हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #192 – 78 – “ग़म तो दौलत ठहरी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ग़म तो दौलत ठहरी …”)

? ग़ज़ल # 78 – “ग़म तो दौलत ठहरी …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

जब तुम्हारा दिल गुलशन में सजा पाया,

क़सम ख़ुदा की हमने बड़ा ही मज़ा पाया।

अस्त्र हैं इस दिलचस्प खेल के वफ़ा बेवफ़ा,

अब क्या रोना है जो उस को जफ़ा पाया।

वस्ल ओ फ़ुरक़त की तय होती नहीं सीमा,

मुहब्बत ने भी ख़ुद को अक्सर ठगा पाया।

ग़म तो दौलत ठहरी इस रस्मे रूहानी की,

इसका हासिल ज़िंदगी जी कर जता पाया।

जन्नत दोज़ख़ गुज़रेगा तुमसे कुछ रुक कर,

आतिश ने इसे इम्तिहान में आज़मा पाया।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नंगधड़ंग ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – नंगधड़ंग??

तुम झूठ बोलने की

कोशिश करते हो

किसी सच की तरह,

तुम्हारा सच

पकड़ा जाता है

किसी झूठ की तरह..,

मेरी सलाह है,

जैसा महसूसते हो

वैसा ही जियो,

पारदर्शी रहो सर्वदा

काँच की तरह,

स्मरण रहे,

मन का प्राकृत रूप

सदा आकर्षित करता है

किसी नंगधड़ंग

शिशु की तरह..!

© संजय भारद्वाज 

प्रात: 6:58 बजे, 12.01.2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ घर पुश्तैनी ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ कविता ☆ घर पुश्तैनी ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

घर पुश्तैनी 

उतर रहा ज़मीन पर

फैलाकर पंख 

जिसने पाली थीं 

पाँच पीढ़ियाँ

सदियों तक। 

 

आसमान छूते ठहाकों की 

साक्षी बनी

विशाल ऊंची छत

ढहती जा रही अब

अपना किरदार निभाकर। 

 

हर गिरती 

ईंट खपरैल संग

भूलीं बिसरीं यादों से

उठ रही है धूल अब। 

 

हर कोने से 

आती है आवाज़ 

हँसी, मस्ती 

और रोने की

यादें हज़ारों बातों की

बिंब जिनका मन पर

है अजरामर।

 

 

वो सीढ़ियाँ 

जिस पर

रुके न थे कदम 

पर कुछ राज़

पेट में रख लिए

इसने भी

समय समय पर। 

 

 

दिवारों ने

न जाने सुने होंगे 

कितने किस्से कितनी कहानियाँ 

छुपाये होंगे

रहस्य अनगिनत

मूक मौन दिवारों ने। 

 

आज गिर गयीं हैं दीवारें

एक नया इतिहास रचने।

 

परिवर्तन 

प्रकृति तेरा नियम है

सालों खड़ी दीवारों को

अब ढह जाना है

एक नए नीड़ का निर्माण 

बेहद ज़रूरी है। 

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 59 ⇒ सृजन सुख… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सृजन सुख “।)  

? अभी अभी # 59 ⇒ सृजन सुख ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जीवन, सृजन का ही तो परिणाम है। सृष्टि का चक्र सतत चलायमान रहता है, यहां कुछ भी स्थिर नहीं हैं। सब अपनी अपनी धुरी पर घूम रहे हैं, घूमते वक्त पहिया हो या चाक, वह स्थिर ही नजर आता है। पंखा गति में चलकर हमें हवा दे रहा है, लेकिन स्थिर नजर आता है। संगीत में, नृत्य में, जितनी गति है, उतनी ही स्थिरता भी है।

एक थाल मोती भरा, सबके सर पर उल्टा पड़ा। लेकिन वह कभी हम पर गिरता नहीं। चलायमान रहते हुए भी स्थिर नज़र आना ही इस सृष्टि का स्वभाव है, इसीलिए इसे मैनिफेस्टशन कहते हैं। इसके ऊपर, अंदर, बाहर, रहस्य ही रहस्य है। ।

इसे मेनिफेस्टेशन इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसका कर्ता अदृश्य होता है, आप उसे चाहे जो नाम और रूप दे दें, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वह तो सर्वत्र व्याप्त है, आपके अंदर भी। और आप भी उस मेनिफेस्टेशन के एक आवश्यक अंग हो। आप रहें ना रहें, यह दुनिया यूं ही चलती रहेगी। ।

एक बीज की यात्रा मिट्टी से शुरू होती है, बस यही सृष्टि की शुरुआत है। एक बीज ही पूरा वृक्ष बनता है, फलता फूलता है, फल फूल बिखेरता है। फिर वही फल का बीज पुनः जमीन में जाकर ऐसे कई वृक्षों की बहार लगा देता है।

बीज मंत्र में ही पूरी सृष्टि का सार है। मुर्गी ही अंडा देती है, सृजन का कॉपीराइट महिलाओं के पास रिजर्व है। पुरुष मां नहीं बन सकता। संसार का सबसे बड़ा सृजन का सुख केवल औरत को नसीब है, आप तो बस मर्द और बाप बने घूमते रहो। बच्चे को अपना नाम देकर खुश होते रहो, जब कि वह तो उसकी मम्मा का बेटा है। ।

प्रकृति में यह माता पिता का भेद नहीं। यहां बच्चे का नामकरण नहीं होता। यह प्राणी प्रकृति की संतान है। नर मादा अपना कर्तव्य निभाकर अनासक्त तरीके से उसे उसका आसमान सौंपकर निश्चिंत हो जाते है। ना किसी की शादी ब्याह की चिंता, न नौकरी की चिंता। ।

सृजन कार्य दो व्यक्तियों द्वारा ही निष्पादित किया जाता है, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। परमात्मा की यह देन दोनों की झोली में अवतरित होती है, वे इसके माता पिता कहलाते हैं। वे अचानक दृष्टा से सृष्टा बन जाते हैं। बस वही परिवार एक वृक्ष की भांति फलता फूलता रहता है और आपका वंश धन्य हो जाता है।

पहली बार संतान सुख का एक अलग ही आनंद होता हैं। हमें प्रकृति के रहस्यों का पता चलता है। कितना कुछ मौजूद है, पृथ्वी के इस गर्भ में और प्रथ्वी के इस धरातल पर। रोज फूल खिल रहे हैं, रोज नदियां कल कल बह रही हैं, रोज मंद पवन चल रही है, सूरज की रोशनी से ही तो हमारी सृष्टि है, हमारी दृष्टि है। हमारे लिए ही खेत अनाज उगाते हैं, गायें दूध देती हैं। सृष्टि हमारी मां है, वही हमारा लालन पालन करती है। ।

सृजन के कई आयाम हैं।

पुरुष मात्र, मातृ सुख से ही वंचित हो सकता है, लेकिन उसके लिए भी सृजन के कई द्वार खुले हैं। वह साहित्य का सृजन करे, संगीत का सृजन करे, कोई खोज करे, कोई आविष्कार करे। विभिन्न इल्मी विधाओं में भी सृजन का सुख खोजा जाता है।

प्यार का पहला खत, लिखने में वक्त तो लगता है, वैसे यह बात परिंदों तक चली जाएगी, अतः एक सृजन प्रेमी लेखक को जो सुख सृजन में मिलता है, वह किसी मातृ सुख से कम नहीं होता। पहली रचना अभी नहीं, तो कभी नहीं। यहां कोई परिवार कल्याण नहीं, स्वयं का ही कल्याण होना है, जब आपकी छोटी बड़ी रचनाएं, दैनिक अखबार और साहित्यिक पत्रिकाओं में उछलकूद मचाती नजर आएंंगी तो क्या आपको खुशी नजर नहीं आएगी। ।

ज्ञानोदय में छपी यह रचना आपकी है, जी हां अपनी ही है। वाह, क्या कमाल की रचना है। बधाई। क्या यह सुख किसी मातृत्व सुख से कम है। बस फिर तो रचनाएं ना जाने कहां कहां से उतरने लगती हैं, पत्र पत्रिकाओं में छाने लगती हैं। आप भी सोचते हैं, अब इन सबका सामूहिक विवाह कर दूं और एक पुस्तकाकार रूप में पाठकों को समर्पित कर दूं।

बड़े अरमानों के बाद विमोचन के मंडप में आपकी पहली कृति का लोकार्पण होता है। है न यह मातृ सुख और पितृ सुख का मिला जुला तोहफा। बच्चा सबको पसंद आता है, लोग रचना को नेग भी देते हैं, आपकी रचना कमाऊ पुत्री निकल जाती है। ।

आज बाजार में आपकी कई रचनाओं की चर्चा है। किसी रचना को शिखर सम्मान मिल रहा है तो किसी को सरस्वती सम्मान। आप चाहते हैं मेरी किसी रचना को अगर नोबेल ना सही तो साहित्य अकादमी या ज्ञानपीठ पुरस्कार ही मिल जाए, तो मैं भाग्यशाली, खुद ही अपनी पीठ थपथपा लूं। लोग खुश तो होते हैं, लेकिन अंदर से बहुत जलते हैं।

मेरी किसी रचना को किसी की बुरी नजर ना लगे। पिछली बार कोरोना में कुछ रचनाओं को दीमक लग गई थी। आप भी अपनी अच्छी रचना की नज़र उतरवा लें। सृजन है, तो सृजन सुख है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 70 ☆ ।। यह छोटी सी जिंदगी प्रेम के लिए भी कम है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।। यह छोटी सी जिंदगी प्रेम के लिए भी कम है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

ज्ञान बुद्धि विनम्रता   तेरे  आभूषण हैं।

सत्यवादिता प्रभु  आस्था तेरे भूषण हैं।।

मत राग द्वेष कुभावना    धारण करना।

ईर्ष्या और घृणा कुमति भी     दूषण हैं।।

[2]

आत्म विश्वास से खुलती सफल राह है।

सब कुछ संभव यदि जीतने की चाह है।।

व्यवहार कुशलता  बनती उन्नति साधक।

बाधक बनती हमारी नफरतऔर डाह है।।

[3]

मत पालो क्रोध  प्रतिशोध  बन जाता है।

मनुष्य स्वयं जलता औरों को जलाता है।।

प्रतिशोध का  अंत  पश्चाताप  से है होता।

कभी व्यक्ति प्रायश्चित भी नहीं कर पाता है।।

[4]

विचार आदतों से ही चरित्र निर्माण होता है।

इसीसे तुम्हारा व्यक्तित्व चित्र निर्माण होता है।।

तभी बनती तुम्हारी   लोगों के दिल में जगह।

गलत राह पर केवल दुष्चरित्र निर्माण होता है।।

[5]

बस छोटी सी जिंदगी प्रेम के लिए भी कम है।

नफरत बन  जाती   जैसे लोहे की जंग   है।।

बदला लेने में बर्बाद नहीं  करें इस वक्त को।

तेरा सही रास्ता ही लायेगा सफलता का रंग है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 134 ☆ बाल गीतिका से – “भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ बाल गीतिका से – “भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये ।

औरों के कष्ट का सही अनुमान दीजिये ॥

 

दुनिया में भाई-भाई से हिलमिल के सब रहें

है द्वेष जड़ लड़ाई की – यह ज्ञान दीजिये ॥

 

होता नहीं लड़ाई से कुछ भी कभी भला

सुख-शांति के निर्माण का अरमान दीजिये ॥

 

निर्दोष मन औ’ शुद्ध भावनाओं के लिये

हर व्यक्ति को सबुद्धि औ’ सद्ज्ञान दीजिये ॥

 

दुनिया सिकुड़ के  आज हुई एक नीड़ सी

इस नीड़ के कल्याण का विज्ञान दीजिये ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ॐ तत् सत्…. ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ॐ तत् सत्… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

(७२५व्या ज्ञानेश्वरीस ज्ञानचरणनत् ज्ञानेश ज्ञानसमृध्दी शुभेच्छार्पण !)

त्रिगुणे त्रैलोक्यज्ञानी

ब्रम्हांड बीज सुखांनी

ज्ञान देई ज्ञानेश्वरी

ओवी-श्लोकादि मुखांनी.—

 

पसायदान श्रेष्ठ

संत ज्ञानेश ज्येष्ठ

देव लोक प्रसन्न

कृपासेवेशी पृष्ठ.—

 

ताटी उघडी तव

कष्ट जीवाशी डंक

मुक्ता होई माऊली

ऐसा ज्ञानी निःशंक.—

 

अठरा अध्यायादि

मोक्षप्रबंध वर

जन्म-मृत्यू रहस्य

टिका गीता सादर.—

 

सकळ मानवासी

कर्म-भक्ती साक्षात

प्रत्यक्ष लिही ज्ञाना

महात्म्य युगे बोलती

आम्ही बालके गुन्हा.——

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 155 – गुरूकृपा योग ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 155 – गुरूकृपा योग ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

सौभाग्ये लाभला।

गुरूकृपा योग।

सरतील भोग।

जन्मांतरी।।१।।

 

प्रेमे बाळकडू।

पाजते माऊली।

संस्कार सावली।

आद्यगुरू।।२।।

 

जीवनाचा वारू।

सावरण्या दृष्टी।

संगे प्रेमवृष्टी।

पितृछत्र।।३।।

 

ज्ञान विज्ञानाची।

उजळली ज्योत।

ज्ञानमयी स्रोत।

गुरूजन।।४।।

 

बहुव्यासंगी ते।

माझे गुरूजन।

ठेवा ज्ञानधन।

दिधलासे।।५।।

 

ज्ञान मकरंद।

असे चराचरी।

मधुमक्षी परी।

ध्येय हवे।।६।।

 

अनंत स्वरुपे।

गुरू माऊलीची।

वाट प्रकाशाची।

नित्य दावी।।७।।

 

गुरूपदी हवी।

श्रद्धा भक्ती खरी।

तेव्हा मुक्ती चारी

साधतील।।८।।

 

गुरूकृपा योग।

परीस दुर्लभ।

जीवन सुलभ।

सर्वार्थाने।।९।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆  वटपौर्णिमा अशी असावी— ☆ सौ. विद्या पराडकर ☆

सौ. विद्या पराडकर

🌳 विविधा 🌳

☆ वटपौर्णिमा अशी असावी— ☆ सौ. विद्या पराडकर ☆

आज वटपौर्णिमा…  भारतीय संस्कृतीने जतन केलेला पती,पत्नीच्या अतूट व अलौकिक प्रेम धाग्यात गुंफलेला एक अजोड पुष्पहारच जणू. पौराणिक कथेनुसार यमराजाच्या हातून ज्या सावित्रीने सत्यवानाला अत्यंत नम्र विनंती करुन, बुध्दीचातुर्याने, विवेकाने ज्या निर्धाराने सोडविले व चार वर मोठ्या  खुबीने मिळविले, .म्हणजेच सौभाग्य मिळविले, ती सावित्री त्रिखंडात अजरामर आहे. पतीवरील नितांत प्रेम व अखंड सौभाग्याची शिंपण ही ह्या व्रतामागील मूलभूत प्रेरणा आहे.

आज समाज कितीतरी बदलला आहे. मानवी जीवनाची गतिमानता वाढली आहे  शिक्षण हे समाज परिवर्तनाचे साधन असल्यामुळे आजची स्त्री घराचे कुंपण ओलांडून बाहेर पडली आहे. शिक्षणाने ती समृद्ध झाली आहे. तिचा भौतिक विकास झाला आहे. तिचा शैक्षणिक विकास झाला आहे. परंतू शिक्षणाचा जो दुसरा आणि महत्त्वाचा उद्देश ‘संस्कृती संवर्धन व नैतिक मूल्यांची जोपासना करणे‘ आहे– हे कार्य आजचे शिक्षण पूर्ण करू शकत नाही. त्यामुळे आजच्या स्त्रीला परंपरागत जीवन जगणे अशक्यप्राय झाले आहे.  आजच्या प्रगत समाजात प्रगत जीवन पद्धतीत स्त्रीला दोन्ही तारांवर नाचता येत नाही. पण दोन्ही मतांचा सुवर्णमध्य मात्र साधता येतो. जीवनाच्या अंधारमय रस्त्यावर नव्या विचारांच्या नव्या प्रकाश वाटा दिसू लागतात. या सुवर्ण मध्याचा उपयोग केल्यास मानवी जीवन सुखकर होऊन समृद्ध होऊ शकते.

ढासळलेल्या कुटुंब पद्धतीला व समाजाला आधार देण्याचे काम हा सुवर्णमध्य साधू शकतो. एकत्र कुटुंब पद्धतीतील सेवा व्रत हे कोणत्याही धार्मिक व्रताच्या योग्यतेचे नव्हे का? प्रेम जिव्हाळा आपुलकी यांना पारख्या झालेल्या नात्याला नव संजीवनी मिळू शकते व निद्रिस्त नात्याला उजाळा मिळू शकेल.

आजच्या समानतेच्या जीवन संघर्षात पुरुषांच्या खांद्याला खांदा लावून स्त्री उभी आहे. कधी तिला कौटुंबिक, सामाजिक, तर कधी आर्थिक संघर्ष करावा लागतो. या संघर्षात पतीने पत्नीला साथ देणे आवश्यक आहे.  भारतीय स्त्री ही समर्पिता आहे. षड्ररिपूवर नियंत्रण ठेवून, कर्तव्य म्हणजेच देव मानणारी तिची भूमिका असावी. सुख व दु:ख पती पत्नीचे समान खेळणे असावे. यशस्वी संसाराकरता, समृद्ध जीवनासाठी उत्तम संकल्पाचे बीजारोपण केल्यास मानवी जीवन वृक्ष वृध्दींगत होऊ शकतो.

आज आपण कलियुगाच्या मध्यावर आहोत. विज्ञान व तंत्रज्ञानाच्या विशाल छायेत माणूस राहत आहे.  भौतिक व चंगळवाद व दहशतवाद यांचे प्रचंड तांडव आज सुरू आहे. अहंकाराला कवेत घालून माणूस जगत आहे. मानवी मूल्यांचा नाश‌ होत आहे. अशा वेळी मानव्याला जपणाऱ्या संस्कारांची नितांत गरज आहे. ही गरज वटसावित्री या सणातून आधुनिक सावित्री भागवू शकते. नात्यातील समरसता, प्रेम, निष्ठा, कर्तव्य भावना, विशाल दृष्टिकोन, सेवाभाव, सहकार्याची भावना, ही सर्व या व्रताची सूत्रे आहेत. ही सूत्रे परस्परांनी जोपासल्यास कुटुंब व्यवस्था भर भक्कम पायावर उभी राहून समाजाला उन्नत अवस्था प्राप्त होईल… आधुनिक सावित्री या वाटेने गेल्यास प्रेमवीणेवरून संसाराची तार छेडली जाईल. जुने व नवे यांचा मेळ घालून, सणांचे ओझे न घेता, मानवी मूल्यांचे जतन करून, स्त्री समृद्ध होऊ शकेल.

© सौ. विद्या पराडकर

वारजे  पुणे.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “फुलपुडी”… भाग 2 ☆ श्री क्षितिज दाते ☆

? जीवनरंग ❤️

☆ “फुलपुडी”… भाग 2 ☆ श्री क्षितिज दाते ☆

(मागील भागात आपण पाहिले – हे ऐकून तिला थोडंसं हायसं वाटलं.

“ हुश्श !!.. थांबा लगेच त्याचे ३ महिन्याचे राहिलेले पैसे ट्रान्सफर करते !”.

“ नको नको … आता मी स्वतः जाऊनच देतो .. त्याचे आभार प्रत्यक्ष मानतो. मला इतक्या दिवसांनी बघून त्यालाही जरा बरं वाटेल!” आता इथून पुढे )

एका चकार शब्दाने पैशाबद्दल न विचारता सलग इतके महीने फुलपुडी देत होता तो.

बाबांच्या लेखी त्या फुलपुडीचं महत्व बघता हे कुठल्याही उपकारापेक्षा कमी नव्हतं. आता मात्र बाबांना कधी एकदा संध्याकाळ होतेय आणि स्वतःच्या हातानी त्याला पैसे देऊन मनापासून कृतज्ञता व्यक्त करतोय असं झालं होतं. संध्याकाळी स्वयंपाकाच्या मावशी आल्या आणि तडक बाबा फुलवाल्याकडे गेले.  तिथे जाऊन बघतात तर काय ? त्या ठिकाणी कुठलीशी चहा-वडापावची टपरी होती. बाबांनी कुतुहलाने त्याला विचारलं,

“ अरे, इथे फुलांचं दुकान होतं त्यांनी काय नवीन गाळा घेतला काय ?’

“ नाय काका .. तो गेला .. माझा गाववाला होता तो !!”. 

“ कुठे गेला ? मला पत्ता दे बरं !”.

“ वारला तो काका .. २-३ महिनं झालं !”.

“ बाप रे !! काय सांगतोस काय ? मग ते दुकान दुसरं कोणी चालवतं का ?”.

“ नाय ओ काका ! फुलांचा धंदाच बंद केला. आता मी चालवतो हे दुकान “.

हे ऐकून बाबांना चांगलाच धक्का बसला पण आता त्यांच्या मनातल्या विचार डोहात एका नवीन प्रश्नानी उडी मारली.  फुलांचं दुकान जर बंद झालं तर मग दाराला रोज फुलपुडी कोण अडकवून जातंय?

त्यांनी शेजाऱ्या पाजाऱ्यांना विचारलं. त्यांच्या बागेतल्या मित्रांकडे चौकशी केली. संस्थेतर्फे आलेल्या मुलाची शक्यता पडताळून पहिली. लेक विसरली म्हणून जावयानी चेन्नईहून काही व्यवस्था केली का याची सुद्धा खातरजमा केली. पण फुलपुडीबद्दल सगळेच अनभिज्ञ होते. शेवटी त्यांनी सोसायटीच्या वॉचमनला या बाबत विचारलं.

“ ओ हां शाब .. एक लोडका आता है रोज .. शायकील पे .. कोभी शाम को आता है.. कोभी रात को लेट भी आता है !!“

“ अरे … अपने जान पहचान का है क्या ?”

“ पैचान का ऐसे नही… वो रोज आता है इतने दिनसे .. तो जानता है मै. “

“ अभी आज आयेगा तो मुझे बताओ !”

आता बाबांच्या डोक्यात एकाच विचाराचा भुंगा… . तो कोण असेल?

संध्याकाळनंतर बरीच वाट बघून शेवटी बाबा झोपून गेले पण रात्री उशिरा कोणीतरी फुलपुडी अडकवलीच होती.

दुसऱ्या दिवशी मात्र बाबांनी ठरवलं. वॉचमनवर विसंबून राहायचं नाही.  कितीही उशीर झाला तरी याचा सोक्षमोक्ष लावायचाच. संध्याकाळपासूनच दार किलकिलं करून बाबा थोड्या थोड्या वेळाने अस्वस्थपणे येरझारा घालत होते. अधून मधून बाहेर बघत होते.

मध्येच दाराशी खुडबुड आवाज झाला . धावत त्यांनी दार उघडलं. एक तरुण मुलगा गडबडीने खाली उतरत त्याच्या सायकलपाशी जात होता. बाबा काहीसे मोठयाने ..

“ अरे ए , इकडे ये .. ए … !!“

तो मुलगा लगेच वर आला.

“ आजोबा कशे आहे तुम्ही आता ?”

“ मी बरा आहे. पण तू कोण रे बाळा ?? . मी ओळखलं नाही तुला . पण तुला बघितल्या सारखं वाटतंय कुठेतरी . आणि तू फुलपुडी आणतोस का रोज ?.. कोणी सांगितलं तुला ? त्या फुलवाल्यानी का ? त्याच्याकडे कामाला होतास का?”

बाबांचं कमालीचं कुतूहल त्यांच्या या प्रश्नांच्या सरबत्तीतून बाहेर पडत होतं.

“ आजोबा sss . तुम्ही डिशचार्ज घेतल्यावर अँब्युलंसनी आलते किनई घरी,   त्या अँब्युलंसचा डायवर मी !”.

“ अरे हां हां … आता तू सांगितल्यावर आठवला बघ चेहरा. ये आत ये. बस इकडे.. पण तू …. फुलपुडी ? .. त्याला खुर्चीवर बसवता बसवता एकीकडे बाबांचे प्रश्न सुरूच होते. त्याचं काय झालं .. त्यादिवशी तुमचं ते तंगडं मोडलं असून पण ssssss … सॉरी हा आजोबा .. ते रोज नुसते पेशंट, मयत, लोकांचं रडणं वगैरे बघून बघून आपलं बोलणं थोडं रफ झालंय, . पण मनात तसं काय नाय बर का !”..

“ अरे हरकत नाही …   बोल बोल !!”

“ हां ss  तर तुमचा एवढा पाय फ्रँक्चर असून पण तुम्ही ते ताईला फुलपुडीचं सांगत होते ते मनात पार घुसलं होतं बघा माझ्या .तुम्हाला आजींची किती काळजी वाटते ते ऐकून माझ्या डोळ्यात टचकन पाणी आलतं. नंतर येके दिवशी येका पेशंटला आणायला सरकारी हॉस्पिटलमध्ये गेलतो अन् माझ्याच समोर एक बॉडी आत आली. बघतो तर तो फुलवाला sss . शॉक लागून मेला बिचारा. पण आई शप्पथ खरं सांगतो आजोबा, त्याची बॉडी बघून मला पहिलं तुम्ही आठवला. आता आजींच्या फुलपुडीचं काय होणार हा प्रश्न पडला.

तेव्हाच ठरवलं की ते बंद होऊन द्यायचं नाय.  मग येक दोन दिवस त्याची कामाला ठेवलेली पोरं दुकान बघत होती त्यांच्याकडून आणून दिली मी फुलपुडी तुम्हाला. नंतर गाशाच गुंडाळला ओ त्यानी. येकदा वाटलं त्या तुमच्या ताई पैशे भरतात त्यांना समजलं तर करतील काहीतरी पण नंतर वाटलं, त्या तरी बाहेरगावाहून काय करणार ? मलाच काही कळना झालं. म्हंटलं डबल झाली तरी चालेल पण आपण देऊ की थोडेदिवस फुलपुडी. माझ्या घराजवळ एक फुलवाला आहे पण त्याच्याकडे घरपोच द्यायला माणसं नाही. म्हंटलं आपणच देऊया. पण मी दिवसभरचा असा कुठं कुठं जाऊन येतो. देवाला घालायची फुलं म्हणल्यावर अशी नको द्यायला. म्हणून रोज घरी जाऊन आंघोळ झाली की मग सायकलवर येतो. बरं आपला घराला जायचा एक टाईम नाय. म्हणून कधी उशीर पण होतो. बरेच दिवस बघितलं तर दाराला कधीच दुसरी पुडी दिसली नाही म्हणजे म्हंटलं आजोबांनी दुसरा फुलपुडीवाला धरला नाही अजून. आता आपणच द्यायची रोज. तेवढाच आजींच्या आनंदात आपला पण वाटा.’

“ अरे मग इतक्या दिवसात एकदा तरी बेल वाजवून आत यायचंस . भेटायचंस. !”

“ अहो . आधीच तुमची तब्येत बरी नाही त्यात तुम्हाला का त्रास द्यायचा आणि भेटण्यापेक्षा फुलपुडी वेळेत मिळणं मत्त्वाचं !”.

“ अरे पण पैसे तरी घेऊन जायचेस की !! फुलवाल्याचे द्यायचेत अजून की तू दिलेस ?.

हे घे पैसे . ” .. पाकिटात हात घालत बाबा म्हणाले.

“ हाय का आता आजोबा . छे छे..  मी नाही घेणार पैसे. पण त्याची काही उधारी नाही बर का. एकदम द्यायला जमत नाही म्हणून रोजचे रोख पैशे देतो मी त्याला !”

“ अरे पण तू का उगीच भुर्दंड सहन करणार ? उलट इतके दिवस तू हे करतोयस त्याचे आभार कसे मानू हेच समजत नाहीये बघ मला. काय बोलावं हेच सुचत नाहीये.

“ अहो भुर्दंड काय ? अन् आभार कसले ? माझे पण आई वडील हैत की गावी . तिकडं असतो आणि माझ्या आईला फुलं हवी असती तर फुलपुडी आणली असतीच की मी. त्यांची इच्छा होती की मी गावात राहावं अन् मला मुंबईतच यायचं होतं. म्हणून त्यांनी बोलणं टाकलंय ओ माझ्याशी. त्याचंच वाईट वाटतं बघा. ही फुलं देऊन मला माझ्या आईला आनंद दिल्याचं समाधान मिळतंय हो!”.

बाबांचे डोळे एव्हाना आपसूक पाणावले होते. त्यांनी त्या मुलाचा हात अलगद हातात घेतला. तो मुलगा सुद्धा भावूक झाला….

“ सीरियस पेशंटला घेऊन जातो तेव्हा वेळेत पोचेपर्यंत जाम टेन्शन असतं आजोबा.

वरच्या सायरनपेक्षा जास्त जोरात माझं हार्ट बोंबलत असतंय . आणि एकदा जीव वाचला की नई  मग भरून पावतं बघा. आपली ड्यूटीच आहे ती, पण त्यादिवशी तुम्ही ते म्हणले होते ना “आईच्या चेहऱ्यावरच्या आनंदाची कळी फुलण्यासाठी फुलपुडी॥ ”  .. मला काय असं छान छान बोलता येत नाही तुमच्यासारखं .. पण तुमचं बोलणं ऐकून एक गोष्ट डोक्यात फिट्ट  बसली की..  “ मरणाऱ्यांना जगवणं मोठं काम हायेच पण “ जगणाऱ्यांना आनंदी ठेवणं ” पण तितकंच मत्त्वाचं आहे, म्हणून आता पुढच्या महिन्यात मी गावी जातो आणि आमच्या म्हातारा-म्हातारीला पण जरा खुश करतो. चला….  निघतो आता….  उशीर झाला. जरा जास्त बोललो असलो तर माफ करा हां आजी आजोबा!’

हे सगळं ऐकून आई आत देवघरापाशी गेली. संध्याकाळी दिवा लावून झाल्यावर देवापुढे ठेवलेली साखरेची वाटी घेऊन आली आणि ती त्या मुलाच्या हातात ठेवली. आपला थरथरता हात त्याच्या डोक्यावरून, गालावरून प्रेमाने फिरवला. आणि मृदु आवाजात म्हणाली ….

“ अहो बघा sss  दगडात देव शोधतो आपण .. पण तो हा असा माणसात असतो. नाहीतर या मुलाचं नाव सुद्धा आपल्याला माहिती नाही पण माझ्या आनंदासाठी तो इतके दिवस झटतोय! .. धन्य आहे बाळा तुझी!”

आई दारापाशी गेली. या सगळ्या गप्पात दाराला तशीच अडकून राहिलेली फुलपुडी काढली.

खुर्चीत बसली आणि प्रसन्न अन् भरल्या अंतःकरणानी, पाणावलेल्या डोळ्यांनी एकटक बघत बसली ती दिवसागणिक आनंद देणारी इवलीशी “फुलपुडी”. 

– समाप्त –

© श्री क्षितिज दाते

ठाणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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