हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 411 ⇒ पांव की धूल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पांव की धूल।)

?अभी अभी # 411 ⇒ पांव की धूल? श्री प्रदीप शर्मा  ?

माटी कहे कुम्हार से,

तू क्या रोंदे मोहे।

एक दिन ऐसा आएगा,

मैं रोंदूगी तोहे।।

पांव की धूल, हमारे शरीर की सबसे उपेक्षित वस्तु है। इसीलिए घरों में बाहर के जूते चप्पलों का प्रवेश वर्जित रहता है। रोज सुबह घर को बुहारा संवारा जाता है, धूल मिट्टी को घर से बाहर का रास्ता दिखाया जाता है। दुश्मन को धूल चटाने में भी हमें उतना ही मज़ा आता है, जितना बचपन में मिट्टी खाने में आता था। जो जमीन के अंदर है, वह मिट्टी और जो जमीन के बाहर है, वह सब धूल।

हम मिट्टी से ही पैदा हुए, और हमें मिट्टी में ही समा जाना है। जब हम अपने देश की धरती का गुणगान करते हैं, तो देश की मिट्टी को सर पर लगाते हैं ;

इस मिट्टी को तिलक करो

ये मिट्टी है बलिदान की ;

जिसे हम साधारण धूल समझते हैं, उसे ही रज भी कहते हैं, महात्माओं की चरण रज को केवल शिष्य ही अपने मस्तक पर नहीं लगाते, ब्रज रज में तो भक्त लोटते हुए, गिरिराज की पूरी परिक्रमा करते हैं।।

धूरि भरे अति सोभित स्यामजू,

तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।

खेलत खात फिरै अँगना, पग पैंजनी बाजति पीरी कछोटी।।

आजकल की माताएं भले ही बच्चों को धूल मिट्टी से बचाएं, पहले उनके हाथ पांव धुलवाएं और उसके पश्चात् ही उन्हें गले लगाएं, लेकिन यशोदा जी ने ऐसा कभी नहीं किया। जिसका मन मैला नहीं, उस के तन पर कैसा मैल।

मिट्टी भी कभी मैली हुई है। मिट्टी तो आज सोने के भाव बिक रही है और लोग पैसा कमाने अपनी जमीन जायदाद बेच बेचकर विदेशों में जा रहे हैं। उनका नमक खा रहे हैं।

और इधर कुछ पाखंडी कथित अवतारी पुरुष इस देश की मिट्टी को कलंकित करते हुए, भक्तों से अपने पांव पुजवा रहे हैं, अपने पांव की मिट्टी से उनकी जान का सौदा कर रहे हैं।।

श्रद्धा, अंध श्रद्धा और विश्वास, अंध विश्वास में एक महीन अंतर होता है। जहां आपकी आस्था के साथ खिलवाड़ शुरू हुआ, अंध विश्वास अपना नंगा नाच शुरू कर देता है। नीम हकीमों के खतरों से तो अब सरकार भी जाग उठी है, लेकिन हिंदू समाज में फैले अंध विश्वास और बाबाओं की कथित सिद्धियों और चमत्कारों के प्रति वह ना केवल आंख मूंदे पड़ी है, अपितु वोट बैंक की खातिर उन्हें समुचित सुरक्षा और राजाश्रय भी प्रदान कर रही है।

हर बड़े बाबा, महात्मा और कथित जगतगुरु के यहां नेता, अभिनेता और उद्योगपति को आसानी से देखा जा सकता है। इनके कथा, प्रवचन और सत्संगों का श्रीगणेश यजमानों से ही शुरू होता है। मान ना मान, मैं तेरा यजमान।।

साधु संतों का सम्मान हमारी सनातनी परम्परा रही है। जो भी संत हिंदू समाज और सनातन धर्म की बात करेगा, हमारी आस्था स्वाभाविक रूप से उधर ही दौड़ पड़ेगी। पहले मुफ्त भंडारे और सत्संग और बाद में पहले ब्रेन वाश और तत्पश्चात् सत्यानाश। और शायद यही हुआ होगा हाथरस में।

अपने आपको श्री हरि विष्णु का अवतार कहने वाले इस पाखंडी सूरज पाल की मिट्टी से तिलक करने के चक्कर में हाथरस के कितने अभागे इंसानों को अपने प्राणों का बलिदान देना पड़ा। देश की मिट्टी और आस्था को कलंकित करने वाला यह शैतान क्या अदृश्य होकर पूरे देश को बेवकूफ बनाएगा।।

एक मछली सारे तालाब को सदियों से गंदा करती चली आ रही है और बदनाम बेचारी अन्य दूध सी धुली मछलियां हो रही हैं। यह एक गंदी मछली ही शाश्वत और सनातन है। अगर इसका इलाज हो जाए, तो शायद आस्था का तालाब पूरी तरह स्वच्छ और निर्मल हो जाए। और अगर फिर भी पूरा तालाब ही गंदा रहा, तब तो सभी मछलियों की खैर नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 122 ☆ ।।मुक्तक।। ☆ ।।स्वर्ग से भी सुंदर धरती पर संसार चाहिये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 122 ☆

।।मुक्तक।। ☆ ।।स्वर्ग से भी सुंदर धरती पर संसार चाहिये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हर दिल में प्यार का   उपहार   चाहिये।

एक दूजे से जुड़ा हुआ सरोकार चाहिये।।

चाहिये जीने का हक़ हर किसीके लिए।

प्रेम की डोरी में   बंधा   संसार चाहिये।।

[2]

महोब्बत   का     बहता सैलाब    चाहिये।

भावनाओं का हरओर बस फैलाव चाहिये।।

चाहिये प्यार से भी प्यारा   रिश्ता  हमको।

दुनिया में हमें अब कोई नहीं दुराब चाहिये।।

[3]

एक धरती इक़आसमां संबको मिले छाया है।

हवा पानी इसको कौन कब बांध पाया है।।

चाहिये प्रभु का हाथ हर किसी  के सर पर।

बस मिट जाए संसार पर पड़ा  बुरा साया है।।

[4]

नफरत का नामोनिशान मिट जाये जहान से।

बस किरदार की खुशबू आये हर मकान से।।

चाहिये नहीं हमें बारूद और बम की दुनिया।

हमकदम हमसाया नजरआए हर इंसान से।।

[5]

तेरा मेरा इसका उसका नहीं हर बार चाहिये।

बिना छल कपट के हर एक व्यापार  चाहिये।।

चाहिये सम्मान से   चिंतन मनन की दुनिया।

स्वर्ग से भी सुंदर धरती    पर संसार चाहिये।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 184 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – क्या भरोसा जिंदगी का ! ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “क्या भरोसा जिंदगी का !। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 184 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – क्या भरोसा जिंदगी का ! ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

क्या भरोसा जिंदगी का, बुलबुला है नीर का

पेड़ अधउखड़ी जड़ों का ज्यों नदी के तीर का ।

कभी आँधी की घड़ी में जो खड़ा फूला-फला

वही वर्षा की झड़ी में गिर पड़ा औं’ बह चला ।

ज्यों तरल आंसू नयन का विवश मन की पीर का ।।१।।

कभी बासंती पवन ने प्यार से हुलसा दिया

कभी झंझा के झकोरों ने जिसे झुलसा दिया ।

नियति जिसकी, ज्यों कोई बंदी बँधा जंजीर का ।।२।।

चार दिन के लिए जो संसार में मेहमान है

व्यस्तता में आज की जिसको न. कल का ध्यान है ।

साथ भी जिसको मिला तो नाशवान शरीर का ।।३।।

एक मिट्टी का खिलौना डर जिसे आघात का

ताप का भी, शीत का भी, वात का, बरसात का ।

ज्ञान कुछ जिसको न अपनी ही सही तासीर का ।।४।।

नहीं कोई अंदाज जिसको स्वतः अपनी राह का

पर न कोई अंत जिसकी चाह औ’ परवाह का ।

भटकना जिसको जगत में सदा एक फकीर सा ।।५।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रकाश वाट… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ प्रकाश वाट… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

चालत होतो मी एकाकी आयुष्याची वाट

पसरत होता अवतीभवती अंधकार घनदाट

पूर्वाचल कधी निघेल उजळून नव्हते ठाऊक मजला

ठेचाळत धडपडत चाललो रेटीत काळोखाला ||१ ||

*

कर्म भोग हा असा न जाई भोगून झाल्याविना

गिळेल मज अंधार परंतु राहतील पाऊल खुणा

जे होईल ते खुशाल होवो मधे थांबणे नाही

असेल संचित त्याचप्रमाणे न्यायनिवाडा होई ||२ ||

*

निश्चय ऐसा होता उठली नवीन एक उभारी

शीळ सुगंधित वाऱ्याची मज देई सोबत न्यारी

बेट बांबूचे वन केतकीचे पल्याड मिणमिणता दीप

दूर दूर तो प्रकाश तरीही मज भासला समीप हे||३ ||

*

हे देवाने जीवन आम्हा दिधले जगण्यासाठी

उषःकाल तो नक्कीच आहे अंधाराच्या पाठी

मनात आली उसळून तेव्हा उत्साहाची लाट

त्या मिणमिणल्या दीपाने मज दाविली प्रकाश वाट ||४||

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “कारण…” ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ ☆

सौ विजया कैलास हिरेमठ

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “कारण…” ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ 

निद्रस्थ स्तब्ध राहण्या अनेक कारणे

पेटून उठण्या एकच कारण पुरते ….

न करण्याची अनेक कारणे

करण्यासाठी फक्त एकच कारण असते..

 

दुःखाची अनेक कारणे

भर उन्हात एक झुळूक पुरते

अनेक संकटे मोठी असताना

सुखासाठी एकतरी कारण नक्की असते….

 

दोष देण्या अनेक कारणे

नाते सहज तोडू पाहते

जोडून राहण्या एकच कारण

प्रेमाने जग जिंकता येते….

 

अश्रूंसाठी अनेक कारणे

एकच कारण ओठावर हसू फुलवते

हार मानण्या अनेक कारणे

जिंकण्यासाठी एकच कारण असते….

 

जग हे मोठे,जगणे छोटे

पुरून येथे उरता येते

एक कारण जगण्याचे

मरणालाही परतून लावते…..

 

जीवन मरण इथे आपण शरण

तरीही जगण्याची एक आशा पुरते

दोन श्वासातील अंतर जीवन

त्या श्वासाची सोबतही अमूल्य इथे ठरते….

 

स्वप्न आणि ध्येयासाठी पळताना

सुख, शांती आणि समाधानच जिंकते

शोध त्या एक कारणाचा लागता

आयुष्य सहज सुंदर सोपे होते….

💞शब्दकळी विजया 💞 

©  सौ विजया कैलास हिरेमठ

पत्ता – संवादिनी ,सांगली

मोबा. – 95117 62351

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ हे देवा… ☆ सुश्री मंजुषा सु. आफळे ☆

सौ.मंजुषा सु. आफळे

🌳 विविधा 🌳

☆ हे देवा… ☆ सुश्री मंजुषा सु. आफळे  ☆

हे देवा.

शि.सा.न.वि वी.🙏

खरे तर,पत्र लिहिण्याचा अट्टाहास नकोच आहे. कारण आपण तर सतत एकमेकांच्या जवळच असतो.त्यामुळे माझ्या आत काय खळबळ उडाली आहे ते तू जाणतो आहेस.तूच माझा सखा सोबती आहेस.

पण कधी कधी वाटतं तू मला एकटीला चालायला यावं म्हणून मध्येच थोडावेळ हात सोडतोस की काय…कारण मग मला एकटे पण जाणवत,..आणखी मग लहान मुलांसारखे गांगरून जायला होतं..

मी एखादी गोष्ट बरोबर करते आहे ना? तुला ते आवडेल का? अश्या प्रश्नांची उत्तरे शोधण्याची जबाबदारी पडते.

देवा,तू सर्व मानवाला चांगल्या गोष्टी दिल्या आहेस.

पण वेळेवर कधी सापडत नाहीत.आता,मला मान्य आहे की ही आमचीच चूक आहे. तरी पण हे देवा, तुझ्या समोर जी आमच्या जीवनात उलथापालथ होते आहे.तेव्हा मात्र गडबडायला होतं.आणी मग तुझ्या शिवाय आम्हाला कुणाचा आधार आहे,. बरं

तेव्हा तू नेहमीच आमच्या हृदयात राहा.आत्माराम,जो एक चैतन्य पुरुष आहे. तो जागता पहारा देत आहे याची सतत जाणीव होऊ दे.त्यासाठी चांगली बुध्दी दे.व

आम्हाला सतत तुझ्या सेवेची आठवण येऊ दे.आणी जे रोज काहीतरी आम्ही चुकतो ते तू माफ करशील ना.. बसं बाकी काहीच मागणार नाही.

जीवन सार्थकी लावायचे आहे.त्यासाठी मार्गदर्शन हवं आहे.तुच कर्ता आणि करविता आहेस.त्यामुळे आमच्या साठी जे चांगले आहे.तेच तू देणार ही खात्री आहे. त्यासाठी फक्त तू सोबत राहा. एवढीच इच्छा आहे.. बाकी,तुझी आठवण झाली नाही, असा एकही दिवस नसावा…हिच अपेक्षा..

आता,हे पत्र लिहून घेणार पण तूच आहेस.कोटी कोटी रूपांत असणार्या रोज वेगवेगळ्या घटनां मधून विश्व रुप दर्शन देणार्या

तुला माझे कोटी कोटी प्रणाम.🙏

सर्वांना सुखी ठेवावे.हेच मागणे तुझीया चरणी..🙏

तुझीच,.. सौ. मंजुषा.

© सुश्री मंजुषा सु. आफळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मोबदला… ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

श्री मकरंद पिंपुटकर

🌸 जीवनरंग 🌸

मोबदला… ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर 

सरगम कुमारचा चेहरा सात्विक संतापाने लालपिवळा झाला होता. बंगाली बाबू खूप भावनाप्रधान असतात असं इन्स्पेक्टर भोसले इतके दिवस ऐकून होते, आज प्रत्यक्ष पहात होते. 

सरगम कुमार ! इलेक्ट्रिक सतार वाजवणारा, शास्त्रीय आणि पाश्चिमात्य संगीताचा मिलाप आणि मिलाफ घडवणारा आणि त्याच्या या फ्युजन शैलीने तरुणाईत लोकप्रिय असलेला – संगीत क्षेत्रातले एक अग्रगण्य नाव. आजवर पुण्यात त्याच्या अनेक मैफिली गाजल्या होत्या आणि नुकत्याच झालेल्या एका मैफिलीच्या आयोजकांविरूद्ध तक्रार नोंदवण्यासाठी आज तो स्वतःच पोलीस स्टेशनमध्ये हजर झाला होता. 

“ये कॉलेज का छोकरा लोग ने मेरा प्रोग्राम arrange किया उनके कॉलेज मे. बोले भोत पब्लिक आएगा. मेरे सेक्रेटरी से पैसे का बात पक्का किया. बोले ये महाराष्ट्र मे पानी की किल्लत है, पानी का भोत लफडा हुवा है, तो जो पैसा आयेगा वो उस के लिये इस्तेमाल करेगा. मैं सोचा, बच्चे कूछ नेक काम कर रहे है, तो मैं भी हा बोला. 

प्रोग्राम तो हूवा, लेकीन पब्लिक तो आयाही नहीं. फिर भी मैं बजाया, परफॉर्म किया. बाद मे बच्चे लोग बोलते है, लोग आयेही नहीं, प्रोग्राम लॉस मे गया, और मेरा बाकीका पैसा अभी देने से इन्कार कर रहे हैं. ऐसा कैसे चलेगा ? मैंने जो कला पेश की हैं, उसका पुरा मोबदला मिलना चाहिए के नहीं ? वो कूछ नहीं, तुम मेरा कंप्लेंट लिख्खो,” सरगम भडभुंज्याच्या भट्टीतील चण्यादाण्यांसारखा तडतडत होता.

इन्स्पेक्टर भोसले शांतपणे ऐकून घेत होते. देशभरात लोकसभेच्या निवडणुका चालल्या होत्या. नेमका ज्या संध्याकाळी हा कार्यक्रम आयोजित केला होता, त्याच दिवशी पुण्यात दोन ठिकाणी सत्ताधारी पक्ष आणि विरोधी पक्ष दोघांच्याही मोठ्या नेत्यांच्या सभा लागल्या. वाहतुकीचे मार्ग बदलले गेले, काहींनी सभांना उपस्थिती लावली, बरेच जण – कुठे त्या गर्दीत अडका – म्हणत घरीच थांबले, आणि त्यामुळे कार्यक्रमाचा बऱ्यापैकी फियास्को झाला. आयोजक मानधन कमी करता येईल का विचारत होते आणि पैसे उभे करण्यासाठी महिनाभराची मुदत मागत होते. आणि इथे सरगम कुमार मात्र नियमावर बोट ठेवत हटून बसला होता.

“सरगमजी, आप का कहना एकदम उचित है. लेकीन रिपोर्ट लिखने से पहले मैं आप को एक कथा सुनाता हूं, उसके बाद, आप जो कहेंगे, वैसे करेंगे,” भोसले सरांनी मखलाशी केली. 

“१८९२ साली अमेरिकेतील प्रसिद्ध स्टॅनफोर्ड विद्यापीठात एक अनाथ विद्यार्थी होता. त्याची फी भरायची बाकी होती, आणि पैसे उभे करण्यासाठी त्याने आणि त्याच्यासारख्याच आणखी एका गरजू विद्यार्थ्याने, विद्यापीठात, पदरेवस्की नावाच्या एका ख्यातनाम युरोपियन पियानोवादकाचा कार्यक्रम आयोजित केला,” भोसले सर सांगू लागले, “त्या काळी, पदरेवस्कीला, त्या कार्यक्रमाचे, तब्बल २००० डॉलर द्यायचे असं ठरलं होतं. पण झालं भलतंच.

तुमच्या कार्यक्रमाला जसे लोक येऊ शकले नाहीत, तसे काही ना काही कारणाने याही कार्यक्रमाला लोक आले नाहीत. तिकीट विक्रीतून जेमतेम १६०० डॉलर उभे राहिले. त्या दोन विद्यार्थ्यांनी ते सगळे पैसे पदरेवस्कीला देऊ केले आणि उरलेल्या रकमेचा पुढील तारखेचा (post dated) चेक देऊ केला.”

सरगम कुमारला कहाणीत रस निर्माण झाला. ही तर आपल्यासारखीच कथा आहे हे ध्यानात येऊन, तो पुढे काय झालं हे जाणण्यासाठी, सरसावून बसला.

पदरेवस्कीने सगळी कथा जाणून घेतली. तो एक सहृदय कलाकार होता. आपण सगळे बहुधा विचार करतो की, मी याला मदत करत बसलो तर माझं काय होईल, मला यातून काय फायदा होईल ? पदरेवस्कीने वेगळ्या पद्धतीने विचार केला – मी जर यांना मदत केली नाही, तर यांचं काय होईल ? यांना कोण मदत करेल ?

त्याने तो उर्वरित रकमेचा चेक फाडून टाकला. जमा झालेले ते १६०० डॉलर त्या दोघा विद्यार्थ्यांना परत केले, सांगितलं, आधी तुमची फी भरा, या कार्यक्रमाच्या आयोजनासाठी तुमचे काही पैसे खर्च झाले असतील तर ते वजा करा आणि त्यानंतर काही पैसे उरले तरच तुम्ही ते मला द्या. 

कालचक्र सुरू राहिले. पदरेवस्की पोलंड देशाचा नागरिक होता. पहिले जागतिक महायुध्द संपल्यावर, १९१९ साली, स्वतंत्र पोलंडचा तो पहिला पंतप्रधान झाला. युद्धजन्य परिस्थितीमुळे, त्यावेळी पोलंडच्या लाखो नागरिकांवर उपासमारीची वेळ ओढवली होती. देशाकडे ना अन्न होते, ना अन्न विकत घेण्यासाठी पैसा.

पदरेवस्कीने अमेरिकन राष्ट्राध्यक्ष विल्सन यांच्याकडे मदतीची याचना केली. अमेरिकेच्या अन्न आणि मदत प्रशासनाच्या हर्बर्ट हूव्हरने अतिशय तत्परतेने मोठ्या प्रमाणावर अन्नधान्य साठा उपलब्ध करून दिला (हे हूव्हर पुढे स्वतः अमेरिकन राष्ट्राध्यक्ष झाले). पोलंडच्या नागरिकांवरील संकट टळलं.

पंतप्रधान पदरेवस्की हूव्हरला भेटले. आपल्या नागरिकांना केलेल्या समयोचित मदतीसाठी आभार मानण्यासाठी त्यांना शब्द सापडेनात. पण हूव्हर यांनी पदरेवस्की यांना थांबवलं, ते म्हणाले, सर, तुम्ही माझे आभार मानायचे काहीच गरज नाही. तुम्हाला कदाचित आठवणार नाही, पण २७ वर्षांपूर्वी, अमेरिकेतील दोन विद्यार्थ्यांना कॉलेजची फी भरायला तुम्ही मदत केली होतीत, त्यातला एक विद्यार्थी मी होतो.”

भोसल्यांची गोष्ट संपली होती. सरगम कुमार त्याच्या तंद्रीत हरवला होता. त्याने त्याच्या असिस्टंटला बोलावले, आणि म्हणाला, “तू जा, वो छोकरा लोग को बोल दे, की वो बाकीका पैसा देने का कोई जरुरी नही है. मेरे को मेरा पुरा मोबदला मिल गया. और हां, मेरी तरफ से ये चेक लेकर जाना और वो छोकरा लोग को देना. बोलना किसानोंको – गाँव में पानी के लिये मेरी तरफ से ये मदद. 

काली मां ने आजतक इस सरगम को भोत दिया हैं. उस मे से थोडा तो देना मेरा फर्ज बनता है.” 

डोळ्यातले पाणी पुसत, घशातील आवंढा गिळत, सरगम कुमारने भोसले सरांशी हस्तांदोलन केलं, आणि तो निघून गेला. आणि भोसले सर, गरमागरम चहाचा कप हातात घेऊन, कार्यक्रमाच्या आयोजकांना ही माहिती देण्यासाठी फोन करू लागले.

© श्री मकरंद पिंपुटकर

चिंचवड

मो ८६९८०५३२१५   

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ सुख म्हणजे नक्की काय असतं…??? ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

डॉ अभिजीत सोनवणे

© doctorforbeggars 

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☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ सुख म्हणजे नक्की काय असतं…???  ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

सोहम ट्रस्टचे हितचिंतक आणि माझे मित्र यांनी एके दिवशी व्हाट्सअप वर एका कुटुंबाची माहिती दिली आणि यांच्या संदर्भात काही करता यईल का ? असं विचारलं.  दि 14 मे 2024 रोजी मी या कुटुंबाला भेटायला त्यांच्या घरी गेलो. 

घर कसलं ? दोन इमारतींमध्ये एक मोकळी जागा… तिथे या कुटुंबाने संसार मांडला होता…! 

एक चिमणा…एक चिमणी… चिमण्याची वृद्ध आई आणि चिमणा चिमणीची दोन लहान पिल्लं एवढा हा संसार…! 

चिमणा धडधाकट होता, तो रिक्षा चालवायचा…  बाहेर जाऊन, वृद्ध आई आणि लहान पिल्लांसाठी दाणे गोळा करून संध्याकाळी घरी परत यायचा….! 

चिमणी सुद्धा चिमण्याला मदत करायची… तिच्या परीने संसाराला हातभार लावायची…. 

चिमण्याची वृद्ध आई घरट्यात दिवसभर एकटी असायची…. पिल्लं शाळेतून घरी आली की त्यांना पंखाखाली घेऊन गोष्टी सांगायची….

एकंदर सगळं कसं दृष्ट लागण्यासारखं चाललं होतं…. आणि एके दिवशी खरंच दृष्ट लागली…

काही वैद्यकीय परिस्थितीमुळे चिमण्याचा डावा पाय अक्षरशः खुब्यातून कापून काढावा लागला…

घरचा कर्ता पुरुष खाटेवर असहायपणे पडून होता… खंबीर नवऱ्याची असहाय्य अवस्था पाहून, खांबा आड लपून चिमणी मनसोक्त रडून घ्यायची…

चिमण्याच्या वृद्ध आईचा डावा डोळा पूर्ण निकामी, त्याही अवस्थेत ती पिलांना धीर द्यायची….होईल बाळांनो, सगळं व्यवस्थित काळजी नका करू, चला तुम्ही अभ्यासाला लागा….! ती धीर द्यायची. 

अभ्यासाचं नाटक करत पिलंही मग पुस्तकाच्या आड लपून पोटभर रडून घ्यायची…

आपण खचलो नाही, हे नाटक दिवसभर म्हातारी उत्तम वठवायची…. पण रात्री सर्व सगळे झोपले की पाय तुटलेल्या पोराकडे पाहून हिला जोरात रडावसं वाटायचं…. पण रडायचीही चोरी…. कारण ती जर रडली तर बाकीचे सगळे तुटून जातील….!

मण्यांना जोडणारा आपण धागा आहोत…. हा धागा तुटला तर मणी निखळतील, याची म्हातारीला पुरेपूर जाणीव होती….

एक डोळा अधु …तरीही ही म्हातारी धडपडत चाचपडत दाराची कडी हळूच काढून घराबाहेर जायची… बाहेर रस्त्यावर एकही माणूस नसायचा….  

बेवारस कुत्री, मांजरं, अगोदरपासूनच आकाशाकडे तोंड करून कोणालातरी ओरडून त्यांच्या भाषेत काहीतरी सांगत असायची… ही भाषा करुण असते…. 

म्हातारी मग त्यांच्याच आवाजात आवाज मिसळून त्यांच्यातलीच एक व्हायची…

जनावर आणि माणूस यांच्यात मग फरकच उरायचा नाही…! 

दुःखाला जात पात धर्म लिंग काहीही नसतं…! 

कुत्र्या मांजराच्या साथीने रडून घेऊन ती मन मोकळं करायची …. हळूच घरात येऊन चिमण्याच्या डोक्यातून हात फिरवायची… जिथून पाय तोडला आहे, त्या जखमांवरच्या पट्ट्यांवर खरबरीत हात फिरवायची… 

वेदनेनं तळमळत असलेल्या चिमण्याला झोप तरी कशी यावी ? तो जागाच असायचा…

तो आईला विचारायचा , ‘आई इतक्या रात्री दिसत नसतानाही बाहेर कुठे गेली होतीस ?? 

‘अरे बाळा, आज दिवसभर नळाला पाणीच आलं नाही…. आता रात्री तरी पाणी येतंय का ? हे बघायला बाहेर नळावर गेले होते… तू झोप !’

तो इतक्या त्रासातही गालात हसायचा आणि विचारायचा, ‘नळाला पाणी येतंय की नाही, हे बघायला दोन तास लागतात आई ?’ 

‘अरे तसं नव्हे, आपल्या दारासमोर इतकी कुत्री मांजरं रडत होती…  मलाही झोप येईना, मग बसले त्यांच्याच सोबत जरा वेळ….’ 

‘त्यांच्यासोबत तू सुद्धा रडत होतीस ना आई ?  कुत्र्या मांजरांच्या आवाजाबरोबर मिसळलेला मला तुझा आवाज सुद्धा कळतो की गं आई …’

कापलेल्या पायाच्या वेदनेपेक्षा, डोक्यात उठलेली ही सणक जास्त वेदनादायी होती….! 

म्हातारी तेवढ्यातून सुद्धा हसायचं नाटक करत म्हणायची, ‘मला मेलीला काय धाड भरली रडायला… भरल्या घरात ?’ 

एक डोळा नसलेल्या आजीचा, दुसरा डोळा मात्र यावेळी दगा द्यायचा… या दोघांचं संभाषण ऐकून…. तो स्वतःच पाणी पाणी व्हायचा …

आणि हेच पाणी मग चिमण्याच्या गालांवर अभिषेक करायचे…. म्हातारीच्या नकळत….! 

चिमणा मग तोडलेल्या पायाच्या पट्ट्यांवर दोन्ही हात ठेवून वेदनेनं कळवळत आईला म्हणायचा, ‘आई बहुतेक नळाला पाणी आलंय बघ आत्ता…’ 

हो रे हो, म्हणत म्हातारी पुन्हा धडपडत घराबाहेर जायची आणि दोन तास घरात परत यायचीच नाही…!

दिवसभर थांबवून ठेवलेलं पाणी, आता मध्यरात्री कोसळायचं एखाद्या धबधब्यासारखं…! 

घराबाहेर नळाला पाणी येत असेलही… नसेलही…. परंतु चिमण्याची उशी मात्र रोज सकाळी ओली चिंब भिजलेली असायची…. कशामुळे काही कळलं नाही बुवा ! 

हा मधला काळ गेला…. या काळामध्ये चिमणीने आणि वृद्ध आजीने घरटं सांभाळलं…. 

काही काळानंतर, हा सुद्धा जिद्दीने उठला…. म्हणाला, ‘फक्त डावाच पाय कापला आहे…. रिक्षा चालवायला अजून माझे दोन हात शिल्लक आहेत…. रिक्षाचे ब्रेक दाबायला उजवा पाय लागतो,  तो ही माझ्याकडे शिल्लक आहे…. इतकं सगळं शिल्लक आहे, तर मग मी गमावलंच काय… ?

त्याच्या या वाक्यावर आख्य्या घरात चैतन्य पसरलं…! 

याही परिस्थितीत काही काळ सुखाचा गेला…. पण, अशी काही परिस्थिती उद्भवली की त्याच्या चिमणीला गुडघ्याचे आजार उद्भवले आणि ती कायमची अपंग झाली….! 

स्वतःचा पाय कापला जाताना जितका तो व्यथित झाला नसेल, तितका तो चिमणीला अपंग अवस्थेत पाहून व्यथित झाला…. कोलमडला…. ! 

एक पायाचा चिमणा आणि दोन्ही पाय असून नसलेली चिमणी…. दोघांच्याही डोक्यावर घरटं सांभाळण्याची जबाबदारी….! 

नळाला पाणी आलंय का बघते म्हणत, म्हातारी मात्र रोज रात्र रात्रभर घराबाहेर राहू लागली…. उश्या भिजतच होत्या… पुस्तका आड दोन्ही पिलांचे डोळे सुजतच होते…. 

याही परिस्थितीत तो खचला नाही… नेहमी तो म्हणायचा, ‘माझे दोन हात आहेत आणि उजवा एक पाय आहे मी काहीही करू शकतो….!’ 

ज्यांच्याकडे सर्व काही आहे आणि तरीही ज्यांना काही करायचं नसतं, अशांसाठी ही चपराक आहे ! 

या सर्व अवस्थेत या जिद्दी कुटुंबाने परिस्थितीशी सामना केला…. जुळवून घेतलं….! 

परंतु आता मात्र या परिस्थितीला सुद्धा खरोखर दृष्ट लागली….

चिमण्याच्या हाताला काहीतरी इन्फेक्शन झालं …. 

ते वाढलं…. आणि डॉक्टरांनी उजवा हात कापावा लागेल असं सांगितलं….! 

या वाक्याबरोबर मात्र पहिल्यांदाच चिमणा कोसळला आणि त्यानंतर म्हातारी….! 

चिमणीला तर पायच नव्हते, ती खाटेवरच पडून होती…. म्हणून तिच्यावर कोसळायची वेळ आलीच नाही… पण आता मात्र ती पूर्णतः ढासळली….!

दोन्ही लहान पिलं आजीच्या थरथरत्या पंखाखाली निपचित पडली…. ! 

हीच ती वेळ…. माझ्या मित्राने मला सांगितले या कुटुंबासाठी काही करता येईल का ते बघ…. 

आणि म्हणून आज मी इथे होतो….! 

गेले तीन तास मी इथे आहे…. आयुष्यातले चढ उतार रोज बघायची मला सवय आहे… 

तरीही चिमणा चिमणी आणि म्हातारीच्या वेदना ऐकून…. एक फोन येतोय हं… असा बहाणा करत, मी किती वेळा घराबाहेर आलो असेन याची गणती नाही….! 

इतक्या वेळा घराबाहेर आलो, पण म्हातारीच्या घराबाहेर मला कुठेही नळ मात्र दिसला नाही…. ! 

म्हातारीच्या मनातला तो नळ, मला किती वेळा भिजवून गेला…. कसं सांगू…? 

शेवटी चिमण्याला आणि म्हातारीला हात जोडून म्हणालो, ‘आम्ही तुम्हाला काय मदत करू ?’ 

ते स्वाभिमानी कुटुंब यावेळी निःशब्द झालं… आणि मला माझीच लाज वाटली…. ! 

‘चिमण्या, जोपर्यंत तू “समर्थ” होत नाहीस तोपर्यंत किराणा भरून देऊ…?’ मी निर्लज्जपणे विचारलं. 

‘नको माऊली’, चिमण्या अगोदर म्हातारी हात जोडत बोलली. 

‘पोरांच्या शिक्षणाची जबाबदारी घेऊ ?’ 

‘नको काका; आम्हाला दोघांनाही स्कॉलरशिप मिळते त्यात आमचं शिक्षण होतं…’  मोठी पोरगी चिवचिवली…

खाटेवर अगतिकपणे पडलेल्या ताईकडे मीच पाय तुटलेल्या माणसासारखा गेलो आणि तिला म्हणालो, ‘अगं ताई, तुझ्या उपचारांचा खर्च करूया का आपण…?’

ती म्हणाली, ‘नको दादा माझा सगळा उपचार ससून मध्ये सुरू आहे, तिथं काही पैसे लागत नाहीत… शिवाय ससून मध्ये एक समाजसेवी संस्था आहे ती आम्हाला मदत करते आहे….’ 

शेवटी पाय ओढत, चिमण्याकडे गेलो आणि म्हणालो, ‘अरे बाबा, तू तरी सांग, आम्ही कशी मदत करू तुम्हाला…?’ 

माझे जोडलेले हात हाती घेऊन डोळ्यात अश्रू आणून तो म्हणाला, ‘डॉक्टर, माझा उजवा हात कापला जाऊ नये इतकीच प्रार्थना करा… 

‘मी परत रिक्षा चालवून माझं संपूर्ण कुटुंब पुन्हा चालवू शकेन, इतकीच प्रार्थना करा…’ 

‘मी आणि माझं कुटुंब कोणावर सुद्धा अवलंबून राहणार नाही इतकीच प्रार्थना करा…’

‘आणखीही काही दुःख मिळाली तर ती सहन करण्याची ताकद मला मिळो, इतकीच प्रार्थना करा….’  

‘बस आणखी तुमच्याकडून दुसरं काहीही नको…!!!’

त्याने नमस्कारासाठी हात जोडले…

त्याच्या या वाक्यावर मला रहावलं नाही…. आपोआप त्याच्या खांद्यावर मी डोकं टेकवलं आणि माझा बांध फुटला… 

त्याचा खांदा माझ्या अश्रूंनी भिजला…. 

या उपरही माझ्या खांद्यावर हात थोपटून तोच म्हणाला, ‘काळजी करू नका डॉक्टर… सगळं काही होईल व्यवस्थित…. !!! 

कोण कोणाला मदत करत होतं …हेच कळत नव्हतं…! 

यानंतर म्हातारी लगबगीने उठून बाहेर जायला निघाली…. अस्तित्वातच नसलेल्या नळाला पाणी येतंय की नाही, हे बघण्यासाठी म्हातारी कदाचित बाहेर गेली असावी… आता ती दोन तास येणार नाही, हे मला माहीत होतं….!!! 

एका गरीब कुटुंबाला मदत करायला गेलेलो मी, तिथून बाहेर पडताना आज मीच खूप श्रीमंत झालो… 

सुख म्हणजे नक्की काय असतं, हे मलाही आजच समजलं… !!! 

(अत्यंत महत्त्वाची टीप :  हे स्वाभिमानी कुटुंब स्वतःच्या तोंडाने काहीही मागत नसलं, तरी सुद्धा यांच्या घराला छप्पर नाही, फाटकी ताडपत्री आहे, येत्या पावसाळ्यात ही फाटकी ताडपत्री आणखी फाटून घराचा चिखल होणार आहे.  घरात दोन अपंग व्यक्ती, वृद्ध आई आणि दोन लहान मुलं राहतात…. सबब या कुटुंबाने काहीही मागितले नाही तरी आपण त्यांच्या घराला पत्रे लावून देणार आहोत. बघू.  त्याच्या घरून निघताना तो माझ्या खांद्यावर थोपटून म्हणाला होता, ‘डॉक्टर, काळजी करू नका, होईल सगळं व्यवस्थित…. त्याच्या याच शब्दांवर माझाही विश्वास आहे ….!!!) 

© डॉ अभिजित सोनवणे

डाॕक्टर फाॕर बेगर्स, सोहम ट्रस्ट, पुणे

मो : 9822267357  ईमेल :  [email protected],

वेबसाइट :  www.sohamtrust.com  

Facebook : SOHAM TRUST

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ सर्वात श्रीमंत असलेला गरीब… – संकलन : प्रा. माधव सावळे ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? इंद्रधनुष्य ? 

☆ सर्वात श्रीमंत असलेला गरीब… – संकलन : प्रा. माधव सावळे ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

शाळेने पत्रक काढलं – यंदाच्या वर्षापासून शाळेतल्या सर्वात गरीब मुलाला आर्थिक मदत द्यायची आहे, तेव्हा शिक्षकांनी प्रयत्नपूर्वक अचूक मुलगा निवडावा,ज्यायोगे ही मदत योग्य विद्यार्थ्याला/विद्यार्थिनीला मिळेल !

आता सर्वात गरीब मुलगा शोधणे म्हणजे, खरोखर पंचाईतच होती. ही छोटी मुलंसुद्धा इतकी नीटनेटकी राहतात की,अगदी एक विजार, एक सदरा असेल,तरी तो रोज धुऊन-वाळवून त्याची इस्त्री केल्यासारखी घडी करून मगच तो घालतात.

गरीब मुलगा शोधायचा कसा ? आणि प्रत्येकाला विचारायचं तरी कसं, तुमच्यात कोण गरीब; तेही सर्वात गरीब म्हणून? मोठीच अडचण होती. तीन – चार दिवस नुसता अंदाज बांधण्यात गेले. वयाने मोठ्या माणसांमधे गरीब माणूस शोधणं सोप्पं आहे; पण लहान मुलांमधे अडचणीचं. शेवटी दोन-चार मुलांना हाताशी घेतलं, जी गाडीने शाळेत यायची आणि गाडीनेच घरी जायची. 

मधल्या सुट्टीत अचानक वर्गात आलो तर ती सफरचंद खातांना मला दिसायची. अशा मुलांना विचारलं, “मला एक मदत कराल का? आपल्या वर्गातला सर्वात गरीब…….?”

क्षणाचाही विलंब न करता सर्वानी एकच नाव उच्चारले, “सर आपल्या वर्गातला तो ज्ञानेश्वर आहे नं, तो सर्वात गरीब आहे. आम्ही सगळे त्याला माऊली म्हणतो. त्याची स्थिती फार खराब आहे.”

मुलांनी एका झटक्यात प्रश्न सोडवला होता. “कशावरून म्हणता?”

“सर. त्याचा सदरा दोन- तीन ठिकाणी तरी फाटलाय. त्याने शिवलाय; पण फाटलेला शर्ट घालतो. त्याची खाकी पँट तर नीट बघा, मागून दोन ठिगळं लावलेली आहेत. चपला त्याला नाहीतच. मधल्या सुट्टीत आम्ही डबा उघडतो. तो मात्र प्लॅस्टीकच्या पिशवीतून अर्धी भाकरी आणतो. सर,ती भाकरीही कालचीच असते. भाजी कुठली सर? गुळाचा खडा असतो. आम्ही सांगतो,तो सर्वात गरीब आहे. शाळेने त्याच मुलाला मदत द्यायला हवी.”

मुलं एखाद्या खळाळत्या प्रवाहासारखी पुढे बोलतच राहीली. पण मला ते ऐकू येणे शक्य नव्हते. ज्ञानेश्वर एवढा गरीब असेल? की सर्वांनी एकमुखाने त्याच्या गरीबीचे दाखले द्यावेत? कारण, ज्ञानेश्वर वर्गातील सगळ्यात चपळ मुलगा होता. अक्षर स्वच्छ, मोकळं होतं. त्या अक्षरात त्याच्या नितळ मनाचे दर्शन मला घडे. एकदा तर त्याची वही मी माझ्या घरात पत्नीला दाखवली आणि म्हट्लं, “पाहिलंस ! हे सातवीतल्या मुलाचे अक्षर. असं अक्षर असावं हे माझे स्वप्न होते. उत्तराला सुबक परिच्छेद, समास सोडून योग्य प्रस्तावना आणि अखेर करून लिहिलेली उत्तरे………”

वह्यांचे गठ्ठे आणायला ज्ञानेश्वर सर्वात आधी धावत यॆई. माझ्याआधी ते गठ्ठे उचलून वर्गात नेण्याचा उत्साह मला थक्क करून टाकत असे…… 

असा ज्ञानेश्वर परिस्थितीने एवढा खचलेला असेल याची कल्पनासुद्धा मला येऊ नये, या गोष्टीचीच मला खंत वाटली. जी गोष्ट माझ्या इतर विद्यार्थ्यांना उमगते आणि मला त्याचा पत्ताही नसतो…… अरेरे!…

मी खूप कमी पडतोय. ज्ञानेश्वर, गेल्या सहलीला आला नव्हता. अवघी पंचवीस रूपये वर्गणी होती; पण त्याचं नाव यादीत नव्हतं. आपण त्याला साधं विचारलंसुद्धा नाही. 

सहलीला आलेल्या मुलांच्या किलबिलाटात न आलेल्या ज्ञानेश्वरची मला आठवणही झाली नव्हती. केवळ पंचवीस रूपये नसल्याने त्याचे नॅशनल पार्क बघण्याचे राहून गेले. एका छान अनुभवाला मुकला होता तो. हा आनंद मी हिरावला होता. यादीत ज्ञानेश्वरचे नाव नाही म्हणून मी त्याला जवळ का बोलावलं नाही? ज्ञानेश्वर स्वत:हून सांगणं शक्यच नव्हतं आणि माझ्या व्यग्र दिनक्रमात ज्ञानेश्वरसाठी जणू वेळच शिल्लक नव्हता!

शिक्षक म्हणून मी एक पायरी खाली आलो होतो. खरंच आहे, मुलांनी सुचवलेलं नाव. आर्थिक मदत, तीही भरघोस मदत ज्ञानेश्वरला मिळायलाच हवी. आता शंकाच नव्हती. त्याची गरीबी बघायला त्याच्या घरी जायचेही काहीच कारण नव्हते. मुलांनी एकमुखाने सुचवलेले नाव आणि ज्ञानेश्वरने सहलीला न येणं याची सांगड घालून मी मुख्याध्यापकांना नाव देऊन टाकले– ‘ज्ञानेश्वर पावसे, सातवी अ, अनुक्रमांक बेचाळीस’.

डोळ्यावरचा चष्मा हातात खेळवीत आदरणीय मुख्याध्यापक म्हणाले, “खात्री केलीये ना सर? कारण थोडीथोडकी रक्कम नाही. या विद्यार्थ्याची वर्षाची फी, त्याचे शालेय शिक्षण साहित्य, गणवेश… इत्यादी सर्व या रकमेत सामावणार आहे.”

मुख्याध्यापकांना मोठया आत्मविश्वासाने मी म्हटलं, “सर, त्याची काळजीच करू नका. वर्गातला सर्वात गरीब आणि आदर्शही म्हणा हवं तर- ज्ञानेश्वर पावसेच आहे!”

एका योग्य विद्यार्थ्याची निवड केल्याचे समाधान घेऊन मी निघालो. ज्ञानेश्वरला मिळणारी मदत, त्यामुळे त्याचे आर्थिकदृष्ट्या सुसह्य होणारे शैक्षणिक वर्ष याची कल्पनाचित्रे रंगवतांना दिवस कसा संपला ते कळालेच नाही. 

दुसऱ्या दिवशी शाळेत लवकरच गेलो. देखण्या अक्षराच्या कदम सरांनी मोठ्या दिमाखाने फळा सजवला होता. त्यावर ‘गरीब असूनही आदर्श’ असं म्हणून ज्ञानेश्वरचं नाव होतं. शाळा भरली. मी अध्यापक खोलीत बसलेलो होतो. इतक्यात खोलीच्या दाराशी ज्ञानेश्वर उभा दिसला. 

त्याच्या चेहऱ्यावरचा भाव समजत नव्हता. राग आवरावा तसा करारी चेहरा… “सर, रागवू नका; पण आधी त्या फळ्यावरचे माझे नाव पुसून टाका.”अरे, काय बोलतोयस तुला समजतय का?”चुकतही असेन मी. वाट्टेल ती शिक्षा करा; पण ते नाव… !!”

त्याच्या आवळलेल्या मुठी, घशातला आवंढा, डोळ्यातलं पाणी…… मला कशाचाच काही अर्थ लागेना. मी ज्याचं अभिनंदन करायच्या तयारीत, तो असा….. ?

“सर, मला मदत कशासाठी? गरीब म्हणून? मी तर श्रीमंत आहे.”

त्याची रफू केलेली कालर माझ्या नजरेतून सुटत नव्हती. येतानाच त्याचे अनवाणी पाय पाहिले होते. शाळेच्या चौदा वर्षाच्या माझ्या व्यावसायिक कालखंडात अशी पंचाईत प्रथमच आली होती. 

“अरे पण…. ?”

“सर,विश्वास ठेवा. मी श्रीमंत आहे. कदाचित सर्वात श्रीमंत असेन… सर, मी गरीब आहे हे ठरवले कोणी? मी चुकतोय बोलतांना हे कळतंय मला; पण सर ते नाव तसंच राहिले तर मी आजारी पडेन आज.”

अचानक तो जवळ आला आणि त्याने माझे पायच धरले. त्याला उठवत मी म्हणालो, “ठीक आहे. तुला नकोय ना ती मदत, नको घेऊस; पण तू श्रीमंत आहेस ते कसे काय?”

“सर, माझ्या अभ्यासाच्या वह्या बघा, कुठल्याही विषयाच्या…. त्या पूर्ण आहेत. पुस्तकं मी सेकंडहँड वापरतोय… खरयं ! पण मजकूर तर तोच असतो ना? मनात काय उतरवतो ते महत्वाचे नाही का? 

सर, माझे पाचवीपासूनचे मार्क बघा, नेहमी पहिल्या तीनात असतो. गेल्या वर्षी स्पोर्टसपासून निबंधापर्यंत सर्व बक्षिसे मलाच आहेत. 

सर… सर,सांगा ना, मी गरीब कसा?”

ज्ञानेश्वर मलाच विचारत होता आता मघाचचं दु:खाचं पाणी विरून त्यात भविष्याचं स्वप्न थरारत होतं. 

“खरंय ज्ञानेश्वर. पण तुला या पैशाने मदतच…….”

“सर, मदत कसली? माझी श्रम करण्याची वॄत्तीच नाहीशी होइल. शाळाच फी देतीये म्हटल्यावर, मी वडिलांबरोबर रंगाच्या कामाला जाणं बंद करेन! “

“म्हणजे?”

“वडील घरांना रंग द्यायचे काम करतात. कॉन्ट्रेक्टर बोलावतो तेव्हाच काम मिळते. तेव्हा ते मला त्यांच्याबरोबर नेतात. चार पैसे मला मिळतात, ते मी साठवतो. सर, संचयिका आहे ना शाळेची, त्यातलं माझं पासबुक बघा. पुढच्याही वर्षाची फ़ी देता येइल एवढी रक्कम आहे त्यात… 

मुलांनी तुम्हाला काहीतरीच सांगितलेले दिसते….. 

म्हणून तुम्ही मला निवडलेलं दिसतं. पण सर, मीच नाही तर आमचं घरच श्रीमंत आहे. घरातले सगले काम करतात. काम म्हणज कष्ट. रंगाचं काम नसतं तेव्हा बाबा स्टेशनवर हमालीही करतात. आई धुणं-भांडी करते. मोठी बहीण दुसरी-तिसरीच्या शिकवण्या घेते. सर, वेळ कसा जातो, दिवस कसा संपतो ते कळतच नाही…. शाळेतल्या वाचनलयातली पुस्तकं मीच सर्वात जास्त वाचली आहेत. तुम्हीच सांगितल्याप्रमाणे लेखकांनाही पत्र पाठवतो मी. सर, माझ्या घरी याच तुम्ही, माझ्याकडे पु. ल. देशपांडे यांच्या स्वाक्षरीचं पत्र आहे. …….. सर, आहे ना मी श्रीमंत?”

आता तर तो स्मितरेषांनी मोहरला होता. सर, शेजारच्या काकांकडून मी उरलेल्या वेळात पेटीही शिकलो. रात्री देवळात होण्याऱ्या भजनात मीच पेटीची साथ देतो. भजनीबुवा किती छान गातात! ऐकताना भान हरपून जातं.”

त्याच्या सावळ्या रंगातही निरोगीपणा चमकत होता. अभावितपणे मी विचारलं,”व्यायामशाळेतही जातोस?”

“सर, तेवढी फुरसत कुठली? घरातच रोज चोवीस सूर्यनमस्कार आणि पन्नास बैठका काढतो.”

अंगावर एक थरार उमटला… कौतुकाचा. 

“ज्ञानेश्वर मित्रा, मला तुझा अभिमान वाटतो. तुझ्यासारखा श्रीमंत मुलगा माझ्या वर्गात आहे त्याचा..”

“म्हणूनच म्हणतो सर…… !”

“हे नाव ज्या कारणासाठी आहे, त्यात तू नक्कीच बसणार नाहीस. आमची निवड चुकली; पण याचं रूपांतर वेगळ्या शिष्यवॄत्तीत होईल. शाळेतील सर्वात अष्टपैलू बुद्धिमान मुलगा म्हणून, हे पारितोषीक तरी………”

“सर, एवढ्यात नाही. त्याला वर्ष जाऊ द्या. मी अब्राहम लिंकन यांचं चरित्र वाचलं, हेलन केलर, विवेकानंद, आइन्स्टाईन यांचं चरित्र वाचलं. सर, हे वाचलं की कळतं की ही माणसे केवढे कष्ट करून मोठी झाली. माझ्यासारख्या मुलांना प्रोत्साहन द्या, योग्य वयात ते परखड मार्गदर्शन करा; पण सर, नको त्या वयात असा पैसा पुरवत गेलात तर घडायचं राहूनच जाईल. जे काय करतोय ते पैशासाठी असे हॊऊन जाईल… सर….. प्लीज….. !”

वाचनानं, स्पर्धांतल्या सहभागानं, कलेच्या स्पर्शानं, कष्टानं……. त्याच्या वाणीला प्रगल्भतेची खोली होती, संस्कारामुळे नम्रतेची झालर होती. आता मला माझ्या समोरचा ज्ञानेश्वर पावसे स्पष्ट दिसतही नव्हता. त्याच्याबद्दलच्या कौतुकाचे अश्रू माझ्या डोळ्यात दाटले होते. 

शाळेतला सर्वात श्रीमंत मुलगा माझ्यासमोर उभा होता. परिस्थिती पचवून,परिश्रमाने स्वत:वर पैलू पाडणारा ! श्रीमंत!

संकलन : प्रा. माधव सावळे 

प्रस्तुती : सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ जेथे गुणांची पारख नाही तेथे गुणी जनांनी जाऊ नये… लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले

📖 वाचताना वेचलेले 📖

☆ जेथे गुणांची पारख नाही तेथे गुणी जनांनी जाऊ नये… लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – डॉ. ज्योती गोडबोले  

एक छान संस्कृत सुभाषित आहे आणि त्याला साजेशी जी एं ची एक भन्नाट कथा…

रे राजहंस, किमिति त्वमिहागतोऽसि?

योऽसौ बकः स इह हंस इति प्रतीतः।

तद्गम्यतामनुपदेन पुनः स्वभूमौ

यावद्वदन्ति न बकं खलु मूढलोकाः॥

हा हंसान्योक्ति अलङ्कार

हे राजहंसा, तू इथे आलास कशाला? इथे तर हा जो बगळा आहे त्यालाच हंस समजतात. तेव्हा जोवर हे मूर्ख लोक तुला बगळा म्हणत नाहीत तोवरच तू तुझ्या मायभूमीला जा कसा!

(जेथे गुणांची पारख नाही तेथे गुणी जनांनी जाऊ नये. )

जी. एन च्या ‘ काजळमाया ‘ मधील एक कथा….

एकदा असंख्य कावळे मानस सरोवराजवळ जमले. त्या ठिकाणी शुभ्र पंखांचा, लाल चोचीचा एक हंस आपल्या हंसीबरोबर जलक्रीडा करत होता. कावळ्यांनी एकदम कलकलाट केला नि त्यांनी हंसास मानससरोवर सोडून जाण्यास सांगितले, कारण त्यांच्या आगमनाच्या क्षणापासून मानससरोवरावर त्यांची सत्ता चालू झाली होती.

“अनादिकालापासून मानससरोवर हंसांसाठीच आहे.” हंस म्हणाला.  ‘शिवाय तुम्हाला पोहता येत नाही, तर मानससरोवर हवे कशाला?”

“आम्हाला पोहता येत नसेल, पण त्याचा आणि स्वामित्वाचा काय संबंध आहे? आपल्या सत्तेची नृत्यशाला अथवा गायनशाला असेल तर आपल्याला नृत्य-गायन आलंच पाहिजे असं कोठे आहे?” कावळ्यांच्या नेत्याने राजकारणी हसून विचारले. हा नेता मोठा व्युत्पन्न होता व त्याने कृष्णद्वीपात जाऊन न्याय नि राजनीतीचा प्रगाढ अभ्यास केला होता.

“आणि आत्ताच्या आत्ता तू मानससरोवर सोडून गेला नाहीस, तर आम्ही सगळे तुझ्यावर तुटून पडू व तुझा आणि तुझ्या निवासस्थानाचा पूर्ण नाश करू!” एका तरुण कावळ्याने गर्जून सांगितले. परंतु त्याच्या या कर्कश शब्दांनी नेत्यास क्रोध आला व त्याचे संस्कारित मन फार व्यथित झाले. त्याने आपल्या उतावीळ अनुयायांस गप्प बसवले. अशा तर्‍हेच्या आततायी उपायांची योजना आता रानवट झाली होती आणि तिला कृष्णद्वीपात स्थान नव्हते. त्याने पुन्हा सौजन्यपूर्वक हसून म्हटले “आपलं म्हणणं मला मान्य आहे. मानससरोवर हे हंसांसाठीच आहे. ही आपली प्राचीन परंपरा मला अढळ राखायची आहे. उलट त्या पवित्र परंपरेच्या सामर्थ्यशाली आश्रयाने मला मातृदेशाची कीर्ती वृद्धिंगत करायची आहे. पण त्यासाठी ‘हंस कोण’ हे आधी ठरलं पाहिजे. आपण हंस आहात कशावरून?”

हंसाला या प्रश्नाचाच मोठा विस्मय वाटला. त्याने आपल्या शुभ्र पंखांकडे पाहिले. त्याला जलातील प्रतिबिंबात आपली डौलदार मान, तिच्या अग्रभागी असलेली कमलदलासारखी लाल चोच दिसली. पण आपणच हंस आहो हे सांगण्यास त्याल प्रमाण सुचेना. कावळ्यांचा नेता नम्रपणे हसला. तो म्हणाला “तेव्हा आपण त्या प्रश्नाचा प्रथम निर्णय लावू. येथे उपस्थित सर्वांना आपण एकेक पान आणावयास सांगू. जर आपण हंस असाल तर त्यांनी ‘लाल’ पान आणावं. जर त्यांना मी हंस आहे असा विश्वास असेल तर त्यांनी हिरवे पान आणावं.” “पण या ठिकाणी कावळेच संख्येने जास्त आहेत.” हंसी म्हणाली. “देवी, आपले शब्द सत्य आहेत. पण तो आमचा का अपराध आहे?” नेता विनयाने म्हणाला.

थोड्याच वेळात तिथे हिरव्या पानांचा ढीग जमला. हंसीने जाऊन कमळाची एक अस्फुट कळी आणून ठेवली.

कावळ्यांचा नेता म्हणाला “पाहिलंत. न्यायनीतीनुसार निर्णय होऊन मी हंस ठरलो आहे. हे इतर सारे माझेच आप्तगण असल्याने अर्थात ते देखील हंसच आहेत. आणि आता आपणच मान्य केलंत की मानससरोवर हंसांसाठीच आहे. तेव्हा आता तुम्ही येथून जावं हेच न्यायाचं होईल.”

हंस खिन्न होऊन सरोवराबाहेर आला. हंसीने त्याचे सांत्वन करण्याचा प्रयत्न केला. “प्रिया तू खिन्न का?” ती म्हणाली. “पानांच्या राशीने का हंसत्व ठरत असतं? चल, आपण येथून जाऊ. तू ज्या जलाशयात उतरशील ते मानससरोवर होईल. जेथे तू दिसशील ते तीर्थक्षेत्र ठरेल.”

हंस हंसीबरोबर जाण्यासाठी उठून सिद्ध झाला. तोच वेगाने उडत चाललेल्या सुवर्णगरुडाशी त्याची भेट झाली. त्याने विचारले की “हंस म्हटला की त्याचे मुख मानससरोवराकडे असायचे. पण तू असा विन्मुख होऊन कुठं चाललास?” मग हंसाने सारी हकीकत सांगताच गरुडाच्या अंगावरील पिसे उसळली व डोळ्यात अंगार दिसला.

“मित्रा, मी गरुड आहे की नाही हे पानं गोळा करून ते क्षुद्र ठरवणार? माझ्या चोचीचा एक फटकारा बसला की त्या गोष्टीचा तात्काळ निर्णय होत असतो. त्या क्षुद्रांची तू गय करणार? जा आणि आपल्या देवदत्त मानससरोवराकडे पाठ वळवू नकोस. उद्या हेच कावळे पानांचे भारे जमा करत माझ्या नंदादेवी कांचनगौरीवर अधिकार सांगू लागतील.”

हंसीने त्याला आवरण्याचा प्रयत्न केला पण हंस आता प्रज्वलित झाला होता. त्याला शब्दांची धुंदी चढली होती. हंसी हताश चित्ताने त्याच्याबरोबर मानससरोवरापाशी आली. त्यांना पाहून कावळ्यांचा समुदाय त्यांच्यावर धावून आला. कावळ्यांचा नेता म्हणाला “मी अत्यंत शांतताप्रिय आहे.” त्याचा स्वर खेदापेक्षा दु:खाने कंपित झाला होता. “पण आमच्या न्याय्य हक्कासाठी आम्ही प्राणार्पण करू. हंस कोण याचा न्याय आणि नि:पक्षपाती निर्णय लागलेला आहे.” आता त्याचा स्वत दु:खापेक्षाही अनुकंपेने आर्द्र झाला होता. त्याची अनुज्ञा होताच ते असंख्य कावळे हंस-हंसीवर तुटून पडले व त्यांचे शुभ्र पंख आणि लाल चोची यांचा विध्वंस झाला.

पण झाडाच्या ढोलीतून एक खार ती हत्या पहात होती. ती चीत्कारत म्हणाली “गरुडाची गोष्ट निराळी. त्यानं एकदा नखं फिरवली की दहा कावळ्यांच्या चिंध्या होतात. पण तुम्ही झुंजणार कशानं? पांढर्‍या पंखांनी, डौलदार मानेने की  माणकांसारख्या चोचीने? प्रतिपक्षप्रतिपक्षाला चांगलीच समजेल अशी भाषा वापरण्याचं सामर्थ्य नसेल तर शहाण्यानं त्या ठिकाणी सत्य खपवायला जाऊच नये.

खारीचा चीत्कार काही कावळ्यांनी ऐकला आणि त्यांनी तिला देखील टोचून मारून टाकले. म्हणजे ते सत्य माहित नसलेला हंस आणि ते सत्य माहित असलेली खार या दोघांचाही सर्वनाश झाला.

तात्पर्य काय, स्वसंरक्षणाच्या संदर्भात सत्याचे ज्ञान-अज्ञान या गोष्टी पूर्णपणे असंगत आहेत. कारण अनुयायांच्या रक्षणाबाबत सत्य पूर्णपणे उदासीन असते. दुसरे एक शेष तात्पर्य असे की, तो स्वर मग कितीही तात्त्विक असेना, भोवती कावळे असताना खारीने चीत्कारू नये.

कथासंग्रह:  काजळमाया –  जी. ए. कुलकर्णी.

संग्रहिका : डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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