काही दिवसांपूर्वी माझ्या मैत्रिणीच्या मुलीचा विवाह सोहळा संपन्न झाला. आईची सखी बनून राहिलेल्या लाडक्या लेकीच्या आठवणीने व्याकुळ झालेल्या आईने (लेकीसाठी) मला तिच्या मनातील भावना कवितेत शब्दबद्ध करण्याचा आग्रहवजा विनंती केली आणि
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “भोर की किरणें खिली हैं… ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 25 – सजल – भोर की किरणें खिली हैं… ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 29
तीर्थ : व्याख्या और मीमांसा-
भारतीय दर्शन में तीर्थ के अनेक अर्थ मिलते हैं। ‘तरति पापादिकं तस्मात।’ अर्थात जिसके द्वारा मनुष्य दैहिक, दैविक एवं भौतिक, सभी प्रकार के पापों से तर जाए, वह तीर्थ है। इसीके समांतर भवसागर से पार उतारने वाला/ वैतरणी पार कराने वाला के अर्थ में भी तीर्थ को ग्रहण किया जाता है।
संभवत: इसी आधार पर स्कंदपुराण के काशी खंड में तीन प्रकार के तीर्थ बताये गए हैं- जंगम, स्थावर तथा मानस। संत, वेदज्ञ एवं गौ, जंगम यानि चलते-फिरते तीर्थ। सत्पुरुषों को जंगम तीर्थ कहा गया। सच्चे और परोपकारी भाव के सज्जनों का आशीर्वाद फलीभूत होने की सामुदायिक मान्यता भी जंगम तीर्थ को मिली है। कतिपय विशिष्ट स्थानों को स्थावर तीर्थ कहा गया। इन स्थानों का अपना महत्व होता है। यहाँ एक दैवीय सकारात्मकता का बोध होता है। अद्भुत प्रेरणादायी ऐसे तीर्थस्थान सामान्यत: जल या जलखंड के समीप स्थित होते हैं। ‘पद्मपुराण’ स्थावर तीर्थों को परिभाषित करते हुए लिखता है,
पग-पग पर बुद्धिवाद को प्रधानता देनेवाली वैदिक संस्कृति ने समस्त तीर्थों में मानसतीर्थ को महत्व दिया है। मानसतीर्थ अर्थात मन की उर्ध्वमुखी प्रवृत्तियाँ। इनमें सत्य, क्षमा, इंद्रियनिग्रह, दया, दान, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य, मधुरवचन, सरलता, संतोष सभी शामिल हैं।
अनेक मीमांसाकारों ने तीर्थों के 9 प्रकार बताते हैं। उन्होंने पहले तीन प्रकार का नामकरण नित्य, भगवदीय एवं संत तीर्थ किया है। ये तीर्थ ऐसे हैं जो अपने स्थान पर सदा के लिए स्थित हैं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है सुश्री अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’ की पुस्तक “ठहरना जरूरी है प्रेम में” की समीक्षा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 111 ☆
☆ “ठहरना जरूरी है प्रेम में” (काव्य संग्रह) – अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – ठहरना जरूरी है प्रेम में (काव्य संग्रह)
कवियत्री… अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’
बोधि प्रकाशन, जयपुर, १५० रु, १०० पृष्ठ
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव
जब किसी अपेक्षाकृत नई लेखिका की किताब आने से पहले ही उसकी कविताओ का अनुवाद ओड़िया और मराठी में हो चुका हो, प्रस्तावना में पढ़ने मिले कि ये कवितायें खुद के बूते लड़ी जाने वाली लड़ाई के पक्ष में खड़ी मिलती हैं, आत्मकथ्य में रचनाकार यह लिखे कि ” मेरे लिये, लिखना खुद को खोजना है ” तो किताब पढ़ने की उत्सुकता बढ़ जाती है. मैने अमनदीप गुजराल विम्मी की “ठहरना जरूरी है प्रेम में ” पूरी किताब आद्योपांत पढ़ी हैं.
बातचीत करती सरल भाषा में, स्त्री विमर्श की ५१ ये अकवितायें, उनके अनुभवों की भावाभिव्यक्ति का सशक्त प्रदर्शन करती हैं.
पन्ने अलटते पलटते अनायास अटक जायेंगे पाठक जब पढ़ेंगे
” देखा है कई बार, छिपाते हुये सिलवटें नव वधु को, कभी चादर तो कभी चेहरे की “
या
” पुल का होना आवागमन का जरिया हो सकता है, पर इस बात की तसल्ली नहीं कि वह जोड़े रखेगा दोनो किनारों पर बसे लोगों के मन “
अथवा
” तुम्हारे दिये हर आक्षेप के प्रत्युत्तर में मैंने चुना मौन “
और
” खालीपन सिर्फ रिक्त होने से नहीं होता ये होता है लबालब भरे होने के बाद भी “
माँ का बिछोह किसी भी संवेदनशील मन को अंतस तक झंकृत कर देता है, विम्मी जी की कई कई रचनाओ में यह कसक परिलक्षित मिलती है…
” जो चले जाते हैं वो कहीं नही जाते, ठहरे रहते हैं आस पास… सितारे बन टंक जाते हैं आसमान पर, हर रात उग आते हैं ध्रुव तारा बन “
अथवा…
” मेरे कपड़ो मेंसबसे सुंदर वो रहे जो माँ की साड़ियों को काट कर माँ के हाथों से बनाए गये “
और एक अन्य कविता से..
” तुम कहती हो मुझे फैली हुई चींजें, बिखरा हुआ कमरा पसन्द है, तुम नही जानती मम्मा, जीनियस होते हैं ऐसे लोग “
“ठहरना जरूरी है प्रेम में” की सभी कविताओ में बिल्कुल सही शब्द पर गल्प की पंक्ति तोड़कर कविताओ की बुनावट की गई है. कम से कम शब्दों में भाव प्रवण रोजमर्रा में सबके मन की बातें हैं. इस संग्रह के जरिये अमनदीप गुजराल संभावनाओ से भरी हुई रचनाकार के रूप में स्थापित करती युवा कवियत्री के रूप में पहचान बनाने में सफल हुई हैं. भविष्य में वे विविध अन्य विषयों पर बेहतर शैली में और भी लिखें यह शुभकामनायें हैं. मैं इस संग्रह को पाठको को जरूर पढ़ने, मनन करने के लिये रिकमेंड करता हूं. रेटिंग…पैसा वसूल, दस में से साढ़े आठ.
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक आलेख – “शेरू”.)
☆ आलेख ☆ “शेरू” ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज हमारे एक समूह में शेर पर लंबी चर्चा हुई, तो हमारा शेरू (पालतू कुत्ता) भी कहने लगा कि हम पर भी कभी चर्चा कर लिया करो, हम कोई धोबी के कुत्ते तो है नहीं, जो कि “ना घर के ना घाट के” कहलाये। हमे उसकी बात में दम लगा। शेरू फिर कहने लगा वैसे तो हर कुत्ता अपनी गली का शेर होता है, लेकिन चूंकि वो सोसाइटी के फ्लैट में रहता है इसलिए उसे अपने फ्लोर का शेर कह सकते हैं।
शेरू आजकल बहुत प्रसन्नचित्त रहता है, जबसे चुनाव आयोग ने मतदान की तिथियों की घोषणा की वो खुशी के मारे फूला नहीं समा रहा है।
सूरज के ढलते ही वो टीवी के सामने अपना आसन लगा कर बैठ जाता हैं। जब तक टीवी चालू कर “राजनीतिक बहस” का चैनल नहीं लगता उसको चैन नहीं आती। जैसे जैसे बहस में तेज़ी आती है, वो भी अपनी वाणी से गुर्रा कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देता है। कल हम टीवी चला कर वाट्स एप पर बिखरे हुए ज्ञान को समेटने लगे तो शेरू ने अपने पंजे से हमारा मोबाईल बिस्तर पर गिरा दिया। उसकी सोच भी सही है, जब इतनी बढ़िया बेवकूफी की बहस से मनोरंजन हो रहा है, तो उससे वंचित क्यों रहना चाहिए।
श्रीमती जी भी खुश हैं, टीवी देखते हुए शेरू को खाने में घर का बना हुआ कुछ भी परोस दो, वो बिना नखरे के खा लेता है। वरना शेरू को भी जब तक ऑनलाइन डॉग फूड ना मंगवा कर दो, वो भूखा रह लेता पर घर का बना भोजन नहीं खाता हैं। चलो टीवी की बहस सुनते हुए उसकी आदतों में सुधार आ रहा हैं। वैसे हम भी जब टीवी में मग्न होते हैं तो नापसंद वस्तुएं भी हज़म कर जाते हैं। शायद शेरू भी जाने अनजाने में हमसे ये सब सीख गया हो। कोविड की तीसरी लहर से पूर्व शेरू शाम को हमारे साथ बगीचे में सैर पर जाता था। वहाँ उसके समाज के लोग भी बड़ी संख्या में आते थे। वहाँ उनसे वो भी लंबी वार्तालाप कर लेता था।
अब माहौल को देखते हुए जब सांयकालीन भ्रमण बंद है, तो शेरू को टीवी में बहस करते हुए लोग अपने समाज के ही लगते है। बिना किसी सार्थक विषय के एक दूसरे के कपड़े फाड़ने पर उतारू चंद लोग सड़क पर बिना किसी कारण के भौंकते हुए कुत्तों जैसा व्यवहार ही तो करते हैं।
अब लेखनी को विराम देता हूँ, शेरू टीवी के सामने आसन लगा कर बैठ गया है। समय का बड़ा पाबंद है, हमारा शेरू।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा “*बेरंग होली… *”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 117 ☆
☆ लघुकथा – बेरंग होली …☆
होली की मस्ती और रंगों की बौछार लिए होली का त्योहार जब भी आता श्रेया के मन पर बहुत ही कडुआ ख्याल आने लगता।
अभी अभी तो वह यौवन की दहलीज चढी थी।आस पडोस सभी श्रेया की खूबसूरती पर बातें किया करते थे।
उसे याद है एक होली जब उसने अपने दोस्तों और सहेलियों के साथ खेली। एक दोस्त जो कभी उससे बात भी नहीं कर सकता था आज वह भी उसके साथ होली खेल रहा था। मस्ती और होली की ठंडाई, होली के रंगों के बीच किसे कब ध्यान रहा कि श्रेया को ठंडाई के साथ नशे की पुड़िया पिला दिया गया।
झूमते श्रेया को लेकर दोस्त जो उसे पागलों की तरह चाहता था। पहले रंगों, गुलाल से सराबोर कर दिया और मौका देखते ही सूनेपन का फायद उठाया और श्रेया को जिंदगी का वह मोड़ दे दिया जहां से उबर पाना उसके लिए बहुत ही मुश्किल था।
होश आने पर अपने आपको डॉक्टर की चेम्बर में पाकर बेकाबू हो कर रोने लगी।
मम्मी पापा को उसकी हालत देख समझते देर न लगी कि रंगो की सुंदरता पर होली में किसी ने अचानक होली को बेरंग कर दिया है।
एक अच्छे परिवार के लड़के से शादी के बाद श्रेया के जीवन में होली तो हर साल आती। मगर अपने जीवन की बेरंग होली को भूल न पाई थी।
तभी उसका बेटा जो हाथों में पिचकारी लिए दौड़कर अपनी मम्मी श्रेया के पास आकर बोला… “पापा कह रहे हैं वह माँ आपको बिना रंगों की होली पसंद है। यह भी कोई रंग होता है। मैं आज आपको पूरे रंगों से रंग देता हूं। आप भूल जाओगी अपने बिना रंगों की होली।”
श्रेया को जो अब तक होली रंगों से अपने आप को बंद कर लेती थी। आज गुलाल से लिपीपुति अपने पतिदेव से बोली..” बहुत वर्ष हो गए गए मैंने आपको बेरंग रखा।”
“आइए हम रंगीन होली खेलते हैं।” श्रेया को पहली बार होली पर खुश देखकर पतिदेव मुस्कुराए और गुलाल से श्रेया का पूरा मुखड़ा रंग दिया।
ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १५ मार्च -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर– ई – अभिव्यक्ती (मराठी)
आदिमाया अंबाबाई, आला आला वारा, गोमू संगतीनं माझ्या तू येशील काय?, जरा विसावू या वळणावर, फिटे अंधाराचे जाळे, रात्रीस खेळ चाले, सांज ये गोकुळी सावळी सावळी या सारख्या सदाबहार गीतांनी श्रोत्यांच्या मनावर गारुड केलं, नव्हे अजूनही करताहेत, ती गीते सुधीर मोघे यांच्या लेखणीतून लिहिली गेली. कवी, गीत, चित्रपट गीत, पटकथा लेखन, ललित लेखन, संवाद लेखन, संगीत दिग्दर्शन, रंगमंचीय आविष्करण, दिग्दर्शन या बहुविध माध्यमातून, रंगभूमी, आकाशवाणी, दूरदर्शन, चित्रपट इ. क्षेत्रात त्यांचा संचार झाला.
‘कविता पानोपानी’ या रंगमंचीय कार्यक्रमात सुधीर मोघे ध्वनी –प्रकाश योजनेच्या सहाय्याने आपल्या मराठी कविता, गीते सादर करत.
सुधीर मोघे यांचे कविता संग्रह –
१. आत्मरंग, २. गाण्याची वही, ३. पक्ष्यांचे ठसे, ४. शब्दधून, ५. स्वातंत्रते भगवती
सुधीर मोघे यांचे गद्य लेखन –
१. अनुबंध, २. कविता सखी, ३. गाणारी वाट, ४. निरंकुशाची रोजनिशी
सुधीर मोघे यांनी ५०हून अधीक चित्रपटांसाठी गीतलेखन केले.
सुधीर मोघे- पुरस्कार आणि सन्मान –
१. सर्वोत्कृष्ट गीतकार – अल्फा गौरव
२. ग. दी. मा. प्रतिष्ठान – चैत्रबन
३. महाराष्ट्र साहित्य परिषद – ना.घ. देशपांडे पुरस्कार.
४. दीनानाथ मंगेशकर प्रतिष्ठान – शांता शेळके पुरस्कार.
सुधीर मोघे यांचा जन्म ८ फेब्रुवारी १९३९ चा. आज त्यांचा स्मृतीदिन. या प्रतिभासंपन्न कवी, गीतकार, लेखकाला शतश: वंदन.
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श्रीमती उज्ज्वला केळकर
ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ
मराठी विभाग
संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈