मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ आपली भाषा…पु.ल.देशपांडे ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

?  वाचताना वेचलेले ? 

☆ आपली भाषा…पु.ल.देशपांडे ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

कुसुमाग्रजांची एक कविता आहे,

‘नवलाख तळपती दीप विजेचे येथ,

उतरली जणु तारकादळे नगरात,

परि स्मरते आणिक करिते व्याकुळ केव्हां,

त्या माजघरातील मंद दिव्याची वात.’

आपल्या माणसांपासून, आपल्या भाषेपासून हजारो मैल दूर असलेल्या आपल्यासारख्या मराठी माणसांच्या मनाच्या माजघरामध्ये आजूबाजूला एवढं सारं ऐश्वर्य असूनही जिवाला व्याकूळ करणार्‍या मंद दिव्याच्या वाती या असणारच. या मेळाव्यात अशा माजघरातल्या मंद दिव्याच्या वातींचं स्मरण न होणारं असं कुणी असेल, असं मला वाटत नाही. ती रुखरुख नसती, तर मराठी भाषेची ज्योत तशीच पेटत राहावी, या भावनेनं तुम्ही असे एकत्र आला नसता. ज्या भाषेचे संस्कार तोंडावाटे शब्द फुटण्याच्या आधी आपल्या कानांवर झाले, त्या भाषेची नाळ ही नुसती कानाशी जुळलेली नसते, प्राणाशी जुळलेली असते. शरीरात रक्त वाहावं तशी आपल्या व्यक्तिमत्त्वातून भाषा वाहत असते, तो प्रवाह थांबवणं अशक्य असतं. आईच्या दुधाबरोबर शरीराचं पोषण होत असताना तिच्या तोंडून येणार्‍या भाषेनं आपल्या मनाचं पोषण होत असतं. केवळ देहाच्या पोषणानं माणसाचं भागत नाही. किंबहुना मानव म्हणजे ज्याला मन आहे तो, “मन एव मनुष्यः”, अशी योगवासिष्ठामध्ये माणसाची व्याख्या केलेली आहे. या मनाचं पोषण भाषा करत असते. त्या पोषणाचे पहिले घास ज्या भाषेतून मिळतात, ती आपली भाषा.

(पुलंनी अमेरिकेत केलेल्या एका भाषणातून)

संग्राहक – मंजुषा सुनीत मुळे 

९८२२८४६७६२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ मातेच्या प्रेमा उपमा नाही ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? मातेच्या प्रेमा उपमा नाही ! ? ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆ 

जरी फिराल सारे ब्रह्मांड

अथवा शोधाल दिशा दाही,

असो मानव वा मुकाप्राणी

मातेच्या प्रेमा उपमा नाही !

उभी गोमाता तप्त उन्हात

बसे बछडा तिच्या छायेत,

मातृप्रेमाची अनोखी रीत

ना पाहिली दूजी या जगात !

छायाचित्र – श्री सुधीर बेल्हे,कॅलिफोर्निया

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

१९-०२-२०२२

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – फ्लाइंग किस ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं संवेदनशील लघुकथा   ‘फ्लाइंग किस’।)

☆ लघुकथा – फ्लाइंग किस ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

कवि खंडहर देखते-देखते थक गया तो एक पत्थर पर जा बैठा । पत्थर पर बैठते ही उसे एक कराह जैसी चीख सुनाई दी । उसने उठकर इधर-उधर देखा । कोई आसपास नहीं था । वह दूसरे एक पत्थर पर जा बैठा । ओह, फिर वैसी ही कराह! वह चौंक गया और उठकर एक तीसरे पत्थर पर आ गया । वहाँ बैठते ही फिर एक बार वही कराह! कवि डर गया और काँपती आवाज़ में चिल्ला उठा, “कौन है यहाँ?”

“डरो मत । तुम अवश्य ही कोई कलाकार हो । अब से पहले भी सैंकड़ों लोग इन पत्थरों पर बैठ चुके हैं, पर किसी को हमारी कराह नहीं सुनी । तुम कलाकार ही हो न!”

“मैं कवि हूँ । तुम कौन हो और दिखाई क्यों नहीं दे रहे हो?”

“हम दिखाई नहीं देते, सिर्फ़ सुनाई देते हैं । हम गीत हैं- स्वतंत्रता, समता और सद्भाव के गीत । हम कलाकारों के होठों पर रहा करते थे । एक ज़ालिम बादशाह ने कलाकारों को मार डाला । उनके होठों से बहते रक्त के साथ हम भी बहकर रेत में मिलकर लगभग निष्प्राण हो गये । हम साँस ले रहे हैं पर हममें प्राण नहीं हैं । हममें प्राण प्रतिष्ठा तब होगी जब कोई कलाकार हमें अपने होठों पर जगह देगा । क्या तुम हमें अपने होठों पर रहने दोगे कवि?”

“……….”

“अच्छी तरह सोच लो कवि । यदि फिर से कोई अत्याचारी बादशाह गद्दी पर बैठ गया तो तुम्हारे प्राण संकट में फँस सकते हैं । तुम तैयार नहीं हो तो कभी कोई और आएगा।”

“मैं हूँ या कोई और, कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है । सत्ता का अपना चरित्र होता है । बादशाह प्रायः ज़ालिम होते हैं ।”

“प्रजा का भी एक चरित्र होता है कवि! तुम जिस खंडहर को देखकर आ रहे हो, वह कभी बादशाह का आलीशान महल था । वह प्रजा ही थी, जिसने महल को खंडहर बनाया और बादशाह को भिखारी । प्राणों की भीख माँग रहा बादशाह कितना दयनीय लग रहा था, काश तुम उसकी कल्पना कर सको ।”

कवि को गीत बहुत अपने से लगे, अपनी आत्मा का हिस्सा हों जैसे । उस दिन के बाद गीत कवि के होठों पर मचलने लगे । कुछ समय बाद कवि को शासन के विरुद्ध असंतोष भड़काने के आरोप में कारागार में डाल दिया गया । गीत अब उतने भोले नहीं रह गये थे । वे किसी और कवि के होठों पर जा बैठे । वह भी जब कारागार में डाल दिया गया तो वे किसी और कलाकार के होठों पर चले गए । इस तरह कलाकार कारागार में आते गये और गीत पूरी रियासत में गूँजने लगे । एक दिन कवि ने सुना- प्रजा बादशाह के महल तक पहुँच गई है और बादशाह को लोगों ने काँपते देखा है । कवि को गीतों पर बहुत प्यार आया । उसने मुस्कुराते हुए एक चुम्बन गीतों की तरफ़ उछाल दिया । गीतों ने तुरंत उस चुम्बन को लपक लिया ।

(लघुकथा संग्रह ‘बीसवां कोड़ा’ से)

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #132 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल-20 – “होली पर बात करेंगे” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “होली पर बात करेंगे…”)

? ग़ज़ल # 20 – “होली पर बात करेंगे” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

दिल खुलने लगे कुछ बात करेंगे,

मोबाइल न लाना कुछ बात करेंगे।

 

दिन बुरे गुजरे कोरोना के संग,

अब बातों बातों में रात करेंगे।

 

निपटे मंदिर-मस्जिद के झगड़े,

प्यार मुहब्बत की बात करेंगे।

 

बहुत हुए फ़ासले लोगों के बीच,

आपस में मिला एक पाँत करेंगे।

 

छँटा आशंका का मनहूस साया,

रंग ओ गुलाल बरसात करेंगे।

 

दिमाग़ी धुँध भी छँटेगी ज़रूर,

दिल से दिल की बात करेंगे।

 

तुम बस चले भर आओ आज,

होली पर ढीले जज़्बात करेंगे।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 28 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 28 ??

मेलों का महत्व-

मेले परम्पराओं और रीति-रिवाजों का जतन करते हैं। मेले सांस्कृतिक धरोहर का वहन करते हैं। सदियों से चले आ रहे पर अब लगभग समाप्तप्राय अनेक खेल, तमाशा, मेलों में देखने को मिलते हैं। अनेक लोककलाएँ केवल मेलों के दम पर टिकी हैं।

कभी-कभार जिनसे काम पड़ता हो, ऐसे अनेक शिल्पी, प्रशिक्षित कारीगर यहाँ अपनी कारीगरी की प्रदर्शनी करते हैं। लोग उनके सम्पर्क क्रमांक लेते हैं। इस तरह इन सधे हाथों को व्यापार मिलता है, वाणिज्यिक लेन-देन बढ़ता है, समाज की आर्थिक समृद्धि बढ़ती है। साथ ही समाज में हर प्रतिभा को मंच एवं मान्यता मिलते हैं। कहा जा सकता है कि हर मेला समाज के विभिन्न घटकों के बीच सम्बन्धों को अधिक घनिष्ठ करता है।

हर समाज की अपनी कुछ  सार्वजनिक मान्यताएँ तथा वर्जनाएँ भी होती हैं। कुछ वर्जनाएँ तो अकारण ही समाज में घर किये बैठी होती हैं। समाज जब साथ आता है, एक-दूसरे से प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग करता है तो व्यवहारिकता की कसौटी पर वर्जनाएँ कसी जाती हैं। फलत: अनेक वर्जनाएँ समाप्त हो जाती हैं। अस्पृश्यता से लेकर भोजन के आदान-प्रदान तक अनेक वर्जनाओं को दुर्बल करने में मेलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

मराठी में एक कहावत है जिसका अर्थ है कि सारे स्वांग हो सकते हैं पर पैसे का स्वांग संभव नहीं होता। हाथ में पैसा होना समाज की रीढ़ होता है। मेले से होनेवाले आर्थिक लाभ से समुदाय को अपनी रोजी-रोटी जुटाने और टिकाने में सहायता मिलती है।

मनुष्य जंगल में रहा या नागरी जीवन में, मनोरंजन उसे दैहिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रखने का बड़ा कारण रहा है। मेलों के माध्यम से होनेवाला मनोरंजन विशेषकर गाँव और कस्बाई जीवन को नये उत्साह एवं उमंग से भर देता है।

मेला देखने के लिए गाँव से निकला व्यक्ति प्राय:  आसपास के इलाके घूम भी लेता है। इससे पर्यटन और वित्तीय विनिमय को विस्तार मिलता है।

सबसे महत्वपूर्ण है मानव की मानवता का बचा रहना। सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक परंपराओं से जुड़ा होना कहीं न कहीं मनुष्य को अमनुष्य होने से बचाए रखता है। मेला मनुष्य और मनुष्यता के बीच सेतु की भूमिका का निर्वाह करता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#72 ☆ गजल – ’’कला और गुण की बहुत कम है कीमत’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “कला और गुण की बहुत कम है कीमत”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 72 ☆ गजल – ’’कला और गुण की बहुत कम है कीमत’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

जो देखा औ’ समझा, सुना और जाना

किसे कहें अपना औ’ किसको बेगाना।

यहाँ कोई दिखता नहीं है किसी का

अधिकतर है धन का ही साथी जमाना।

कला और गुण की बहुत कम है कीमत

जगत ने है धन को ही भगवान माना।

धनी में ही दिखते है गुण योग्यतायें

सहज है उन्हें सब जगह मान पाना।

गरीबों की दुनियाँ  में हैं विवशताएँ

अलग उनके जीवन का है ताना-बाना।

उन्हें जरूरत तक को पैसे नहीं हैं

धनी खोजते खर्च का कोई बहाना।

है जनतंत्र में कुछ नये मूल्य विकसे

बड़ा वह जिसे आता बातें बनाना।

सदाचार दुबका है चेहरा छुपायें

दुराचार ने सीखा फोटो छपाना।

विजय काँटों को हर जगह मिल रही है

सही न्याय युग गया हो अब पुराना।

सही क्या, गलत क्या ये कहना कठिन है

न जाने कहाँ जा रहा है जमाना।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#82 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #82 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा था जो एक आश्रम को संरक्षण दे रहा था। यह आश्रम एक जंगल में था। इसके आकार और इसमें रहने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही थी और इसलिए राजा उस आश्रम के लोगों के लिए भोजन और वहां यज्ञ की इमारत आदि के लिए आर्थिक सहायता दे रहा था। यह आश्रम बड़ी तेजी से विकास कर रहा था। जो योगी इस आश्रम का सर्वेसर्वा था वह मशहूर होता गया और राजा के साथ भी उसकी अच्छी नजदीकी हो गई। ज्यादातर मौकों पर राजा उसकी सलाह लेने लगा। ऐसे में राजा के मंत्रियों को ईर्ष्या होने लगी और वे असुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन उन्होंने राजा से बात की – ‘हे राजन, राजकोष से आप इस आश्रम के लिए इतना पैसा दे रहे हैं। आप जरा वहां जाकर देखिए तो सही। वे सब लोग अच्छे खासे, खाते-पीते नजर आते हैं। वे आध्यात्मिक लगते ही नहीं।’ राजा को भी लगा कि वह अपना पैसा बर्बाद तो नहीं कर रहा है, लेकिन दूसरी ओर योगी के प्रति उसके मन में बहुत सम्मान भी था। उसने योगी को बुलवाया और उससे कहा- ‘मुझे आपके आश्रम के बारे में कई उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिली हैं। ऐसा लगता है कि वहां अध्यात्म से संबंधित कोई काम नहीं हो रहा है। वहां के सभी लोग अच्छे-खासे मस्तमौला नजर आते हैं। ऐसे में मुझे आपके आश्रम को पैसा क्यों देना चाहिए?’

योगी बोला- ‘हे राजन, आज शाम को अंधेरा हो जाने के बाद आप मेरे साथ चलें। मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूं।’

रात होते ही योगी राजा को आश्रम की तरफ लेकर चला। राजा ने भेष बदला हुआ था। सबसे पहले वे राज्य के मुख्यमंत्री के घर पहुंचे। दोनों चोरी-छिपे उसके शयनकक्ष के पास पहुंचे। उन्होंने एक बाल्टी पानी उठाया और उस पर फेंक दिया। मंत्री चौंककर उठा और गालियां बकने लगा। वे दोनों वहां से भाग निकले। फिर वे दोनों एक और ऐसे शख्स के यहां गए जो आश्रम को पैसा न देने की वकालत कर रहा था। वह राज्य का सेनापति था। दोनों ने उसके भी शयनकक्ष में झांका और एक बाल्टी पानी उस पर भी उड़ेल दिया। वह व्यक्ति और भी गंदी भाषा का प्रयोग करने लगा। इसके बाद योगी राजा को आश्रम ले कर गया। बहुत से संन्यासी सो रहे थे।उन्होंने एक संन्यासी पर पानी फेंका। वह चौंककर उठा और उसके मुंह से निकला – शिव-शिव। फिर उन्होंने एक दूसरे संन्यासी पर इसी तरह से पानी फेंका। उसके मुंह से भी निकला – हे शंभो। योगी ने राजा को समझाया – ‘महाराज, अंतर देखिए। ये लोग चाहे जागे हों या सोए हों, इनके मन में हमेशा भक्ति रहती है। आप खुद फर्क देख सकते हैं।’ तो भक्त ऐसे होते हैं।भक्त होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दिन और रात आप पूजा ही करते रहें। भक्त वह है जो बस हमेशा लगा हुआ है, अपने मार्ग से एक पल के लिए भी विचलित नहीं होता। वह ऐसा शख्स नहीं होता जो हर स्टेशन पर उतरता-चढ़ता रहे। वह हमेशा अपने मार्ग पर होता है, वहां से डिगता नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो यात्रा बेवजह लंबी हो जाती है।

भक्ति की शक्ति कुछ ऐसी है कि वह सृष्टा का सृजन कर सकती है। जिसे मैं भक्ति कहता हूं उसकी गहराई ऐसी है कि यदि ईश्वर नहीं भी हो, तो भी वह उसका सृजन कर सकती है, उसको उतार सकती है। जब भक्ति आती है तभी जीवन में गहराई आती है। भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है। उसे भक्ति के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं होती और वहां ईश्वर मौजूद रहेंगे। भक्ति इसलिए नहीं आई, क्योंकि भगवान हैं। चूंकि भक्ति है इसीलिए भगवान हैं।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (6 – 10) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

माताओं ने स्नेह से तब कह- ‘‘अस्वीकार’’।

बेटी तेरे पुण्य ही राम विजय-आधार।।6।।

 

तब रघुकुल मणि राम का हुआ राज्य-अभिषेक।

तीर्थसलिल प्रेमाश्रु से कर के पावन षेक।।7।।

 

पावन सागर-सर-नदी से लाकर जल पूत।

बरसाये श्रीराम पर सुग्रीव विभीषण दूत।।8।।

 

राम जो तापस वेश में भी थे सुधर ललाम।

राजवेश में वे हुये दुगने शोभाधाम।।9।।

 

राम अयोध्या में गये कुल परम्परानुसार।

जहाँ वाद्य सह गीत थे और मंगलाचार।।10अ।।

 

बरसाई जा रही थी खील, थी भीड़ अपार।

द्वार-द्वार पर थे सजे सुन्दर वन्दनवार।।10ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मायेचे पीठ… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मायेचे पीठ… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

पहाटच्या पाऱ्यामंधी

माझी माय दळे पीठ ,

घरघरत्या जात्यावरी

तिचा घास दळे नीट .

               जात्याच्या भवताली

               मायेचे पीठ सांडे,

               सुखी घरादारासाठी

               दुःख जात्याशीच मांडे .

रोज  दळता  दळण

माय गात ऱ्हाते ओवी ,

तिच्या ममतेत सारे

घरदार सुखी होई .

               माय दळून कांडून

               अशी झिजतच जाते ,

               घरघरत्या जात्याला

               तिचे जितेपण येते .

 

© प्रा.अरुण कांबळे बनपुरीकर

बनपुरी ता.आटपाडी जि.सांगली

मो ९४२११२५३५७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 93 – आक्रंदन पिडीतांचे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 93 – आक्रंदन पिडीतांचे ☆

गगनांतरी भिडाले

आक्रंदन पिडीतांचे।

झांजावाती निघाले

तांडव महापूराचे।

 

ओठाता स्तब्ध झाल्या

निःशब्द भावना या।

निजधाम सोडूनिया

कित्येक गेले विलया.

अशूंचे गोठ नयनी

आक्रंदतात कोणी।

शून्यात नेत्र दोन्ही

स्वप्नेच गेली विरूनी।

 

देईना साथ कोणी

थारा न देई धरणी।

जावे कुठे जीवांनी

घरट्याविना पिलांनी

भांबावल्या मनांना

समजावूनी कळेना।

सेल्फीत दंग मदती

जगण्याची प्रेरणा ना।

  

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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