English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: Beyond the Bucket List # 2 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: Beyond the Bucket List # 2 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆ 

Every traveler dreams of visiting New Zealand—a land of dramatic landscapes, endless adventures, and serene escapes.

From the adrenaline-pumping activities in Queenstown to the geothermal wonders of Rotorua, and the breathtaking beaches of the Coromandel Peninsula, this country offers experiences that feed the soul.

Milford Sound’s fiordland landscapes inspire awe, while Dunedin delights with its mix of wildlife, heritage, and stunning scenery.

These well-known destinations have rightfully earned their place on countless bucket lists.

Yet, New Zealand’s charm doesn’t end with its famous landmarks. Beneath its iconic attractions lies a treasure trove of lesser-known, serene spaces waiting to be discovered.

These hidden gems, often tucked away in suburban corners or off the beaten path, provide a different kind of magic—one that soothes the spirit and fosters a deep connection with nature.

Discovering New Zealand’s Hidden Reserves:

With about 10,000 protected areas covering a third of the country, New Zealand is a haven for conservation and nature lovers.

From expansive national parks to pocket-sized reserves, these sanctuaries support the country’s incredible biodiversity while offering visitors a peaceful retreat.

During my stay in Auckland, I stumbled upon one such gem—Unsworth Reserve, nestled in Unsworth Heights in the North Shore.

It was serendipity at its finest; a leisurely walk along Caribbean Drive revealed an inviting pathway leading to this modest suburban oasis.

Unsworth Reserve may not boast the grandeur of Tongariro or Abel Tasman National Parks, but its charm lies in its simplicity.

Winding trails meander through lush greenery, accompanied by the gentle murmur of streams and the melody of birdsong.

The experience feels like a modern take on the Japanese practice of Shinrin-Yoku or forest bathing—a mindful immersion in nature that leaves you refreshed and grounded.

Reviews from fellow explorers echo my sentiments. Families and solo adventurers alike rave about the reserve’s peaceful ambiance, easy accessibility, and the joy of spotting native flora and fauna.

Unsworth Reserve isn’t an isolated marvel, either. Nearby, other suburban sanctuaries like Exeter Reserve, Rewi Alley Reserve, Adah Reserve, Devonshire Reserve, Rosedale Park, and Kauri Glen Reserve offer equally therapeutic escapes.

Each has its own unique character, yet all share the common thread of tranquility.

A Personal Takeaway:

If I had to name the most valuable discovery of my New Zealand journey, it wouldn’t be a sweeping mountain vista or a thrilling bungee jump.

Instead, it would be these small, hidden reserves scattered across the country.

They are accessible, unspoiled, and free from the usual crowds—perfect for moments of solitude and introspection.

Whether you’re looking to escape the hustle of city life or seeking a deeper connection with nature, these reserves offer a quiet, restorative experience.

They remind us that sometimes the most meaningful encounters with a destination happen not at its famous landmarks, but in its overlooked corners.

Protecting the Land:

As we explore these peaceful sanctuaries, we must remember the importance of preserving them.

New Zealand’s protected areas not only safeguard its unique ecosystems but also provide havens for wildlife and future generations of travelers.

Responsible tourism—staying on designated paths, avoiding littering, and respecting local flora and fauna—goes a long way in ensuring these spaces remain untouched.

An Invitation to Wander:

New Zealand invites you to explore its grand landscapes and humble sanctuaries alike.

While the iconic destinations should undoubtedly grace your itinerary, don’t miss the opportunity to step off the tourist trail.

Wander through small reserves, listen to the whispers of the trees, and feel the weight of the world melt away.

These hidden gems may not dominate travel brochures, but they just might leave the deepest imprint on your heart.

#newzealand #naturereserve #auckland #unsworthreserve

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 546 ⇒ || पढ़ा लिखा || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| पढ़ा लिखा ||।)

?अभी अभी # 546 ⇒ || पढ़ा लिखा || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे बुजुर्ग कहते थे, पढ़ोगे लिखोगे, बनोगे नवाब, खेलोगे कूदेगो बनोगे खराब। कितने लोग पढ़ लिखकर नवाब बन गए, ये तो छोड़िए, नवाब खुद कितने पढ़े लिखे थे। ये नवाब किस गुरुकुल, ऑक्सफोर्ड अथवा नालंदा विश्वविद्यालय से तालीम हासिल करके आते थे।

वैसे भी यह सच है कि नवाबों की नस्ल शान शौकत से रहती है और राज करती है। लोकतंत्र के अपने नवाब होते हैं, कुछ पढ़े लिखे आईएएस और आईसीएस, जो कलेक्टर कमिश्नर बन जाते हैं और कुछ नेता जिन्हें जनता चुन चुनकर नवाब बना देती है। कोई पढ़ा लिखा कलेक्टर, कमिश्नर अगर ईमानदार हुआ तो अपना बुढ़ापा पेंशन के सहारे गुजार लेता है, लेकिन एक सफल राजनेता आखरी सांस तक राज्यपाल ही बना रहता है।।

एक बच्चा पढ़ता लिखता हैं, परीक्षा देने के लिए, पास होकर डिग्री हासिल करने के लिए। उसके बाद एक बार जब नौकरी धंधे में इधर लगा तो उधर पढ़ना लिखना बंद और कामकाज शुरू। बस केवल पढ़ाने वाले पेशेवर शिक्षक ही पढ़ते लिखते रहते हैं, और वह भी सिर्फ पढ़ाने के लिए। एक पंडित की तरह सब याद करने के बाद फिर कौन शिक्षक ईमानदारी से पढ़ता लिखता है। उन्हें कौन सी परीक्षा देनी है।

पढ़े लिखों की जमात में सिर्फ लेखक, पत्रकार और साहित्यकार ही रह जाते हैं और रह जाते हैं उनके पाठक। कुछ पाठक तो पढ़ते पढ़ते ही लेखक भी बन जाते हैं और कुछ, केवल पढ़ते ही रह जाते हैं।।

एक व्यक्ति क्या पढ़ता है, यह उसकी रुचि पर निर्भर करता है। साहित्य हल्का फुल्का भी होता है और गंभीर भी। साहित्य गवाह है, सबसे अधिक पाठक सुरेंद्र मोहन पाठक, गुलशन नंदा, ओमप्रकाश शर्मा और कर्नल रंजीत के ही हैं। लेकिन यह भी कड़वा सच है कि प्रेमचंद और शरद बाबू की तुलना इनसे नहीं की जा सकती।

बचपन में मेरी रुचि गंभीर साहित्य में कम ही रही।

बड़े बूढ़े जहां गुरुदत्त, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, देवकीनंद खत्री और ओमप्रकाश शर्मा जैसे लेखकों को पढ़ा करते थे, मेरा बाल मन चंदामामा और दीवाना तेज में ही उलझा रहता था। मुझे वयस्क वयं रक्षाम: और वैशाली की नगर वधू ने बनाया। बाद में विमल मित्र का ऐसा चस्का लगा कि इकाई दहाई सैकड़ा, खरीदी कौड़ियों के मोल, बेगम मेरी बिस्वास और साहिब बीवी और गुलाम को भी नहीं छोड़ा।

मुझे फिल्म वाले गुरुदत्त अधिक रास आए।।

कौन कितना पढ़ा लिखा है और कौन कितना लिखता पढ़ता है, इसमें जमीन आसमान का अंतर है।

हमारे यहां पढ़ा लिखा सिर्फ वही समझा जाता है, जो या तो डिग्रीधारी प्रोफेसर, इंजीनियर हो अथवा किसी अच्छे पद पर आसीन हो।

आज तो पढ़े लिखों की हालत ये है कि जहां भी थोड़ा वाद विवाद, बहस अथवा असहमति हुई, वे एक दूसरे को मूर्ख समझने लगते हैं। जो बात, जो कायर हैं, वो कायर ही रहेंगे, से शुरू होती है, वह जो टायर है, वे टायर ही रहेंगे, पर जाकर खत्म होती है। नीर, क्षीर और विवेक भी शायद इसी को कहते हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 38 – संस्मरण – समुद्रतट और लहरों में खोता बचपन ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – समुद्रतट और लहरों में खोता बचपन)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 38 – संस्मरण – समुद्रतट और लहरों में खोता बचपन ?

सागर का जल और उफ़नती लहरें मेरे लिए सदा आकर्षण का केंद्र रही हैं। देश -विदेश में कई स्थानों पर समुद्र तट देखने का आनंद मिला है पर जो सुख अपने देश के समुद्रतट पर खड़े रहकर आनंद मिलता है वह अतुलनीय है, वह अन्यत्र कहीं नहीं। हम भारतवासी भाग्यशाली हैं जो देश की तीन सीमाएँ समुद्र से घिरी हुई हैं ।

इस बार फिर एक बार गोवा आने का अवसर मिला। इस बार मन भरकर सागर के अथाह जल का आनंद लेने के लिए ही हम तीस वर्ष बाद फिर यहाँ लौट आए हैं। जवानी में गोवा आने पर हिप्पियों के दर्शन हुए थे पर अब ढलती उम्र में आनंद की सीमा कुछ और थी। इस बार पूरा परिवार साथ में गोवा आया था। बेटियाँ, दामाद और नाती -नातिन! अहा कैसा सुखद अनुभव ! कहीं और नज़र न गई।

मैं अथाह जल को निहार रही थी । अस्ताचल सूर्य की किरणें जल में प्रतिबिंबित होकर जल को सुनहरा बना रही थीं। फ़ेनिल लहरें तट की ओर तीव्र गति से कदमताल करती हुई बढ़ती आ रही थीं जैसे स्कूल की घंटी बजते ही उत्साह और उमंग से परिपूर्ण होकर छात्र अपने घर की दिशा में दौड़ने लगते हैं। तट को छूकर लहरें मंद गति से समुद्र की ओर इस तरह लौटती हैं मानो गृह पाठ न करने की गलती का छात्र को अहसास है और उसने अपनी गति धीमी कर दी है। इन लौटती लहरों का सामना उफ़नती दौड़ती लहरों से होती है और वे फिर उनके साथ तट की ओर द्रुत गति से बढ़ने लगती हैं मानों गृहपाठ पूर्ण कर देने का मित्रों ने भार ले लिया हो! मन इस दृश्य से प्रसन्न हो रहा था। शिक्षक का मन सदा चहुँ ओर छात्रों को ही देखता है। मैं अपवाद तो नहीं।

मन-मस्तिष्क के भीतर भी तीव्र गति से कुछ हलचल- सा हो रहा था। मन लहरों के साथ दौड़ रहा था।

अचानक किसी ने कहा आओ न पानी में चलें… और मैंने अपने बचपन को पानी की ओर बढ़ते देखा। लहरें तीव्रता से आईं मेरे नंगे पैरों को टखने तक भिगोकर लौट गईं। पैरों के नीचे मुलायम, स्निग्ध, गीली रेत थी। लहरों के लौटते ही वे रेत खिसकने लगीं और ऐसा लगा जैसे मैं भी चल रही हूँ। यह मन का भ्रम था। मैं अब भी तटस्थ वहीं खड़ी थी पर मेरा मन मीलों दूर पहुँच चुका था।

मेरा बचपन मेरी आँखों के सामने नृत्य कर रहा था। कभी पानी में लहरों के आते ही बैठ जाता तो कभी छलाँग मारने लगता। कभी सूखी लकड़ी के टुकड़ों को पानी में फेंकता तो कभी मरे हुए छोटे स्टार फिश को जीवित करने के उद्देश्य से लहरों की ओर फेंक देता। बचपन की सारी हरकतें आँखों के सामने रीप्ले हो रही थीं और मैं मोहित -सी खड़ी उसे निहार रही थी।

अचानक एक मधुर सी आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग किया और पास में रेत से मेरे ही पैर के चारों ओर किला बनने लगा। नन्हे हाथ रेत को हल्के हाथों से थपथपा रहे थे जैसे माँ अपने नन्हे बच्चे को थपथपाकर सुलाती है। फिर उस पर कुछ सूखी रेत डाली गई। आस- पास से छोटे बड़े शंख चुनकर सजाए गए। नारियल के पेड़ की एक सूखी डंठल को किले पर पताका के रूप में सजाया गया। मैं मूर्तिवत काफी समय तक वैसी ही खड़ी रही। फिर बड़ी सावधानी से मैंने अपना पैर निकाल लिया। किला मजबूत खड़ा था। दो नन्हे हाथ तालियाँ बजाने लगीं। एक मीठी सी किलकारी सुनाई दी।

सूर्यास्त हो रहा था, आसमान नारंगी छटा से भर उठा, फिर बादलों के टुकड़ों के बीच से हल्का गुलाबी रंग झाँकने लगा। फिर सब श्यामल हो उठा। अथाह सागर का जल कहीं अदृश्य- सा हो उठा केवल भीषण नाद करती हुई श्वेत लहरें निरंतर चंचल बच्चों की तरह इधर -उधर दौड़ती दिखाई देने लगीं। अचानक सागर की लहरें अंधकार में और अधिक द्रुत गति से तट की ओर बढ़ने लगीं, सफ़ेद, फ़ेनिल जल सुंदर और आकर्षक दिखने लगा थोड़ा भयावह भी! समस्त परिसर को कालिमा ने ग्रस लिया।

अब तक जिस तट पर ढेर सारे बच्चे व्यस्त से नज़र आ रहे थे, गुब्बारेवाले, रंगीन बल्ब, जलने बुझनेवाले लाल, पीले, हरे उछालते खिलौनेवाले, घंटी बजाकर साइकिल पर आइसक्रीम बेचनेवाले वे सब लौटकर चले गए। अब तट पर रह गई थी मैं और ढेर सारे किले। एकांत – सा छा गया। वातावरण ठंडी हवा से भर उठा और तेज़ लहरों की ध्वनि नाद मंथन करती हुई और स्पष्ट हो उठी।

अचानक एक ऊँची लहर ने मेरे घुटने तक आकर मुझे तो भिगा ही दिया साथ ही साथ मेरी तंद्रा भी टूटी और नन्हे हाथ से बने उस किले को लहरें बहाकर ले गईं। अब रात भर ढूँढ़-ढूढ़कर लहरें तट पर बनी बाकी सभी किलों को तोड़ देंगी। कितना कुछ लिखा, बनाया गया था रेत की इस समतल भूमि पर ! कितनी आकृतियों ने अपना सौंदर्य बिखेर दिया था यहाँ ! अब सब मिट जाएगा। दूसरे दिन प्रातः फिर एक स्वच्छ सपाट तट यात्रियों को फिर तैयार मिलेगा।

किसी मधुर, मृदुल स्वर ने मुझे पुकारा, नानी चलो न अंधेरा हो गया ……

मेरे बचपन ने फिर एक बार मेरी उँगलियाँ थाम लीं। सुखद, भावविभोर करनेवाले अनुभव संजोकर मैं होटल के कमरे में लौट आई।

नीरवता से कोलाहल के जगत में। संभवतः जीवित रहने के लिए इन दोनों की आवश्यकता होती है। वरना जीवन नीरस बन जाता है।

© सुश्री ऋता सिंह

8/11/21, 8pm

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 318 ☆ आलेख – “गीता हिन्दू धर्म की ही नहीं मानव  की शाश्वत मार्गदर्शक…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 318 ☆

?  आलेख – गीता हिन्दू धर्म की ही नहीं मानव  की शाश्वत मार्गदर्शक…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्रीमद्भगवतगीता अध्यात्म ज्ञान और जीवन शैली सिखाने वाला विश्व विख्यात अनुपम ग्रंथ है। गीता के अध्ययन और मनन से व्यक्ति आत्म शांति का अनुभव कर सकता है। जीवन को सुखी बना सकता है।

योगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को निष्ठापूर्वक कर्म करके अपने जीवन को सफल करने का जो महत्वपूर्ण उपदेश ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन्’ दिया । यह जीवन के मूल को समझने और व्यवहार करने का शाश्वत सूत्र है। रणभूमि में अर्जुन के हताश मन में नई स्फूर्ति और ओज भरने को कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया था।  इस बहाने सारी मनुष्य जाति को जीवन-समर को सही रीति से जीतने का अमर मंत्र ही गीता में है। इस तरह गीता हिन्दू धर्म विशेष की नहीं वैश्विक मूल्य की कृति है। इसीलिए दुनियां की लगभग सभी भाषाओं में गीता प्रस्तुत की जा चुकी है। इसके भाष्य और विवेचन निरन्तर विद्वानों द्वारा किए जाते हैं । गीता पर प्रवचन लोग रुचि से सुनते हैं।

द्वापर युग के समापन तथा कलियुग आगमन के समय आज से कोई पांच हजार वर्ष पूर्व कुरूक्षेत्र के रणांगण में उस समय गीता कही गई , जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के समस्त संकेत योद्धाओं को मिल चुके थे। श्रीमद्भगवदगीता के प्रथम अध्याय में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है। यथा युद्ध के वाद्यो का बजना, समस्त प्रकार के नादों का गूंजना, यहाँ तक कि तत्कालीन (द्वापर युग के) महानायक भगवान श्री कृष्ण के शंख “पांचजन्य” का उद्घोष, यह सब युद्धारंभ के स्पष्ट संकेत थे।

आज भी दुनियां कुछ वैसे ही कोलाहल , असमंजस और किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में है। मानव मन जीवन रण में छोटी बड़ी परिस्थितियों में सदैव इसी तरह की उहापोह में डोलता रहता है। इसलिए गीता सर्वकालिक सर्व प्रासंगिक बनी हुई है।

श्रीमदभगवदगीता का भाष्य ही वास्तव में “महाभारत” है। गीता को स्पष्टतः समझने के लिये गीता को  महाभारत के प्रसंगों में पढ़ना और हृदयंगम करना आवश्यक  है। महाभारत तो विश्व का इतिहास ही है। ऐतिहासिक एवं तत्कालीन घटित घटनाओं के संदर्भ मे झांककर ही श्रीमदभगवदगीता के विविध दार्शनिक-आध्यात्मिक व धार्मिक पक्षों को व्यवस्थित ढंग से समझा जा सकता है।

अनेक विद्वानों के गीता के हिंदी अनुवाद के क्रम में हिंदी काव्य में छंद बद्ध सरस पदों में प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध ने भी इसका पद्यानुवाद किया है जिसे पढ़कर गीता को सरलता से समझा व आत्मसात किया जा सकता है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 211 – सिल्वर जुबली यादें ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय हृदयस्पर्शी लघुकथा सिल्वर जुबली यादें”।) 

श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 211 ☆

🌻लघु कथा🌻 🌧️ सिल्वर जुबली यादें 🌧️

अभी कुछ महीने पहले ही 25वीं शादी की सालगिरह मनाते दोनों पति-पत्नी ने एक दूसरे को सोने में जड़ी हीरे की अंगूठी पहनाई थी।

खुशी का माहौल दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था। क्योंकि बिटिया की शादी की तैयारी चल रही थी, मेहमानों का आना-जाना लगा था। सारी व्यवस्था एक होटल से ही की गई थी क्योंकि बारात और लड़के वालों ने एक ही साथ मिलकर शादी समारोह की व्यवस्था की थी।

घर में कहने को तो सभी पर केवल पैसे से खेलने, पैसों से बात करने, और पैसों से ही सारी व्यवस्था करना, सबको अच्छा लग रहा था।

बिटिया के पिताजी का बैंक बैलेंस शून्य हो चुका था। फरमाइश को पूरा करते-करते अब थकने लगे थे। होटल में कुछ ना कुछ सामान बढ़ते जा रहा था। एडवांस के बाद भी होटल मैनेजर बड़ी बेरुखी से बोला- सर अभी आप तुरंत पैसों का इंतजाम कीजिए नहीं तो इसमें से कुछ आइटम कम करना पड़ेगा।

उसने अपने सभी रिश्तेदारों के बीच अपनी बदनामी को डरते इशारे से अभी आता हूँ कह लार चले गए। पत्नी को समझते देर न लगी। आगे- पीछे देखती रही। पति आँख बचाकर ज्योंही  मैनेजर के केबिन में आकर अपनी अंगूठी उतार देते हुए कहने लगे –  यह अंगूठी अभी-अभी की है। फिलहाल आप गिरवी के तौर पर इसे रखिए क्योंकि मैं तुरंत पैसे का इंतजाम नहीं कर सकूंगा। पीछे से पत्नी ने अपने अंगूठी उतार देती बोली- मैनेजर साहब यह दोनों अंगूठी बहुत कीमती है। यह रही रसीद।

आप चाहे तो दुकानदार से पल भर में पता लगा लीजिए। परंतु सारी व्यवस्था रहने दीजिए। पतिदेव पत्नी का रूप देख कुछ देर सशंकित रहे, परंतु बाद में धीरे से कंधे पर हाथ रखते हुए बोले- हमारी सिल्वर जुबली यादें तो हमारे साथ है।

अभी वक्त है हमारी बिटिया के पारंपरिक जीवन का, शादी विवाह का।

मैनेजर भी हतप्रभ था। ड्यूटी से बंधा था। भींगी पलकों से रसीद और अंगूठी उठाकर रखने लगा। सोचा क्या ऐसा भी होता है?

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 111 – देश-परदेश – रंगों की दुनिया ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

 

☆ आलेख # 111 ☆ देश-परदेश – रंगों की दुनिया ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन में लाल, हरा, नीला, काला, पीला और सफेद रंग ही सुने और देखे थे। वो तो बाद में भूरा, ग्रे आदि को समझा था।

आरंभ में नए रंगों का ईजाद पशु पक्षियों या सब्जी फल के नाम से जाने जाना लगा था। गुलाबी को गाज़री रंग कहने लगे थे, बाद में कपड़े वालों ने जबरदस्ती कपड़े बेचने के लिए गुलाबी और गाजरी को अलग रंग बना दिया था। हरा और तोते के रंग को भी अलग अलग मान्यता मिल चुकी हैं। मूंगे रत्न से भी एक नया रंग पैदा हो गया हैं।

ये सब छोड़िए सबसे आसान रंग सफेद और काला रंग की भी फैमिली बन चुकी हैं। काले में टेलीफोन ब्लैक, जेड ब्लैक, तवा ब्लैक ना जाने कितनी शाखाएं बन चुकी हैं। व्हाइट में भी स्नो व्हाइट, ऑफ वाइट, मून वाइट, क्रीमी वाइट ना जाने कितने रंग इन कपड़े और पेंट कंपनियों ने बना डाले हैं।

हमारे देश की महिलाएं स्वयं के बनाए हुए रंग भी बहुत पसंद करती हैं। कत्थे, भूरा रंग को कोकाकोला या काफी रंग कहना हो या फिर नारंगी रंग को फेंटा कलर के नाम से वस्त्र खरीद कर ये कहना ये ही कलर सबसे अधिक फैशन में हैं।

ऊपर की फोटो को पढ़ कर एक मित्र जो सूरत से साड़ियों मंगवा कर बेचता है का फोन आया। उसने कुछ प्रसिद्ध कॉफी शॉप के नाम लेकर कहा कि आज वहां चलकर कॉफी की फोटो खींचेंगे और पियेंगे भी, जिस कॉफी का रंग सबसे अच्छा और आकर्षित होगा, उसकी फोटो को सूरत भेज कर उसी रंग की साड़ियां  मंगवाकर 2025 में अग्रणी रहेंगे। किसी को इस बाबत बताना नहीं, पूरे बाजार में इस नए रंग “मोचा मुस” की मार्केटिंग कर “पांचों अंगुलियां घी में” कर लेंगे।

आप लोग भी बाज़ार जाकर मोचा मुस रंग की पैंट/ शर्ट पहनकर 2025 फैशन के ब्रांड एंबेसडर बन सकते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #265 ☆ फुलाला हेरले होते… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 265 ?

फुलाला हेरले होते ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

कवीला हसताना मी एकदा पाहिले तेव्हा

सुरेली चाल लावुनी गीत मी गायिले तेव्हा

 *

तयाला गुढ शब्दांची थोरली जाण होती हो

सुरांच्या मुक्त साथीने मारली तान होती हो

सुमनांसारख्या ओळी शब्द मी ताणिले तेव्हा

 *

गुलाबालाही काट्यांनी पहा ना घेरले होते

सोडुनी गुण काट्यांचे फुलाला हेरले होते

मित्रता पाहुनी त्यांची सुखाला जाणिले तेव्हा

 *

हवा ही काय प्यालेली नशा ही काय केलेली

हवेलाही कळेना ती कशाने धुंद झालेली

फुलाच्या गंधकोशाचे अंश मी दाविले तेव्हा

 

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ऐवज… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ऐवज… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

थंडिचा हिवाळा

काळीज धडके

हेमंत जिव्हाळा.

*

हरिते पाखरे

कधीची सकाळ

आळस भिनून

दुपार धुकाळ.

*

मनात मिठीची

अनोखीच ओढ

ओहोळही वाहे

आठवणी गोड.

*

क्षितीज सांजेत

कडाकी बिलग

हुडहुड अंग

शेकोटी सजग.

*

मनाला उमज

भावना समज

भोवती आगीच्या

ऋतूचा ऐवज.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पुन्हा एकदा… ☆ श्री राजकुमार कवठेकर ☆

श्री राजकुमार दत्तात्रय कवठेकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पुन्हा एकदा… ☆ श्री राजकुमार कवठेकर ☆

तुझी आठवण मनी उतरली पुन्हा एकदा

ग्रीष्म कधी श्रावण-सर झरली पुन्हा एकदा

*

बोलायाचे बरेच काही गेले राहुन

शब्दांची पाखरे बिथरली पुन्हा एकदा

*

शुक्राची होऊन चांदणी उगवलीस तू

पहाट रात्रीला फटफटली पुन्हा एकदा

*

ठेवताच तू तळहातावर फूल जुईचे

ओंजळ ही स्वप्नांनी भरली पुन्हा एकदा

*

तुझे वागणे नाटक आहे पक्के कळले

पण फसलो जेंव्हा तू हसली पुन्हा एकदा

*

पुन्हा तुझ्या येण्याने फुललो विसरुन सारे

घडी मनाची मी अंथरली पुन्हा एकदा

*

परतलीस नि:शंक मनाने लाटेसम तू

खूण प्रितीची अपुल्या पटली पुन्हा एकदा

*

तुझे मेघ आषाढी, वा-यासवे पांगले

हिरवटती आशा कोळपली पुन्हा एकदा

*

शांत सागरी जीवन-नौका होती माझी

भेटलीस तू अन् वादळली पुन्हा एकदा

*

नांव तुझे नकळतसे येता ओठांवरती

जखम वाळलेली ठसठसली पुन्हा एकदा

*

आठवणीतुन भेटलीस तू अवचित जेंव्हा

मजला ‘माझी’ भेटहि घडली पुन्हा एकदा

*

तुझी आठवण, अर्ध्यामुर्ध्या भातुकलीची

हसताना आसवे निसटली पुन्हा एकदा

© श्री राजकुमार दत्तात्रय कवठेकर

कवी / गझलकार

संपर्क : ओंकार अपार्टमेंट, डी बिल्डिंग, शनिवार पेठ, आशा  टाकिज जवळ, मिरज मो ९४२११०५८१३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आणि तो जाड होऊ लागला…  – लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? विविधा ?

☆ आणि तो जाड होऊ लागला…  – लेखक – अज्ञात ☆  श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

आणि तो जाड होऊ लागला…

माणूस भुकेची किंमत न करता अन्नाची किंमत करायला लागला आणि तो जाड होऊ लागला.

अनलिमिटेड थाळी किंमत वसूल होऊन वर थोडीफार खाण्याचा प्रयत्न करू लागला.

एका वेळच्या भुकेची गरज एक रोटी असताना महागडी भाजी संपविण्यासाठी जास्तीची रोटी आणि राईस मागवून खाऊ लागला.

महागड्या डिशेस खाण्याच्या नादात भरपूर लोणी तुपात घोळलेले पदार्थ बिनदिक्कत चापू लागला.

घरचा स्वयंपाक शिल्लक राहिला तरी चालेल पण हॉटेलमधली डिश चाटून पुसून संपवू लागला.

पैसे खर्च झाले तरी चालेल पण बायको माहेरी गेल्यावर पदार्थ घरी करायचे कष्ट न करता, बाहेर जाऊन खाणे श्रेयस्कर समजू लागला.

मिसळ खायला पाव आणि पाव संपवायला अनलिमिटेड तर्री हाणू लागला.

हॉटेलमध्ये संध्याकाळी भरपूर खाल्ले तरी रात्री घरी पोळीभाजी खाल्ल्याशिवाय जेवण झाल्यासारखे वाटत नाही म्हणून रात्री सुद्धा घरी आडवा हात मारून जेवू लागला.

हॉटेल हि गरजेची सुविधा असणे विसरले गेले आणि चैन हि माणसाची नित्य गरजेची सवय बनली.

नुसतेच खाणे बदलले असे नाही तर खाण्यानंतर चहा किंवा कॉफी बरे वाटू लागले.

जेवताना कॉल्डड्रिंक मानाचे होऊ लागले.

पूर्वीच्या जेवणाच्या ताटावरच्या गप्पा हॉटेलमधल्या टेबलावर घडू लागल्या आणि गप्पांच्या वेळे बरोबर खाण्याची बिलेही वाढू लागली.

आम्ही दोघांनी मिळून कैरीचं लोणचं केलं किंवा आम्ही दोघांनी मिळून पापड केले असे कामाचे सहचर्य कुणाकडूनच कधी ऐकू आलं नाही.

कामाच्या विभागणीत स्त्री पुरुष समानता आलेली फार क्वचित दिसली पण आळशीपणामध्ये मात्र स्त्री पुरुष समानता हटकून आली.

स्वयंपाक बिघडला म्हणून घरी बायकोला घालून पाडून बोलणारे महाभाग हॉटेलमध्ये जे समोर येईल ते माना डोलवून डोलवून खाऊ लागले आणि निषेधाची वाक्य बाहेरच्या वहीत नोंदवून ठेऊ लागले.

किंवा अगदीच घरगुती किंवा साधे हॉटेल असेल तर त्या बदल्यात दुसरा पदार्थ फुकटात मिळवू लागले.

हळूहळू स्वयंपाकाची कला घरांमधून नाहिशी होते कि काय अशी भिती वाटू लागली आहे.

कुणाला घरी जाऊन भेटणे या पेक्षा हॉटेलमध्ये भेटणे जास्त प्रशस्त वाटू लागले आहे.

कुणाच्या घरी जाणं झालंच तर चहाच्या ऐवजी कोल्डड्रिंक्स आणि नाश्त्याच्या ऐवजी ब्रँडेड चिवडा लाडू किंवा सामोसे आणि पॅटिस ऑफर होऊ लागले आहेत.

गरमागरम पोहे पाच मिनिटात करून आपुलकीने पुढ्यात ठेवणारी आईची पिढी आता पंचाहत्तरीची झाली आहे.

या गल्लोगल्ली उघडलेल्या हॉटेल्सनी तसेच महागड्या आणि स्टायलिस्ट हॉटेल्सनी आपली खाद्य संस्कृती पूर्णपणे बदलू लागली आहे.

महाराष्ट्रीय पदार्थ तर हळूहळू विस्मरणात जाऊ लागले आहेत.

कुरड्या पापड्या भुसवड्या भरल्या मिरच्या पंचांमृत आता गौरीच्या जेवणापुरत्याच आठवणीत राहिल्या आहेत आणि त्या सुद्धा ऑर्डर देऊन मागवाव्या लागत आहेत.

फोडणीची पोळी फोडणीचा भात आताशा पूर्णपणे दिसेनासाच झाला आहे.

कुणाच्याही घरी जाऊन वहिनींच्या हातची हक्काने खायची पिठलं भाकरी आता शेकडो रुपये देऊन विकत मिळू लागली आहे.

कुणाच्या घरी हक्काने जेवायला जायची सोयच राहिलेली नाही, खिशात पैसे नाहित म्हणून आलेला दिसतोय अशी शंका सुद्धा घेतली जाऊ लागली आहे.

आमच्या पिढीतल्या सर्व वहिनींना स्वयंपाक येतो याची सगळ्यांनाच खात्री आहे पण मुलांच्या पिढीमध्ये मात्र सगळंच जरा अवघड आहे.

आता सुखी संसारासाठी विवाहेच्छूक स्त्री पुरुषांसाठी किंवा नवपरिणीत जोडप्यांसाठी एकत्रित पाककलेचे वर्ग सुरू करणे अनिवार्य होऊ लागले आहे असे मला वाटते.

स्वतःपुरतातरी स्वयंपाक दोघांनाही करता यायला हवा असे माझे मत आहे.

लेखक : अज्ञात

संकलन व प्रस्तुती : सुहास पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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