी होती. हल्ली दिसणारी करड्या रंगाची नरो वा कुंजारोवा जमात महाभारतानंतर हल्लीच परत उदयास आली आहे. त्यावेळी आपण दोस्ती केली ती खुल्या दिलाने आणि गब्बरशी दुश्मनी केली ती पण खुल्या दिलाने. हल्ली छातीत गोळ्या घालणाऱ्या शत्रू पेक्षाही पाठीत विषाच्या सुया टोचणारे मित्र जास्त आढळतात. म्हणून हल्ली कशातच मन लागत नाही. मी आपल्या जुन्या आठवणींच्या आनंदात सुख शोधत असतो. कधीतरी गब्बरच्या त्या अड्ड्यावर फेरफटका मारतो. आता तिथे दगड फोडून खडी बनवायची यंत्र लागली आहेत. ते सर्व कातळ, बसंतीने नाच केला तो दगड, गब्बरने ठाकूरचे हात कलम केले ती वेदी सगळंच नष्ट झालंय!

बाकी ठाकूर दहा वर्षांपूर्वी निवर्तले. राधा वहिनींनी वाड्यात भाडेकरू ठेवले आहेत. त्यांच्या खोलीत लावलेला, चंदनाचा हार घालेला, तुझा माऊथ ऑर्गन वाजवतानचा फोटो अजून तसाच आहे. वाहिनी रोज तो आसवांनी पुसतात आणि तुझ्या तिथीला त्यांच्याच बागेतील बकुळीच्या फुलांचा हार फोटोला चढवतात!

जेलर साहेब केव्हाच रिटायर्ड होऊन गावाला गेले. मधून मधून पत्र येतात त्यांची. ते पण आता थकले आहेत. सुरमा भोपाली इतका म्हातारा झाला तरी आपल्या कथा अजूनही सांगतो. पण कथेत जय मारला गेला हे सांगताना त्याच्या घशात आजही आवंढा येतो. तो शांतपणे मफलर ने डोळे टिपतो! बाकी रामलाल काका गेल्याच वर्षी गेले. आता राधा वाहिनी एकट्याच आहेत. पण मी किंवा बसंती रोज एक चक्कर मारतो त्यांच्याकडे.

तू मौसिकडे शब्द टाकून जमवून दिलेले माझे आणि बसंतीचे लग्न तू गेल्यावर तीन महिन्यात झाले. डोक्यावर अक्षता पडल्या तेव्हा सर्वांच्या मागे उभा राहून मला आशीर्वाद देत असलेला लंबूटांग तू फक्त मलाच दिसलास आणि ढसाढसा रडलो मी! का गेलास तू मला सोडून? आपलं ठरलं होतं ना की “ये दोस्ती हम नही तोंडेंगे?” मग? तू आम्हा दोघांना फसवलस. मला आणि मृत्यूला. तो माझ्याकडे येणार होता पण तू त्याला ओढून नेलास!

असो. बसंती मजेत आहे. ती गावातल्या उरल्यासुरल्या पोरांसाठी नाचाचे क्लास घेते. मी दारू सोडून आता शेतकरी झालो आहे. तुला म्हणून सांगतो. बसंती आज आजी झाली तरी चाळीस वर्षांपूर्वी होती तितकीच आयटम दिसते. मग तिला हा आजोबा झालेला वीरु आजही काधीतरी आमराईत नेऊन नेमबाजीचा सराव करतो! बाकी जय अमेरिकेत असतो. जय म्हणजे आमचा मुलगा. त्याच नाव आम्ही जय ठेवलंय. तुझ्यासारखाच दिलदार आहे पोरगा. त्यालाही मुलगा झालाय. त्याच नाव आम्ही जयवीर ठेवलंय!

मी गेल्याच आठवड्यात रमेशजींना पत्र लिहिले आहे. त्यांना सांगितलंय की तुमच्या शोले नंतर अनेक भ्रष्ट आवृत्त्या आल्या. पण तुमच्या शोलेच्या नखाचीही सर नाही. तेव्हा रमेशजी फॉर ओल्ड टाईम सेक, अजून एक शोले होऊन जाऊ द्या! फक्त शेवटी जय मारता कामा नये! आमची यारी जगली पाहिजे!

आणि हो मित्रा, आमच्या देव्हार्यात देव नाहीत. एकही मूर्ती किंवा तसबीर नाही. आम्ही रोज यथोचित मनापासून पूजा करतो ती त्या तुझ्या कॉईनची! आणि मागे आरती सुरु असते, “जान पे भी खेलेंगे, तेरे लिए ले लेंगे सब से दुश्मनी! ये दोस्ती हम नहीं तोंडेंगे!”

तुझा जिगरी,

वीरु.

संग्राहिका – सौ. स्मिता पंडित

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बहुसांस्कृतिक और बहुआयामी – कैनेडा का शहर टोरंटो ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

☆ आलेख ☆ बहुसांस्कृतिक और बहुआयामी – कैनेडा का शहर टोरंटो ☆ डॉ. हंसा दीप 

हर शहर का अपना एक वजूद, अपना वैशिष्ट्य और अपना एक अंदाज़ होता है। दुनिया के हज़ारों शहरों की भीड़ में कैनेडा का प्रमुख शहर टोरंटो अपनी कई खूबियों के साथ एक ऐसी जगह के रूप में उभर कर सामने आता है जो अपने बहुसांस्कृतिक एवं बहुआयामी स्वभाव के साथ अपनी आत्मीयता और सौहार्द्र के लिये भी जाना जाता है। सन् उन्नीस सौ चौरानबे में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में रहते हुए मैं और मेरा परिवार सिर्फ घूमने के लिये टोरंटो आये थे। टोरंटो शहर की उस तीन दिनों की यात्रा ने हमारा मन ऐसा मोह लिया कि दो वर्ष की अवधि में ही हम इस शहर के हो कर रह गए। इस शहर ने अपनी बाँहें फैलाकर हमारा स्वागत किया और एक नयी पहचान दी। तब से आज तक इस शहर के कई नये पहलुओं से हमारा परिचय होता रहा है। फिर चाहे वह सामाजिक पहलू हो, आर्थिक हो, सांस्कृतिक हो, कलात्मक हो, भाषायी हो, शैक्षणिक हो, खेलकूद हो या फिर धार्मिक ही क्यों न हो, हर जगह अपना श्रेष्ठ देने और अपना श्रेष्ठ लेने की परंपरा का अनुसरण करना सिखाता है यह शहर।   

कैनेडा में आप्रवासियों के लिए एक महत्वपूर्ण गंतव्य के रूप में अपनी वर्तमान और ऐतिहासिक भूमिका को दर्शाता है टोरंटो। कई देशों के लोग बेहतर जीवन की तलाश में जब अपने देश के बाहर बसेरा खोजते हैं तो कैनेडा और शहर टोरंटो उनकी पहली पसंद की सूची में होता है। विविध संस्कृतियों को अपने में समेटे यह शहर अपनी विराट पहचान ही इसी परिप्रेक्ष्य में निर्मित करता है। शहर की बसाहट में संस्कृतियों की बहुलता के साथ धार्मिक, आर्थिक, भाषायी, व बहुआयामी कलात्मक और पेशेवर घटक इसे कैनेडा के दूसरे शहरों से पृथक कर एक नयी पहचान देते हैं।  

( 1 & 3 टोरंटो शहर 2 टोरंटो सिटी हाल)

‘सीएन टावर’, ‘रॉयल ओंटेरियो म्यूज़ियम’, किला ‘कासालोमा’  मुख्यत: इस शहर के विशेष पहचान स्मारक हैं। जब शहर के बीचों-बीच डाउन टाउन की सड़कों पर घूमते हुए, हर गली-चौराहे पर सी एन टावर झाँकता हुआ दिखाई देता है, तब जुड़ता है उससे रिश्ता, शहर से रिश्ता। अपनेपन का अहसास, शहर की ऊँचाइयों का अहसास। ऐसा शहर जो सिर्फ सी एन टावर की ऊँचाइयों से नहीं पहचाना जाता बल्कि हर क्षेत्र में उस ऊँचाई को छूता नज़र आता है। किसी भी शहर में सिर्फ घूमना और रहना उस शहर को अपना नहीं बनाता, उसे अपना बनाने के लिए हमें उसे महसूस करना पड़ता है। हमने भी भारत, मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले से चलकर न्यूयॉर्क तक का सफर किया और फिर टोरंटो को अपना घर बनाया। इस धरती से एक रिश्ता जोड़ते हुए अपने जीवन के सुनहरे पलों को अपने अंदर कैद किया। ख्यालों और सपनों की यह दौड़ दूर तलक जाती है। इतनी दूर कि शायद इन सपनों की ऊँचाइयाँ टोरंटो के सी एन टावर की ऊँचाइयों को भी छू लें। टोरंटो की पहचान बन चुके सी एन टावर को देखते हुए शरीर में फुरफुरी-सी दौड़ने लगती है। किसी भी शहर का पहचान चिन्ह, चाहे वह कोई खास इमारत हो या स्मारक, अपने आप में एक खासियत लिए, उस शहर की पहचान बन जाता है। शहर का ऐसा खास स्थान, जिसे देखकर लगता है कि उसके बगैर शहर अधूरा है। शहर को महसूस करने के लिए, उस स्थान को अपने में समेटना होता है। तभी हो पाती है उस शहर से एक खास जान-पहचान, एक खास दोस्ती जो उस शहर को दिल के करीब लाती है। 

दो सौ से अधिक विभिन्न देशों के लोग यहाँ निवास करते हैं जिनके भिन्न-भिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्व वहाँ के लोगों द्वारा किया जाता है। जहाँ टोरंटो के अधिकांश लोग अपनी प्राथमिक भाषा के रूप में अंग्रेजी बोलते हैं, वहीं शहर में लगभग एक सौ साठ से अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। फ्रेंच यहाँ की द्वितीय आधिकारिक भाषा है। भाषाओं से संपन्न शहर टोरंटो में अंग्रेजी और फ्रेंच के अलावा, इटालियन, स्पेनिश, चीनी, जर्मन, अरबी, हिब्रू, फारसी, तमिल, हिन्दी, पंजाबी, उर्दू के अलावा भी कई भाषाओं का बोलबाला है। इन भाषाओं के कई कोर्स यहाँ की यूनिवर्सिटी, कॉलेज, स्कूल में नियमित रूप से चलाए जाते हैं। भाषाओं की विविधता के साथ ही अंग्रेजी और फ्रेंच में हर आधिकारिक जानकारी उपलब्ध करायी जाती है।

बहुभाषायी विविधता के साथ स्वाभाविक ही बहुसंस्कृति को मान्यता देता यह शहर इन सारी भाषाओं से जुड़ी संस्कृतियों को बगैर किसी भेदभाव के समान अवसर देता है। बहुसांस्कृतिक परिवेश लिये यहाँ हर वर्ग के अपने बाज़ार हैं जहाँ वे सारी वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं जो संस्कृति विशेष के आयोजनों के लिये जरूरी होती हैं। यही विविधता टोरंटो के मन की विशालता के दर्शन करवाती है। इसी भावना के चलते टोरंटो शहर के भीतर, लिटिल इंडिया, लिटिल चाइना, चाइनाटाउन, लिटिल इटली, कोरसो इटालिया, ग्रीकटाउन, केंसिंग्टन मार्केट, कोएरटाउन, लिटिल जमैका, लिटिल पुर्तगाल और रोन्सेवेल्स (पोलिश समुदाय) जैसे और भी कई नाम अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं। ये नाम अपनी खास पहचान लिये होते हैं जो समुदाय विशेष की अपने देश को याद करने की इच्छा को पूरी करते हैं। यहाँ हर तरह के, हर देश और हर संस्कृति के त्योहारों का भरपूर आनंद लिया जाता है। उदाहरण के लिये दीवाली पर कई भारतीय बाज़ार ऐसे होते हैं जहाँ मिठाइयों के टैंट बाहर लगते हैं व आतिशबाजी की अनुमति भी ले ली जाती है। भारतीय समुदाय के लोग ऐसे कई भारतीय बाजारों का पूरा-पूरा आनंद उठाते हैं व भारत से दूर एक और भारत को आत्मसात करते हैं।  

अपनी संस्कृतियों से जुड़े कई धार्मिक स्थान अपनी महत्ता लिये हैं। हिन्दू मंदिर, जैन मंदिर, गुरूद्वारे, सिनेगॉग, चर्च और मस्जिद जैसे कई प्रार्थना स्थल हैं जो अपने-अपने श्रद्धालुओं के लिये आस्था और विश्वास के प्रतीक के रूप में अपना स्थान बनाये हुए हैं। यूँ तो यहाँ अनेक धर्मों के अनुयायी हैं पर दो हजार ग्यारह की जनगणना के अनुसार टोरंटो में सबसे अधिक ईसाई धर्म के अनुयायी थे। शहर में अन्य धर्मों का महत्वपूर्ण रूप से पालन करने वालों की संख्या में प्रमुख स्थान रखते हैं, इस्लाम, हिंदू धर्म, यहूदी धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म।  

टोरंटो का “रॉयल ओंटेरियो म्यूजियम” अपनी भव्यता और संग्रह के लिये कलाप्रेमियों व शोधकर्ताओं को आकर्षित करता है। यहाँ पर साउथ एशिया से संबंधित एक वृहत अनुभाग है जिसमें भारतीय सभ्यता की प्राचीनता और उत्कृष्टता को खूबसूरती के साथ दर्शाया गया है। विश्वभर के चित्रकला प्रेमियों के लिये “आर्ट गैलेरी ऑफ ओंटेरियो” नामक एक विशाल कला सेंटर है जहाँ चित्रकला की कई प्रदर्शनियाँ साल भर लगती हैं। गर्मी की छुट्टियों के दौरान बच्चों में चित्रकला को विकसित करने के लिये तमाम शिविर, कक्षाओं और प्रदर्शनियों का आयोजन किया जाता है। यह समय इतना व्यस्ततम होता है कि साल भर पहले से टिकट बुक किए हों तो ही प्रवेश मिल पाता है अन्यथा अगले साल की प्रतीक्षा सूची का इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। 

टोरंटो संगीत का भी एक प्रमुख केंद्र है जहाँ दूर-दूर से संगीत के मूर्धन्य कलाकार आते हैं और कई विशाल कान्सर्ट्स व आयोजनों में भाग लेते हैं। भारत से ही बॉलीवुड के कई जाने-माने गायक, अभिनेता हर वर्ष यहाँ आते हैं जिनके कॉन्सर्ट में लाखों लोग हिस्सा लेकर अपने मनोरंजन के साथ ही शहर के आतिथ्य भाव का परिचय देते हैं। साथ ही  कैनेडा के प्रमुख थिएटर, सिनेमा, और टेलीविजन के मुख्यालयों का घर भी यहीं पर है। साहित्य और कला के साथ ही खेलों की कई व्यावसायिक टीमें हैं जो पूरी दुनिया में अपने देश और शहर का प्रतिनिधित्व करती हैं।  

पर्यटकों के लिये एक खास पसंद है टोरंटो शहर जो दिल खोल कर अपनी मेजबानी का परिचय देता है। हर तरह की खान-पान की सुविधाएँ, हर देश का खाना, उम्दा रेस्टोरेंट और अपेक्षाकृत उचित दाम के कारण इस शहर में पर्यटक खिंचे चले आते हैं। हर साल लाखों पर्यटक यहाँ आते हैं जिनके लिये टोरंटो का डाउन टाउन इलाका, सी एन टॉवर और कई गगनचुंबी इमारतों के साथ एक विशेष आकर्षण का केंद्र होता है।

यही इलाका कई बैंकों के मुख्यालयों के साथ कई बहुराष्ट्रीय निगमों का मुख्यालय भी है। हर सुबह इसी क्षेत्र में सर्वाधिक आवाजाही होती है जब गगनचुम्बी इमारतों के तले, सूट-बूट से सजे हर उम्र के पेशेवर पुरुष और महिलाएँ फुटपाथ पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। यह एक ऐसा विहंगम दृश्य होता है जो शहर की व्यावसायिकता के उच्च पैमानों को दर्शाता है। तब ऐसा महसूस होता है मानो काम और व्यक्तित्व के श्रेष्ठ नज़ारे से हमारा साक्षात्कार हो रहा हो।

उन्नीस सौ साठ के दशक के अंत तक टोरंटो दुनिया के सभी हिस्सों के आप्रवासियों के लिए एक गंतव्य बन गया था। उन्नीस सौ अस्सी के दशक तक, टोरंटो ने कैनेडा के सबसे अधिक आबादी वाले शहर और मुख्य आर्थिक केंद्र के रूप में मशहूर मॉन्ट्रियल शहर को पीछे छोड़ दिया था। इस समय के दौरान कई राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय निगमों ने अपने मुख्य कार्यालयों को मॉन्ट्रियल से टोरंटो में स्थानांतरित कर दिया था। आज टोरंटो की जनसंख्या का आँकड़ा लगभग चालीस लाख से ऊपर है।

टोरंटो की सैर करते समय ‘नायग्रा फॉल्स’ पर्यटकों के लिये एक बड़ा आकर्षण है जो शहर से लगभग एक घंटे की ड्राइव पर है। प्रकृति का ऐसा अजूबा है नायग्रा फॉल्स जो देखने वालों के रोंगटे खड़े कर देता है। ऊँचाइयों से गिरता पानी, एक ऐसा मनोरम दृश्य दिखाता है कि आँखें चकित होते हुए, जोशीले पानी पर ही टिकी रहती हैं। पानी का ऐसा आवेग, ऐसा जोश, ऐसा संगीतमयी राग, पर्यटकों के द्वारा ‘आह’ और ‘वाह’ के साथ देखा जाता है, महसूस किया जाता और कैमरों में कैद किया जाता है। इतनी ऊँचाई से बहता पानी मौसम के साथ अपना स्वभाव बदल लेता है। ये फॉल्स सर्दियों में बर्फ की चट्टान में तब्दील हो जाते हैं, असंख्य सैलानियों को अपनी ओर खींचते हुए। प्रकृति के अद्भुत नज़ारे का एक जीता-जागता उदाहरण पेश करता नायग्रा फॉल्स, कैनेडा का सबसे व्यस्त पर्यटन केन्द्र है जो टोरंटो के बेहद नजदीक है। यह रात की जगमगाती रौशनी के लिए भी विख्यात है, अलग-अलग दिशाओं से फेंकी जाने वाली रौशनी जब फॉल्स के पानी से प्रतिबिंबित होती है तो प्रकृति और मनुष्य के बीच की ‘पार्टनरशिप’ को विलक्षण व सुंदरतम स्वरूप दे देती है।  

यह शहर छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा है और झील के किनारे बसा है। कभी हरियाली से घिरा रहता है, कभी रंग-बिरंगे खूबसूरत पत्तों और कभी बर्फ की सफेद चादर से। हर मौसम अपने मिजाज़ के साथ अलौकिक सौंदर्य बिखेरता है। एक ओर प्राकृतिक सुंदरता से रचा-बसा है शहर, तो दूसरी ओर प्राकृतिक विपदाओं से भी लगातार जूझता रहता है शहर टोरंटो। हर साल बर्फ के कहर को तो सहती ही है यहाँ की धरती, कभी-कभी बारिश के अंधड़नुमा प्रहार भी सहने पड़ते हैं इसे। आठ जुलाई दो हजार तेरह को धीमी गति से चलने वाली तेज आंधी के गुजरने के बाद टोरंटो में भयंकर बाढ़ आई। टोरंटो हाइड्रो यहाँ की इलेक्ट्रिक कंपनी है। इस कंपनी के समुचित प्रयासों के बाद भी तब तकरीबन साढ़े चार लाख लोगों को बिजली के बगैर रहना पड़ा था। इसके ठीक छह महीने के भीतर, बीस दिसंबर, दो हजार तेरह को, टोरंटो शहर ने अपने इतिहास के सबसे खराब बर्फीले तूफान का सामना किया, जो बर्फीले तूफानों की भयावहता का एक ऐसा रूप था जो शहर को पूरी तरह से झिंझोड़ गया था। तब भी तीन लाख से अधिक टोरंटो हाइड्रो के ग्राहकों के पास कोई बिजली या हीटिंग नहीं थी। यह टोरंटो वासियों के लिये एक बड़ी विपदा थी। इतनी भयंकर सर्दी में बगैर हीटिंग के रहना किसी बड़ी सजा से कम नहीं था।   

“टोरंटो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेयर” के अलावा विश्व के कई बड़े कार्यक्रमों के आयोजन का श्रेय इस शहर के नाम है। इस दौरान दुनिया भर के फिल्मी सितारे टोरंटो की शान में चार चाँद लगाते हैं। इन चमकते सितारों के ग्लेमर की चकाचौंध के साथ ही, ऐसे अल्पसंख्यक समुदायों का दिल खोलकर स्वागत करता है जो अन्यत्र अपना अधिकार पाने में कठिनाइयाँ महसूस करते हैं। समलैंगिक जोड़ों के लिये यह शहर स्वर्ग के समान है। हर वर्ष प्राइड परेड के जलसे में दूर-दूर से लोग आते हैं। टोरंटो ने जून दो हजार चौदह में “वर्ल्डप्राइड” रैली की मेजबानी की जिसमें विश्वभर के समलैंगिक जोड़ों ने शिरकत की और शहर की उदारता और बड़प्पन को जी भर कर सराहा।

अपनी ऐसी ही कई विशेषताओं के कारण यह शहर लगातार बढ़ रहा है और आप्रवासियों को आकर्षित कर रहा है। रायर्सन यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन से पता चला है कि टोरंटो उत्तरी अमेरिका में सबसे तेजी से विकसित होने वाला शहर है। शहर ने जुलाई दो हजार सत्रह और जुलाई दो हजार अठारह के बीच अस्सी हजार लोगों को अपने रहवासियों में जोड़ कर एक रिकॉर्ड बनाया।

आज इस आलेख को लिखते हुए उन पलों का जिक्र करना भी जरूरी लग रहा है मुझे जब पूरा विश्व कोरोना महामारी के प्रकोप से आतंकित होकर घरों से बाहर कदम नहीं रख पा रहा। समस्त ओंटेरियो प्रांत में आपातकाल घोषित किया गया। शहर टोरंटो में भी कोविड19 के दुष्प्रभावों से जूझते हुए, तेईस मार्च, दो हजार बीस को मेयर जॉन टोरी द्वारा आपातकाल की स्थिति घोषित की गई। सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों में पाँच से अधिक लोगों की उपस्थिति को निषेध किया। तब से लेकर आज तक दो-तीन बार इसी स्थिति को दोहराया गया। रेस्तरां में टेकआउट और डिलीवरी सेवाएँ प्रदान करना जारी रखी गयीं। सभी स्कूलें, कॉलेज और यूनिवर्सिटी अनिश्चित काल के लिये बंद कर दिए गए। हालांकि यूनिवर्सिटी और कॉलेज स्तर तक की कक्षाएँ व परीक्षाएँ ऑनलाइन सफलतापूर्वक संपन्न हुईं, वहीं स्कूली शिक्षा की ऑनलाइन कक्षाएँ जिनमें प्राथमिक शालाएँ भी शामिल हैं, गर्मी की छुट्टियों तक जारी रहने के आदेश दिए गए। अब प्राथमिक शालाएँ सुचारू रूप से चल रही हैं परंतु पालकों को यह विकल्प दिया गया है कि वे चाहें तो अपने बच्चों को स्कूल भेजें, न चाहें तो ऑनलाइन कक्षाओं में पंजीकृत करें। इस भयंकर आपदा के समय भी शहर के स्वास्थ्य केंद्र हर रोगी को अपनी सेवाएँ निरंतर प्रदान करते रहे।

इन विविधताओं-विशेषताओं के अलावा टोरंटो का शुमार दुनिया के साफ-सुथरे शहरों में भी है। सचमुच किसी शहर को केवल शब्दों में पढ़ा नहीं जा सकता। उसे महसूस करना पड़ता है, आप सभी का स्वागत है हमारे शहर में। यह तो सिर्फ संक्षिप्त जानकारी है अभी तो बहुत कुछ शेष है जिससे आपका परिचय करवाना है। जी हाँ, सिर्फ ट्रेलर है यह, पिक्चर तो अभी बाकी है। आप एक बार आइए तो सही।

(चित्र साभार – इंटरनेट के फ्री इमेज से) 

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 107 – “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक)  – संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री  मनोज श्रीवास्तव जी  द्वारा सम्पादित पत्रिका  “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक) की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 107 ☆

☆ “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक)  – संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पत्रिका चर्चा

अक्षरा नई यात्रा पर…

पत्रिका चर्चा… अक्षरा अंक २०३, मासिक पत्रिका,

“सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक “

संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव

प्रकाशक… म. प्र. राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, भोपाल

वार्षिक सदस्यता… ३०० रु

किसी विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका में  लेख पढ़कर किसी अपरिचित पाठक का स्वस्फूर्त फोन आवे तो निष्कर्ष निकलता है कि प्रकाशित शब्द पाठक के मन पर छबि अंकित कर रहे हैं, पत्रिका सांगोपांग पढ़ी जा रही है. वरना विशुद्ध साहित्य की कतिपय कथित गरिष्ठ पत्रिकायें वरिष्ठ साहित्यकारों के पास भी लिफाफे से बाहर निकलने को ही तरसती रह जाती हैं. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की मुख पत्रिका “अक्षरा” विगत ४० वर्षो से अनवरत छप रही है, खरीद कर पढ़ी जा रही है, इसमें प्रकाशित होना रचनाकार को आंतरिक प्रसन्नता देता है, अर्थात अक्षरा विशिष्ट है.  नये आकार, नये गेटअप, कलेवर के नये स्वरूप में सेवानिवृत वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी श्री मनोज श्रीवास्तव के संपादन में नई  टीम के साथ अक्षरा अंक २०३, “सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक ” २०० पृष्ठो  की विशद सामग्री निश्चित ही स्थाई संदर्भ हेतु  संग्रहणीय है. वर्तमान परिदृश्य में साहित्य  समाज को चिंतन, विचार और दिशा तो देता है किन्तु उससे सीधा आर्थिक लाभ नगण्य ही होता है.  सामाजिक गरिमा व सम्मान के लिये ही रचनाकार यह सारस्वत अनुष्ठान करते समझ आते हैं.

इस अंक को पढ़कर एक बुजुर्ग पाठक का फोन मेरे पास आाया वे मेरे व्यंग्य लेख ” सरस्वती वंदना से आभार तक ” की प्रशंसा कर रहे थे, मैं फुरसत में था तथा पत्रिका पढ़ ही रहा था सो मैंने उनसे पत्रिका के बाकी लेखों के विषय में भी बातें कीं, और मुझे लगा कि अक्षरा की इस नई यात्रा की चर्चा पाठको के बीच की जानी चाहिये जिससे अक्षरा और भी व्यापक हो.

हाल ही हमने समाचार देखा कि दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग में बहने वाली ब्रिंगी नदी की जलधारा अचानक रुक गई है,  इसका पानी ‘पाताल’ में समा रहा है,  इसका कारण नदी का स्रोत समाप्त होना नहीं, बल्कि एक गहरा गड्ढा (सिंकहोल) बनना है जिसमें सारा पानी समाता जा रहा है. आगे की नदी का करीब 20 किमी लंबा हिस्सा सूखने से बड़ी संख्या में ट्राउट मछलियां भी मर गई हैं. 

अनेक नदियां उनके बेसिन में जंगलो की कटाई के चलते सूख रही हैं, जैसे जालौन से निकली नून नदी विलुप्त होती जा रही है. जालौन के 89 किलोमीटर के दायरे में फैली इस नदी से करीब 30 गांवों की फसलें सिंचित होती थीं. लेकिन, बुंदेलखंड में पड़ रहे सूखे के कारण ये नदी विलुप्त होती जा रही है.

अनेक नदियां व उनके जीव जंतु रेत के अंधाधुंध दोहन से मृतप्राय हो रही हें जैसे गाडरवाड़ा की शक्कर नदी सूख रही है. प्रातः स्मरणिय श्लोक “गंगे यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ” में तो सरस्वती बांची जाती है पर पवित्र  नदी सरस्वती विलुप्त हो चुकी है. अक्षरा का यह विशेषांक सारस्वत साहित्य मंथन के साथ ही लुप्त होती नदियों की ओर भी पर्यावरणविदों का ध्यान आकर्षित करे ऐसी कामना है.

अंक के आरंभिक पन्ने पर अगली पीढ़ी को अपने सम्मुख ऊपर की सीढ़ी पर चढ़ाने का सुख “अपनी बात” में संपादन दायित्व से मुक्त होते कैलाश चंद्र पंत जी ने अभिव्यक्त किया है. नये विद्वान संपादक मनोज श्रीवास्तव जी के संपादकीय का शब्द शब्द, विभिन्न व्यापक संदर्भ, सरस्वती को लेकर उनका गहन चिंतन व संदर्भ विमर्श के श्रोत हैं. श्री रमेश दवे के आलेख सरस्वती मात्र शब्द नहीं दर्शन है, में वे लिखते हें कि ” भारतीय ज्ञान परंपरा का जीवंत होना, शक्तिमय होना ही सरस्वती होना है.

पत्रिका में माँ सरस्वती के दुर्लभ चित्र यत्र तत्र संदर्भानुकूल प्रकाशित किये गये हैं. अंक का सुंदर आवरण चित्र क्षमा उर्मिला जी ने बनाया गया है. 

श्री विनय कुमार, प्रेमशंकर शुक्ल, आभा बोधिसत्व, सुधीर सक्सेना, स्वदेश भटनागर, अभिषेक सिंह,बृजकुमार पटेल, राजकुमार कुम्भज, मुरलीधर चांदवाला, व देवेंद्र दीपक की  चयनित प्रकाशित कविताओ में से स्वदेश भटनागर जी की पंक्तियां उधृत करता हूं..

” हिंसा पर हिंसा

जमती जा रही है

आसमान भी तिरछा हो गया

तुम्हें मालूम होगा न माँ

मौन भी अब हिंसा की जद में आ गया

सुबह रक्त भरे पन्ने से शुरू होने लगी है

मनुष्य भी संवेदन शील नही रहा “

सोनल मानसिंह का लेख सरस्वती, कुसुमलता केडिया का लेख सरस्वती के मुहाने पर दम तोड़ता आर्य आक्रमण सिद्धांत,सरस्वती भारतीय सारस्वत साधना का जीवंत प्रतीक द्वारा राधावल्लभ त्रिपाठी, अरुण उपाध्याय का आलेख सरस्वती वाक् तरंगें और एक नदी, रंगों और रेखाओं में सरस्वती आलेख नर्मदा प्रसाद उपाध्याय,  राजा भोज के सरस्वती कंठाभरण : धुंध के पार एक चमकदार लकीर में  विजय मनोहर तिवारी ने धार की भोजशाला पर विस्तृत ऐतिहासिक विवेचना की है. 

सरस्वती के बहाने आत्म प्रत्यभिज्ञा की खोज में  आनंद सिंह,  आखिर कविता संयत और सिद्ध वाचालता ही तो है / कुमार मुकुल,  सा मां पातु सरस्वती भगवती / राजेश श्रीवास्तव,  सरस्वती का स्वरूप निराकार से साकार तक / मीनाक्षी जोशी,  भारतीय संगीत में सरस्वती / विजया शर्मा,  लुप्त सरस्वती की खोज : श्रीधर वाकणकर ‍-  रेखा भटनागर,  सरस्वती, श्रुति महती न हीयताम् : सरस्वती शाश्वत है / श्यामसुंदर दुबे,  सरस्वती की कालजयिता / विजयदत्त श्रीधर,  ‘ सरस्वती ‘ में महिला संचेतना / मंगला अनुजा,  पुरातन का रूपान्तरण है बसन्त / इंन्दुशेखर तत्पुरुष विशेषांक पर केंद्रित सभी आलेख पौराणिक साहित्य, वेदो, से संदर्भ उधृत करते हुये गंभीर चिंतन जनित लेख हैं. प्रत्येक लेख को पढ़ने समझने में लंबा समय लगेगा.  वैज्ञानिक व तकनीकी दृष्टिकोण से विलुप्त सरस्वती नदी पर एक आलेख की कमी लगी.

नारी तू सरसती / सुमन चौरे, मुझे सरस्वती से कोई दिक्कत नहीं है / निरंजन श्रोत्रिय एवं दारागंज में निराला / देवांशु पद्मनाभ संस्मरणात्मक लेख हैं. सरस्वती संदर्भ की अनूदित सामग्री भी संयोजित है जिसमें “ज्ञान प्रदाता : सरस्वती माता / मूल : विजयभास्कर दीर्घासि / अनुवादक एस. राधा,   सरस्वती नाद शब्द और परब्रह्म का वपुधारण / मूल पुदयूर जयनारायनन नंबूदरीपाद / अनुवादक तथा देवी सरस्वती अंतहीन ज्ञान की देवी मूल : वृन्दा रामानन के हिन्दी अनुवादक स्वयं संपादक मनोज श्रीवास्तव  हैं. इस तरह मनोज जी के अनुवादक स्वरूप के भी दर्शन हम करते हैं.

सरस – वती भव में नरेन्द्र तिवारी ने अद्भुत कल्पना कर स्वयं वाग्देवी सरस्वती से स्वप्न साक्षात्कार ही प्रस्तुत कर दिया है. स्मरणांजलि में श्री नरेश मेहता दृष्टि और काव्य पर प्रमोद त्रिवेदी व गहरे सामाजिक बोध के कवि नरेश महता / प्रतापराव कदम के लेख महत्वपूर्ण हैं.  व्यंग्य “सरस्वती से आभार तक”  / विवेक रंजन श्रीवास्तव,  ललित निबंध राग की वासंतिका : सरस्वती की रंगाभा / परिचय दास के अतिरिक्त दो  कहानियां  बदरवा बरसे रे : कृष्णा अग्निहोत्री एवं यू – टर्न / इंदिरा दाँगी भी पत्रिका में समाहित हैं.  तीन किताबो पर पुस्तक परिचय में बात की गई हैं.  समय जो भुलाए नहीं भूलता (अश्विनी कुमार दुबे), उपनिषद त्रयी (एम. एल. खरे) / पहाड़ी,  नर्मदा (सुरेश पटवा) : रामवल्लभ आचार्य, खंडित होती शाश्वत अवधारणाएँ (सदाशिव कौतुक) / माधव नागदा ने प्रस्तुत की है.   पगडंडियों का रिश्ता (विजय कुमार दुबे) / रमेश दवे,  बीर – बिलास (सं. प्रो. वीरेन्द्र निर्झर) / गंगा प्रसाद बरसैंया,  वसंत का उजाड़ (प्रकाश कांत) / सूर्यकांत नागर,  शिखण्डी (शरद सिंह) / मैथिली मिलिंद साठे,  लोकतंत्र और मीडिया की निरंतर बदलती चुनौतियाँ (मनीषचंद्र शुक्ल) / जवाहर कर्नावट ने पुस्तको पर समीक्षायें रखी हैं.

कुल मिलाकर इस अंक के साथ अक्षरा जिस नई यात्रा पर निकल पड़ी है, उसमें पूर्ण कालिक संपादकीय समर्पण दृष्टि गोचर है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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