हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 413 ⇒ || रबड़ी प्लेट || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| रबड़ी प्लेट ||।)

?अभी अभी # 413 ⇒ || रबड़ी प्लेट ||? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आप भले ही लड्डू को मिठाइयों का राजा मान लें,लेकिन जलेबी, इमरती और रबड़ी का नाम सुनकर ज़रूर आपके मन में लड्डू फूट पड़े होंगे । जिन्हें गुलाब जामुन पसंद है,उन्हें मावा बाटी की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। होते हैं कुछ लोग, जो चाशनी से परहेज करते हैं,लेकिन रसगुल्ला देख,उनके मुंह से भी पानी टपकने लगता है।

हम तो शुगर को शक्कर ही समझते थे,लेकिन जब से सुना है, शुगर एक बीमारी भी है, हमने भी मीठे से परहेज करना शुरू कर दिया है । लेकिन चोर चोरी से जाए, हेरा फेरी से ना जाए, रबड़ी तब भी हमारी कमजोरी थी,और आज भी है ।।

कुछ समय के लिए शुगर को भूल जाइए,आइए रबड़ी की बात करें । ठंडी रातों में दूध के कढ़ाव और केसरिया,मलाईदार दूध,रबड़ी मार के ,मानो चाय मलाई मार के । गर्मी में मस्तानी दही की लस्सी और वह भी रबड़ी मलाई मार के । खाने वाले खाते होंगे दही के साथ गर्मागर्म जलेबी,हम तो जलेबी भी रबड़ी के साथ ही खाते हैं ।

आज हम जिस रबड़ी प्लेट का जिक्र कर रहे हैं,उसके लिए हमें थोड़ा अतीत में जाना पड़ेगा । नालंदा जितना अतीत नहीं,फिर भी कम से कम पचास बरस। हमारे होल्करों के शहर इंदौर के बीचों बीच एक श्रीकृष्ण टाकीज था,जहां गर्मियों में सुबह साढ़े आठ बजे एक ठेला नजर आता था,जो हीरा लस्सी के नाम से प्रसिद्ध था । यह लस्सी केवल गर्मियों में ही नसीब होती थी । एक बारिश हुई,और वहां से ठेला नदारद ।

एक श्रृंगारित ठेला,जिसमें कई शरबत की बोतलें सजी हुई,ठेले के नीचे के स्टैण्ड पर कई ताजे दही के कुंडे, ठेले के बीच टाट पर विराजमान एक बर्फ  की शिला, एक विशाल तपेले में,लबालब रबड़ी और इन सबके बीच कार्यरत एकमात्र व्यक्ति हीरा और उनका चीनी मिट्टी का बड़ा पात्र और एक लकड़ी की विशाल रवई,दही को मथने के लिए । (सब कुछ हाथ से ही) हीरा लस्सी ही उस लस्सी का ब्रांड था, जो किसी जमाने में आठ आने से शुरू होकर दस रुपए तक पहुंच गई थी । पहले कुंडे से दही निकालकर तबीयत से मथना,फिर कांच के ग्लासों में बर्फ छील छीलकर डालना,लस्सी और बोतलों में रखे शकर के केसरिया शरबत को मिलाना,और ग्लासों को लस्सी से भरना, फिर थोड़ी रबड़ी और उसके बाद लबालब लस्सी पर दही की मलाई की एक मोटी परत। लीजिए, हीरा लस्सी तैयार ।।

हमारा विषयांतर में विश्वास नहीं। वहां रबड़ी प्लेट भी उपलब्ध होती थी,जो मेरी पहली और आखरी पसंद होती थी । भाव लस्सी से उन्नीस बीस,लेकिन एक कांच की बड़ी प्लेट में लच्छेदार रबड़ी, उस पर थोड़ा बर्फ का चूरा और ऊपर से गुलाब का शर्बत । एक लोहे की डब्बी में काजू,बादाम,पिस्ते का चूरा लस्सी और रबड़ी प्लेट दोनों पर कायदे से बुरकाया जाता था । तब जाकर हमारी रबड़ी प्लेट तैयार होती थी ।

हाइजीन वाले हमें माफ करें,क्योंकि हम रबड़ी प्लेट खाने के बाद हाथ नहीं धोते थे,रबड़ी और गुलाब के शरबत की खुशबू हमारे हाथों में हमारे साथ ही जाती थी और साथ ही जबान पर रबड़ी प्लेट का स्वाद भी ।।

आज न तो वहां श्रीकृष्ण टाकीज है और ना ही वह हीरा लस्सी वाला । पास में बोलिया टॉवर के नीचे,उसके वंशज जरूर फ्रिज में रखी लस्सी,हीरा लस्सी के नाम से,साल भर बेच रहे हैं,लेकिन वह बात कहां ।

जिस तरह शौकीन लोग,अपना शौक घर बैठे भी पूरा कर लेते हैं,हमारी रबड़ी प्लेट भी आजकल घर पर ही तैयार हो जाती है । तैयार केसरिया रबड़ी मांगीलाल दूधवाले अथवा रणजीत हनुमान के सामने विकास रबड़ी वाले के यहां आसानी से उपलब्ध हो ही जाती है,बस एक प्लेट में रबड़ी पर थोड़ा सा ,मौसम के अनुकूल बर्फ और गुलाब का शर्बत ही तो डालना है,लीजिए,रबड़ी प्लेट तैयार । शौकीन हमें ज्वाइन कर सकते हैं ।।

विशेष : शुगर फ्री वालों से क्षमायाचना सहित …!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 185 ☆ # “जीने दो मुझको” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “जीने दो मुझको”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 185 ☆

☆ # “जीने दो मुझको” # ☆

मत डराओ

यह विष पीने दो मुझको

मैं अभी जिंदा हूं

कुछ देर और

जीने दो मुझको

 

मेरी हर राह

कीलों से सजा रखी है

मेरी हर चाह

विषधर ने दबा रखी है

तोड़ने यह नागपाश

यह जहर पीने दो मुझको

मैं अभी जिंदा हूं

कुछ देर और

जीने दो मुझको

 

इस दुनिया ने

पग पग पर मुझको छला है

अपनी तरकश से

ज़ख्मी करने

मुझपर हर तीर चला है

मैं सदियों से जख्मी हूं

इन जख्मों को सीने दो मुझको

मैं अभी जिंदा हूं

कुछ देर और

जीने दो मुझको

 

अब कोई वार करे

यह मुझे मंजूर नहीं

हर दफा मैं ही मरूँ  

ऐसा कोई दस्तूर नहीं

यह जंग पुरानी है

इस बार तो जीतने दो मुझको

मैं अभी जिंदा हूं

कुछ देर और

जीने दो मुझको/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – मन के धागे… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘मन के धागे…‘।)

☆ कविता – मन के धागे…☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

मन के धागे,

मन,मन के धागे,

जितने मन हैं,

उतने धागे,  

मन के धागे,

 ये जीवन है,

जीवन,पथ है,

जीवन पथ से,

 बंधे हुए हैं,

 मन के धागे,

 मन मन के धागे,

 मन निष्ठुर है,

 मन चंचल है,

 भागना चाहे,

 तोड़ना चाहे,

 मन के धागे,

 मन मन के धागे,

 मन निर्मल है,

 मन कोमल है,

 मन से मन का,

 भाव अटल है,

 तोड़े से भी,

 टूट न पाएं,

 मन के धागे,

 मन मन के धागे…

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ खरे वाटते… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ खरे वाटते… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

ज्याचे त्याला

बरे  वाटते

सुरेल जगणे

खरे वाटते

जीवन कायम

धावत असते

नाही  थांबत

गती पकडते

आकांक्षांना

वेड लागते

मी पण तेव्हा

जागे होते

वास्तव तेचे

सत्य संपते

अहं पणाचे

फिरवत जाते

दैव नेमकी

कमाल करते

पदरा मध्ये

सत्य टाकते

लाचारीने

संधी मिळते

नशिब त्यांचे

तिथे ऊधळते

सत्व नेमके

मागे उरते

वा-या संगे

फोल धावते

स्थितप्रज्ञाला

हे ही कळते

हिणकस सारे

जळून जाते

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 181 ☆ पहिला पाऊस… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 181 ? 

☆ पहिला पाऊस… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

पहिला पावसाळा, सुचते कविता कुणाला

पहिला पावसाळा, चिंता पडते कुणाला.!!

*

पहिला पावसाळा, गळणारे छत आठवते

पहिला पावसाळा, राहते घर प्रश्न विचारते.!!

*

पहिला पावसाळा, शेतकरी लागतो कामाला

पहिला पावसाळा, चातकाचा आवाज घुमला.!!

*

पहिला पावसाळा, नदी नाले सज्ज वाहण्या

पहिला पावसाळा, झरे आसूसले कूप भरण्या.!!

*

पाहिला पावसाळा, थंड होय धरा संपूर्ण

पहिला पावसाळा, इच्छा होवोत सर्व पूर्ण.!!

*

पहिला पावसाळा, शालू हिरवा प्राची पांघरेल

पहिला पावसाळा, चहू बाजू निसर्ग बहरेल.!!

*

पहिला पावसाळा, छत्री भिजेल अमर्याद भोळी

पहिला पावसाळा, पिकेल शिवार तरच पोळी.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चंदू चॅम्पियन… ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ चंदू चॅम्पियन ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट

प्रत्येक दिवशी सूर्य एकाच दिशेला आणि साधारण सकाळीं त्याचं वेळेला उगवतो तरीही गंमत बघा प्रत्येक दिवस हा रोज अगदीं निराळाच असतो. कधी खूप आशा एकवटल्या असताना हवे तसे मनासारखे घडत नाही आणि कित्येकदा ध्यानीमनी नसताना परमेश्वराने लीला केल्यागत खूप काही आपल्या कल्पनेपेक्षाही आपल्या पदरात घालतो की आपली ओंजळ भरगच्च भरते.

मागील सोमवार असाच माझ्यासाठी  काहीही कल्पना नसतांना खूप काही देणारा असा उजाडला. अमरावतीला मनापासुन तळमळीने समाजासाठी  भरघोस काम करणारे सुप्रसिद्ध गोविंद काका कासट आणि सुदर्शनजी गांग ह्यांनी भरीव प्रेरणा मिळवून देणारा “चंदू चॅम्पियन” ह्या चित्रपटाच्या खेळाचे आयोजन सरोज टॉकीज मधे केले होते. त्या चित्रपटाचा आस्वाद घेण्यासाठीच्या निमंत्रक यादीत माझे नाव असल्याने मला एक सुखद धक्का दिला. आणि त्यामुळेच मी एक खूप जास्त सकारात्मक आणि शब्दात वर्णन करता येणार नाही असा सुंदर चित्रपट बघण्याचे भाग्य मला लाभले. आता ह्या चित्रपटाविषयी माझ्या शब्दात.

त्यासाठी आधी आपल्याला हे मुरलीधर पेटकर कोण, त्यांचे कार्य काय हे जाणून घ्यावे लागेल.  मुरलीकांत पेटकर हे स्वतः एक अत्यंत विलक्षण जीवन जगले आहेत. पेटकर म्हणजे एक नम्र , अत्यंत  प्रामाणिक, आणि समर्पित जीवन जगणार अफलातून व्यक्तिमत्व असे म्हणता येईल. त्यांनी  कठोर परिश्रमाने विलक्षण सिद्धी प्राप्त केली.

त्यांचा जन्म 1 नोव्हेंबर 1944 मध्ये महाराष्ट्रातील सांगली येथील पेठ इस्लामपूर भागात झाला. त्यांनी भारतीय सैन्यात कॉर्प्स ऑफ इलेक्ट्रॉनिक्स अँड मेकॅनिकल इंजिनिअर्स (ईएमई) मध्ये जवान म्हणून काम केले.  सिकंदराबादमध्ये असताना त्यांनी बॉक्सर म्हणून लढा दिला. १९६५ च्या पाकिस्तानसोबतच्या युद्धात नऊ गोळ्या लागल्याने पेटकर अपंग झाले होते. त्याच्या दुखापती बऱ्या झाल्यावर त्यानी हार न मानण्याचा निर्णय घेतला आणि ते पुन्हा पोहणे आणि इतर खेळांमध्ये भाग घेऊ लागले.

अखेरीस, त्यांनी भारताला पहिले पॅरालिम्पिक सुवर्णपदक मिळवून दिले. पेटकरांनी 50 मीटर फ्री स्टाईल जलतरण स्पर्धा जिंकून 37.33 सेकंदाचा नवा विश्वविक्रम केला. फक्त पोहणेच नाही तर स्लॅलम, भालाफेक आणि अचूक भालाफेक यातही ते निपुण होते.

चंदू चॅम्पियन हा बायोपिक भारताचा पहिला पॅरालिम्पिक सुवर्णपदक विजेते मुरलीकांत पेटकर ह्यांच्या जीवनावर आधारित आहे.  “मुरलीकांत पेटकर यांची कथा ही मुक्त भारताची कथा आहे”, ट्रेलरमध्ये म्हटले आहे. 

भारतीय स्वातंत्र्यलढ्याच्या पार्श्वभूमीवर, मुरलीचा प्रवास देशाच्या स्वातंत्र्याच्या लढ्याला प्रतिबिंबित करतो, कारण तो निर्धाराने महानता मिळवण्यासाठी अनेक अडचणींवर मात करतो. 

1965 च्या भारत-पाक युद्धात नऊ गोळ्या लागल्याने मुरलीकांत पेटकर ऑलिम्पिक मेडल च्या ध्यासाने  पोहण्याकडे वळले. मूलतः भारतीय सैन्याच्या शस्त्रास्त्र आणि सेवा शाखेतील बॉक्सर, त्याने इतर खेळांमध्येही प्रावीण्य मिळवले, 1968 पॅरालिम्पिकमध्ये भालाफेक स्लॅलममध्ये अंतिम फेरी गाठली, चार वर्षांनंतर (1972, जर्मनी गेम्स) पोहण्यात सुवर्णपदक मिळवण्याआधी.  

त्याच्या नावावर ५० मीटर फ्रीस्टाइल जलतरण स्पर्धेत ३७.३३ सेकंदांचा विश्वविक्रम आहे. त्यांच्या कामगिरीच्या 46 वर्षांनंतर भारताने 2018 मध्ये त्यांना पद्मश्री देऊन सन्मानित केले. त्याच्या जिद्द आणि कर्तृत्वामुळे भारतीय क्रिकेट संघाचा माजी कर्णधार राहुल द्रविडने खास अपंग खेळाडूंवरील पुस्तकात पेटकरचा उल्लेख करण्यास प्रवृत्त केले.

सुशांत सिंग राजपूतचा एमएस धोनी, फरहान अख्तरचा भाग मिल्खा भाग आणि विनीत कुमार सिंगचा मुक्काबाज यांसारख्या चित्रपटांची आठवण हा चित्रपट बघताना होते. खुप दिवसांनी टॉकीज मधे बघितलेला अतिशय चांगला सिनेमा खुप काही शिकवून कायम आठवणीत राहील.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ लाली ☆ श्री सुनील शिरवाडकर ☆

श्री सुनील शिरवाडकर

? जीवनरंग ❤️

☆ लाली ☆ श्री सुनील शिरवाडकर ☆

सुलु जेव्हा सिबीएस वर उतरली तेव्हा तीन वाजले होते.सुलु बीवायके कॉलेज मध्ये शिकत होती.शेवटच्याच वर्षाला होती.सध्या कॉलेजला सुट्ट्या होत्या.. दिवाळीच्या..त्यामुळे ती गावी घरी गेली होती.

तिचं गाव नाशिकपासून तास दिड तासाच्या अंतरावर होतं..निफाड जवळ.एका मैत्रीणीकडुन तिला काही नोट्स घ्यायच्या होत्या.. म्हणून ती नाशकात आली होती.

आज तिच्या सोबत तिची लहान बहीण होती..लाली तिचं नाव.आठ दहा वर्षांची होती.पहील्यांदाच ती नाशकात आली होती.शहर म्हणजे काय हे ती केवळ ऐकुन होती.बसमधुन उतरल्या पासून ती नुसती इकडे तिकडे बघत होती.सगळीकडे गर्दी..माणसांची..गाड्यांची.. सिग्नलला तर त्यांना खुप वेळ थांबावं लागलं.एवढ्या सगळ्या गाड्या कुठुन येतात.. आणि कुठं जातात हाच प्रश्न तिच्या मनात आला.

तिचं गाव सोडून ती कधी कुठे गेलेलीच नव्हती.तिचं गाव अगदीच छोटं..खेडचं म्हणा ना! तिच्या त्या एवढ्याश्या गावात तिच्या ताईचा रुबाब खुप.शहरात शिकणारी मुलगी ना! कुणाला नाशिकहून काही आणायचं असलं तर तिच्या ताईचीच सर्वांना आठवण यायची.मोबाईल मधलं काही अडलं तरी सुलुताईच लागायची सर्वांना.लालीला खुप अभिमान वाटायचा आपल्या ताईचा.

आत्ताही तिनं पाहिलं.. किती सहजतेने ती या शहरात वावरत होती.सिबीएस वरुन उतरल्यावर तिनं समोरुनच बस पकडली.कुठली बस.. किती नंबरची बस..कुठुन येते.. कुठे जाते सगळं काही तिला माहीत.

“ताई मला टी शर्ट पॅन्ट घेणार ना तु?मग चल ना..”

“हो लाली.. माझं काम झालं ना..की मग आपण जाऊ शालीमारला..”

“आणि गंगेवर पण ना?मला आईस्क्रीम खायचीए”

“हो..हो.. आहे माझ्या लक्षात”

दोघी बसमधून उतरल्या.कॉलेज रोडवरची दुकाने..शोरुम्स.. बिल्डिंग पाहून लाली अचंबित झाली.सुलुने तिचा हात घट्ट पकडला.. एका बिल्डिंग मध्ये त्या आल्या.सुलुने सहजपणाने लिफ्ट खाली बोलावली.दोघी जणी लिफ्टमध्ये शिरल्या.दरवाजा आपोआप बंद झाला.

“हं..ते पाच नंबरचं बटन दाब”

सुलु म्हणाली.लालीला खुप मजा वाटत होती.लिफ्ट थांबली.. दरवाजा उघडला.दोघीजणी एका फ्लॅटमध्ये आल्या.

सुलुच्या मैत्रिणीनं दोघींना पाणी दिलं..मग सरबत दिलं.लालीच्या तोंडुन शब्दच निघत नव्हता.तो फ्लॅट..ते उंची फर्निचर.. आणि याही पेक्षा सुलुची ती मैत्रीण..तिची आई.. सगळ्यांच्या पुढे आपण खुपच गावंढळ दिसतो आहोत.. नाही आपण गावंढळच आहोत असंच तिच्या मनानं घेतलं.

सुलुचं काम झालं.दोघी खाली उतरल्या.सगळीकडे दुकानच दुकानं.

“ताई मला पॅन्ट..ते बघ तिकडे.. किती मोठ्ठं दुकान आहे”

लाली मागेच लागली.सुलुने तिची समजुत घातली.

“आपण तिकडे शालीमारला जाऊ.. इकडे खुप महाग असतात कपडे”

लाली खुप चिडली.तिला ताईचा रागच आला.मघाशी त्या फ्लॅटमध्ये जाऊन आल्यानंतर तिला आपली ताई एकदमच गावंढळ वाटायला लागली.त्यात ताईने आता इकडुन पॅन्ट घ्यायची नाही म्हणून सांगितलं.पाय आपटतच ती ताईचा हात धरुन चालत होती.

“ताई..पाय दुखायला लागले माझे..मला रिक्षात बसायचं”

“नाही लाले..ती बघ आलीच बस”

सुलुने ओढतच तिला बसमध्ये खेचलं.बस खचाखच भरली होती.लालीला आता खुप कंटाळा आला होता.आजूबाजूला रिक्षा..कार्स..टु व्हिलर्स धावत होत्या.. आणि ती ताईचा हात धरुन कशीबशी उभी होती.

शालीमारला दोघी उतरल्या.लालीच्या मनात ताई बद्दल खुप राग भरुन राहिला होता.तिकडे किती छान मोठ्ठी दुकानं होती.. रस्ते..इमारती..ती श्रीमंती..आपली ताई ही अशीच..खेडवळ..गावठी.. काही काही घेऊन देत नाही मला.पळुन जावसं वाटतं मला.

इकडे शालीमारला पण दुकानच दुकानं..गर्दीच गर्दी..रोड क्रॉस करताना ताई तिला ओढत होती..पण..

..पण गडबडीत ताईचा हात सुटला.इकडे तिकडे बघती तर ताई कुठे? कुठे गेली ताई?

लाली घाबरली..बावरली.. सगळ्या बाजूंनी माणसंच माणसं..पण तरीही तिला एकटेपणाची जाणीव झाली.डोळे भरुन आले.बाजुला एक मारुतीचे मंदिर होतं.तिथल्या पायरीवर बसुन ती रडायला लागली.

तिचं ते रडणं ऐकुन एक बाई तिच्या जवळ आली.

“काय नाव तुझं बाळ?”

असं म्हणून तिची समजुत घालु लागली.तुला खाऊ देते..गाडीत फिरवते.. असं खुप काही काही सांगु लागली.

मघाशी या सगळ्या गोष्टी लालीला हव्या होत्या..पण त्या ताईच्या सोबतीने.

लालीचं एकच वाक्य.. मला ताई पाहिजे.. मला तिच्याकडे जायचं.मघाची ती बाई आता लालीवर चिडली.तिचा हात धरुन ओढु लागली.बाजुला असलेल्या रिक्षात ती लालीला घेऊन जाऊ लागली.

लाली जीवाच्या आकांताने ओरडली..

“ताई.. ताई..”

तेवढ्यात कुठुनतरी तरी सुलु आली.ती शोधतच होती लालीला.त्या बाईच्या खाडकन कानाखाली मारत तिनं लालीला ओढून जवळ घेतलं.

गर्दी जमली.. पोलिस आले. ‌.त्या बाईला आणि रिक्षावाल्याला घेऊन पोलीस निघून गेले.. गर्दीही पांगली.

सुलुनं लालीला घट्ट धरून ठेवलं होतं.लालीला आता खुप सुरक्षित वाटत होतं.तिच्या मनात आलं..आपली ताई खरंच किती ग्रेट..किती शुर आहे.मघाशी आलेला राग आता कुठल्या कुठे पळून गेला होता.

ताईची ओढणी धरुन लाली म्हणाली.‌.

“ताई..चल ना आता घरी लवकर..आई वाट पहात असेल.”

“अगं हो हो.. आपल्याला अजुन खरेदी करायचीए.. आईस्क्रीम खायचं आहे.. जायचं ना गंगेवर?”

“हो..हो..”

लाली पुन्हा एकदा तिच्या ताईला बिलगली.

© श्री सुनील शिरवाडकर

मो.९४२३९६८३०८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ चूल… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆

प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

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☆ चूल… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी 

होय, 

मी चूल! 

अलीकडच्या काळात नामशेष झालेली मी चूल! अजूनही कुठे कुठे माझं अस्तिव आहेच! तस ते जगाच्या इतिहासात कोणत्या ना कोणत्या प्रकारे राहील यात तिळमात्र शंका नाही! फार पूर्वीच्या काळापासून  अस म्हणण्या पेक्षा मी यावत चंद्र दिवाकर! जगाच्या अस्तित्वातच मी आहे!  माझं रूप अग्नी महाभूता पासून झालेलं!  सूर्य नारायण हेच त्याच प्रतीक! अवकाशात माझं प्रतिबिंब! 

तस धरतीच्या पोटात असलेला तप्त लाव्हारस हे पृथेवरच प्रतीक! मी कुठे नाही ? चराचरात माझं अस्तित्व आहे ते अग्नी महाभूताच्या  रुपात! पाण्याच्या थेंबात पण मी आहेच! काळ्याजर्द मेघात घर्षण झाले की मी रुपेरी सौंदमीनीच्या रुपात मी भूतलावर अवतरते! माझं उष्ण दाहक रूप हे मानवाच्या हितकरता! माझ्याशिवाय जीवनाची भट्टी पेटत नाही! मी आहे म्हणूनच आयुष्य आहे! 

।।अहं ही वैश्वानरो देवो प्राणिनांम देह आश्रिता ।।

।। प्राण आपनो समयुक्तम पश्चमन्यांम चतुर्वीधम ।।

मीच तो अग्नी तुमच्या शरीरात राहून प्राण व अपान वायूचे पोषण करतो व तुम्ही घेतलेल्या चतुर्वीध अन्नाचा पचन करतो! शरीर पोषण म्हणजेच जीवन यापन पण करतो.

ऋषीमुनींची मी आवडती! त्यांनीच मला प्रथम ह्या पृथ्वीवर पचारण केल!  माझ्या आयुष्याचा अग्नी तृप्त करण्यासाठी मला वेळोवेळी समिधा अर्पण केल्या! व माझी भूक भागवली! 

होम यागादी कृत्यात मी प्रथम प्रविष्ट झाले! ते नन्तर मग प्रत्येक प्राणिमात्रांची भूक भागवण्याचे श्रेय व काम माझ्याकडे जस आले, तसा माझा जन्म झाला! मला चूल म्हणून नामकरण करण्यात आलं! 

तसे कित्येक आकारात मी असले तरी, माझा मूळ आकार त्रिकोणीच!  तीन दगडाची चूल!!  माझा अवतार हा मूळ आदी मायेचा! विश्व साकारण्यासाठी माझी उत्पत्ती!  तीन कोन तीन दगड!  त्रिगुणात्मक माझी रचना! सत्व रज तम! 

तिन्ही गुणांचा समन्वय साधण्यासाठी अग्निरूपी इंधनाची तजवीज पण करून ठेवली! 

अग्निप्रधान महाभूताचे प्रतीक असलेल आदिमायेच रूप म्हणजेच मी!!! माझ्या शिवाय आयुष्य हे अपूर्ण! 

प्रचंड ज्वाळा उत्पन्न करण्याची क्षमता! वेदनेची धग उष्णता चटके सोसण्यासाठी मला त्रिकोणी आकारात बंदिस्त व्हावं लागलं! एकदा  मी पेटले की  

कुणाचेही ऐकत नाही! येईल ते इंधन, मग ते कोणत्याही झाडाचं, असो त्याला भस्म सात करण्याची शक्ती मला देवांनी दिली!  मला शमविण्यासाठी ऋषी मुनीनी

दूध ह्या पूर्ण अन्न निवडले! 

राखेच्या आड मी  धगधगत असतेच! 

चुलीच्या बंदिस्त वातावरणात, माझं काम योग्य होत असावे अस विश्वकर्म्यला वाटले असावे . 

माझा अन स्त्रीचा सम्बन्ध फार जुना आहे! सक्ष्यात अन्नपूर्णा देवीनेच मला प्रगट केलं .  भगवान शंकराला ज्यावेळी भूख लागली, त्यावेळेस मला पाचारण करून बोलवलं! त्यावेळी पासूनच काम आजपर्यंत सतत चालूच आहे! 

भूख ही मानवी प्राण्यांची गरज लक्ष्यात घेऊन, शाक पाक सिद्ध करण्याची जबाबदारी एकदम  मला व पार्वती अन्नपूर्णेवर आली . हेच जगाच्या उत्पत्ती चे मूळ कारण असावे! 

भूक भागवण्यासाठी प्रत्येक्षात शंकर म्हणाले होते

अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राण वल्लभे ।।

ज्ञान वैराग्य सिद्धर्थम भिक्ष्यां देही च पार्वती ।।

माता च पार्वती देवी पिता देवो माहेश्वरा ।। 

भगवान शंकर म्हणतात ज्ञान व वैराग्य मिळवण्यासाठी मला भिक्षा वाढ! मला सर्वज्ञान मिळू दे!  विश्व दर्शन पण होऊ दे व ते फक्त तुझ्यामुळे शक्य आहे .

जगाच्या संगोपनाची शक्ती, भूख भागवण्यासाठीची युक्ती फक्त माझ्यात व स्त्रीत्वात आहे!  मानवीय म्हणा किंवा पक्षी वा पशूंची म्हणा भूख ही अनेक प्रकारची आहेच . स्त्रीला चूल व मूल हे कधी चुकले आहे का ? मग ती स्त्री अडाणी असो वा शिकलेली असो, त्यातच तर जीवनाचे गुपित दडले आहे . 

स्त्री काय किंवा मी काय, आमच्या दोघीत साधर्म्य आहेच म्हणूनच आमची निर्मिती ईश्वरीय आहे. आज माझं रुपडच बदलुन टाकलं आहे! बर्शन ची शेगडी, इलेक्ट्रॉनिक शेगडी, सौर ऊर्जेची शेगडी, वाटर हिटर, मोठया पावाच्या भट्ट्या, तंदुरी, टर्बाईन,  ही सर्व माझीच रूपे! 

आहेत  आणि सदैव राहतील! फक्त  मानवाची गरज भागविण्यासाठी!!!

© प्रो डॉ प्रवीण उर्फ जी आर जोशी

ज्येष्ठ कवी लेखक

मुपो नसलापुर ता रायबाग, अंकली, जिल्हा बेळगाव कर्नाटक, भ्रमण ध्वनी – 9164557779 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ डार्क वेब : भाग – 5 ☆ श्री मिलिंद जोशी ☆

श्री मिलिंद जोशी

? इंद्रधनुष्य ?

 ☆ डार्क वेब : भाग – 5 ☆ श्री मिलिंद जोशी ☆ 

खरे तर या भागात मी डार्कवेब वरील ‘रेड रूम’ याबद्दल भाष्य करणार होतो, पण मागील दोन भागात काही जणांनी विचारणा केली होती, ‘जर डार्कवेब इतके भयंकर असते तर लोक ते का वापरतात?’ किंवा ‘डार्कवेबचा वापर फक्त हॅकरच करतात का?’

एखाद्याला हे प्रश्न खूप बाळबोध वाटतील, पण हे प्रश्न बिलकुल बाळबोध नाहीत. कारण या प्रश्नांची उत्तरे आपल्या मनातील अनेक प्रश्नांचे निरसन करतात. त्यामुळे आजचा लेख याच प्रश्नांची उत्तरे काही प्रमाणात देणारा आहे. ‘काही प्रमाणात’ हा शब्दप्रयोग यासाठी केला, कारण इथे येणारा माणूस कोणत्या मानसिकतेचा असतो हे कुणीही छातीठोकपणे सांगू शकत नाही. अनेकदा माणसाची मानसिकता त्याला कुणी ‘ओळखत असते’ त्यावेळी वेगळी, आणि ‘ओळखत नसते’ त्यावेळी वेगळी असू शकते.

पहिल्या प्रश्नांचे उत्तर द्यायचे झाले तर डार्कवेबचा वापर अनेक जण वेगवेगळ्या कारणासाठी करतात. त्यातील काही लोकांचा उद्देश चांगला असतो तर काहींचा वाईट.

ज्यावेळी कुणी डार्कवेबचा वापर करतो त्यावेळी ९९% त्याला त्याची ओळख लपवायची असते. डार्कवेब वापरण्यासाठी उपयोगात आणले जाणारे टोर ब्राउजर हेच काम करते. नव्वदच्या दशकात अमिताभ बच्चन यांचा एक चित्रपट आला होता. नाव होते शहंशाह. त्या चित्रपटात नायक पोलीस असतो. पण चित्रपटातील खलनायकांशी सामना करताना त्याला त्याचा गणवेश आड येणार असतो. कायद्याच्या चौकटीत राहून खलनायकांशी सामना करणे त्याला अवघड असते. त्यासाठी तो एक युक्ती योजतो. दिवसा लाचखोर पोलीस बनतो आणि रात्री शहंशाह बनून त्याच गुंडांना शिक्षा करतो. ज्यावेळी तो आपली ओळख बदलतो त्यावेळी आपोआपच त्याच्या मर्यादा कमी होतात. हीच गोष्ट इथेही असते. आपल्याला जर हे माहिती असेल की आपल्यावर कुणाचेतरी लक्ष आहे, किंवा कुणीही आपल्याला ओळखू शकतो, तर आपल्यावर अनेक मर्यादा येतात. तेच ज्यावेळी आपल्याला कुणी ओळखणार नाही अशी आपली खात्री पटते, आपले धारिष्ट्य वाढते. 

ज्यावेळी आपण इंटरनेटचा वापर करत असतो त्यावेळी आपली ओळख असते आपल्या कॉम्प्युटरचा आयडी. जो एकमात्र असतो आणि तो कधी बदलता येत नाही. आता काहींच्या मनात असाही प्रश्न निर्माण होईल, जर आयडी बदलता येत नाही तर टोर ब्राउजर आपली ओळख कशी बदलते? याचे उत्तर आहे मास्किंग. थोडक्यात नवीन मुखवटा चढवणे. ज्यावेळी तुम्ही एखादा मुखवटा चढवतात त्यावेळी तुम्ही बदलत नाहीत, तर तुम्ही दुसरेच कुणी आहे असा भास निर्माण होतो. तो एक प्रकारचा बनाव असतो. ‘बदलणे’ आणि ‘बदलला आहे’ असे वाटणे यात फरक असतो. टोर ब्राउजर तुमच्या खऱ्या आयपीवर दुसऱ्याच एखाद्या आयपीची लेअर चढवते. अशा अनेक लेअर चढल्यावर तुम्ही इतरांशी जोडले जातात. त्यामुळे तुम्ही खरे कोण हे शोधणे अवघड होऊन बसते. इथे एक गोष्ट लक्षात घ्या. मी इथे ‘अवघड होते’ हा शब्द वापरला आहे, ‘अशक्य होते’ असे म्हटलेले नाही. कारण मी पहिल्यांदाच सांगितले आहे, टोर ब्राउजर आयपी बदलत नाही तर असलेल्या आयपीवर वेगळ्या आयपीची लेअर चढवते. जर एखाद्याने एकेक करून शेवटपर्यंत जायचेच ठरवले तर शेवटचा आयपी हा खराच असणार आहे. तो शोधण्यात जो वेळ लागेल त्या वेळात माणूस स्वतःला वाचविण्याचा वेगळा उपाय शोधतो. 

डार्कवेबचा वापर चांगल्या कामासाठी देशाच्या सुरक्षा यंत्रणा, सैन्य तसेच पोलीस यंत्रणा यांच्याकडून केला जातो. यामागील उद्देश म्हणजे समजा अशा ठिकाणाहून एखादी माहिती लिक झाली तरी त्यावर सहसा विश्वास ठेवला जात नाही. आपोआपच लोकांचा अविश्वास हे एक प्रकारे त्यांच्यासाठी सुरक्षाकवच म्हणून काम करते. काही पत्रकार देखील गोपनीय माहिती मिळविण्यासाठी किंवा ती उघड करण्यासाठी डार्कवेब वापरतात. त्याच प्रमाणे हॅकिंग क्षेत्रात करिअर करणारे लोकही नवनवीन तंत्रज्ञान शिकण्यासाठी, त्याचे प्रयोग करण्यासाठी डार्कवेबचा वापर करतात. डार्कवेबसाठी वापरले जाणारे टोर ब्राउजर हे दर दिवसांनी नवीन अपडेट घेऊन येते. यावर कोणत्या जाहिराती नसतात, ते वापरायलाही फुकट आहे, तरीही याचे अपडेट येतात म्हणजे कुणीतरी त्यावर कायम काम करत असणार ना? मग त्यांना पैसा कोण देत असेल? याचा विचार केलाय कधी? अनेकांचा विश्वास बसणार नाही पण यासाठी फंडिंग करणारे अमेरिकन सरकार तसेच गुगल इंजिन सारख्या कंपन्या आहेत. 

डार्कवेबच्या माध्यमातून आतापर्यंत अनेक मोठमोठे घोटाळे उघड झालेले आहेत. सुरक्षा यंत्रणांनी अनेक अप्रिय घटना वेळेआधीच रोखण्यात यश मिळवले त्याचे कारणही हे डार्कवेब हेच आहे. ही झाली नाण्याची एक बाजू. दुसरी बाजू याच्या अगदी विरुद्ध आहे. छापा सोबत काटा असतोच ना. तो तर निसर्गनियम आहे. त्याला डार्कवेब तरी अपवाद कसे असणार? पण ते मात्र पुढील भागात. 

क्रमशः भाग पाचवा. 

©  श्री मिलिंद जोशी

वेब डेव्हलपर

नाशिक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ साठीच्या पुढचा म्हातारा… – कवी :अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री सुनीत मुळे ☆

?  वाचताना वेचलेले  ? 

☆ साठीच्या पुढचा म्हातारा… – कवी :अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री सुनीत मुळे ☆

थंड हवेच्या ठिकाणी जसा

नेहमीच गारवा असतो

तसाच — 

साठीच्या पुढचा म्हातारा

थोडा जास्तच हिरवा असतो !

 

उजेडाचा त्रास होतो म्हणून

गॅागल वापरत असतो

काळ्याभोर काचेमागून

निसर्गसौंदर्य न्याहाळीत असतो!

शेजारीण घरी आली की

आनंदाने हसत असतो

बायकोला चहा करायला लावून

स्वत: गप्पा मारीत बसतो

 

कारण — 

साठीच्या पुढचा म्हातारा

थोडा जास्तच हिरवा असतो!

 

पाय सतत दुखतात म्हणत

घरच्या घरी थांबत असतो

बाकी सगळ्या दिवशी मात्र

मित्रांबरोबर भटकत असतो!

चार घास कमीच खातो

असं घरात सांगत राहतो

भजी समोसे मिसळपाव

बाहेर खुशाल चापत असतो

 

कारण — 

साठीच्या पुढचा म्हातारा

थोडा जास्तच हिरवा असतो!

 

औषधाचा डोस गिळताना

घशामध्ये अडकत असतो

पार्टीत चकणा खाता-खाता

चार चार पेग रिचवत असतो

अध्यात्माच्या गप्पा मोठ्या

चारचौघात झोडत असतो

मैत्रिणींच्या घोळक्यात मात्र

रंगेल काव्य ऐकवत असतो

 

कारण— 

साठीच्या पुढचा म्हातारा

थोडा जास्तच हिरवा असतो!

 

साठीच्या पुढचा म्हातारा

आता निवृत्तीत गेलेला असतो

विरंगुळ्याला जुन्या-जुन्या

आठवणीत रमत असतो

काम नसतं हातामध्ये

किंमत नसते घरामध्ये!

म्हटलं तर ज्येष्ठ असतो

तरी बराच तरूण असतो

संपून गेलेलं तारुण्य

पुन्हा आणू पहात असतो

 

कारण —

थंड हवेच्या ठिकाणी जसा

नेहमीच गारवा असतो

तसाच — 

साठीच्या पुढचा म्हातारा

थोडा जास्तच हिरवा असतो

कवी :अज्ञात

संग्राहक  : श्री सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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