हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 249 ☆ कथा-कहानी ☆ जन्मदाता ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – जन्मदाता ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 249 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ जन्मदाता 

गायत्री को उनके आने की जानकारी थी। बीच-बीच में फोन आते रहते थे— कभी हरद्वार से, अभी वृन्दावन से, कभी बनारस से।ज़्यादा पूछताछ नहीं करते थे, न गृहस्थी के बारे में कोई सवाल करते थे। बस, ‘आनन्द तो है न?’ बच्चों से बात कर लेते थे। अचानक ही कभी प्रकट हो जाते थे। एक-दो दिन रुकते, फिर डेरा समेट कर बढ़ जाते। गायत्री भी उन्हें रुकने के लिए नहीं कहती थी।जैसे आना वैसे ही जाना। मन में कोई उद्वेग नहीं होता।

इस बार तीन दिन पहले फोन आया था कि गायत्री के शहर में विशाल यज्ञ है। कुछ बड़े सन्त आएँगे। वे खुद भी एक हफ्ते वहाँ रहेंगे। यह निश्चित नहीं कि गायत्री के पास कितना रहेंगे, लेकिन कम से कम एक-दो दिन ज़रूर रहेंगे। गायत्री के पति समर ने बताया था कि गोल बाज़ार में बड़ा सा शामियाना लग गया है और यज्ञशाला का निर्माण हो रहा है। शायद उसी में आएँगे। शहर में दो-तीन जगह आयोजन के बैनर भी दिखाई पड़े थे।

कभी दामाद यानी समर फोन उठा ले तो उसी से बात कर लेते हैं। कहते हैं, ‘गृहस्थी में आदमी सारी उम्र कोल्हू का बैल बना रहता है। आँखों पर माया की पट्टी और गोल गोल चक्कर। ऐसे ही उम्र चुक जाती है और हाथ कुछ नहीं आता। निवृत्ति में ही सच्चा सुख है। बिना खोये कुछ नहीं मिलता। सांसारिक सुख तो मृगतृष्णा है।’

उसे समझाते हैं कि इस संसार को तन से भले ही न छोड़ा जाए लेकिन मन से तो छोड़ा ही जा सकता है। हर गृहस्थ को निर्लिप्त होकर अपना कर्म करना चाहिए। काम करें लेकिन आसक्ति रहित होकर। कीचड़ में कमल की तरह।

समर थोड़ी देर उनकी बात सुनता है, फिर फोन गायत्री को पकड़ा देता है। कहता है, ‘तुम्हीं बात करो।’ बाद में गायत्री से कहता है, ‘ये सब बातें आज की ज़िन्दगी में कहाँ संभव हैं?अपने काम में पूरी तरह ‘इनवाल्व’ हुए बिना कैसे रहा जा सकता है?’

गायत्री जवाब देती है, ‘उनकी बातें सुनते जाओ। ज़िन्दगी तो अपने हिसाब से ही चलेगी।’

इस बार वे नियत दिन पर आ गये। सबेरे सबेरे ऑटो आकर रुका और दरवाज़े की घंटी बजी। गायत्री ने बाहर आकर देखा तो एक दस-बारह साल का साधु-वेश धारी बालक दरवाज़े के बाहर सकुचता सा खड़ा मिला। सामने ऑटो के भीतर वे बैठे थे। उनका नियम है कि जब तक घर का व्यक्ति प्रवेश करने के लिए प्रार्थना न करे, वे सवारी से नहीं उतरते। गायत्री की प्रार्थना पर वे ऑटो से उतरे। वे ही गेरुआ वस्त्र, लंबे केश और दाढ़ी। केश लगभग पूर्णतया श्वेत। चेहरे पर खूब प्रफुल्लता और निश्चिंतता। साथ के बालक  का सिर मुंडित है। समर ने ऑटो का भुगतान कर दिया।

उनके लिए पहले से ही एक कमरा खाली कर दिया था। पूरा कमरा धो कर एक तरफ उनके लिए पूजा-स्थान बना दिया गया था। भीतर आकर वे तकिये के सहारे उठंग कर गायत्री के हाल-चाल लेने लगे। फिर दोनों बच्चों को बुलाकर उनके सिर पर स्नेह से हाथ फेरा, थैली में से मिठाई और मेवा निकालकर दोनों को दिया। बच्चे जानते हैं कि वे नाना जी हैं।

उनके साथ आए बालक का नाम अमृतानंद है। अपने भविष्य के लिए ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से उनका शिष्य बन गया है। उनके साथ ही हर जगह जाता है। साधु-वेश के बावजूद उसका स्वभाव सामान्य बालक का ही है। टीवी पर रोचक कार्यक्रम देखकर आँखें जम जाती हैं। अगल-बगल बच्चों को खेलते देख उसके हाथ पाँव भी सिहरने लगते हैं। लेकिन उसकी एक आँख हमेशा गुरुजी पर रहती है। गुरुजी दोपहर को नींद में हों तो घर के बच्चों के साथ मज़े से खेल कूद लेता है।

लेकिन पिता के आने से गायत्री के मन में कोई विशेष खुशी या उत्साह नहीं होता। लंबे अंतरालों पर उनके आने के बावजूद ठंडक जैसी बनी रहती है। उनकी उपस्थिति अनुपस्थिति से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, न ही कोई लहर उठती है। सब कुछ पूर्ववत चलता रहता है। दोनों बहनों, गीता और गौरी को उनके आने की खबर ज़रूर दे देती है।

गायत्री के बेडरूम में पुराना फोटो टँगा है— माता-पिता और चारों भाई बहन। तब गायत्री नौ दस साल की रही होगी। दोनों बहनें उससे छोटी हैं। विशू तब तीन-चार साल का रहा होगा। पिता के माथे पर लाल बिन्दी है। चित्र में माँ का चेहरा देखते उसका गला भर आता है।

उसे याद आता है सबेरे वे चारों, दो दो माँ के आजू-बाजू लेटे रहते थे। माँ उन्हें दुलारतीं, पुराणों की कथाएँ सुनाती रहतीं। उस वक्त उनके चेहरे पर ऐसा अलौकिक आनन्द  दमकता जैसे सारी सृष्टि उनकी बाँहों में सिमट गयी हो। गायत्री को वैसा सुख फिर जीवन में नहीं मिला।

पिताजी सरकारी दफ्तर में मुलाज़िम थे, लेकिन वे जीवन भर लापरवाह और गैरजिम्मेदार ही रहे। घर से निकलने पर कब लौटेंगे, ठिकाना नहीं। जेब में पैसे और हाथ में थैला लेकर सामान लेने निकलते और कहीं गप- गोष्ठी में दो-तीन घंटे गुज़ार कर वैसे ही खाली थैला हिलाते वापस आ जाते। उनके ऐसे आचरण से घर में क्या दिक्कत होती है इसे लेकर वे ज़्यादा परेशान नहीं होते थे। कभी किसी साहित्यिक या धार्मिक महफिल में जम जाते तो सारी रात वहीं गुज़र जाती। माँ सारी रात या तो करवटें बदलती रहतीं या कमरे में उद्विग्न टहलती रहतीं। उन पर क्या गुज़रती थी यह पिता महसूस नहीं कर पाते थे। बच्चों को स्कूल के लिए समय से उठाने से लेकर उनकी फीस समय से जमा करवाने तक की सारी फिक्र माँ को ही करनी पड़ती थी। पिता के ऐसे रवैये के कारण माँ के लिए कहीं आना-जाना मुश्किल रहता था। वे घर में ही बँध कर रह गयी थीं।

फिर माँ के सिर में भारीपन और दर्द रहने लगा था। पिता ने पहले टाला-टूली की,फिर डाक्टर को दिखाया। डाक्टर ने जाँच-पड़ताल के बाद कहा, ‘ब्लड प्रेशर बढ़ गया है। रोज एक गोली खानी पड़ेगी। गोली कभी बन्द नहीं करना है।’ लेकिन पिता गोली लाना भूल जाते। वैसे भी उन्हें एलोपैथी में भरोसा नहीं था। कहते, ‘ये एलोपैथी की दवाएँ जितना ठीक करती हैं उतना शरीर में जहर इकट्ठा करती हैं। अपना देसी सिस्टम ठीक होता है।’ नतीजतन माँ हफ्तों बिना दवा के रह जातीं।

फिर वह मनहूस दिन आया जब रोज सबेरे पाँच बजे उठने वाली माँ सोती ही रह गयीं। अफरा-तफरी में पास के अस्पताल ले जाने पर पता चला कि रक्तचाप बढ़ने के कारण मस्तिष्क में रक्तस्राव हो गया। माँ फिर होश में नहीं आयीं। उनके चेहरे पर चारों बच्चों की उम्मीद भरी निगाहें चिपकी थीं, लेकिन उन्होंने दूसरे दिन दोपहर सबसे नाता तोड़ लिया।

पिता उस दिन से गुमसुम हो गये। माँ के सारे कृत्य तो उन्होंने किये, लेकिन वे जैसे गहरे सोच-विचार में डूब गये। बच्चों से भी संवाद न के बराबर हो गया। बच्चे सांत्वना के लिए पिता की तरफ देखते थे, लेकिन पिता कुछ अपनी ही उधेड़बुन में लगे हुए थे। ऐसा लगता था वे सब चीज़ों के प्रति तटस्थ, उदासीन हो गये थे।

माँ की तेरहीं के दिन उन्होंने अचानक विस्फोट कर दिया। घर में जुटे रिश्तेदारों के बीच उन्होंने दोनों हाथ उठाकर घोषणा कर दी, ‘मैं अब सन्यास ले रहा हूँ। सांसारिक रिश्तों को तोड़ रहा हूँ। मेरे पास यह मकान है, दफ्तर में प्राविडेंट फंड का पैसा है। कोई चाहे तो इन सब चीज़ों को ले ले और इन बच्चों की ज़िम्मेदारी सँभाल ले। मेरी तरफ से सब खत्म।’

संबंधियों ने इसे उन पर अचानक आयी विपत्ति और दुख का परिणाम माना। उन्हें समझाया बुझाया, मासूम बच्चों के मुँह की तरफ देखने को कहा। जैसे तैसे उन्हें शान्त कराया गया।

लेकिन इसके दो दिन बाद ही वे बच्चों को सोता छोड़ अचानक गायब हो गये। घर में कोहराम मच गया। पिता से छोटे दो भाई थे, दोनों शहर में ही थे। खबर मिली तो दोनों दौड़े आये। बच्चों को समझाया बुझाया। बड़े चाचा चारों बच्चों को अपने घर ले गये। उनके अपने तीन बच्चे थे— दो बेटे और एक बेटी। अब कुल मिलाकर सात हो गये। बड़े चाचा की जनरल गुड्स की दुकान थी। ठीक-ठाक चलती थी।

पिता गायब हुए हुए तो चार साल तक  गुम ही रहे। बड़े चाचा ने उनके मकान को किराये पर चढ़ा दिया और अपनी बाँहें कुछ और लंबी करके बच्चों को उनमें समेट लिया। गायत्री उनकी सबसे बड़ी बेटी हो गयी। महत्वपूर्ण कामों में उसकी सलाह ली जाने लगी। उनके लिए वे चारों सन्तानें उनके अपने बेटी बेटे थे, भतीजियाँ या  भतीजा नहीं। बड़े चाचा खुद जो भी परेशानी महसूस करते हों, उन्होंने घर में बच्चों को कभी उसकी भनक नहीं लगने दी। कैसी भी चिन्ता हो, वह बच्चों के सामने निश्चिंत और प्रसन्न बने रहते। सब बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया और हैसियत के मुताबिक सब की शादी की। समाज को उनके परिवार में घटी घटना का पता था, इसलिए समाज के लोगों ने उनके साथ काफी उदारता बरती।

चार साल बाद गायत्री के पिता अचानक साधुवेश में प्रकट हुए। आये तो ऐसे जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बच्चों के लिए अब वह एक अजूबा थे। बुलाने पर ही वे पास आते थे। उन्होंने ‘सब ठीक है?’ के छोटे से प्रश्न में सब को समेट कर अपना फर्ज़ पूरा कर लिया। ज़्यादा कुछ पूछना नहीं। पहले जैसे ही बेफिक्र। भाइयों ने उनका हालचाल पूछा तो जवाब मिला, ‘आनन्द ही आनन्द है। सही मार्ग मिल गया। जन्म सुधर गया।’ दो दिन रहकर वे फिर अंतर्ध्यान हो गये। फिर ऐसे ही उनका आना-जाना होने लगा। सब धीरे-धीरे उनके आने जाने के प्रति तटस्थ हो गये।

बेटियों की शादी के बाद वे वहाँ भी गाहे-बगाहे पहुँचने लगे। बस, एकाएक पहुँच जाते  और फिर एक-दो दिन रुक कर अचानक ही पोटली उठाकर चल देते। शुरू में दामादों को उन्हें समझने और उनके साथ ‘एडजस्ट’ करने में दिक्कत हुई, फिर वे भी आदी हो गये।

इस बार गायत्री के घर आने से पहले उन्होंने दोनों भाइयों को खबर दे दी थी कि वहाँ आकर मिलें। सन्तों के प्रवचन सुनने का लाभ भी मिल जाएगा। गायत्री को वे बता चुके थे कि अपने अखाड़े में अब उनकी पोज़ीशन बहुत ऊपर है, बस बड़े महन्त जी के बाद उन्हीं को समझो।

कॉलोनी के लोग उन्हें जानने लगे थे। उनका साधुवेश वैसे भी लोगों को आकर्षित करता था। लोग जान गये थे कि वे मिस्टर त्रिवेदी के ससुर हैं। अब उनके आने पर दो-चार लोग श्रद्धा भाव से उनके पास आ बैठते थे।

दोनों चाचा बड़े भैया के निर्देश पर पहुँच गये। बड़ी चाची भी पहुँचीं। सोचा इसी बहाने गायत्री से भेंट हो जाएगी। जेठ जी के जाने के बाद से वे ही गायत्री और उसके भाई-बहनों की माँ रहीं और उन्होंने अपने ऊपर आयी ज़िम्मेदारी को खूब निभाया भी। कभी भी जेठ जी के बच्चों को अन्तर महसूस नहीं होने दिया। जीवन की कठिन परीक्षा पति-पत्नी दोनों ने खूब अच्छे अंको से पास की। इसीलिए गायत्री पिता के आने से ज़्यादा खुश बड़े चाचा और चाची के आने से हुई।

शाम को सभी लोग प्रवचन सुनने गये। मंच पर प्रवचनकर्ताओं के साथ गायन-मंडली भी विराजमान थी। प्रवचन के बीच में प्रवचनकर्ता गायन शुरू कर देते और संगीत-मंडली वाद्ययंत्रों के साथ उन्हें सहयोग देने में लग जाती। गायत्री, दोनों चाचा और चाची देर तक प्रवचन सुनते रहे। पिता पहले ही वहाँ पहुँच गये थे, लेकिन वे कहीं अन्यत्र व्यस्त थे।

प्रवचन-स्थल के बाहर अनेक दूकानें सजी थीं जिनमें मालाएँ, शंख, पूजा-पात्र, हवन- सामग्री, धार्मिक पुस्तकें, देवियों-देवताओं के चित्र उपलब्ध थे।

रात को पिता आ गये। दोनों भाइयों से बात करते रहे, किन्तु उनकी रूचि पारिवारिक और सामाजिक मसलों में नहीं थी। मित्रों, रिश्तेदारों की सामान्य जानकारी लेकर वे अपने अनुभव सुनाने में लग गये। कहाँ रहे, कहाँ कहांँ घूमे, किन किन सन्तों की संगत की, यह सब बताते रहे। पारिवारिक और सामाजिक प्रसंग उठते ही उनका ध्यान भटकने लगता। उस दुनिया में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।

दूसरे दिन सबेरे स्नान-पूजा से निवृत्त होकर वे जल्दी तैयार हो गये। बोले, ‘आज से यज्ञ शुरू होगा। पति-पत्नी जोड़े से यज्ञ के लिए बैठेंगे। मुझे वहाँ प्रबंध देखना होगा। अब दिन भर वहीं रहना पड़ेगा। आगे का जैसा कार्यक्रम होगा, बताऊँगा।’

वे निस्पृह भाव से चले गये। बेटी या भाइयों को छोड़ने का कोई दुख उनके चेहरे पर दिखायी नहीं पड़ा। घर छोड़कर जाने के बाद वे जितनी बार भी गायत्री के पास लौटे, उन्होंने कभी अपने कदम पर पश्चात्ताप ज़ाहिर नहीं किया, न ही कभी उस प्रसंग को उठाया। जैसे जो उन्होंने किया, सब सामान्य और उचित था।

उनके जाने के बाद बड़े चाचा भावुक हो गये। हाथ जोड़कर बोले, ‘बड़े भाग्यशाली हैं। सही रास्ता मिल गया। लोक-परलोक सुधर गया। एक हम जैसे लोग हैं जो जिन्दगी भर मिट्टी गोड़ते रह गये। खाली हाथ आये, खाली हाथ चले जाएँगे।’

गायत्री पिता द्वारा खाली किये गये कमरे में सामान जमाने में व्यस्त थी। बड़े चाचा की बात सुनकर रुक कर बोली, ‘चाचा जी, अफसोस मत करिए। आपके मिट्टी गोड़ने से हम चार प्राणियों की जिन्दगी मिट्टी होने से बच गयी, वर्ना हमारे तो दोनों लोक बिगड़ने वाले थे। भरोसा रखिए, जिस दिन आपके कर्मों का हिसाब होगा, आप नुकसान में नहीं रहेंगे।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 412 ⇒ लिखने का सुख… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लिखने का सुख।)

?अभी अभी # 412 ⇒ लिखने का सुख? श्री प्रदीप शर्मा  ?

लिखने में भी वही सुख है, जो सुख एक तैराक को तैरने में आता है, किसी किसी को गाड़ी ड्राइव करने में आता है, एक रसिक को संगीत में, और एक शराबी को शराब पीने में आता है। लिखना किसी के लिए एक आदत भी हो सकता है, एक नशा भी, और एक जुनून भी।

आज मुझे जितनी लिखने की सुविधा है, उतनी पहले कभी नहीं थी। लेकिन लिखने वाले तो तब भी लिखते थे, जब कागद कलम भी नहीं था। पत्थरों को खोद खोद कर लोगों ने शब्द बनाए हैं, पेड़ पौधों के पत्तों पर सरकंडे की कलम का उपयोग किया है। विचारों को शब्दों का जामा पहनाना ही लेखन है। अव्यक्त को व्यक्त करना, विचारों को लिपिबद्ध करना, अप्रकट को प्रकट करना ही सृजन है, साहित्य है, कविता है, वेद पुराण है। ।

संसार का सबसे बड़ा सुख सीखने में है। हमने बोलना, लिखना सीखा, हाथ में कलम पकड़ना सीखा। पहले मिट्टी की पेम, फिर पेंसिल। पहले निब वाला होल्डर और दो पैसे की कैमल की स्याही की टिकिया दवात में घोली और स्याही तैयार। एक ब्लोटिंग पेपर यानी स्याहीचट भी फैली स्याही को सोखने के लिए तैयार। उसके बाद ही हमारे हाथों में हमने पेन पकड़ा था। नौसिखिए के हाथ में न तो पेन देना चाहिए और ना ही तलवार।

लिखने के लिए एक अदद पैन और कागज ही पर्याप्त नहीं होता, दिमाग में भी तो कुछ होना चाहिए। सभी प्रेमचंद और शरदचंद्र तो नहीं हो सकते। रायचंद और जयचंद तो बहुत मिल जाएंगे। संसार में पढ़े लिखे लोग तो बहुत हैं, लेकिन पढ़ने और लिखने वाले बहुत कम। ।

दो शब्द बोलने का कहकर आधा घंटा बोलना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल है सिर्फ दो शब्द लिखना। जिनको लिखने का अभ्यास है, वे ही कुछ लिख सकते हैं। जिनसे लिखे बिना रहा नहीं जाता, वे और कुछ नहीं तो डायरी ही लिखा करते हैं। जो बात हम किसी से कहना नहीं चाहते, वह डायरी में तो लिख ही सकते हैं।

आज एक एंड्रॉयड फोन अथवा कंप्यूटर पर लेखन कितना आसान हो गया है। पहले लेखक लिखता था, फिर उसे टाइप करवाकर छपने को भेजता था। आज बिना कागज पेन के केवल उंगलियों की सहायता से लिखिए और उसे दुनिया में जहां चाहे, वहां भेज दीजिए।

बस, आपके थिंक टैंक में क्या है, यह आप ही जानते हैं। ।

सृजन का संसार सुख सुविधा नहीं देखता। आप पौधारोपण से फूलों की घाटी नहीं बना सकते। तुलसी, मीरा, कबीर और सूर को तब कहां लिखने की इतनी सुख सुविधाएं उपलब्ध थी, लेकिन वे जो रच गए, वह जन मानस में रच बस गया। उन्होंने सृजन का सुख लूटा भी और दोनों हाथों से लुटाया भी।

आज लेखन पेशेवर भी है और स्वांतः सुखाय भी।

तकनीक तो इतनी विकसित हो गई है कि आप बोलकर भी लिख सकते हो, लेकिन अगर कल्पनाशीलता, मौलिक चिंतन और सर्व जन हिताय की मन में अवधारणा ही नहीं हो, तो सूर कबीर तो छोड़िए, हमारा सृजन प्रसाद, पंत, निराला, अज्ञेय और महादेवी की धूल के बराबर भी नहीं। लेकिन सृजन सृष्टि का नियम है, वह सतत चलता रहेगा। सृजन में केवल सुख ही नहीं पूरे संसार की वेदना, विषाद और दुख दर्द भी शामिल है। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 248 – क्षणभंगुरता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 248 क्षणभंगुरता ?

इन दिनों घर पर अकेला हूँ। वॉशिंग मशीन के बजाय हाथ से कपड़े धोने को सदा प्राथमिकता देता रहा हूँ। कपड़े भी दो-चार ही हैं, सो आज भी यही सुविधाजनक लगा।

कपड़ों पर साबुन लगाया। नल हल्का-सा चलाकर कपड़े उसके नीचे डाले। देखता हूँ कि साबुन के झाग से कुछ बुलबुले उठते हैं, कुछ देर पानी पर सवारी करते हैं। कोई जल्दी तो कोई देर से पर फूटता हरेक है।

विशेष बात यह कि इस पूरे दृश्य का चित्र सामने की दीवार पर बन रहा है। इसका कारण यह है कि बाथरूम के दरवाज़े के सामने वॉश बेसिन है। बेसिन पर एक बल्ब लगा है, जिसके कारण बुलबुलों के जन्म  और आगे की यात्रा का छायाचित्र दीवार पर बहुत बड़ा होकर दिख रहा है। इस दृश्य के साथ मानस में चिंतन भी विस्तार पा रहा है।

चिंतन बताता है कि  विसर्जन है, तभी सृजन है। पुरानी इमारतें कभी टूटती ही नहीं तो अधुनातन सुविधाओं वाली गगनचुंबी अट्टालिकाएँ कैसे बनतीं?  जो राजा मानव प्रजाति के आरंभ में होता, सदा वही राजा बना रहता। महान डॉन ब्रैडमैन आज भी क्रिकेट खेल रहे होते। जन्म हरेक पाता पर मृत्यु किसी की नहीं होती। इसके चलते धरती पर संसाधन कम पड़ने लगते। लोग एक दूसरे के प्राणों के ही शत्रु हो जाते।

सार यह कि यह मर्त्यलोक है। इसमें विनाश है तभी जीवन की आस है।  अनेक  ज्ञानी-ध्यानी कहते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है। मैं विनम्रता से कहता हूँ, सिक्का पलट दो …, तुम पाओगे कि क्षणभंगुरता में ही जीवन है।

वस्तुत: क्षणभंगुरता वरदान है जीवन के लिए। हर क्षण को जीने का दर्शन है क्षणभंगुरता। समय की सत्ता है क्षणभंगुरता।

वन विभाग के एक अधिकारी मित्र ने एक बार निजी बातचीत में एक सत्य घटना सुनाई थी। मुख्यालय से उनके उच्चाधिकारी आए हुए थे।  उच्चाधिकारी अपने इस अधीनस्थ के साथ वनक्षेत्र के निरीक्षण के लिए निकले। रास्ते में  विशाल बरगद के नीचे एक औघड़ बैठे थे। पास के गाँव के कुछ ग्रामीण अपना भविष्य जानने की आस में उन्हें घेरे हुए थे। उच्चाधिकारी को जाने क्या सूझा!  कुछ व्यंग्य से आदेशात्मक स्वर में औघड़ से बोले, “इन गाँववालों को क्या भविष्य बताता है। बता सकता है तो मेरा भविष्य बता।” औघड़ गंभीरता से बोला, “तेरा क्या भविष्य बताना। तेरे पास अब तीन दिन ही बचे हैं।” उच्चाधिकारी आग-बबूला हो गए। औघड़ को अपशब्द कहे और आगे निकल गए।

संयोग कहें या विधि का लेखा, औघड़वाणी सत्य सिद्ध हुई और उच्चाधिकारी तीन दिन बाद सचमुच चल बसे।

मेरे मित्र ने यह घटना अपनी पत्नी को बताई। उसकी पत्नी ने तुरंत औघड़ बाबा से मिलने की इच्छा व्यक्त की ताकि पूरे परिवार का भविष्य पूछा जा सके। मित्र ने इंकार करते हुए कि जीवन में जो घटना होगा, अपने समय पर घटेगा। उसे पहले से जान लिया तो जीवन जीना ही असंभव हो जाएगा। बाद में औघड़बाबा से मिलने से बचने के लिए उन्होंने अन्य क्षेत्र में स्थानांतरण ले लिया।

कबीर ने लिखा है,

‘पाणी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।

एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।

आयु का बुलबुला कब फूट जाए, कोई नहीं जानता। अत: हर क्षण जिएँ,  क्षणभंगुरता का आनंद उठाएँ। स्मरण रहे, क्षण-क्षण जीवन है, हर क्षण में एक जीवन है।…इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 195 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 195 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 195) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 195 ?

☆☆☆☆☆

कभी बेपनाह बरस पड़ी…

तो कभी गुम सी है…

यह बारिश भी

कुछ-कुछ तुम सी है…

☆☆

Sometimes it pours heavily…

and sometimes it seems silent…

this rain is also a bit like you…

☆☆☆☆☆

तुझे याद ना करें तो

बेचैन से हो जाते हैं,

पता नहीं जिन्दगी सासों से

चलती है या तेरी यादों से…

☆☆

If I don’t remember you,

I become restless. 

Knoweth not, whether life

is run by breaths or by your memories…

☆☆☆☆☆

आये  हो  जो  आँखों  में

तो  कुछ  देर  ठहर जाओ,

एक  उम्र  गुजर  जाती है

यूँही एक ख्वाब सजाने में…

☆☆

Now that you’ve come in eyes

then, stay there for a while,

An  epoch  passes  by  in

Realising  such  a   dream…!

☆☆☆☆☆

मेंरे जुनूँ का नतीजा

ज़रूर निकलेगा

इसी सियाह समुंदर से

नूर निकलेगा…

☆☆

Result of my passion

Will definitely come out

From the same dark sea only

The effulgence shall emerge…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Poetry ☆ The Grey Lights# 53 – “Angels Never Die…” ☆ Shri Ashish Mulay ☆

Shri Ashish Mulay

? The Grey Lights# 53 ?

☆ – “Angels Never Die ☆ Shri Ashish Mulay 

On meadows of mind

Horses of vices ride

flowers bloom again

from the strength of sky

Angels never die

 *

*Night pulls me down

darkness rules the town

I see everything clearly

moon rises in my eye

Angels never die

 *

Turns without a sign

wheel of destiny is fine

carves the own path,

virtues that never cry

Angels never die

 *

Try the best I can

When worst is rained upon

life is just a short while

for even if I die

Angels never die

© Shri Ashish Mulay

Sangli 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ स्वर्गीय पिता से संवाद… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है श्री अजीत सिंह जी द्वारा पितृ दिवस पर स्वर्गीय पिताजी के साथ उनका आभासी संवाद ‘स्वर्गीय पिता से संवाद…’।)

☆ आलेख – स्वर्गीय पिता से संवाद… ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

पितृ दिवस पर स्वर्गीय पिता जी के साथ मेरा एक आभासी संवाद (virtual conversation)  हुआ। वे शायद स्वर्ग में हैं और स्वर्ग का कोई सही पता ठिकाना मुझे नहीं मालूम। मुझे लगता है कि स्वर्ग मात्र मेरे मानसिक पटल (mental space) पर है।

पिताश्री स्वर्गीय चौधरी मुगला राम

पिताजी से मैंने पूछा कि वे वहां पर कैसे हैं। हम सब यहां उन्हें याद करते हैं और उनके आशीर्वाद की कामना करते हैं कि यहां कब आयेंगे।

पिताजी का स्वर्ग में भी काफी बड़ा परिवार है। वे इसका जिक्र करते हैं। मैं उन्हें यहां के परिवार के बारे में बताता हूं।

पिताजी कहते हैं कि वे स्वर्ग में अपने परिवार के साथ खूब ठाठ कर रहे हैं। अंत में वे मुझसे पूछते हैं कि मैं स्वयं कब उनके पास जा रहा हूं।

ये सारा किस्सा मैने एक कविता/गीत के रूप में वानप्रस्थ संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रम में प्रस्तुत किया।

☆ स्वर्गीय पिता जी के साथ एक आभासी संवाद (virtual conversation) ☆

बाब्बू  बैठा कौन से देस

बदल कर भेस

बता कद आवेगा।

भेज कोई चिट्ठी या संदेश

 बता कद आवेगा।

*

पितृ पूजा पे कुनबा

आगया सारा,

वे पूछे हाल तुम्हारा।

बता कद आवेगा।

*

मां भी जाली,

जाली दो बड़नी बांहन,

दो छोटे बीरन भी,  जा लिए वहां

तेरे चार पोते,  नहीं  हैं यहां।

दो बेटी , तेरी विधवा बैठी,

बस एक का सही सुहाग।

बता कद आवेगा।

बाब्बू बैठा कौनसे देस

बदल कर भेस

बता कद आवेगा।

भेज कोई चिट्ठी या संदेश

 बता कद आवेगा।

*

एक पोता तेरा अफसर बंग्या,

एक दूजा ट्राला ऑपरेटर,

तीन पोते  जमींदारी करते,

चलावें ट्रैक्टर और थ्रेशर।

तेरा एक पड़पोता  अमरीका में

दूजा गया ऑस्ट्रेलिया।

एक पोती, एक द्योती तेरी बनी प्रोफेसर,

एक द्योति बनी बीमा मैनेजर

बता कद आवेगा।

बाब्बू बैठा कौनसे देस

बदल कर भेस

बता कद आवेगा।

भेज कोई चिट्ठी या संदेश

 बता कद आवेगा।

*

(अब बाब्बू कहता है)

तेरी मां भी मेर पास,

तीन और रानियों के साथ।

जगबीर  भरे हुक्का,

सुखपाल सुनावे  हाल,

यहां पूरा है जमाल।

पोते सिल्लू, प्रदीप, वेद यहां

घूम रहे हैं।

कुछ तो पी के यहां झूम रहे हैं।

*

बेटा लयूं सु सुरग के ठाठ

देखूं सु तेरी बाट

बता तू कब आवेगा ।

तेरी उम्र अठत्तर होगी,

तेरे बी पी शुगर होगी,

कितने दिन और है जीना,

बता  कब आवेगा ।

*

बाब्बू बैठा कौनसे देस

बदल कर भेस

बता कद आवेगा।

पितृ पूजा पे कुनबा

आगया सारा,

वे पूछे हाल तुम्हारा।

बता कद आवेगा।

*

(पिता कथन)

बेटा लयूं सु सुरग के ठाठ

देखूं सु तेरी बाट

बता कब आवेगा ।

तेरी उम्र अठत्तर होगी,

तेरे बी पी शुगर होगी,

कितने दिन और है जीना,

बता कब आवेगा ।

☆ ☆ ☆ 

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647037

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार से स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 195 ☆ सॉनेट – सीता ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – सीता…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 195 ☆

☆ सॉनेट – सीता ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

वसुधातनया जनकदुलारी।

रामप्रिया लंकेशबंदिनी।

अवधमहिष वनवासिन न्यारी।।

आश्रमवासी लव-कुश जननी।।

क्षमामूर्ति शुभ-मंगलकारी।

जनगण पूजे करे आरती।

संतानों की विपदाहारी।।

कीर्ति कथा भव सिंधु तारती।।

योद्धा राम न साथ तुम्हारे।

रण जीते, सत्ता अपनाई।

तुम्हें गँवा, खुद से खुद हारे।।

सरयू में शरणागति पाई।।

सियाराम हैं लोक-हृदय में।

सिर्फ राम सत्ता-अविनय में।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२-४-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सोंगटी… ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ‘सोंगटी… ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

(गालगागा गालगागा गालगागा गा)

सोंगटी मी या पटावर खेळते आहे

खेळताना नेहमी मी हासते आहे

*

हार किंवा जीत या खेळात ठरलेली

रात्र सरुनी सूर्य येईल थांबते आहे

*

का करू मी काळजी सार्‍या जनाची या

कोण कसले भोवताली जाणते आहे

*

ज्या प्रमाणे कर्म ज्याचे फळ तसे मिळते

पात्र मीही ज्या फळाला चाखते आहे

*

चूक झाली एकदा जी ना पुन्हा व्हावी

याचसाठी मी सदा सांभाळते आहे

*

खेळताना वाटला प्रारंभ सुंदरसा

वाकडी मज वाट मधली वाटते आहे

*

हात तू माझा कधी धरशील का देवा

भिस्त सारी मी तुझ्यावर सोडते आहे

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ओढाळ मन… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

?  कवितेचा उत्सव  ?

☆ ओढाळ मन… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

मन आभाळ आभाळ,

कधी सान, कधी विशाल!

कधी पाण्याचा डोह,

कधी सागर  नितळ!

*

कधी असे ते पाखरू,

तेजापाशी झेपावलेले

कधी असे ते निश्चल,

कूर्मापरी स्थिरावलेले!

*

कधी अतीच चपळ,

निमिषातच दूर धावे!

कधी असते निश्चल,

वज्रासारखे एक जागे!

*

मना तुझा ठाव,

घेता येईना जीवाला!

फिरते मीही तुझ्या संगे,

गिरकी सोसेना ती मला!

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सहज सुचलं म्हणून… ☆ सुश्री अपर्णा परांजपे ☆

सुश्री अपर्णा परांजपे

अल्प परिचय

शिक्षण – MSc, MA, B.Ed (English literature).

मूळअमरावती. पुण्यात स्थायिक.

English मध्ये 50च्या वर कविता व short philosophical write ups लिहिल्यानंतर Divine Meet नावाचे booklet प्रकाशित झाले.

मराठीत पण कविता, ललित, चारोळ्या व निवडक दासबोध निरूपण असे अमृतकण नावाचे पुस्तक प्रकाशित झाले आहे.

🌳 विविधा 🌳

☆ ✍️सहज सुचलं म्हणून… ☆ सुश्री अपर्णा परांजपे ☆

सहजता म्हणजे नैसर्गिकता..

म्हणजेच कृत्रिमतेच्या विरुद्ध…

साधा सरळ विचार व आचार. काहीही मनात आले, येऊ द्यावे शांतपणे विचार करत करत कोणतीही कृती न करता विचारांना निघून जाऊ द्यावे. त्याची जागा दुसर्याने घेतली तरीही हाच प्रकार चालू ठेवावा.

काही दिवस असे केले की कोणत्याही विचारांकडे तटस्थपणे पहाणे जमते. काहीही विशेष परिणाम दिसत नाहीत व मग जी कृती केली जाते ती अतिशय संयमाने विचारपूर्वक घडते. परिणाम काहीही असोत, सध्याच समाधान मिळते कारण सहजता येते. कोणताच व कशाचाच अट्टाहास त्यात नसतो. म्हणून जे व जसे घडत जाते त्याकडे विवेकाने पहाण्याची दृष्टी मिळते व कृतीत साहजिकच आनंद मिळतो.

समाधान हे नेहमी अपूर्णतेतच असते हे निश्चित मानावे.

मोठे ध्येय ठरवण्यापेक्षा छोटे काहीतरी निश्चित करावे, ते करत असतानाच जर समाधान मिळाले तर पुढे ठरवलेले पूर्ण होईलच त्याचबरोबर आताचा वेळ सत्कारणी लागेल. क्षणाक्षणाचा आनंद मिळेल.

एखादा चांगला लेख video वाचनात आला की त्याचा त्याच क्षणी आनंद घ्यावा याचा लेखक कोण, त्यांचे इतर लेख कोणते वगैरे नी पाठपुरावा करत बसले तर कदाचित त्यांचे सगळेच साहित्य आवडेल असे नाही, उलट वेळ वाया जाऊ शकतो. एकाचेच एककल्ली वाचन, श्रवण करण्यापेक्षा विविध प्रकार हाताळावेत म्हणजे तो motto टिकून रहातो व जे हवंय, रुचतंय तेच मिळत जातं. तसंही सत्य एकच असतं, ते कोणी कसंही मांडू देत. यात स्वत: चीच आवड जपली जाते व अट्टाहासाचा त्रागा वाचतो.

आताचा आनंद‌ उद्यावर किंवा इतर कुठे कसा असेल? हे उमगले की शांतता येते. हे लिहिणे सुध्दा कोणताही कशाचाही जोर नाही. जे जे जसे असेल ते तसे तसे मनापासून स्वीकारणे‌ हा साधा सरळ योग आहे.

तुलना, अपेक्षा, मोठमोठी स्वप्ने आपले आताचे आयुष्य बिघडवत असतील तर ते पूर्ण झाले तरी काय उपयोग?

पूजा हा ध्यानाचा सगळ्यात मोठा राजमार्ग!!! पण तिथेही हेच, असेच, ह्यानेच, त्यानेच, हा देव तोच देव, ही उपासना ती उपासना मग मन भरकटते व पूजा फळत नाही. एक श्लोक भगवंताकडे बघत आनंदाश्रूसकट म्हंटल्या गेला व कृतज्ञता जाणवली की झाली पूजा!!!

इतकं साधं सरळ असताना नको त्या उपचारात अडकणे म्हणजे कृत्रिमताच.

आईवर निबंध लिहून, तिला भारी भेटवस्तू देण्यापेक्षा “आई” ही “कृतज्ञ हाक” तिला गहिवरून टाकणार नाही का?  देवाचेही अगदी तसेच आहे.

तो आपल्या आतच असल्यामुळे सगळे जाणतो व अनैसर्गिक जे आहे ते तो‌ ओळखतो सुध्दा!! हेच सत्य आहे.

आपणच आपले खूष रहायचे तर तो‌ आतील परमात्मा मनापासून प्रेम करतो व त्याच्यासारखा सतत आनंदी रहाण्याचा आशिर्वाद देतो.

आनंद ही आत्मवस्तू आहे, ती इतरांवर अवलंबून कशी असेल?

भगवंत हृदयस्थ आहे 🙏

© सुश्री अपर्णा परांजपे

कात्रज, पुणे

मो. 9503045495

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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