श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक, चंद कविताएं चंद अशआर” शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – मलाल न कर ये वक्त भी गुजर जायेगा…।)
मलाल न कर ये वक्त भी गुजर जायेगा… ☆ श्री हेमंत तारे ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “पत्थर न कभी मोम हुआ और न पिघला…“)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 104 ☆
पत्थर न कभी मोम हुआ और न पिघला ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “अहसास… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 17 ☆
लघुकथा – अहसास… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
श्रीमती जी की आदत थी कि आम खाकर उसकी गुठली घर के पास ही कच्ची जगह में मिट्टी के अंदर दबा देती । कभी कभी घर के पास कच्ची जगह में फेंक देती। समय आने पर गुठली में से अंकुर फूटता, पहले जड़ दिखती फिर छोटा सा तना और उस पर छोटी छोटी पत्तियां। श्रीमती जी देखकर खुशी के मारे फूल जाती। अंकुरित गुठली को वह जगह मिलती वहां गाड़ देती। जब आम का छोटा सा पेड़ हो जाता तो हमारा तबादला हो जाता। पेड़ का क्या हुआ हमें कुछ पता नहीं चलता। हां, जहां होते वहां श्रीमती जी उस पेड़ की कल्पना करती कि अब बड़ा हो गया होगा, अब तो आम भी आ गए होंगे। ऐसा ही चलता रहता।
रिटायर होने के बाद जब यह घर बना तो आसपास काफी खाली जगह थी। श्रीमती जी आदत के अनुसार गुठली डाल दिया करती। की पेड़ भी हुए परंतु उनमें से एक पेड़ ही जीवित रहा। उसे बढते हुए देखकर सब खुश होते। आशु कल्पना करता कि जब आम लगेंगे तो पहला आम मैं खाऊंगा। गुड्डी तपाक से बोल पड़ती कि तुम्हीं क्यों, क्या मैं नहीं खा सकती पहला आम। फिर दोनों समझौता करते, अच्छा आधा आधा हम दोनों। उनकी बात सुनकर सब हँस पडते। बच्चे बड़े होते गए और पेड़ भी बड़ा होता गया।
अब पांच साल से वह पेड़ फल दे रहा है। कहते हैं कि पेड़ अपना फल नहीं खाता, बांट देता है, यह हम उस समय महसूस करते जब पका आम धप्प से गिरता। कुछ ग सलाह देते कि कच्चे आम तोड़ कर अचार डाल लो तो कुछ कहते कि तोड़ कर अखबार में लपेट कर रख दो, पर जाएंगे। परंतु श्रीमती जी को आम तोड़ना मंजूर नहीं था। कोई तोड़ने की कोशिश करता तो वह नाराज होती हैं और बच्चों को तो डांट ही देती है। कहती हैं कि पेड़ खुद थोड़े ही आम खाता है। जब फल पर जाता है तो तुरंत नीचे गिरा देता है। जिसके नसीब में होता है वह खा भी लेता है।
आज सुबह श्रीमती जी दरवाजा खोलकर खुली हवा खाने के निकलीं तो देखा कि सामने राजू टहल रहा है। उसने अचानक उछल कर दो अधपके आम तोड़ लिए। श्रीमती जी ने ऊपर की ओर देखा तो जहां से आम तोड़े थे उस जगह से पेड़ की डाल से दो बूंद पानी टपक रहा है और इधर श्रीमती जी की आंख से दो आंसू निकल कर गालों पर लुढ़क गए।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्टेनो-टाइपिस्ट …“।)
अभी अभी # 663 ⇒ स्टेनो-टाइपिस्ट श्री प्रदीप शर्मा
ढाई आखर स्टेनो का, पढ़े सो स्टेनोग्राफर होय ! आप इसे शॉर्ट हैंड अथवा आशु लिपि भी कह सकते हैं। कुछ विद्याएं बड़ी तेजी से आती हैं, हलचल मचाती हैं, और सुपर फास्ट ट्रैन की तरह गुजर जाती हैं। वह लिपि, जो रुकती ही नहीं, सरपट निकल जाती है। कितना प्यारा शब्द है, stay no ! रुको मत, सबसे आगे निकल जाओ। उधर मुंह से
कुछ शब्द निकले, और इधर कलम ने कुछ संकेत बनाए, और काम हो गया।
आजादी के बाद देश का विकास नेहरू जी के कंधों पर था, क्योंकि तब नेहरू जी ही कांग्रेस को कंधा दे रहे थे। अंग्रेज चले गए थे, अंग्रेजियत छोड़ गए थे। देश की युवा पीढ़ी कॉलेज में पढ़ने जाती थी, डॉक्टर इंजीनियर और आय. ए .एस . के सपने देखती थी, और दफ्तरों में बाबुओं की फ़ौज खड़ी हो जाती थी। जिन्होंने आजादी के सात दशक देखे हैं, उनमें से अधिकतर लोग तब लोअर और मिडिल क्लास के लोग थे। मोदीजी का बचपन उसका गवाह है। चिमनी और लालटेन में किसने पढ़ाई नहीं की। तब टाट पट्टी पर पट्टी पेम से ही पढ़ाई होती थी। हम आप सब एक जैसे थे। जैसे भी थे, हम एक थे।।
स्टेनो शब्द सुनते ही, एक सुंदर लड़की का चेहरा सामने आ जाता है, जो किसी शानदार दफ्तर में अपने बॉस से पहले डिक्टेशन लेती थी, और फिर बाद में, अपनी नाजुक उंगलियों से उसे टाइप करती थी। एयर होस्टेस और स्टेनो का दर्जा हमारी निगाह में तब एक जैसा था। पूत के पांव मां बाप को पालने में ही दिख जाते हैं। पढ़ाई के साथ बच्चों को टाइपिंग क्लास भी ज्वाइन करवा देते हैं, और कुछ नहीं तो बाबू तो बन ही जायेगा। बाद में अगर मेहनती होगा तो बड़ा बाबू और अफसर भी बन ही जाएगा। तब पंद्रह से तीस रुपए महीने में, हिंदी अथवा अंग्रेजी टाइपिंग के लिए खर्च करना इतना आसान भी नहीं था। शॉर्ट हैंड सीखना सबके बस की बात नहीं थी।
आज जिसके हाथ में मोबाइल है उसने एक स्टेनो टाइपिस्ट खरीद रखा है। वह इधर बोलता है, उधर टाइप ही नहीं होता, प्रिंट हो जाता है। अब अखबारों में, वांटेड में, विज्ञापन प्रकाशित नहीं होते, टाइपिस्ट चाहिए अथवा एक व्यवसायिक प्रतिष्ठान के लिए महिला स्टेनो टाइपिस्ट की तत्काल आवश्यकता है। सभी दफ्तरों के टाइपराइटर कब के रिटायर हो गए। अब कौन शॉर्ट हैंड सीखता और सिखाता है। Say no to Steno. Say yes to Air Hostess.
कितना अंतर आ गया इन सात दशकों में ! हमारी पीढ़ी टाइपिंग क्लास जाती थी, आज की पीढ़ी कोचिंग क्लास जाती है। हम बी.ए., एम.ए. ही करते रह गए और वे एम.बी.ए. हो गए। अगर कहीं P.R.O., यानी पब्लिक रिलेशन ऑफिसर बन गए, तो सीना छप्पन हो जाता था, आजकल तो बाबा लोग भी C.E.O., चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर यानी मैनेजिंग डायरेक्टर रखने लग गए हैं। आशु लिपि छोड़ें, द्रुत गति अपनाएं। आज की कन्याएं, होटल मैनेजमेंट की ओर नजरें घुमाएं।।
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – एक क्षण विश्वास।)
☆ लघुकथा # 68 – एक क्षण विश्वास ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆
दरवाजे की घंटी जोर-जोर से बज रही थी। मैंने दरवाजा खोला, सामने एक दुर्बल बुढ़िया खड़ा थी।
“क्या है?” मैंने पूछा
“मैं आपके पड़ोसी शर्मा जी के घर पर काम करती हूं उन्होंने आपके लिए एक उपहार भेजा है।”
“क्या मज़ाक कर रही हो अम्मा, शर्मा जी और उनकी वाइफ कभी सीधे मुंह बात नहीं करती वह मेरे लिए उपहार क्या भेजेगी?
उसके चेहरे पर एक मीठी मुस्कान थी। मैंने कहा अम्मा मुझ पर व्यंग्य कर रही हो।
“आपका ही उपहार है मैडम, इसे आप ले लीजिए।”
“क्या बेटा मुझे ठंडा एक गिलास पानी मिलेगा?”
मैंने सोचा चलो, अच्छा है पड़ोसी ने कुछ उपहार तो दिया है पर क्या इस अजनबी औरत को पानी देना चाहिए? उसकी आंखों में मुझे सच्चाई दिखाई दी वह पसीने में डूबी थी और मुँह सूख था।
चारों ओर दोपहरी का सन्नाटा था। कोई एक भी पशु पक्षी नहीं दिख रहे थे।
अचानक मेरे मन में ख्याल आया कि ज्यादा दया दिखाना उचित है या नहीं?
मैंने दरवाजा बंद करते हुए कहा आप रुको मैं पानी देती हूँ। एक बोतल में फ्रिज का पानी भरा। दो रोटी और कुछ सब्जी को एक पेपर प्लेट में रखा। बाहर आई और कहा अम्मा यहां बैठकर खा लो चाहे तो दोपहर में आराम करके शाम को चली जाना और यह उपहार भी आप ही लेते जाना और मैंने दरवाजा बंद कर लिया। अंदर ए सी ऑन कर बैठ गई पर मन में यही ख्याल आता रहा कि वह बेचारी बुढ़िया किस मजबूरी में मेरे घर आई ।
उसके मन में क्या चल रहा है? आजकल बाहर इतना खतरा है कि किसी अजनबी पर एक क्षण विश्वास नहीं कर सकते भले ही वह सच बोल रहा हो। चलो शाम को दरवाजा खोल कर देखूंगी। अभी जाने दो।
कावळा काळा कोकीळ काळा मग कावळा आणि कोकीळ यात फरक कोणता? वसंत ऋतूत कावळा कावळाच असतो तर कोकीळ कोकीळच. वसंत ऋतूत कावळा काव काव करतो तर कोकीळ कुहू कुहू.
शाळेत पाठ केलेले हे सुभाषित आज आठवायला कारण म्हणजे सध्या ऐकायला येणारा कोकीळ आणि कोकिळेचा कलकलाट. दिड महिना वसंत ऋतू झाला तोपर्यंत सर्व शांत होते. पण अलीकडे आठ दिवस पहाटेपासून त्यांचे हाकारणे सुरू असते. कधी खूप लांब वर आवाज येतो. तर कधी अगदी जवळ. पण आज दोन कोकीळ आणि एक कोकिळा यांनी शेजारच्या आंब्याच्या झाडावरती भरपूर दंगा केला. थोडा वेळ शांत मग तिघेही एकदम इतका आवाज करत होते की कोकिळेचा आवाज कोणता आणि कोकिळाचा कोणता कळतच नव्हते. शेवटी कलकलाट करत ते उडून गेले. अशाप्रकारे कधी एकटा कोकीळ तर कधी कोकीळा तरकधी सर्वच एकदम आवाज करत असतात. पहाटे पासून दिवस मावळेपर्यंत हा खेळ सुरू असतो. हाच त्यांच्या वसंतोत्सव असावा.
कोकीळ हा कावळ्याच्या जातीतला पक्षी, कावळ्या सारखाच तुकतुकीत काळा रंग. पण शेपटी थोडी लांब आणि चोच फिकट रंगाची व थोडी वाकडी. डोळा मात्र चकचकीत लाल गोल मण्यासारखा, त्यावर एक काळा ठिपका. फार सुंदर दिसतो. कोकिळाबाईंचा रंग थोडासा तपकिरी काळा. शेपटीवर, पोटावर पांढरे पट्टे आणि अंगभर पांढरे ठिपके. संक्रांतीला पांढऱ्या खडीची काळी साडी नेसतात तसा थाट.
कोकिळेचा आवाज गोड असे आपण समजतो. म्हणून लता मंगेशकरला ‘ गानकोकिळा’ म्हणतात. पण प्रत्यक्षात कोकिळेचा आवाज रखरखीत घशातून ओढून ताणून काढलेला किक किक असा. आणि कोकीळ तिला साद देतो ती मात्र मंजूळ कुहू कुहू अशा आवाजात. पण मनात असेल तरच, कित्येक वेळा कोकिळा हाकारून दमते तरी सुद्धा प्रतिसाद येत नाही. तिचा आवाज चिडका झालेला जाणवतो. पण महाराज प्रसन्न होतील तेव्हा ना? सध्या त्यांचा विणीचा हंगाम असावा.
असे दांपत्य झाडावरती दाट पानात दिसते. जमिनीवर वावरताना दिसत नाही. किडे, अळ्या खाऊन पोट भरते. पण भलतेच आळशी. ‘ असावे घरकुल आपुले छान’ असे त्यांना कधीच वाटत नाही. छोटे छोटे पक्षीही जमेल तसे, ओबडधोबड का होईना, आपले घरटे बांधतात. पण येथे कोकिळाबाई कावळ्याच्या घरातच आपली अंडी ठेवून हिंडायला मोकळ्या. काही वेळा कावळ्याची अंडी खाली फेकायलाही कमी करत नाहीत. बिचारी कावळा कावळी पिल्लं उडायला लागेपर्यंत सांभाळतात. कारण अज्ञानामुळे त्याला फरक कळत नाही.
पूर्वीच्या काळी स्त्रिया कोकिळाव्रत करत असत. म्हणजे कोकिळेचा ओरडलेला आवाज ऐकल्याशिवाय जेवायचं नाही. किती विचित्र आहे नाही? मला वाटते आवाज ऐकण्यासाठी कोकिळेला पोपटासारखे पिंजऱ्यात बंदिस्त ही करत असावे.
कोकिळांचा झाडावरचा वावर इतक्या माझ्या बडबडीला कारण झाला.
एकंदरीत कोकीळ हा असा वैशिष्ट्यपूर्ण पक्षी. त्यामुळे साहित्यात, काव्यात स्थान. पण एरवी वर्षभर त्याचा आवाज, अस्तित्व काही कळतच नाही. म्हणूनच ‘वसंताच्या आगमनी कोकीळ गाई मंजुळ गाणी’.
आई वडील मुलांना जन्म घालतात, त्यांना परिस्थिती नुसार अति कष्टाने वाढवतात पायावर उभं करतात. फक्त एकचं स्वप्न असतं जे “आम्ही भोगलं ते मुलांना नको. ”
“असचं गावात एक कुटुंब होतं. खूप गरीब कष्टाळू पदरी चार मुलं, स्वप्न मोठं बघितलं आणि कामाला लागले. जे काम मिळालं ते करत गेले. कशाची लाज धरली नाही. मुलांना शाळेत घातलं, “गावात दहावी पर्यंत शाळा होती. नंतर बाहेर टाकायचं ठरलं, ” मुलं हुशार होती दोन दोन वर्षाचं अंतर होतं. मोठ्या मुलाला ठेवलं बाहेर शिकायला, खूप काटकसर करावी लागत होती. तो बारावी झाला दुसरा दहावी झाला. आता खर्च वाढला होता, पाऊस कमी जास्त झाल्यामुळे गावात कामं मिळत नव्हती. मग त्यांनी गावं सोडायचं ठरवलं राधा ताईंच्या, हाताला चव होती. मुलांच्या मदतीने ओळखीने डबे मिळवले. बघता बघता खूप डबे वाढले. परिस्थिती सुधारली, आता मुलं सगळेच कॉलेज ला जात होते. मोठ्या मुलाने “हॉटेल मॅनेजमेंट चा कोर्स” केला, त्याला छान नोकरी मिळाली. दुसरा M. B. A झाला, तिसरा “सॉफ्टवेअर इंजिनियर झाला “व चौथा “वकील झाला” दिवस सरले होते. आनंदाचे वारे वाहू लागले होते. मुलांना आई वडिलांचा अभिमान होता. खूप सुख द्यायचं असं म्हणायचे मुलं पण पुढचं कुणी बघितलं होतं.
“मोठ्या मुलाचं लग्न झालं, सुरवातीचे दिवस छान गेले, नंतर मुलात बदल जाणवायला लागला. त्याचं बोलणं कमी झालं दुसरे मुलं म्हणायचे दादा असं का वागतो, तो पहिल्यासारखा बोलत का नाही. खूप प्रश्न पडायचे मुलांना पण, आई वडील कळून न कळल्यासारखं त्यांना समजून सांगायचे. अरे त्याला कामं वाढली असतील लग्न झालं, जबाबदारी वाढली म्हणून, कदाचित नसेल बोलत. होईल पुन्हा पाहिल्यासारखं, मुलं शांत बसायची.
“दुसऱ्या मुलाचं लग्न त्याच्या ऑफिस मधल्या मुलीशी झालं. तिने पण M. B. A. केलं होतं. दोघांना पगार छान होता. आता गाडी बंगला सर्व काही झालं होतं. त्यांचा संसार सुरळीत सुरु होता. बरोबर जाणं येणं छान चालू होतं. पण मोठ्याचं बघून यांचं वागणं बदलायला वेळ लागला नाही. “आई वडिलांना वाईट वाटतं होतं. पण अजून दोन मुलांची लग्न बाकी होती. म्हणून सगळं सहन करत होते.
“तिसऱ्या व चौथ्या मुलाचं एकत्र लग्न झालं. दोघी बहिणी होत्या, एक इंजिनियर तर दुसरी डॉक्टर होती. जोड्या सुंदर होत्या, घर गोकुळा, सारखं भरलं होतं. आई वडील समाधानी होते.
या दोघी अपवाद होत्या, त्यांना कुटुंब आवडत होतं. म्हणून त्या प्रेमाने वागत होत्या. असेच दिवस जात होते. सगळ्यांना मुलं झाली कुटुंब वाढलं होतं. हळू हळू मुलं बाहेर पडली. स्वतःचा संसार सुरु केला, छोटा वकील आणि त्याची बायको डॉक्टर असलेली घरीच राहिले. वकिलाने परीक्षा दिली तो आता जज झाला होता.
“रोज नवनवीन केस समोर येत होत्या, तो योग्य न्याय देऊन केस सोडवत होता. एक दिवस त्याच्या समोर अशी केस आली की तो इतका गुंतून गेला, की न्याय कसा आणि काय द्यायचा आपण चं आईवडिलांवर अन्याय केला आहे. आपण दुसऱ्या आई वडिलांना काय न्याय देणारं आहोत.
“तर ती केस अशी होती, एका म्हाताऱ्या आईवडिलांनी हक्कासाठी मुलांवर केस केली होती. ते आजोबा आम्ही कुठल्या परिस्थितीत मुलांना शिकवलं वाढवलं, आमच्या जवळच सगळं देऊन, आम्ही विश्वासाने सगळं दिलं आता हे मुलं बाहेर पडली आम्ही काय करायच कोण सांभाळेल. आम्हाला आमच्य्याकडे कोण लक्ष देईल काय असेल आमचं उर्वरित आयुष्य, ते पोट तिडकीने बोलतं होते. कोर्टात शांतता पसरली होती. जज ही शांत होते. त्यांनी पुढची तारीख देऊन टाकली घरी आले मन उदास होतं.
“काय न्याय द्यायचा माझ्या भावांनी पण अन्याय केला. तेही बाहेर पडले. आज डोकं सुन्न झालं माझं, तत्याला कळत नव्हतं, तेवढ्यात तिथे आई आली चेहरा बघून म्हणाली काय झालं बाळा, आज उदास दिसत. आहे तेंव्हा तो आईच्या खांद्यावर डोकं ठेवून रडायला लागला. म्हणाला, “आई आजची केस बघून मी हैराण झालो. वाईट वाटतं ग, आई तुम्हीही किती कष्टातून शिकवलं मोठं केलं आज तुम्हाला सुख देण्याऐवजी, आम्ही दुःख चं देत आहोत. “आम्ही आहे तुमच्या जवळ राहतो. आपण आनंदात पण तुमचं मन त्या तिघांसाठी व्याकुळ होतं. ते येत ग लक्षात पण काय करणार, , , समाजाने अजब परंपरा निर्माण केली. असं वाटतं, नसतं तुम्ही शिकवलं गावातच राहिलो असतो…… तिथेच कामधंदा केला असतातर, आज एकत्र असतो. का आपण मी काय करू काय न्याय देऊ आई सांग ना.
“आई म्हणाली ” बाळा फक्त एक हाताचं अंतर असतं रे “
मी म्हणालो मला समजले नाही, तेंव्हा आई बोलायला लागली, अरे तुम्ही पण आई वडील झाले. आता मुलांना वाढवण्यासाठी काय कष्ट करावे लागतात. तुम्हाला आम्ही हातभार लावला. आम्हाला कुणाचाच हातभार नव्हता. लोकांच्या शेतात मिळेल ते काम केलं. तुम्हाला शिकवलं आता, फक्त तुम्हाला आरामात वाढवायचंय आम्ही कसं केलं असेल याचा विचार केला. की जाणीव होईल तुम्हाला, मी म्हणालो, “आई मला आहे, जाणीव प्रीतीला पण आहे. म्हणू, न मी तुमच्या जवळ आहे ग, आई म्हणाली होय आहे. “मला मान्य आहे, पण सगळेच सगळ्यांचे मुलं असे जाणीव ठेवतात, असं नाही ना. मी आहे नशीबवान तसें अनेक असतील, असं नाही. ना उद्या तुम्हीही असेच एकटे पडले तर, , , , , , ,
म्हणून म्हणते “फक्त एका हाताचं अंतर असतं. “
“अरे ज्या पलंगावर तुमचा, जन्म झाला, , जिथे तुम्ही लहानचे मोठे झाले. आईच्या कुशीत मायेने झोपले. आईच्या उबीत वाढले. तिचं आई नकोशी होते. कधी तर त्या पलंगावर बायको येते. त्या वेळी आई खाली असते. पलंगाची उंची असते फक्त एका हाताची, मग आई का नकोशी होते. ज्या आईने त्याच पलंगावर वाढवलं असतं, निजवलेलं असतं, किती प्रेम माया लावलेली असते. ती पण एक स्त्रीच असते, मग एवढा बदल का होतो. एकीने घडवलेलं असतं, एक साथ देणारं असते, ती पण आयत्या पिठावर रेघोट्या मरणार असते. आईचं मन कधीच विचलित होत नाही. मुलगा आला नाही तर, काळजी जेवण केलं नाही. काळजी ती स्वतःला उठून जेवायला वाढायला तयार असते. पण बायको मनासारखं झालं नाही, तर तण तण करते. रुसून बसते, भांडणं होतात, माहेरी निघून जाते. शेवटी आई सांगते, “बाबा रे तुझं सुख तू बघ नसेल तिला आवडत आमच्या बरोबर… रहायला तर बाहेर पड. आनंदात संसार करा. मग मुलगा तिचे ऐकून बाहेर पडतो. आई वडील विसरतो, नाती महत्वाची नसतात का?
आईच्या जागी आई असते. बायकोच्या जागी बायको असते. मग तिचं ऐकून आई वडिलांना त्रास देणं, किंवा घरा बाहेर काढणं, चांगलं आहे का? का मुलगा म्हणून आई वडिलांना समजून घेत नाही. तुम्हीही पळता ना मुलांसाठी, तेंव्हा माझे आई वडील असच माझ्यासाठी पाळले, मला मोठं केलं, हे का नाही मनात येत? का नाही बायकोला सांगू शकत, माझ्या “आई वडिलांनी खूप कष्ट केले. त्यांना आता सुखी ठेचायचे आहे. त्यांना फिरायला पाठवायचेआहे, चारिधाम यात्रेला पाठवायचे आहे, आता हे सगळं तुला सांभाळावं लागेल… पण नाही. हल्लीची मुलं बदलतात. “आज तुम्ही बदलले उद्या तुमची मुलं बदलतील. म्हणून बाळा “हाताचं काय वितेच सुद्धा अंतर पडू देऊ नका माया, ममता प्रेम फक्त आई कडे, मिळतं बाजारात सगळं मिळेल आई वडील नाही मिळणार…
“मुलींच्या आई वडिलांनी पण कष्ट घेऊन मुली शिकविलेल्याअसतात. त्यांनाही त्रास झालेला असतो. पण आता त्या गोष्टीचा गैरफायदा घेतला जातो. आम्हाला जे संस्कार करून शिकवून सासरी पाठवलं होतं, ते मुलीला शिकवलं जात नाही. रोज फोन करून घरातलं विचारायचं, मग तिला “शिकवायचं संसारात आईची लुडबुड चांगली नाही. उद्या तिलापण वाहिनी येणार असते. त्या जे वागणार तसेच फळ मिळणार असतं, पण कोण शिकवणार त्यांना… म्हणून मुलांनी जाणीव ठेवावी. ” आई वडिलांचा आधार असतो, मुलगा मुलं जर कडक राहिली, तर वृद्धाश्रमात आई वडील जाणार नाहीत.
“मुलाने फार विचार केला व बायकोला घेऊन भावांकडे गेला. तिथे सर्व समजून सांगितलं. भावांना एकत्र राहण्यासाठी तयार केलं. त्यांनाही पटलं होतं, दुनियेचा त्रास बघितला होता, खस्ता खाल्ल्या होत्या, तेही घरी आले.
मग जज ने निकाल दिला, मुलांनी आई वडिलांना आदराने वागवायचं. नाही, तर वारस हक्क रद्द होऊन, नुकसान भरपाई व मुलांना वाढवतांना, झालेला आजतागायत खर्च, व्याजासहित परत करायचा. निर्णय ऐकून सगळे चकित झाले. मुलांनी आजोबा आज्जीची माफी मागून घरी नेलं, व आनंदात राहू लागले.
“तात्पर्य काय तर प्रश्न मुलानेच सोडवला मग असा प्रश्न आधीच का निर्माण करायचा म्हणून अंतर नको प्रेम हवं…”