हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख #134 – “विश्व कविता दिवस…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।

आज से प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर आधारित एक विशेष आलेख  “विश्व कविता दिवस…”)

? आलेख – “विश्व कविता दिवस…” ” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ??

विश्व कविता दिवस (World Poetry Day) प्रतिवर्ष 21 मार्च को मनाया जाता है। यूनेस्को ने इस दिन को विश्व कविता दिवस के रूप में मनाने की घोषणा वर्ष 1999 में की थी जिसका उद्देश्य कवियों और कविता की सृजनात्मक महिमा को सम्मान देते हुए पूरे विश्व के कवियों और कविताओं को करीब लाना है।

सम्पूर्ण श्रृष्टि ही किसी कवि की कविता है। काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी कहानी या मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। भारत में कविता का इतिहास और कविता का दर्शन बहुत पुराना है। इसका प्रारंभ भरतमुनि से समझा जा सकता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो विधिवत छन्दों में बांधी जाती है। भारत की प्राचीनतम कविताएं संस्कृत भाषा में ऋग्वेद में हैं जिनमें प्रकृति की प्रशस्ति में लिखे गए छंदों का सुंदर संकलन हैं।

आधुनिक हिंदी पद्य का इतिहास लगभग 800 साल पुराना है और इसका प्रारंभ तेरहवीं शताब्दी से समझा जाता है। हर भाषा की तरह हिंदी कविता भी पहले इतिवृत्तात्मक थी। यानि किसी कहानी को लय के साथ छंद में बांध कर अलंकारों से सजा कर प्रस्तुत किया जाता था। भारतीय साहित्य के सभी प्राचीन ग्रंथ कविता में ही लिखे गए हैं। इसका विशेष कारण यह था कि लय और छंद के कारण कविता को याद कर लेना आसान था। जिस समय छापेखाने का आविष्कार नहीं हुआ था और दस्तावेज़ों की अनेक प्रतियां बनाना आसान नहीं था उस समय महत्वपूर्ण बातों को याद रख लेने का यह सर्वोत्तम साधन था। यही कारण है कि उस समय साहित्य के साथ-साथ राजनीति, विज्ञान और आयुर्वेद को भी पद्य (कविता) में ही लिखा गया। जीवन के अनेक अन्य विषयों को भी इन कविताओं में स्थान मिला है।

सम्पूर्ण विश्व ही किसी कवि की कविता है। ऐसा इसलिए कि ऋग्वेद में ईश्वर के अनेक नामों में एक नाम “कवि” भी है। कविता सिर्फ कविता होती है। किसी भी भाषा या देश की कविता हो, उसके मूल भाव और प्रवृत्तियां लगभग एक जैसी होती हैं। लेकिन हम चूँकि भारतवासी हैं इसलिए भारत में कवि और कविता के विषय में अपनी ही परम्परा के आलोक में मुख्य रूप से चर्चा करेंगे।

भारत में सभी प्रकार के साहित्य को काव्य कहा गया है। साहित्य को समाज का दर्पण कहते हैं। किसी समाज को समझना हो तो उसमें कही जा रही कविता या साहित्य को पढ़ा जाए।

आइये, सबसे पहले यह देखते हैं कि हमारे देश में कविता किसे कहा गया है। उसे किस तरह परिभाषित किया गया है। जीवन की तरह कविता भी अनंत है, जिसे किसी परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता। लेकिन इसे अनेक लोगों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है। जहाँ तक भारतीय कविता का प्रश्न है, तो उसे समझने की शुरूआत हमें संस्कृत से ही समझना करनी होगी, क्योंकि यही सब भारतीय भाषाओं की जननी है।

हमारे देश में साहित्य के अनेक सम्प्रदाय हैं और हर सम्प्रदाय के आचार्यों ने कविता को अपने-अपने ढंग से निरूपित और परिभाषित किया है। किसीने अलंकार को कविता माना, तो किसीने रीति को; किसीने औचित्य को तो किसीने वक्रोक्ति को; किसीने ध्वनि को कविता माना तो किसीने रस को। लेकिन इसमें से कोई भी कविता के पूरे मर्म को अभिव्यक्त नहीं करता।

बहरहाल, कविराज विश्वनाथ की परिभाषा को लगभग सर्वमान्य कहा जा सकता है। उन्होंने कहा है कि “वाक्यं रसात्मक काव्यं”। यानी रसपूर्ण वाक्य की काव्य है। शब्द रूपी काव्य-शरीर में रस रूपी आत्मा होनी चाहिए, अन्यथा यह बिना आत्मा के शरीर के समान है। आचार्य भरत ने रस का प्रतिपादन करते हुए कहा कि रसो वैस: यानी, रस ही ब्रह्म व परमात्मा है। इस प्रकार कुल मिलाकर रस की निष्पत्ति करने वाला व्यवस्थित वाक्य ही काव्य है।

भारत के मनीषियों का हर विषय में चिन्तन सर्वोच्च स्तर का है। उन्होंने ईश्वर को कवि निरूपित करते हुए कहा कि-

कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू

अर्थात कवि मनीषी, परिभू यानी सर्वव्याप्त और स्वयंभू अर्थात अनादि है।

कवि को हमारे शास्त्रों ने साधारण मानव नहीं माना है। वह सामान्य व्यक्ति से ऊपर उठा होता है। अग्नि पुराण में कहा गया है कि-

नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा

कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तितस्तत्र,

अर्थात मर्त्यलोक में मनुष्य जन्म दुर्लभ है। उसमें भी ज्ञान प्राप्त करना बहुत कठिन है। ज्ञान में भी कवित्व दुर्लभ है। कविता करने की शक्ति अत्यंत दुर्लभ है और कठिनाई से प्राप्त होती है।

संभवत: इसी श्लोक से प्रेरित होकर कवि गोपालदास नीरज ने लिखा कि-

आत्मा के सौन्दर्य का शब्द रूप है काव्य

मानव होना है भाग्य

कवि होना सौभाग्य।

कविता के लिए क्या ज़रूरी? इस विषय में भारत और पाश्चात्य साहित्य मनीषियों का चिन्तन लगभग एक जैसा है। उन्होंने इसके लिए प्रतिभा को पहली और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता माना है, जिसके बिना कविता करना संभव नहीं है। अधिकतर मनीषियों का मत है कि काव्य-प्रतिभा जन्मजात होती है। हालाकि कुछ लोगों का मानना है कि प्रयास और अभ्यास से इसे अर्जित किया जा सकता है। ऐसे सज्जनों को भी कविता का रुझान ज़रूरी है।

प्रतिभा सिर्फ कविता करने वाले के लिए ही नहीं, उसे सुनने वाले के लिए भी आवश्यक बतायी गयी है। हमारे देश में दो प्रकार की प्रतिभाएँ कही गयी हैं- कारयत्री प्रतिभा और भावयत्री प्रतिभा। पहली का सम्बन्ध कवि से है और दूसरी का श्रोता या रसिक से। बहरहाल, अकेली प्रतिभा से बहुत प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। अभ्यास और निरंतर ज्ञान अर्जन की प्रवृत्ति से ही श्रेष्ठ कविता की रचना हो सकती है। कवि को दूसरे कवियों और साहित्य को निरंतर पढ़ते रहना चाहिए। भाषा, व्याकरण और काव्य के विभिन्न अंगों को परिष्कृत करते हुए अपनी शब्द-शक्ति को बढ़ाते रहना चाहिए। महाकवि तुलसीदास भले ही कहते हों कि-

कवित विवेक एक नहीं मोरे,

सत्य कहहुं लिखि कागद कोरे।

यानी मैं कोरे कागज़ पर यह बात लिखकर दे सकता हूँ कि मुझे कविता का बिल्कुल विवेक नहीं है। लेकिन इतनी बड़ी बात तो तुलसी जैसा महाकवि ही कह सकता है। उन्हें काव्यशास्त्र, छंद विधान, व्याकरण, भाषा और काव्य के सभी अंगों में असाधारण श्रेष्ठता हासिल थी।

अंग्रेजी कवि वर्ड्सवर्थ (Wordsworth) ने कहा है कि अनुभूति की प्रगाढ़ता कविता का प्रमुख तत्व है। सही बात है। केवल प्रतिभा, काव्यशास्त्र के नियमों और भाषा की श्रेष्ठता भर से श्रेष्ठ कविता नहीं हो सकती। श्रेष्ठ और शाश्वत कविता की रचना के लिए कवि की चेतना को इतना ऊंचा उठना पड़ता है कि व्यक्ति के रूप में कवि रह ही नहीं जाता सिर्फ कविता रह जाती है। दुनिया में जितने भी श्रेष्ठ कवि हुए हैं, उनकी चेतना इतनी ही ऊपर उठी थी। वे इतने भावाविष्ट हो जाते हैं कि उन्हें खुद ही पता नहीं होता कि वे क्या लिख रहे हैं। लिखने के बाद उन्हें खुद आश्चर्य होता है कि क्या यह मैंने लिखा है?

इस सन्दर्भ में महान अंग्रेज़ी कवि कॉलरिज से जुड़ा एक प्रसंग याद हो आता है। विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी साहित्य के एक प्रोफ़ेसर कॉलरिज की कोई कविता पढ़ा रहे थे। उन्हें एक पंक्ति का अर्थ समझ नहीं आ रहा था। उन्होंने स्टूडेंट्स से कहा कि यह पंक्ति मुझे समझ नहीं आ रही है। इसका अर्थ में कवि लिखते समय बता सकता है। वह शाम को कॉलरिज के घर गये। वह अपने घर के लॉन में बैठे थे। प्रोफ़ेसर ने उनसे उस पंक्ति का मतलब पूछा। कॉलरिज ने कहा कि इस पंक्ति का मतलब तो सिर्फ दो लोग जानते हैं- एक कवि और एक ईश्वर। प्रोफ़ेसर ने कहा कि ईश्वर को कहाँ तलाशूंगा, आपने उसकी रचना की है, लिहाजा खुद ही बता दीजिये। कॉलरिज ने कहा कि जिस कॉलरिज ने ये पंक्तियाँ, लिखीं वह तो लिखकर चला गया। मुझे खुद ही पता नहीं कि इन पंक्तियों का क्या मतलब है।

इसी तरह की बात महान कवि कीट्स के बारे में पढ़ने में आती है। उनकी अनेक कविताएँ अधूरी पड़ी रहीं। लोगों ने उनसे कहा के वह उन्हें पूरी कर दें। लेकिन कीट्स कवि उन्हें पूरी नहीं कर पाए। चेतना की जिस अवस्था में उन्होंने वे पंक्तियाँ लिखी थीं, वह चेतना कविता पूरी होने तक नहीं रह सकी। फिर कभी वैसी स्थिति नहीं बनी। उनके लाख प्रयास करने पर भी ये कविताएँ अधूरी ही रह गयीं। इसलिए हमें कुछ कविताओं के अर्थ समझ नहीं आते।

उर्दू में इसे ही आमद की शायरी कहा गया है। महान शायर ज़िगर मुरादाबाद शराब बहुत पीते थे। इसीके कारण उनका जीवन बर्बाद रहा। लेकिन उन्होंने एक बहुत चौंकाने वाली बात कही। उन्होंने कहा कि जब उन पर शेर नाज़िल होते हैं, तो वह महीनों शराब को छूते तक नहीं हैं।

संत तुलसीदास ने अपनी कालजयी कृति “रामचरितमानस” के बारे में कहा कि यह उनके भीतर से प्रकाशित हुयी है। इसीलिए महान ग्रंथों को अपौरुषेय कहा गया है। आमतौर पर इसका अर्थ यह लगाया जाता है कि इन्हें किसी व्यक्ति ने नहीं लिखा, लेकिन इसका मतलब सिर्फ इतना है कि चेतना की जिस अवस्था में उनकी रचना हुई, उस समय व्यक्ति के रूप में रचनाकार नहीं रह गया।

ईश्वर की तरह ही कविता का भी कोई अंत नहीं है। इस पर हज़ारों पुस्तकें लिखने पर भी बहुत कुछ अनकहा रह जाएगा। बहरहाल, कवि बनने की चाह रखने वालों को मनीषी की तरह चेतना प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत #82 – “बहुत दूभर दिन यहाँ …” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “बहुत दूभर दिन यहाँ …।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 82 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “बहुत दूभर दिन यहाँ ”|| ☆

पेड़ अपने साये में

सहमे किनारे के ।

बहुत दूभर दिन यहाँ

पर हैं गुजारे के।।

 

मुश्किलें बढती लगीं

संजीदगी लेकर ।

थक रहा उत्साह है

यह जिन्दगी देकर।

 

इसी मुश्किल वक़्त को

लकवा लगा है

मेम्बर दहशतजदा हैं

इस इदारे के ।।

 

उद्धरण हल क्या बताये

व्याकरण का ।

हर इक कोना व्यस्त है

पर्यावरण का।

 

यह हरापन प्रचुरतम

देता नसीहत।

सभी मानव साक्षी हैं

जिस सहारे के ।।

 

इधर जंगल जान है

मानव जगत की।

जो बचाए चेतना

इसकी परत की ।

 

जहाँ  संस्कृतियां परस्पर

उन्नयन कर।

बचाती नैवेद्य हैं सन्ध्या-

सकारे के ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

23-03-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 5 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 5 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

परदेश                 

काँच की दीवार के पार कितने हाथ हिल रहे हैं। सब अपने अपनों से मिलने को उतावले। आयो कहाँ से घनश्याम ! सब अपने आत्मीयजनों के इंतजार में झुक झुक कर देख रहे हैं। और उन्हीं लोगों में मेरी बेटी ! मैं उसे बुलाता हूँ,‘अम्मां – मांगो -!’

वह हँस रही है। बचपन में जब मैं उसे छुट्टी के बाद स्कूल से लेने जाता था, तो इसी तरह उसकी निगाहें उतावली होकर मुझे ढूँढ़ा करती थीं। एक ही रंग के स्कूल ड्रेस पहने बच्चों की भीड़ में मेरी निगाह भी आतुर होकर ढूँढ़ा करती थी – कहाँ है मेरी बच्ची? मेरी झूम? हज्जारों मीलों के सफर के बाद यह फासला भी इतना लंबा क्यों लग रहा है ? आ मेरी गुड़िया , मेरी छाती में आ जा –

उधर से रेलिंग के पार खड़ा रुपाई हँस रहा है। हाथ हिला रहा है। उसके हाथ में कैमरा है।

झूम अपनी मां के साथ लिपट गई। मुझे देख कर हँसते हुए बेटी ने कहा,‘देखिए हमारे साथ साथ आप दोनों को और कौन वेलकम करने आया है।’उसने अपने हैंड बैग से कपड़े में लिपटी एक बालगोपाल की मूर्ति निकाली। माखनचोर। मेरी बिटिया जहाँ जाती है, हमेशा उनको साथ लेकर चलती है। इन्सानों ने अपने अरमानों से ख़ुदा को रच लिया / कहा जहाँ पर वो आते हैं और अवतार नाम दिया!

हम यूल से निकल चले। सड़क पार करके कार पार्किंग तक जाते जाते बारिश की पाजेब बजने लगी। स्वयम् मेघदूत हमारा स्वागत कर रहा है।

यह रात मॉन्ट्रीयल में ठहर कर कल सुबह हमलोग किंग्सटन के लिए रवाना देंगे। भव्य होटल। बेसमेंट में रुपाई ने कार रख दी। उसकी भी दक्षिणा अलग से। होटल की शीशे जड़े खिड़की से सामने बिल्डिगों के ऊपर तीन शिखरोंवाला माउन्ट रॉयल (फ्रेंच में मॅन्ट रियाल) पहाड़ दिख रहा है। उसी के नाम पर शहर का यह नाम पड़ा है। रात के वक्त उस ऊँचाई से शहर का नजारा ही अद्भुत होता है। हर रात दिपावली का दीप पर्व।

सुबह हमारी कार ऑन्टारिओ स्टेट की ओर चल पड़ी। झूम ने बताया,‘वो वो रहा मैक्गिल यूनिवर्सिटी। वहीं रुपाई पढ़ाता था।’ और वहीं से मेरी बेटी ने भी बायोटेक में एमएस की है। यहाँ की 57 प्रतिशत जनता फ्रेंच में बात करती है। फ्रेंच ही यहाँ की ऑफिसियल लैंग्वेज है। अंग्रेज और फ्रांसीसिओं के बीच वर्चस्व का झगड़ा आज भी ताजा है। अब तो यहाँ सड़को पर या सार्वजनिक स्थलों पर भी सिर्फ और सिर्फ फ्रेंच में ही सूचना लिखी होती है। वरना चाय के पैकेट में अगर अंग्रेजी में लिखा है ग्रीन टी लिव्स् तो फ्रेंच तरजुमा भी साथ साथ है – फेविलेस डे द्य वर्ट। चीज स्टिक को कहते हैं बैतोननेट। फिर हर पैकेट पर उस खाद्य सामग्री में कितनी कैलोरी है, कितना प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट वगैरह है यह सब लिखा होता है। यानी न्यूट्रिशन फैक्टस, फ्रेंच में वैल्यूर न्यूट्रीटिव। तो आगे चलते हैं …..

हम मॉन्ट्रीयल से किंग्सटन की ओर चल रहे हैं। कार की क्या स्पीड है। काबिले तारीफ। पवन पुत्र भी पीछे रह जाए। मैं ने कनखिओं से डेश बोर्ड की ओर देखा। स्पीडो मीटर का कांटे ने सचिन की तरह शतक पूरी कर ली है। मगर वाह, क्या सड़क है, क्या कार है! तन के नीचे गति का कोई अहसास ही नहीं, जो बनारस की सड़कों पर चलने से हर वक्त होता है। उसके ऊपर वहाँ गुत्थम गुत्था, भीड़ भाड़, होड़ – अबे रुक, हमई जाब आगे, तू जा भाँड़ में। ठकुरई का परचम बुलंद करना! जल्दी इतनी कि लोग अपने भाई की छाती पर से ही बाइक चला दें।

सामने देखा – पश्चिम क्षितिज में घनघोर घटायें छा गयीं हैं। देखते देखते विन्ड स्क्रीन पर बारिश की पाजेब बजने लगी। कभी विलंबित, कभी द्रुत लय में। क्या बात है ! फिर जरा रवीन्द्रनाथ के वर्षा गीत याद आ रहे हैं :-

मन मेरा मितवा बदरा के

क्षितिज के छोर उड़कर जाके

पहुँचा अपार व्योम किनारे

अपना सरगम, बूँद सुना रे

रिमझिम रिमझिम पायल बाजे

सावन संगीत वहाँ बिराजे।  (मन मोर मेघेर संगी/उड़े चले दिग् दिगन्तेर पाने …..)

रवीन्द्रनाथ की सृष्टि का भी कोई ओर छोर नहीं। अथाह सागर लहराता जाए। रंवीन्द्र संगीत को विषयानुसार कई विभागों में वर्गीकृत किया गया है। पूजा, प्रेम, प्रकृति, स्वदेश, आनुष्ठानिक आदि …….। प्रकृति में ऋतु के अनुसार ग्रीष्म, वर्षा आदि……. ‘बसंत’ तक।

तभी मैं ने ख्याल किया कि हमारी बायीं ओर के लेन से जो कार या ट्रक इधर मॉन्ट्रीयल की ओर आ रहे हैं, उनके पहियों के पीछे से धूल उड़ रही है। क्या बात है ? इतनी साफ सड़क, फिर इतने पानी में धूल ! अजी नहीं, वो बात नहीं है। यह तो पहिये इतनी तेज घूम रहे हैं कि उनकी गति से पानी के कतरों से धुँध बनती जा रही है। वाह रे प्रकृति का अनुपम करतब! फिजिक्स का इनर्शिया ऑफ मोशन !

सड़क के दोनों ओर गजब की हरियाली! जैसे कुदरत ने हरा गलीचा बिछा कर रक्खा हो। उसीके किनारे पहरेदारों की तरह लाइन लगा कर खड़े हैं लंबे लंबे पेड़। ‘होशियार, इसके आगे आना मत! बस हमारे पीछे जंगल है।’कहीं कोई हिरण अचानक सड़क पार करने न आ पहुँचे, इसलिए कई जगह सड़क किनारे सूचना पट्ट पर उनकी तस्वीर बनी है। इन जंगलों में सियार, हिरण से लेकर छोटे भालू और छोटे शेर जैसे दिखने वाले माउन्टेन लायन या कूगर (प्यूमा कॉनकोलर) आदि जंतु पाये जाते हैं। ये कूगर तो उत्तर से लेकर दक्षिण अमेरिका तक फैले हुए हैं। बच के भैया, दूर से ही कर लो, ‘जय श्री श्याम!’

बेटी दामाद में बात हो रही है……‘नेक्सट् ऑन रूट कितनी दूर है ?’ अंग्रेजी का एनरूट शब्द और ऑन्टारिओ स्टेट का नाम मिलाकर यह नाम बना है। यह बस एक फाइव स्टार ढाबा है। रुपाई नाश्ते के लिए वहाँ रुका। तन के नीचे सम्मुख में प्रेशर भी काफी बन चुका था। उसे भी तो मुक्ति चाहिए।

वहाँ की साफ सफाई के बारे में अब क्या बतायें? खैर, वहाँ मैं ने दीवाल पर आइनस्टाइन सुवाच देखा :- जिन्दगी साईकिल की तरह है। बैलेन्स बनाये रखने के लिए चलते रहना जरूरी है। हाय! आइनस्टाइन ने जो कहा था, मेरे घुटने भी हर पल वही कहते हैं। जय सियाराम!

बगल की दीवार पर डेकार्ते का सुवचन सुधा :-जब कोई भी मुझे आघात पहुँचाने की कोशिश करता है, तो मैं अपनी रूह को पंछी की तरह और ऊपर उठा लेता हूँ, ताकि उसका वार खाली जाए !

सामने बड़े से हॉल में जाने कितने लोग परिवार के साथ बैठे कुछ खा पी रहे हैं। हॉल दो तरफ से खुला है। सड़क की ओर काँच की दीवार। वहाँ बैठे बैठे आप बाहर के दृश्य का अवलोकन भी कर सकते हैं। बीच में यहाँ से वहाँ तक लंबा काउंटर। पैसा दो, सामान लो। और आगे गिफ्ट शॉप। इधर छोटे दरवाजे से घुसते ही दायें एक कनाडा टूरिस्ट इन्फार्मेशन सेन्टर। हर जगह की पुस्तिका वहाँ रक्खी हुई हैं। वहाँ कौन कौन से देखनेलायक स्थल हैं। हमने भी दो एक उठा ली। सब फ्री।            

एक चीज यहाँ विचित्र है। दर्शनीय स्थलों की सूची में म्यूजियम, जंगल और छोटे जहाज से हजार द्वीपों की जल यात्रा के साथ साथ ऑन्टारिओ, किंग्सटन और कई शहरों के ‘हॉन्टेड प्लेसेस’ यानी भूतहा स्थलों का भ्रमण भी शामिल है। यानी वहाँ जाकर आप भूत भूतनी से कह सकते हैं,‘सर, मैडम, जरा एक कप कॉफी पिलाइयेगा ?’ क्या बात है! इहलोक परलोक का सेतु। जहाँ मिले इहलोक परलोक, वहाँ क्या खुशी और क्या शोक?

नाश्ते में हमलोगों ने लिया इंग्लिश मॅफिन्स और कॉफी। आगे आने वाले दिनों में कॉफी से ज्यादा हम दोनों ने चाय ही पी। काफी या चाय के मग की साइज भी माशे अल्लाह। आप पी सकते हैं, साथ साथ उसमें डुबकी भी लगा सकते हैं। यहाँ के लोग उसी मग को हाथ में लिये घूमते टहलते है, और दौड़ने भी जाते हैं। मॉल वगैरह में भी सबके हाथों में वही बड़े बड़े मग।

मैं बार बार रुपाई को परेशान कर रहा था,‘इतनी जबर्दस्त बारिश हो रही है, जरा शीशा उतार दूँ ?’

‘अरे नहीं पापा, रास्ते से छिटक कर कंकड़ या छोटे पत्थर आ सकते हैं। सारे वेहिक्ल इतनी तेज जो चलते हैं।’

दोपहर बाद हम पहुँचे गैनानॉक। पाँच छह हजार की जनसंख्या वाला एक गांव या कस्बा, कुछ भी कह लीजिए। वहाँ के मार्केट यानी मॉल बाजार के सामने कार को पार्क किया गया। झूम कहने लगी, ‘चलिए, जरा सब्जी वगैरह खरीद लें।’

अंदर जाकर तो हक्का बक्का रह गया। एक तरफ सिर्फ तरह तरह की पावरोटी। कोई मसालेदार, तो किसी में फुलग्रेन। उधर बड़े बड़े सेल्फ पर सब्जियाँ। कितनी तरह की शिमला मिर्च। लाल, पीली, नारंगी और हरी की तो बात ही छोड़िए। यहाँ टमाटर गुच्छे में बिकते हैं। एक गुच्छे में पाँच छह। एक तरफ चिकन वगैरह। उधर चावल, तो दूसरी ओर अचार और जैम। ट्राली लाओ, उसमें सामान भर लो। फिर जाओ काउंटर में पेमेंट करके लेते जाओ।  

यहाँ से अट्ठाईस किमी दूर है किंग्सटन। वहाँ पहुँचते पहुँचते हमने सेंट लॉरेन्स नदी पर देखा एक अद्भुत नजारा। अचानक कार रोक दी गयी। देखते देखते सामने ब्रिज का एक हिस्सा ऊपर उठने लगा। रुपाई का चेहरा खिल उठा,‘अरे पापा, देखो देखो – नीचे से जहाज और लॉच को पास देने के लिए नदी के ऊपर जगह बनायी जा रही है। यह दृश्य तो हम भी पहली बार ही देख रहे हैं।’

सारे वाहन शांत होकर खड़े हैं। पूरे रास्ते भर में हमने एकबार भी हार्न की आवाज नहीं सुनी। और बनारस में – ? जहाज चले गये। धीरे धीरे सेतु बंधन हो गया। फिर जस का तस। चले चलो।

झूम का घर किंग्स स्ट्रीट में एक बड़े से एपार्टमेंट में है। सामने ही अंटारिओ लेक। इमारत के बाहर लकीर खींच कर कार पार्किंग बनाया गया है। तिरपन नंबर इनका है। असमर्थ या अशक्त लोगों के लिए मेन बिल्डिंग के पास ही पार्किंग है। और कोई वहाँ कार नहीं रख सकता। ठीक सामने कई मेपल के पेड़। बगल में झील का पानी घुसता जा रहा है। वही कई बत्तख तैर रहे हैं। आस पास सफेद भूरे सी गल पक्षी दाना ढूँढ़ रहे हैं, या उड़ रहे हैं। उनकी आवाज बड़ी तेज है – क्यों क्यों ! जाने क्या पूछ रहे हो भाई ?

सातवें मंजिल पर पहुँचा। बिटिया के घर पहली बार आना हुआ। झूम की मां फट से खिचड़ी और आलूभाजा बनाने लगी।

‘बाबा, आप दोनों इस कमरे में रहिए।’ झूम सामने के कमरे की तरफ इशारा कर रही है। और कमरे में दाखिल होते ही –       

‘अरे यह क्या!’ बिस्तर पर मेरे लिए दो नयी कमीज। रुपाई का उपहार। यह नहीं कह सकते कि अरे इसकी क्या जरूरत थी। बस खुशी जाहिर करो। वरना उसे बेचारे का दिल दुखने लगेगा।

बैठके की बगल में एक बड़ा सा शीशे का स्लाइडिंग डोर। उसके पार पहुँचे तो दंग रह गये। सामने ऑन्टारीयो लेक के ऊपर तैरती याक्ट नावें। दांये बिल्डिंग के ठीक नीचे केवाईसी (हमारे बैंकवाला नहीं) – किंग्सटन याक्ट क्लब। पक्के तट पर सैंकड़ो सफेद नाव रखी हुई हैं। सारे सदस्य यहाँ आकर अपना याक्ट लेकर सेलिंग करने निकल जाते हैं। यहाँ तो लोग कार के पीछे याक्ट लाद कर चलते हैं।

शाम की चाय पर बात हो रही थी।

‘फर्स्ट जुलाई को यहाँ कनाडा डे मनाया जाता है। देखने जाइयेगा?’ रुपाई पूछता है।

‘क्यों नहीं ?और तुम ?’

‘मुझे तो यूनिवर्सिटी में जरा काम है। दस बजे तक फायरवर्क्स होंगे। देखनेलायक चीज है।’

तो वही हुआ। वह चला गया क्वीनस यूनिवर्सिटी के स्ट्रैटेजी एंड ऑरगानाइजेशन डिपार्टमेंट में। अपना रिसर्च पेपर तैयार करने। हम तीनों पैदल कॉनफेडरेशन हॉल की ओर रुख किये। चौड़ी साफ सड़क। यहाँ राह किनारे बैठे आप आराम से खाना भी खा सकते हैं। दोनों ओर फूलों की बहार। हर बिल्डिंग के सामने करीने से सजे हुए फूल। छोटी छोटी घास की क्यारियाँ। रास्ते में कोई हार्न नहीं। झुंड के झुंड लोग चले जा रहे हैं। कोई हँस रहा है। कोई गा रहा है। युवक- युवती, वृद्ध-वृद्धायें सभी एक दूसरे के हाथ में हाथ डाल कर चले जा रहे हैं। और कितनों के साथ कितने खूबसूरत कुत्तें। जनाब, यहाँ तो कुत्ते भी फालतू के नहीं भौंकते। वाह रे शराफत !

सीटी हॉल यानी कि कॉनफेडरेशन हॉल के ठीक सामने भयंकर भीड़। सामने कॉनफेडरेशन पार्क में रोशनी के फव्वारे। उधर किसी बैंड का संगीत का कार्यक्रम चल रहा है। साथ साथ लोग भी गा रहे हैं। गुनगुना रहे हैं। एक खुशनुमा माहौल। बच्चे और नौजवान – यहाँ तक कि कई बूढ़े भी नाच रहे हैं। महिलायें भी थिरक रही हैं। स्थूलकाय आदमी एवं स्थूलांगी रमणियाँ भी जरा भी नहीं हिचकते। बचपन में वो कौन सा गाना सुना था – जोहर महमूद इन गोवा में? – जरा धीरे रे चलो मोरी बांकी हिरनिया, कमर न लचके हाय सजनियां! यहाँ आनन्द मनाने में कोई रोक टोक नहीं। एक मेला। कल क्या होगा किसको पता? अभी जिन्दगी का ले लो मजा! इनमें कूट कूट कर जिजीविषा भरी हुई है। जिन्दगी की प्याली से जिन्दादिली छलक रही है।

बेटी बोली,‘पापा, लग नहीं रहा है कि आगे कहीं एक चाट गोलगप्पेवाले का ठेला भी होगा ?’

बिलकुल सही फरमाया मेरी बेटी ने। ‘और नानखटाई भी ?’

मेला मेला मेला, यहाँ कोई नहीं अकेला! उधर घास पर बैठी लड़कियां जोर शोर से बात कर रही हैं। एक सफेद सा कुत्ता दौड़ते हुए उनके पास पहुँचता है। कुत्ता घास पर लोट पोट कर कह रहा है,‘ मुझे भी तो दुलार करो।’  

इतने में हॉल की घड़ी में टन टन …..रात के दस बज रहे हैं। संगीत का कार्यक्रम खत्म। दन दन दन्न्। शुरू हो गई आतिशबाजी। जगमगा उठा रात के आकाश का तमस। सितारे भी अंचभित। अरे ओ माई, यह जमीं पर कहाँ से तारे खिल गये! झिलमिलाती रोशनी,रंगारंग कार्यक्रम। सर् र् र् आसमां में जा उड़ा कोई पटाखा। रंगबिरंगी रोशनिओं की पिचकारी। फिर धम्म्…..। कभी कभी गगन में कोई चेहरा भी खिल उठ रहा है। काशी के घाटों के किनारे इधर कई सालों से कार्तिक पूर्णिमा की शाम से होता रहता है ऐसी ही आतिशबाजी का कार्यक्रम। देव दिपावली। कई लाख की भीड़ इकठ्ठी हो जाती है घाट किनारे। वहाँ सड़कों पर कोई वाहन चल नहीं सकता, सिवाय ‘रसूखदारों’ के। सारी जनता पैदल।

अब तो रामकटोरा पोखरा और ईश्वरगंगी पोखरे आदि के किनारे भी देवदिपावली मनायी जाने लगी है। यानी कई मोहल्लों में …। पानी की लहरों पर नाचती रहती हैं दीप शिखा के प्रतिबिंब। सरोवर के घाटों के किनारे सजे दीयों को देखकर लगता है मानो जलकन्या कह रही है,‘देखो देखो मेरे हाथों के कंगन और चूड़िओं को तो देखो ….’

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 129 ☆ “शादी – ब्याह के नखरे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “शादी – ब्याह के नखरे”।)  

☆ व्यंग्य # 129 ☆ “शादी – ब्याह के नखरे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

काये भाई इटली शादी करन गए थे और हनीमून किसी और देश में मनाने चले गए….. का हो गओ तो…… शादी में कोऊ अड़ंगा डाल रहो थो क्या ? तबई भागे भागे फिर रहे थे। छक्के पर हम सब लोग छक्कों की तरह ताली बजा बजाकर तुमसे छक्का लगवाते रहे हैं और तुम शादी के चक्कर में इटली भाग गये। जो साऊथ की इडली में मजा है वो इटली की इडली में कहां है। और सीधी-सादी बात जे है कि शादी करन गये थे तो देशी नाऊ और देशी पंडित तो ले जाते कम से कम। बिना नाऊ और पंडित के शादी इनवेलिड हो जाती है मैरिज सर्टिफिकेट में पंडित का प्रमाणपत्र लगता है। सब लोग कह रहे हैं कि यदि इटली में जाकर शादी की है तो इण्डिया में मैरिज सर्टिफिकेट नहीं बनेगा, इण्डिया में तुम दोनों को अलग अलग ही रहना पड़ेगा……. लिव इन रिलेशनशिप में रहोगे तो 28 प्रतिशत जीएसटी देना पड़ेगा और खेल में भी मन नहीं लगेगा। 

पेपर वाले कह रहे हैं कि शादी करके उड़ गए थे फिर कहीं और हनीमून मनाके लौट के बुद्धू यहीं फिर आये, कहीं फूफा और जीजा तंग तो नहीं कर रहे थे। यहां आके शादी की पब्लिसिटी के लिए दिल्ली और मुंबई में मेगा पंगत पार्टी करके चौके-छक्के वाली वाह वाही लूट ली। 

दाढ़ी वालों का जमाना है दाढ़ी वाले जीतते हैं और विकास की भी बातें करते हैं पर ये भी सच है कि शादी के बाद दाढ़ी गड़ती भी खूब है। कोई बात नहीं दिल्ली की हवेली में जहां तुम आशीर्वाद लेने के चक्कर में घुसे हो उस बेचारे ने शादी करके देख लिया है, तुम काली दाढ़ी लेकर आशीर्वाद लेने गए हो तो वो तुम्हारी दाढ़ी में पहले तिनका जरूर ढूढ़ेगा….. शादी के पहले और शादी के बाद पर कई तरह के भाषण पिला देगा। तुम शादी की मेगा पंगत में खाने को बुलाओगे तो वो झटके मारके बहाने बना देगा….. तुम बार बार पर्दे के अंदर झांकने की कोशिश करोगे तो डांटकर कहेगा – बार बार क्या देखते हो बंगले में “वो “नहीं रहती, हम ब्रम्हचारी हैं….. शादी करके सब देख चुके हैं दाढ़ी से वो चिढ़ती है और दाढ़ी से हम प्यार करते हैं……. अरे वो क्या था कि पंडित और नाऊ ने मिलकर बचपन में शादी करा दी थी तब हम लोग खुले में शौच जाया करते थे…… शादी के बहुत दिन बाद समझ में आया कि इन्द्रियों के क्षुद्र विषयों में फंसे रहने से मनुष्य दुखी रहता है इन्द्रियों के आकर्षण से बचना, अपने विकारों को संयम द्वारा वश में रखना, अपनी आवश्यकताओं को कम करना दुख से बचने का उपाय है…… सो भाईयो और बहनों जो है वो तो है उसमें किया भी क्या जा सकता है जिनके मामा इटली में रहते हैं उनको भी हमारी बात जम गई है…….. 

-हां तो बताओ इटली में जाकर शादी करने में कैसा लगा ? 

—-सर जी, हमसे एक भूल हो गई अपना देशी नाऊ और देशी पंडित शादी में ले जाना भूल गए, इटली वालों को जल्दी पड़ी थी। सर यहां के लोग कह रहे हैं कि मैरिज सर्टिफिकेट यहां नहीं बनेगा….. अब क्या करें ? 

—बात तो ठीक कह रहे हैं 125 करोड़ देशवासियों का देश है, फिर भी देखते हैं नागपुर वालों से सलाह लेनी पड़ेगी। 

….. शहर का नाम लेने से डर लगता है क्योंकि वे शादी-ब्याह से चिढ़ते हैं शादी के नाम पर गंभीर हो जाते हैं घर परिवार और मौजूदा हालात से उदासीन रहते हैं शादी का नाम लो तो उदासी ओढ़ लेते हैं उदासी जैसे मानसिक रोग से पीड़ित रोगी सदा गंभीर और नैराश्य मुद्रा बनाये रखते हैं आधुनिक देशभक्ति पर जोर देते हैं, आधार को देशभक्ति से जोड़ने के पक्षधर होते हैं ऐसे आदमी देखने में ऐसे लगते हैं जैसे वे किसी मुर्दे का दाहकर्म करके श्मशान से लौट रहे हों। 

पान की दुकान में खड़ा गंगू उदास नहीं है बहुत खुश दिख रहा है खुशी का राज पूछने पर गंगू ने बताया कि वह दिल्ली की मेगा पंगत पार्टी से लौटा है और बाबा चमनबहार वाला पान खा रहा है। गंगू ने बताया कि कम से कम 100 करोड़ की शादी हुई होगी, इटली में शादी…. एक और देश जिसका नाम अजीब है वहां हनीमून और दिल्ली में पंगत……….. 

गंगू ने मजाक करते हुए हंसकर बताया कि महिला का नाम भले ही कुछ भी क्यों न हो….. भले शादी में 100 करोड़ ही क्यों न ख़र्च किए हों लेकिन वो 50 पर्सेंट की सेल की लाइन में खड़े होने में शर्मा नहीं सकती पति कितना भी विराट क्यों न हो बीबी उसे झोला पकड़ा ही देती है। 

शादी की मेगा पंगत पार्टी के अनुभवों पर चर्चा करते हुए गंगू ने बताया कि 100 नाई और 100 पंडित की फरमाइश पर जमीन पर बैठ कर पंगत लगाई गई बड़े बड़े मंत्री और उद्योगपतियों की लार टपक रही थी अरे शादी की पंगत में जमीन पर बैठ कर पतरी – दोना में खाने का अलग सुख है वे सब ये सुख लेने के लिए लालायित थे पर अहं और आसामी होने के संकोच में कुछ नहीं कर पा रहे थे। तो पंगत बैठी परोसने वाले की गलती से गंगू को “मही-बरा” नहीं परोसा गया तो गंगू ने हुड़दंग मचा दी, वर-वधू को गालियाँ बकना चालू कर दिया और खड़े होकर पंगत रुकवा दी चिल्ला कर बोला – इस पंगत में गाज गिरना चाहिए, जब पंडितों ने पूछा कि गाज गिरेगी तो गंगू तुम भी नहीं बचोगे…. तब गंगू ने तर्क दिया कि जैसे पंगत में मठा – बरा सबको मिला और गंगू की पतरी को नहीं मिला वैसई गाज गिरने पर गंगू बच जाएगा। तुरत-फुरत गंगू के लिए मही-बरा बुलवाया गया तब कहीं पंगत चालू हो पाई। 

पंगत के इस छोर पर 50 पुड़ी खाने के बाद एक पंडित बहक गये कहने लगे – शादी जन्म जन्मांतर का बंधन होता है छक्के मारते रहने से मजबूत गठबंधन बनता है छक्के – चौके लगाने से फिल्मी स्टारों से शादी हो जाती है और शादी से सम्पत्ति बढ़ती है। हालांकि भले बाद में पछताना पड़े पर ये भी सच है कि शादी वो लड्डू है जो खाये वो पछताये जो न खाये वो भी पछताये….. और पंडित जी ने दोना में रखे दो बड़े लड्डू एक साथ गुटक लिए……… ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #73 ☆ # होली # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है होली के पर्व  के अवसर पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# होली #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 73 ☆

☆ # होली # ☆ 

बहुत बुरा हुआ कि

कुछ नहीं हुआ

इस सादगी ने तो

दिल को है छुआ

रंगों में ढूंढते रहे

वो लाल रंग

वो मायूस हो गये के

क्यों कुछ नहीं हुआ ?

 

सब साजिशें फेल हो गई

रंगों की सब तरफ

रेल-पेल हो गई

रंगों से पुते चेहरे

मिलते हुए गले

लग रहा था जैसे

सबमें मेल हो गई

 

कुछ पे चढ़ा हुआ था

मदिरा का नशा

कुछ पे चढ़ा हुआ था

भांग का नशा

कुछ डुबे हुए थे

रंगों के हौद में

कुछ पे चढ़ा हुआ था

सियासत का नशा

 

यह रंगों का,

उमंगों का त्योहार है

शिकवे गिले भूलकर

क्षमा का त्योहार है

मीठा मीठा खाओ,

मीठा मीठा बोलो

सबको प्यार से गले लगाने का

त्योहार है /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information – ☆ रंगमंच/Theatre ☆ विवेचना, जबलपुर का 27 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह – 23 से 27 मार्च 2022 ☆ श्री हिमांशु राय ☆

सूचनाएँ/Information

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ विवेचना, जबलपुर का 27 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह – 23 से 27 मार्च 2022 ☆ श्री हिमांशु राय ☆

 

6 नायाब नाटकों का मंचन होगा

23 से 27 मार्च 2022 तकविवेचना का 27 वां राट्रीय नाट्य समारोह

वसंत काशीकर की स्मृति को समर्पित है यह समारोह

अमृतसर, जम्मू, दिल्ली और भोपाल के बहुरंगी नाटकों से सजा है समारोह

भगतसिंह पर केन्द्रित नाटक वसंती चोला से होगी शुरूआत

पंजाब के लोकगायक गाएंगे वीरों की गाथा

काव्य पाठ, नृत्य, संगीत से सजा होगा प्रतिदिन पूर्वरंग

विवेचना थियेटर ग्रुप (विवेचना, जबलपुर) का 27 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह इस वर्ष 23 से 27 मार्च 2022 तक आयोजित होगा।

समारोह की शुरूआत 23 मार्च को भगतसिंह शहादत दिवस पर भगतसिंह पर केन्द्रित नाटक ’बसंती चोला’ से होगी। इस नाटक का निर्देशन देश के जाने माने नाट्य निर्देशक केवल धालीवाल ने किया है।

23 मार्च शहादत दिवस के लिए पंजाब के प्रसिद्ध लोकगायकों का दल जबलपुर आ रहा है जो ’बसंती चोला’ के मंचन से पहले वीरों की याद में वीर गायन करेगा।

दूसरे दिन 24 मार्च को एमेच्योर थियेटर ग्रुप,जम्मू के कलाकार देश के वरिष्ठ निर्देशक मुश्ताक काक के निर्देशन में ’लम्हों की मुलाकात’ नाटक मंचित करेंगे। यह नाटक कृष्ण चंदर के दो कहानियों ’शहज़ादा’ और ’पूरे चांद की रात’ पर आधारित है।

25 मार्च शुक्रवार को प्रिज्म थियेटर सोसायटी, दिल्ली के कलाकार बहुप्रशंसित नाटक ’दरारें’ का मंचन करेंगे। यह नाटक अन्तर्राट्रीय भारत रंगमहोत्सव मेें मंचित हो चुका है। यह नाटक आज के समय में परिवारों में पड़ी दरारों और उसके कारणों पर बात करता है।

चौथै दिन 26 मार्च को सिली सोल्स फाउंडेशन, दिल्ली के कलाकार दो अलग अलग भावों के नाटक ’एडवर्टीजमेंट’ और ’पड़ोसन’ प्रस्तुत करेंगे। इनका लेखन व निर्देशन प्रियंका शर्मा ने किया है। दो अलग अलग स्वभाव के नाटक दर्शकों को रोमांचित करेंगे।

पांचवें और अंतिम दिन 27 मार्च को कारवां, भोपाल के कलाकार नजीर कुरैशी के निर्देशन में ’डाॅ आप भी’ नाटक मंचित करेंगे। यह नाटक आदर्शवादी डाक्टर पति और व्यावसायिक दृष्टिकोण वाली डाक्टर पत्नी के बीच के विवाद की कथा है। यह अजित दलवी के प्रसिद्ध मराठी नाटक ’डा. तुम्हीं सुद्धा ! ’ का हिन्दी अनुवाद है।

2019 में संपन्न 26 वें समारोह के बाद से 2 वर्षों के अंतराल के पश्चात विवेचना का नाट्य समारोह होने जा रहा है। विगत दो वर्षों से दर्शक नाटकों के मंचन की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे हैं। विवेचना का नाट्य समारोह सैकड़ों दर्शकों को सपरिवार एक दूसरे से मिलने का मौका प्रदान करता है।

यह समारोह तरंग प्रेक्षागृह में एम पी पावर मैनेजमेंट कं लि, केन्द्रीय क्रीड़ा व कला परिषद के सहयोग से आयोजित होगा।

नाटकों का मंचन प्रतिदिन संध्या 7.30 बजे होगा।

विवेचना थियेटर ग्रुप की ओर हिमांशु राय, बांकेबिहारी ब्यौहार, अनिल श्रीवास्तव, मनु तिवारी, अजय धाबर्डे आदि ने सभी नाट्य प्रेमी दर्शकों से समारोह के सभी नाटकों को देखने का अनुरोध किया है।

हिमांशु राय
सचिव विवेचना

  • नाटकों के प्रवेश पत्र तरंग प्रेक्षा गृह में समारोह के दौरान उपलब्ध रहेंगे
  • नाटकों के सीजन (पांचों दिनों के) प्रवेश पत्र व्हाट्सएप्प नम्बर 9425387580 या 9827215749 पर एडवांस में बुक किये जा सकते हैं।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (51 – 55) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

रामाज्ञा से सिया का करते वन में त्याग।

रोका गंगा ने उसे बढ़ा लहर सा हाथ।।51।।

 

सारथि रोके अश्वरथ से गंगा के तीर।

उतर, उतारी जानकी, बढ़ी हृदय में पीर।।52अ।।

 

सत्यसंघ पर लखन ने की यों गंगा पार।

जैसे भारी बोझ कोई सिर से दिया उतार।।52ब।।

 

फिर कर संयत वाणि को रोक अश्रु-आवेग।

सुनादी वह राजाज्ञा, जैसे कड़के मेघ।।53अ।।

 

वज्र धात से थे वचन उपलवृष्टि से घोर।

गर्भवती के हृदय को जो गये अति झकझोर।।53ब।।

 

ज्यों आँधी आहत लता तज प्रसून, हो ध्वस्त।

बिछ जाती है भूमि पर त्यों सीता हुई त्रस्त।।54अ।।

 

अलंकार सब तज, दुखित, माँ धरती को पुकार।

जननी पृथ्वी पर विवश खाके गिरी पछाड़।।54ब।।

 

रघुकुल-जनमे इस तरह मर्यादापति राम।

क्यों यों सहसा करेंगे बिन समझे परिणाम।।55अ।।

 

माँ धरती के हृदय में हुआ गहन संदेह।

इससे उससे न दिया उसे गेह और स्नेह।।55ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २१ मार्च – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ २१ मार्च -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

मोरेश्वर रामचंद्र वाळिंबे, तथा मो.रा. वाळिंबे यांचा जन्म ३०.जून १९१२चा.            

ते शिक्षणतज्ज्ञ, मराठी भाषेचे व्याकरणकार होते. ‘मराठी लेखनपद्धती’ या विषयवावरची त्यांची अनेक पाठ्यपुस्तके आहेत. महाराष्ट्रातील अनेक शिक्षणसंस्थांमध्ये त्यांनी शिक्षक, उपमुख्याध्यापक, मुख्याध्यापक म्हणून काम केले. पुण्यातील टिळक स्मारक मंदिरात मराठी भाषेचा शब्दकोश करायचे कामही त्यांनी केले. मराठी साहित्यात त्यांना रस होता. खांडेकर, फडके., माडगूळकर, मालतीबाई बेडेकर इये. दिग्गज लेखकांशी त्यांचा संपर्क होता.

महाराष्ट्र राज्य पाठ्यपुस्तक मंडळासाठी इ. ५वी, ६वी, ७वी व्याकरणविषयक पुस्तकाचे लेखन, सुगम मराठी शुद्धलेखन व  सुगम मराठी व्याकरण या  पुस्तकाचे लेखन केले.

वनाराणी एल्सा या बालसाहित्याच्या पुस्तकाचा त्यांनी अनुवाद केला. मराठी शुद्धलेखन प्रदीप हे पुस्तक लिहिले. त्यांच्या सुगम मराठी व्याकरण व लेखन या पुस्तकाची ५१ वी आवृत्ती२०१६मध्ये प्रकाशित झाली. या आधी त्यांच्या कन्येने ब्रेलमध्ये हे पुस्तक उपलब्ध करून दिले.

याखेरीज आंग्ल भाषेचे अलंकार, श्री बाळकृष्ण यांचे चरित्र, सुबोध वाचन (३भाग), शिकरीच्या सत्यकथा याही पुस्तकांचे लेखन त्यांनी केले आहे.

पांडुरंग लक्ष्मण ऊर्फ बाळ गाडगीळ यांचा जन्म २९ मार्च १९२६ मधला.

बाळ गाडगीळ पुण्याच्या फर्ग्युसन कॉलेजमध्ये प्राचार्य होते, तसेच सिंबायसिस संस्थेचे उपाध्यक्ष होते. त्यांनी विनोदी लेखन केलेच, त्याचबरोबर आर्थशास्त्रीय लेखनही केले. त्यांनी अनुवादही केले. गाडगीळ यांनी ६०हून अधीक पुस्तके लिहिली. त्यांनी विनोदी कथा, कादंबर्याक, प्रवास वर्णन, व्यक्तिचित्रे, टीकाग्रंथ, भाषांतर, बालवाङ्मय असे विविध स्वरूपाचे लेखन केले.

बाळ गाडगीळ यांची काही पुस्तके –

१. अखेर पडदा पडला, २. अमेरिकेत कसे मारावे, ३. लोटांगण, ४फिरकी, ५. वाशिल्याचं तट्टू , ६ आकार आणि रेषा, ७. आम्ही भूगोल घडवतो, ८ उडती सतरंजी, ९. एक चमचा पु.ल. एक चमचा अत्रे  १०. गप्पागोष्टी –भाग ५ ११. सिगरेट आणि वसंत ऋतु (प्रवास वर्णन ), १२ वळचणीचे पाणी ( आत्मचरित्र)   

बाळ गाडगीळयांना मिळालेले सन्मान व पुरस्कार

१.    ‘लोटांगण’ या त्यांच्या पहिल्या विनोदी संग्रहास राज्य सरकारचा पुरस्कार मिळाला.  

२.    सिगरेट आणि वसंत ऋतु या प्रवास वर्णनास राज्य सरकारचे पहिले पारितोषिक मिळाले.

३.    बडोदे येथे झालेल्या मराठी वाङ्मय परिषदेचे ते अध्यक्ष होते.,

४.    मुंबईत ९२मध्ये झालेल्या विनोदी साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.

५.    कोथरूडमध्ये १९९५मध्ये झालेल्या कोथरूड साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.,

गोविंद तळवलकर

गोविंद तळवलकर यांचा जन्म २२ जुलै १९२५ रोजी झाला. इंग्रजी आण मराठी दोन्ही भाषेत त्यांनी पत्रकारिता केली. त्याचप्रमाणे या दोन्ही भाषेत लेखन केले. अग्रलेखांकरिता ते विशेष परिचित होते. त्यांना अग्रलेखांचे बादशहा म्हणत. ते स्तंभलेखक होते. सामाजिक, राजकीय, अंतरराष्ट्रीय घडामोडींचे ते भाष्यकार होते, तसेच ते साक्षेपी संपादक होते.

लोकसत्तामध्ये १२ वर्षे त्यांनी उपसंपादकाचे काम केले. त्यानंतर २८ वर्षे ते महाराष्ट्र टाईम्सचे संपादक होते. महाराष्ट्र टाईम्सला एक प्रभावी व परिणामकारक दैनिक म्हणून घडविण्यात त्यांचा सिंहाचा वाटा होता.

टाईम्स ऑफ इंडिया, इलस्ट्रेटेड विकली, द हिंदू, द डेक्कन हेरॉल्ड, फ्रंटलाईन मॅगेझिन अशा इंग्रजी वृत्तपत्रातून आणि साप्ताहिकातून त्यांनी लेखन केले. ‘एशियन एज’ साठी ते अमेरिकेतून लिहीत असत.  

गोविंद तळवलकरांचे बरेचसे लेखन पुस्तक रूपातही आहे. लो.टिळकांची परंपरा जपणारे , संतांप्रमाणे सामान्यांनाही समजेल अशी लेखनशैली जोपासणारे असे त्यांचे लेखन होते. भाषेवरील प्रभुत्व, राजकीय आणि सामाजिक भान आण प्रचंड व्यासंग याच्या बळावर अग्रलेखांना त्यांनी खूप उंचीवर नेले. माडगूळकरांनी त्यांचा उल्लेख ‘ज्ञानगुण सागर’ असा केला होता.

गोविंद तळवलकरांची एकूण २५ पुस्तके आहेत. त्यापाकी काही निवडक पुस्तके –

१. अग्नीकांड, २ अग्रलेख, ३.अफगाणिस्तान, ४. अभिजात, ५. अक्षय, ६. ग्रंथसांगाती, ७. नवरोजी ते नेहरू  ८. परिक्रमा, ९. पुष्पांजली १०. (व्यक्तिचित्रे आणि मृत्यूलेख संग्रह) ११. मंथन १२. वाचता वाचता ( पुस्तक परीक्षणांचा संग्रह), १३. सौरभ साहित्य आणि समीक्षा 

पुरस्कार

१.    उत्कृष्ट पत्रकारितेचे दुर्गा रतन व रामनाथ गोयंका

२.    लातूर – दैनिक एकमत

३.    न.चि.केळकर पुरस्कार – सोव्हिएत साम्राज्याचा उदय आणि अस्त या पुस्तकासाठी

४.    जीवनगौरव पुरस्कार २००७

५.    महाराष्ट्र सरकारचा लो. टिळक पुरस्कार

६.    सामाजिक न्यायाबद्दल  रामशास्त्री पुरस्कार

आज मो.रा. वाळिंबे, बाळ गाडगीळ, गोविंद तळवलकर या मराठी भाषेतील वेगवेगळ्या कार्यक्षेत्रात काम करणार्या. दिग्गजांचा स्मृतीदिन. त्या निमित्त त्यांना भावपूर्ण श्रद्धांजली. ? 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ होळी… ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक

श्रीमती अनुराधा फाटक

? कवितेचा उत्सव ?

☆ होळी…  ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक ☆ 

     हाती घेऊन पिचकारी

    कृष्ण आला नदीवरी

    नव्हत्या तेथे गोपी

     नव्हती त्याची राधा !

      आली नाही राधा

    कसली तिला बाधा

    कृष्ण न्याहाळू लागला

    नदीत पाचोळा दिसला !

    कारण राधा न येण्याला

    उमजले मग कृष्णाला

    राधा होती पैलतीरी

   सोबत फावडी खोरी !

    गोपीही होत्या मशगुल

     राधेच्या सोबतीला

   धरून तशीच पिचकारी

       राधे राधे थांब थांब !

      पिचकारी नाही रंगाची

     ती औषध फवारणीची

     औषध आधी मारतो

     मग पाचोळा काढतो !

    गोपही आले धावून

    टाकला गाळ काढून

   मग रंगली त्यांची होळी

   रंगाची पिचकारी निराळी

   खेळाने जपले पर्यावरण

   साजरा झाला होळी सण !

 

© श्रीमती अनुराधा फाटक

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 74 ☆ तप्त उन्हाच्या झळा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 74 ? 

☆ तप्त उन्हाच्या झळा… ☆

हे शब्द अंतरीचे…

तप्त उन्हाच्या झळा

 

तप्त उन्हाच्या झळा

चैत्र महिना तापला

पळस फुलून गळाले

होळीचा सण आटोपला…०१

 

तप्त उन्हाच्या झळा

जीव अति घाबरतो

थंड पाणी प्यावे वाटे

उकाडा बहू जाणवतो…०२

 

तप्त उन्हाच्या झळा

शेतकरी घाम गाळतो

अंग भाजले उन्हाने

तरी राब राब राबतो…०३

 

तप्त उन्हाच्या झळा

फोड आला पायाला

अनवाणी फिरते माय

चारा टाकते बैलाला …०४

 

तप्त उन्हाच्या झळा

सोसाव्या लागतील

थोड्या दिसांनी मग

मृगधारा बरसतील…०५

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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