हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रकृति…  ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता प्रकृति… ।)  

☆ कविता प्रकृति… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

लोभ, मोह, क्रोध, काम,

है नियम मानव प्रकृति के,

मत होना कभी भी हवाले,

बल्कि उनको कर बस में,

देखो! प्रकृति है बड़ी सुंदर

देखो! हर तरफ हरियाली

नदी और समुंदर में उफ़ान,

पानी का झरना बह रहा,

इतनी मनमोहक! है प्रकृति,

सूरज और चांद की रोशनी,

आसमान घिरा काले बादलों से,

कभी श्याम घने तो कभी सफेद,

कभी बारीस तो कभी धूप,

कभी कडकती बिजली

कभी शांत वातावरण

शाम की यह किरणें,

हवा चल रही मंद-मंद,

कभी तेज़ हवा में,

बह चले लोग-ढूँढते चिराग,

अपनो को देकर दर्द,

धरती को रंगीन बना देती,

कभी खुशी तो कभी गम,

कभी मस्ती तो कभी दर्द-विरह,

कभी हँसी ठहाके तो कभी मातम,

जन्म और मरण के बीच,

अच्छे – बुरे की परिभाषा ढूँढते,

बस चल रही जिंदगी,

स्वीकार कर लो तो खुश,

अगर मना करो तो नाखुश,

जिंदगी भरी पड़ी है चीज़ों से,

हंमेशा मुस्कुराते रहो,

चाहे हो विरह कामना,

चाहे हो खुशी…

बस आंसू के साथ,

मुस्कुराते रहना ही है जिंदगी,

यही तो है ईश्वर की दुनिया

यही तो है प्रकृति।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 32 – पत्थर दिल ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – पत्थर दिल।)

☆ लघुकथा – पत्थर दिल श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

दादी ओ दादी दरवाजा खोलो जोर-जोर से बाहर घंटी बजने की और दरवाजे को पीटने की आवाज आ रही थी।

कौन है मुझे परेशान कर रहा है दोपहर में चैन से सोने भी नहीं देता कमला जी धीरे-धीरे दरवाजे की ओर आई।

दादी में चीकू हूं ।

दोपहर में चैन से मुझे सोने क्यों नहीं देते हो घर के सामने पार्क होना भी एक मुसीबत हो गई है?

आज मुकेश नहीं आया है आप लोग बगीचे से स्वयं अपनी गेंद ले लो और मुझे तंग मत करो?

कमला जी ने जोर से चीकू से कहा।

दादी मुझे गेंद नहीं चाहिए मेरे दोस्त बंटी को चोट लग गई है थोड़ी सी हल्दी दे दीजिए उसे बहुत जोर से खून निकल रहा है।

आज मुकेश नहीं आया है इसलिए घर का काम भी नहीं हुआ है और खाना भी नहीं बना है खाना मैंने बाहर से ऑर्डर देकर मंगवाया है, कुछ भी नहीं मिलेगा।

मेरी बड़ी कोठी को देखकर सब लोग जलते हैं और तुम बच्चे अपने घर में क्यों नहीं जाते हो आए दिन कुछ न कुछ मांगने चले आते हो 1 दिन कुछ दे दिया तो रोज-रोज चले आओगे अपने घर जाओ और अपनी मां से मांगो।

दादी भी तो मां होती है मेरा घर थोड़ा दूर है मेरे दोस्त का बहुत खून निकल रहा है आप कुछ दवाई बता दीजिए जिससे उसका खून बंद हो जाए।

बहाने मत बनाओ यहां कुछ नहीं मिलेगा यहां से भाग जाओ।

कमला जी ने सोचा यदि इसे दया करके आज मैंने हल्दी दे दी तो रोज का कुछ ना कुछ लगा रहेगा…।

पोते और बेटों ने छोड़ दिया है और तुम अकेली इस घर में भूत की तरह रहती हो सब लोग तुम्हें ठीक ही कहते हैं मैं तो  सामान के बहाने हाल समाचार लेने को खटखट किया करता था लेकिन तुम तो पत्थर दिल हो पड़ी रहो अकेले। चीकू रोता हुआ वहां से चला जाता है।

कमला जी – हां सच कह रहा है तू मैं तो पत्थर हूं…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 111 – जीवन यात्रा : 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 111 –  जीवन यात्रा : 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शिशु वत्स जब खड़े होकर पग पग चलते हुये आत्मनिर्भर बनने की दिशा में आगे बढ़ने की शुरुआत करता है तो इस वक्त उसका हाथ पकड़ने जो कठोर मगर मजबूत हाथ साथ में आते हैं, वह हाथ होते हैं “पिता” के. बाबूजी, पापा, डेडी, बाबा के अलावा भी कई भाषाओं में अलग अलग नाम हैं जीवनयात्रा के इस पात्र के पर अर्थ एक ही है, संकेत एक ये भी है कि “ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया ” के बाद अगला पड़ाव आ गया है. ये मृदुलता, सौम्यता, ममता, सांत्वना से साहस, कठोरता, अनुशासन, परिश्रमशीलता और ज्ञानार्जन, प्रशिक्षण की ओर बढ़ने की यात्रा है.

पिता का साथ और उन पर धीरे धीरे जागता विश्वास, हवा में उछाले जाने पर भी शिशु को खिलखिलाने का साहस देता है. वो होता अबोध है पर वह समझ जाता है कि हवा से धरातल पर उसकी यात्रा रोमांचक होने के साथ साथ सुरक्षित भी है, तभी तो वह निश्चिंत होकर हंस पाता हैं. पिता के ये मज़बूत हाथ ही उसे बाहर की दुनियां में प्रवेश करने लायक आत्मिक शक्ति और कुशलता के लिये प्रशिक्षण देंगे. ये पितृत्व का संरक्षण, उसके जीवन में गति लेकर आता है जो उसे दौड़ना सिखाता है, साइक्लिंग सिखाता है, बात करने की कला सिखाता है और अनुशासन में बंधना सिखाता है. सुबह सुबह गहरी नींद में जगाने का काम प्राय: पिता ही करते हैं. भले ही बचपन, मन में ये गुनगुनाये कि “बापू सेहत के लिये तू तो हानिकारक है ” पर वास्तविकता इससे उलट होती है. हमारी सेहत, पढ़ाई लिखाई, कलात्मक प्रशिक्षण और गणित, विज्ञान से लेकर संगीत और सामान्य ज्ञान भी हम पिता से ही लिखते हैं. हमारी क्लास में प्रदर्शन, परसेंटेज़, पोजीशन की सबसे ज्यादा चिंता, खुशी पिता को ही होती है. डांटते भी सबसे ज्यादा पिता ही हैं जब हम उनकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाते पर यह डांट ही हमें सफल होने, कुछ बनने की दिशा, उत्साह, देती है हमें अपने लक्ष्य के प्रति फोकस करना सिखाती है. हम जानते हैं कि हमारी सफलताओं पर बिना जश्न मनाये अंदर ही अंदर सबसे ज्यादा खुश होने वाले पिता ही होते हैं. हम अपनी असफलताओं को अपनी मां से शेयर करते हैं पर सफल होने पर दिल से चाहते हैं कि ये समाचार सबसे पहले पिता सुनें. उनकी हल्की सी मुस्कुराहट किसी स्वर्ण पदक से कम नहीं होती. जीवनयात्रा का यह भाग पिता और पुत्रों को समर्पित है.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ लाडकी बहिण… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ लाडकी बहिण... ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

(विडंबन)

“लाडकी बहिण” आहे माझी एक

पंधराशे’तील देईल ना नाणी लाख.

.

किती प्रेमात वाढलो दोघे आम्ही

परि योजनेने केले नाते खाक.

.

आता देईल ना ती कागदी सही

मिरवीत फिरेल मिजास धाक.

.

बोंब झाली भावांची हक्कात कशी

झोकात शालू नि झुबे शोभे झॕक.

.

सत्तेसाठी केला डाव मात्र भारी

पुरुषांचे शौर्य वेशीवर ठोक.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ कोलाज… ☆ श्री सतीश मोघे ☆

श्री सतीश मोघे

? विविधा ?

☆ कोलाज ☆ श्री सतीश मोघे 

शाळेत’ कार्यानुभव’ हा विषय होता. त्यात कधीतरी  तुकड्या तुकड्यांचा कोलाज घरून करून आणणे, असा गृहपाठ असायचा. रंगबिरंगी घोटीव पेपर आणून ते कापायचे आणि हवे तसे चिकटवायचे. चिकटवतांना ठाऊक नसायचं की पूर्ण झाल्यावर कसे दिसेल ? वर्गात सर्वांचे कोलाज पाहिल्यावर कळायचे की आपल्याच रंगाचे कागद वापरून एखाद्याने फारच सुंदर ते केले असायचे. रंगसंगतीची जाण आणि तुकडा योग्य ठिकाणी लावणं या दोन गोष्टी कोलाज सुंदर करतात, हे समजायचं. आपण हा तुकडा इथे, तो तिथे लावायला हवा होता असं वाटायचं. हे कोलाज करायाचेच काम आयुष्यभर करायचे आहे, हे तेव्हा ठावूक नव्हतं.

दोन जीवांच्या कोलाजमधून एक नवीनच जीवाचा तुकडा जन्माला येतो. तो जन्माला आला की आईचं मातृत्वाचं कोलाज चित्र पूर्णत्वाला जातं. वयाची चार-पाच वर्ष हा ‘दिल का टुकडा’ आईचंच कोलाज विश्व आपलं समजत असतो. हळूहळू स्वतःच कोलाज तो तयार करायला सुरुवात करतो.

ही कोलाज करण्याची क्रिया अखरेच्या श्वासापर्यंत सुरुच असते.

शक्य असतील त्या वस्तू घेऊन आपण आपला संसाराच्या कोलाजचा सांगाडा उभा करतो आणि आयुष्यात आलेल्या व्यक्तींना त्यांच्या भावछटांसह त्यात ठेऊन संसाराचे हे  कोलाज रंगीत करत असतो.

मनुष्य हाच मुळात एकसंध नाही, त्याचं आयुष्य एकसंध नाही.. तेही  तुकड्या तुकड्याचे…तुकडे तुकडे एकत्र येऊन तयार होणारे कोलाज. पुन्हा आयुष्यातले तुकडेही बदलणारे… बालपणाचे मित्र, कॉलेजचे मित्र, आताचे मित्र, बदलणारे. नातंवाईक, त्यांचे प्रेमसंबंध बदलणारे. कुणाला आपण नकोसे तर कुणी आपल्याला नकोसे. हवीहवीशी व्यक्ती कायम सोबत राहीलच याचीही शाश्वती नाही. या सर्व परिस्थितीत हाती जे जे आहे त्याचे सुंदर कोलाज करून त्याचा आनंद घेणं, हेच कौशल्य आहे.

अनुभव घेणारं मन, त्याला अनुभवापर्यंत नेणारा देह आणि या मन आणि देहाला विवेकाने हाकणारी बुद्धी या तिन्ही गोष्टी जागेवर शाबूत असल्या की, त्या त्या वेळी असणाऱ्या तुकडयांची जागा (Placement) योग्य ठरविली जाते. कोणाला किती महत्व दयायचं, कोणाला केंद्रस्थानी ठेवायचं, कोणाला कोणाजवळ ठेवायचं हे हळूहळू कळतं, हळूहळू आत्मसाद होतं.

काही तुकडे असे वाटतात की डोळे मिटून कुठेही ठेवा, शोभून दिसतात, आनंद देतात,असे वाटते. काही मात्र कुठेच मॅच होत नसतांनाही ठेवावे लागतात,असे वाटते.हा सगळा त्या तुकड्यांना असणारा वरवरचा रंग पाहून आपल्या ठिकाणी निर्माण होणाऱ्या भावनेचा खेळ आहे,

ही भावनाच सकारात्मक आणि निर्मोही झाली की या कोलाजचा खरा आनंद मिळतो. समोरच्या तुकड्याने आपले केलेले ‘दिल के टुकडे’ आठवायचे की त्यांने आपल्याला कधीकाळी दिलेला  भरपुर आनंद आठवायचा ? हाच खरा प्रश्न आहे.

आपल्या आयुष्यात आलेल्या प्रत्येक तुकड्याला आणि आपल्यालाही एक काळी बाजू असते आणि एक रंगीत बाजू असते.रंगीत बाजू सन्मुख,डोळ्यासमोर ठेऊन कोलाज केले तरच ते सुंदर होते…सुंदर दिसते.

आयुष्याचा कोलाज म्हणजे  जोडलेल्या तुकड्यांच्या रंगीत भावछटांचा तुकड्या तुकड्यांनी घेतलेला आनंद. त्या तुकड्यांना एकसंध करून त्यात  फार गहन अर्थ शोधण्याचा प्रयत्नही करू नये. सर्वसंगपरित्याग करून आत्म्याच्या भेटीसाठी तपसाधना करणाच्या संत‌ सत्पुरुषांची जीवने सोडली तर आपणा सर्वांची जीवने निरर्थकच. तेव्‍हा त्यात अर्थ शोधून बुद्धी झिजवा कशाला!      एका प्रसिद्ध चित्रकाराला, “त्याने काढलेल्या ॲबस्ट्रॅक्ट चित्रात काय अर्थ आहे?” असे विचारले. तो उत्तरला “या चित्रात अर्थ शोधायचा नसतो. त्यातल्‍या वेगवेगळ्या दिसणाऱ्या आकृती आणि विविध

रंगछटा केवळ भोगायच्या असतात.. त्यांचा आनंद घ्यायचा असतो.” आपलेही जीवनाचे कोलाज असेच ॲबस्ट्रॅक्ट.त्यात अर्थ न शोधता रंगांचा फक्त आनंद घ्यायचा.

हे कोलाज म्हणजे विविध व्यक्ती,त्यांच्या वेगवेगळ्या रंगछटा-भावछटांचे,स्वभाव छटांचे.. तुकड्या- तुकडयांचे जोडकाम. त्यातल्या त्यात सकारात्मक, आपल्याला भावतील, आनंद देतील असे तुकडे हाताशी घ्यावेत. त्यांच्या दोषांची  काळी बाजू

नजरेआड करून गुणांची रंगीत बाजू सन्मुख करावी. आपली समज आणि कौशल्य यानुसार ते हृदयात किंवा हृदयापासून हव्या तेवढ्या अंतरावर ठेवावेत आणि रंगीत कोलाजचा घेता येईल तेव्हढा आनंद घ्यावा, हेच बरे.

अर्थात हे करताना कागदाचे कोलाज आणि आयुष्याचे कोलाज यातला एक मुख्य फरक समजून घेतला पाहिजे.कागदाच्या कोलाजचे तुकडे एकदा चिकटले की चिकटले. त्यांना कागदाला,एकमेकांना सोडून जायचे स्वातंत्र्य नाही. पण माणसाच्या जीवनातील कोलाज मधील माणसे (तुकडे) मात्र सोडून जाऊ शकतात.  कधी त्यांच्या इच्छेने तर कधी नाईलाजाने.  या कोलाजमधले आजूबाजूचे तुकडे सोडून गेले तर फारसा फरक पडत नाही. पण मधलेच..केंद्रस्थानी असलेले,हृदयातले तुकडे सोडून गेले तर मात्र कठीण होते. संपूर्ण कोलाजची पुन्हा नवीन मांडणी करावी लागते… नवीन तुकड्यांना सोबत घेऊन… आयुष्य आहेच असे की, हा जुन्या-नवीनचा खेळ अव्याहत  सुरूच असतो.अशावेळी असे का घडले? याचा विचार करून बुद्धी शिणवण्यापेक्षा आहे त्या तुकड्यांची पुनर्मांडणी करून नव्या उत्साहाने त्याच्या रंगाचा, भावछटांचा आनंद घेणं ज्याला जमलं त्याला प्रत्येक क्षणी हे कोलाज,त्यातल्या व्यक्ती आनंद देतात,आवडतात.तुकड्या तुकड्यांच्या  खंडप्राय आयुष्यात आनंद मात्र अखंड,एकसंध राहतो.

© श्री सतीश मोघे

मो – +91 9167558555

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ तेजस्विनी… – भाग – २ ☆ डॉ. शैलजा करोडे ☆

डॉ. शैलजा करोडे

🌸 जीवनरंग 🌸

☆ तेजस्विनी… – भाग – २ ☆ डॉ. शैलजा करोडे

(नवरदेव, त्याचे आई वडील व इतर नातेवाईक (मध्यस्थ) पोलीस स्टेशनात लाॅकअप मध्ये बंद झाले) – इथून पुढे.

“अरे विजय, अजून आप्पा, काका इतर मंडळी कोणीही आली नाही. काय समस्या आहे रे बाबा, मला तर काही समजेनासं झालंय. काय करू मी ? कसं करू ?

“आक्का शांत हो आणि मन घट्ट करुन ऐक. नवरदेव, त्याचे आई वडील व इतर मध्यस्थ पोलीस लाॅकअप मध्ये आहेत.” ” अरे देवा, हे काय घडलंय रे.माझी छकुली वधूवेषात, अंगाला हळद, लग्नमंडपात लोक जमलेले, दाराशी सजवलेला घोडा, वाजंत्रीवाले, एक हजार लोकांच्या जेवणावळीची तयारी. आणि हे काय घडलंय विपरीत. काय करू मी आता ? कसं सांगू छकुलीला ? कोणत्या तोंडानं सांगू ? केवढी अपराधी आहे मी तिची.देवा हा दिवस दाखविण्यापूर्वीच तू मला मारलं का नाहीस.”

“चूप, असं अशुभ बोलू नकोस ” छकुलीचा हात माझ्या ओठांवर होता.” माझं नशीब बलवत्तर कि त्या माणसाचा खरा चेहरा लग्नापूर्वीच माझ्यासमोर आला.लग्नानंतर ही घटना घडली असती तर मी किती अभागी ठरली असती. अशा नीच, नालायक माणसाच्या चेहर्‍यावरचा सभ्यतेचा बुरखा वेळीच निघाला ही आपली पुण्याई. मी ही शिकलेली आहे, सुविद्य आहे, आर्थिक पाठबळही आहे माझ्याजवळ. मग मला घाबरण्याचं कारण काय आहे.नकोय मला असला माणूस. त्याने कितीही माफी मागितली आणि लग्नाला तयार झाला तरी पण मला तो नकोय.उतरवते मी माझा मेकअप. लोकांना मात्र जेवण करून जायला सांगा.”

मी तर अगदी दिग्ड,मूढचं झाले होते.काय करावे सुचतच नव्हते.जणू मी निर्जीव पुतळाच झाले होते.छकुलीच्या लहानपणीच तिचे वडील एका अपघातात निवर्तले आणि मी माहेरी भावाच्या आश्रयाला आले.भावाने मात्र मला भक्कम सहारा दिला.मी ही मला जमेल तसे काम करीत राहिली.माझी छकुली मोठी गुणी पोर, आईचं दुःख जाणत होती ती.कधी कोणत्या गोष्टीचा हट्ट केला नाही कि कोणती गोष्ट मागितलीही नाही.आहे त्यात नेहमी समाधान मानलं. चांगली शिकली, माहिती व तंत्रज्ञान क्षेत्रात प्राविण्य मिळवलं आणि आज स्वतःच्या मजबूत अशा पोलादी पायांवर ती उभी होती.आर्थिक स्वावलंबन तर होतंच पण तिचा आत्मविश्वासही दांडगा होता.अन्यायाविरूद्ध चीड होती. सत्याची चाड होती.अडलेल्यांना मदतीचा हात देणारी होती.तर दुष्टांना त्यांची जागा दाखवून देणारी मर्दानी दुर्गा होती, तेजस्विनी होती.

“छकुली छकुली,मला पुढचं बोलताच येईना.” नको रडूस आई, तुझं दुःख जाणते मी.पण आमचा यात काही दोष नाही. आम्ही कोणतंही पाप केलं नाही.मग आम्ही घाबरायचं कशासाठी ? ” ” पण बेटा हा जाती समाज, आजच्या विवाह सोहळ्याची ही तयारी ” ” कोणता जाती समाज. कोणी काही विचारणार नाही आम्हांला.कारण आमचा दोषच नाही कोणता.बाकी राहिलं जेवणावळीचं. त्याचं उत्तर मी दिलेलंच आहे. सगळ्यांना जेवून जायला सांग. मी कपडे बदलते माझे.” 

“नको छकुली, नको कपडे बदलवूस, नको मेकअप उतरवूस.नवरीला एकदा हळद लागली कि धुवायची नसते.अपशकून असतो तो.” ” पण मामी, मी काय करू. लग्न तर मोडलंय.दोषी बसलेत पोलीस लाॅकअप मध्ये. आणि मी तर अशी सडकी विचारसरणी ठेवणार्‍यांना नक्कीच धडा शिकवीन. मी गप्प बसणार नाही मामी “.

गप्प नकोच बसू तू आणि दोषींना धडाही शिकव. मी सुद्धा यासंदर्भात मदत करीन तुझी. खंबीरपणे तुझ्या पाठीशी उभी राहीन. पण हळद धुवू नकोस पोरी “

“मग काय करू मी,? कोण लग्न करील माझ्याशी ?

“या समाजात चांगली विचारसरणी असलेली मुलेही असतात बेटा. माझ्या आतेभावाचा मुलगा निलेश आहे. तो करील तुझ्याशी लग्न.अर्थात तो तुझ्यासारखा शिकलेला नाही. बी. काॅम झालाय. एका सी ए कडे प्रॅक्टीसही करतोय आणि सी ए चा अभ्यासही करतोय. तुझी इच्छा असेल तर मी बोलू माझ्या भावाशी “

छकुलीनं आपला आश्वासक हात मामीच्या हाती ठेवला.

“काय घडतंय मला तर कळतंच नव्हतं. मी नुसती बघत होती. ” वन्स तुम्हांला पसंत आहे ना निलेश. छकुलीला अगदी सुखात ठेवील तो ” ” होय गं बाई. तुला जे योग्य वाटेल ते तू कर. आता तूच आई हो छकुलीची “

“चला चला नवरदेवाला घेण्यासाठी ” सुक्या” ला पाठवा. माझ्या भाच्यालाच सजवलेल्या घोड्यावर बसवून नवरदेवाला ( निलेशला ) घेण्यासाठी पाठविले,लग्नमंडपातील वर्दळ वाढली होती.दाराशी नवरदेव पोहोचला होता.सुवासिनी औक्षण करीत होत्या.फटाक्यांची आतिषबाजी होत होती.नवरदेव नवरीला फुलांच्या पायघड्या घातल्या जात होत्या.भटजींची मंगलाष्टके चालू होती. आणि तो क्षणही आला 

तदेव लग्नं सुनदिन तदेव

ताराबलं चंद्रबलं तदेव ।

विद्याबलं दैवबलं तदेव

लक्ष्मीपते तेंघ्रियुगं स्मरामि 

आणि छकुलीनं वरमाला निलेशच्या गळ्यात घातली.

“लग्नाला आलेल्या सर्व पाहुणे मंडळींनी जेवण केल्याशिवाय जाऊ नये ” आप्पा माईकवरून घोषित करीत होते.

“वन्स विहिणींचा मानपान करायचा आहे. येताय ना तुम्ही ” एका स्वप्नातून मी जणू जागी झाले.” अहो वन्स, सर्व निर्विघ्नपणे पार पडलंय. विहिणींचा मानपान करायचाय. येताय ना तुम्ही.” मी उठले.विहिणींना नवीन कपडे, ओटीचं सामान, गोड खाऊ घालणे. सगळे विधी पार पडत होते.नवरदेव नवरीची सप्तपदी चालू होती.

“चला कन्यादान विधी सुरू करायचा आहे ” ” आप्पा, सगळं तू आणि वहिनीनं केलंय. कन्यादानही तुम्हीच करा आता. मी तर सगळी आशाच सोडली होती.आयुष्यभर दुःख भोगलेल्या मला हा धक्का सहन न होणारा होता. पण विघ्नहर्त्या गणेशानं सगळं व्यवस्थित केलं.काही पुण्य असेल माझ्या गाठीला ते कामी आलं आज ” असं बोलत असतांनाच मला भोवळ आली आणि मी कोसळले.” काय झालं आक्का,” सगळे माझ्याभोवती जमले, माझ्या चेहर्‍यावर पाणी शिंपडले, तशी मी पुन्हा शुद्धीत आले.” वन्स, खूप ताण करून घेतलाय तुम्ही. पण आता सगळं व्यवस्थित पार पडलं ना, आता कसली काळजी. पण शारीरिक थकवा आलाय तुम्हांला. तुम्ही आराम करा पाहू. मी सांभाळेन सगळं ” छकुलीही माझ्याजवळ आली होती.

“काही नाही झालंय बेटा आईला. थोडासा थकवा आहे. बरं वाटेल तिला. तू आपले धार्मिक विधी पार पाड. जा भटजी वाट पाहाताहेत तुझी “

रात्री  छकुलीचा विदाई सोहळाही पार पडला. आता मला फार रिते रिते वाटू लागले. उद्या सकाळी वरात परतीच्या प्रवासाला लागणार होती.

“निलेश, एक महत्वाचं काम राहिलंय माझं, ते पार पाडायचं आहे मला ” ” कोणतं काम राणी सरकार. तुझं काम ते माझं काम, आता आम्ही एक आहोत सुख आणि दुःखातही “

” माझ्या पहिल्या नियोजित वरा विरूद्ध स्टेटमेंट द्यायचंय मला पोलीस स्टेशनात.आणि पुढे कोर्टातही केस चालवायची आहे मला. फसवणूकीचा व मानहानीचा दावा करणार आहे मी ” ” जरूर कर राणी या लढाईत मी सुद्धा तुझी सोबत करीन.अशा लोकांना धडा शिकवलाच पाहिजे.”

सकाळी वरात परतीच्या प्रवासाला निघाली आणि माझा ऊर दुःखावेगानं भरून आला.एक पोकळी माझ्या मनात निर्माण झाली.पण माझी तेजस्विनी मात्र हरली नव्हती. कठीण प्रसंगालाही सामोरी गेली.तिचा आत्मविश्वास वाढला होता.आणि या आत्मविश्वासात तिचं व्यक्तिमत्व झळाळून उठलं होतं. आता या तेजस्विनीला एका तार्‍याची सोबतही लाभली होती.माझ्यासाठी हा क्षण परमोच्च सुखाचा होता.या परमोच्च सुखाच्या क्षणीच परमेश्वरानं माझे डोळे मिटावे ही इच्छा होती.

“आक्का, आक्का, छकुलीला आशीर्वाद दे ना ” एका तंद्रीतुन पुन्हा मी जागृत झाले. माझी तेजस्विनी आता स्वतःच्या घरट्यात विसावणार होती. माझी तपस्या फळाला आली होती.विघ्नहर्ता गणपतीने सगळं व्यवस्थित पार पाडलं होतं. एक कृतार्थ समाधान माझ्या चेहर्‍यावर होतं.

– समाप्त –

© डॉ. शैलजा करोडे

नेरुळ नवी मुंबई मो. 9764808391

ईमेल – [email protected] 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ प्रदक्षिणा… ☆ श्री सुनील शिरवाडकर ☆

श्री सुनील शिरवाडकर

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☆ प्रदक्षिणा… ☆ श्री सुनील शिरवाडकर

यशला तर खरं म्हणजे इथे येण्याची इच्छाच नव्हती.काय तर म्हणे..हे गुरुजी तुला चांगला मार्ग दाखवतील.त्यांच्याकडे प्रत्येक समस्येवर उपाय आहे.तसं म्हटलं तर समस्या अशी नव्हतीच.तीशी उलटुन गेली.. अजुनही यशचं लग्न जमत नाही..ही बाबांच्या मते समस्या होती..यशच्या द्रुष्टीने नव्हती.

बाबांचा खुपचं आग्रह झाला म्हणून यश आता शिखरे गुरुजींकडे आला होता.बरोबर आणलेली कुंडली त्याने गुरुजींच्या समोर ठेवली.गुरुजींनी ती कुंडली बघितली. पंचांग उघडलं.. बाजुला असलेल्या पाटीवर पेन्सिलने काही तरी आकडेमोड केली..बराच वेळ विचार केल्यावर त्यांनी यशला सांगितलं..

“तुमच्या कॉलनीत गजानन महाराजांचं मंदिर आहे.तु गुरुवारी त्या मंदिरात जायचं.. दुर्वा फुलं वहायचं.. आणि अकरा प्रदक्षिणा घालायच्या.बघु..कसं लग्न जमत नाही ते.”

यशला ते काही पटलं नाही.त्याने तसं सांगितलं सुध्दा.गजानन महाराजांना.. किंवा कोणत्याही देवाला  प्रदक्षिणा घातल्याने नक्की काय मिळते? पण मग गुरुजींनी त्याला समजावून सांगितले. त्यामुळे आपण देवाच्या सान्निध्यात अधिक काळ रहातो.एका जागी बसुन चिंतन करणे..हा एक मार्ग झाला.आणि प्रदक्षिणा घालणे हा दुसरा.प्रदक्षिणा घालण्याने एक गोष्ट मात्र हमखास होते..ती म्हणजे चालण्याचा व्यायाम.

मग शिखरे गुरुजींनी त्याला वेगवेगळ्या प्रदक्षिणांबद्द्ल माहिती द्यायला सुरुवात केली.मंदिर लहान असेल तर कमी वेळात प्रदक्षिणा होतात..मोठे असेल तर जास्त वेळ लागतो. त्रिंबकेश्वरला ब्रम्हगिरी पर्वत आहे.हा पर्वत म्हणजे साक्षात शिवाचे रुप.श्रावण महिन्यात या ब्रम्हगिरीलाच प्रदक्षिणा घालण्यासाठी लाखो भाविक येतात.ही प्रदक्षिणा पुर्ण करण्यासाठी साधारणपणे एक दिवस लागतोच.श्रावणसरी अंगावर झेलत..ओम नमः शिवाय चा जप करत शेतातून,नदितुन वाट काढत ही प्रदक्षिणा पुर्ण केली जाते. या प्रदक्षिणेने धार्मिक पुण्य किती मिळते हा वेगळा भाग.एक दिवस निसर्गाच्या सान्निध्यात रहाण्याचा आनंद मिळतो तो खरा महत्वाचा.

देवाला आपल्या उजव्या हाताला ठेऊन फेरी मारणं म्हणजे प्रदक्षिणा.याला कोणी फेरी म्हणतात..कोणी परिक्रमा म्हणतात..तर कोणी उजवी घालणं असंही म्हणतात.प्रदक्षिणा का घालायची?त्यांचं काय महत्त्व आहे? हे विषद करणारा एक संस्कृत श्लोक आहे.

यानि कानि च पापानी

जन्मांतर कृतानी च

तानि सर्वाणि नश्यन्तु 

प्रदक्षिणे पदे पदे.

म्हणजे..

आमच्याकडुन कळत नकळत झालेली.. आणि पुर्व जन्मातील सर्व पापे या प्रदक्षिणा करता करता नष्ट होऊन जावो.

प्रदक्षिणा म्हटलं की आठवते ती नर्मदा परिक्रमा. एखाद्या नदीला संपुर्ण प्रदक्षिणा घालण्याची कल्पनाच अभिनव.मेघदुत या महाकाव्यात कवी कालिदासाने नर्मदा नदीचे वर्णन खुपच सुंदर केले आहे.तिची वळणे.. मध्ये मध्ये येणारे छोटे मोठे डोंगर ‌.काठावर डुलणारी उंच उंच झाडे.. घनदाट अरण्ये हे सगळंच परिक्रमा करणार्यांना आकर्षुन घेतं.नदीच्या किनार्यावर असलेली गावे..मंदिरे..बदलत जाणारे समाज जीवन या सर्वांच्या सोबतीने वाटचाल करणं हा एक रोमांचकारी अनुभव आहे.

अलीकडे वाहनात बसुन नर्मदा परिक्रमा करण्याचं प्रमाण वाढलं आहे.पण शास्त्रशुद्ध पद्धतीने नर्मदा परिक्रमा करायची असेल तर त्यासाठी तीन वर्ष.. तीन महिने.. तेरा दिवसांचा कालावधी सांगितला आहे. ‌परीक्रमेला बहुधा ओंकारेश्वर येथुन सुरुवात केली जाते.पण तसा नियम नाही.बाकी नियम मात्र भरपूर आहे.परीक्रमे दरम्यान नर्मदा नदीचे पात्र ओलांडून जाता येत नाही.सोबत फारसं सामान नसावं.सदावर्तात जेवण करावं.नाही तर पाच घरी भिक्षा मागावी.त्यात मिळालेल्या शिधा घेऊन तो रांधावा.मिळेल ते पाणी प्यावं.आणि सगळ्यात महत्त्वाचं म्हणजे सतत ‘ओम नर्मदे हर..’ हा मंत्र जपावा.

नर्मदा परिक्रमा केल्यावर तेथील अनुभव अनेक जण शब्दबद्ध करतात.ते सर्वच वाचनीय असतात.जगन्नाथ कुंटे यांनी अनेक वेळा नर्मदा परिक्रमा केली.’नर्मदे हर हर’.. आणि ‘साधनामस्त’ या पुस्तकांमधून ते आपल्याला नर्मदा परिक्रमेच्या अद्भुत विश्वात घेऊन जातात.

यशला या निमित्ताने बरीच माहिती मिळाली.गुरुजींचं म्हणणं त्यांना पटलं.दर गुरुवारी तो मंदिरात जाऊ लागला.मनोभावे प्रदक्षिणा घालु  लागला.मधल्या काळात त्यानं गजानन विजय ग्रंथाचे पारायण ही केलं.

आणि खरोखरच यशच्या सेवेला यश मिळालं. आज यशचा लग्न समारंभ साजरा होत होता.आताही तो प्रदक्षिणा घालत होता..ती म्हणजे सप्तपदी.हो..ती पण एक प्रदक्षिणाच..प्रज्वलित अग्नीभोवती..देवां.. ब्राम्हणांच्या साक्षीने घातलेल्या या सात फेर्यानंतर वैवाहिक जीवनाचा प्रारंभ होतो.गजानन महाराजांना घातलेल्या प्रदक्षिणेचं फळ आज त्याला सप्तपदीच्या प्रदक्षिणेच्या रुपाने मिळालं होतं.

© श्री सुनील शिरवाडकर

मो.९४२३९६८३०८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ विठ्ठलाचे पायी… ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

? इंद्रधनुष्य ?

☆ विठ्ठलाचे पायी… ☆ श्री संभाजी बबन गायके 

ज्यांचे काळजाचे तुकडे देशाच्या सीमांवर प्रत्यक्ष मृत्यूसमोर अहोरात्र उभे असतात, त्यांच्या डोळ्यांची आणि गाढ झोपेची ओळख खूपच पुसट झालेली असते. रात्रीचा दीड एक वाजला असेल. भाऊंना तशी नुकतीच झोप लागली होती. एखादा डुलका झाला की बाकी वेळ ते जागेच असायचे. त्यांचे चिरंजीव बजरंग आणि त्यांचे सर्वच कुटुंब,गाव त्यांना ‘ भाऊ ‘ म्हणून संबोधत असे. बजरंग फौजेत भरती होऊन तसे स्थिरावला होते. पत्नी,दोन मुलं असा संसारही मार्गी लागला होता. नोकरीची वर्षेही तशी सरत आलेली होती. लवकरच कायम सुट्टी येण्याचा, सेवानिवृत्ती पत्करण्याचा त्यांचा विचार होता.    बाकीच्या वेळी अजिबात आवश्यकता पडत नसतानाही केवळ धाकटे चिरंजीव बजरंगराव आणि बाहेरगावी नोकरीत असलेले थोरले चिरंजीव यांचेशी बोलता यावं, त्यांची  ख्यालीखुशाली कळत राहावी,म्हणून भाऊंनी घरी टेलिफोन बसवून घेतला होता.

टेलिफोन खणाणला तसे भाऊ ताडकन झोपेतून जागे झाले व उठले. वयोमानाने त्यांच्या पत्नीला ऐकायला कमी यायचे. त्यांच्या पत्नी म्हणजेच बजरंग यांच्या आईसाहेब या आवाजाने जाग्या झाल्या नाहीत. तिकडून बजरंग फोनवर होते. त्याकाळी मुळात सैनिकांसाठी अत्याधुनिक संपर्क व्यवस्था नव्हती. जी काही व्यवस्था होती ती पुरेशी नव्हती. सीमावर्ती भाग आधीच दुर्गम. त्यातच सीमेवर युद्धाचे काळे ढग जमा झाल्याचे दिवस. टेलिफोन करण्यासाठी काही तास लागायचे आणि अर्थातच प्रत्येकालाच घरच्यांशी बोलायचे असायचे! पत्रांतून फार काही लिहिता येत नसे. आणि लिहिलेली पत्रे घरांपर्यंत पोहोचायला उशीर तर लागायचाच! 

बजरंग यांचा फोन करण्याचा नंबर रात्री दीड वाजता लागला! एवढ्या उशीरा फोन करण्याचं कारणही तसंच होतं. बजरंग यांची पलटण अंतिम लढाईला निघायची होती. परत येण्याची शाश्वती कधीच नसते! चार शब्द बोलून घ्यावेत, निरोप द्यावा म्हणून बजरंगरावांनी घरी फोन लावला होता. त्यांची पत्नी त्यावेळी ग्वाल्हेरला असल्याने तिच्याशी बोलणे शक्य नव्हते. 

सैनिकाला घरी सर्व काही सांगता येत नाही. देशाच्या सुरक्षिततेच्या दृष्टीने खूप गुप्तता पाळावी लागते. बजरंगराव एरव्ही खूप कठीण काळजाचे…वागण्यात कडक! कर्तव्यात वैय्यक्तिक भावनांचा अडसर येऊ न देणारे शिपाई गडी! पण आज त्यांचा स्वर कातर होत होता..त्यांच्या मनाविरुद्ध! फोनवर फार वेळ बोलताही येणार नव्हते आणि काय बोलावे ते समजतही नव्हते! फोन ठेवताना शेवटी बजरंगरावांच्या तोंडून कसेबसे शब्द निघाले… ” माझ्या पोरांना चांगलं शिकवा!”

भाऊ आता खडबडून जागे झाले होते! बजरंगराव आधी असे कधी काही बोलल्याचे त्यांना आठवेना. आजच असं काय झालं असावं, की त्यांनी ही निरवानिरवीची भाषा बोलावी? फोन बंद झाल्याने काही उलगडाही होईना! पत्नीला उठवून हे सांगावं असं त्यांना वाटेना. ती बिचारी आणखीनच काळजीत पडेल! 

भाऊंनीं डोळे मिटले…पांडुरंगाला स्मरत हात जोडले आणि स्वत:शीच काही पुटपुटले. आणि उठून ते देवघरातल्या पांडूरंगाच्या तसबिरीपाशी गेले. अबीर कपाळावर लावला आणि सकाळची वाट पहात डोळे मिटून पडून राहिले….पण डोळ्यांसमोरून बजरंग काही हलत नव्हते. तसा ते सुट्टी संपवून ड्यूटीवर जायला निघाले की, त्यांच्या काळजात कालवाकालव व्हायची. पण ते दाखवायचे नाहीत वरवर. कामाला निघालेल्या माणसाचे चित्त दु:खी करू नये, असा त्यांचा विचार असे. बाकी एकांतात किती आसवं ढाळत असतील ते विठ्ठलालाच ठाऊक! सैनिकांच्या आई-बापांची,पत्नी,मुलांची, बहिण-भावांची अशीच तर असते अवस्था! 

आषाढी वारीचे दिवस होते. एरव्ही शेतांमधल्या विठ्ठलाची सेवा करण्यात मग्न असलेल्या भाऊंनी यंदा वारीला जाण्याचे ठरवले. ते समजल्यावर गावातल्या माळकरी मंडळींनाही आनंद झाला. बघता बघता सात वर्षे गेली. इकडे फौजेत कर्तव्य बजावणारे बजरंगराव अनेक जीवघेण्या संकटांतून सहीसलामत बचावले….शत्रूने शेकडो गोळ्या डागल्या…पण कोणत्याही गोळीवर बजरंग हे नाव नव्हतं! उलट त्यांच्याच गोळ्यांवर दुष्मनांची नावे ठळक होती. घरी सुट्टीवर आले की ते दिवस कधी संपूच नयेत,असे वाटायचे सर्वांना…भाऊंना तर जास्तच! 

त्यांनी पंढरीची वारी सुरू केल्याला यंदा सात वर्षे पूर्ण होणार होती. खरे तर आधी ते आपल्या मोठ्या जिगरीने कमावलेल्या आणि राखलेल्या शेत-मळ्यातच विठ्ठल शोधायचे सावता महाराजांसारखे. गळ्यात तुळशीमाळा होतीच त्यांच्या जन्माच्या पाचवीला त्यांच्या वडिलांनी आवर्जून घातलेली. 

कालांतराने तब्येत ठीक नव्हती तरी भाऊंनीं हा नेम मोडला नव्हता. ‘कशाला पायपीट करता एवढी. खूपच वाटलं तर एस.टी.नं जात जावा की’ असं बजरंग म्हणायचे तेंव्हा भाऊ फक्त हसायचे आणि म्हणायचे…तो चालवत नेतोय तोवर चालायचं!      

यंदा भाऊंची सातवी वारी.एक तप पूर्ण करायचं होतं. चालवत नव्हतं तरी भाऊ नेटाने माऊलींसोबत निघाले. बजरंग या वर्षी फौजेतून कायमसाठी घरी यायचे होता. आणि येण्याचे दिवस जवळ आले होते. पण तरीही भाऊ वारीला निघून गेले…बजरंग आणि पांडुरंग त्यांच्यासाठी कुणी वेगळे नव्हते. 

आषाढी झाली…पालख्या माघारीच्या रस्त्याला लागल्या. गावातल्या दिंड्या मिळेल त्या वाहनांनी लगोलग माघारी निघाल्या. बजरंग त्या सकाळीच सुट्टीसाठी घरी पोहोचले होते. संध्याकाळच्या सुमारास दिंडीचा ट्रक गावात पोहोचला. भाऊ घराकडे निघाले…थोडे थकले होते, चेहरा काळवंडला होता उन्हातान्हानं, पण त्यावर समाधान झळकत होतं. एक देवाचा वारकरी आणि एक देशाचा धारकरी असे दोघे एकाच दिवशी घरी आले होते…हा योगायोग! 

बजरंगरावांनी वडिलांच्या पायांवर मस्तक ठेवले. त्यांनी त्यांच्या डोक्यावर हात ठेवले…’देवा,विठ्ठला.. पांडुरंगा!शब्द राखला तुम्ही!’ भाऊ उद्गारले! 

रात्री भाऊंचे पाय चेपताना बजरंग म्हणाले,”भाऊ,आता तुमच्याच्यानं चालवत नाही. बास झाली आता वारी!” 

“आणखी आठ वर्षे वारी करणार काहीही झालं तरी! ‘ देह जावो अथवा राहो..पांडुरंगी दृढ भाव!’… पूर्ण होऊ दे नवस माझा! बजरंगरावांना काय किंवा घरातल्या इतर कुणाला काय, नवसाचं काही माहीत नव्हतं. “कसला नवस?” बजरंगरावांनी विचारले.  

“त्या दिवशी रात्री तुझा दीड वाजता फोन आला. नीट काही कळालं नाही. पण तू म्हणाला,”पोरांना नीट शिकवा..सांभाळा! ते तुझं बोलणं काळजाला घरं पाडून गेलं. मला माहित होतं, तुला काही उलगडून सांगता येणार नव्हतं. पण मी तर फौजीचा बाप की रे! मला सगळं समजून चुकलं! पोरं लढायला निघालीत….परत नजरेस पडतील की नाही,देव जाणे! म्हणून त्या देवालाच साकडं घातलं…आमच्या सैनिकांना सुरक्षित ठेव…लढाईत त्यांचंच निशाण उंच राहू दे…! पांडुरंगा..तुझ्या बारा वा-या करीन न चुकता! पण माझ्या लेकराच्या पाठीशी उभा रहा!” पांडुरंगाने माझं ऐकलं! आज तू माझ्यासमोर आहेस!” असं बोलताना भाऊंचे डोळे भरून आले होते…त्यांच्या डोळ्यांतून खाली ओघळणा-या अश्रूंच्या धारेत बजरंगराव न्हाऊन निघाले! 

दिवसेंदिवस प्रकृती खालावत चालली असतानाही भाऊंनी ‘ केला नेम चालवी माझा ! ‘ असं विठ्ठलाला विनवणी करीत करीत बारा वर्षांचा नवस फेडला!

(माजी सैनिक आणि पत्रकार श्री.बजरंगराव निंबाळकर साहेब यांच्या प्रकाशित होऊ घातलेल्या आत्मचरित्रातील एका प्रसंगाचे हे मी केलेले कथा रूपांतर ! मूळ पुस्तकात या आणि अशा अनेक घटना,गोष्टी आहेत. येत्या सव्वीस-सत्तावीस जुलै रोजी हे आत्मचरित्र प्रकाशित होईल.)  

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ ‘प्रार्थना असावी अशी…’ – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

📖 वाचताना वेचलेले 📖

☆ ‘प्रार्थना असावी अशी…’ – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर 

मनात येणारा प्रत्येक सकारात्मक विचार ही प्रार्थना असते. या प्रत्येक प्रार्थनेला उत्तर मिळत असतं. म्हणून आपल्या मनात येणाऱ्या विचारांवर नियंत्रण असणं आवश्यक आहे.

प्रत्येक विचारानं आपल्या मनात आणि बाहेर तरंग निर्माण होतात. ते सर्वत्र पसरत असतात. प्रत्येक प्रार्थना म्हटली जाताच ती ऐकली जाते, आणि जशी ती ऐकली जाते तसं तिला उत्तरही मिळतं. यासाठी मनातला प्रत्येक विचार सकारात्मक असावा या हेतूनं प्रयत्न करणं अगत्याचेच आहे.

एका दिवाळी अंकात एका ज्येष्ठाने केलेली प्रार्थना वाचली. ” हे प्रभो… आता या वयात, प्रत्येक प्रसंगी, प्रत्येक विषयावर मी मतप्रदर्शन केले पाहिजे असे नाही. सर्वांना सरळ करण्याच्या सवयीपासून मला सावर…. मला विचारशीलतेचे वरदान दे. प्रभुत्व न गाजविता मी सेवातत्पर असावे. काथ्याकूट न करता मी नेटकेपणाने प्रश्नाला भिडावे. एखाद्या गोष्टीबद्दल दुमत होईल तेव्हा नमते घेण्याची सुबुद्धी मला दे. कधी कधी माझंही चुकतं, हा जीवनाचा मंत्र मान्य करायला शिकव. अनपेक्षित ठिकाणी चांगुलपणा पाहण्याची आणि तिऱ्हाईत व्यक्तीमधील गुणांचा गुणाकार करण्याची निर्मळ नजर दे आणि हे प्रभो, सदा सर्वांबरोबर शुभ बोलण्यासाठी प्रेरणा दे !”

आत्मचिंतनातून स्फुरलेल्या अशा प्रार्थना जीवनाचे सौंदर्य आणि सामर्थ्य वाढवितात.  

“श्री स्वामी समर्थ जय जय स्वामी समर्थ” नामस्मरण करीत आनंदात असावे.

लेखक : अज्ञात 

संग्राहिका : सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – बोलकी मुखपृष्ठे ☆ “प्रेम रंगे ऋतूसंगे” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

? बोलकी मुखपृष्ठे ?

☆ “प्रेम रंगे ऋतूसंगे” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

एक गुलमोहराचे झाड… एक माणसाचा हात… आणि भोवतालची हिरवाई एवढेच चित्र….

त्याखाली ‘प्रेम रंगे ऋतुसंगे’ हे दिलेले शिर्षक…त्यावरून चित्राचे अवलोकन केले जाते.

मग किती यथार्थ चित्र काढलेले आहे!या विचारांमध्ये चित्र बारकाईने बघितले असता,त्यातील एक एक पैलू जाणवत जातात.

प्रथमत: जाणवतो, गुलमोहराच्या झाडाच्या फांदीला झालेला मानवी हाताचा स्पर्श ; त्यातून चितारलेले मानवाचे काळीज… त्यात लपलेली हिरवी प्रेमाची भावना… यामुळेच निसर्गाचे मानवाशी किती अद्वैत साधलेले आहे हे उत्कृष्ट पद्धतीने दाखवले आहे.

विचार करता असे भासते, गुलमोहराचे खोड हे मोराच्या माने सारखे…म्हणजे मोरच आहे. मोर म्हटल्यावर ‘पावसाळा’…. 

गुलमोहराची डवरलेली फुले म्हणजे… ग्रीष्म,अर्थात ‘उन्हाळा’….

मानवी हाताने साधलेल्या… बदामी आकारातील हिरवट रंग आणि भोवताली पण त्याच छटेची हिरवाई…म्हणजे जणू लपेटलेली शाल… अर्थात ‘हिवाळा’…

अशा तीनही ऋतुंमध्ये काळजाचे निसर्गाशी एकरूप झालेले प्रेम… अखंड झरत आहे…पाझरत आहे हे जाणवते…

थोडा वेगळा विचार करता, असे जाणवते… निसर्ग हा आपोआप फुलत असतोच, आपले काम चोख करत असतोच, पण याच निसर्गाला, मानवाने थोडा हातभार लावला तर… निसर्गाचे संवर्धन तर होईलच, पण मानवाच्या मनात आणि निसर्गाच्या काळजात आपोआप प्रेम उत्पन्न होणारच. ही सहजता माणसाला निसर्गापासून मिळेल,आणि सगळीकडे प्रेमच प्रेम असेल, दिसेल, फुलेल, बहरेल…

इतकेच नाही तर… प्रेमाची व्यापकता ही पंचमहाभुते सामावून घेण्याची असते. हे सांगण्यासाठी धरती म्हणजे ‘पृथ्वी’, झाडाच्या मागून पाण्याचा आलेला ओहोळ म्हणजे ‘आप’, वातावरणातील जाणवणारा तजेला म्हणजे ‘तेज’, पक्षी, पानांची जाणवणारी सळसळ म्हणजे ‘वायू’, वर दिसणारे ‘आकाश’… ही सगळी पंचमहाभुते… मानवाच्या हृदयात बंदिस्त असताना, त्यात  वसलेलं प्रेम ओसंडतंय असा भास होतो.

सगळ्यात महत्वाचा एक संदेश हे चित्र आपल्याला देत आहे असे वाटते. तो संदेश म्हणजे… प्रत्येकाने एक झाड लावून त्याचे संगोपन केले तर, त्या प्रत्येक हातामुळे झाडाच्या काळजात उत्पन्न झालेले प्रेम…हातांना कधीच विसरणार नाही. त्यामुळे प्रत्येकाने किमान एका झाडाचे संगोपन करणे,ही आजच्या निसर्गाची गरज आहे. ती प्रत्येकाने ओळखून आपले निसर्गाप्रतीचे प्रेम व्यक्त करावे आणि निसर्गालाही तुमच्यावर प्रेम करताना… तुमचा प्राणवायू होण्याची, तुम्हाला आरोग्य देण्याची, तुम्हाला सावली देण्याची, तुम्हाला फळे देण्याची, तुम्हाला फुले देऊन,मन प्रसन्न करण्याची,संधी द्यावी.

जणू झाड म्हणत आहे,

थोडे द्यावे, थोडे घ्यावे, तेव्हा प्रेम फुले…

जीवाचा जिवलग तेथे झुले.

सुहास रघुनाथ पंडित यांनी लिहिलेल्या निसर्ग आणि प्रेम यावरील 66 कवितांचा हा संग्रह…त्या लिखाणाला तादात्म्य साधणारे हे चित्र… अशा एका गोड संगमातूनही प्रेम निर्माण करते.

इतके छान मुखपृष्ठ तयार केले…म्हणून सांगलीच्या सुमेध कुलकर्णी यांना, तसेच  अक्षरदीप प्रकाशन यांना,आणि कवी सुहास पंडित यांना,याच चित्राची निवड केली म्हणून खूप खूप धन्यवाद 

आशा आहे ज्या पुस्तकाचे मुखपृष्ठ इतके बोलके आहे, तो संग्रह वाचण्याची उत्सुकता लागून आपण घेऊन नक्कीच वाचाल.

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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