(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी
इस साधना में – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे
ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री संतोष श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित “कर्म से तपोवन तक ” (उपन्यास) पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 163 ☆
☆ “कर्म से तपोवन तक ” (उपन्यास) – लेखिका … सुश्री संतोष श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक – कर्म से तपोवन तक (उपन्यास)
माधवी गालव पर केंद्रित कथानक
लेखिका … सुश्री संतोष श्रीवास्तव
दुनियां में विभिन्न संस्कृतियों के भौतिक साक्ष्य और समानांतर सापेक्ष साहित्य के दर्शन होते हैं। भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से कहीं अधिक प्राचीन है। रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के दो अद्भुत महा ग्रंथ हैं। इन महान ग्रंथों में धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैचारिक ज्ञान की अनमोल थाथी है। महाभारत जाने कितनी कथायें उपकथायें ढ़ेरों पात्रों के माध्यम से न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या के गुह्यतम रहस्यों को संजोये हुये है। परंपरागत रूप से, महाभारत की रचना का श्रेय वेदव्यास को दिया जाता है। धारणा है कि महाभारत महाकाव्य से संबंधित मूल घटनाएँ संभवतः 9 वीं और 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की हैं। महाभारत की रचना के बाद से ही अनेकानेक विद्वान सतत उसकी कथाओ का विशद अध्ययन, अनुसंधान, दार्शनिक विवेचनायें करते रहे हैं। वर्तमान में अनेकानेक कथावाचक देश विदेश में पुराणो, भागवत, रामकथा, महाभारत की कथाओ के अंश सुनाकर समाज में भक्ति का वातावरण बनाते दिखते हैं। विश्वविद्यालयों में महाभारत के कथानकों की विवेचनायें कर अनेक शोधार्थी निरंतर डाक्टरेट की उपाधियां प्राप्त करते हैं। प्रदर्शन के विभिन्न माध्यमो में ढ़ेरों फिल्में, टी वी धारावाहिक, चित्रकला, साहित्य में महाभारत के कथानकों को समय समय पर विद्वजन अपनी समझ और बदलते सामाजिक परिवेश के अनुरूप अभिव्यक्त करते रहे हैं।
न केवल हिन्दी में वरन विभिन्न भाषाओ के साहित्य पर महाभारत के चरित्रों और कथानको का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है। महाभारत कालजयी महाकाव्य है। इसके कथानकों को जितनी बार जितने तरीके से देखा जाता है, कुछ नया निकलता है। हर समय, हर समाज अपना महाभारत रचता है और उसमें अपने अर्थ भरते हुए स्वयं को खोजता है। महाभारत पर अवलंबित हिन्दी साहित्य की रचनायें देखें तो डॉ॰ नरेन्द्र कोहली का प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक उपन्यास महासमर, महाभारत के पात्रों पर आधारित रचनाओ में धर्मवीर भारती का अंधा युग, आधे-अधूरे, संशय की रात, सीढ़ियों पर धूप, माधवी (नाटक), शकुंतला (राजा रवि वर्मा), कीचकवधम, युगान्त, आदि जाने कितनी ही यादगार पुस्तकें साहित्य की धरोहर बन गयी हैं।
महाभारत से छोटे छोटे कथानक लेकर अनेकानेक रचनायें हुईं हैं जिनमें रचनाकार ने अपनी सोच से कल्पना की उड़ान भी भरी है। इससे निश्चित ही साहित्य विस्तारित हुआ है, किन्तु इस स्वच्छंद कल्पना के कुछ खतरे भी होते हैं। उदाहरण स्वरूप रघुवंश के एक श्लोक की विवेचना के अनुसार माहिष्मती में इंदुमती प्रसंग में कवि कुल शिरोमणी कालिदास ने वर्णन किया है कि नर्मदा, करधनी की तरह माहिष्मती से लिपटी हुई हैं। अब नर्मदा के प्रवाह के भूगोल की यह स्थिति मण्डला में भी है और महेश्वर में भी है। दोनो ही शहर के विद्वान स्वयं को प्राचीन माहिष्मती सिद्ध करने में जुटे रहते हैं। साहित्य के विवेचन विवाद में वास्तविकता पर भ्रम पल रहा है।
मैं भोपाल में मीनाल रेजीडेंसी में रहता हूं, सुबह घूमने सड़क के उस पार जाता हूं। वहाँ हाउसिंग बोर्ड ने जो कालोनी विकसित की है, उसका नाम करण अयोध्या किया गया है, एक सरोवर है जिसे सरयू नाम दिया गया है। हनुमान मंदिर भी बना हुआ है, कालोनी के स्वागत द्वार में भव्य धनुष बना है। मैं परिहास में कहा करता हूं कि सैकड़ों वर्षों के कालांतर में कभी इतिहासज्ञ वास्तविक अयोध्या को लेकर संशय न उत्पन्न कर देँ। दुनियां में अनेक स्थानो पर जहां भारतीय बहुत पहले बस गये हैं जैसे कंबोडिया, फिजी आदि वहां राम को लेकर कुछ न कुछ साहित्य विस्तारित हुआ है और समय समय पर तदनुरूप चर्चायें विद्वान अपने शोध में करते रहते हैं। इसी भांति पढ़ने, सुनने से जो भ्रम होते हैं उसका एक रोचक उदाहरण बच्चों की एक बहस में मिलता है। एक साधु कहीं से गुजर रहे थे, उन्हें बच्चों की बहस सुनाई दी। कोई बच्चा कह रहा था मैं हाथी खाउंगा, तो कोई ऊंट खाने की जिद कर रहा था, साधु का कौतुहल जागा कि आखिर यह माजरा क्या है, यह तो शुद्ध सनातनी मोहल्ला है। उन्होंने दरवाजे पर थाप दी, भीतर जाने पर वे अपनी सोच पर हंसने लगे दरअसल बच्चे होली के बाद शक्कर के जानवरों को लेकर लड़ रहे थे। यह सब मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि मैंने संतोष श्रीवास्तव जी का उपन्यास कर्म से तपोवन तक पढ़ा। और महाभारत के वे श्लोक भी पढ़े जहां से माधवी और गालव पर केंद्रित कथानक लिया गया है। अपनी भूमिका में ही संतोष जी स्पष्ट लिखती हैं, उधृत है ..”माधवी पर लिखना मेरे लिये चुनौती था। इस प्रसंग पर उपन्यास, नाटक, खंडकाव्य बहुत कुछ लिखा जा चुका है, थोडे बहुत उलट फेर से वही सब लिखना मुझे रास नहीं आया। मुझे माधवी के जीवन को नए दृष्टिकोरण से परखना था। गालव, माधवी धीरे-धीरे अंतरंग होते गए और दोनों के बीच दैहिक संबंध बन गए। मैंने इसी छोर को पकडा। ये अंतरंग संबंध मेरी माधवी कथा का सार बन गया, और मैंने माधवी का चरित्र इस तरह रचा जिसमें वह गालव से प्रेम के चलते ही राजा हर्यश, दिवोदास और उशीनर की अंकशायनी बनकर अपने अक्षत यौवना स्वरूप के साथ तीनों के बच्चों की माँ बनी। ” मेरा मानना है कि यह लेखिका की कल्पनाशीलता और उनकी साहित्यिक स्वतंत्रता है।
हो सकता है, यदि मैं इस प्रसंग पर लिखता तो शायद मैं माधवी के भीतर छुपी उस माँ को लक्ष्य कर लिखता जो बारम्बार अपनी कोख में संतान को नौ माह पालने के बाद भी लालन पालन के मातृत्व सुख से वंचित कर दी जाती है। गालव बार बार उसका दूध आंचल में ही सूखने को विवश कर उसे क्रमशः नये नये राजा की अंकशायनी बनने पर मजबूर करता रहा। मुझे संतोष जी की तरह गालव में माधवी के प्रति प्रेम नहीं दिखता। अस्तु।
उपन्यास में सीधा कथानक संवाद ही है, मुंशी प्रेमचंद या कोहली जी की तरह परिवेश के विस्तृत वर्णन का साहित्यिक सौंदर्य रचा जा सकता था जिसका अभाव लगा। उपन्यास का सारांश भूमिका में कथा सार के रूप में सुलभ है। महाभारत के उद्योग पर्व के अनुसार राजा ययाति जब अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को उसका यौवन लौटाकर वानप्रस्थ ग्रहण कर चुके होते हैं तभी गालव उनसे काले कान वाले ८०० सफेद घोड़ों का दान मांगने आता है। ययाति जिनका सारा चरित्र ही विवादस्पद रहा है, गालव को ऐसे अश्व तो नहीं दे सकते थे, क्योंकि वे राजपाट पुरु दे चुके थे। अपनी दानी छबि बचाने के लिये वे गालव को अपनी अक्षत यौवन का वरदान प्राप्त पुत्री माधवी को ही देते हैं, और गालव को अश्व प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं कि माधवी को अलग अलग राजाओ के संतानो की माँ बनने के एवज में गालव राजाओ से अश्व प्राप्त कर ले। सारा प्रसंग ही आज के सामाजिक मापदण्डों पर हास्यास्पद, विवादास्पद और आपत्तिजनक तथा अविश्वसनीय लगता है। मुझे तो लगता है जैसे हमारे कालेज के दिनों में यदि ड्राइंग में मैने कोई सर्कल बनाया और किसी ने उसकी नकल की, फिर किसी और ने नकल की नकल की तो होते होते सर्कल इलिप्स बन जाता था, शायद कुछ इसी तरह ये असंभव कथानक किसी मूल कथ्य के अपभ्रंश न हों। कभी कभी मेरे भीतर छिपा विज्ञान कथा लेखक सोचता है कि महाभारत के ये विचित्र कथानक कहीं किसी गूढ़ वैज्ञानिक रहस्य के सूत्र वाक्य तो नहीं। ये सब अन्वेषण और शोध के विषय हो सकते हैं।
आलोच्य उपन्यास से कुछ अंश उधृत कर रहा हूं, जो संतोष जी की कहन की शैली के साथ साथ कथ्य भी बताते हैं।
“महाराज आपका यह पुत्र वसुओं के समान कांतिमान है। भविष्य में यह खुले हाथों धन दान करने वाला दानवीर राजा कहलाएगा। इसकी ख्याति चारों दिशाओं में कपूर की भांति फैलेगी। प्रजा भी ऐसे दानवीर और पराक्रमी राजा को पाकर सुख समृद्धि का जीवन व्यतीत करेगी। राजा हर्यश्व और सभी रानियां राजपुरोहित के कहे वचनों से अत्यंत प्रसन्न थी। “
“वसुमना के जन्म के बाद से ही राजा हर्यश्च ने माधवी के कक्ष में आना बंद कर दिया था। इतने दिन तो माधवी को वसुमना के कारण इस बात का होश न था पर राजमहल से प्रस्थान की अंतिम बेला में उसने सोचा पुरुष कितना निर्माही होता है। “
“गालव निर्णय ले चुका था ठीक है राजन, आप माधवी से अपने मन की मुराद पूरी करें। आज से ठीक। वर्ष पक्षात में माधवी को तथा 200 अश्वों को आकर ले जाऊंगा। “
इतने अश्वों का विश्वामित्र जैसे तपस्वी करेंगे क्या? उनके आश्रम का तपोवन तो अश्वों से ही भर जाएगा। ” “मेरे मन में तो यह प्रश्न भी बार-बार उठता है कि गुरु दक्षिणा में उन्होंने ऐसे दुर्लभ अश्वों की मांग ही क्यों की ?
“क्या कह रहे हो मित्र, माधवी का तो स्वयंवर होने वाला था। ” “हां गालव स्वयंवर तो हुआ था देवी माधवी का, किंतु उन्होंने उस स्वयंवर में पधारे अतिथियों में से किसी का भी चयन न कर तपोवन को स्वीकार किया। यहां तक कि उन्होंने हाथ में पकड़ी वरमाला तपोवन की ओर उछालते हुए कहा कि मैं तुम्हें स्वीकार करती हूं। हे तपोवन, आज से तुम ही मेरे जीवन साथी हो। “
इस तरह की सरल सहज संवाद शैली में “कर्म से तपोवन तक” के रूप में सुप्रसिद्ध लोकप्रिय बहुविध वरिष्ठ कथा लेखिका, कई किताबों की रचियता और देश विदेश के साहित्यिक पर्यटन की संयोजिका, ढ़ेर सारे सम्मान और पुरस्कार प्राप्त संतोष श्रीवास्तव जी का यह साहित्यिक सुप्रयास स्तुत्य है। मन झिझोड़ने वाला असहज कथानक है। स्वयं पढ़ें और स्त्री विमर्श पर तत्कालीन स्थितियों और आज के परिदृश्य का अंतर स्वयं आकलित करें।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पग विद्यालय”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 198 ☆
🌻लघुकथा🌻 👣पग विद्यालय 👣
संस्कारों की शिक्षा घर से ही आरंभ हो जाती है। बच्चा जैसा देखता सुनता है। वही उसे अच्छा लगने लगता है। आजकल बढ़ते कोचिंग सेंटर, पढ़ाई का खर्च और महंगी पाठशाला सभी को समझ आने लगा है।
घर-घर की कहानी कहते इसमें कब एक वृद्धा आश्रम आ गया और जुड़ गया। पता ही नही चला।
यह केवल शहरों में ही नहीं गाँव तक पहुंच चुका है। गाँव की एक छोटी सी पाठशाला जहाँ पर सभी उम्र के बच्चों को पढ़ाया जाता है ।
अध्यापक भी गिनती में होते हैं। तेज बारिश की वजह से आज सभी एक बड़ी कक्षा में बैठे थे। अध्यापक सभी से बारी – बारी प्रश्न कर रहे थे कि– कौन-कौन बड़ा होकर क्या-क्या बनना चाहता है।
अध्यापक, संस्थापक, संपादक,लेखक, डॉक्टर, इंजीनियर मंत्री, सरपंच, कृषक, बिजनेसमैन, सेनापति, दुकानदार आदि – आदि सभी बालक अपनी-अपनी राय पसंद बता रहे थे।
मासूम सा एक बालक चुपचाप बैठा था। अध्यापक ने पूछा–क्यों? समीर क्या – – तुम क्या बनना चाहते हो।
सिर नीचे झुकते हुए उसने कहा गुरु जी मुझे पग विद्यालय खोलना है। हंसी का फव्वारा फूट पड़ा।
अध्यापक ने शांत परंतु आश्चर्य से कहा – – – यह क्या होता है और क्यों खोलना चाहते हो।
अध्यापक की समझ से भी परे था। समीर ने बड़ी ही मासूमियत से बोला– गुरू जी यह पग, पांव, पैर हैं – – जो यह कभी शिकायत नहीं करता कि मैं नहीं चलूंगा। चाहे कहीं भी जाना हो बिना थकावट के चलता जाता है।
जो हमारे अन्नदाता, किसान, सेना के जवान और जो भी निस्वार्थ हमारी सेवा करते हैं। मैं पग विद्यालय खोलकर उनकी सेवा के लिए संगठन बनान चाहता हूँ।
ऐसे पग का निर्माण करना चाहता हूँ । जो भारत की पहचान और शान बने। इस विद्यालय के सभी पग पूजनीय और वंदनीय बनकर निकालेंगे। जहाँ चलेंगे, राहों में फूल बिखरेंगे और फिर एक दिन ऐसा आएगा कि— कभी कोई पग वृद्धा आश्रम, पागलखाना,रैन बसेरा या सेवा आश्रम की ओर नहीं बढ़ेगा।
पूरी कक्षा शांत हो गई। अध्यापक की सोच से कहीं हटकर। समीर अपनी बात कहता जा रहा था।
तालियां बजनी आरंभ हो गई। अध्यापक ने आगे बढ़ कर समीर को सीने से लगा लिया।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है व्यंग्य की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ व्यंग्य # 91 ☆ देश-परदेश – अंतरराष्ट्रीय विवाह ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज प्रातः काल फोन की घंटी बजी प्रथम तो हमें भ्रम सा प्रतीत हुआ, क्योंकि हमारे फोन पर कॉल आवक शून्य है, हां, जावक ही जवाक हैं। सभी परिचित विभिन्न समूहों में ही हमारे लेख पर प्रतिक्रिया देकर अपने जीवित रहने का प्रमाण दे देते हैं।
फोन करने वाले की आवाज कुछ पहचानी सी लगी, लेकिन उसने बताया वो फलां ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज से बोल रहा है। उसने शिकायत भरे अंदाज में बोला कि आपने, अपने लेख में हमारे परिवार के विवाह को उसके वैभव से बहुत कम आंका है, वो देश या राष्ट्रीय विवाह के स्तर से कहीं बढ़ कर अंतरराष्ट्रीय स्तर से भी ऊपर है।
पूरे विश्व से अनेक बड़ी बड़ी हस्तियां अपने अपने चार्टर्ड विमानों द्वारा कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए आ रहे हैं। इतनी अधिक संख्या में विमानों की पार्किंग पड़ोस के कुछ हवाई अड्डों तक पर भी की जा रही हैं।
आप अपनी गलती को सुधार कर इसके वास्तविक स्वरूप को जनता के समक्ष प्रस्तुत करें।
हमने डरते हुए क्षमा याचना मांग कर, अपनी भूल को माफ करने का आग्रह किया। इसके साथ हमने विश्वास दिलाया कि हम आज ही इस विवाह को अंतरराष्ट्रीय स्तर का मान कर लेख लिख देंगे।
सामने वाले ने कहा वो तो ठीक, लेकिन जब आप मुंबई में रहे थे, तो हमारी सेवाएं क्यों नहीं ली ? हमारा मोबाइल कभी भी उनके रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हैं। यदि आपने वहां कभी सेवाएँ ली होती तो, आप को भी सोन पापड़ी का आधा किलो का डिब्बा मिल जाता।
फिर हंसते हुए वो बोला, हम जॉकी नावेद खान बोल रहे है, और आप रेडियो मिर्ची मुर्गा पर लाइव हैं।
संस्कारधानी जबलपुर के विजयनगर में अग्रसेन मंडपम में योगाचार्य रमाकांत पलहा जी ने डा कुंवर प्रेमिल जी का सम्मान किया। वहीं प्रेमिल जी ने अब तक प्रकाशित एक दर्जन पुस्तकों में से कुछेक योगा क्लास में वितरित कर यह संदेश दिया कि योगा से तन की शुद्धि होती है वहीं अच्छे साहित्य से मन की। किताबें पढ़ने की कम होती रुचि को बरकरार रखने के लिए साहित्य को अपना सच्चा मित्र बनाएं।
कार्यक्रम के उपरांत ‘जज्बा’ लघुकथा का पाठ कर, लघुकथाओं के प्रति सम्मोहन बनाए रखने के लिए लघुकथा की पुस्तकें भी वितरण की गई।
संदर्भवश डॉ प्रेमिल द्वारा पठित लघुकथा आपके लिए सादर प्रस्तुत है –
☆ लघुकथा – जज्बा ☆
(16 दिसंबर से पहले)
शहर के पार्क में कुछ महिलाएं, कुछ युवतियां सुबह-सुबह इकट्ठे होकर योगाभ्यास किया करती।
सब कुछ ठीक-ठाक होता पर सिंह आसन में जीभ बाहर निकाल कर हुंकार भरने के प्रयत्न में कमजोर पड़ जाती। मैं अक्सर सोचता कि सिंह आसन में यह सब शेरनी जैसा दमखम कहां से लाएंगी भला। मुंह से करारी आवाज़ निकलेगी तब ना। महिलाएं पुरुषों जैसा जज्बा कहां से लाएंगी आखिर।
(16 दिसंबर के बाद)
कुछ दिनों बाहर रहने के बाद पुनः शहर लौटा तब तक दिल्ली में निर्भया के साथ वह भीषण वहशी कांड हो चुका था। उस रूह कंपकंपाने वाली दास्तान से पूरा देश उबल रहा था। महिलाओं ने एकजुट होकर अपनी ताकत दिखा दी थी।
मैं फिर एक दिन इस पार्क में था। महिलाओं का सिंह आसन चल रहा था। अपनी लंबी जीभ निकाले यह वामा दल शेरनियों में तब्दील हो चुका था। अत्याचारियों को फ़ाड़कर खा जाने वाला जज्बा उन में आ चुका था। मानो, किसी ने इन्हें छेड़ने की हिमाकत की तो यह सब चीर फाड़ कर रख देंगीं। निर्भया के बलिदान ने इन्हें इतना निर्भय तो कर ही दिया था।
– और तब मेरा हाथ इन्हें सलाम करने की मुद्रा में अपने आप ऊपर उठ गया था।
– डा कुंवर प्रेमिल
प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर
ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से डा कुंवर प्रेमिल जी को इस विशिष्ट सम्मान के लिए हार्दिक बधाई
≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ सांगू कशी तुला मी…? – लेखक – डाॅ. शमा देशपांडे ☆ प्रस्तुती – श्री मेघ:श्याम सोनवणे ☆
रविवारची सकाळ. उगीचच सुट्टी म्हणून लोळत पडले होते. घड्याळाचा काटा आठच्या पुढे पुढे जातानाही आळस संपण्याचे चिन्ह दिसेना. घरातील मोठ्या व्यक्तींचा धाक काळाने केव्हाच ओरबाडून नेला होता. खरं म्हणजे धाक कसला, धाकाच्या अंगरख्यात लपलेले प्रेमाचे छत्र हरवून गेले होते. मन झरकन चिंचोळ्या भूतकाळाच्या गुहेत उलट दिशेने धावायला लागले.
अगदी बालपणापासून, नंतर सासरी आल्यावर देखील, घरात आई-बाबांचे छत्र होतेच. सकाळी लवकर उठणे, रात्री लवकर झोपणे हा घरोघरी असणारा विधिलिखित नियम होता. सकाळी सहा नंतर अंथरुणात लोळण्याची कधी हिंमत नसायची. अगदी लहानपणापासून शिस्तीत जगण्याचा, एक संस्कार मनावर पक्का झाला होता.
त्यावेळी त्या शिस्तीचा खरंतर थोडा रागच यायचा पण लग्न होऊन सासरी आल्यावर त्या झालेल्या संस्काराची खरी किंमत कळली. टापटीप रहाणे, व्यवस्थित वस्तू आवरणे, वस्तू जागेवर ठेवणे, लवकर उठणे, व्यायाम करणे, शारीरिक व मानसिक दोन्ही आरोग्याकडे नीट लक्ष देणे. …आता असं वाटतं आमच्या आई-बाबांनी फार धन-दौलत नाही दिली आम्हांला, पण संस्कारांच्या लेण्यांनी मात्र नक्कीच आम्हांला सजवलं.
हे संस्कारांचे लेणं फक्त आमच्याच कडे होते असे नाही. आमच्या त्या मध्यवर्गीय दुनियेत प्रत्येक पालक असेच घडवत असत आपल्या पाल्याला. पण त्यामुळे आमच्या पिढीला एका शिस्तीतून दुसऱ्या शिस्तीच्या घरात येताना त्याचा त्रास झाला नाही.
हळूहळू आई-मुले, वडील-मुले, सासू-सून, सासरे-सून ही सगळी नाती पूर्वीपेक्षा अधिक जवळ येऊ लागली. प्रेमामध्ये काही फरक असेल पूर्वी आणि आत्ता असं अजिबात नाही. पण त्या प्रेमळ अंगरख्याला असणारी शिस्तीची किनार मात्र हळूहळू उसवू लागली. मोकळ्या नात्यांच्या मोकळीकित शिस्तीचा धाक सैल होत गेला.
पूर्वी आई-वडील म्हणायचे, “वळण नसेल तर सासरी गेल्यावर जड जाईल. आत्ताच शिका सगळे”. आता आई वडील म्हणतात, “जाऊदे, लग्नानंतर जबाबदारी येणारच आहे पोरीवर, तेंव्हा राहूदे थोडे मोकळे.”
पूर्वीचे सासू-सासरे म्हणायचे, “तुम्ही नीट तर पुढची पिढी नीट.” आणि आताचे सासू- सासरे म्हणतात “कशाला नवीन सुनेला धाकात ठेवायचे? लागेल वळण हळूहळू. आपण जसे थोडे का होईना दडपलेपणाने वावरायचो तसे नको मुलांना”, आणि नकळत त्यामुळे पुढच्या पिढीवरील शिस्तीचा अंकुश सुटतच गेला.
आता आपण, म्हणजे आमची पिढी नकळतपणे आपल्याच मुलांना, मुलींना व्यवस्थितपणा नाही, टापटीप नाही या तक्रारी करतो. म्हणजे सासुच सुनेची तक्रार करते असं नाही, आई देखील मुलीच्या या बेशिस्त गुणांचे पोवाडे गातेच की. मग लक्षात येतं मुलांना दोष देण्यापेक्षा ती नैतिक जबाबदारी आमच्याच पिढीची तर नसेल नं?
आता असं वाटतं, घरातील मोठ्या लोकांचा मनावर असलेला एक धाक आम्हांला खूप काही देऊनच गेला. आमच्या शिस्तबद्ध, आखीव-रेखीव जीवनाचे खरे श्रेय हे आमचे नसून ते आमच्या मागच्या पिढीचे आमच्यावर असलेले फार मोठे उपकारच आहेत. मुलांना, मुलींना, सुनांना एखादी गोष्ट सडेतोड सांगतांना, मुलांना काय वाटेल, सुनेला काय वाटेल याचा विचार करण्याची कधीही त्या पिढीला गरजच पडली नाही. सगळे नियम सडेतोड!.
आत्ताची कोणत्याही घरातील आई ही आपल्या मुली, मुले, सूना यांना वळण लावत नाही, संस्कार करत नाही असे नाही, पण थोडे लाडाचे प्रमाण मात्र आमच्या पिढीचे वाढते हे नक्की. काहीवेळा कुठे सारखे संस्कार, शिस्तीच्या दावणीला मुलांना बांधायचे म्हणून सोडून द्यायचे. कधी, ‘आपल्याला झेपतेय नं काम, मग सारखे मुलांना बोलून ते काम करवून घेण्यापेक्षा झेपेल तितके काम करायचे आणि मोकळे व्हायचे’. सुनेला, मुलांना, मुलींना सारखे वळण लावत बसलो तर घरातले वातावरण बिघडेल अशी मनात भीती बाळगून गप्प रहायचे. गप्प राहून घराचा गाडा त्या माउलीने ओढत रहायचा. घरा-घरातील हाच सोहळा थोड्याफार फरकाने, असाच साजरा होताना दिसतो सगळीकडे.
मला असं वाटतं, म्हंटल तर प्रॉब्लेम, म्हंटल तर ‘सध्या सगळीकडे असेच चालते’ म्हणून सोईस्कर सोडून देणं. पण मनात मात्र धगधग! ‘बोलू का नको? सांगू का नको?’
मुलांच्या किंवा मुलींच्या दोघांच्याही बाबतीत चुकतं तिथं वेळीच मुलांना खडसावणे ही प्रत्येक पालकाची जबाबदारी आहे. मुले (मुलगा मुलगी) दोघेही जर व्यसने, स्वैराचार, याची एकेक पायरी चढताना दिसत असतील तर वेळीच त्यांना थोपवणे ही आमच्या पिढीचीच जबाबदारी आहे.
सुरवातीला मुलांच्या किंवा मुलींच्या रात्र-रात्र बाहेर रहाण्याचे कौतुक होते. कोणत्या नवीन चवीची मद्ये मुलांनी टेस्ट केली याचेही कौतुकच केले जाते. नवी पिढी, नवा जमाना आहे म्हणून त्याकडे दुर्लक्ष केले जाते. पण नंतर स्वैराचाराच्या पायऱ्या चढत चढत मुले जेव्हा अवनतीच्या उत्तुंग शिखरावर पोहचतात तेव्हा त्या शिखरावरून दरीत कोसळणाऱ्या मुलांना फक्त दुरून पाहून परिस्थितीला दोष, नशिबाला दोष देण्यापलीकडे काहीही आपल्या हातात उरलेलं नसते.
घरातील छोट्या छोट्या गोष्टींची शिस्त मुलांमध्ये रुजवणे जितकी महत्वाची गोष्ट तितकीच किंवा त्याहून अधिक महत्वाची गोष्ट म्हणजे आपली मुले व मुली घराबाहेर वावरताना त्यांच्यावर एक मर्यादेचा अंकुश असणे गरजेचे आहे. चारित्र्य, व्यसने, पार्ट्या, कुठे किती थांबायचे हे मुलांना समजत नसेल तर पालकांनी हस्तक्षेप करणे खरे तर अगदी आवश्यक. पण आजकाल सांगू कशी तुला मी?’ या परकेपणातून, संकोचातुन, भीतीमधून पुढच्या पिढीचे आपण नुकसान करतो हेच मुळी आपण विसरून जातो.
मुलांच्या कोणत्याही चुकांना निर्भीडपणे विरोध करणारा समाज कुठेतरी हरवत चालला आहे. मुलांना बोललं तर राग येईल, विरोध केला तर संबंध बिघडतील या भीतीतून प्रत्येक चुकीची गोष्ट थंडपणे पहाणे हे मुलांवरील प्रेम थंडावण्याचेच एक लक्षण आहे.
ज्या मुलांवर तुम्ही प्रेम करता, त्या मुलांना चुकले तर रागावण्याचा तुमचा अधिकार आहेच. सुनेला जर तुम्ही तुमची मुलगी समजून मुली इतके तिच्यावर प्रेम करत असाल तर मुलीच्याच नात्याने तिला रागावण्याचा पण तुमचा अधिकार आहे. उलट मोकळेपणाने तिला चुका न सांगणे, न रागावणे म्हणजे तुमच्या नात्यात अजून परकेपणाच आहे असं समजायला हरकत नाही.
संस्कार एका पिढीतून पुढच्या पिढीत जात असतात. कळत -नकळत तुमची मुले तुमचे अनुकरण करत असतात. मग ते मोबाईल तासन तास बघणे असो, दुसऱ्याचा अनादर करणे असो किंवा बेशिस्तीचे वर्तन असो. एक म्हण आहे, पुढला बैल नेटा तर दाविल दाही वाटा’
खरं म्हणजे पुढची पिढी खूप हुशार आहे, समंजस आहे, कित्येक बाबतीत आपल्या पेक्षा सरसच आहे. चुका होतात पण चुका स्वीकारणं व त्या सुधारणे या दोन्ही साठी हिम्मत लागते. आणि त्यापेक्षाही अधिक हिम्मत मुलांच्या चुका योग्यवेळी निदर्शनास आल्यास त्या मुलांना त्या पासून परावृत्त करण्यात असते.
केवळ चांगुलपणा मिळवण्यासाठी आमच्या पिढीने म्हणजे आई, वडील, सासू, सासरे, आजी-आजोबा या सगळ्यांनीच ‘सांगु कशी तुला मी ?’ या भूमिकेचा त्याग करणे ही एका सशक्त समाजाच्या निर्मिती साठी असलेली छोटीशी गरज आहे.
आजचा हा लेख श्री. उदय मोडक, धारवाड, कर्नाटक यांच्या सौजन्याने.
लेखक : डॉ. शमा देशपांडे
प्रस्तुती – श्री मेघ:श्याम सोनावणे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ गोष्ट एका सी. ई.ओ.ची — भाग-१☆ श्री मंगेश मधुकर ☆
एखादा दिवस असा उगवतो की काहीच करायची इच्छा होत नाही. फक्त कंटाळा आणि कंटाळा. सुट्टी असूनही प्रचंड बोर झालेलो. काय करावं सुचत नव्हतं. एकदम कपाट आवरायची लहर आली. पसारा बाहेर काढताना जुनी लाल डायरी सापडली. उत्सुकतेनं पानं चाळताना ‘मन’ जुन्या दिवसात गेलं. तीसेक वर्षापूर्वीच्या नोंदी,सहा आकडी लँडलाईनचे नंबर पाहून गंमत वाटली. एका नंबर जवळ नजर थबकली. त्यावर कधीच फोन केला नाही की त्या नंबरवरून कधी फोन आला नाही तरीही. . . . . . आपल्या मोबाईलमध्ये नाही का काही नंबर उगीचच सेव्ह असतात अगदी तसंच. जुन्या आठवणीत हरवलो असताना मोबाईलच्या आवजानं वास्तवात आणलं.
“कुठं आहेस”ऑफिसमधल्या मित्राचा फोन.
“घरी”
“म्हणजे तुला कळलं नाही ”
“काय झालं. मी कायम ऑनलाइन नसतो. ”
“व्हॉटसप चेक कर. उद्या नवीन सीईओची व्हिजिट आहे. आत्ता सगळ्यांना कंपनीत बोलावलयं”
“अशी एकदम अचानक व्हिजिट”
“उद्या आल्यावर डायरेक्ट विचार”मित्र वैतागला.
“माझ्यावर कशाला चिडतोस. ”
“मोठ्या लोकांच्या मोठ्या गोष्टी. . सोड ना लवकर ये. बाय”
कसं असतं ना आपलं आयुष्य!!
काहीवेळा पूर्वी काय करावं सुचत नव्हतं अन आता डोक्यात कामांचा विचार सुरू झाला. गडबडीत आवरून ऑफिसला पोचलो. सीईओ येणार म्हणून सगळेच टेंशनमध्ये आणि दडपणाखाली होते. जो तो रेकॉर्ड अपडेट करण्याच्या प्रयत्नात आणि आमचे साहेब तर प्रचंड अस्वस्थ. क्षुल्लक कारणावरून चिडत होते. दिसेल त्याला झापत होते. अशा तणावपूर्ण वातावरणात काम करून रात्री उशिरा घरी आलो अर्थातच शांत झोप लागली नाही.
सकाळी नेहमीपेक्षा लवकरच ऑफिसला पोचलो. वातावरण रोजच्या सारखं नव्हतं. सगळ्यांच्या चेहऱ्यावर अदृश्य तणाव होता आणि तो क्षण आला. पाचच मिनिटांत सीईओ पोचत आहेत असा निरोप आल्यावर सगळे एकदम दक्ष. काही वेळातच महागडी काळ्या रंगाची कार दारात थांबल्यावर साहेब दार उघडायला धावले आणि सगळे डोळे फाडून पाहू लागलो. गाडीतून उतरलेल्या सीईओंना पाहून सर्वांच्या भुवया उंचावल्या.
ऊंच,स्मार्ट,गोरा रंग,चाळीशी पार केलेली तरी देखणंपण लपत नव्हतं,काळा गॉगल लावलेल्या मॅडमना पाहून दबक्या आवजात चर्चा सुरू झाली. साहेबांनी बुके देऊन स्वागत केलं आणि टीमची ओळख करून द्यायला सुरवात केली तेव्हा मॅडमनी थांबवलं. “नो फॉर्मॅलिटीज, ओळख नंतर होईलच. लेट्स स्टार्ट द वर्क” मॅडमचा पवित्रा बघून दिवस कसा जाणार याचा अंदाज आला. अभिवादनाचा स्वीकार करत जात असताना मला पाहून अचानक मॅडम थांबल्या अन गॉगल काढून हसल्या तेव्हा भीतीची लहर सर्वांगातून गेली. विचारांच्या भुंग्याचं कुरतडणं सुरु झालं.
“मॅडम तुझ्याकडं पाहून हसल्या का रे?”मित्रानं विचारलं. )
“मला काय माहिती. जा त्यांनाच विचार. . ”
“जुनी ओळख वाटतं?”
“डोंबल!!त्या कुठं मी कुठं,आज पहिल्यांदाच बघितलं. ”
“मग तुझ्याविषयी रिपोर्ट गेलेला दिसतोय. बेस्ट ऑफ लक”मित्रानं विनाकारण टेन्शन वाढवलं. मॅडम प्रत्येक डिपार्टमेंटमध्ये जाऊन माहिती घेऊ लागल्या. माझ्या इथं आल्यावर साहेबांनी ओळख करून दिली तेव्हा मॅडम “येस आय नो अबाऊट हिम” एवढं बोलून कामासंदर्भातले प्रश्न विचारून पुढे गेल्या. दोनदा झालेल्या भेटीत मॅडमचं वागणं वेगवेगळं होतं. आपल्याकडून मोठी चूक झालीयं आणि त्याची दखल मॅनेजमेंटनं घेतलीय याची खात्रीच पटली. कोणत्याही क्षणी केबिनमधून बोलावणं येईल या धास्तीनं काम करत होतो पण तसं काहीच झालं नाही. दिवसभर मॅडम मिटिंग्स,प्रेझेंटेशन यामध्ये बिझी होत्या. दुपारी चार नंतर ‘ऑल द बेस्ट,किप अप द गुड वर्क’ म्हणत मॅडम कंपनीतून बाहेर पडल्या तेव्हा सगळ्यांनी मोठ्ठा सुटकेचा नि:श्वास सोडला.
“या पठ्ठ्यानं मॅडमना जिंकलेलं दिसतंय”मित्रानं पुन्हा खोडी काढली.
“ए बाबा,गप ना. कशाला उगीच?”
“अरे गंमत केली. उगीच चिडू नकोस. ”
“तसं नाही रे. कालपासून टेन्शन होतं पण बाईंनं जास्त छळलं नाही. ”साहजिकच मॅडमविषयी चाय पे चर्चा सुरू झाली. इतक्यात फोन वाजला. अनोळखी नंबर होता. “मिस्टर अनिल”
“घरी जायच्या आधी मला भेटा. महत्वाचं बोलायचंयं. सी यू”
“कोणाचा फोन होता रे”मित्रानं विचारलं.
“काही सिरियस नाही ना. घाबरलेला दिसतोयेस. ”
“ नाही रे . डोन्ट वरी” घरी निघताना मघाच्याच नंबरवरुन हॉटेलचा पत्ता असलेला मेसेज आला. म्हणजे मघाशी खरंच सीईओंचा फोन होता. पोटात भीतीचा गोळा आला.
हॉटेलवर पोचल्यावर तिथला हायफायपणा पाहून आत जायची हिंमत होईना. दारातच घुटमळत होतो. परत फिरावं असं वाटत होतं. तितक्यात मॅडमचा फोन “आलात का,मी रेस्टॉरेंटमध्ये आहे. तिथ या”आत शिरताना छातीची धडधड वाढली. बावरलेल्या नजरेनं पाहताना एका टेबलावर मॅडम दिसल्या. समोर जाऊन उभा राहिलो.
“बसा”मॅडम सांगितलं.
“नको”
“मिस्टर अनिल,बसा” मॅडम चढया आवाजात म्हणल्यावर निमूटपणे खुर्चीवर बसलो. बेचैनीमुळं उजवा पाय जोरजोरात हलायला लागला. मॅडम फक्त एकटक पाहत होत्या त्यामुळे जास्तच अवघडलो. दोन ग्लास पाणी पिलं तरी घशाला कोरड पडली.
“रिलक्स,मी तुम्हांला खाणार नाही”
“मॅडम,नक्की झालंय काय?माझी काय चूक ये ?इथं का बोलावलंय”
“मि. अनिल सगळं कळेल. जरा धीर धरा. ”मॅडमच्या बोलण्यानं काळजाचा ठोका चुकला. तेवढ्यात फोन आल्यानं मॅडम बिझी झाल्या आणि मी मात्र…
आजही माझ्या स्वप्नात तेच घर येतं. एक मजली, खालच्या पायरीवर पाण्याचा नळ असलेलं, वर जाण्यासाठी एक लाकडी जिना, उजवीकडे दरवाजा, मधल्या भागातलं छोटसं लँडिंग, दरवाजा लाकडाचा आणि घरात जाताना ओलांडावा लागणारा लाकडी उंबरठा. दरवाजाच्या बाहेरच्या,वरच्या भागावर लटकणारी एक लोखंडी साखळी. बाहेर जाताना ती साखळी अडकवायची आणि त्यात लोखंडी कुलूप लावायचं. जाताना दोन वेळा कुलूप ओढून बघायचं. आता हे आठवलं की वाटतं त्यावेळी अशा कुलपातलं बंद घर कसं काय सुरक्षित राहायचं? आता आपण घराला दोन दोन दरवाजे, एक जाळीचा, एकाला पीप होल, अत्याधुनिक कुलुपे, गुप्त नंबर असलेली, शिवाय कॅमेरे, सीसीटीव्ही आणि असेच बरेच काय काय… तरीही आपलं घर सुरक्षित राहील का? याविषयी शंकाच असते.
तो काळच वेगळा होता का? स्वप्नात जेव्हा जेव्हा मला ते घर दिसतं तेव्हा तेव्हा मी मनोमन त्या वास्तुदेवतेस मनापासून नमस्कार करते. कारण याच वास्तुदेवतेने माझी जडणघडण केली. इथेच मी खरी मोठी झाले आणि आयुष्यातले असंख्य आनंदाचेच नव्हे तर अनेक संमिश्र भावनांचे क्षण वेचले.
४/५ शा.मा. रोड, धोबी गल्ली, टेंभी नाका ठाणे.
या पत्त्याला माझ्या आयुष्यात खूप महत्त्व आहे कारण माझं बालपण याच गल्लीत गेलं. बालपणीचा तो रम्य काळ आणि धोबी गल्ली याचं अतूट नातं आहे. या गल्लीचं आजही माझ्या मनात अस्तित्व आहे. ती जशीच्या तशी माझ्या नजरेसमोर अनेक वेळा येते, हळूहळू आकारते आणि चैतन्यमय होते. अरुंद पण लांबलचक असलेली ती गल्ली, एकमेकांना चिकटून समोरासमोर उभी असलेली काही बैठी,काही एक मजली घरं.. त्या सर्व घरांची दारं मनातल्या मनात फटाफट उघडली जातात आणि माझे ते बाल सवंगडी माझ्या भोवती नकळत गोळा होतात. चित्रा,चारू, बेबी, दिलीप, सुरेश, अशोक, लता, रेखा, अरुण, शरद, आनंद कितीतरी आणि मग आमचे खेळ रंगतात.
डबा ऐसपैस, लगोरी, सागरगोटे, कंचे, लंगडी, खो-खो, अगदी क्रिकेट सुद्धा! आरडाओरडा, गोंगाट, धम्माल!
पद्धतशीर क्रीडा साहित्य म्हणजे काय याच्याशी आमची ओळख ही नव्हती. खरं म्हणजे आम्हाला त्याची जरुरीच भासली नाही. धुणं धुवायच्या धोपटण्याने आम्ही क्रिकेट खेळलो. असमान उंचीच्या मिळेल त्या काठ्यांनी आम्ही यष्टी रचली. गद्र्यांचं घर ते सलाग्र्यांचं घर ही आमची विकेट आणि त्यापलीकडे चौकाराच्या, षटकाराच्या रेषा. समोरासमोर असलेल्या पायऱ्यांवर उभे राहून फिल्डींग व्हायचं आणि असं आमचं गल्ली क्रिकेट जोरदार रंगायचं. रडी खडी सगळं असायचं पण मुल्हेरकरांचे नाना आमचे थर्ड अंपायर असायचे. नाना तसे काही फारसे खिलाडू वृत्तीचे नव्हते. आम्हा खेळणाऱ्या मुलांचा खूप राग राग करायचे. चुकून त्यांच्या गॅलरीत आमचा बॉल गेला तर ते परतही द्यायचे नाहीत.
“मस्तवाल कार्टी! रविवारी सुद्धा शाळेत पाठवा यांना. नुसता गोंगाट करतात, दुपारची वामकुक्षीही घेऊ देत नाहीत.” पण तरीही आम्ही खेळत असताना गॅलरीच्या धक्क्याला टेकून उभ्याने आमचा खेळही बघत असत आणि त्यांना अंपायरचा मान दिला की मात्र ते खूष व्हायचे. आम्ही पोरंही काही साधी नव्हतो बरं का! चांगले चतुर, लबाड, लुच्चेच होतो आणि प्रचंड मस्तीखोरही. आज जेव्हा मी पाठीवर पुस्तकांनी भरलेली बॅग पॅक घेऊन स्कूलबसच्या रांगेत आजी किंवा आजोबांचा हात धरून उभं असलेलं बाल्य बघते ना तेव्हा पोटात कळवळतं कुठेतरी. हरवलेलं, बॅकपॅक मध्ये कोंबलेलं ते बालपण माझं काळीज चिरून जातं.
धोबी गल्लीतली ती घरं म्हणजे नुसत्या चुना मातीच्या भिंती नव्हत्या. या भिंती बोलक्या होत्या. या भिंतींच्या आत आणि पलीकडे असलेल्या जगाचा एक सुंदर बंध होता. एक रक्ताचा आणि दुसरा सामाजिक. घरात असलेली नाती आणि भिंतीच्या पलिकडची नाती बांधणारा तिथे एक अदृश्य पूल होता आणि या पुलावरच मी घडले. त्या वातावरणात मी वाढले, तिथे माझ्यावर असंख्य वेगवेगळे संस्कार झाले.
माझी संस्कारांची व्याख्या आणखी थोडी निराळी आहे. सर्वसाधारणपणे संस्कार म्हणजे मोठ्यांचा मान ठेवणे, रीती, परंपरा, देवधर्म पाळणे, नेहमी खरे बोलणे, नम्रता, शालीनता, सुहास्य, सुभाष्य वगैरे वगैरे खूप काही. संस्कार म्हणजे एक आदर्श तत्वांचं भलं मोठं गाठोडच म्हणा ना! ते तर आहेच. ते नाकारता येणारच नाही पण त्या पलिकडे जाऊन मी म्हणेन संस्कार म्हणजे स्वतः केलेलं निरीक्षण. आजूबाजूच्या वातावरणातून मिळालेली अनेकविध चांगली वाईट भलीबुरी टिपणं आणि या सगळ्या तुकड्या तुकड्यांमध्ये मी कोणता तुकडा हे योग्य रितीने शोधणं, ते शोधता येण्याची क्षमता असणं म्हणजे संस्कार.
धोबी गल्लीत माझं बालपण फुलत असताना कळत नकळत अनेक चांगल्या वाईट भावभावनांचं, प्रसंगांचं नकळत मेंदूत झालेलं रजिस्ट्रेशन आजही डिलीट झालेलं नाही. बालपणी हसताना, खेळताना, भांडताना, बागडताना, बघताना फारसे प्रश्न पडले नसतील किंबहुना प्रश्न विचारण्याची क्षमता तेव्हा नसेल पण पुढच्या आयुष्यात जगताना आणि मागे वळून पाहताना अनुभवलेल्या या प्रसंगांनी आपल्याला किती शिकवण दिली याची जेव्हा जाणीव होते ना तेव्हा संस्काराची व्याख्या व्यापक होते.
धोबी गल्ली म्हणजे माझ्यासाठी बालभारती होती.
धोबी गल्लीतलं जग लहान होतं. काही थोड्याच लोकसंख्यांचं होतं. फार तर दहा-बारा घरं असतील पण आता विचार केला तर वाटतं जग लहान किंवा मोठं नसतं. जे जग तुम्हाला किती दूरवर नेऊ शकतं किंवा किती दूरवरचे दाखवते, किती विविधतेत तुम्हाला वावरायला लावते त्यावरून त्याचं क्षेत्रफळ ठरत असतं.
धोबी गल्ली तशी होती.
ते एक निराळं जग होतं. लहान— थोर सर्वांचंच. या गल्लीत जितकी एकजूट आणि एकोपा अनुभवला तितक्याच मारामाऱ्या आणि आणि भांडणही पाहिली. जिथे देवांच्या आरत्या ऐकल्या, म्हटल्या तिथे प्रचंड शिवराळ भाषेचाही भेसूरपणा अनुभवला.
मुळातच या धोबी गल्लीचे दोन भाग होते. एक इकडची गल्ली आणि एक तिकडची गल्ली. दोन्ही भागातलं जग निराळं होतं, दोन्ही भागातली संस्कृती वेगळी होती. आम्ही मुलं इकडच्या गल्लीतली होतो. कुटुंबात सुरक्षितपणे वाढत होतो. आम्ही शाळेत जात होतो, अभ्यास करत होतो, गृहपाठ, परीक्षा.. सहामाही— वार्षिक यांचा तणाव बाळगत होतो, परवचा, शुभंकरोती प्रार्थना म्हणत होतो. मे महिन्याच्या, दिवाळीच्या सुट्टीत मुक्तपणे धांगडधिंगा घालत होतो. घरातल्या मोठ्या माणसांचा दमही खात होतो आणि प्रत्येक जण कधी ना कधी, लपून-छपून गुन्हेही करत होते. गुन्हा शब्द फार मोठा वाटेल पण त्यावेळी घंटीच्या गाडीवर जाऊन बर्फाचा गोळा खाणे, कुणाच्या परसदारात जाऊन झाडावरच्या कैऱ्या नाहीतर जांभळं तोडणे, बटुबाईच्या कोंबड्यांना पळवणे, नाहीतर तिकडच्या गल्लीत राहणाऱ्या एबी आणि रोशन या बहिणींशी गप्पा मारायला जाणं वगैरे अशा प्रकारचे मोठ्यांचे अज्ञाभंग करणारे गुन्हे असायचे.
इकडच्या गल्लीतलं पहिलं घर होतं मथुरे यांचं आणि शेवटचं दिघ्यांचं. त्यामुळे मथुरे ते दिघे हे आमचं जग होतं पण पलीकडच्या म्हणजेच तिकडच्या धोबी गल्लीतलं जीवन फार वेगळं होतं. तिथे राहणारी माणसं, त्यांचे व्यवसाय, त्यांचे आचार विचार वागणं अगदी त्यांचा आर्थिक स्तर, जात धर्म यांतही भेद होते. हे अंतर , हा भेद त्यावेळी का राखला गेला, का बाळगला गेला किंवा तो का पार करता आला नाही हे सारे प्रश्न आता मनात येतात पण त्यावेळी मात्र माझं बालपण या दोन भिन्न विश्वात नकळतपणे विभागलं गेलं होतं.
बाकीचं फारसं आठवत नाही पण एबी आणि रोशन या ईस्रायली बहिणींबद्दल मात्र मला खूप कुतूहल होतं हे नक्कीच. त्या दोघी अतिशय सुंदर होत्या. त्या काळात त्या हिंदी सिनेसृष्टीतल्या समूह नृत्यांगना होत्या. त्यांच्याकडे नृत्य शिकवायला कोणी कोणी येत. खरं म्हणजे आम्हाला त्यांच्या घरी जाण्याची परवानगी नव्हती पण त्या दोघींना त्यावेळी मस्त फॅशनेबल कपडे घालून, आता आपण ज्याला मेकअप म्हणतो पण त्यावेळी रंगवलेल्या चेहऱ्याने त्यांना गल्ली ओलांडताना मी अनेकदा माझ्या घराच्या खिडकीतून पहायची आणि खरं सांगू मला त्या दोघींबद्दल खूप आकर्षण वाटायचं. त्याही वयात वाटायचं की यांच्याशी आपण का नाही बोलायचं? का नाही त्यांच्याशी मैत्री करायची?
त्या उदरनिर्वाहासाठी सिनेमात गेल्या. त्यांच्यावर घर चालवण्याची जबाबदारी होती. रोशन तर साधारण माझ्याच वयाची होती. एबी थोडी मोठी होती.
उदरनिर्वाह,घर चालविणे यातलं गांभीर्य तेव्हा मला कळतही नव्हतं. इतकंच कळत होतं आपल्यापेक्षा त्या वेगळ्या आहेत.
काही वर्षांनी ते सारं कुटुंब पॅलेस्टाईनला स्थलांतरित झाले.
अशा या पार्श्वभूमीवर आजही ती धोबी गल्ली मला एखाद्या स्थितप्रज्ञा सारखी भासते. तिथल्या घराघरांमध्ये घडणाऱ्या घटनांची खरी साक्षीदार वाटते. सर्व धर्म आचार विचार समावेशक वाटते.
तो एक अथांग जीवन प्रवाह होता आणि माझं बालपण त्याच प्रवाहात वल्ही मारत घडत होतं.