जीवन प्रवाह की तरह है इसके रास्ते में भी आती हैं दुखों की चट्टानें, समस्यायों के पर्वत, अगर हमारे धैर्य की धार तेज़ हो तो यह टूट जाती हैं चट्टानें,धूल हो जाते समस्यायों के पर्वत…बस लक्ष्य बड़ा हो, दिशा सही हो…जुनूँ हो तो नदी पहुँच ही जाती है – महासागर तक…।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 5
मीरा (संगीत नाटिका) – लेखिका- डॉ. विद्याहरि देशपांडे समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- मीरा
विधा- संगीत नाटिका
लेखिका- डॉ. विद्याहरि देशपांडे
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
त्रिवेणी कलासंगम की प्रतीक – मीरा ☆ श्री संजय भारद्वाज
मीरा भक्तिजगत का अनन्य नाम है। अनेकानेक संस्कृतियों में भक्तों ने ईश्वर को भिन्न-भिन्न रूपों में देखा। किसीने परम पिता माना, किसीने परमात्मा, किसीने जगत की जननी कहा। पूरी धरती पर एक मीराबाई हुईं जिन्होंने उद्घोष किया-‘मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोय, जाँके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोय।’ सैकड़ों वर्ष पूर्व पारंपरिक भारतीय समाज में एक ब्याहता का किसी अन्य पुरुष को (चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो) अपना पति घोषित कर देना अकल्पनीय है। इस अकल्पनीय को यथार्थ में बदलकर मीरा न केवल भक्तिमार्ग की पराकाष्ठा सिद्ध हुईं वरन अध्यात्म, भक्ति, एवं प्रेम के नभ में ध्रुवतारे-सी अटल भी हो गईं।
लेखन अनुभूति को अभिव्यक्त करने का ध्रुव-सा माध्यम है। शब्द संपदा से साम्राज्य खड़ा करना लेखक की शक्ति है। इसी तरह नाटक और नृत्य अभिव्यक्ति की दो परम ललितकलाएँ हैं। सुखद संयोग है कि चौंसठ कलाओं में पारंगत श्रीकृष्ण की अद्वितीय प्रिया मीरा को लेखनी, नाटक और नृत्य के त्रिवेणी कलासंगम के माध्यम से साकार करने का अद्भुत काम डॉ. विद्याहरि देशपांडे ने किया है।
नाटककार ने इस नृत्य नाटिका में प्रसंगानुरूप मीरा के पारंपरिक भजनों का उपयोग किया है। नाटिका पढ़ते हुए यह बात उभरकर आती है कि लेखन के पूर्व डॉ. विद्याहरि ने विषय का गहन अध्ययन किया है। इससे कथ्य में तर्क और तथ्य का संतुलन बना रहता है। मीरा के माध्यम से सती प्रथा और जौहर से मुक्त होने का आह्वान करवाकर उन्होंने अपनी सामाजिक चेतना और सामुदायिक प्रतिबद्धता को अभिव्यक्त किया है। नारी प्रबोधन के सार्वकालिक तत्व पारंपरिक कथा में पिरोना नृत्य नाटिका को अपने वर्तमान से जोड़ता है।
राणा भोजराज इस मीरा का एक और उजला पक्ष है। मीरा ने जिस पारंपरिकता को तोड़ा, शासनकर्ता होने के नाते राणा पर उस पारंपरिकता को बचाये रखने के भीषण दबाव रहे होंगे। पत्नी और प्रथा दोनों का एक ही समय बचाव करते हुए भोजराज अभूतपूर्व स्थितियों से गुजरे होंगे। इतिहास के इस उपेक्षित चरित्र को न्याय देने का सफल प्रयास नाटककार ने किया है। विद्याहरि, मीरा के माध्यम से माँसलता को प्रेम की शर्त के रूप में स्वीकार करने को नकारती हैं। वे प्रबल विश्वास और सम्पूर्ण समर्पण के आधार पर खड़े प्रेम को दैहिक संबंधों की बैसाखी थमाने की पक्षधर भी नहीं। मीरा और गिरिधर के अविनाशी नेह के साथ, मीरा और भोजराज का विदेह समर्पण प्रेम के नए मानदंड प्रस्तुत करता है।
विद्याहरि उत्कृष्ट नृत्यांगना हैं,अपनी विधा में पारंगत और अनुभवी हैं। मंच पर प्रस्तुति की व्यावहारिक आवश्यकता को दृष्टिगत रखकर ही उन्होंने यह नाटिका लिखी है। फलतः रचना धाराप्रवाह बनी रहती है।
मीरा मात्र एक संत या कृष्णार्पित स्त्री भर नहीं थीं। वह अनेक उदात्त मानवीय गुणों की प्रतीक भी थीं। विद्याहरि इस नृत्यनाटिका को एकपात्री अभिनीत करती हैं। मीरा को प्रस्तुत करते हुए, उन्हें अपने भीतर जाग्रत कर उन्हीं गुणों को जीना पड़ता है। कामना है कि विद्याहरि के अंतस का सौंदर्य इस नृत्यनाटिका के माध्यम से निखरकर दर्शकों के सामने बारंबार आता रहे, माँ सरस्वती एवं भगवान नटराज की कृपा उन पर सदैव बनी रहे।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – माँ का आँचल ।)
‘हम! एक असलियत …’ स्व डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ – We: A reality ☆ English Version by – Hemant Bawankar
(This poem has been cited from my book “Yield of the potentiality” an English Version of संभावना की फसल by Dr. Rajkumar Tiwari ‘Sumitra’.)
We boast
to break the ‘Chakravyuha’*
to transform the world.
But,
we get entangled
in spider’s web.
Be it,
in day or in night.
Neither we could break it
nor could we bend it
as we desire.
Agreed that
human being is
an effigy of weaknesses.
He has
something good, something bad.
We accept that
weakness in character
is inevitable
But, then
we multiply
others’ character with a factor.
* Chakravyūha – Chakravyūha is a wheel like military formation used to surround enemies, depicted in the Hindu epic Mahabharata. It resembles a labyrinth of multiple defensive walls. Here it is taken as complications of life.
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत –माँ नर्मदा वंदन…।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “टेढ़ा है पर मेरा है…“।)
अभी अभी # 416 ⇒ टेढ़ा है पर मेरा है… श्री प्रदीप शर्मा
वैसे तो बचपने पर केवल बच्चों का ही अधिकार होता है, लेकिन कभी कभी बड़े बूढ़े भी बच्चों जैसी हरकतों से बाज नहीं आते। बच्चों जैसी हरकत बच्चे ही करें, तो शोभा देता है, लेकिन कभी कभी बच्चों की हरकतें गंभीर शक्ल भी अख्तियार कर लेती है।
हर औसत बच्चा समझदार
नहीं होता। कुछ तीक्ष्ण बुद्धि वाले होते हैं तो कुछ मंदबुद्धि। बाल बुद्धि का क्या भरोसा, इसलिए एक उम्र तक उन पर निगरानी रखी जाती है, इधर आंख से ओझल हुए और कोई कांड किया।।
मेरा बचपन भी औसत ही था और बुद्धि का औसत कम से कमतर। आज याद नहीं, तब मेरी क्या उम्र रही होगी, लेकिन तब मेरी हरकत ही कुछ ऐसी थी, कि जिसके कारण आज भी मेरा एक हाथ कुरकुरे जैसा टेढ़ा है। पूरी बांह में वह ढंक जाता है, लेकिन आधी बांह में वह स्पष्ट नजर आ जाता है।
शायद दशहरा मिलन का दिन था, और मैं पिताजी के साथ साइकिल पर उनके साथ लद लिया था। उनके एक मित्र के यहां अन्य परिचित भी आमंत्रित थे।
बच्चे कब बड़ों के बीच में से गायब हो जाते हैं, कुछ पता ही नहीं चलता। हमने भी मौका देखा, और बाहर आंगन में निकल लिए।।
बच्चे तो शैतान होते ही हैं। खाली दिमाग शैतान का घर ! आंगन में आगंतुकों की कुछ साइकलें एक कतार में रखी हुई थीं, कुछ आपस में सटी, कुछ दूर दूर सी। हम इतने छोटे थे, कि साइकिल चलाना हमारे बस का ही नहीं था। लेकिन हमारी बालक बुद्धि ने कमाल बता ही दिया। कोने पर खड़ी एक साइकिल पर खड़े होकर पैडल मारने लगे जिससे पिछला पहिया घूमने लगा।
हम इधर साइकिल चलाने का आनंद ले रहे थे, और उधर साइकिल अपना संतुलन खो रही थी। इसके पहले कि हमें कुछ पता चलता, हम नीचे और एक के बाद एक सभी साइकिलें हमारे ऊपर। चीख सुनकर सभी दौड़े आए, हमें साइकिलों के नीचे से निकाला। तब कहां आज की तरह चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध थीं। पिताजी एकमात्र एम. वाय. अस्पताल ले गए। जांच से पता चला, कोहनी में फ्रेक्चर है। वहां से बायें हाथ की कोहनी पर पट्टा चढ़वाकर लौट के बुद्धू घर को आए।।
बचपने का इनाम भी मिला। घर में किसी ने डांटा तो नहीं, लेकिन पट्टा खोलने पर मालूम पड़ा, कोहनी की हड्डी टेढ़ी जुड़ गई है, तब कहां सोनोग्राफी जैसी सुविधाएं थी। तब से हमारा बांया हाथ टेढ़ा ही है।
हाथ सीधा करने के लिए एक नामी हड्डी विशेषज्ञ नन्नू पहलवान की भी सेवाएं लीं, तेल मालिश से हाथ तो मजबूत हो गया, लेकिन कुत्ते की दुम की तरह टेढ़ा ही रहा। शहर के प्रसिद्ध हड्डी विशेषज्ञ एवं हरि ओम योग केन्द्र के संस्थापक, डा.
आर.सी.वर्मा से चर्चा की तो वे बोले, शर्मा जी आपको कहां शादी करना है। हाथ तो आपका मजबूत है ही, इस उम्र में छेड़छाड़ ठीक नहीं। हमने भी तसल्ली कर ली और सोचा, टेढ़ा है, पर मेरा है।।
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 222 ☆
☆ एक पूर्णिका – न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं…☆ श्री संतोष नेमा ☆
(नुकतीच बा.भ. बोरकरांची पुण्यतिथी झाली. त्यानिमित्ताने)
बा. भ. बोरकरांबद्दल काय लिहावं? त्यांची पहिली कविता माझ्या वाचनात आली ती अर्थात ‘माझ्या गोव्याच्या भूमीत’. मराठी वक्तृत्व स्पर्धेत भाग घेणाऱ्या प्रत्येक शाळकरी किंवा महाविद्यालयीन गोयंकर विद्यार्थ्याने ही कविता आपल्या भाषणात कधी ना कधी म्हटलेली असतेच. मीही त्याला अपवाद नव्हते. चौथीत असताना गोवा स्वातंत्र्यदिनानिमित्त केलेल्या भाषणाची सुरवात मी ह्याच कवितेने केली होती. अर्थात तेव्हा ती शाळेतल्या बाईंनी माझ्याकडून घोटवून घेतली होती. काव्यगुण वगैरे कळायचे वय नव्हतेच ते, पण त्यातल्या सहज सोप्या, त्या वयात उमजेल अश्या उपमा आवडल्या होत्या.
पण पुढे दहावी-अकरावीला येईपर्यंत बोरकरांची हीच कविता इतक्या शाळकरी बाळबोध भाषणांमधून ऐकली की मला ती कविताच बाळबोध आणि शाळकरी वाटायला लागली. दोष कवितेचा नव्हता, कविता वापरून वापरून गुळगुळीत करणाऱ्या लोकांचा होता, पण एखादं भरजरी, गर्भरेशमी वस्त्र देखील रोज वापरलं तर चार-आठ दिवसात जसं कळकट आणि बोंदरं होऊन जातं तशी ही कविता मला त्या वेळी भासायला लागलेली होती.
पुढे मराठी भाषा अभ्यासक्रमाचा भाग म्हणून ’तेथे कर माझे जुळती’ आणि ‘जीवन त्यांना कळले हो’ ह्या सारख्या बोरकरांच्या कविता वाचल्या तेव्हा हळूहळू कळायला लागले की बोरकर कवी म्हणून किती मोठे आहेत ते. ह्याच दरम्यान कधीतरी त्यांची लावण्य रेखा ही कविता वाचनात आली आणि तेव्हा मात्र मी पूर्ण भारावून गेले. अगदी आजही ही कुसुमाग्रजांचे पृथ्वीचे प्रेमगीत आणि बोरकरांची लावण्य रेखा ह्या माझ्या सर्वात आवडत्या मराठी कविता आहेत. त्यातले शेवटचे कडवे तर मला प्रचंड आवडते.
‘देखणी ती जीवने जी तृप्तीची तीर्थोदके
चांदणे ज्यातूनफाके शुभ्र पार्यासारखे
देखणा देहान्त तो जो सागरी सूर्यास्तसा
अग्नीचा पेरून जातो रात्रगर्भी वारसा’
त्याच्या पहिल्या दोन ओळी वाचून मला माझ्या आजोबांची आठवण होते. हाती आले ते आयुष्य घेऊन प्रामाणिकपणे जगले ते, आणि त्यातूनही जमेल तेव्हढे त्यांनी समाजासाठी केले. मी त्यांची सर्वात धाकटी नात, मी त्यांना पाहिलेच मुळी त्यांच्या पक्व म्हातारपणी, बरे-वाईट सर्व जीवनाच्या प्रवाहाबरोबर वाहून गेल्यावर स्थिरावलेल्या शांत डोहाप्रमाणे ते झाले होते त्या वेळी.
पुढे मीही मराठीत लिहायला लागले तेव्हा बोरकर मला वेगळ्या अर्थाने उमगायला लागले. माझ्या लेखनात माझ्याही नकळत काही कोंकणी शब्द डोकावून जातात, कुंपण हा शब्द मला येत नाही असं नाही, पण त्याच्यापेक्षा वंय ह्या शब्दाला पोफळीचा शिडशिडीत, सडपातळ गोडवा आहे. टाकळा ह्या मराठी शब्दाला एक कोरडा खडखडीत भाव आहे, पण त्याचेच कोपरे घासून गोलाकार केले की कोंकणीत ते रोप तायकिळो बनून लाडिकपणे आपल्या भेटीस येतं.
बाकीबाब बोरकरांचं सांगायचं झालं तर त्यांचं अस्सल गोयंकारपण बोरकरांनी कधीच सोडलं नाही. त्यांच्या कवितेतून भेटणाऱ्या अनेक कोंकणी शब्दांमधून पदोपदी गोवा डोकावतो. एखाद्या वर्गात शिक्षक गणिताचे अवघड प्रमेय सोडवून दाखवत असतात, सर्व मुले एकाग्र चित्ताने ते प्रमेय उतरवून घेत असताना, एखादा खोडकर मुलगा फळ्यावर लक्ष द्यायचे सोडून वर्गाच्या खिडकीतून बाहेर डोकावत असतो आणि त्याच्यामुळेच तो वर्ग जिवंत वाटतो, नैसर्गिक वाटतो, तसे ते बोरकरांच्या कवितेतले खिडकीबाहेर डोकावणारे व्रात्य कोंकणी शब्द. त्या शब्दांशिवाय बोरकरांची कविता इतकी अर्थवाही आणि नादमधुर झालीच नसती.
फूल औदुंबरालाही येते, पण ‘आलिंगन चुंबनाविना हे मीलन आपुले झाले ग, पाहा पाहा परसात हरीच्या रुमडाला सुम आले ग’ ह्या ओळींमध्ये जी अर्थगर्भ गेयता आहे, अध्यात्माची सांवळी छटा आहे ती ‘पहा पहा बागेत हरीच्या औदुंबराला फूल आले गं’ ह्या ओळीत उमटलीच नसती.
गोव्याच्या सुरंगीच्या, जाईच्या, सुक्या मासळीच्या, पहिल्या पावसानंतर घमघमणाऱ्या तांबड्या मातीच्या खरपूस वासाने दरवाळणारी बोरकरांची कविता. गोव्याच्या तत्कालीन संस्कृतीचा, बोरीसारख्या जुवारी नदीकाठच्या, नारळी पोफळींनी नटलेल्या निसर्गरम्य गावात गेलेल्या बालपणाचा ठसा बोरकरांच्या लेखनात ठाई ठाई दिसतो. देवळातली भजने आणि चर्चच्या घंटा ऐकत बोरकर लहानाचे मोठे झाले.
हिंदू एकत्र कुटुंबातील गोतावळा, भरल्या घरचे सणवार, पोर्तुगीझ शिक्षणामुळे झालेली युरोपीय कवितेची संस्कृतीची, जीवनपद्धतीची ओळख, बालपणापासून मराठी संत साहित्य, अभंग-भूपाळ्या नित्य कानावर पडत आल्यामुळे नकळतच मनात खोल रुजलेला भारतीय तत्त्वविचार आणि मुळातला सौंदर्यासक्त, रसलोलुप आणि तरीही अध्यात्माने भारावलेला पिंड ह्या सर्वांचे एकत्रित, अजब मिश्रण बोरकरांच्या कवितेत दिसते.
मी बोरकरांपेक्षा कितीतरी लहान, त्यांच्या नातवंडांच्या पिढीची. पण ज्या आणि जश्या वातावरणात बोरकर वाढले जवळजवळ तश्याच सांस्कृतिक वातावरणात मीही वाढले. बोरकरांची जडणघडण झाली ती पारतंत्र्याच्या जोखडाखाली असलेल्या गोव्यात. माझा जन्मच झाला स्वतंत्र भारताचा अविभाज्य भाग असलेल्या गोव्यात. राजकीय परिस्थिती वेगवेगळी असली तरी सांस्कृतिक परिस्थिती मला घडवणाऱ्या गोव्यात बरीचशी तशीच होती. त्यामुळे बोरकरांच्या कवितेतून डोकावणारा गोवा मलाही माझाच वाटतो.
१९३७ मध्ये प्रसिद्ध झालेल्या जीवनसंगीत ह्या बोरकरांच्या दुसरया काव्यसंग्रहातल्या कविता वाचताना मला हे खूप जाणवलं. ह्या संग्रहातल्या कविता ह्या बहुतांशी संस्कृतप्रचुर, तांब्यांच्या, केशवसुतांच्या कवितेची छाप असलेल्या. तरीही त्या कवितांमधून दिसणारे गोयंकार बाकीबाबांचे दर्शन फार लोभस आहे. कोंकणीत सांगायचे तर अपुरबायेचे!
इतुक्या लौकर न येई मरणा’ ही कविता म्हणजे एका सौंदर्यासक्त, जीवनावर भरभरून प्रेम करणाऱ्या रसिक गोयंकाराचे हृदगतच आहे, ‘रेंदेराचे ऐकत गान, भानहीन मज मोडुनी मान, चुडतांच्या शेजेवर पडून भोगू दे मूक निःशब्दपणा’ ही इच्छा फक्त एक सच्चा गोयंकारच व्यक्त करू शकतो. रेंदेर म्हणजे माडाच्या झाडावर चढणारा आणि माडाच्या थेंबथेंब टपकणाऱ्या नीरेसाठी वर खाच करून तिथे मातीचे मडके लावणारा टॉडी टॅपर. ही नीरा पुढे माडाची फेणी करण्यासाठी आणि पावाचे पीठ आंबवण्यासाठी वापरली जाते. पायाच्या बेचक्यात माडाचे झाड कवटाळून तुरुतुरु वर चढणारा, कमरेला कोयती आणि मातीचे मडके बांधलेला रेंदेर हा माझ्याही पिढीने बघितलेला आहे.
ह्याच कवितेत बोरकरांनी झऱ्यासाठी वझरा हा खास कोकणी शब्द वापरलेला आहे. ह्याच कवितेतल्या ’तिखट कढीने जेवूनि घ्यावे मासळीचा सेवित स्वाद दुणा’ ह्या ओळी ऐकूनच पु. ल. देशपांडे ह्यांच्या आजीने, म्हणजे बाय ने बोरकरांना ’अच्च गोयंकार व्हो’ म्हणजे ‘सच्चा गोवेकर आहे हा’ हे सर्टिफिकेट दिले होते असा उल्लेख पुलंच्या त्यांच्या आजोबांवरच्या लेखात आहे.
जीवनसंगित मधल्याच ‘दवरणे’ आणि ‘मुशाफिरा’ ह्या दोन कवितांमध्ये बोरकरांनी ज्या उपमा आणि शब्द वापरले आहेत आणि जी शब्दचित्रे रेखाटली आहेत ती एकदम खास गोव्याची आणि त्यातही, बोरी गांवची आहेत. दवरणे किंवा कटे म्हणजे भारशिळा. पूर्वीच्या काळी लोक पाठीवर ओझे घेऊन मैलोनमैल चालत. तेव्हा त्यांना पाठीवरचा भार टेकता यावा, क्षणभर विश्रांती घेता यावी म्हणून वाटेवर असे दवरण्याचे दगड किंवा कटे बनवलेले असत. गोव्यात जांभा दगड खूप. त्याच्या शीळा एकावर एक रचून बनवलेली हे कटे, एखाद्या रणरणत्या निष्पर्ण माळावर वाटसरुंची वाट पहात वर्षानुवर्षे उभे असत. खुद्द माझ्या कुंकळ्ळी गावात असे बारा कटे आणि त्याभोवती वस्त्या होत्या.
अश्या ह्या उजाड माळावरच्या एकाकी ‘दवरण्या’चे वर्णन बोरकरांनी ’शांत विरागी’ असे केले आहे, ज्यावर त्यांनीही आपल्या हृदयावरचे ओझे खाली ठेवून आपले कवीमन उघडे केले. ‘मुशाफिरा’ ही कविता म्हणजे तर बोरकरांच्या बोरी गांवचे रेखाटलेले एक विलक्षण चित्रदर्शी शब्दचित्र आहे. ‘सांज दाटली शिरी, परतली घरा भिरी, सांवळ्या रुखावळीत धूर मात्र कापरा, स्तब्ध मार्ग तांबडा, वळत जाय वाकडा, मोडक्या पुलाकडून तार जाय बंदरा’ ह्या ओळींमधल्या प्रत्येक शब्दातून बोरकरांचे अस्सल गोयंकारपण दिसते. कातरवेळेचा स्वतःचा असा एक विलक्षण दुखरा, हळवा करणारा उदास मूड असतो तो ह्या ओळींनी अत्यंत समर्थपणे पकडला आहे.
ह्याच कवितासंग्रहातल्या ’वारुणी रात’ ह्या कवितेत बोरकरांनी शेतातली कापणी ह्या अर्थी ‘लुवणी’ हा खास गोव्याचा कोंकणी शब्द वापरलेला आहे. ‘अर्धे लुवल्या अर्धे मळल्या अफाट त्या शेतात’ ह्या ओळीत जी नादमधुर गेयता आहे ती ’अर्धे कापल्या, अर्धे मळल्या’ ह्या ओळीत नसती उतरली. करवंटीच्या ऐवजी योजलेला करटी-वाटी हा शब्दप्रयोग तसाच गोव्याची आठवण करून देणारा आहे.
‘सागरा’ ह्या कवितेत त्यांनी समुद्राच्या लाटांचे वर्णन करताना हिरव्या-निळ्या ह्या शब्दप्रयोगाऐवजी, ‘पाचव्या-निळ्या’ ही विशेषणे वापरली आहेत. गोव्याच्या कोंकणीत हिरव्या रंगाला ’पाचवो’ म्हणतात. त्यात पाचूच्या रंगाचा हे अध्याहृत आहे. पुढे बोरकर एका ठिकाणी ’भीतीचा किंवाटा’ हा शब्दप्रयोग करतात. किंवाटा म्हणजे कोंकणीत आवेग, तो भीतीचाही असतो, प्रेमाचाही असतो. इथे लाटा ला यमक म्हणून बोरकरांनी किंवाटा हा शब्द वापरलाय.
संधीकाल ही कविता तर गोव्याच्या एका उन्हाळी संध्याकाळचे अतिशय सुंदर वर्णन करते. वसंत सरून गिम म्हणजे ग्रीष्म ऋतू सुरु झालेला आहे, परसातील आंबा ‘फळभारे रंगा’ आलेला आहे. कैऱ्या खायला तुरतुरीत खारींची येजा त्या आंब्यावर सुरु झाली आहे. ‘चपल चानिया धावत तुरतुर झटती सर्वांगा’ ह्या एका लयबद्ध ओळीत बोरकरांनी हे शब्दचित्र रेखाटले आहे. चानी म्हणजे कोंकणीत खार. खार हा शब्द न वापरता त्याऐवजी चानी हा खास कोंकणी शब्द वापरून बोरकरांनी अनुप्रास साधला आहे.
ह्याच कवितेत फुलपाखरासाठी त्यांनी ’पिसोळे’ हा खास कोंकणी शब्द वापरला आहे जो पुढेही त्यांच्या अनेक कवितांमधून दिसतो. ‘चपळ पिसोळी चतुर चोरटी भुरभुरती जवळी’ ह्या ओळीत संगीत आहे, लयबद्धता आहे जी ‘चपळ फुलपाखरे चतुर चोरटी’ ह्या शब्दप्रयोगात कधीच आली नसती.
बाळकृष्ण भगवंत बोरकर ह्या थोर कवीच्या कवितेतून सर्व काव्यगुण वजा केले तरी जो बाकी उरतो तो गोयंकार बाब मला फार फार लोभसवाणा वाटतो.
लेखिका : सुश्री शेफाली वैद्य
प्रस्तुती : सुहास रघुनाथ पंडित
सांगली (महाराष्ट्र)
मो – 9421225491
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈