श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “विभिन्नता में समरसता -2”)

☆ आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता -2 ☆

हमारी सामासिक संस्कृति का एक और स्तम्भ है मुस्लिम व हिन्दू धर्म के बीच मेलमिलाप से विकसित हुई गंगा जमुनी तहजीब। इस्लाम भारत में दो रास्तों से आया एक तो सुदूर दक्षिण में अरब व्यापारियों के शांतिपूर्ण माध्यम से सातवीं सदी में  और दूसरा ग्यारहवीं शताब्दी में, अफगान , तुर्क आदि मुस्लिम आक्रान्ताओं की, तलवार से । हिन्दू और मुस्लिम घुल मिलकर एक तो नहीं हो सके पर दोनों सम्प्रदायों की अनेक बातें एक दूसरे में ऐसे समाहित हुई जैसे दूध में चीनी। हिन्दुओं में व्याप्त अनेक अन्धविश्वासों व रुढियों को मुसलामानों ने अपनाया तो मुसलामानों के खान पान व पहनावे हिन्दुओं ने पसंद किये। इन दो संस्कृतियों के मेलमिलाप ने जहाँ एक ओर गंडा ताबीज, पीर, ख्वाजा, पर्दा प्रथा , सगुन-अपसगुन आदि  को बढ़ावा दिया तो दूसरी ओर इस्लाम ने भारतीय राजा महराजाओं की रेशम, मलमल और कीमती जेवरों से सजी पोशाकों को अंगीकृत कर लिया। चीरा और पाग हिन्दुस्तानियों के पहनावे का अंग थे तो बदले में इस्लाम ने कसे चुस्त पायजामे हमें दिए।

सौभाग्यवती मुस्लिम महिलाओं ने अपनी हिन्दू सखियों की भाँति मांग में सिंदूर भरना, हाथ में चूड़ियाँ व नाक में नथ पहनना शुरू कर दिया। दोनों संस्कृतियों के मिलन से इस्लाम धर्म के मानने वालों को फलों से अचार बनाने की विधि पता चली तो दूसरी ओर उनके द्वारा खाया जाने वाला लजीज पुलाव और कोरमा वैसा नहीं रह गया जो इरान और खुरासान में खाया जाता था। आज भी हमारे देश में लजीज जायकेदार  मुगलई व अवधी खान पान इसी मुस्लिम संस्कृति की देन है। कला संगीत और साहित्य के क्षेत्र में इन दो विपरीत ध्रुवों वाली संस्कृतियों के मिलन ने अच्छा  खासा प्रभाव डाला। यदपि संगीत इस्लाम में वर्जित था तथापि मुस्लिम सूफी संतों ने हिन्दू भक्ति के तरीके को अपनाया और संगीत साधना की और उनकी यह साधना कव्वाली के रूप में हमारे देश में दोनों सम्प्रदायों के अनुयायियों आज भी आकर्षित करती है।

भारतीय व ईरानी संगीत तथा वाद्य यंत्रों के मिलन से अनेक नवीन रागों व संगीत के यंत्रों की उत्पति हुई। ऐसा माना जाता है कि अमीर खुसरो ने भारतीय वीणा को देखकर ही सितार की खोज करी। संगीत के माध्यम से हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के बहुत करीब आये। हमारे देश के बहुसंख्य वर्ग द्वारा बोली जाने वाली खड़ी बोली  हिन्दी एवं अल्पसंख्यक मुस्लिमों के मध्य लोकप्रिय उर्दू इसी गंगा जमुनी तहजीब में फली फूली व विकसित हुईं। हिन्दू व मुस्लिम सभ्यता के मिलन ने शिल्प कला, चित्र कला आदि को नया आयाम दिया. इस मिलन ने चित्रकला के क्षेत्र में अनेक नई  शैलियों यथा मुग़ल शैली, राजस्थानी शैली, पहाड़ी शैली को  जन्म दिया तो बेमिसाल महलो, किलों, मस्जिदों,मकबरों का निर्माण भी इंडो इस्लामिक शैली में हुआ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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