हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 408 ⇒ रीगल से वोल्गा तक… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रीगल से वोल्गा तक।)

?अभी अभी # 408 ⇒ रीगल से वोल्गा तक? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज जिसे मेरे शहर का रीगल चौराहा कहा जाता है। वहां कभी वास्तव में एक जीता जागता रीगल थियेटर था। और उसके पास एक मिल्की वे टाकीज़ भी। और इन दोनों के बीच। रीगल थियेटर के परिसर में ही एक शाकाहारी वोल्गा रेस्टोरेंट था।

जो लोग काम से काम रखते हैं। वे व्यर्थ में नाम के अर्थ में अपना समय नष्ट नहीं करते। रीगल टेलर्स भी हो सकता है और रीगल इंडस्ट्रीज भी। कई बड़े शहरों में होता था कभी रीगल सिनेमा। इसमें कौन सी बड़ी बात है। वैसे रीगल का मतलब शाही होता है।।

हमारे घर में मैं बचपन से गर्म पानी की एक बॉटल देखता आ रहा हूं। जिसे ईगल फ्लास्क कहते थे।और उस पर एक पक्षी की तस्वीर होती थी।

मां जब अस्पताल जाती थी। तो उसमें बीमार सदस्य के लिए गर्म चाय ले जाती थी। और पिताजी के लिए उसमें रात में।पीने के लिए।  गर्म पानी भरा जाता था। बाद में पता चला ईगल तो बाज पक्षी को कहते हैं।

वोल्गा नया रेस्टोरेंट खुला था। इतना तो जानते थे कि गंगा की तरह वोल्गा भी कोई नदी है। जो भारत में नहीं।  रूस यानी रशिया में कहीं बहती है। लेकिन इसके लिए राहुल सांकृत्यायन की गंगा से वोल्गा पढ़ना मैं जरूरी नहीं मानता।।

वोल्गा रेस्टोरेंट में हमने पहली बार छोले भटूरे का स्वाद चखा। हम मालवी और इंदौरी कभी चाय। पोहे। जलेबी और दाल बाफले से आगे ही नहीं बढ़े। रेस्टोरेंट के मालिक भी एक ठेठ पंजाबी सरदार थे। गर्मागर्म छोले और फूले फूले भटूरे और साथ में मिक्स अचार। सन् १९८० में कितने का था। आज याददाश्त भले ही काम नहीं कर रही हो। लेकिन एक आम आदमी के बजट में था। फिल्म की फिल्म देखो और छोले भटूरे भी खाओ।

यादों का झरोखा हमें कहां कहां ले जाता है। जयपुर में एक लक्ष्मीनारायण मिष्ठान्न नामक प्रतिष्ठान है। जिसे एलएमबी (LMB) भी कहा जाता था। उसी तर्ज पर इंदौर में भी एक जैन मिठाई भंडार था। जिसे आजकल JMB जेएमबी भी कहा जाने लगा है।

सराफे में इनकी पहली दुकान थी और मूंग के हलवे का पहला स्वाद इंदौर वासियों ने यहीं चखा था।।

आज इनकी इंदौर में कई शाखाएं हैं। लेकिन स्मृति में भी आज इनकी वही शाखा है। जो कभी रीगल थीएटर से कुछ कदम आगे। आज जहां स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की एम जी रोड ब्रांच है। वहीं कभी JMB ने भी अपनी ओपन एयर शाखा भी खोली थी। जहां खुले में संगीत की मधुर धुनों में आप मुंबई की पांव भाजी का स्वाद ले सकते थे। जी हां इंदौर में पाव भाजी भी पहली बार JMB ही लाए थे। शायद यह बात उनकी आज की पीढ़ी को भी पता न हो।

आज शहर में छोटे भटूरे। पाव भाजी और मूंग का हलवा कहां नहीं मिलता। लेकिन रीगल चौराहे पर ना तो आज रीगल और मिल्की वे टाकीज मौजूद है। और ना ही वॉल्गा रेस्टोरेंट। लेकिन समय ने JMB को आज इतना बलवान बना दिया है।  कि इंदौर में उनकी कई शाखाएं भी हैं और अच्छी गुडविल भी। जो चला गया। उसे भूलने में ही समझदारी है। अलविदा रीगल। अलविदा वोल्गा।।

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 29 – मूक मौन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – कर्तव्य।)

☆ लघुकथा – कर्तव्य श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

डॉक्टर समीर एक दिन अपने साथ अपने घर में एक व्यक्ति को लेकर आए उनकी पत्नी  ने कहा यह कौन है और इससे कैसे घाव हुआ है इसका खून तो बहुत बह रहा  है। यह तो गोली लगने का निशान लग रहा है उसे डांट के कहा अभी मैं इसको अपनी डिस्पेंसरी में ले जा रहा हूं और इसका मुझे इलाज करने दो ।

आपसे सवाल करना यह एक सिपाही है?

पत्नी चुपचाप हो गई और डॉक्टर ने उसका इलाज किया और उसे अपने घर के मेहमानों वाले कमरे में । समीर सेना में डॉक्टर  के पद पर कार्यरत था उसने ये घटना अपने एडमिरल को बताई और कहा कि सर दुश्मन देश का एक सिपाही मुझे समुद्र के किनारे घायल  मिला उसकी यह हालत देख कर मैंने उसे वहीं छोड़ देना चाहा लेकिन मैं उसे छोड़ ना सका मैंने उसका इलाज करके अपने घर में रखा है अब मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि मैं क्या करूं?

आप एक बहुत अच्छे डॉक्टर हैं और आपको यह बात याद होनी चाहिए कि आपको  देश के प्रति भी कुछ कर्त्तव्य निभाने हैं, यह बहुत गलत किया इस बात के लिए तुम्हें नौकरी से भी निकाला जा सकता है तुम एक बहुत अच्छे डॉक्टर हो।  इसलिए उसे उसी समुद्र के किनारे जाकर छोड़ दो…

नहीं  मैं दो आदमियों को भेजता हूं और वे उसे गोली मार देंगे और अचानक वह बिस्तर से नीचे गिर पड़ा …।

समुद्र के किनारे दूसरे देश की सीमा के पास छोड़ आया।

संतुष्टि थी, कि उसने देश और डॉक्टर दोनों का कर्त्तव्य निभाया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 107 – जीवन यात्रा : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी ।

☆ कथा-कहानी # 107 –  जीवन यात्रा : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अंकुरित वत्स, ईश्वर से प्राप्त ब्रम्हांडीय आश्वासन से आश्वस्त होकर जब अंधकार का आदी हो गया तो अगली अवस्था थी “विचलन याने movement”. बाहर की दुनियां में जो भविष्य में उसकी भी दुनिया होने वाली है, उसके बहुत हल्के से विचलन पर उठते रोमांचक भावनाओं के तूफान से वो अनिभिज्ञ ही रहा. निर्धारित अंतराल के पश्चात प्रसव की प्रक्रिया से हुये जन्म से, उसका सामना हुआ तेज “प्रकाश” से. अंधकार के comfort zone के अभ्यस्त जीव को ये परिवर्तन असहनीय लगा तो फिर “भय” प्रस्फुटित हुआ जिसका परिणाम था “रुदन”. पर इस नये वातावरण के अभ्यस्त जीवों के लिये, ये हर्ष और उल्हास का विषय था. जन्म लिये जीव ने अपनी व्यथा, फिर से ईश्वर को संप्रेषित करने की कोशिश की पर जन्म के साथ ही अब उसके लिये ईश्वर से ब्रम्हांडीय संप्रेषण Universal Streight Dialling की सुविधा समाप्त हो चुकी थी. अब जन्म लिये वत्स को संप्रेषण इस दुनियां के जीवों से ही करने की पात्रता थी और संप्रेषण का उसके पास सिर्फ और सिर्फ रुदन ही एकमात्र माध्यम था जिसमें समय के साथ ही उपयोग की महत्ता और अभ्यस्तता आनी थी. पर इस रुदन के बाद उसे उपहार मिलता था स्पर्श और उष्मा का. ये स्पर्श और उष्मा उसे सुरक्षा की अनुभूति कराती थीं. कुछ दिनों में ही जीव वत्स अपने अंधकार और पोषण युक्त पर अभी अभी निष्कासित आशियाने के मालिक को पहचानने लगा. हालांकि अभी वह मालिक और मालकिन के भेद से अनजान था. पर इतना तो उसे अनुभव हो चुका था कि इस नई जगह में उसे स्पर्श, उष्मा और पोषण के रूप में सुरक्षा देने वाला यही इंसान है. English तो क्या कोई भी अक्षर, शब्द, भाषा उसके तरकश में नहीं थी वरना Caretaker जैसी टर्मिनालॉजी का प्रयोग तो अवश्य ही अपनी जीवनदायिनी के लिये कर ही लेता. इसके अलावा भी कभी कभी एक कठोर स्पर्श भी उसके अनुभव में आता, पर शुरुआत में भयभीत या uncomfortable होने पर वह अपना रुदन रूपी अस्त्र प्रयोग करने लगता.

यात्रा जारी रहेगी 👼👼👼

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 237 ☆ सागर आणि लाटा… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 237 ?

☆ सागर आणि लाटा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

लोक किल्ले बांधती वाळूत, बांधो बापडे

सागरामध्ये स्वतःच्या मस्त तरले आजवर

प्रभा 🌊

? ☆ सागर आणि लाटा ☆ ?

☆  

अथांग निळ्याशार समुद्राचं आकर्षण –

मनात खोलवर  ….

मग घरच उचलून आणलं सागरतिरी ….

सागरिकांबरोबर झुलणं हा एकच छंद!

त्या बेमुरव्वत लाटांची गाज

आणि बेधडक उसळण थेट घरापर्यंत!

मन सवयीचे गुलाम…

झेलत राहिले अविरत,

लाटांचे प्रहार !

रौद्र लाटांचे तांडव-

घराच्या छतापर्यंत ….

नाकातोंडात पाणी जाताच…

घराने दाखविला…

संकटकाळी बाहेर जाण्याचा मार्ग,

आणि सापडली जिवंत रहाण्याची दिशा!

घरही  आता खंबीर,

लाटांपासून दूर नेणारं,

सुरक्षित कवच बनून!

भल्या बु-याची जाण देणारं—तरीही निसटलेल्या क्षणांचा हिशोब मागणारं….

परखड…काहीसं कठोर,

पण अश्वासक!

प्रौढ अनुभवांनी मिळवलाय विजय–

मनातल्या चवचाल लाटांवर!

समोर सावध काठ  आणि किनारे,

लाटांकडे पाठ ,तरीही —

पाठराखण करतोच  आहे….

हा अथांग  अर्णव–समुद्र….सागर  !!!

☆  

© प्रभा सोनवणे

२५ जानेवारी २००७

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नरशार्दुल… ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे☆

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

? कवितेचा उत्सव ?

🙏 नरशार्दूल  🙏 ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆

🏆 जागतिक साकव्य विकास मंचच्या काव्यलेखन स्पर्धेत द्वितीय क्रमांक प्राप्त 🏆

भारतभूच्या स्वातंत्र्याची मशाल धगधगती

विनायकाची जाज्वल्य अशी थोर देशभक्ती || ध्रु ||

*

मातृभुमीची मुक्तता हाच ध्यास मनी होता

शिक्षणातुनी ध्येयासाठी अढळ यत्न होता

तारूण्यातच स्वदेशावरी करी पतंगप्रिती

विनायकाची जाज्वल्य अशी थोर देशभक्ती ||१||

*

स्वतंत्रतेचे स्तोत्र रचूनी केली नित्य पुजा

उध्दरणास्तव तिच्या भोगिली अपरंपार सजा

अपार ध्येयासक्त मनाची दृढ श्रद्धा होती

विनायकाची जाज्वल्य अशी थोर देशभक्ती ||२||

*

क्रांतीसाठी प्रेरक बनुनी मुक्त राहण्याला

बंदीवासा चूकविण्यास्तव बेत नवा केला

मार्सेलिसला झेप सागरी जणू प्राणाहुती

विनायकाची जाज्वल्य अशी थोर देशभक्ती ||३||

*

क्रांतीकारक उडी शुराची त्रिखंडात गाजे

स्वातंत्र्याची रणदुंदूभी उच्चरवे वाजे

शंभरवर्षे तळपे नरशार्दूलाची महती

विनायकाची जाज्वल्य अशी थोर देशभक्ती ||४||

*

भारतभूच्या स्वातंत्र्याची मशाल धगधगती

विनायकाची जाज्वल्य अशी थोर देशभक्ती ||

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ उंबरा… आत्मभान जागृत ठेवणारे – लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? विविधा ?

☆ उंबरा… आत्मभान जागृत ठेवणारे – लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

उंबरा म्हणजे आत्मभान जागृत ठेवणारं स्थान…!!! 🙏🏻

अवश्य वाचा

उंबरा म्हणजे लाकडी दाराच्या चौकटीत खालच्या बाजूस बसविलेले जाड, रुंद आणि सपाट लाकूड. दाह शमन करणारा आणि दीर्घकाळ पाण्यात टिकून रहाणारा वृक्ष म्हणजे (औदुंबराचा) उंबराचा वृक्ष.

म्हणूनच पूर्वीच्या काळात घराचा उंबरा हा उंबराच्या खोडापासून बनत असे. या वृक्षाच्या नावावरुनच दाराच्या चौकटीत बसवायच्या या लाकडाचं नाव उंबरा असे पडले असावे.

उंबराचा वृक्ष हा कृतिका नक्षत्राचा आराध्यवृक्ष आहे आणि त्याच्या औदुंबर या नावाने त्याला शुभ असे धार्मिक अधिष्ठानही प्राप्त झालेले आहे.

साक्षात दत्त निवास असलेला पवित्र वृक्ष म्हणून औदुंबराची ख्याती आहे. २१ गुणांनी परिपूर्ण औदुंबर वृक्षाखाली सद्गुरु माऊली दत्तांनी साधना केली.

औदुंबराला भूतलावरील कल्पवृक्ष म्हणतात.कारण प्रभू विष्णूंनी औदुंबराला आशीर्वाद दिला आहे की याला सदैव फळे येतील. तसेच या झाडाचे पूजन व भक्तीने सर्व मनोकामना पूर्ण होतील. या झाडाचे दर्शन केल्याने उग्रता शांत होते.

काही वर्षे पाठीमागे गेल्यास घरातील गृहिणी रोज सकाळी उंबऱ्याची पूजा न चुकता करायची. उंबरठ्यावर नृसिंहलक्ष्मीचे स्थान असते. तर चौकटीवर गणेशाचे स्थान असते. घरात कोण, कसे,काय घेऊन जातेय त्यावर त्याचे ध्यान असते.

उंबरठा ! किती अर्थ होता त्या उंबरठ्याला .उंबरठा म्हणजे, दाराच्या चौकटीवर बसवलेली एक लाकडाची पट्टी, पण, किती अर्थ होता या लाकडी पट्टीला. चौकटी बाहेर पाऊल टाकायला पूर्वी कुणीही धजत नसे. सातच्या आत घरात हा पूर्वीच्या लोकांचा प्रघात होता. आता तर कुणी बाराच्या आतही घरात येत नाही.

पूर्वी बायका म्हणायच्या कि आमच्या उंबरठ्याचा गुण आहे, आमच्या घराचा उंबरठा ओलांडून लेक घरात आली कि तिला आमचे गुण लागलेच म्हणून’ समजा.  हाच उंबरठा प्रतिष्ठेचा प्रतिक मानला जायचा. ज्या घराला उंबरठा नाही ते काय घर म्हणावं का..?

ज्या घराला उंबरठा नाही तेथे कुणाचाच पायपोस कुणाला नसतो अस म्हणतात. आओ जाओ घर तुम्हारा. सणवार आला कि उंबरठा सारवला जायचा. त्याच्या आजूबाजूला सुबक अशी रांगोळी काढली जात असे. दारावर तोरण बांधले जायचे.  फ्लॅट संस्कृतीमध्ये लाकडी उंबरठा कालबाह्य झालाय.

आता बैठकीच्या खोलीतूनच सगळे किचन दिसते. काहीच आडपडदा नको. कोणीही उपटसुंभ येतो व वहिनी वहिनी करत घरातच घुसतो. ना मानसन्मान ना मर्यादा किती सुधारलो ना आपण?

नववधू घराच्या उंबरठ्यावर ठेवलेले माप लांघत घरात प्रवेशते. उंब-याला गृहित धरत आपण बरेचसे शुभ अशुभ संकेत मानतो. घरातल्या उंब-याच्या खूप सा-या भूमिका असल्या तरीही उंबरा असते एक मर्यादा.

उंबरा असते एक सीमारेषा. उंबरा म्हणजे आपल्याला भानावर आणणारी नेमकी गोष्ट..

बाहेरुन घरात येणा-यांसाठी आपला इगो चपलांच्या सोबत बाहेर काढून ठेवायची जागा म्हणजे उंबरा. प्रवेशात असलेल्या घरातल्या चालीरीतींना मान देत आपण वागायचं आहे हे उंबऱ्याची वेस ओलांडतानाच मनात बिंबवून यायचं असतं. आणि घरातून बाहेर पडत असताना त्या घराने आपल्यावर केलेले संस्कार बाहेर पडल्यावरही आपण विसरणार नाही, हे  लक्षात आणून देणारी जागा म्हणजे उंबरा.

उंबरा म्हणजे आत्मभान जागृत ठेवणारं स्थान.उंब-याबाहेर पडल्याशिवाय जग काय आहे हे कळत नाही हे म्हणतात ते अगदी खरं आहे.

उंबरठे झिजवल्या शिवाय यश पदरात पडत नाही हे सुद्धा खरंच. पण उंबरठे झिजवताना आपल्यावर आपल्या उंब-याने केलेले संस्कार लक्षात ठेवले तर निसरड्या जागांचा सामना करणं सोपं होत असतं.

अजून एक गोष्ट इथे नमूद करायलच हवी. ती म्हणजे उंब-याच्या बाहेर पडण्यासाठी फार मोठं धैर्य लागतं आणि बाहेरच्या जगात वावरण्यासाठी मर्यादेचं फार मोठं भान लागतं.

हे भान जे कोणी जपतं त्याचं आयुष्यात नेहमीच सुंदर होत असतं.

उंबरा म्हणजे लक्ष्मण रेषा. जे जे अपवित्र असेल,वाईट असेल त्या वस्तू असतील,विचार असतील त्यांना उंबऱ्याच्या आता थारा नाही. मग ते काहीही असु शकते.

भ्रष्टाचाराचा पैसा असेल,कुलक्षणी मित्र असतील,व्यसनांसाठी लागणारे साहित्य असेल,वाईट विचार असतील त्यांना उंबऱ्याच्या आत स्थान नाही. म्हणूनच जे वाईट प्रवृत्तीचे कोणी आले तर उंबऱ्याच्या बाहेरूनच निरोप दिला जायचा. म्हणून पूर्वीच्या घरांना ओसऱ्या असत. चहापाणी, गप्पा बाहेरच व्हायच्या.

घरातील गृहलक्ष्मीला  सुद्धा कधी बाहेर जायचे आणी कधी नाही हे कोण आलंय याचे भान असायचे. आता काय भावोजी भावोजी करत असेल त्या अवतारात बाहेर. घरातील संस्कार, जेष्ठांचे वर्तन, मुलांचे वळण हेच त्या घराचे व्यक्तीमत्व ठरवते.

उंबरा म्हणजे मर्यादा. जशी नदीला दोन काठांची मर्यादा असते,सागराला किनाऱ्याची मर्यादा असते तसेच घराला उंबऱ्याची मर्यादा असते. ज्यावेळी नदी,सागर मर्यादा ओलांडतात तेव्ह जलप्रलय येतो. तसेच उंबऱ्याची मर्यादा ओलांडली की कुटुंबावर संकट ठरलेले आहे.

म्हणूनच आपण आपली संस्कृती जपली तर पुढील पिढी त्यातून आदर्श घेईल.

एकुणच काय मर्यादा प्रभू श्रीरामांनी पाळली,आपण ती ध्यानात ठेऊ, उंबरा ओलांडताना मर्यादेचं भान ठेऊ.

लेखक : अज्ञात

प्रस्तुती : सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सूर्य नवा दिवस नवा- भाग – २ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली ☆

श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

? जीवनरंग ❤️

सूर्य नवा दिवस नवा- भाग – २ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

(महिन्याअखेरीस तू जमेल तेवढे पैसे माझ्या हातात टिकवले तरी चालतील. एवढंच वाटतं की माझ्या हातांची दानत शेवटपर्यंत टिकायला हवीय. आणि हे गुपित आपल्या दोघांतच असायला हवं.’) – इथून पुढे — 

वास्तविक सुमित्राकाकूंचा मुलगा मोठ्या कंपनीत आहे आणि काकूंची ही अगतिकता? मी लगेच म्हटलं, ‘ठीक आहे काकू, उद्यापासून या. मी तुम्हाला महिन्याला एक हजार रूपये देईन, चालेल?’

‘छे, अगं एखाद्या महिन्यात जास्तीत जास्त पाचशे रूपये लागतील. तेही मला लागले तरच घेईन नाही तर काहीच घेणार नाही. माझ्या लेकीसाठी काही करतेय या भावनेने मी स्वयंपाक करीन. मोबदला मिळतो म्हणून नाही. मला कधीही जेवायचा आग्रह करायचा नाही. बघ, तुला पटतंय कां, तर हो म्हण.’

शुभदा म्हणाली, ‘काकू मी तुमच्या शब्दाबाहेर नाही. फक्त ही गोष्ट मला माझ्या नवर्‍यापासून लपवून ठेवता येणार नाही. त्यांना सांगावं लागेल, चालेल ना?’

‘बरं बाई, चालेल. आता मला शंभर रूपये देशील, सकाळी येताना काही भाज्या घेऊन येईन.’ असं म्हणत शंभर रूपये घेऊन काकू बाहेर पडल्या. किचनमध्ये गेल्यावर लक्षात आलं की काकूंनी पोह्यांची चव सुद्धा घेतली नव्हती.

एकीकडे सुमित्राकाकूंना मदत करतेय हा आनंद होता तर दुसरीकडे बॅंकेतून आल्यावर आता वेळ कसा घालवायचा हा मोठा प्रश्न शुभदासमोर होता. बॅंकेची शाखा जवळच असल्याने ती सव्वा पाचलाच घरी पोहोचायची.

थोड्या वेळाने सखूबाई आली. झाडलोट करून, कपडे धुऊन पदराला हात पुसत बाहेर येत म्हणाली, ‘ताईसाहेब, आमच्या बाळूला आठवीचं गणित आणि इंग्लिश जरा अवघड जातंय म्हणे. शिकवणी लावायची म्हणत हुता. अवं आता आम्ही गरीबांनी शिकवणी फी कुठनं आणायची? कमी पैशात शिकविणारा कुणी हाय का तुमच्या ओळखीत? असंल तर सांगा.’

मुलांचं हवं नको ते पाहण्यात शुभदा कधी प्रमोशनच्या भानगडीत पडली नव्हती. मुलं दहावीला जाईपर्यंत त्यांच्या सगळ्या विषयांचा तिने स्वत: जातीने अभ्यास घेतला होता. त्यामुळे आठवीच्या मुलांची दोन विषयांची शिकवणी घेणे ही शुभदाच्या दृष्टीने अवघड गोष्ट नव्हती. शुभदाने संधी साधली आणि बोलून गेली. ‘सखू आणखी पांच दहा मुलं भेटतात का बघ. संध्याकाळी साडेपांच ते साडेसहा या वेळेत मी विनामूल्य शिकवणी घेईन.’

दुसर्‍या दिवशी सकाळी शुभदा पहिल्यांदाच फिरायला म्हणून बाहेर पडली. अजून उजाडायला बराच अवधी होता. त्यामुळे थोडे अंधुकसे दिसत होते. चालत चालत ती जवळच्या टेकडीवर पोहोचली. गार वार्‍याची झुळुक येताच तिचे मन मोहरून उठले.

फिरून येताना नुकतेच फटफटू लागले होते. पूर्व क्षितिजावर केशरी सोनेरी रंग दाटून येत होते. त्या गडद रंगांतून तेजोनिधी लोहगोल तो सूर्य हळूहळू वर येत होता. सोनेरी किरणांनी टेकडीवरील झाडे उजळून निघाली होती. जाग आलेल्या पक्ष्यांचा किलबिलाट चैतन्य पसरवत होता. ते विलोभनीय दृश्य अनुभवताना शुभदा हरखून गेली. निसर्गाच्या या अलौकिक सौंदर्याकडे आपण कधीच कसं पाहिलं नाही? सूर्य जसा नित्य नवा असतो तसं आपणही मनांत कसलंही किल्मिष न बाळगता प्रत्येक दिवस नवा अन संधी नवी असं मानायला काय हरकत आहे, असा विचार करीत शुभदा घरी आली.

सकाळचे फिरून झाल्यावर सुमित्राकाकू सात वाजता हजर झाल्या. समोरच्याच सुपरशॉपमधून भाज्या, लिंबू, मिरची, कोथिंबिर घेऊन आल्या. खरेदीच्या रिसीट सोबत उरलेले पैसे परत देत त्यांनी शुभदाला आठवड्याचा मेनूही दिला. ‘काही बदलायचं असेल तर सांग,’ असं म्हणत किचनमध्ये शिरल्या. त्यात बदलण्यासारखे काहीच नव्हते. अगदी अर्ध्या तासात स्वयंपाक संपवून त्या बाहेर पडल्या.

साडेआठला सखूबाई आल्या. ‘ताईसाहेब, पंधरा मुलं तयार हायती. शिकवणीसाठी कम्युनिटी हॉल मिळतोय. दोन दिस थांबावं लागंल.’

शुभदाने होकार भरला आणि त्याच संध्याकाळी तिने आठवीचे गणित आणि इंग्रजी विषयाचे पुस्तक विकत घेतले.

संध्याकाळी साडेपाच वाजता बॅंकेतले काम आटोपून शुभदा डायरेक्ट कम्युनिटी हॉलवर पोहोचली. आधी या मुलांचं व्याकरण पक्कं करणं आणि गणिताचा विषय सोपा करून शिकवणे आवश्यक आहे हे तिच्या लक्षात आलं. मुलं शुभदाच्या शिकवणीत रमून गेली.

दिवसामागून दिवस सरत होते. सर्वच मुलांनी पुढच्या सहामाहीत चांगले यश मिळविले. आपल्या मुलांच्या प्रगतीसाठी सर्वच पालक झटत असतात पण निरपेक्षपणे इतरांच्यासाठी काही करण्यात किती आनंद असतो हे शुभदा पहिल्यांदाच अनुभवत होती.

घरी परत जाताना शुभदानं आकाशाकडे पाहिलं. उगवतीच्या सूर्यासारखे उमलत जाणार्‍या आपल्या मुलांच्याकडे पाहून किती प्रसन्न वाटायचं. आता आपलं वय ढळत चाललंय अगदी तसं दिवस मावळतीकडे झुकत चालला होता. आकाशात एक अनोखं चित्र साकारत होतं. क्षितिजावर निळसर प्रकाश रेंगाळत होता आणि क्षणार्धातच त्यात लाल, पिवळसर, सोनेरी रंग मिसळत चालले. ‌‌अख्खे सूर्यबिंब केशरी दिसू लागले. सर्वत्र संधिप्रकाश पसरत चालला. सूर्यास्ताचं देखणं दृश्य शुभदाच्या मन:पटलावर बिंबलं गेलं. सूर्योदयाच्या इतकीच संध्याकाळसुद्धा तितकीच मनोहारी वाटत होती.

सूर्योदय असो वा सूर्यास्त, निसर्ग मात्र तेवढ्याच सुंदरतेने प्रकट होतो. मग आपणच ‘संध्याछाया भिवविती हृदया’ असं कां म्हणावं? आयुष्याच्या संध्यासमयी आपणही निसर्गाप्रमाणे तेवढ्याच ग्रेसफुली प्रकट व्हावं. पावलापावलावर सुख आपल्याला साद घालीत असतं. त्या गोष्टीत लपलेले सुख मात्र आपल्यालाच शोधता आले पाहिजे. हळूहळू तिच्या मनावरचे मळभ दूर होत गेले.

घरी आल्यावर तिने रेडियो ऑन केला. जितेंद्र अभिषेकी समरसून गात होते. व्यथा असो आनंद असू दे / प्रकाश किंवा तिमिर असू दे / वाट दिसो अथवा ना दिसू दे / गात पुढे मज जाणे… माझे जीवनगाणे… जणू मंगेश पाडगावकरांचे शब्द पंडितजींच्या सुरांच्या हिंदोळ्यावर झुलत होते.

शुभदाच्या मुखातून ‘वा!’ शब्द उत्स्फूर्तपणे बाहेर पडला. एखादे गाणे ऐकणे हा देखील इतका अलौकिक अनुभव असू शकतो हे शुभदाला पहिल्यांदाच जाणवलं. सुख, समाधान हे आपल्याच मनोव्यापारांवर अवलंबून असतात हे तिला पटलं.

पंडितजी गातच होते. ‘गा विहंगांनो माझ्या संगे / सुरावरी हा जीव तरंगे…… माझे जीवनगाणे !’

– समाप्त – 

© श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

बेंगळुरू

मो ९५३५०२२११२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “परफेक्शनिस्ट आई…” – भाग – २ – लेखक : श्री बिभास आमोणकर ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

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☆ “परफेक्शनिस्ट आई…” – भाग – २ – लेखक : श्री बिभास आमोणकर ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

सुमारे दहा वर्षं तिचा आवाजच गेला होता, तो तिच्या आयुष्यातील सर्वात भीषण, पण त्याचवेळेस तिला आणि आम्हा कुटुंबीयांनाही खूप काही शिकवून गेलेला असा काळ होता. त्यातून तावून सुलाखून बाहेर पडलेली आई वेगळीच होती. त्या दहा वर्षांच्या कालखंडात ती एकटीच होती. साथीला कुणीही नसायचं, ना कुणी शिष्य, ना इतर कुणी. त्या वेळेस तिचं अखंड चिंतन सुरू होतं. विभा पुरंदरे यांनी त्या कालखंडात आईला जी साथ दिली त्याला तोड नाही. त्या कॉलेज संपल्यानंतर यायच्या रोज. आई काय पुटपुटते आहे ते समजून तिच्याशी संवाद साधायच्या. त्यांचे ऋण आहेत आम्हा कुटुंबीयांवर. वैद्य सरदेशमुखांकडे तीन र्वष आईचे उपचार सुरू होते. दर शनिवारी आईसोबत पुण्याला औषधोपचारासाठी जायचो. तेव्हा जाताना ती आईच असायची अनेकदा. पण तिला बोलता यायचं नाही. उपचारादरम्यान, तिने जे सहन केलंय ते दररोज पाहत होतो. फार कळण्याचं वय नव्हतं, पण जे पाहिलं त्याचा अर्थ आणि मोल नंतर कळत गेलं. त्या वेळेस तिने भरपूर वाचन आणि चिंतन केलं. ‘स्वरार्थरमणी’ हे तिचं पुस्तक त्याच काळातील चिंतनाचं संचित होतं. एक मात्र होतं की, ती चिंतनात आहे किंवा दु:खात आहे म्हणून घरात संवादच झालेला नाही, असं कधीच झालं नाही. घरात ती छान स्वयंपाकही करायची. शेवयाची खीर मला आवडते म्हणून अनेकदा करायची. मला केव्हा ती खीर हवीहवीशी वाटायची हे तिला नेमकं कळायचं. स्वयंपाक मनापासून आवडायचा. माईपासूनच ते परफेक्शन तिच्याकडे आलेलं असावं. तिने चिरलेली भेंडी तुम्ही व्हर्निअर स्केल लावून तपासलीत तरी त्याच आकाराची असतील एवढं ते परफेक्शन होतं. वाटाणे सोलतानाही कधी सोललेले वाटाणे इकडे तिकडे पळताहेत असं झालेलं मी आजवर पाहिलेलं नाही. तिला चित्रकला, भरतकाम, वीणकाम सारं काही आवडायचं. तिचं वीणकामही पाहिलं आहे. त्यातदेखील एकही टाका तिरका जात नसे. गेलाच तर पूर्ण उसवून ती पुन्हा सारं नेमकं करायची. नातवांसाठी तिने स्वेटर्स वेळ काढून कधी विणली कळलंही नाही. साधं कामंही वेगळ्या पद्धतीनं करण्याची शक्ती तिच्यात होती. ईश्वरावर गाढ श्रद्धा होती. म्हणून जप किंवा पूजा करताना आम्ही तिला कधीच डिस्टर्ब होऊ दिलं नाही. ती खूप कौेटुंबिक होती. संगीतात जशी तिने कधी घराणी मानली नाहीत, तशीच तिने जातपातही नाही मानली. त्यामुळेच आमच्या घरात सर्व लग्नं आंतरजातीय झालेली दिसतील. माझं, भावाचं, आमच्या मुलांची. आमची लग्नं झाल्यावर आलेल्या सुना तिच्या मुली झाल्या होत्या आणि आम्ही जावयासारखे झालो होतो. सुनांवर तिने मुलांसारखंच प्रेम केलं. परफेक्शनच्या मागे एवढी असायची, की एकदा जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्समध्ये कार्यक्रम तिच्या मनासारखा झाला नाही म्हणून परत एकदा जाऊन कार्यक्रम केला, त्याचे पैसे घेतले नाहीत.

वर्षांतून एकदा तिच्या वाढदिवशी मात्र आई वेगळी दिसायची. कारण एरवी तिचा थोडा धाक आम्हाला आणि शिष्यांनाही असायचा. मात्र आईच्या वाढदिवशी आम्ही सगळे एकत्र घरातच छोटा कार्यक्रम करायचो. त्यात नाच-गाणीही असायची. त्या दिवशी मात्र ती काहीच बोलायची नाही किंवा कदाचित आम्हीच तिला काही बोलू द्यायचो नाही. आई मुळात चांगली क्रीडापटूही होती, हे फार कमी जणांना माहीत आहे. ती उत्तम टेबलटेनिस खेळायची. ‘किस’ प्रकारात मोडणारी सव्‍‌र्हिस ती अप्रतिम करायची. चेंडूचा पहिला टप्पा आपल्या बाजूस टेबलाच्या कोपऱ्यावर आणि दुसरा टप्पा थेट प्रतिस्पध्र्याच्या भागात टेबलच्या कोपऱ्यावर! हा अप्रतिम प्रकार आम्ही अनेक वर्षांनंतर थेट ओरिसाला अनुभवला. मुरलीधर भंडारी ओरिसाचे राज्यपाल असताना ओरिसा येथील विद्यापीठाने आईला डी. लिट्. देऊन सन्मानित केलं, त्या वेळेस राजभवनावर टेबलटेनिसचं टेबल पाहून आईचे हात शिवशिवले आणि आम्ही पुन्हा एकदा ती सव्‍‌र्हिस अनुभवली.

एकदा आईची शिष्या नंदिनी बेडेकर बसली होती. भूप गात असताना तिने स्वरमंडल बाजूला सारलं आणि डोळ्यांतून अश्रूधारा सुरू झाल्या. ते आनंदाश्रू होते. ती म्हणाली, आज गायलेला भूप वेगळा होता, तो आजवर असा कधीच जाणवला नव्हता. आज वेगळा साक्षात्कार झाला. त्यानंतर अगदी अलीकडे तिला आनंदी पाहिलं ते नवी दिल्लीला झालेल्या तिच्या अखेरच्या मैफिलीनंतर. तिने त्या दिवशी स्वत:हून माझ्या पत्नीला, तिच्या सुनेला, भारतीला फोन केला आणि सांगितलं की, ‘‘आज मी खूश आहे, मी खूप छान गायले.’’ हा आमच्या सर्व कुटुंबीयांसाठी मोठाच धक्का होता. कारण ‘मी आज खूप छान गायले’ असे शब्द आईच्या तोंडून एवढय़ा वर्षांत कधीच ऐकल्याचं स्मरणात नव्हतं. ती मैफल, गाणं छान झालं तर मी तुला साडी देईन, असंही ती सुनेला आधी म्हणाली होती. तिचा फोन हा आनंदाचा धक्का होता.

याआधी तिला आनंद झाला होता तो माझी मुलगी तेजश्री हिने शास्त्रीय संगीताला वाहून घेण्याचा निर्णय घेतला तेव्हा. तिने आमच्यापैकी कुणावरही या मार्गाने येण्यासाठी जोरजबरदस्ती केली नाही, ना कधी साधं बोलून दाखवलं. पण काहीही न करता तेजश्रीने घेतलेल्या निर्णयाचं तिला समाधान होतं. जे मला सांगायचं आहे व अपेक्षित आहे ते कळण्याची व समजून घेण्याची क्षमता तिच्याकडे आहे, असं मात्र ती सतत सांगायची. आता आजीच्या असामान्य कर्तृत्वासमोर उणे न पडण्याचं आव्हान तेजश्रीसमोर आहे. आई गेली त्या दिवशी ती पूजाघरात बसून होती. मी तिला सावरण्यासाठी गेलो तेव्हा ती इंग्रजीत म्हणाली, ‘आय डोन्ट वॉन्ट टू सी हर’ पण मी चुकून ‘सिंग’ एवढंच ऐकलं आणि हातपायच गळून गेले होते. म्हणून तिला पुन्हा विचारलं त्या वेळेस ती स्पष्ट म्हणाली की, त्या अवस्थेत तिला पाहावत नाही. तिच्या अंत्यसंस्कारासाठी निघालो तेव्हा तिने आईची मैफिलीची साडी व शाल कपाटातून काढली. ती म्हणाली, मैफिलीत जशी जायची त्याच वेशात तिला निरोप देऊ या. हा संपूर्ण कुटुंबासाठी अतिभावुक असा क्षण होता. अंत्यसंस्कारानंतर दुसऱ्या दिवशी दादरच्या चौपाटीवर तिच्या अस्थी विसर्जित केल्या, त्या वेळेस एरवी कचरा भरलेल्या त्या किनारपट्टीवर कचऱ्याचा मागमूसही नव्हता. भरती होती, लाटा वेगात येत होत्या. त्या वेळेस मी तेजश्रीला म्हटलं की, ‘‘गानसरस्वती’च्या स्वागतासाठी सारा आसमंत बघ कसा स्वच्छ झालाय. कारण तिला सारं स्वच्छ आणि नेटकं लागतं याची त्यालाच तर कल्पना असणार!’’ अस्थी हातात घेतलेल्या अवस्थेत माझा भाऊ निहार तिला म्हणाला, ‘‘हे सारं भौतिक आहे, नश्वर आहे. जे नश्वर नव्हतं ते ईश्वरी सूर तिने तुला दिले आहेत. ते तुझ्यात सामावलेयत ते आता आपल्यासोबत असतील!’’

आंबा म्हणजे आईचा जीव की प्राण. माईंचे यजमान भाटिया हयात असताना माईने खूप सुख अनुभवलं. नंतर परिस्थिती कठीण झाली. पण आईनेही ते सुख काही काळ अनुभवलं होतं. ती म्हणायची. आंबा म्हणजे ढीग पडलेला असायचा. आंबा म्हणजे तिच्यासाठी स्वर्गसुख असावे, असे अनेकदा जाणवायचे. मग आम्हीही मार्केटमध्ये पहिला आंबा आला की तिच्यासाठी घेऊन यायचो. आंबा खाताना ती जग विसरायची. फेर्नादिन आणि मानकुराद हे दोन गोव्यातील आंब्याचे प्रकार तिच्या भारी आवडीचे. हे अनेकदा पावसाळ्यात येतात. आंब्यासारखंच प्रेम तिने निसर्गावरही केलं. बकुळीची फुलं तिला प्रचंड आवडायची. माझं निसर्गप्रेम बहुधा तिच्या रक्तातूनच आलेलं असावं. निसर्गाबद्दल आईशी होणारा संवाद अनेकदा अमूर्त प्रकाराचा असायचा. ती फक्त व्यक्त व्हायची, मी समजून घ्यायचो. निहारकडे निसर्गाबद्दल फार कमी बोलणे व्हायचं. कलाकार असल्यामुळे माझ्याशी ते सूत जुळलं असावं. तिच्या गावचा किस्सा तिने एकदा सांगितला होता : कुर्डीला नदीकाठी घरं होतं. तिथे नदीकाठी वाढणारी बॅरींग्टोनिया रेसिमोसाची झाडं खूप होती. या झाडाला माळांसारखी फुलं येतात. काहीशी बारीक असलेल्या केसांसारखी दिसणारी. आई बसलेली असायची नदीकाठी आणि वारा आल्यावर ती फुलं खाली नदीच्या पाण्यात पडायची व वाहायची. आई म्हणाली होती, फुलांचं ते वाहणं पाहून आयुष्यात प्रथम ऱ्हिदम काय असतो ते कळला. निसर्गातही ती बहुधा संगीताचाच शोध घेत असायची!

– समाप्त –

लेखक : श्री बिभास आमोणकर 

प्रस्तुती : सौ. स्मिता पंडित

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ तीनशे एकोणचाळीसावे प्रस्थान ! ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

? इंद्रधनुष्य ?

☆ तीनशे एकोणचाळीसावे प्रस्थान ! ☆ श्री संभाजी बबन गायके 

वारी…! ‘वा’सनांची ‘री’घ लागलेली असते मानवाच्या जीवनवाटेवर! ‘वा’म मार्गाला जाण्याची  ‘री’त सहजपणे अनुसरण्याची सवय असलेले मन याच वाटेवरून तर चालत असते निरंतर! या वाटेला कोणतेही अंतिम गंतव्य स्थान नाही…अर्ध्या वाटेवरून पुन्हा माघारी फिरणे आणि संसाराचा ताप सहन करीत पुन्हा वाटेला लागणे नव्या जन्मात…पुनरपि जननं ठरलेलं…मरण तर असतंच…कितीदा जन्मून मरत असतील ना जीव?  पण आपले जग मोठे भाग्यशाली…इथे वैराग्याची बाग फुलवणारे संत महात्मे जन्मले! 

वारी….अलौकिक आनंदाची जी वाट शतकानुशतके ज्ञानोबाराय-तुकोबारायादी संत-महात्मे चालून निजधामाला पोहोचले…त्याच वाटेवर त्यांच्या पादुका पालखीत विराजमान करवून त्यांच्यासोबत चालणे ही कल्पनाच केवळ अवर्णनीय! जगाला तोवर देवतांच्या पालख्या माहित होत्या. देव आत गाभा-यात विराजमान असतात…या देवांचे मुखवटे पालखी नावाच्या विशेष सजवलेल्या आकर्षक आसनामध्ये विशिष्ट तिथीला किंवा काही ठिकाणी रोजच्या रोज मंदिरांच्या आवारात किंवा परिसरात भक्तीभावाने मिरवल्या जात. नंतर देवतांचे मूर्तिमंत प्रतिनिधी अशी ओळख धारण केलेल्या राजांनी  मग हा अधिकार स्वत:ला बहाल केला! नंतर इतर अधिकारी या पालख्यामधून मिरवू लागले.  पालखीचा मान हा दिला जाण्याची बाब होती..त्यासाठी स्पर्धाही असेलच आणि एकमेकांची असूयाही!

मानवी देहात येऊन आणि मानवी देहाला अनिवार्य असणारे भोग भोगून जगासाठी मार्गदर्शक दीपस्तंभ झालेल्या चिरंजीवी  संतांना त्यांच्या जीवनकालात पालखीचा लाभ झाला असेल की नाही,कोण जाणे! 

परंतू, अवतार समाप्तीपश्चात का असेना…पण किमान आपल्या मराठी मुलुखात तरी हा मान संतांना अत्यंत नम्रतेने प्रदान करण्याचं मराठी मनाने मनावर घेतलं हे आपले भाग्यच! 

प्रत्यक्ष महादेव हे पंढरीचे सर्वप्रथम वारकरी असल्याचं मराठी मन मानतं. तीच परंपरा कित्येक भगवदभक्तांनी अखंड ठेवली…तत्कालीन सामाजिक,धार्मिक,व्यावहारिक आणि नैसर्गिक गोष्टींना सामोरे जात जात. 

जगदगुरू तुकोबारायांच्या कित्येक पिढ्या आधीपासून वारी होती…ती आजपर्यंत आहे. तुकोबाराय वैकुंठास निघून गेले त्यावेळी त्यांची भार्या आवली उर्फ जिजाबाई पाच-सहा महिन्यांच्या गर्भार होत्या…त्यांच्या पोटी नारायण आले! नारायण महाराज. धाकुटे तरी आध्यात्मिक अधिकार तोलामोलाचा. आकाशाएवढे जन्मदाते लाभलेले नारायण महाराज. पण त्यांना पित्याचा सहवास लाभू शकला नाही..! पंढरीच्या कित्येक येरझारा घातलेल्या आपल्या वडिलांच्या पादुका..चरणपादुका त्यांना शिरोधार्य होत्या. नारायण महाराजही पंढरीची नित्याची वारी धरून होते…एकेदिवशी त्यांच्या मनाने घेतलं….पित्यासोबत वारी केली तर? 

 काळ मुघली आक्रमणाचा होता…तरीही हे धाडस केले नारायण महाराजांनी….छत्रपती श्री संभाजी महाराजांचा पाठिंबा होताच…साजेशी पालखी सजवली…तुकोबारायांच्या पादुका पालखीत घातल्या….पण खुद्द तुकोबाराय स्वत:ला जाहिरपणे (आणि स्वत: विशिष्ट अधिकार प्राप्त केल्यावरही) पायीची वहाण म्हणवून घेत असतील तर ते  एकट्यानं पालखीत बसले असते?…कदापि नाही! राजस सुकुमार ज्ञानियांचा ‘राजा’ असलेल्या माऊलींना त्यांनी प्रथम मान दिला असता…! जेष्ठ शुद्ध सप्तमीस नारायण महाराजांनी पालखीसह प्रस्थान ठेवले! त्या दिवशी देहूत मुक्काम ठेवून दुसरे दिवशी अष्टमीस तुकोबारायांची पालखी अलंकापुरीस नेली…देहू आणि आळंदी हाकेच्या अंतरावर..मोठ्या भक्तीभावाने माऊलीस समाधीतून क्षणभर जागृत केले…तुम्हीही चला तुकोबांसवे…तुम्हां दोघांच्या नामगजरात चालू आम्ही पंढरीची वाट! ज्ञानोबा-तुकाराम! ज्ञानेश्वर माऊली..ज्ञानराज माऊली तुकाराम! हा मंत्रच! माऊली गोड हसल्या…नारायण तर तुकोबारायांचे मूल..मुलाचा हट्ट पुरवला पाहिजे…! वैय्यक्तिक पातळीवरचा परमार्थ सार्वजनिक जीवनात आणून क्रांती घडवणा-या ज्ञानोबारायांस वारकरी भक्तांसवे वाटचाल करण्याची कल्पनाच भावली असावी….ज्ञानराज आपल्या वैभवासह पालखीत विराजले….नामाचा एकाच कल्लोळ उठिला….ज्ञानबा! नारायण महाराजांनी पित्याच्या नावाच्या आधी ज्ञानोबारायांचे नाव उच्चारले आणि मग तुकोबारायांचे ! एक आनंदपर्व आरंभले होते…भक्तीगंगेचा उगम ज्ञानोबा-तुकोबा हे दोन थेंब असले तरी ते थेंब जनसागरात मिसळून गेले आणि त्यांच्या अमृतस्पर्शाने सागर महासागर झाला…अध्यात्माचा,नैतिकतेचा,निर्मल,कोमल भगवदभक्तीचा अथांग महासागर! या सागरावरून वाहत येणा-या वा-याने संगे उत्तम आचरणाचे बाष्प वाहवून आणले…आणि उभा महाराष्ट्र चिंब होत राहिला! 

हा क्रम सुरू राहिला काही काळ…बदल हा कालाचा स्थायीभाव. या एकात्म परंपरेत खंड पडला काही कारणाने…देहू आणि आळंदी यांचे पंढरीला जाण्याचे मार्ग भिन्न झाले…पण गंतव्य मात्र तेच राहिले…श्री विठ्ठल! 

थोर भक्त हैबतबाबा चाफळकर अलंकापुरीस वास्तव्यास आले आणि इथलेच झाले…महापूर आला तरीही त्यांनी माऊलींस अंतर दिले नाही…पुढे आषाढी जवळ आली…त्यांनी ज्ञानोबारायांच्या पादुका स्वतंत्र पालखीत ठेवल्या…अल्पावधीतच वैभव वाढले…आणि कैवल्यसाम्राज्य चक्रवर्ती श्री ज्ञानेश्वर महाराज आळंदीहून स्वतंत्र प्रस्थान ठेवू लागले…पण तिथी मात्र तीच राखली…अष्टमी! आणि नामगजरही तोच…ज्ञानबा तुकाराम…ज्ञानोबा-तुकाराम! दोन्ही कडील वारकरी हरिपाठ गातात तो माऊलींचाच…आणि विशेषत: अभंग मात्र तुकोबारायांचे! अर्थात दोघांच्याही सोबतीला नामदेवमहाराज, एकनाथमहाराज,निळोबाराय होतेच…मुक्ताई होत्या,जनाई होत्या…अवघे संतनभोमंडळ होते आणि आजही असतात!  

आधी एकाच मार्गावरील भाविकांना दर्शनाचा लाभ होई…आता दोन वेगवेगळ्या मार्गांवरील भाविकांस हा लाभ मिळू लागला. तुकोबारायांसोबतची वाटचाल आरंभी ज्ञानोबारायांच्या वाटचालीपेक्षा कठीण होती…पण आता दोन्ही मार्ग वैभवसंपन्न झाले आहेत….नारायण महाराज यांनी आरंभ केलेला हा ज्ञान-वैराग्य-आनंद सोहळा मोग-यासारखा बहरला आहे…आपण फुले वेचतो न वेचतो तोच पुन्हा वेल कळ्यांनी बहरू लागलेली  असते…हा सुगंध महाराष्ट्राच्या कणाकणात असाच घमघमत राहो…ही ज्ञानोबा-तुकोबांच्या चरणी विनम्र प्रार्थना….नारायण महाराज आणि हैबतबाबांच्या चरणी वंदन…रामकृष्णहरि! ज्ञानोबा….तुकाराम….ज्ञानराज माऊली तुकाराम! 

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य –  इंद्रधनुष्य ☆ झाशीवाली शौर्य शालिनी ! – भाग – १ – लेखिका : मेजर मोहिनी गर्गे कुलकर्णी (नि.) ☆ प्रस्तुती – जुईली अमोल ☆

? इंद्रधनुष्य ?

झाशीवाली शौर्य शालिनी ! – भाग – १ – लेखिका : मेजर मोहिनी गर्गे कुलकर्णी (नि.) ☆ प्रस्तुती – जुईली अमोल ☆

१८ जूनची सकाळ. आज सूर्याला शेवटचं अर्घ्य ! दामोदरला अलगद बाजूला करून राणी लक्ष्मीबाई निघाली. तोच करारी पोशाख, डोळ्यात निखारे, मनात अतूट निर्धार आणि चित्तात कमालीची स्थिरता! ती जय –पराजयाच्या खूप पुढे निघून गेली होती. १३ मार्च १८५४ रोजी या रणलक्ष्मीनं झाशीच्या दरबारात बुंदेलखंडाचा राजकीय प्रतिनिधी मेजर रॉबर्ट एलिस याच्यासमोर गर्जना केली होती, ‘मेरी झाँसी नही दूँगी!’ ती होती अन्यायाविरुद्ध ललकार, ती होती रक्तातली स्वातंत्र्याची उपजत उर्मी !

“Is Jhansi Rani overrated? Why is she so glorified?” असं सहजपणे विचारणाऱ्या व्यक्तींनी तिचा संघर्ष अवश्य अभ्यासावा आणि या वाक्याचं उत्तर शोधावं. “मोठी झाशीची राणीच लागून गेलीस!” असं एखाद्या धीट मुलीला आजही अगदी सहजपणे म्हंटलं जातं. किती पिढ्या उलटल्या तरी लहान मुली चंद्रकोर,मोत्याची माळ मिरवत झाशीची राणी होऊन स्पर्धेसाठी उभ्या रहातात! असं काय होतं या वीरांगनेत की तिचं धाडस या भारताची ओळख म्हणून गौरवलं गेलं?आघाडीवर राहून सक्षमपणे सैन्यनेतृत्व करणारं लक्ष्मीबाईचं शौर्य हे केवळ प्रासंगिक किंवा परिस्थितीवश आलेलं नव्हतं. तर अगदी बालपणापासून तिच्या चारित्र्यात, तिच्या निर्णयांमध्ये ते दिसून येतं. त्याला सखोल आणि ठाम अशी भूमिका होती. तिची आंतरिक शक्ती,तिचं आत्मबळ तिच्या शौर्यातून प्रकटलेलं दिसून येते. तिचे शब्द अंतस्थ प्रेरणा होऊन सैनिकांचं मन,मनगट बळकट करत असत.

महाराज छत्रासालांकडून थोरल्या बाजीरावांकडे १७२९ साली झाशीची सुभेदारी आली. पुढे पराक्रमी सरदार रघुनाथ हरि नेवाळकरांच्या अथक मेहनत आणि दूरदृष्टीतून झाशी समृद्धीच्या शिखरावर पोहोचली. १८१७ साली पेशवाईचे सगळे अधिकार संपुष्टात आले तेव्हा इंग्रजांनी झाशीला वंशपरंपरागत पद्धतीनं ते सांभाळण्याची परवानगी दिली होती.

पेशव्यांच्या पदरी दिवाणी कामकाज करणाऱ्या मोरोपंतांची ही कन्या मनुबाई (मनकर्णिका) गहू वर्णाची, सुविद्य,संस्कृत साहित्यात विशेष रमणारी, शस्त्रविद्यापारंगत होती. देहयष्टी फार मजबूत नव्हती, पण अंगी साहस मात्र दुर्दम्य! १८४२ साली या तेजस्वी युवतीचा गंगाधरपंतांशी विवाह झाला कर्तव्यबुद्धीला जणू अधिकारांची जोड मिळाली. नेवाळकरांची कुलस्वामिनी महालक्ष्मी. म्हणून तिचं नाव ठेवलं ‘लक्ष्मीबाई’! स्वतंत्रपणे प्रजेसाठी निर्णय घेत त्यांच्यात ती सामावून गेली. तिचा हळदीकुंकू कार्यक्रम राजपरिवारापुरता मर्यादित न ठेवता झाशीतल्या समस्त स्त्रिया, तरुणी यांनाही तिनं सामावून घेतलं. एकमेकींना हळदी कुंकू लावणारे हे हात राणीसाठी एक दिवस शस्त्रं चालवणारे सामर्थ्यशाली हात झाले!

अवघी चार वर्षांची असतांना झालेला मातृशोक, तान्ह्या पुत्राचा वियोग आणि पाठोपाठ गंगाधरपंतही १८५३ साली निवर्तले. अशा किती आघातांना सोसून ती पुन्हा उभी राहिली. तत्कालीन समाजावर रूढीचा घट्ट पगडा असतानाही राणीनं केशवपन करून लाल अलवण नेसण्यास ठामपणे नकार दिला. स्वतःचा राजधर्म जाणत दत्ताकपुत्र दामोदरला मांडीवर घेऊन तिनं प्रशासन हाती घेतलं. इंग्रजांनी अखेरीस झाशी किल्ला, खजिना सगळं ताब्यात घेतलं तरी पुन्हा झाशी आपल्याकडे येणार ही केवढी तिची दृढ इच्छाशक्ती !

इ. स. १८५७ मध्ये जागोजागी भारतीय सैन्यात स्वातंत्र्य समराचा वणवा पसरू लागला. झाशीजवळ नैगांग या लष्करी ठाण्यात सैन्यांनं मोठं बंड पुकारलं. 

‘खुल्क खुदाका |मुल्क बादशाह का |अंमल रानी लक्ष्मीबाईका ||’

ही घोषणा सर्वदूर पसरली. अनेक इंग्रज अधिकारी मारले गेले. या धुमश्चक्रीमध्ये योग्य संधी बघून राणी लक्ष्मीबाई प्रजेला अभय देत पुन्हा झाशीच्या सिंहासनावर आरुढ झाली. फितूर झालेल्या भाऊबंदाना तिनं कैदेत टाकलं. सैन्यासह चालून आलेल्या नत्थेखानाला अद्दल घडवून परत पाठवलं. झाशीनं कात टाकली. बाजारपेठा फुलल्या! सैन्य सशक्त झालं, तोफा बुरुजांवर चढल्या. दारुगोळ्याचा कारखाना सुरू झाला.

राणीचं व्यक्तिमत्व फार अलौकिक होतं. पहाटे व्यायामापासून तिचा दिवस सुरू होत असे. हीच पळत्या घोड्यावरमांड टाकून भाला फेकणारी वीरश्रीयुक्त सुस्नात काया शुभ्र वस्त्रात व्रतस्थ होऊन धर्माचरण करे तेव्हा ती मूर्तिमंत सात्विकता वाटे! तर दरबारात पायजमा, अंगात गडद रंगाचा अंगरखा, डोक्यावर केशरी रंगाची रेशमी रत्नजडित टोपी, त्यावर बांधलेली सुंदर बत्ती, कमरेला जरीचा दुपट्टा आणि त्याला लटकवलेली रत्नखचित तलवार असा एका राज्यकर्तीला शोभेल असा कडक पोशाख आणि करारी मुद्रेनं ती वावरत असे. अतिशय स्पष्टपणे आज्ञा देत ती दिवाणी,फौजदारी खटले ऐकून न्यायदान करणारी ती एक कुशल प्रशासिका होती.

एक प्रभावी सेनापती म्हणून राणीच्या सैन्यात शिस्त, अनुशासन होतंच पण त्याला भावनेचा स्पर्शही होता. युद्धानंतर सैनिकांचे घाव स्वतः बांधण्यासाठी ती जातीनं उपस्थित असे. त्यांच्या कामगिरीवर खूश होऊन त्यांना पदके देऊन गौरवणं, संकटात घाबरून न जाता सैन्याला खंबीर करणं असे असंख्य गुण तिला सेनापती म्हणून वेळोवेळी सिद्ध करतात. या ओळी प्रसिद्ध होत्या –

 जिन्ने (जिसने) सिपाही लोगोंको मलाई खिलाई l

आपने (स्वतः) खाई गुडधानी – अमर रहे झांसी की रानी |

– क्रमश: भाग पहिला 

लेखिका : मेजर मोहिनी गर्गे – कुलकर्णी (नि.)

प्रस्तुती : जुईली केळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) –सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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