हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष : एक लड़ाई क्रांतिज्योति सावित्री की ! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष : एक लड़ाई क्रांतिज्योति सावित्री की ! ??

(यह लेख “नवनीत’ के मार्च 2022 के अंक में ‘क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है।)

असे गर्जूनी विद्या शिकण्या जागे होऊन झटा।
परंपरेच्या बेड्या तोडूनि शिकण्यासाठी उठा।

(34/काव्यफुले)

‘गर्जना कर सकने वाली विद्या को सीखने के लिए जागो और जुटो। परंपरा की बेड़ियों को तोड़कर शिक्षा प्राप्ति के लिए उठो।’

जागृति के लिए निरंतर संघर्ष करने वाली क्रांतिज्योति अर्थात सावित्रीबाई जोतिबा फुले। सावित्रीबाई अर्थात महात्मा जोतिबा फुले की सहगामिनी। केवल पत्नी होने के नाते नहीं अपितु जीवन के हर संघर्ष में सावित्रीबाई, ज्योतिबा की सहगामिनी सिद्ध हुईं।

सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को सातारा जिले की खंडाला तहसील के नायगाव में हुआ था। उन दिनों बालविवाह की प्रथा थी। 9 वर्ष की आयु में सावित्री का विवाह 13 वर्षीय जोतिबा से हुआ‌। जोतिबा शिक्षा के प्रति जागरूक थे। रिश्ते में जोतिबा की बुआ लगने वाली सगुणा एक अंग्रेज अधिकारी के यहाँ काम करती थीं। वह अंग्रेजी बोल लेती थीं। उनके प्रभाव से जोतिबा में शिक्षा के प्रति रुचि और गहरी हुई। शिक्षक जोतिबा ने शिक्षा को अपने तक सीमित न रखकर अपनी निरक्षर पत्नी सावित्रीबाई को भी पढ़ाना आरम्भ किया।

परिवार को शिक्षित करने का भाव यहीं तक नहीं ठहरा। पूरे समाज को परिवार मानने वाले फुले दंपति ने लड़कियों के लिए पाठशाला खोलने की ठानी। उन दिनों समाज में लड़कियों के शिक्षा का प्रचलन नहीं था। स्त्रियाँ चूल्हा-चक्की तक सीमित थीं। ऐसे में विद्यार्थी मिलना बड़ी कठिनाई थी। इतनी ही बड़ी कठिनाई शिक्षक ढूँढ़ना भी थी, क्योंकि तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में परम्परा के विरुद्ध जाकर लड़कियों को पढ़ाने के लिए आगे आना इतना सरल भी नहीं था। कठिनाई से उबरने के लिए सावित्रीबाई ने अध्यापन से संबंधित दो कोर्स किए।

1 जनवरी 1848 को अपने पति जोतिबा के साथ मिलकर सावित्रीबाई ने पुणे के भिड़े वाड़ा में लड़कियों के लिए पाठशाला खोलकर इतिहास रच दिया। सावित्रीबाई यहाँ शिक्षिका और मुख्याध्यापिका भी हुईं। उनके कदम और जिजीविषा यहीं तक नहीं ठहरे। देखते-देखते इस दंपति ने केवल 4 वर्ष में 18 विद्यालय खोल दिए‌। समाज में एक तरह की क्रांति ने जन्म लिया। पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग की लड़कियों का पाठशाला जाना रूढ़िवादियों को जरा भी नहीं भाया। पाठशाला में पढ़ाने के लिए जाते समय सावित्री बाई को नाना प्रकार से परेशान किया गया। कभी शाब्दिक अपमान तो कभी मानसिक दबाव। यहाँ तक कि गोबर फेंकने तक की घटना हुईं परंतु सावित्रीबाई अडिग रहीं और विद्यादान का यज्ञ अविराम चलता रहा।

शिक्षा का अर्थ केवल साक्षर होना नहीं होता‌। साक्षरता से दुनिया की दिशा में खिड़कियाँ खुलती हैं। इन खिड़कियों से आती हवा की सहायता से बौद्धिक विकास और एकात्म की यात्रा होती है। एकात्म, समाज की पीड़ा में पीड़ित होने का भाव है। सावित्रीबाई ने समाज की पीड़ा को अनुभव किया। केवल अनुभव ही नहीं किया अपितु इस पीड़ा से मुक्ति दिलाने के लिए संकल्प लिया। संकल्प सिद्धि के लिए अनेक कदम भी उठाए।

बाल विवाह के चलते उन दिनों छोटी आयु में विधवा होने वाली लड़कियों की संख्या बहुत बड़ी थी। विधवा पुनर्विवाह विशेषकर उच्च वर्ग में पूर्णतया वर्जित था। विधवाओं के बाल कटवा देना जैसी कुरीति समाज में प्रचलित थी। सावित्रीबाई ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई। नाभिक समाज को इस कुरीति के विरुद्ध जागृत किया। उनके प्रयासों के चलते बहुत हद तक इस पर सामाजिक रोक लगी।

युवा विधवाओं के दैहिक शोषण की विकृति समाज में थी‌। अनेक बार संबंधित महिला गर्भ ठहर जाने पर समाज के भय से आत्महत्या कर लेती थी। कई मामलों में भ्रूण हत्या भी होती थी। सावित्रीबाई का मन इस कुप्रथा के कारण विषाद से भर उठा। ऐसे बच्चों की अकाल मृत्यु रोकने के लिए उन्होंने 1853 में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की। अवैध संबंधों से जन्मे बच्चों का यहाँ लालन-पालन किया गया।

विशेष उल्लेखनीय है कि फुले दंपति ने स्वयं भी एक बच्चा गोद लिया। इसका नाम यशवंत रखा गया। आगे चलकर वह डॉक्टर बना।

विधवा पुनर्विवाह के लिए सावित्रीबाई ने अपने पति के साथ मिलकर संघर्ष किया। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप विधवाओं के प्रति समाज के रुक्ष दृष्टिकोण में अंतर आना शुरू हुआ।

उनकी दृष्टि विशाल थी। इस दृष्टि में दिनभर परिश्रम करनेवाले कृषकों और श्रमिकों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करने का स्वप्न भी था। स्वप्न, यथार्थ में ढला और 1855 में कृषकों एवं श्रमिकों के लिए रात्रि पाठशाला आरम्भ की।

अनाथ बच्चों को उज्ज्वल भविष्य देने की सावित्रीबाई की गहरी इच्छा भी रंग लाई। 1864 में निराश्रित बच्चों के लिए आश्रम खोला गया।

1871 अपने साथ अकाल लेकर आया। इसके शिकार गरीबों-वंचितों के लिए स्थान-स्थान पर अन्नदान की व्यवस्था करवाने में उन्होंने महती भूमिका निभाई।

समाजसेवी सावित्रीबाई फुले संवेदनशील कवयित्री थीं। 1854 में उनका पहला कवितासंग्रह ‘काव्य फुले’ प्रकाशित हुआ। 1891 में दूसरा संग्रह ‘बावन्नकशी सुबोध रत्नाकर’ प्रकाशित हुआ। यद्यपि सावित्रीबाई के लेखन, भाषा आदि को लेकर अनुसंधानकर्ता एकमत नहीं है तथापि तार्किक तौर पर देखें समय के साथ क्षेपक आ जाने पर भी मूल का बड़ा हिस्सा बना और बचा रहता है। सावित्रीबाई के प्रथम कवितासंग्रह की रचनाओं के माध्यम से उनकी जिजीविषा और ध्येय के प्रति समर्पण को समझने में सहायता मिलती है। संग्रह में कुल 41 कविताएँ हैं। इन कविताओं में शिक्षा ग्रहण करने का आह्वान मुख्य स्वर के रूप में उभरता है। सामाजिक विसंगतियाँ, पिछड़े और अति पिछड़ों की अवस्था, प्रकृति प्रेम, भगवान शिव के लिए स्त्रोत और प्रार्थना, अभंग, अँग्रेजी शिक्षा, जोतिबा के प्रति आदर और नेह, छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रति कृतज्ञता जैसे विषयों पर उनके भाव प्रकट हुए हैं। अनुसंधानकर्ताओं को मोडी लिपि में सावित्रीबाई की हस्तलिखित कुछ कविताएँ और हस्ताक्षर भी मिले हैं। उनके द्वारा महात्मा फुले को लिखे कुछ पत्र भी उपलब्ध हुए हैं।

‘काव्यफुले’ में विद्या को सर्वश्रेष्ठ धन मानते हुए एक स्थान पर सावित्रीबाई लिखती हैं,

विद्या हे धन आहे रे।श्रेष्ठ सा-या धनाहून।
तिचा साठी जयापाशी। ज्ञानी तो मानवी जन।

(26/काव्यफुले)

अर्थात विद्या हर प्रकार के धन की तुलना में श्रेष्ठ धन है। विद्यासम्पन्न व्यक्ति ही ज्ञानी है।

देदीप्यमान ज्ञानरथ के एक चक्र का समय पूरा हुआ। 1890 में महात्मा ज्योतिबा फुले का निधन हो गया। घोर दुख के क्षणों में भी सामाजिक रुढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष में सावित्रीबाई का अदम्य और अविचल व्यक्तित्व देखने को मिला। महात्मा फुले के शव के आगे दत्तक पुत्र डॉ. यशवंतराव को मटकी लेकर चलना था। परिजन और नाते-रिश्तेदार इसके विरुद्ध थे। विवाद बढ़ते देख एक निर्णय लेकर दृढ़ संकल्पी सावित्रीबाई उठीं और मटकी लेकर स्वयं अंतिम यात्रा के आगे चल पड़ीं। उनकी एक ओर दत्तक पुत्र यशवंत और दूसरी ओर परिजनों द्वारा मान्य गजानन थे। 130 वर्ष पूर्व ऐसे किसी दृश्य की कल्पना ही सिहरन पैदा कर देती है। निजी और सार्वजनिक जीवन में अंधेरे के क्षणों में सावित्रीबाई सदा ज्योति सिद्ध हुईं।

इस ज्योति की अगली लड़ाई प्लेग से हुई। प्लेग की महामारी ने बड़ी संख्या में लोगों को लील लिया। महामारी के शिकार बालगृह के बीमार बच्चों को गोद में लेकर सावित्रीबाई अपने दत्तक पुत्र के दवाखाने पर जातीं। अंतत: प्लेग ने उनको भी अपनी चपेट में ले लिया। इसी रोग के चलते 10 मार्च 1897 को क्रांतीज्योति अनंत ज्योति में विलीन हो गई।

अज्ञान का बोध, ज्ञानमार्ग का पहला सोपान है। जीवन भर ज्ञानदीप बनी रही सावित्रीबाई की अज्ञान को ललकारने वाली यह कविता, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का प्रखर शब्दचित्र है।

एकच शत्रु असे आपला
काढू पिटुन मिळुनि तयाला

त्याच्याशिवाय शत्रूच नाही
शोधूनि काढा मनात पाही

शोधला का?
पाहिला का?

विचार करूनी सांग लेकरा
नाव तयाचे बोल भरभरा

हरलास का?
कबूलच का?

सांगते पहा दृष्ट शत्रुचे
नाव नीट रे ऐक तयाचे

अज्ञान…

धरूनि त्याला पिटायचे
आपल्यामधुनि हुसकायाचे

(40/काव्यफुले)

भावार्थ है कि हम सबका एक ही शत्रु है। हम सबको चाहिए कि उसे निकाल बाहर फेंकें। उसके सिवा अन्य कोई शत्रु नहीं है। मन ही मन विचार करो और उसे ढूँढ़ निकालो। ढूँढ़ा क्या? दिखा क्या? विचारपूर्वक बताओ बच्चो! उसका नाम फटाफट बताओ। …चलो, हार गये न? हार स्वीकार है न? …मैं बताती हूँ नाम शत्रु का, ध्यान से सुनो नाम उसका….अज्ञान ( उसका नाम)… उसे पकड़कर पीटो, अपने बीच से दूर भगाओ।

अज्ञान के शत्रु को भगानेवाली सावित्रीबाई की लड़ाई आज भी दीपस्तम्भ का काम कर रही है।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 24 – सजल – जल बिन करते आचमन… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “जल बिन करते आचमन… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 24 – दोहाश्रित सजल – जल बिन करते आचमन… 

समांत- ऊल

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 24

 

मेघ कहीं दिखते नहीं, राह गए हैं भूल।

अंतर्मन में चुभ रहे, बेमौसम के शूल।।

 

उल्टी पुरवा बह रही, हरियाली वीरान।

प्यासी धरती है गगन, बिन जल है निर्मूल।।

 

मानसून को देखकर, मानव है बेचैन।

हरे-भरे सब वृक्ष भी, सूख गए जड़-मूल।।

 

कृषक देखता मेघ को, रोपें कैसे धान।

खेतों में सूखा पड़ा, है उड़ती बस धूल।।

 

अखबारों में है छपा, उत्तर दक्षिण बाढ़।

मध्य प्रांत सूखा पड़ा, मौसम है प्रतिकूल।।

 

जल बिन करते आचमन, अंदर श्रद्धा भक्ति,

भादों में जन्माष्टमी, रहे कृष्ण हैं झूल।।

    

सभी बाग उजड़े पड़े, देख सभी हैरान ।

पूजन अर्चन के लिए, नहीं मिलें अब फूल।।

 

वर्षा ऋतु का आगमन, जल की नहीं फुहार ।

पूजन शिव परिवार का, हो वर्षा अनुकूल।।

 

इन्द्र देव से प्रार्थना, भेजो काले मेघ।

कृपा दृष्टि चहुँ ओर हो, यही मंत्र है मूल।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

10 जुलाई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा #110 – “विचारों का टैंकर” (व्यंग्य संग्रह) – श्री अशोक व्यास ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री अशोक व्यास जी की पुस्तक  “विचारों का टैंकर” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 110 ☆

☆ “विचारों का टैंकर” (व्यंग्य संग्रह)  – श्री अशोक व्यास ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

व्यंग संग्रह  … विचारों का टैंकर

व्यंगकार … श्री अशोक व्यास

पृष्ठ : १३२     मूल्य : २६० रु.

प्रकाशक : अयन प्रकाशन , दिल्ली

आईएसबीएन : ९७८९३८८३४७१४६६    

संस्करण : प्रथम , वर्ष २०१९

मैंने श्री अशोक व्यास को व्यंग्य पढ़ते सुना है. वे लिखते ही बढ़िया नही हैं, पढ़ते भी प्रभावी तरीके से हैं. व्यंग्य में निहित आनंद, चटकारे और अंततोगत्वा लेखन जनित संदेश का विस्तार ही  रचनात्मक उद्देश्य होता है, जो व्यंग्यकार को संतुष्टि प्रदान करता है. अशोक व्यास पेशे से इंजीनियर रहे हैं, सेवानिवृति के बाद वे निरंतरता से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं, उन्हें मैंने अखबारो में अनेक बार पढ़ा था, कुछ समय पूर्व उनका जबलपुर आगमन हुआ और भेंट भी. विचारों का टैंकर उनकी सद्यः प्रकाशित पहली व्यंग्य कृति है. किताब बढ़िया गेटअप में हार्ड बाउंड प्रकाशित हुई है. इसके लिये प्रकाशक को पूरे नम्बर जाते हैं. पुस्तक में संजोये  गये  व्यंग्य आलेख मैंने पिछले दो तीन दिनो में  पढ़े. वे व्यवहारिक बोलचाल की भाषा का उपयोग करते हैं. अंग्रेजी शब्दो का भी बहुतायत में प्रयोग है, तो  तत्सम शुद्ध शब्द कटाक्ष के लिये प्रयुक्त किये गये हैं.अशोक जी अधिकांशतः बातचीत की शैली में  लिखते हैं.

व्यंग्य अनुभव जनित लगते हैं. सच तो यह है कि  व्यंग्यकार की संवेदन शीलता उसके अपने व्यक्तिगत या उसके परिवेश में किसी अन्य के सामाजिक कटु अनुभव व विसंगती तथा लोगो का व्यवहारिक दोगलापन ही व्यंग्य लेखन के लिये प्रेरित करते हैं. व्यंग्यकार का रचनाकार संवेदन शील मन सामाजिक विडंबनाओ को पचा नही पाता तो उसके मन में विचारो का बवंडर खड़ा हो जाता है वह  अपने मन में चल रही उथल पु्थल और खलबली को  लिखकर किंचित शांति पाने का यत्न करता है. इस प्रक्रिया में जब रचनाकार अमिधा की जगह लक्षणा और व्यंजना शक्तियो का प्रयोग करता है तो उसके कटाक्ष पाठक को कभी गुदगुदाते हैं, कभी हंसाते हैं, कभी भीतर ही भीतर रुला देते हैं.अपने इन विचारो को ही अशोक जी ने एक टैंकर में  भर कर पाठको के सम्मुख सफलता पूर्वक रखा है.

पाठक या श्रोता व्यंग्य के आस पास से ही उठाये गये  विषय की वैचारिक विडम्बना पर सोचने को मजबूर हो जाता है.उनकी सफलता घटना का सार्वजनीकरण इस तरह करने में  है कि व्यक्ति कटाक्ष को पढ़कर, कसमसा कर रह जाने पर मजबूर हो जाता है.

व्यंग्य लेखन व्यंग्यकारों का उद्घोष है कि वह समाज की गलतियो के विरोध में अपनी कलम के साथ प्रहरी के रूप में खड़ा है. विडंबना यह है समाज इतनी मोटी चमड़ी का होता जा रहा है कि आज जिस पर व्यंग्य किया जाता है वह उसे हास्य में उड़ा देता है और लगातार अंतिम संभावना तक कुतर्को से स्वयं को सही सिद्ध करने का यत्न करता रहता है. यही कारण है कि त्वरित प्रतिक्रिया का लेखन व्यंग्य, जो प्रायः अखबारो के संपादकीय पन्नो पर छपता है, अब पुस्तको का स्थाई स्वरूप लेने को मजबूर है. विडम्बनाओ, विसंगतियो को जब तक समाज स्थाईभाव देता रहेगा व्यंग्य की पुस्तके प्रासंगिक बनी रहेंगी. व्यंग्यकार की अभिव्यक्ति उसकी विवशता है. सुखद है कि व्यंग्य के पाठक हैं, मतलब सच के समर्थक मौजूद हैं, और जब तक नैसर्गिक न्याय के साथ लोग खड़े रहेंगे  तब तक समाज जिंदा बना रहेगा. आदर्श की आशा है.

पुस्तक के शीर्षक व्यंग्य विचारों का टैंकर में वे लिखते हैं ” अब उनके विचारों का प्रेशर समाप्त होने वाला था,… वे अगले दौर में फिर अपनी नई नई सलाहों के साथ हाजिर होंगें… मैंने भी सहमति में सिर हिलाया जिससे उनकी सलाह मेरे सिर से इधर उधर बिखर जावे… बिन मांगे सलाह देने वाले फुरसतियों पर यह अच्छा व्यंग्य है. कई नामचीन व्यंग्यकारो ने इस विषय पर लिखा है, क्योकि ऐसे बिना मांगे सलाह देने वाले चाय पान के ठेलो से लेकर कार्यालय तक कही न कही मिल ही जाते हैं. अशोक जी ने अपने लेखनी कौशल व स्वयं के अनुभव के आधार पर अच्छा लिखा है. शब्दो की मितव्ययता से और प्रभावी संप्रेषण संभव था.

जित देखूं उत मेरा लाल, कट आउट होने का दुख, युवा नेता से साक्षात्कार, टाइम नही है, ठेकेदार का साहित्त्य,दास्तान ए साड़ी, राग मालखेंच, घर का मुर्गा, भ्रष्टाचार की जड़, आम आदमी की तलाश, रिमोट कंट्रोल, चुप बहस चालू है, संसार का पहला एंटी हीरो, सरकार का चिंतन, सरकारी और गैर सरकारी मकान, मांगना एक श्वेत पत्र का, ज्ञापन से विज्ञापन तक, बारात की संस्कृति, जेलसे छूटने की पटकथा, राजनीति के श्वेत बादल, सम्मानित होने का भय, कुत्तो के रंगीन पट्टे, साहित्य माफिया, कटौती प्रस्ताव, इक जंगला बने न्यारा, क्रिकेट का असली रोमांच, आई डोंट केयर, वी आई पी कल आज और कल भी, नई सदी का नयापन, मरना उर्फ महान होना, एक घोटाले का सवाल है बाबा, ऐसा क्यो होता है, नागिन डांस वाले मुन्ना भाई, चर्चा चुनाव की, लेखन का संकट जैसे रोचक टाइटिल्स के सांथ कुल ३६ व्यंग्य आलेख किताब में हैं.

व्यंग्य के मापदण्डो पर इन लेखो में कथ्य है, कटाक्ष है, भाषाई करिश्मा पैदा करने के यत्न जहां तहां देखने मिलते हैं, सामयिक विषय वस्तु है, वक्रोक्ति हैं, घटना को कथा बनाने की निपुणता भी देखने मिलती है, किंचित  संपादन की दृ्ष्टि से स्वयं पुनर्पाठ या मित्र मण्डली में चर्चा से कुछ लेख और भी कसावट के साथ प्रस्तुत किये जाने की संभावना पढ़ने पर मिलती है. हमें अशोक जी की अगली किताबों में यह मूर्त होती मिलेगी. विचारो के टैंकर के लिये वे बधाई के सुपात्र हैं, वे शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी और परसाई परम्परा के ध्वज वाहक बने हैं, उन्हें कबीर के दिझखाये मार्ग पर बहुत आगे तक का सफर पूरा करना है. स्वागत और शुभकामना क्योकि इस राह में सम्मान मिलेगा तो कभी अपनो के पत्थर और गालियां भी पड़ेंगी, पर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना होगा.लेखकीय शोषण एवं हिन्दी पुस्तकों की बिक्री की जो वर्तमान स्थितियां है, वे  छिपी नहीं है, ऐसे समय में  सारस्वत यज्ञ का मूल्यांकन भविष्य जरूर करेगा, इसी आशा के साथ.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆☆”नया महीना और कलेंडर” ☆☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक आलेख – नया महीना और कलेंडर.)

☆ आलेख ☆ “नया महीना और कलेंडर” ☆ श्री राकेश कुमार ☆

ये नया महीना, हर महीने आ जाता हैं। नया साल आने में तो कई महीने लग जाते हैं, परंतु नया महीना तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो पलक झपकते ही आ धमकता हैं।

बचपन में पिताजी ने इस दिन घर में प्रदर्शित सभी कैलेंडरों के पन्ने पलटने की जिम्मवारी हमको दे दी थी। सुबह आठ बजने से पूर्व ये कार्यवाही पूरी नहीं होने पर कई बार पांचों उंगलियां गालों पर छपवाने की यादें अभी भी जहन में हैं। एक तो उन दिनों में आठ दस कैलेंडर पूरे घर में होते थे। अधिकतर धार्मिक चित्र होते थे।

समय के साथ कुछ बड़े शहरों विशेषकर मुंबई के मरीन ड्राइव के चित्र भी कैलेंडर में आने लगे थे। दवा कंपनियां उन दिनों में महंगे और प्रकृति से संबंधित कैलेंडर डॉक्टर को भेंट देती थी। जीवन बीमा निगम और बैंक के कैलेंडर भी बारह अलग तरह की फ़ोटो वाले कैलेंडर मुफ्त में वितरित किया करते थे। चुंकि कैलेंडर मुफ्त में मिलता था, तो इसकी मांग भी अधिक रहती थी। इमरजेंसी( 1975) में किसी व्यापारी ने इंदिरा गांधी जी के चित्र का कैलेंडर छाप दिया था। ऐसा कहते हैं की उसकी  काला बाजारी होने लगी थी।                 

बाद में “टेबल कैलेंडर”, “पॉकेट कैलेंडर” इसके नए रूप समय और सुविधा के हिसाब से उपलब्ध होने लगे थे। विगत कुछ वर्षों से कैलेंडर प्राय प्राय गायब ही हो गया हैं।

वर्तमान में तो पंचांग के कैलेंडर की ही मांग रह गई है। धन राशि खर्च करके ही इसकी प्राप्ति हो पाती हैं। जबलपुर शहर के पंचांग, प्रसिद्धि की दृष्टि से सर्वोत्तम माने जाते हैं। जब कैलेंडर की बात हो और शिवकाशी का जिक्र भी जरूरी है, अधिकतर कैलेंडर वही पर ही छपा करते थे। धोबी, दूध और ना जाने कितनों के हिसाब कैलेंडर में दर्ज रहते थे।

सरकारी कार्यालयों, बैंक आदि  में सिर्फ तारीख़ का, पीले रंग का ही कैलेंडर लगाया जाता था, जिसमें प्रतिदिन नई तारीख पलट कर लगानी पड़ती थी।  

आज तो मोबाइल में कैलेंडर बीते हुए वर्षो और आने वाले वर्षों की पूरी जानकारी अपने में समा कर रखता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 116 – लघुकथा – लिहाफ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री शक्ति को समर्पित अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष लघुकथा  “*लिहाफ *”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 116 ☆

? अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – लिहाफ ?

आज महिला दिवस पर सम्मान समारोह चल रहा था। सभी गणमान्य व्यक्ति वहां उपस्थित थे। दहेज प्रथा का विरोध कर अपने जीवन में आगे बढ़ कर एक सशक्त मुकाम पर अपनी जगह बनाने के लिए, जिस महिला को बुलाया गया था। आज उन्हीं का सम्मान होना है।

सभी उन्हीं का इंतजार कर रहे थे। मंच पर बैठे गांव के दीवान साहब भी अपने मूछों पर ताव रखते हुए अपने धर्म पत्नी के साथ सफेद लिहाफ ओढ़े सफेद कपड़ों में चमक रहे थे।

निश्चित समय पर महिला अधिकारी आई और धीरे से कदम बढ़ाते मंच की ओर जाने लगी। तालियों से स्वागत होने लगा। परंतु दीवन की आंखें अब ऊपर की बजाय नीचे गड़ी  जा रही थी क्योंकि उन्हें अंदाज और आभास भी नहीं था कि दहेज प्रथा का इतना बड़ा इनाम  बरसों बाद आज उन्हें मिलेगा।

साथ साथ दोनों पढ़ते थे। सुहानी और दीवान तरंग। विवाह तक जा पहुंचे थे। घर के दबाव और दहेज मांग के कारण सुहानी को छोड़कर कहीं और जहां पर अधिक दान दहेज मिला वहीं पर शादी कर लिया तरंग ने।

सुहानी ने बहुत मेहनत की ठान लिया कि आज से वह उस दिन का ही इंतजार करेगी। जिस दिन गांव के सामने वह बता सके वह भी नारी शक्ति का एक रूप है। दहेज पर न आकां जाए। आज वह दिन था माइक पकड़कर सुहानी ने सभी का अभिवादन स्वीकार किया।

अपना भाषण समाप्त करने के पहले बोली.. आप जो सफेद लिहाफ के दीवान साहब को देख रहे हैं उन्हीं की कृपा दृष्टि से मैं यह मुकाम हासिल कर सकी। समझते देर न लगी नागरिकों को। शुरू हो गए अच्छा तो यह वह सफेद लिहाफ है जिसके कारण हमारी मैडम ने अपनी सारी जिंदगी दहेज विरोध के लिए समर्पित किया है।

मंच पर भी बातें होने लगी। अपना सफेद लिहाफ ओढ़े दीवान उठकर जा भी नहीं सकते थे। नारी शक्ति का सम्मान जो करना था।

परंतु बाजू में बैठी धर्मपत्नी ने अपने पतिदेव को बड़ी बड़ी आंखों से देखा और जोर जोर से ताली बजाने लगी। शायद यह तालियां दीवान साहब के झूठे लिहाफ के लिए थीं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (66 – 70) ॥ ☆

सर्गः-13

गुरू वशिष्ठ को अग्रकर मंत्रिसेन ले साथ।

वल्कल धारे चल भरत अर्ध्य लिये हैं हाथ।।66।।

 

पिता की दी हुई राज्य श्री का भी न कर उपभोग।

वर्षों रहते साथ में भरत ने साधा जोग।।67।।

 

ऐसा कहते राम की मनवांछा अनुसार।

नभ से उतरा यान सब विस्मित रहे निहार।।68।।

 

मार्ग विभीषण प्रदर्शित सुग्रीव का कर थाम।

स्फटिक सीढ़ी में चरण रख नीचे उतरे राम।।69।।

 

गुरू वश्रिष्ठ की वन्दना कर स्वागत स्वीकार।

सजल नयन भ्राता भरत को किया अंगीकार।।70।।

               

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ८ मार्च – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆  ८ मार्च -संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

आंतरराष्ट्रीय महिला दिन

एखादा विशिष्ट दिवस जेव्हा एखाद्या विशिष्ट नावाने ओळखला जातो तेव्हा त्याच्या मागे काहीतरी इतिहास घडलेला असतो.आज आठ मार्च रोजी साज-या होणा-या आंतरराष्ट्रीय महिला दिनाचेही तसेच आहे.

08/03/1908 या दिवशी अमेरिकेत  न्यूयॉर्क येथे पंधरा हजार महिलांनी मोर्चा काढला. त्यांनी  कामाचे नियमित तास, चांगला पगार तसेच मतदानाचा हक्क या आपल्या मागण्या मांडल्या व त्या मान्य करून घेण्यासाठी लढा दिला.

रशियामध्ये 1917च्या शेवटच्या फेब्रुवारी महिलांनी असाच लढा दिला. ज्युलियन कॅलेंडर प्रमाणे तो फेब्रुवारीचा शेवट चा रविवार होता. पण ग्रेगेरीयन कॅलेंडरप्रमाणे ती तारीख 08 मार्च होती.

त्यामुळे आठ मार्च हा दिवस महिला दिन म्हणून साजरा केला जातो.

जगातील अनेक देशांत 1921 पासून हा दिवस साजरा केला जातो. मात्र संयुक्त राष्ट्र संघाने जाहिर केल्यानंतर म्हणजे 1975 पासून भारतात हा दिवस साजरा होतो.

महिलांच्या प्रश्नांवर लक्ष वेधून घेणे, महिलांचा सन्मान आणि प्रशंसा करणे, त्यांच्या कर्तबगारीचे कौतुक करणे, लिंगभेदाला विरोध करणे आणि महिलांना आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक दृष्ट्या जागृत व स्वयंपूर्ण करणे असे उद्देश डोळ्यासमोर ठेवून या दिनाचे आयोजन केले आहे.

महिलांनी महिलांना व पुरूषांनी महिलांना समजून घेऊन सहकार्य केले तरच हे उद्देश सफल होणार आहेत.

आंतरराष्ट्रीय महिला दिनाच्या समस्त महिला वर्गास हार्दिक शुभेच्छा!?

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – गीतांजली भावार्थ – प्रस्तुती – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? निवेदन – गीतांजली भावार्थ ?

आजपासून आम्ही वाचताना वेचलेले या सदरात, कविवर्य र. टागोर यांच्या गीतांजलीतील गीतांचा भावार्थ “गीतांजली भावार्थ” घेऊन येत आहोत. दर सोमवारी काही गीतांचा भावार्था प्रकाशित होईल. हा  भावार्थ लिहिला आहे, कै. मा. ना. कुलकर्णी यांनी आणि प्रस्तुती आहे, प्रेमा कुलकर्णी यांची.

 संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रवास स्त्री – जीवनाचा… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ प्रवास स्त्री – जीवनाचा … ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

शतकानुशतकांचा होता स्त्रीस बंदिवास !

स्त्री मुक्तीचा तिने घेतला सतत ध्यास !

घेऊ लागली आता जरा मोकळा श्वास !

उपभोगीत आहे स्त्री म्हणून मुक्त वास!

 

स्त्री आणि पुरुष निर्मिले त्या ब्रह्माने !

विभागून दिली कामे  त्यास अनुरूपतेने!

जनन संगोपन यांचे दायित्व दिले स्त्री ला!

आधार पोषणाचे कार्य मिळे पुरुषाला !

 

काळ बदलला अन् पुरुषी अहंकार वाढला!

पुरुष सत्तेचा जुलूम जगी दिसू लागला !

स्त्री अबला म्हणून जनी मान्य झाली!

अगतिक  दासी म्हणून संसारी ती जगली !

. . . . . . . . . . . 

 

स्त्री शिक्षणाचा ओघ जगी या आला!

स्त्री चा चौफेर वावर जनी वाढला!

चिकाटी, संयम जन्मजात लेणे तिचे !

चहू अंगाने बहरले व्यक्तिमत्व स्त्रीचे !

 

सर्व क्षेत्रात मान्य झाली स्त्री पुरुष बरोबरी !

दोन पावले पुढेच गेली पण नारी!

न करी कधी ती कर्तव्यात कसूर !

जीवन जगण्याचा मिळाला तिलाच सूर!

 

स्त्री आणि पुरुष दोन चाके संसाराची !

समान असता वेगेची धाव घेती !

एकमेकास पूरक राहुनी आज संसारी!

दोघेही प्रयत्ने उंच नभी घेती भरारी !

 

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ || महिला दिन || ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ || महिला दिन || ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆ 

फक्त तिच्या संसाराला

सारे आयुष्य देतसे

एक दिसाचा सन्मान

तिच्या वाट्याला येतसे ||

 

तिने कुठे मागितली

संसारातून ही मुक्ती

तिला कशाला कोंडता

तीच आहे दैवी शक्ती ||

 

तिच्या वाचूनी अपुरा

आहे विश्वाचा पसारा

तिला सृजनाचा वसा

जन्म येतसे आकारा ||

 

रोज नवे नवे छळ

रोज नवा अत्याचार

मुक्ती मिळावी यातून

हाच सुयोग्य सन्मान ||

 

तिच्या माणूसपणाची

जाणीव जागी राहावी

तिच्या आत्मसन्मानास

ठेच ना पोहोचवावी ||

 

संसाराचे उध्दरण

शिव शक्तीचे मिलन

तिला अभय देणे हा

खराच महिलादिन ||

 

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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