(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चिन्तामणि…“।)
अभी अभी # 430 ⇒ चिन्तामणि… श्री प्रदीप शर्मा
सरकारी स्कूल में पढ़ने का एक लाभ यह भी हुआ कि सभी प्रमुख हिंदी लेखकों से परिचय हो गया। प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, महादेवी और हजारीप्रसाद द्विवेदी। सुमित्रानंदन पंत को व्यक्तित्व के आधार पर महिला समझने की भूल हम भी कर बैठे थे। लेकिन सबसे अधिक हमें जिसने प्रभावित किया, वे थे, आचार्य रामचंद्र शुक्ल।
हिंदी साहित्य का इतिहास तो हमने बाद में पढ़ा, लेकिन मनोभाव और विकारों पर चिंतामणि में संकलित उनके निबंधों ने हमें अधिक प्रभावित किया। हमने अंग्रेजी निबंधकार फ्रांसिस बेकन को भी पढ़ा, लेकिन उनमें वह बात नहीं थी, जो चिंतामणि में हमने पाई। । दूसरा हमारा उनकी ओर झुकाव उनके व्यक्तित्व के कारण था, विदेशी पहनावा, गले में टाई, घनी विशिष्ट प्रकार की मूंछ और आंखों पर मोटा चश्मा। ।
तब से आज तक, उनकी शायद एक ही तस्वीर उपलब्ध है। हमारी उनकी केवल एक ही समानता रही है, मैं भी बचपन से ही उनकी तरह मोटा चश्मा लगाता आ रहा हूं। उनका मोटा चश्मा जहां उनके ज्ञान के आगार, तीक्ष्ण बुद्धि और विद्वत्ता का प्रतीक है, वहीं मेरा मोटा चश्मा मेरी मोटी बुद्धि का प्रतीक। हाथ कंगन को आरसी क्या, आप एक तरफ चिंतामणि रख दीजिए और दूसरी ओर अभी अभी। अंतर स्पष्ट हो जाएगा।
मनोभाव हमारे विचारों का ही तो प्रकटीकरण है। अगर चित्त शुद्ध है तो विचार भी शुद्ध ही होंगे और अगर चित्त विकार युक्त है तो वे विचार मनोविकार कहलाएंगे।
चिंता और चिंतन से भी बेहतर एक मार्ग स्वाध्याय का है, जहां चिंतन, मनन, के साथ अध्यात्म चिंतन भी संभव है। चिंतामणि है तो हमारे अंदर ही, उसे बाहर नहीं खोजा जा सकता ..!!
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “सिसकती बूँदें”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 201 ☆
🌻 लघु कथा🌻 🌧️सिसकती बूँदें🌧️
चंचल हिरनी सी उसके दो नैन, बस इंतजार ही तो कर रहे थे। कई वर्षों से वह चाह रही थी कि घर वालों के साथ सुधांशु उसका अपना हो जाए।
शायद परदेस से आने के बाद मन बदल जाए। सावन हरियाली चारों तरफ छाने लगी थी। मन भी पिया मिलन के सपने संजोए उस पल को तक रही थी, कि कब वह घड़ी आए और उसमें वह व्याकुल धरा सी और अमृत बूँद बनकर वे समा जाए।
महक जाए सोंधी खुशबू से घर आँगन, सारा परिवार और फिर मनाने लगे त्यौहार शायद उसकी कल्पना कल्पना ही रह गई।
शुचि ने जैसे ही पलकों को खोल सामने देखना चाहा बारिश बंद हो चुकी थी। परंतु अभी भी तेज गर्जन की आवाज से वह उसी प्रकार से डरने लगी, जैसे सुधांशु खड़ा गरजती आवाज में कह रहा हो – दरवाजा खोलो कितनी देर लग रही हो। दरवाजा खोलते ही सुधांशु के साथ साथ ही साथ बिल्कुल आधुनिक लिबास में सुंदर सी नवयौवना गृहप्रवेश करने लगी।
शुचि को समझते देर नहीं लगी वह ठहरी गांव की अनपढ़ शायद इसीलिए वह पीछे सरकती चली गई। तेज बिजली कौंध गई। बारिश की बूँदों का चारों तरफ तेज हवा के साथ गिरना आरंभ हुआ।
आँगन में कपड़े उठते शुचि के चेहरे पर सिसकती बूँद आज बहुत कुछ बोलती, परंतु बस फिर एक तेज आवाज और गिरती सिसकती बूँदें धीरे-धीरे पलकों को छोड़ हाथों के सहारे साड़ी के पल्लू तक पहुंच गई थी।
शायद बारिश की बूँदें भी शुचि की इस दशा पर सिसक-सिसक कर गिरने लगी।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 94 ☆ देश-परदेश – मेरे दोस्त पिक्चर अभी बाकी है ☆ श्री राकेश कुमार ☆
इस नाम से भी एक पिक्चर बन चुकी हैं। पिक्चर कितनी प्रसिद्ध हुई ? ये जानकारी हमें तो नहीं है, लेकिन इसका उपयोग डायलॉग के रूप में खूब चल रहा हैं।
आडंबर विवाह की चर्चा अभी चल ही रही हैं। सामाजिक मंच कह रहे है, पूरी दुनिया पर राज करने वाले देश की राजधानी लंदन में भी एक बड़े आयोजन की सुगबुघाट जोरों पर हैं।
उनको क्या अंतर पड़ता है, कोई बहुत बड़ा होटल उन्होंने कुछ समय से लीज पर लिया हुआ हैं। वहीं आयोजन हो जाएगा। अंतर तो उनको पड़ेगा, जिनके पास “पार्टी वियर” का सीमित प्रावधान हैं। प्रत्येक कार्यक्रम में भाग लेने वाले के लिए तो धर्म संकट की स्थिति बन गई हैं। एक वर्ष के आसपास से तो विवाह चल रहा हैं। देश में सबसे लंबी आम चुनाव की प्रक्रिया भी पूरी हो गई हैं। नीट का मामला भी सुप्रीम कोर्ट ने सुलटा दिया है। विश्व के अनेक जोड़ों का भी “आडंबर विवाह वर्ष” के दौरान हुआ है, उनके यहां तो नए मेहमान के आने की घोषणा भी हो चुकी हैं। इनमें से कुछ के विवाह विच्छेद की तैयारी में हैं।
पिक्चर अभी बहुत सारी बाकी हो सकती है, क्या पता अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों में कोई आयोजन प्रस्तावित हों ?बड़े लोग बड़ी बातें, पेरिस ओलंपिक के उद्घाटन में शिरकत करने के समय, फ्रांस के राष्ट्रपति से मुलाकात भी हुई है। हो सकता है, फ्रांस भी चाहता हो, एक वैवाहिक कार्यक्रम उनके देश में भी आयोजित होना चाहिए।
हम भी चाहते हैं, ये दावतें, खुशियां हमेशा गुलज़ार रहें, ताकि हमें भी कुछ लिखने का मौका मिलता रहे।
☆ भावनाओं के आकाश में बाल विदुषी – ‘आराध्या तिवारी’ ☆ प्रस्तुती – श्री हेमन्त बावनकर ☆
यदि उच्च संस्कृति और संस्कार का सानिध्य भी जुड़ जाए तो निश्चित ही नई प्रतिभा रोशनी बनकर संभावनाओं के आकाश में झिलमिलाने लगती है। आज हम ऐसी ही अद्भुत प्रतिभा की धनी बाल विदुषी यानि आराध्या तिवारी की बात कर रहे हैं। स्मॉल वंडर सीनियर सेकेंडरी स्कूल की एक सचमुच की स्मॉल वंडर कक्षा पांचवी की छात्रा आराध्या तिवारी ने बेहद कम उम्र में कई बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं और यह सिलसिला अभी भी बदस्तूर जारी है। बाल भवन, मध्यप्रदेश सरकार, जबलपुर के माध्यम से संगीत का विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त कर रही हैं। जिसके संचालक श्री गिरीश बिल्लौरे जी हैं। भातखंडे संगीत महाविद्यालय में नृत्य का भी प्रशिक्षण प्राप्त कर रही हैं। स्वयं के चैनल “प्रियम प्रियम और सिर्फ प्रियम” का संचालन तो करती ही हैं साथ में जबलपुर के विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमों में कविता पाठ करती आई हैं। फिजिकल एक्टिविटी के प्रति भी आराध्या का बड़ा रुझान है। वे नित्य योग, स्केटिंग का अभ्यास करती हैं। खेलों में निरंतर सक्रिय रहते हुए आराध्या ने राइफल शूटिंग, सिललिंग शॉट एवं कराटे की विभिन्न प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक एवम अनेक प्रमाण पत्र नन्ही सी उम्र में प्राप्त किए हैं। बात कविता, कहानी, या गीत लेखन में रुचि की हो तो ये संस्कार उनको अपने दादा तथा ख्यातिलब्ध वरिष्ठ कवि, गीतकार, साहित्यकार, लेखक, पत्रकार एवं मेरे गुरु डॉ. श्री राजकुमार तिवारी सुमित्र जी से विरासत में मिले हैं। डॉ. सुमित्र जी की परंपरा को निभाते हुए आराध्या कविता, गीत कहानी लेखन में भी धीरे-धीरे पारंगत हो रही हैं।
एक साक्षात्कार पोती के प्रश्न और दादा के उत्तर
संस्कारधानी जबलपुर मध्यप्रदेश की बाल पत्रकार आराध्या तिवारी प्रियम ने अपने दादा प्रख्यात साहित्यकार डॉ राजकुमार तिवारी सुमित्र से लिया साक्षात्कार आइए देखें आराध्या के प्रश्न और दादा के उत्तर क्या स्वप्न उन्होंने बचपन में देखा था क्या वे वैसा बन पाए डॉक्टर सुमित्र ने… बाल पत्रकार आराध्या के प्रश्नों के उत्तर दिये एक अनोखा और अद्भुत इंटरव्यू
प्रतिभाशाली आराध्या तिवारी प्रियम की कुछ विशेष उपलब्धियाँ –
रिकॉर्ड होल्डर्स रिपब्लिक इंडिया (RHR) द्वारा सर्टिफिकेट ऑफ एक्ससिलैंस से सम्मानित।
देश के पहले साहित्यक चैनल डायनामिक संवाद टी वी में 2018 से निरंतर एंकरिंग कर सराहना व सुर्खियां बटोर रही हैं।
कोरोना काल में कोरोना सहायतार्थ निगम प्रशासन को अपनी गुल्लक से 5000 रुपए प्रदान किये।
विवेचना रंग मंडल के थिएटर वर्कशॉप में सहभागिता निभाई और प्रख्यात नृत्य निर्देशिका डॉ. उपासना उपाध्याय की लघु फिल्म जो कि सुप्रसिद्ध कवयित्री स्व. सुभद्रा कुमारी चौहान जी की कविता पर निर्देशित लघु फ़िल्म में सराहनीय अभिनय किया।
आपका यूट्यूब पर अपना चैनल है “प्रियम प्रियम और सिर्फ प्रियम” जिसकी दर्शक संख्या लगातार बढ़ रही है।
जबलपुर नगर निगम के स्वच्छता सर्वेक्षण 2023 में सबसे कम उम्र की ब्रांड एंबेसडर चुना गया है।
लाड़ली लक्ष्मी उत्सव। जिला प्रशासन, जबलपुर | बेटियाँ (झलकियां)
बहुत छोटी सी उम्र से ही कराटे, योग शिक्षा, स्केटिंग राइफल, शूटिंग, सीलिंग शॉट में अपना हुनर बखूबी दिखाया है और बहुत सारे मेडल और शील्ड अपने नन्हे हाथों से हासिल किए हैं।
बाल भवन जबलपुर से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा डॉ. शिप्रा सुल्लेरे से प्राप्त कर रही हैं।
इंटरनेशनल बुक ऑफ़ रिकार्ड्स प्रमाण पत्र से सम्मानित।
बाल पत्रकार के रूप में आपको जिला प्रशासन द्वारा भी प्रमाण पत्र प्रदान किया गया है।
साहित्यिक संस्था वर्तिका द्वारा भी आपको श्रेष्ठ एंकरिंग के लिए भी सम्मानित किया गया है।
जबलपुर के लोकप्रिय सांसद राकेश सिंह जी का साक्षात्कार लिया है, जो सोशल मीडिया पर बहुत चर्चित रहा है। इसके साथ ही अनेक राजनीतिक एवं साहित्यिक व्यक्तित्व का साक्षात्कार भी लिया है। https://www.facebook.com/share/v/QSRLGDz7zeSCd9xm/
आराध्या अपनी समस्त उपलब्धियों का श्रेय अपने स्व. दादा जी दादी जी, माता पिता, स्कूल के शिक्षक शिक्षिकाओं, स्कूल प्रबंधन को देती हैं। आराध्या का मानना है कि घर के बाद मेरी पहली पाठशाला स्कूल है जहां से मैं अपने गुरुजनों से निरंतर सीख रही हूं। जहां मुझे जीवन में कुछ बड़ा करने का संकल्प भी प्राप्त हुआ है और निरंतर शक्ति भी।
वर्तमान में आराध्या तिवारी संस्कारधानी के छोटे-छोटे बच्चों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गई हैं। आराध्या तिवारी का स्वप्न है कि वह भी बड़े होकर अपने दादा की तरह एक कामयाब लेखक और पत्रकार बने। संस्कारधानी जबलपुर में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। ज्ञान-मनीषी ओशो से लेकर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई और बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी की रचयिता सुभद्रा कुमारी चौहान की कर्मभूमि हमेशा से प्रेरणा का स्रोत रही है। जबलपुर शहर की हवा में संस्कार गुंजित होते रहते हैं। इन्ही संस्कारों की नन्ही कोंपल अब आराध्या तिवारी के रूप में सुरभित हो रही है। और शहर की साहित्यिक परंपरा को ध्वजा को आगे बढ़ा रही हैं।
ई-अभिव्यक्ति परिवार के सदस्य आराध्या के उज्ज्वल भविष्य के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।
प्रस्तुती – श्री हेमन्त बावनकर, सम्पादक ई-अभिव्यक्ति, पुणे
≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ माईक… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆
तो असतो लहान, मोठा, दृश्य, अदृश्य कसाही. त्याची स्पीकरशी जोडी असते. एकाविणा दुसरा कुचकामी ठरतो. माईक असतो खूप इमानदार. एकदा का दोस्ती जमली की कधीच अंतर न देणारा. नाहीतर सादरकर्त्याला दोस्ती विसरायला लावणारा.
काहींना तो खूप आवडतो तर काहीजण त्याला घाबरतात. इतके की त्याच्यापुढे जायला नको म्हणून हलतच नाहीत. खरी त्यांची भीती असते ती पुढे जमलेल्या लोकांची. त्यांच्याही पेक्षा आपल काही चुकलं तर आपल्याला हसणार तरी नाहीत ना याची.
त्याचा खरा आणि रोज वापर करतात शाळेतील पी. टी. चे सर. एस.टी. स्टँडवरील कंट्रोलर ,रेडिओवरील निवेदक तसेच प्रार्थना सांगायला उभे करतात ती मुले, मुली , सगळीकडचे नट, नट्या , व्याख्याते आणि राजकारणी भाऊ. त्यांना तर माईकशिवाय चैनच पडत नाही. काहीजण ” आज या ठिकाणी…. ” करत मुख्य वक्ते येईपर्येंत टाइम पास करणारे असतात. मुख्य वक्ते आले की ते त्याचा ताबाच घेतात. इकडेतिकडे पहात वातावरण निर्मिती करतात आणि मग कमीतकमी पाऊण तास ते दोन, अडीच तास चांगलीच फोडाफोडी करतात.
कशाला हे एवढे बोलतात वाटले तरी तेही साधे, सोपे नसते. श्रोत्यांना खिळवून ठेवणे फार अवघड असते. जरा जरी तो ताबा सुटला की प्रेक्षक हलायला म्हणजे प्रथम चुळबुळ व नंतर जागा सोडू लागतात. बरं जाणाऱ्यांंना काहिही करून थांबवता येत नाही.
त्याच्याशी ओळख प्रथम तुम्ही काही भाषण, गोष्ट, गाणे सादर करण्यासाठी ” जा, जा, घाबरू नकोस, मी आहे इथे ” असे कोणी सांगत सांगत असताना, त्याच्या समोर उभे राहता बालवर्गात होते. कधी त्यातून करंट येतो का असे वाटते. तसे काही नसते हे समजले की पुढची स्टेज येते. आपलाच आवाज मोठा होऊन समोरून ऐकू येतो. तो पहिला शब्द, ऐकला, आणि त्यावर आपणच खूष झालो की संपले. आपले म्हणणे पुढचे लोक ऐकून घेत आहेत हे समजले की स्फूरण येते आणि तुम्ही पुढे पुढे जाऊ लागता. ” हा सारखाच माईक पुढे असतोय ” असाही मुलांचा स्वर ऐकू येतो. तिकडे पहायचे नसते. थांबायचे तर अजिबात नाही.
एकदा माईकची भीती गेली तो आवडू लागला की सगळीकडे बोलण्याची संधी मिळू लागते. निवडणुकीच्या वेळी प्रचाराच्या कामी अशा बोलणार्यांना, पुकारणार्यांना चांगला भाव मिळू शकतो.
मोठया सभांच्या वेळी हॅलो माईक टेस्टिंग वन, टू, थ्री, फोर म्हणण्याची पद्धत होती. आता हॅलो माईक चेक हॅलो एवढेच म्हणतात. कार्यक्रमात अनेक माईक जोडण्यासाठी , आवाज कमी जास्त करण्यासाठी मोठा बोर्ड घेऊन साउंड ऑपरेट करणारे दादा असतात. त्यांना साउंड इंजिनिअरही म्हणतात. टेलिफोन खात्यात बी. कॉम. वगैरे झालेल्यांनासुद्धा तसलेच काही तांत्रीक काम करतात म्हणून इंजिनिअर म्हणतात तसेच हे असावे.
माईकचे अनेक प्रकार असतात. त्यातही बरीच क्रांती झाली आहे.
पुर्वी खूप मोठे जड माईक असायचे. नाटकात पुढे स्टँड माईक, हँगिंग माईक लागायचे. पात्राचा रंगमंच्याच्या कोणत्याही ठिकाणचा आवाज शेवटच्या प्रेक्षकापर्येंत पोचावा लागतो. नाहीतर लोक ” आवाज, आवाज ” असे आवाज काढायला लागतात. आता प्रत्येक पात्राला वेगळा कॉलर माईक असतो. त्यामुळे अगदी बारीक आवाजही सहज पोचतो.
मोठे क्लास, कॉलेजचे भरलेले वर्ग, वर्कशॉप यासाठीही कॉलर माईक वापरले जातात. तेंव्हा आठवण होते, माईकचा शोध लागण्यापुर्वी कित्येक अंकांची संगीत नाटके मातब्बर नट गाजवत होते त्यांची. पल्लेदार वाक्ये, थोडा लाऊड अभिनय आणि खणखणीत स्वर.
एके ठिकाणी छोटे भजनी मंडळ. होते. आठवड्यातील एखाद्या वारी ते कोणा भक्ताच्या घरी भजन करायचे. म्हणणारे सात आठ लोक, थोडे ऐकणारे आणि घरातले. सर्व वाद्ये आणि मंडळीचे आवाज सहज ऐकू जात. तरीही माईक, स्पीकर सगळे लावायचे. विचारले, ” अहो, एवढेच लोक असता माईक कशाला,? ” तर म्हणाले ” बाजूच्या लोकांना ऐकू जावे भजन म्हणून ”
एकेकाना माईक ची इतकी सवय झालेली असते की तो हातात आल्याशिवाय करमत नाही. गाणे म्हणताना, अगदी कराओके सुद्धा, माईक असला की बरे वाटते. त्यांच्या किमती तशा फार नसल्याने प्रत्येक घरात एखादा तरी माईक असतोच.
आपला आवाज, आपले म्हणणे आपले गाणे, जरा मोठ्याने दुरवर पोचले की बरे वाटते. त्यामुळे ते सुधारण्याची शक्यताही वाढते. न पेक्षा ” आता बास ” असे अभिप्रायही देणारे मित्र असतातच.
त्यावेळी मी इयत्ता 3 रीत होतो. सुज्या आमच्या वर्गात होता. तो सगळ्यात लहान होता. दिसायला गोरापान लालभडक गाजरासारखा होता. त्याचे डोळे किंचित घारे होते. पण तो रडका होता. कोणी त्याची खोडी काढली की लगेच भोकाड पसरायचा. रडताना त्याचे गाल लालबुंद व्हायचे. याशिवाय तो अतिशय भित्रा होता. त्यामुळे वर्गातली जवळपास सगळीच मुले त्याच्यावर आपला हात साफ करून घ्यायची. त्याच्या डोक्यावरची टोपी सतत वाकडी असायची. म्हणजे तो ती सरळ घालायचा परंतू येताजाता कोणी ना कोणी सुज्याच्या डोक्यावर टपली मारून त्याची टोपी वाकडी होत असे.मग तो आणखीनच चिडिला जाऊन भोकाड पसरत असे.आमच्या वर्गात गुरुजींनी दहा -दहा मुलांचे गट पाडलेले असायचे. त्यांच्याकडे वेगवेगळी कामे सोपावली जायची. सुज्या माझ्या गटात होता. मी गट प्रमुख होतो. भूषण, आंध्या (आनंद), फरीद, परबती, पट्ट्या (सुनिल)ही सगळी आमची भित्री गँग होती. त्यातले त्यात मी थोडा डेअरिंगबाज असल्याने लीडर होतो.
एके दिवशी दुपारी वर्गातली मधली सुट्टी झाली. आम्ही खाऊ आणायला शाळे शेजारीच असलेल्या दुकानात गेलो. माझ्याकडे पाच पैसे होते त्याची मी चिक्की घेतली. तेव्हा त्या पाच पैश्याच्या मला चिक्कीच्या छोटया छोटया पाच वड्या मिळाल्या…! मी एक वडी तोडून तोंडात टाकली व दुसरी माझा जीवश्च कंठश्च मित्र भूषणला दिली. मग आंध्या पुढं येऊन म्हणाला, ” मलाबी दे की रं येक… मी कसा परवादिशी तुला पेरू दिला.” मी आठवू लागलो तेव्हा आठवले, सहा एक महिन्यापूर्वी कधीतरी आंध्याने ताराबाईकडून एक पेरू विकत घेतला होता. त्यावेळी आम्ही सगळे त्याच्या तोंडाकडे पहात होतो परंतू तो मात्र मोठया साहेबांच्या ऐटीत पेरू कडाकडा फोडून खात होता. त्याच्याकडे पाहून आमच्या तोंडातून अक्षराशः लाळ टपकायला लागल्यावर मग त्याने त्यातली एक फोड आम्हा पाच जणात वाटून दिली होती. त्यातला 5 वा खारट मिट्ट झालेला तुकडा माझ्या वाट्याला आला होता. तो ही मी मोठया आनंदाने चाटून खाल्ला होता. ते आठवून मी आंध्याला माझी एक चिक्कीची वडी दिली. मग फरीद आणि सुज्या अशी त्याची वाटणी झाली… त्यावेळी पैसा फार नव्हता परंतू आनंद मात्र उदंड होता. विशेषता: तो सहजीवनात अधिक वाटला जायचा. त्या कोवळ्या निरागस वयात सुद्धा आम्हाला एकमेकांची मने कळत होती आणि जपता सुद्धा येत होती हे त्यातले विशेष होते. त्या तेवढ्याश्या शिदोरीवर त्यातल्या अनेक मित्रांशी आजही माझी मैत्री घट्ट टिकून आहे.
माझ्याकडून चिक्कीचा एक तुकडा मिळाल्यामुळे सुज्या माझ्यावर जाम खुश झाला. चिक्कीचा तुकडा चघळतच तो म्हणाला, ” दोस्तांनो, तुमाला एक जम्मड सांगतो. ”
मी म्हटलं, ” काय? “
आंध्या म्हटला, ” सांग की लका. “
” आज ना आमच्या घरी ढवरा हाय, समद्यानी जेवायला या.” ढवरा हा शब्द मी पहिल्यांदाच ऐकल्याने म्हटले, ” सुज्या ढवरा मजी काय रं? ”
तो म्हटला, ” मला पण माहित न्हाय पण आमच्या घरी सगळ्या गावाला मटान जेवायला हाय एवढं माहीत हाय. चार दिवस झालं आमच्या दादांनी दोन बोकडं खास ढवऱ्यासाठी घरात आणून ठेवल्याती,तुमी या जेवायला सगळी. उशीर करू नगा.” मटण म्हटल्यावर मी जिभल्या चाटायला लागलो. म्हटलो, ” व्हयं सुज्या येतो आम्ही तुझ्या घरी समदी. ”
” मला न्हाय जमणार मला बकऱ्याकडं झोपाय जावं लागतंय, तुमी जावा बाकीची. ” असं म्हणत आंध्यानं पहिली नकार घंटा वाजवली…
पाठोपाठ फरीद म्हटला, ” आमच्या घरी तर रोजच मटान असतं खाऊन कटाळा येतो मला, मी न्हाय येत.”
मग राहता राहिलो मी आणि भूषणच. मी खेदाने म्हटले, ” सुज्या आरं, आमाला बारक्या पोरांना कोण पाठवतंय रातचं जेवायला?मंग कसं येऊ? मला तर काईच कळंना?”
” आता बघा तुमचं तुमी. ” असं म्हणत सुज्या वर्गात पळाला.
वर्गात गेल्यावर माझं गुरुजींच्या शिकवण्याकडं काही केल्या लक्ष लागेना. मी एकासारखा फक्त सुज्याकडं पहात होतो. त्याच्या निमंत्रणाचं काय करायचं?हा एकच विचार राहूनराहून माझ्या डोक्यात घोळत होता….
अखेर मी सुज्याला पाठीमागून त्याच्या पाठीत ढोसून म्हटलं, ” आयला सुज्या, कसं काय करायचं? मला तर लयं मटान खाव वाटतंय. “
त्यो म्हणला, ” ये की मंग लेका.”
” येतो की पण कुणाबरं येऊ? “
” ये की तुमच्या वाड्यातली म्होटी पोरं घिऊन.”
” आयला सुज्या, लयभारी माझ्या तर लक्षातच येत नव्हतं, काय करावं त्ये.तू लयभारी आयड्या दिलीच! ”
” पण सुज्या, तुझ्या घरची काय म्हणणार न्हाईत ना? आमाला सगळ्यांनला जेवाय वाढत्याल ना? ”
” मंग? तुला काय वाटलं? मी हाय की! तू माझा मैतर म्हणल्याव कोण काय म्हणलं… “
” बरं येतु. “
” सुजाच्या घरी मटण खायला जाण्याच्या नादात दुपारापासून गुरुजींनी वर्गात काय शिकवलं त्यातलं मला काहीच कळलं नव्हतं… पाच वाजता शाळेची घंटा टण टण वाजल्यावरच मी भानावर आलो…! शाळा सुटल्यावर घरी जाता जाता मोठ्या पोरांना ही आनंद वार्ता सांगितली…! ते सगळे तयारच होते.
अंधार पडायला लागल्यावर तिन्ही संजेला आई कामावरनं घरी आली. मी तिला धावत जाऊन मिठी मारून म्हटले, ” आई मी मटान जेवायला जाऊ का? “
” कुटं? ”
“वडाच्या मळ्यात, सुज्याच्या घरी, त्यानं मला बोलावलंय.” मी एका हातानं चड्डी ओढत आईला एकादमात सगळं सांगितलं… “
” अगं बया! इतक्या लांब अन रातचं? नगं माझ्या राज्या… ”
” आई, सगळी पोरं निघाल्यात…”
” मंग जा.”
संध्याकाळ झाली तशी सगळ्या पोरांची जमवाजमव झाली. प्रमोद, रवी, संदिप, भाऊ, माझा मोठा भाऊ राजेंद्र, चंदर नाना,राज्या,प्रल्हादनाना असे करताकरता दहा पंधरा जणांचा मेळा जमला.
” ईज्या नक्की ढवरा हाय ना? ” माझ्या मोठया भावाने मला दरडावून विचारलं.
” व्हयं, सुज्यानं मला दुपारीच सांगितलंय, घरी दोन बोकडं पण आणून ठिवल्यात असं त्यो म्हणत होता.
” मंग चला… ”
मोठा भाऊ आमच्या टोळक्याचा प्रमुख होता. त्यानं इशारा केला तशी सगळी पोरं वडाच्यामळ्याच्या दिशेने रस्ता चालू लागली.
गावापासून वडाचा मळा साधारणपणे अडीच ते तीन किलोमीटर होता. पण मटण खायाच्या ओढीने सगळे खुशीत झपाझप पावले टाकीत चाललो होतो…
आमचा मोर्चा गावचा ओढा ओलांडून म्हस्कोबा मंदिराच्या पुढे निघाल्यावर लांबवर माईकचा आवाज येऊ लागला तसा आम्हाला धीर आला. त्यावेळी गावात कुठलेही कार्य असेल की तिथे स्पीकर वाजायचा. कार्यक्रम नियोजित ठिकाणी असल्याची ती एक खूणच होती.
आम्ही कार्यक्रम स्थळाच्या अर्धा किलोमीटर जवळपास आलो तेव्हा माईकवर सूचना चालू होती, ” देव -देव झालेला आहे.तरी, आमंत्रित, निमंत्रित पाहुणेमंडळी यांनी जेवण करण्यास बसून घेण्याची कृपा करावी. अशी मालकाची आग्रहाची नम्र विनंती आहे.” ते ऐकून आमचा चालण्याचा वेग अधिकच वाढू लागला.
आज हे लेखन करत असताना माझ्या स्मृतीपटलावर अनेक चेहरे रेखान्वित होतात. काळाच्या प्रवाहाबरोबर ते दूरवर वाहत गेले असतील पण आठवणींच्या किनाऱ्यावर ते पुन्हा पुन्हा हळूच अवतरतात. पाटीवरची अक्षरं पुसली गेली,पाटी कोरी झाली पण आठवणींचं तसं नसतं धूसर झालेल्या आठवणी मनाच्या पाटीवर मात्र पुन्हा पुन्हा प्रकाशमय होतात.
शाळेजवळ राहणारी शारदा शिर्के आठवते. तशी दणकटच होती. तिच्या कपड्यांना मातकट वास यायचा पण ती आम्हा मैत्रिणींना आवडायची. तशी वागायला, बोलायला टणक होती कुणालाही पटकन धुडकावून लावायची. भीती तिला माहीतच नसावी. अभ्यासात तशी ठीकच होती. गृहपाठ सुद्धा नियमितपणे करायची नाही आणि बाई रागावल्या तरी तिला काही वाटायचं नाही. पण डबा खायच्या सुट्टीत कधी कधी ती आम्हाला तिच्या घरी घेऊन जायची तिच्या घराच्या भिंती मातीच्या होत्या जमीन शेणानं सारवलेली असायची. जमिनीवर कुठे कुठे पोपडे उडलेले असायचे. तिच्या घरातलं एक मात्र आठवतं! फळीवरचे चकचकीत घासलेले पितळेचे डबे आणि चुलीवर रटरट उकळणारा कसलासा रस्सा आणि तिच्या घरी पत्रावळीवर खाल्लेला, तिच्या आईने प्रेमाने वाढलेला तो गरम-गरम तिखट जाळ रस्सा भात. फार आवडायचा. त्या उकळणाऱ्या आमटीचा वास आणि चव अजूनही गेली नाही असं कधी कधी जाणवतं आणि हेही आठवतं की त्या बदल्यात शारदा आमच्याकडून नकळत आमच्या पाटीवरचा गृहपाठ उतरवून घ्यायची. आता आठवण झाली की मनात येतं पुस्तकातलं गणित आपण अचूकपणे शिकलो पण जीवनातले असे give and take चे हिशोब आपल्याला मांडता आले का? हे तंत्र शारदाला कसं काय लहानपणापासून अवगत होतं?
परिस्थिती…
परिस्थिती शिकवते माणसाला.
बारा नंबर शाळेच्या दगडी पायऱ्यावरून मी नाचत बागडत उड्या मारत पुन्हा माझ्या वर्गात जाते. वर्गाच्या भिंतीवर लावलेली बालकलाकारांची चित्रं, गुळगुळीत रंगीत पेपरच्या बनवलेल्या विविध बोटी… शिडाची बोट, बंब बोट पक्षी, प्राणी, फुले पुन्हा एकदा नजरेत भरून घेते.
या कलाकुसरीत तसा माझा भाग नसायचा. क्राफ्टचा एक तास म्हणून मी काही केलं असेल तेवढंच पण तेही काही आवर्जून वर्गाच्या भिंतीवर लावावं असं नव्हतं पण एक आठवण आहे. निबंधाचा तास होता आणि कुलकर्णी बाईंनी सांगितलं,” आपल्या आजी विषयी पाच ओळी लिहा.”
त्यावेळी मी पाटीवर लिहिलेली एक ओळ आठवते.
“ कधीकधी आई खूप रागावते पण आजी मला कुशीत घेते. तिच्या लुगड्याचा वास मला खूप आवडतो.”
बहुतेक सगळ्यांनी आजीचं नाव, आजीचा वर्ण, उंच की बुटकी वगैरे लिहिलं होतं पण मी लिहिलेलं कुलकर्णी बाईंना तेव्हा खूपच आवडलं असावं आणि त्यांनी ते सर्वांना वाचूनही दाखवलं. त्याचवेळी वनिता नावाची माझी एक मैत्रीण होती, तिने तिच्या पाटीवर फक्त एवढंच लिहिलं होतं, “माझ्यावर प्रेम करणारी आजीच मला नाही. देवा! माझे लाड करणारी आजी मला देशील का?”
सुखदुःख, मनोभावना कळण्याचं ते वय नव्हतं. आपल्यापेक्षा कुणाकडे काहीतरी कमी किंवा काहीतरी जास्त आहे हेही कळण्याचं वय नव्हतं. कदाचित मनाला जाणवत असेल पण ते शब्दांतून किंवा वाचेतून व्यक्त करायची क्षमता नसेल पण ज्या अर्थी आज इतक्या वर्षानंतरही वनिताने तिच्या पाटीवर लिहिलेले वाक्य मला आठवतंय त्याअर्थी मी त्यावेळी नक्कीच वनिताशी वेगळ्या प्रकारे कनेक्ट झालेच असणार.
वनिता खूप हुशार होती. तिचा नेहमी पहिला नंबर यायचा. ती कविता, पाढे अगदी घडघड म्हणायची. पटपट गणितं सोडवायची. खरं म्हणजे ती माझ्याच वर्गात आणि माझ्याच वयाची होती पण अंगापिंडाने थोडीशी रुंद असल्यामुळे मोठी भासायची. ती परकर पोलका घालायची कधी कधी तिच्या पोलक्यावरच्या ठिगळातले धागे सुटलेले असायचे. रोजच ती धावत पळत शाळेत यायची आणि शाळा सुटल्यावर पळत पळत घरी जायची. आमच्यासारखी ती मैत्रिणींच्या घोळक्यात रेंगाळत कधीच राहिली नाही. खूप वेळा तिचे डोळे सुजलेले असायचे, चेहरा रडका असायचाा, तिच्या गालांवर मारल्यासारख्या लालसर खुणा असायच्या, तिच्या हातावर भाजल्याच्या खुणा असायच्या,त्र तिची पाटी फुटकी असायची, पेन्सिलीच बुटुक असायचं पण तरीही ती इतकं नीटनेटकं सुवाच्च्य,सुंदर अक्षर काढायची!
शाळेच्या बाकावर मी नेहमी तिच्या शेजारीच बसायचे. का कोण जाणे पण मला तिचा इतर मैत्रिणींपेक्षा जास्त आधार वाटायचा. ती कुणाशीच भांडायची नाही. पण तरीही मला ती अशी भक्कम वाटायची, फायटर वाटायची. मला असंही वाटायचं आपल्यापेक्षा वनिताला खूप जास्त कळतं. जास्त येतं. तिला स्वयंपाक करता यायचा, पाणी भरता यायचं, घरातला केरवारा करता यायचा, तिने आणलेली डब्यातली पोळी भाजीही तिनेच बनवलेली असायची. तेव्हा मनात दोनच प्रश्न असायचे इतकं सगळं हिला कसं जमतं? आणि तिला हे का करावं लागतं? मला याचे उत्तर तेव्हा कळलं जेव्हा रत्नाने मला सांगितलं,
“वनिताला किनई सावत्र आई आहे. ती तिला खूप छळते, मारते, तिच्याकडून घरातली सारी कामं करून घेते. तिला किनई एक सावत्र भाऊ आहे तो लहान आहे आणि त्यालाही तीच सांभाळते. बिच्चारी..” त्यादिवशी वनिता म्हणजे माझ्या मनात कोण म्हणून अवतरली हे सांगता येत नाही. पण मला ती हिमगौरी भासली. सिंड्रेला वाटली. माझं बालमन तेव्हा अक्षरशः कळवळलं होतं. मात्र घरी आल्यावर मी माझ्या आजीला म्हटलं, “माझ्याबरोबर काबाड आळीत चल.” काबाड आळी आमच्या घरापासून जवळच होती. आजीने,” कशाला?” विचारल्यावर मी तिला म्हणाले होते, “काबाड आळीत वनिता राहते. तिची सावत्र आई तिला खूप छळते. तू तिला चांगला दम दे!”
हे काम समर्थपणे फक्त माझी आजीच करू शकते याची किती खात्री होती मला!
त्या वेळी शाळेच्या दर्शनी भिंतीवर साने गुरुजींची वक्तव्ये लिहिलेली होती.
स्वामी तिन्ही जगाचा आईविना भिकारी
खरा तो एकची धर्म जगाला प्रेम अर्पावे
त्या बालवयात असं काही ऐकलं, पाहिलं, अनुभवलं आणि सहजपणे त्याचा संदर्भ जेव्हा या ओळींशी लागला त्यामुळेच असेल पण ते भिंतीवरचं अनमोल अक्षर वाङमय मनात मोरंब्यासारखं मुरलं.
चौथीनंतर प्राथमिक शिक्षण संपलं आणि हायस्कूलचं जीवन सुरू झालं. कोणी कुठल्या कोणी कुठल्या शाळेत प्रवेश घेतला.
ठाण्याला तेव्हा थोड्याच प्रमुख शाळा होत्या. त्यातली एक मो.ह. विद्यालय आणि दुसरी सरकारी ..गव्हर्नमेंट गर्ल्स हायस्कूल. माझं नाव गव्हर्नमेंट गर्ल्स हायस्कूलमध्ये घातलं. काही मैत्रिणी पुन्हा याच शाळेत एकत्र आलो तर बऱ्याच जणी एकमेकींपासून पांगल्या. दूर गेल्या.
चौथीनंतर वनिता कुठे गेली ते कधीच कळलं नाही. मी तिचा पत्ता काढू शकत नव्हते का? काबाड आळीत जाऊन तिचं घर शोधू शकत नव्हते का? चौथीची स्कॉलरशिप मिळवणारी बारा नंबर शाळेतली ती एकमेव विद्यार्थिनी होती. तिनं पुढचं शिक्षण घेतलं की नाही?
वनिताच्या आठवणीने कधी कधी अंगावर सरसरून काटा उभा राहतो. कदाचित तिच्या सावत्र आईने कुणा थोराड माणसाशी तिचं लग्नही लावलं असेल. तिच्या आयुष्याची परवडच झाली असेल. दुःखद, कष्टप्रद आयुष्य जगतानाच तिचा शेवटही झाला असेल. कालप्रवाहात ती वाहून गेली असेल पण त्याचवेळी तिच्याविषयी दुसरं ही एक चित्र मनात उभं राहतं.
वनिता धडाडीची होती. ती एक सैनिक होती, योद्धा होती. तिच्यात एक उपजत शौर्य होतं, सामर्थ्य होतं. तिने कुठे तिचं रडगाणं आपल्याला कधी सांगितलं होतं? उलट शाळेच्या मधल्या सुट्टीत ती सर्वांचे हात हातात घालून रिंगण करायची आणि मोठ्याने गाणी म्हणायला लावायची.
कधी “उठा उठा चिउताई सारीकडे उजाडले..”
तर कधी..
“शाळा सुटता धावत सुटले
ठेच लागुनी मी धडपडले
आई मजला नंतर कळले
नवी कोरी पाटी फुटली
आई मला भूक लागली..”
कुणी सांगावं अशा या वनिताने एखाद्या जिल्ह्याचे कलेक्टर पद अभिमानाने भूषविले असेल. ज्या ज्या वेळी सिंधुताई सपकाळ सारख्या सक्षम स्त्रियांचा उल्लेख होतो त्या त्या वेळी त्यांच्या ठिकाणी मला हरवलेली माझी बालमैत्रीण वनिता दिसते.
आज मागे वळून पाहताना वाटतं बालपणीचा काळ सुखाचा किंवा रम्य ते बालपण असं म्हणताना आणि त्यातली वास्तविकता पडताळताना मला हमखास गोबऱ्या गालाच्या, सुजर्या डोळ्यांच्या, कोरड्या न विंचरलेल्या केसांच्या, फुटक्या पाटीवर सुरेख अक्षर काढणाऱ्या, मधुर गाणी गाणाऱ्या लहान पण प्रौढत्व आलेल्या वनिताची आठवण येते. वाटतं कुठेतरी माझ्या जडणघडणीत तिचा अंशतः वाटा आहे. त्या संस्कारक्षम वयात तिने एक विचारांचा अमृत थेंब नकळत माझ्या प्रवाहात टाकला होता.
☆ कुबेरकाठी — लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर ☆
महादेवराव शिर्के सरकार म्हणजे सातार जवळच्या एका गावातलं बडं प्रस्थ. स्वभावाने अगदी लाख मोलाचा माणूस. दहा गावाचं वतन असलं तरी बोलण्यात काडीचाही माज नाही की अहंकार नाही. तालेवारापासून गोरगरिबांपर्यंत प्रत्येकाला आदराने वागवणार, म्हारामांगाच्या पोरींबाळींनाही ताई-माई असं आदरार्थी संबोधणार, आदराने अदबीने चौकशी करणार.
त्यामुळे सरकारांबद्दलही गावच्या पंचक्रोशीत सगळ्यांना माया होती, जिव्हाळा होता. एकदा असंच कुठंसं वाचलं नी सरकारांच्या डोक्यात नर्मदा परिक्रमा करायचं खुळ घुसलं, अहो ही कथा आहे सत्तरऐंशी वर्षापूर्वीची, तेव्हा ना गाड्या ना बस अशा वेळी नर्मदा परिक्रमा करायची म्हणजे खुळच नव्हे तर काय. पण आलं सरकारांच्या मना तिथं देवाचं चालंना अशातली गत होती.
मग काय एकदा मनात आलं आणि महिनाभरात सरकारांनी प्रस्थान केलं. पार अगदी मुंडन वगैरे करुन, यथासांग अकरा महिन्यात त्यांनी परिक्रमा पूर्ण करुन गावी आले देखील… छान पारणं करायचं ठरवलं. गावाच्या शेजारच्या परिसरातील ब्राह्मणांना भोजन द्यावं असं सरकारांच्या मनी आलं….
विष्णुशास्त्री अभ्यंकरांना बोलावणं धाडलं गेलं…. विष्णुशास्त्री म्हणजे वेदपारंगत, प्रचंड बुध्दीमान आणि करारी ब्राह्मण होते. गावात कुठेही रुद्रावर्तन, महारुद्र, दूर्गापाठ असला की विष्णुशास्त्रींशिवाय चालत नसे. शास्त्रीबुवा आले सरकारांना भेटायला….
“बोला सरकार…” शास्त्रीबुवा म्हणाले.
शिर्केसरकारांनी सदरेवरुन उठून शास्त्रीबुवांना साष्टांग नमस्कार केला…
“सरकार, तुमच्या परिक्रमेविषयी समजलं. मी येणारच होतो तुम्हाला भेटायला आणि वृत्तांत ऐकायला. अहो कठीण असते हो परिक्रमा… तुमचं कौतुक वाटतं सरकार. संपत्तीच्या रुपाने प्रत्यक्ष लक्ष्मीमाता तुमच्या घरी पाणी भरत असतानाही तुम्ही सरस्वती मातेशी सख्य जपून ठेवलं आहे. तुमचा आध्यात्माचा, धर्माचा व्यासंग उत्तम आहे. आणि त्यात तुम्ही परिक्रमेसारखी दिव्य गोष्टही तितक्याच सुरेखपणे करता हे विशेष आहे. असा ज्ञान, विद्वत्ता आणि धनाचा संगम क्वचितच बघायला मिळतो. बरं बोला…काय काम काढलंत मजकडे?” शास्त्रीबुवांनी विषयालाच हात घातला.
“त्याचं असं शास्त्रीबुवा, मला परिक्रमेवरुन सुखरुप आल्यानं पारणं करायचंय, गंगापूजनही करायचं आहेच. ते झाल्यावर दुसऱ्या दिवशी ब्राह्मणभोजन घालायचं आहे. त्याची नियोजनाची जबाबदारी मी तुमचेवर सोपवतो…कितीही माणसं येऊ देत…”
“ठीक आहे…” इतकं बोलुन शास्त्रीबुवा निघाले.
तिथून निघून घरी येत असताना महारवाड्यावरुनच वाट जात होती. त्याकाळी विष्णुशास्त्री हे जितके बुध्दीमान ब्राह्मण होते, ज्ञानी होते हे सत्य असलं तरी ते जातपात आणि शिवाशिव मानत नसत. ही बाब अनेकांना खटकायची, दोन वेळा तिथल्या ब्रह्मवृदांनी त्यांना सहा सहा महिने वाळीत टाकलंही होतं… पण ते नसले की अनेक धर्माकर्माची कामं अडून रहायची. आणि विष्णूशास्त्री काही सुधारण्यातले नव्हते त्यामुळे आता त्यांच्या या मोकळ्याचाकळ्या वागणूकीकडे सोयिस्कर दुर्लक्ष करण्याची लोकांना सवय झाली होती.
महारवाड्यात सुमसाम शांतता होती. पारावर गोपाळ, शनवाऱ्या, बापू असे चारपाच लोक बसलेले होते. शास्त्रीबुवांना बघून ते जागेवरुन उठले, नमस्कार केला… परिसरात या वर्षी दुष्काळ पडला होता. प्रत्येकाचे खायचे वांधे झाले होते, पोरं उपाशीच होती. कशीबशी पेज पिऊन दिवस कंठणं सुरु होतं… काय करावं ते समजत नव्हतं. शास्त्रीबुवांनी सगळं ऐकलं…
”बापू, एकूण किती डोकी आहेत रे महारवाड्यात तुमच्या… धाकली, कडेवरची, धावती आणि म्हातारी कोतारी पकडून सगळी सांग…” शास्त्रीबुवा विचारते झाले.
बापूने माणसं मोजायला सुरुवात केली. तो नावं घेत होता, शास्त्रीबुवा माणसं मोजत होते… तब्बल ९६ लोक झाले…घरी जाण्याऐवजी शास्त्रीबुवा पुन्हा वाड्याच्या दिशेने उलट फिरले…
***
“पण…पण शास्त्रीबुवा… हे कसं शक्य आहे” सरकार म्हणाले, “लक्षात घ्या, मी तुमच्या शब्दाबाहेर नाही. पण मला ब्राह्मणभोजन घालायचं आहे… गावजेवण मी देईन की सवडीने… त्यात काय मोठंसं…? पण…..”
“सरकार, तुम्ही बोललात की तुम्ही माझ्या शब्दाबाहेर नाहीत… बरोबर… बघा श्रीमद्भग्वद्गीतेत उल्लेख आहे प्रत्यक्ष भगवानच म्हणतात की _“अहं वैश्वानरो भुत्वा, प्राणिनां देहमाश्रिता:… म्हणजे समस्त जीवांच्या पोटी भुकेच्या रुपाने असणारा वैश्वानर नावाचा अग्नि म्हणजेच मी… सरकार, हे बघा तुम्ही ब्राह्मणभोजनाची जबाबदारी मजवर सोपवलीत म्हणजे मी काय करणार तर साताऱ्यापासून वडूजपर्यंत सगळ्या गावातली ब्राह्मणमंडळी गोळा करुन आणणार… चारशे ब्राह्मण होतील… जे ते घरी जेवणार ते इथे येऊन जेवतील. बरोबर आहे? तर जिथे खरी जिवंत भूक आहे त्या पोटांना चार चांगले घास द्यायला हवेत तर तुम्हाला शतपटीने पुण्य लाभेल महादेवराव…
“आणि अहो ब्राह्मण म्हणजे कोण हो? चार वेद येतात तो ब्राह्मण नाही… ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मण:… जो ब्रह्म जाणतो तो ब्राह्मण… आणि ही गावकुसाबाहेरची उपाशी जनता आहे ना, ती नुसतं ब्रह्म जाणत नाही तर पोटातली आग, तो वैश्वानर म्हणजेच प्रत्यक्ष परमेश्वर ती आग जागी ठेवतो. या भयाण दुष्काळातही ती मंडळी पेजपाणी पिऊन दिवस ढकलतात पण चोरीमारी करत नाहीत… तेच खरं जिवंत ब्रह्म हो…!”
सरकार निरुत्तर झाले, त्यांचे डोळे ओले झाले. विष्णुशास्त्रींना साष्टांग नमस्कार केला…
***
पुढच्या गुरुवारी पंगत बसली… सदरेवर चारशे ब्राह्मण आणि अंगणात शंभरेक महार असा सोहळा पार पडला…सगळ्यांना एकच वागणूक होती, तसेच सारखेच पदार्थ होते… जिथे ब्रह्मवृदांना केशरीभात होता तिथे महारांनाही केशरीभात, पुऱ्या, भात, आणि इतर पक्वान्नांचं साग्रसंगीत भोजन होतं. भोजनोत्तर प्रत्येकाला दक्षिणा दिली गेली. बायकांना साडीचोळी दिली गेली… ब्राह्मणांसोबत महारही तृप्त होऊन निघू लागले…
सरकार आणि विष्णुशास्त्री सदरेच्या जवळ अंगणात उभे राहून हा अन्नपूर्णेचा तृप्त सोहळा भरल्या डोळ्यांनी बघत होते. इतक्यात एक वृध्द महार जवळ आला, दोघांनाही त्याने खाली लवून नमस्कार केला…
”बोला आजोबा…काय म्हणताय? झालं का जेवण?” सरकारांनी विचारलं.
“मग… अजून काही हवंय का?” शास्त्रीबुवा विचारते झाले.
“न्हाई… पण या बदल्यात मला तुम्हाला काही द्यायचंय… ते स्विकार करा…”
सरकार आणि शास्त्रीबुवा एक क्षण स्तिमित झाले… डोकं जड झाल्यागत झालं दोघांचं…
त्या म्हातारबुवांनी खांद्यावरच्या झोळीतून हात घालून दोन फुटभर लांबीच्या काठ्या काढल्या… काळ्याकभिन्न, शिसवी आणि चकचकीत पॉलिश कराव्यात तशा… दोघांच्या हातात दिल्या… खरं म्हणजे आता शिवायचं नाही वगैरे दोघे क्षणभर विसरुन गेले… कसल्यातरी संमोहनाचा असर होता की काय देव जाणे?
“याला कुबेरकाठी म्हणतात… आत जंगलात गावते… ही अशीच ठेवायची… तिजोरीत, जपून ठेवायची… काही करायचं नाही. फक्त वर्षातून एकदा रामनवमीला बाहेर काढायची, पूजा अर्चा करायची. शक्य होईल तसं गावजेवण किंवा गरीबांना भोजन घालायचं आणि सूर्यास्ताला परत ठेऊन द्यायची आत, ती पुन्हा पुढच्या रामनवमीलाच काढायची… तुम्हा दोघांना काही कमी पडणार नाही… तुमच्या पुढच्या जितक्या पिढ्या हा नियम पाळतील तेवढे दिवस तेवढी वर्षे ही काठी तुमच्याकडे असेल… नावासारखीच आहे ही कुबेरकाठी… कुबेराची धनसंपत्ती देणारी…” इतकं बोलून तो म्हातारबा निघून गेला…
पुढच्याच क्षणी दोघे भानावर आले… काय झालं ते समजायला मार्गच नव्हता… आसपास धावाधाव करुन शोध घेतला तर समजलं असा कोणी म्हातारबा महारवाड्यात नाहीच आहे मुळात… तो काठी टेकत टेकत असा कितीसा दूर गेला असेल? पण आठी दिशांना माणसं पाठवून कोणी दिसलं नाही तेव्हा हा चमत्कार आहे हे दोघांच्याही ध्यानात आलं…!
***
आज सत्तरऐंशी वर्षे झाली या घटनेला तरीही रामनवमी असली की शिर्के आणि अभ्यंकर घराण्याचे सध्याचे वंशज एकत्र येतात. दोन्ही कुबेरकाठ्या अत्यंत गुप्तपणे बाहेर काढल्या जातात…
दोन्ही काठ्यांचे यथसांग पूजन होते, विष्णूसहस्त्रनामाचा अभिषेक होतो…
ही पूजा अतिशय गुप्तपणे कोणालाही समजणार नाही अशाप्रकारे होते. आणि मग गावजेवण, भंडारा होतो… शेकडो माणसं आजही जेवून जातात…
दोन्ही घराण्याचे आजचे वंशज एकमेकांशी मैत्री टिकवून आहेत…
दोन्ही घराण्यात या कुबेरकाठीच्या निमित्ताने एक विशेष प्रेमाचे स्नेहबंध निर्माण झाले आहेत.
एकत्र “कॉलेबरेशन” मध्ये काही प्रोजेक्ट्सही सुरु आहेत… दरवर्षी भंडारा झाला की सध्याचे वंशज दुपारी १ वाजता एकत्र येतात, प्रवेशद्वाराकडे नजर ठेवून असतात…
तिथे एक ते सव्वाच्या दरम्यान एक वृध्द व्यक्ती दिसते… त्याचं दर्शन लांबूनच घ्यायचं असा संकेत आजही पाळला जातो… तो वयोवृध्द आजोबा जेवून निघालेला असतो… तो मागे वळतो या दोघांकडे कटाक्ष टाकतो, त्यांनी लांबूनच केलेल्या नमस्काराचा सस्मित चेहऱ्याने स्विकार करतो आणि काठी टेकत निघून जातो. संध्याकाळी सूर्यास्ताच्या आत काठ्यांना घरातील मंडळी साष्टांग नमस्कार करतात… आणि दोन्ही कुबेरकाठ्या आपापल्या तिजोरीत बंदिस्त होतात… त्या पुढच्या रामनवमीला तिजोरीबाहेर येण्यासाठीच…!!!
(कथा सत्य आहे. तपशील, गावाची नावे, आडनावे यात बदल केले आहेत… अधिक सविस्तर डिटेल्स विचारु नयेत. कथेचा आनंद घ्यावा आणि कथा सत्य की असत्य? हे ठरविण्याचा अधिकार वाचकांनाच आहे )
लेखक/संकलक : अनामिक
प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈