हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चौकन्ना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – चौकन्ना ??

सीने की

ठक-ठक

के बीच

कभी-कभार

सुनता हूँ

मृत्यु की

खट-खट भी,

ठक-ठक..

खट-खट..,

कान अब

चौकन्ना हुए हैं

अन्यथा ये

ठक-ठक और

खट-खट तो

जन्म से ही

चल रही हैं साथ

और अनवरत..,

आदमी यदि

निरंतर

सुनता रहे

ठक-ठक के साथ

खट-खट भी,

बहुत संभव है

उसकी सोच

निखर जाए,

खट-खट तक

पहुँचने से पहले

ठक-ठक

सँवर जाए..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 159 ☆ संस्कार के बहाने नामकरण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “संस्कार के बहाने नामकरण…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 159 ☆

☆ संस्कार के बहाने नामकरण

टालामटोली करते हुए; आखिरी दिनों तक; अपने साथियों संग वार्तालाप के लिए समय न निकाल सके ऐसे हैं, कीमती लाल जी। हर चीजों का मोल-भाव करते हुए वे अधूरे मन से उदास होकर कोई निर्णय नहीं ले पाते हैं। कभी किसी को तो कभी किसी को अपना गुरु मानकर जीवन चला रहे हैं। कहते हैं, भीड़तंत्र के आगे जनतंत्र भी कोई मंत्र सिद्ध नहीं कर सकता है। स्वार्थ सिद्धि हेतु जुड़ने का दिखावा करना एक बात है और वास्तव में जुड़े रहना दूसरी बात है,बातों क्या ? ये तो बतंगड़ पर निर्भर है। कान के कच्चे और हृदय के सच्चे आसानी से बहकावे में आ जाते हैं। रेल के डिब्बों की तरह इंजन के पीछे चलते जाइये। जहाँ स्टेशन आएगा वहाँ रूकिए, नाश्ता- पानी लेकर आगे बढ़ निकलिए।

ऐसी विचारधारा के साथ चलते रहने के कारण उनकी कीमत अब होने लगी है। किसी भी कार्य की शुरूआत  भले ही उनके कर कमलों से होती हो किन्तु  बाद में उन्हें कोई नहीं पूछता। अवसरवादी के रूप में वे कब पलट जाएँ इसको वो स्वयं नहीं बता सकते हैं। जंग लगे लोहे की भाँति उनको दरकिनार करते हुए पीतल, ब्रॉन्ज, स्टेनलेस स्टील, ताँवा, सिल्वर सभी एकजुटता का पहाड़ा पढ़ते जा रहे हैं। कितने लोग परीक्षा तक इसे याद कर सकेंगे ये तो वक्त बताएगा। असली सोने की चमक  के आगे सभी धातुएँ फीकी लगतीं हैं। 24 कैरेट गोल्ड, वो भी हॉलमार्क के साथ, भला कोई अन्य को क्यों पूछेगा ?

फैशन के मारे ही ब्लैक, रफ, आभूषण पहनने की इच्छा लोगों द्वारा होती रही है किंतु जब सहेजने की बात आती है तो लॉकर की शोभा खरा सोना ही बढ़ाता है। जरूरत के समय इसका प्रयोग करें, समय के साथ मूल्यवान होना इसका विशेष गुण होता है।

हम भले ही नए- नए नामों से अपनी पहचान बनाने की  कोशिशें करते रहें किन्तु जब तक गुणों का विकास नहीं करते तब तक पिछड़ते जाएंगे। नाम को सार्थक करने हेतु काम भी करना पड़ता है? आज कुछ कल कुछ ,ऐसे तो विलुप्त प्राणी बनकर अपनी रही सही पहचान खोकर डायनासोरों की भांति चित्रों में शोभायमान होना पड़ेगा।

मुखिया मुख सो चाहिए , खान पान सो एक।

पाले पोसे सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।।

तुलसीदास जी के इस दोहे  याद करते हुए मुखिया का चयन कीजिए।

विवेक पूर्ण व्यक्तित्व के मालिक को, सलाहकार बनाते हुए अनुकरण करें, केवल नामकरण करते रहने से, कार्य सिद्ध होते तो रावण ने भी अपना नाम राम रख लिया होता।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #145 – लघुकथा – “कलम के सिपाही” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – कलम के सिपाही)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 145 ☆

 ☆ लघुकथा – “कलम के सिपाही” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

“यह पुरस्कार जाता है देश की बॉर्डर पर देश के दुश्मन आतंकवादियों से लड़ कर अपने साथियों की जान बचाने वाले देश के बहादुर सिपाही महेंद्र सिंह को.”

“इसी के साथ यह दूसरा पुरस्कार दिया जाता है देश के अन्दर दबे-छुपे भ्रष्टाचार, बुराई और काले कारनामों को उजगार कर देश की रक्षा करने वाले कर्मवीर पत्रकार अरुण सिंह को.”

यह सुनते ही अपना पुरस्कार लेने आए देश के सिपाही महेंद्र सिंह ने एक जोरदार सेल्यूट जड़ दिया. मानो कह रहा हो कि जंग कहीं भो हो लड़ते तो सिपाही ही है.

=======

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०८/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 169 ☆ बाल कविता – परी, चाँद की सुखद कहानी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 169 ☆

☆ बाल कविता – परी, चाँद की सुखद कहानी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

दादी कहें मुझे शहजादी

    नाम मेरा सुमन रानी।

दादी से मैं रोज ही सुनती

   परी , चाँद की सुखद कहानी।।

 

सपने में शहजादी बनकर

   चली सैर को नभ में मैं।

परियों से मिल करी दोस्ती

   खुशियाँ सबमें भर दूँ मैं।।

 

चंदा से मैं बातें करने

   पहुँची चंद्र लोक में मैं।

क्या – क्या करते चंदा मामा

   आज पूछती तुमसे मैं।।

 

रोज – रोज ही घट बढ़ जाते

   और कभी तो तुम छिप जाते।

दूज चाँद पर बालक बनते

    पूनम को चाँदी बरसाते।।

 

कहा उन्हें समझाकर मैंने

   सदा रोज पूनम से निकलो।

घटना – बढ़ना बंद करो तुम

 नहीं कभी तुम पथ से फिसलो।।

 

सपना टूटा जगी खुशी से

       नभ से चाँदी बरस रही थी।

 चंदा को मैं मामा कहकर

      फूलों – सी मैं सरस् रही थी।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #7 ☆ कविता – “खुद मिटकर यूं…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #7 ☆

 ☆ कविता ☆ “खुद मिटकर यूं …” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

हव्वा, तुम्हारी चाल कैसी

उलझी है मेरे दिल में 

तुम्हारे कातिल इरादे

इन फलों में जो मिलाओ

 

खुद मिटकर यूं 

हमें और ना मिटाओ…

 

ठीक है हुई भूल है

इतना गुस्सा ना करो

गुस्से में यूं गालों को

सेब लाल जो बनाओ

बात खुलके करो

यूं हसी से ना टोको

दूरियां चल के मिटाओ

निगाहों से और ना बढ़ाओ

 

खुद मिटकर यूं 

हमें और ना मिटाओ…

 

भूल आदम की थी

सितम हम पे ना गिराओ

जितने की अकल तुममें थीं

शर्मिंदा हमे और ना करो

 

खुद मिटकर यूं 

हमें और ना मिटाओ…

 

वैसे भी तुम

यूं ही जीती हुई हो

अब हमें  और तुम

ऐसे यूं ना हराओ

सिर से हमारे अब

ये पत्थर उतारो

तुम्हे ताज चाहिए

बस मांग कर देखो

हम पे वो सजाकर

यूं  ख़ुद राज जो करो

 

खुद मिटकर यूं 

हमें और ना मिटाओ…

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “बंद करुया दारे….” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “बंद करुया दारे….” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

बंद करूया दारे सारी इतिहासाची आता।

वर्तमान तरी सारे मिळुनी प्रसन्न करुया आता ।।

 

गुलदस्त्यातच राहू देत ते कसे काय जे घडले।

हद्दपार करू शिक्षणातुनी इतिहासाला आता।।

 

इतिहासाच्या पानोपानी मूर्तिमंत जी स्फूर्ती होती।

त्या पानातुन गळे विकृती गळे दाबण्या आता।।

 

कशास आम्हा हवी संस्कृती धर्म कशाला हवा।

गळे दाबणे गळे कापणे थांबवूया ना आता।।

 

‘जुने जाऊदे मरणा’ करू निर्मिती नवी संस्कृती।

नव्या पिढीची नवी संस्कृती करू निर्मिती आता।।

 

मानव सारे नष्ट कराया समर्थ आहे निसर्ग येथे।

नको त्या तरी पापामध्ये सामिल होऊ आता।।

 

© श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #170 ☆ शब्द…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 170 ☆ शब्द…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

मनाच्या खोल तळाशी

शब्दांची कुजबुज होते…

कागदावर अलगद तेव्हा

जन्मास कविता येते…!

 

शब्दांचे नाव तिला अन्

शब्दांचे घरकुल बनते..

त्या इवल्या कवितेसाठी

शब्दांनी अंगण फुलते…!

 

शब्दांचा श्वास ही होते

शब्दांची ऒळख बनते..

ती कविताच असते केवळ

जी शब्दांसाठी जगते…!

© श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ “या जन्मावर शतदा प्रेम करावे…” ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “या जन्मावर शतदा प्रेम करावे…” ☆ सौ राधिका भांडारकर 

या जन्मावर शतदा प्रेम करावे.

सुरुवातीलाच मी सांगू इच्छिते की,  या विषयावर लेख लिहिताना माझी भूमिका उपदेश करण्याची नक्कीच नाही. हे करा, ते करा, असे करावे, असे वागावे, सकारात्मक काय, नकारात्मक काय असे काहीही मला सांगायचे नाही. कारण माझी पक्की खात्री आहे की जे लोक दुसऱ्याला सांगण्याचा किंवा उपदेश करण्याचा अधिकार गाजवतात, त्यांना एक श्रेष्ठत्वाची भावना असते आणि जी अहंकारात परावर्तित होते आणि तिथेच त्यांच्या आनंदी जगण्याची पहिली पायरीच कोसळते.

“या जन्मावर शतदा प्रेम करावे”  हा ही एक सल्लाच आहे खरंतर.  पण तो पाडगावकरांसारख्या महान कवीने अत्यंत नम्रपणे दिलेला आहे.  त्यांच्या श्रेष्ठत्वाला मान देऊन मी फक्त माझ्या जगून झालेल्या आयुष्यात मी खरोखरच जगण्यावर प्रेम केले का या प्रश्नाचे फक्त उत्तर शोधणार आहे.  आणि ते जर “हो” असेल तर कसे,आणि त्यामुळे मला नक्की काय मिळालं एवढंच मी तुम्हाला सांगणार आहे.  बाकी तुमचं जीवन तुमचं जगणं यात मला ढवळाढवळ अजिबात करायची नाही.

जीवन एक रंगभूमी आहे, जीवन म्हणजे संघर्ष, जीवन म्हणजे ऊन सावली, खाच खळगे, चढ उतार, सुखदुःख,शंभर धागे, छाया प्रकाश असे खूप घासलेले, गुळगुळीत विचारही मला आपल्यासमोर मांडायचे नाहीत.  कारण मी एकच मानते जीवन हा एक अनुभव प्रवाह आहे. आणि तो प्रत्येकासाठी वेगळा असूच  शकतो.  त्यामुळे आता या क्षणी तरी मी कशी जगले, हरले की जिंकले, सुखी की दुःखी, निराश की आनंदी, माझ्या जगण्याला मी न्याय दिला का, मी कुणाशी कशी वागले, कोण माझ्याशी कसे वागले या साऱ्या प्रश्नांकडे मी फक्त डोळसपणे पाहणार आहे.  नव्हे, माझ्या आयुष्यरुपी पुस्तकातले  हे प्रश्न मी स्वतःच वाचणार आहे.

७५ वर्षे माझ्या जीवनाच्या इनबॉक्समध्ये कुणी एक अज्ञात सेंडर रोजच्या रोज मला  मेल्स पाठवत असतो. त्यातल्या मोजक्याच मेल्सकडे  माझं लक्ष जातं आणि बाकी साऱ्या जंक मेल्स मी अगदी नेटाने डिलीट करत असते.  आणि हे जाणत्या वयापासून आज या क्षणापर्यंत मी नित्यनेमाने करत आहे.  आणि याच  माझ्या कृतीला मी “माझं जगणं” असं  नक्कीच म्हणू शकते.

मला माहित नाही मी आनंदी आहे का पण मी दुःखी नक्कीच नाही.  त्या अज्ञात सेंडरने मला नित्यनेमाने माझ्या खात्यातील शिल्लक कळवली, सावधानतेचे इशारे दिले, कधी खोट्या पुरस्कारांचे आमीष दाखवून अगदी ठळक अक्षरात अभिनंदन केले,  कधी दुःखद बातम्या कळवल्या, कधी सुखद धक्के दिले,  अनेक प्रलोभने  दाखवली, अनेक वाटांवरून मला घुमवून आणलं,  दमवलं, थकवलंही  आणि विश्रांतही केलं.  पण त्याने  पाठवलेली एकही मेल मी अनरेड ठेवली नाही.  कधी व्हायरसही आला आणि माझे इनबॉक्स क्रॅशही झाले. मी मात्र ते सतत फॉरमॅट करत राहिले.

CONGRATULATIONS! YOU HAVE WON!

हा आजचा  ताजा संदेश. या क्षणाचा.

पण हा क्षण आणि पन्नास वर्षांपूर्वीचा एक क्षण याचं कुठेतरी गंभीर नातं आहे याची आज मला जाणीव होत आहे.

पन्नास वर्षांपूर्वी मी एका भावनिक वादळात वाहून गेले होते.  एका अत्यंत तुटलेल्या, संवेदनशील अपयशामुळे खचून गेले होते.  माझा अहंकार दुखावला होता, माझी मानहानी झाली होती, मला रिजेक्टेड वाटत होतं.

घराचा जिना चढत असताना एक एक पायरी तुटत होती. दरवाजातच वडील उभे होते. त्यांची तेज:पूंज मूर्ती, आणि त्यांच्या  भावपूर्ण पाणीदार डोळ्यांना  मी डोळे भिडवले तेव्हा त्यांनी मूक पण जबरदस्त संदेश मला क्षणात दिला,

” धिस इज नॉट द एन्ड ऑफ लाईफ.  खूप आयुष्य बाकी आहे. बघ, जमल्यास त्या “बाकी” वर प्रेम कर आपोआपच तुला पर्याय सापडतील.”

वडील आता नाहीत पण ती नजर मी माझ्या मनात आजपर्यंत सांभाळलेली आहे.  आणि त्या नजरेतल्या प्रकाशाने माझे भविष्यातले सगळे अंधार उजळवले. तेव्हांपासून  मी जीवनाला एक आवाहन समजले.  कधीच माघार घेतली नाही.  क्षणाक्षणावर प्रेम केले. फुलेही वेचली आणि काटेही वेचले. कधीच  तक्रार केली नाही.

महान कवी पर्सी  शेले म्हणतो

We look before and after,

And pine for what is not:

Our sincerest laughter

With some pain is fraught;

Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.

शालेय जीवनात पाठ्यपुस्तकातील काळे सरांनी शिकवलेली ही कविता हृदयाच्या कप्प्यात चिकटून बसली आहे.  तेव्हां  एवढाच अर्थ कळला होता की,

“आपण मागे आणि पुढे बघतो आणि नसणाऱ्या,न मिळालेल्या  गोष्टींवर दुःख करतो आणि या दुःखी भावनेवर आपण आपलं सारं हास्यच उधळून लावतो.  मग आपले जीवन गाणे  हे फक्त एक रडगाणे  होते.

जगत असताना, पर्सी शेलेच्या  या सुंदर काव्यरचनेतला एक दडलेला उपहासात्मक अर्थ आहे ना,  त्याचा मागोवा घेतला आणि नकळतच कसे जगावे, जगणे एक मधुर गाणे कसे करावे याची एक सहज आणि महान शिकवण मिळाली. लिव्ह अँड लेट लिव्ह हे आपोआपच मुरत गेलं. 

चार्ली चॅपलीन हे माझं दैवत आहे.  तो तर माझ्याशी रोजच बोलतो जणू! मी थोडी जरी निराश असले तर म्हणतो,” हसा! हसा! भरपूर  आणि खरे हसा. दुःखांशी मैत्री करा,त्यांच्यासमवेत  खेळायला शिका.”

एकदा सांगत होता,” मी पावसात चालत राहतो म्हणजे माझ्या डोळ्यातले अश्रू कुणाला दिसत नाहीत.”

“अगं! मलाही आयुष्यात खूप समस्या आहेत पण माझ्या ओठांना त्यांची ओळखच नाही ते मात्र सतत हसत असतात.”

गेली ७५ वर्ष मी या आणि अशा अनेक प्रज्वलित पणत्या माझ्या जीवनाच्या उंबरठ्यावर तेवत ठेवल्या आहेत ज्यांनी माझं जगणं तर उजळलं पण मरणाचीही  भिती दूर केली.

परवा माझी लेक  मला साता समुद्रा पलीकडून चक्क रागवत होती.

“मम्मी तुझ्या मेल मध्ये फ्रेंड चे स्पेलिंग चुकले आहे. तू नेहमी ई आय एन डी का लिहितेस? इट इज  एफ आर आय  ई एन् डी.”

ज्या मुलीला मी हाताचे बोट धरून शिकवले ती आज माझ्या चुका काढते चक्क! पण आनंद आहे,  मी तिला,  “टायपिंग मिस्टेक”  असं न म्हणता म्हटलं,

“मॅडम! मला तुमच्याकडून अजून खूपच शिकायचे आहे. तुम्ही नव्या तंत्र युगाचे,आजचे  नवे शिल्पकार.  त्या बाबतीत मी तर पामर, निरक्षर.”

तेव्हा ती खळखळून हसली.  तिच्या चेहऱ्यावरचा हा दोन पिढ्यांमधला अंतर संपवून टाकणारा आनंद मला फारच भावला. 

तेव्हा हे असं आहे.  तुम्ही असं जगून पहा, शंभर वेळा प्रेम करा जीवनावर.

सॉरी!  असा उपदेश मी तुम्हाला करणार नाही कारण मला तो अधिकारच नाही.  मी फक्त माझा अनुभव सांगितला बाकी मर्जी तुमची.

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ॥मनातला पाऊस॥ … श्री मयूरेश डंके ☆ प्रस्तुती – सौ.प्रभा हर्षे ☆

सौ. प्रभा हर्षे

? जीवनरंग ?

☆ ॥मनातला पाऊस॥ … श्री मयूरेश डंके ☆ प्रस्तुती – सौ.प्रभा हर्षे

काल रात्री १ वाजेपर्यंत हवेत गारवा होता, आभाळ गच्च भरलेलं, अगदी कुंद वातावरण होतं. पण, दीड वाजता जो पाऊस सुरू झाला, त्यानं पार दैनाच करून टाकली. रात्री दीड वाजल्यापासून रस्त्यावर, रस्त्याच्या कडेला, फुटपाथवर, दुकानाच्या पायऱ्यांवर, थोडक्यात म्हणजे जिथं जागा मिळेल तिथं, भर पावसात कुडकुडत बसून राहिलेले वारकरी मी पाहतोय. त्यांना झोपायलासुद्धा जागा उरली नाही. दिवसभर पायी चालून थकून गेलेली ती माणसं तशीच बसून राहिली होती. 

अंथरूण म्हणून एखादं प्लॅस्टिकचं इरलं, उशाला एखादी पिशवी किंवा बोचकं आणि पांघरायला साधी शाल.. त्या प्लॅस्टिकच्या कागदावर संपूर्ण शरीर कुठलं मावतंय? पण, जागा मिळेल तिथं, कसलीही तक्रार न करता माणसांनी पथाऱ्या टाकलेल्या.. डोकं आणि पाय एकाचवेळी झाकलेच जाऊ शकत नाहीत अशी ती शाल.. त्यामुळे, कित्येकांचे पायांचे तळवे आणि त्यांना पडलेल्या भेगा दिसत होत्या.

पहाटे साडेतीनच्या सुमारास भर पावसातच त्यांची आवरा-आवरीची लगबग सुरू झाली. ज्यांची साठी-पासष्ठी केव्हाच उलटून गेली आहे, अशी माणसं अशा वातावरणात रात्री साडेतीन वाजता रस्त्याच्या कडेला असलेल्या सार्वजनिक नळावर आंघोळ करतात, आणि तशीच थंडीनं गारठत पहाटे दर्शनाच्या रांगेत जाऊन उभी राहतात. त्यांच्या आर्थिक परिस्थितीविषयी आपण न बोललेलंच बरं. कारण, मी पाहिलेल्या अशा व्यक्तींपैकी काही जण पंचवीस-पंचवीस एकर शेतीचे मालक होते. त्यांच्या अंगावरची तुळशीची माळ म्हणजे सोन्याइतकीच मौल्यवान. त्यामुळे, ‘जे आहे ते भगवंताचंच आहे’ अशाच धारणेनं ही माणसं जगतात. (आपण स्वत:ला पांढरपेशे म्हणवून घेण्यातच धन्यता मानतो. मग त्या पेशाचे सगळे गुणावगुण चिकटतातच आपल्याला) पण, वारकरी होणं सोपं नाही, हे त्यांच्याकडं पाहिलं की, लगेच समजतं. 

वारी करणं ही गोष्टच निराळी आहे. अगदी वेगळ्या दृष्टीकोनातून पाहिलं तर, वारी हे २५ दिवसांचं, ६०० तासांचं काऊन्सेलिंग सेशनच आहे. आणि, मानसशास्त्राचा पुस्तकी अभ्यास अजिबात नसलेले अनेकजण केवळ स्वसंवादातून, स्वत:करिता उत्तम वेळ देऊन, स्वत:चे व इतरांचे प्रश्न सोडवतात, हा अनेक अभ्यासकांचा अनुभव आहे.

कोणती गोष्ट मनाला लावून घ्यावी आणि कोणती गोष्ट फार विचार न करता सोडून द्यावी, हे या माणसांकडून खरोखर शिकण्यासारखं आहे. त्यांना महागड्या वस्तू, ब्रॅंडेड कपडे, प्राॅपर्टी, बॅंक बॅलन्स, खेळता पैसा, दागदागिने, परदेशी सहली यांतल्या एकाही गोष्टीत रस नसतो. दरवर्षी सगळा संसार महिन्याभरासाठी अन्य कुटुंबियांवर सोपवून माणसं निर्धास्तपणे वारीला येतात, म्हणजे त्यांची कुटुंबियांविषयीची मतं काय असतील याचा आपण विचार करायला हवा. “कुणी दिलाच दगा, तर माझा पांडुरंग बघून घेईल” असं अगदी बिनधास्त म्हणणं आपल्याला इतकं सहज जमेल का? 

काल रात्री एका काकांशी बोलत होतो. घराचा विषय निघाला. 

“आता पुतण्या म्हणाला, काका मी हीच जमीन कसणार. मला द्या. माझाही हक्क आहेच जमिनीवर. माझा वाटा मला द्या.” 

“मग?”

“माझा भाऊ होता तिथंच. पण तो काहीच बोलला नाही.”

“मग तुम्ही काय केलंत?”

“आता पुतण्याला नाही कसं म्हणायचं? अंगाखांद्यावर खेळवलेलं पोर. त्याचं मन कशाला मोडायचं? दिली जमीन.”

“मग आता?”

“उरलेली जमीन कमी कसाची आहे. पण, माझा पांडुरंग बघून घेईल सगळं. अहो, जमिनीपायी घर मोडलं तर हातात काय राहणार? त्यापेक्षा हे बरं.”

त्यांच्या घरात जे घडलं, तेच जर आपल्या घरात घडलं असतं तर मालमत्तेच्या वाटण्यांवरून किती रामायणं-महाभारतं झाली असती, असा विचार कदाचित माझ्या चेहऱ्यावर स्पष्ट दिसत असावा. पण, त्यांच्या चेहऱ्यावर दु:ख दिसत नव्हतं. 

“एखाद्या गोष्टीत गुंतलेला जीव अलगद काढून घेता आला पाहिजे” ते म्हणाले. 

मला काहीच सुचेना. मी अक्षरश: क्लिन बोल्ड झालो होतो. 

ते म्हणाले, “एखाद्या गोष्टीवरचा हक्क सहजपणे सोडून देता आला पाहिजे. आपल्याला तेच तर जमत नाही. म्हणूनच, प्रश्न आहे. तुमच्या पिढीला फार पुढं जायचंय, मोठं व्हायचंय, म्हणून तुम्ही दिवसरात्र पैसे कमावता. पण, बिल्डींगच्या १५ व्या मजल्यावरच्या घरात राहणाऱ्या माणसाला दारात आलेल्याला पाणी सुद्धा विचारावंसं वाटत नसेल तर, त्या पैशाचा काय उपयोग?”

“मग काय, पैसे कमवू नयेत का?”

“माझं तसं म्हणणं नाही. पण जीव माणसातच गुंतवला तर बरं असतं. पैशात गुंतवला तर माणसाला त्याच्याशिवाय दुसरं काहीच सुचत नाही.”

“पण माणसं फसवणार नाहीत कशावरून?” मी. 

“पण, ती फसवतीलच हे कशावरून?”

मी पुन्हा सपशेल आडवा. 

“अरे, तुमच्या वयाच्या पोरांचं इथंच चुकतं. तुम्ही भावाला भाऊ मानत नाही, बहिणीला बहीण मानत नाही, आईवडीलांच्या मनाचा विचार करत नाही. तुम्ही कुणाचाच विचार केला नाहीत तर उद्या तुम्हाला तरी कोण विचारील? तुम्ही सगळ्या गोष्टीत फायदा-नुकसान बघत बसता. म्हणून तुम्हाला माणूस बघितला की आधी त्याचा संशयच येतो. मग कशाला राहतंय तुमचं मन स्वच्छ?”

शाळेतच न गेलेल्या त्या माणसाकडे इतकी वैचारिक सुस्पष्टता असेल, असं मला वाटलंच नव्हतं. 

“राजगिऱ्याचा लाडू खाणार का?” त्यांनी विचारलं. 

मी विचारात पडलो. रात्रीचे साडेतीन वाजून गेले होते, पोटात भूक तर उसळ्या मारत होती. पण एकदम हो कसं म्हणायचं, म्हणून मी नको म्हटलं. 

“हे बघा देवा. पुन्हा आहेच तुमच्या मनात संशय.” ते म्हणाले. “तुम्हाला वाटणारच, हा कोण कुठला माणूस आहे, हे ठाऊक नसताना याच्याकडून असं काही कसं काय घ्यायचं? आणि तेही रस्त्यावर बसून?” 

“तसं नाही हो.” मी म्हणालो खरा. पण खरोखरच माझ्या मनात तीच शंका आली होती. 

“यामुळेच माणसं कायम अस्वस्थ असतात. ती त्यांच्या मनातलं खरं काय ते सांगतच नाहीत. सगळा लपवालपवीचा कारभार..!”

आता यावर काय बोलणार? लाडू घेतला. लाडू खाऊन त्यांच्याचकडच्या बाटलीतलं पाणी प्यायलो. 

“चला माऊली, निघू का आता? पाऊस कमी झालाय.” मी म्हटलं. 

“थांबा देवा.” काका म्हणाले. पिशवी उघडली, आतून एक तुळशीची माळ काढली, माझ्या गळ्यात घातली. “देवा, पांडुरंगाला सोडू नका, तो तुम्हाला सोडणार नाही. पण त्याला तुमच्या इच्छा पूर्ण करण्याच्या कामाला लावू नका. माऊलींनी सुद्धा तसं कधी केलेलं नाही, स्वत:करता काही मागितलं नाही, हे विसरू नका. मोठं होण्याच्या इतकंही मागं लागू नका की, आपल्या माणसानं मारलेली हाक तुम्हाला ऐकू येणार नाही. तुम्ही माझ्या नातवाच्या वयाचे म्हणून बोललो, राग मानू नका..”

… त्या काकांना नमस्कार करून निघालो. बाहेरचा पाऊस थांबलाय, पण मनातला मात्र सुरू झालाय.. आता तो थांबणं कठीण आहे !

— समाप्त — 

लेखक : श्री मयुरेश डंके

मानसतज्ज्ञ, संचालक-प्रमुख, आस्था काऊन्सेलिंग सेंटर, पुणे

प्रस्तुती : प्रभा हर्षे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “इच्छामरण…” – भाग-१ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? मनमंजुषेतून ?

☆ “इच्छामरण…” – भाग-१ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

अतिशय उद्विग्न मनानेच मी खोलीतून बाहेर पडले. नेहेमीच लक्ष वेधून घेणा-या बाहेरील बागेकडे आज मात्र माझे अजिबात लक्ष गेले नाही. माझे मनच मुळी था-यावर नव्हते. जन्म-मृत्यूच्या सीमारेषेवर, तळ्यात की मळ्यात हे न कळण्याच्या टप्प्यावर येऊन थबकलेली माझी आई आत खोलीत निपचित पडली होती. एरवी खुट्ट झाले तरी जागी होणारी आई, आज व्हेंटिलेटरच्या धकधक आवाजातही अगदी शांत झोपली होती. आणि हे पाहून माझ्या मनाला एक अनामिक हुरहूर लागली होती. चालू असलेला कृत्रिम श्वासोच्छवास सोडला तर तिची इतर गात्रे अगदी म्लान, जीवच उरला नसल्यासारखी होऊन गेली होती. आणि ते पाहून आम्ही सर्वजण हरवल्यासारखे, हतबल होऊन, एकमेकांकडे पहात बसण्याखेरीज काहीच करू शकत नव्हतो. अगदी काही क्षणांसाठी व्हेंटिलेटर काढला तरी श्वासासाठी होणारी आईची असह्य तडफड आम्हाला अत्यंत बेचैन करत होती. आणि कालपासून दोन-तीन वेळा हा प्रयोग झाल्यावर मग डॉक्टरांनीच आमच्यासमोर तो मन हेलावून टाकणारा विचार मांडला होता. व्हेंटिलेटर काढून टाकून,आईचा शेवटचा नैसर्गिक श्वास कोणता असेल ते पहात बसण्याचा….  तिच्या मरणाची वाट पहात बसण्यासारखेच होते हे.

याच विचाराने उद्विग्न होऊन मी खोलीबाहेर आले होते. जरा वेळाने नकळतच या उद्विग्नतेची जागा विचारांनी घेतली. आईची दिवसेंदिवस खालावणारी प्रकृती, त्यावर अगदी प्रामाणिकपणे केले जाणारे पण अजिबात उपयोगी पडत नसलेले अद्ययावत, दीर्घ उपचार, एकामागोमाग एक शिथिल होत गेलेले जवळजवळ सगळेच अवयव, आणि आता हा शेवटचा उपचार – कृत्रिम श्वासोच्छवास. हा सगळा प्रवास अशा शेवटच्या पायरीवर येऊन एखाद्या कोड्यासारखा थांबला होता. ते कोडे सोडविणा-या एका चुटकीचीच जणू वाट पहात, आणि ही चुटकी वाजवण्याचे अत्यंत क्लेशदायी, मनात अपराधीपणाची भावना कायमसाठी रुजवू शकणारे काम डॉक्टरांनी अगदी निर्विकारपणे आमच्यावर सोपवले होते. काय निर्णय घेणार होतो आम्ही? आपल्या जन्मदात्या आईचे आयुष्य जाणीवपूर्वक संपवून टाकण्याचा असा क्रूर निर्णय घेऊ शकणार होतो का आम्ही? काहीच सुचत नव्हते.

विचार करता करता नाण्याची दुसरी बाजू लख्ख दिसायला लागली. इतर सर्व अवयव निकामी झाले तरी श्वास चालू असेपर्यंत आईचे अंतर्मन नक्कीच जागे असणार. मग अतिशय कष्टाने, स्वावलंबनाने आणि उमेदीने घडवलेले, सजवलेले आपले मनस्वी आयुष्य, असे विकलांगी, परावलंबी, जाणीव-नेणिवेवर हिंदकाळतांना पाहून तिच्या स्वाभिमानी मनाला किती अतोनात यातना होत असतील, या विचाराने मी एकदम अस्वस्थ झाले आणि जराशी सावरून बसले. तिच्या शारिरीक यातना अगदी तज्ञ डॉक्टरही दूर करू शकत नाहीत हे जरी खरे असले, तरी तिच्या मनाला होणा-या असह्य यातना तर आम्हीच थांबवू शकलो असतो ना… व्हेंटिलेटर काढून टाकून? हा विचार मनात आला आणि मी केवढ्यांदा तरी दचकले. 

…. पण मग वीस दिवसांपूर्वी, जेव्हा ती थोडे बोलू शकत होती, तेव्हाचे तिचे काकुळतीचे बोलणे आठवले. अगदी सहन करण्यापलिकडच्या त्या वेदनांमधून आम्ही तिला सोडवावे, असे ती अगदी आपणहून, मनापासून सारखं सांगत होती. ‘ आजपर्यंत तिने कधीच कोणाकडे काही मागितलेले नाही. तर आता तिचे हे पहिले आणि शेवटचेच मागणे आम्ही मान्य करावे. गांगरून न जाता नीट चौफेर विचार करावा व नाही म्हणू नये. दुखण्याच्या मरणयातनांपेक्षा प्रत्यक्ष मरणंच सुसह्य आहे तेव्हा आता आम्ही तिला जाणिवपूर्वक मरू द्यावं.’… असे आमच्यापैकी प्रत्येकाला ती सांगत होती. तेव्हा ऐकायलाही नकोशा वाटणा-या या बोलण्यावर, आता मात्र विचार करावा असे वाटू लागले. आज तिच्या स्पर्शातूनही तिची ही मरणेच्छा माझ्या मनाला स्पर्शून जात होती. माझ्याही नकळत मी मनाशी काही निश्चय केला आणि मन घट्ट करून सर्वांसमोर अशा इच्छामरणाचा विषय काढण्याचे ठरविले.

‘आईला या यातनांमधून सोडव देवा ’ या प्रार्थनेचा ‘ तिला आता मरण दे ’ असा थेट अर्थ लावायला साहजिकच सगळे घाबरत होते, पण हळूहळू सगळेच बोलते झाले. इच्छामरण काही अटींवर मान्य करावे, इथपासून ते इच्छामरणास अजिबात मान्यता नको, या टोकापर्यंत मतं मांडता मांडता, आपण आपल्या आईबद्दल बोलतो आहोत हा विचारही जरा वेळ नकळतच बाजूला झाला.

एका भावाचे असे म्हणणे होते की …  ‘‘इच्छामरण’ ही संकल्पना मरणासन्न, जराजर्जर माणसाच्या संदर्भात खरोखरच विचार करण्यासारखी आहे. ज्यांची अवस्था ‘ मरण येईना म्हणून जिते हे, जगण्याला ना अर्थ दुजा ’ अशी आहे, त्यांना त्यांच्या मरणप्राय यातनांसह जबरदस्तीने जगवत ठेवणे हे खरे तर विचार करण्याजोगे पाप आहे. वाट्टेल तितके प्रयत्न करूनही हा माणूस त्याच्या दुखण्यातून पूर्ववत् बरा होऊ शकत नाही, इतकेच नव्हे तर कमीतकमी स्वावलंबनही यापुढे शक्य नाही, याची डॉक्टर वारंवार खात्रीपूर्वक सूचना देत असतील आणि ती व्यक्तीही स्वत:ला या यातनांतून सोडवावे अशी अगदी मनापासून, कळकळीची विनंती करत असेल, तर अशावेळी आणखी काही तज्ञ डॉक्टरांचे त्याच्या तब्येतीविषयी, बरे होण्याच्या शक्यतेविषयी मत घेऊन, त्यानुसार त्या आजारी व्यक्तीच्या विनंतीला त्याच्या नातलगांनी, स्वत:च्या मनाविरुध्द पण त्रयस्थ प्रामाणिकपणे विचार करायला खरोखरच काही हरकत नाही. काही धर्मांमध्ये वयोवृद्ध पण अगदी धडधाकट माणसेसुध्दा, संथारा व्रतासारख्या व्रताद्वारा अगदी जाणीवपूर्वक, विचारपूर्वक, संयमाने व शांतपणे, अधिकृतपणे आपले आयुष्य धर्मसंमत मार्गाने संपवू शकतात.’ 

‘ स्वातंत्रवीर सावरकरांसारख्या अतिशय निधड्या छातीच्या ध्येयवेड्या माणसानेही … ‘ प्रायोपवेशन ‘ करून स्वतःहून आपले आयुष्य संपवले होते– नाही  का ? आत्ता खरं तर मला संत ज्ञानेश्वर आणि इतर काही संतही आठवताहेत, ज्यांनी आपले जीवनकार्य संपले हे जाणून जिवंत समाधी घेण्याचा मार्ग स्वीकारला होता, आणि अतिशय शांत आणि स्थिर मनाने ते हा इहलोक सोडून गेले होते. अर्थात हे सगळे संत आपल्यापेक्षा, आपल्याला विचारही करता येणार नाही आणि अजिबात गाठताच येणार नाही अशा फारच उच्च आध्यात्मिक पातळीवर पोहोचलेले होते हे मान्यच करायला हवे. ‘देहाबद्दल वाटणाऱ्या अहंकाराशी लढून, त्याचा पूर्ण नि:पात करून, कार्यकारण उपाधीवर विजय मिळवून जो आत्मरूप झाला आहे, त्याला मिळणारी एक फार महान पदवी म्हणजे संतत्व‘ असे म्हटले जाते.  असामान्य आणि ईश्वरासदृश असणाऱ्या अशा दुर्मिळ आणि अपवादात्मक देवमाणसांशी आपल्यासारख्या सामान्य माणसांनी मनातल्या मनातही तुलना करणे हे खरं तर पापच आहे. तेव्हा या इच्छामरणाच्या संदर्भात त्यांचा विचारही आपल्यासारख्या सामान्य माणसांच्या मनात येणे अतिशय चुकीचे आहे. आत्ता इथे, आपल्या या अशा समस्येसंदर्भात त्यांची आठवण यावी हेही खरोखरच पाप आहे. फार मोठी चूक करत होतो मी–आणि त्यासाठी त्या सगळ्या थोर पुरुषश्रेष्ठांची अगदी मनापासून क्षमा मागतो मी ताई …. ‘ 

क्रमशः भाग पहिला

प्रस्तुती : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares