हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ होली विशेष – स्व गया प्रसाद और असहमत की – “होली है !” ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।

आज प्रस्तुत है – होली के रंग में असहमत का एक किस्सा स्व गया प्रसाद और असहमत की – “होली है !” )   

☆ कथा-कहानी ☆ होली विशेष – स्व गया प्रसाद और असहमत की – “होली है !” ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

गया प्रसाद जी का 101 वां जन्मदिन तिथि के अनुसार होली के दिन पड़ता था.इस मौज मस्ती के रंगों से भरे पर्व में जन्म लेने के कारण गया प्रसाद जी भी मस्त मौला इंसान थे. उनके सारे परिजन इस जन्मदिन को बड़े धूमधाम से मनाना चाहते थे पर इस बार बीस वर्ष पूर्व स्वर्ग सिधारी पत्नी काशी बाई ,गया प्रसाद जी के सपनों में लगभग एक सप्ताह से रोज आ रहीं थीं. और यही बोलती थीं कि “बहुत हो गया, किस चुड़ैल के चक्कर में नीचे बैठे हो,अपनी उमर का ख्याल करो, हमारे पास आ जाओ, इस बार होली साथ साथ खेलेंगे.” Go, went gone…. वाले गया प्रसाद जी, हमेशा की तरह ही पत्नी का आदेश नहीं टाल सके और यमराज एक्सप्रेस में अंतिम यात्रा की तत्काल बुकिंग करवा ही डाली.

पर जाने से पहले अपने परिवार के सारे सदस्यों को बुलाया और कहा “देखो मैं तो तुम्हारी दादी के साथ होली खेलने जा रहा हूँ, बहुत हो गया, कितना रुकता, आखिर काशी की बात तो मानना पड़ता ही है. सेंचुरी तो बन गई मेरी, परिवार भी हॉफ सेंचुरी मार चुका है. तो जाने के पहले मुझे वचन दो कि मेरी अंतिम यात्रा भी उसी धूम धाम से निकलेगी जैसे मेरी बारात निकली थी. अपना त्योहार खराब नहीं करना, रास्ते भर गुलाल उड़ाते जायेगी मेरी अंतिम यात्रा और हाँ शादी में तो अच्छा बैंड मिला नहीं था तो इस बार पैसे की परवाह नहीं करना,बैंड शानदार चाहिए. पोते ने पूछ ही लिया “बाबा जब बैंड बजेगा तो डांस करने के लिये पैर नहीं रोक पायेंगे।”

बाबा बोले “बिल्कुल करना पर उन चार लोगों को छोड़कर जो मुझे ले जाने वाले होंगे. “

होली के दिन गयाप्रसाद जी की अंतिम यात्रा बड़े धूमधाम से निकली, बैंड मौके के हिसाब से ही धुन बजा रहा था, पैरों को थिरकाने वाली धुनें नदारद थी. अचानक गयाप्रसाद जी की इस बारात का सामना, असहमत के दोस्तों की उस टोली से हुआ जो होली की मस्ती में झूम रहे थे और ढोल के नगाड़ों पर नाच रहे थे. जैसे ही सामने नजर पड़ी, असहमत के कुछ डांस को तरसते दोस्त जो कि शवयात्रा में “रामनाम सत्य है ” कर रहे थे,धीरे धीरे असहमत की हुड़दंगी टोली में शामिल होते गये.असहमत की “होली है ” की हुँकारऔर बजते ढोल से बैंड पार्टी भूल गई कि वो किस काम के लिये बुलाये गये थे. फिर बैंड की ढोल के साथ की जुगलबंदी ने डांस को तरसते युवाओं की टोली की मुराद पूरी कर दी और डांस का ये कार्यक्रम लगभग 30 मिनट चलता रहा. जब दिल की भड़ास निकल गई तो दोनों टोलियां अपने अपने रास्ते चल पड़ीं, एक मुक्तिधाम की ओर और दूसरी मधुशाला में एक और जाम की ओर. इस मनोरंजक व्यवधान में जो चार लोग अर्थी संभाले थे, उन लोगों ने भी बाकायदा इज्जत के साथ अर्थी को नीम के पेड़ के नीचे रख दिया और डांस के बाद फिर अपना कार्यभार संभाल लिया. ये दृश्य ऊपर पहुँच चुके गया प्रसाद जी भी अपनी पत्नी काशी बाई के साथ देख रहे थे और उन्होंने भी विभोर होकर होली की हुंकार “होली है” रूपी आशीष सब की ओर भेज दिया.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 113 ☆ मत कर चोरी अब नंदलाला… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “मत कर चोरी अब नंदलाला…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 113 ☆

☆ मत कर चोरी अब नंदलाला…

मात जसोदा कहें श्याम से, नटखट बृज की बाला

दधि माखन के लाने काहे, तूने डाका डाला

नंदबाबा को नाम बहुत है, देते सबै हवाला

घर में कमी ने कछु बात की, पियो दूध को प्याला

ब्रजवासी सब हँसी उड़ावें, गारी देबे ग्वाला

ललचानो “संतोष” कहत है, श्याम का रँग निराला

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (36 – 40) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

हतप्रभ राजा राम ने जो थे बहुत उदास।

बुला दुखी अनुजों को तब की उनसे यों बात।।36।।

 

मुझ पावन सदाचारी से भी रविकुल-सम्मान।

दर्पण सा क्यों हो चला वाष्पवायु से म्लान।।37।।

 

तैल सा जल मैं फैलता जन में मम अपवाद।

मुझे सहन नहीं ज्यों प्रथम बंधन को गजराज।।38।।

 

धोने अपयश सिया का करना होगा त्याग।

पितृाज्ञा से राज्यश्री का ज्यों था परित्याग।।39।।

 

ज्ञात मुझे सीता तो है अति पवित्र निष्पाप।

किन्तु मुझे हैं कोंचता झूठा लोकापवाद।।40।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १८ मार्च – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆  १८ मार्च -संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

दिनकर नीलकंठ देशपांडे

दिनकर नीलकंठ देशपांडे (17 जुलै 1933 – 18 मार्च 2011) हे मराठीतील पत्रकार व साहित्यिक.

त्यांचे शालेय शिक्षण जबलपूर व वर्ध्याला झाले. शालेय जीवनात ते ‘उत्कृष्ट विद्यार्थी’ म्हणून नावाजले गेले.

नंतर ते ग्रामसेवक म्हणून नोकरी करू लागले. तेव्हाच त्यांना लिहिण्याचा छंद लागला.

1951 मध्ये ते नागपूरला परत आले व त्यांनी ‘अशोक प्रकाशन’ व ‘उद्यम प्रकाशन’ मध्ये नोकरी केली. नंतर ‘नागपूर पत्रिका’, ‘लोकमत’, ‘दैनिक महाराष्ट्र’ या वृत्तपत्रांसाठी पत्रकारिता केली.

स्वतःच्या नावाला ‘राव’ हा शब्द जाणीवपूर्वक लावून ते तो खास वैदर्भी ठसक्यात उच्चारायचे. त्यांचा स्वभाव मोकळा, उमदा व मिश्किल होता.

त्यांनी ‘बहरले सोन्याचे झाड’, ‘हं हं आणि हं हं हं’ वगैरे शंभराहून अधिक बालनाट्ये लिहिली. त्यापैकी बहुसंख्य नाटके सुधा करमरकर यांच्या ‘लिटिल थिएटर’ने सादर केली व गाजवली.दिनकररावांनी नागपूरला अभिनयाची नाट्यशाळा चालवली.

याशिवाय त्यांनी मोठ्यांसाठी विनोदी लेखसंग्रह, कथासंग्रह, दोन कादंबऱ्या व अन्य बालसाहित्यही लिहिले.

ठाणे येथे भरलेल्या बालकुमार साहित्य संमेलनाच्या अध्यक्षपदी त्यांची एकमताने निवड झाली. बालनाट्यलेखनासाठी राज्यशासनातर्फे देण्यात येणारा ‘राम गणेश गडकरी पुरस्कार’ दोनदा मिळवणारे दिनकरराव हे एकमेव बालसाहित्यिक आहेत.

त्यांच्या स्मृतिदिनानिमित्त त्यांना सादर अभिवादन. ??

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ :साहित्य साधना कऱ्हाड, शताब्दी दैनंदिनी. विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कलाकृती… ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆

सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कलाकृती… ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆ 

तेच तिखट तेच मीठ

तोच गॅस तिचं भांडी

स्वैपाकाला…..

रोज वेगळी चव

कधी मनाची

कधी जनाची

 

तेची अक्षरे तेच शब्द

तेच भाव तेच उमाळे

कविता उमलते

कधी मनाची

कधी फुकाची

 

तेच रंग

तसाच कुंचला

जसे अंतरंग

तसा आविष्कार साधला

 

स्वैपाक काय  कविता काय

एक…..    कलाकृती

ती साधते

कलाकारच्या साधनेत

 

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

मो.९६५७४९०८९२

सांगली

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कविता # 116 – होळी विशेष – तमोगुण ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 116 – विजय साहित्य ?

होळी विशेष – तमोगुण  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

तत्वनिष्ठ संस्कारांनी

कटिबद्ध आहे होळी

अंतरीचे तमोगुण

बांधुयात त्यांची मोळी .. !! १ !!

 

तरू काष्ठ सुकलेले

त्याची समिधा तात्त्विक

रिती रिवाजांचा चर

तेज होळीचे सात्त्विक…!! २ !!

 

भक्त प्रल्हादाची कथा

भक्तीरुप अविष्कार

पानं पानं अहंकारी

होळीमध्ये स्वाहाकार..!! ३ !!

 

होळी पौर्णिमेच्या दिनी

करू दुर्गुण निःसंग

प्रासंगिक अभिव्यक्ती

सद्गुणांचा रागरंग…!! ४ !!

 

काम,क्रोध,लोभ,मोह

मद मत्सर भस्मात

फाल्गुनात वर्षाखेरी

चैतन्याची रूजवात… !! ५ !!

 

मार बोंब,घाल शिव्या

सर्व धर्म समभाव

नाना रंग स्वभावाचे

दाखविती रंक राव… !! ६ !!

 

ऋतूचक्र सांगतसे

आली आली बघ होळी

खरपूस समाचार

खाऊ पुरणाची पोळी…. !! ७ !!

 

नको हिरण्य रिपूचे

संसारीक आप्तपाश

अंतरंगी नारायण

करी तमोगुण नाश… !! ८ !!

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ शेअरिंग… ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

सौ. दीपा नारायण पुजारी

?विविधा ?

☆ शेअरिंग… ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

इतरांसह एकत्रितपणे काहीतरी  वस्तू वापरणं किंवा त्याचा आनंद घेणं म्हणजेच आजकालच्या भाषेत शेअरिंग. शेअरिंग ही एक प्रोसेस आहे. शेअर करणं म्हणजेच थोडक्यात एखाद्याला सरळ सरळ गिफ्ट देणं. हे शेअरिंग जागा, वेळ, पुस्तक, खेळ, खाऊ अशा कोणत्याही गोष्टींचं असू शकतं. तसं पाहिलं तर हा आजकलचा की- वर्ड झाला आहे. फाईल शेअरिंग, स्क्रीन शेअरिंग, मेसेजेस, फोटोज्, माहिती, व्हिडिओज् इ. इ. . . आजच्या न्यू ऑप्टिक युगात किंबहुना इंटरनेट कल्चर मध्ये हा एक अनेक कामं सुसंगत पणे पार पाडण्यासाठी महत्त्वाचा दुवा आहे. आंतरजालाच्या म्हणजेच इंटरनेटच्या जाळ्यात गुरफटलेले आपण शेअरिंग शिवाय काम करूच शकत नाही. लॉकडाऊन च्या काळात; वर्क फ्रॉम होम करणाऱ्यांना तर  आंतरजालाच्या गुहेत संचार करण्यासाठी शेअरिंग खूपच महत्त्वाचं असतं. एवढंच नव्हे तर इंटरनेटचा वापर फारसा न करणारेही या आंतरजालात गुरफटलेले आहेत. उदाहरणच द्यायचं झालं तर. . बघा हं. . .  काशी विश्वेश्वराचं जिर्णोद्धारामुळे बदललेलं भक्तीरस जागृत करणारं  रुप आपल्याला घरात बसून बघता येतं. . . . त्याचं नेत्रसुख मिळवता येतं, भाविकांना काशी दर्शनाचा लाभ मिळतो. हे शक्य होतं ते काशी विश्वेश्वराचा व्हिडिओ सोशल मेडियावर शेअर केल्यामुळेच ना!

इंटरनेट वर माहिती शेअर करणं हे आता फारच सामान्य झालं आहे. पण मुळात शेअरिंग करणं, एकमेकांना देणं, या आपल्या जीवनाच्या अविभाज्य भाग असलेल्या संकल्पनेला विसरत चाललो आहोत. आपल्या मागच्या पिढ्या शेअरिंग च्या बळावर वाढल्या, मोठ्या झाल्या. घरात बहिण भावंडांच्या बरोबर वह्या- पुस्तकं, रंगपेट्या, पोस्टर कलर्स, कंपास बॉक्स इतकंच काय कपडे देखील शेअर करुन वाढल्या या पिढ्या! आठवीत शिकणाऱ्या भावाचा भूमितीचा तास झाला की तो कंपास बॉक्स सहावीतल्या बहिणीकडं सुपूर्द केला जाई. केवढी सोय! केवढी बचत!! मोठ्या बहिणीचे कपडे घालण्यात लहान बहिणीला अपमान वाटत नसे.

मधल्या सुट्टीत डबा खाताना डब्यातील भाजी एकमेकांना दिली जाई. खिशातून आणलेल्या शेंगदाणे, फुटाणे, गोळ्या बिस्कीटं यांची देवाणघेवाण  नेहमीच होई. चिमणीच्या दातांनी रावळगाव आणि लिमलेटच्या गोळ्यांचा गोडवा वाढवला जाई.

आजच्या युझ ऍन्ड थ्रो च्या जमान्यात  मुलांना शेअरिंग शिकवावं लागतं. तेही जाणीवपूर्वक. न्युक्लिअर फॅमिलीच्या प्रॉब्लेम्सना तोंड देत वाढणारी ही पिढी, कोरोना व्हायरसनं त्रस्त झाली आहे. रंग रुप बदलतं, जगभर संचार करणाऱ्या या व्हायरसचं सोवळं पाळायलाच पाहिजे. ऑनलाईन शाळेमुळं एकत्र एका वर्गात, एका बाकावर बसून शिकणं जिथं नाही तिथं आपल्या दप्तरातल्या वस्तूंचं, डब्यातल्या खाऊचं शेअरिंग  केवळ अशक्य. चूकुन ही चूक झालीच तर . .बापरे. . शांतम् पापम्!!. किंबहुना मुलांना सुरक्षिततेसाठी शेअरिंग नको हेच नाईलाजानं शिकवावं लागतं. अर्थात सगळं माझंच आहे, एकट्याचंच आहे ही वृत्ती बळावली तर नवल नाही. एक तीळ सात जणांनी राहू दे, पण दोघांनी वाटून खाणं देखील दुरापास्त होऊन बसलंय. शेअरिंगमुळं केअरिंग वाढतं. असं जरी असलं तरी सध्या शेअरिंगचं फारसं केअरिंग न करणंच योग्य ठरेल.

कोरोना लवकरच गोठून जाऊ दे,  ‘केअरिंग’ करणारं माणसातलं खरंखुरं ‘शेअरिंग’ शेअर करता येऊ दे. . . तोपर्यंत टेक केअर.

 

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

9665669148

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अतिलघुकथा – सकारात्मक ☆ प्रस्तुति – सुश्री मंजिरी गोरे ☆

?जीवनरंग ?

☆ अतिलघुकथा – सकारात्मक ☆ प्रस्तुति – सुश्री मंजिरी गोरे ☆

लघुतम कथा  – – १

आईच्या नावे असलेली जागा आपल्या नावावर करून घेण्याची सुप्त इच्छा मनात धरून आईच्या ताब्यासाठी दोन भाऊ भांडत होते. आईला विचारल्यावर ती म्हणाली जो माझ्या तीन औषधाच्या गोळ्यांची नावे एका झटक्यात सांगेल त्याच्याकडे मी जाईन. दोन्ही भाऊ खजील झाले.

 

लघुतम कथा ..२.

शिक्षणासाठी दूर देशी गेलेल्या गरीब होतकरु मुलाने आईला पत्र पाठवले. त्यात त्याने लिहिले, इथे माझी जेवणाची चंगळ आहे. काळजी करु नकोस. आईने ते पत्र वाचून एक वेळेचे जेवण सोडले; कारण पत्राच्या शेवटी मुलाच्या अश्रुने शाई फुटली होती.

 

लघुतम कथा  – -३.

आजोबाच्या काठीला हाताने ओढत नेणाऱ्या नातीला पाहून लोक म्हणाले, अग हळू हळू आजोबा पडतील ना. आजोबा हसून म्हणाले, पडीन बरा, माझ्याजवळ दोन काठया असताना.

 

लघुतम कथा  – – ४.

आंब्याच्या झाडावर चढून चोरुन आंबे काढणाऱ्या मुलांच्या पाठीत रखवालदाराने काठी घातली आणि थोडा वेळ धाक म्हणून त्यांना झाडाला बांधून ठेवले. का कुणास ठाऊक; पण त्यानंतर त्या झाडाला कधीच मोहर आला नाही.

 

लघुतम कथा  – -५.

ऑफिसातून दमून आल्यावर बाबाने आजीचे पाय चेपून दिल्याचे पाहून नातीने न सांगता बाबाच्या पाठीला तेल लावून दिल्याचे पाहून आजी म्हणाली, ताटातील वाटीत आणि वाटीतील ताटात.

 

संग्राहिका : सुश्री मंजिरी गोरे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! फेरा एकवीसचा ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

💃 फेरा एकवीसचा ! 😅

“पंत हे तुम्ही काय चालवलंय ? “

“मोऱ्या अरे आज तुला झालंय तरी काय, नेहमी सारखा नमस्कार वगैरे करशील का नाही ?”

“नाही आणि करणार पण नाही,  कारण मी रागावलोय तुमच्यावर, म्हणून आज नमस्कार वगैरे विसरा !”

“ही तुला काही बोलली का मोऱ्या ?”

“काकू कशाला बोलतील मला?  मी तुमच्यावर रागावलो आहे म्हटलं ना !”

“अरे हो, पण मी पडलो साधा पेन्शनर, कुणाच्या अध्यात ना मध्यात, मग माझ्यावर रागावण्या सारखं मी केलय तरी काय, ते तरी सांग!”

“काय म्हणजे, परवा आपल्या वरच्या मजल्यावरच्या नितीनच्या मुलाचं बारस होत, तर…. “

“हो मस्त दणक्यात केलंन हो, आम्ही दोघे गेलो…. “

“ते बोलला मला नितीन, पण बाळासाठी अहेराच पाकीट… “

“न्यायला अजिबात विसरलो नव्हतो मोऱ्या, खरं सांगतो !”

“हो ते खरंय, पण पाकिटात पैसे… “

“सुद्धा आठवणीने एकवीस रुपये टाकले होते, पाहिजे तर विचार नितीनला !”

“बोलला मला नितीन त्याबद्दल.. “

“मग झालं तर !”

“तसच आठ दिवसापूर्वी केळकरांच्या मुलाची मुंज होती, तेव्हा पण….. “

“आम्ही दोघे जोडीने आवर्जून गेलो होतो बटूला आशीर्वाद द्यायला !त्याच्या लग्नाला आम्ही असू, नसू ! त्याला पण चांगला एकवीस रुपयांचा अहेर… “

“केळकर काका म्हणाले मला.”

“मग झालं तर, उगाच इतर काही लोकांसारखी रिकामी पाकीट द्यायची सवय नाही मला, कळलं ना मोऱ्या ?”

“ते ठाऊक आहे मला पंत, काही झालं तरी तुम्ही रिकामं पाकीट देणार नही ते. पण आता मला सांगा, गेल्या महिन्यात कर्णिकांच्या मंदाच लग्न होत, तर तिला सुद्धा….. “

“एकवीस रुपयाचाच आहेर केला होता आठवण ठेवून ! अरे लहान असतांना आमच्या राणी बरोबर खेळायला यायची आमच्या घरी. “

“पंत, मंदा लहानपणी तुमच्याकडे खेळायला यायची वगैरे वगैरे, ते सगळे ठीक आहे, पण तुम्ही बारस, मुंज आणि लग्न यात काही फरक करणार आहात की नाही ?”

“अरे मोऱ्या हे तिन्ही वेगवेगळे विधी आणि समारंभ आहेत, पूर्वी पासून चालत आलेले, त्यात मी फरक करण्या एव्हढा, कोणी थोर समाज सेवक थोडाच आहे ? हां, आता लहानपणी कुणाची मुंज राहिली असेल तर ती लग्नात लावता येते, पण बारस बाळ जन्मल्यावर बाराव्या दिवशी केल तर त्याला मुहूर्त बघायला लागत नाही असं म्हणतात, म्हणून लोक…. “

“पंत, मी त्याबद्दल बोलतच नाहीये !”

“मग कशा बद्दल बोलतोयस बाबा तू ?”

“अहो मी तुमच्या आहेराच्या रकमे बद्दल बोलतोय !”

“त्या बद्दल काय मोऱ्या ?”

“सांगतो ना पंत, तुमच्या दृष्टीने बारस, मुंज आणि लग्न यात  काही फरक आहे का नाही ? मग प्रत्येक वेळेस एकवीस रुपयाचाच आहेर, याच काय लॉजिक आहे तुमच, ते मला समजेल का ?”

“ते होय, त्यात कसलं आलंय लॉजिक ? त्याच काय आहे ना, अरे हल्ली, आपले आशीर्वाद हाच खरा आहेर, कृपया पुष्प गुच्छ आणू नयेत, अशा छापाच्या तळटीप प्रत्येक निमंत्रण पत्रिकेत असतात, तरी सुद्धा मी आठवणीने….. “

“सगळ्यांना एकवीस रुपयाच्याच आहेराची पाकीट का देता, हेच मला जणून घ्यायच आहे पंत आज !”

“मोऱ्या असं बघ, एकवीस या आकड्याच महत्व माझ्या दृष्टीनं फार म्हणजे फारच वाढलेलं आहे सध्या ! म्हणून मी सगळ्यांना एकवीस रुपयाचाच आहेर करतो हल्ली !”

“ते कसं काय बुवा पंत ?”

“सांगतो ना तुला. आपण या समारंभातून मिळणाऱ्या भोजनावर यथेच्छ ताव मारतो की नाही?”

“तसच काही नाही पंत, पण अशा समारंभात मी नेहमी पेक्षा थोडं जास्त जेवतो इतकंच !”

” बरोबर, तर त्याची अल्पशी परत फेड म्हणून…. “

“काय बोलताय काय पंत तुम्ही ? एकवीस रुपयाच्या पाकिटात कसली आल्ये परतफेड ? हल्ली अशा समारंभात माणशी जेवणाचे दर तुम्हाला…..”

“चांगलेच माहिती आहेत मोऱ्या ! हल्ली सातशे आठशेच्या खाली ताट नसतं ठाऊक आहे मला, पण म्हणून मी अल्पशी…. “

“पंत अहो तुमच्या अल्पला थोडा तरी अल्पार्थ आहे का सांगा बघू ?”

“आहे, नक्कीच आहे मोऱ्या !”

“हो का, मग म्या पामराला जरा तो समजावता का पंत ? “

“सांगतो ना मोऱ्या. आता असं बघ, सध्या शिवथाळी कितीला मिळते सांग बर मला ?”

“दहा रुपयाला !”

“बरोबर, म्हणजे सकाळी एक शिवथाळी आणि संध्याकाळी एक शिवथाळी या एकवीस रुपयात येवू शकते की नाही ?”

“हो पंत, म्हणजे एका माणसाचा एका दिवसाचा दोन वेळचा जेवणाचा प्रश्न सुटेल वीस रुपयात ! पण तुमच्या एकवीसच्या पाकिटातला एक रुपया शिल्लक राहतोच ना पंत ? त्याचे हल्लीच्या महागाईत खायचे पान सोडा, आपट्याचे एक पान पण येणार नाही पंत !”

“अरे पण माझ्या एकवीस रुपयाच्या आहेरातला तो उरलेला रुपया, पानासाठी वापरायचा नाहीच मुळी!”

“मग, त्या राहिलेल्या एक रुपयाचं करायच काय पंत ? पिगी बँकेत टाकायचा का ?”

“अरे नाही रे बाबा, पण जर का   शिवथाळी खाऊन तब्येत बिघडली, तर राहिलेल्या एका रुपयात सरकारच्या नवीन योजने प्रमाणे ‘आपल्या दारात आरोग्यचाचणी एक रुपयांत’ नाही का करता येणार ? म्हणजे लागला ना एकवीस रुपयाचा हिशोब !”

“धन्य आहे तुमची पंत !”

“आहे ना धन्य माझी मोऱ्या, मग कधी करतोयस लग्न बोल? म्हणजे

तुझ्यासाठी पण एक, एकवीसाचे अहेराचे पाकीट तयार करायला मी मोकळा !”

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

१७-०३-२०२२

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ चांगल द्या,चांगल मिळेल…अनामिक ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ चांगल द्या,चांगल मिळेल…अनामिक ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे  ☆

एकदा श्रीकृष्ण व अर्जुन एका जंगलातून जात असताना अचानक अर्जुन श्रीकृष्णाला बोलतो… मला कर्णापेक्षा मोठे दानशूर व्हायचे आहे. त्यासाठी तू माझी मदत कर. 

श्रीकृष्ण त्याला समजावण्याचा प्रयत्न करतो की तुला ते शक्य नाही. पण अर्जुन हट्टालाच पेटलेला असतो. तो श्रीकृष्णाच्या मागे सतत एकच धोशा लावतो की मला कर्णापेक्षा मोठे दानशूर व्हायचे आहे.

श्रीकृष्ण म्हणतो ठिक आहे.. मी तुला एक संधी देतो. पण माझी पण एक अट आहे… मी तुला जी संधी देईन, तीच संधी कर्णाला सुद्धा देईन आणि ह्या परीक्षेत तु कर्णापेक्षा मोठा दानशूर असल्याचे सिद्ध करून दाखवायचे. अर्जुन श्रीकृष्णाची ही अट मान्य करतो.

श्रीकृष्ण आपल्या शक्तीने जंगलातल्या दोन टेकड्यांचे रूपांतर सोन्याच्या टेकड्यांमध्ये करतो आणि अर्जुनाला म्हणतो.. आता हे सगळे सोने लोकांमध्ये वाटून टाक.. अट एकच एकूण एक सोने तु दान केले पाहिजेस.

लगेच अर्जुन जवळच्या गावात गेला आणि तिथे त्याने जाहीर केले की… मी प्रत्येक गावकऱ्यांना सोने दान करणार आहे आणि त्यासाठी प्रत्येकाने टेकडीपाशी यावे. लोक अर्जुनाच्या मागे टेकडीच्या दिशेने चालू लागले. पुढे अर्जुन छाती काढून चालत होता. मागे गावकरी त्याचा जयजयकार करत होते. दोन दिवस, दोन रात्री काम चालू होते. अर्जुन खोदत होता आणि सोने काढून लोकांना देत होता. पण टेकडी थोडीदेखील संपली नव्हती. लोक सोने घेऊन घरी जायचे आणि परत येऊन रांगेत उभे राहायचे.

आता अर्जुन अगदी दमून गेला होता. पण त्याचा अहंकार त्याला माघार घेऊ देत नव्हता. शेवटी त्याने श्रीकृष्णाला सांगितले की बास….!

आता यापुढे मी काम करू शकत नाही.

मग श्रीकृष्णाने कर्णाला बोलावले आणि सांगितले की…. या दोन सोन्याच्या टेकड्या आहेत त्या तु लोकांना दान करून टाकायच्या…..

लगेच कर्णाने पंचक्रोशीतील गावकऱ्यांना बोलावले आणि सांगितले की… या दोन सोन्याच्या टेकड्या तुमच्या आहेत. ज्याला जेवढे शक्य आहे त्याने तेवढे सोने निःसंकोच घेवून जावे. एवढे सांगून कर्ण तिथून निघून गेला. लोक सोने वाहून नेऊ लागले.

अर्जुन चकित होऊन पहात बसला. हा विचार आपल्या मनात का आला नाही… या प्रश्नाने तो अस्वस्थ झाला.

श्रीकृष्ण मिश्कीलपणे हसला आणि म्हणाला… अनावधानाने का होईना तु सोन्याकडे आकर्षित झालास…..! तु गर्वाने प्रत्येक गावक-याला सोने वाटू लागलास. जणू काही आपण उपकार करतो आहोत अशा थाटात तु दान करत होतास…..! 

कर्णाच्या मनात असले काहीही नव्हते. त्याने दान केले आणि तो निघूनही गेला.

आपले कुणी कौतुक करतंय… गुणगान गातंय… हे पाहण्यासाठी देखील तो थांबला नाही.

व्यक्ती प्रकाशाच्या मार्गावर चालत असल्याचे हे लक्षण आहे.

देणगीच्या बदल्यात लोकांनी आपले कौतुक करावे… शुभेच्छा द्याव्यात… धन्यवाद द्यावेत अशी अपेक्षा ठेवणे… म्हणजे ते काही निरपेक्ष दान नसते. कुठल्याही परताव्याची अपेक्षा न ठेवता दान करावे… कार्य करावे…                                                  *म्हणून निसर्गाचा एक नियम आहे जे तुम्ही देणार ते तुम्हाला नक्की परत भेटणार. कोणत्या रूपात परमेश्वर देईल ते सांगता येत नाही. त्यामुळे चांगलं द्या पदरी चांगलंच मिळेल.

‘आपलं काय चुकलं’ हे शोधायला हवं…. पण आपण मात्र ‘कुणाचं चुकलं’ हेच शोधत राहतो. …

लेखक –  अज्ञात

संग्रहिका – मंजुषा सुनीत मुळे 

९८२२८४६७६२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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