हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 63 ☆ दिल किसी का न वो दुखा सकते… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “दिल किसी का न वो दुखा सकते“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 63 ☆

✍ दिल किसी का न वो दुखा सकते… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

हो न जाये ख़ता से डरते हैं

हर न हरगिज़ सजा से डरते हैं

 *

लुट गये प्यार में हम ऐसे कुछ

भूत जैसा वफ़ा से डरते हैं

 *

अपनी दम पर चिराग जो जलते

वो हमेशा हवा से डरते हैं

 *

कौन सी आह आसमां तोड़े

हम हर इक बद्दुआ से डरते हैं

 *

और का पेट काट हो हासिल

ऐसे हम हर नफ़ा से डरते हैं

 *

हम दुआ माँ की ले चलें घर से

फिर न कोई बला से डरते हैं

 *

आदमी वो न खेलें खतरों से

जो हमेशा क़ज़ा से डरते हैं

 *

ढूढते दूसरों की जो कमियाँ

वो बशर आइना से डरते हैं

 *

दांत जिनके भी पेट में होते

इनकी हम मित्रता से डरते हैं

 *

दिल किसी का न वो दुखा सकते

जी भी अपने ख़ुदा से डरते हैं

 *

चाह हमको बड़ी है शुहरत की

फिर भी इसके नशा से डरते हैं

 *

ए अरुण नापते गिरेबां जो

ऐसे हम आशना से डरते हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ सुरजीत पातर और मैं ☆ प्रो. नव संगीत सिंह ☆

प्रो. नव संगीत सिंह

☆ संस्मरण ☆ सुरजीत पातर और मैं ☆ प्रो. नव संगीत सिंह ☆

यह बात करीब चार दशक पुरानी है — 1978-79 की। उस समय मैं पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में कैलिग्राफिस्ट (1977-86) के तौर पर कार्यरत था। कैलिग्राफिस्ट, यानी ख़ुशनवीस, एक अच्छा सुलेखक। कैलिग्राफिस्ट को कहीं-कहीं कैलिग्राफर भी कहा जाता है। पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला से पहले मैं गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर में बतौर एक सुलेखक (1974-77) रह चुका हूं।

पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में डॉ. जोध सिंह सबसे पहले उप-कुलपति (1962-66) थे। पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला में मेरी सर्विस के दौरान, तीन कुलपति विश्वविद्यालय आये। जिनमें से डाॅ. अमरीक सिंह को बहुत सख्त और अनुशासित वीसी माना जाता था। प्रोफेसर के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, मैं पाँच उप-कुलपतियों से मिला — डॉ. जोगिंदर सिंह पुआर, डॉ. जसबीर सिंह आहलूवालिया, श्री स्वर्ण सिंह बोपाराय, डाॅ. जसपाल सिंह और डॉ. बी.एस. घुम्मण। जिस समय मेरी नियुक्ति हुई; डॉ पुआर वीसी थे। डा. आहलूवालिया के समय हमारा कॉलेज पंजाबी विश्वविद्यालय का पहला कान्सटिचुऐंट कॉलेज बना। श्री बोपाराय के समय में मुझे चयन ग्रेड व्याख्याता के रूप में पदोन्नत किया गया था; डॉ जसपाल सिंह के समय मैं एसोसिएट प्रोफेसर बन गया और डाॅ. जब घुम्मण पहली बार गुरु काशी कॉलेज आये तो मैं वाइस प्रिंसिपल के पद पर था और मैंने ही उनका स्वागत किया था, क्योंकि तब कॉलेज प्रिंसिपल छुट्टी पर थे।

जिस समय की यह बात है, उन दिनों गैर-शिक्षण कर्मचारी संघ के अध्यक्ष के रूप में हरनाम सिंह और कौर सिंह सेखों के बीच कश्मकश चल रही थी और वे दोनों अपने-अपने समय के कर्मचारी यूनियन के नेता थे। अब ये दोनों इस दुनिया में नहीं हैं।

पहली बार मुझे पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के कर्मचारियों द्वारा आयोजित दो दिवसीय कार्यक्रम में भाग लेना था और मेरी पहली पसंद कविता थी। तब मैं स्वयं कविता नहीं लिखता था। मुझे अन्य कवियों की कविताएँ पढ़ना/याद करना और उन्हें कहीं सुनाना पसंद था। मैं पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला की विशाल लाइब्रेरी में गया, जहां पहली नजर में ही ‘कोलाज किताब’ और इसके खूबसूरत नाम ने मुझे आकर्षित कर लिया। मुझे पता चला कि यह 1973 में प्रकाशित तीन कवियों, परमिंद्रजीत (1.1.1946-23.3.2015) जोगिंदर कैरों (जन्म 12.4.1941) और सुरजीत पातर (14.1.1945-11.5.2024) की सांझी पुस्तक है।

और यह भी कि यह तीनों लेखकों की पहली-पहली किताब है। इन लेखकों ने इस पुस्तक के बाद ही अपनी-अपनी अन्य पुस्तकें लिखीं। (यहां यह भी उल्लेखनीय है कि पातर ने डॉ. जोगिंदर कैरों के मार्गदर्शन में गुरु नानक देव विश्वविद्यालय से पीएचडी की थी।) इस किताब में से जिस कविता ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह थी सुरजीत पातर की कविता ‘हुण घरां नूं पतरणा…’। मैं किताब घर ले आया, एक कागज पर कविता लिखी और फिर उसे याद कर लिया। मैं इसे एक सप्ताह तक दोहराता रहा, कई बार विशेष संकेतों और भाव-भंगिमाओं के साथ इसे पढ़ा और जब मुझे यकीन हो गया कि मैं यही कविता सुनाऊंगा, तो मैंने इस कार्यक्रम में अपना नाम लिखवा दिया।

उस समय डाॅ. अमरीक सिंह विश्वविद्यालय के उप-कुलपति थे। पहले दिन कर्मचारियों की खेल प्रतियोगिताएं थीं, जिसमें मेरी कोई रुचि नहीं थी। दूसरे दिन सांस्कृतिक गतिविधियों की प्रतियोगिता थी, जो गुरु तेग बहादुर हॉल में हुईं। ये प्रतियोगिताएं शाम करीब पांच बजे शुरू हुईं और रात नौ बजे तक चलीं। कविता के अलावा गीत-संगीत और गिद्धा-भांगड़ा की भी प्रस्तुति हुई। इस अवसर पर मैंने काव्य-पाठ में भाग लिया। मुझे याद नहीं कि उस प्रतियोगिता में अन्य कितने प्रतियोगी थे। लेकिन मेरे साथ कर्मचारी संघ के उस समय के अध्यक्ष कौर सिंह सेखों भी इसमें शामिल हुए, जिन्होंने संत राम उदासी की कविता सुनाई थी और मैंने सुरजीत पातर की – ‘हुण घरां नूं परतणा …’ मैं स्वयं को इस प्रतियोगिता के प्रथम तीन स्थानों पर देख रहा था। मुझे लगता था कि मेरी कविता दूसरा या तीसरा पुरस्कार जीतेगी। क्योंकि सबसे पहले स्थान पर मैं संघ के अध्यक्ष को देख रहा था। इसलिए नहीं कि उसकी प्रस्तुती मुझसे बेहतर थी, सिर्फ इसलिए कि वह संघ के अध्यक्ष थे और उन्हें ‘अनदेखा’ कैसे किया जा सकता था!

लेकिन मुझे बहुत आश्चर्य हुआ, जब मेरी प्रस्तुति के लिए प्रथम स्थान की घोषणा की गई और संघ-अध्यक्ष को दूसरे पुरस्कार से संतोष करना पड़ा। उद्घोषक  विश्वविद्यालय का ही एक शिक्षक था, जो निर्णायक मंडल में बैठा था। कार्यक्रम की शोभा बढ़ाने वाले अन्य दर्शकों में उप-कुलपति, रजिस्ट्रार, उप रजिस्ट्रार और विश्वविद्यालय के बड़ी संख्या में कर्मचारी शामिल थे।

इसके बाद मैं सुरजीत पातर से चार बार मिला। तीन बार दर्शक के तौर पर और एक बार मंच-संचालक के रूप में। 29 मार्च 2018 को अकाल यूनिवर्सिटी तलवंडी साबो में जब सुरजीत पातर आए तो उनका परिचय देने के लिए मैं मंच संचालक के तौर पर उपस्थित था। यहां मैंने उनसे अपना परिचय एक पाठक के रूप में करवाया। जिसमें मैंने उसी कविता को सुनाया (‘हुण घरां नूं  परतणा…’), जिसमें मुझे पहला पुरस्कार मिला था। इस कार्यक्रम में उप-कुलपति समेत पूरी यूनिवर्सिटी मौजूद थी। उनके साथ उनके छोटे भाई उपकार सिंह भी आये थे। छात्रों, शिक्षकों, कर्मचारियों ने उनके साथ फोटो खिंचवाईं। छुट्टी के बाद भी हम काफी देर तक उनके साथ बैठे रहे, उनकी बातें सुनते रहे। आज जब यह महान कवि हमारे बीच शारीरिक रूप में मौजूद नहीं है तो मन भावुक हो रहा है। आज मैंने यूं ही प्रोफ़ेसर प्रीतम सिंह द्वारा संपादित ‘पंजाबी लेखक कोश’ (2003) को देखना शुरू किया। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि ‘लेखक कोश’ में “सुरजीत” नाम के 29 लेखक हैं, जिनमें 4 महिला-लेखिकाएँ भी शामिल हैं। सबसे बड़ी प्रविष्टियों वाले चार लेखक हैं — सुरजीत सिंह सेठी, सुरजीत सिंह गांधी, सुरजीत सिंह भाटिया और सुरजीत पातर। आज की तारीख में आकाश में ध्रुव तारे की तरह चमकने वाले लेखक सिर्फ और सिर्फ सुरजीत पातर ही हैं।

*

© प्रो. नव संगीत सिंह

# अकाल यूनिवर्सिटी, तलवंडी साबो-१५१३०२ (बठिंडा, पंजाब) ९४१७६९२०१५.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 402 ⇒ तमाशबीन (Spectator)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तमाशबीन (Spectator)।)

?अभी अभी # 402 ⇒ तमाशबीन (Spectator)? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम जिसे साधारण भाषा में दर्शक कहते हैं, उसे ही अगर गाजे बाजे के साथ पेश किया जाए, तो वह तमाशबीन हो जाता है।

दूर की चीज देखने वाला उपकरण जैसे दूरबीन कहलाता है, ठीक उसी प्रकार दूर से तमाशा देखने वाला तमाशबीन कहलाता है। तमाशबीन कभी एक गंभीर दर्शक नहीं होता।

वह तो सिर्फ मनोरंजन और नाच गाने में विश्वास रखता है।

तमाशा भी देखा जाए तो एक तरह का हल्का फुल्का नाटक अथवा मनोरंजन ही है। मराठी में लोकनाट्य को तमाशा कहते हैं। रंगमंच पर संगीत और नृत्य की मिली जुली प्रस्तुति भी तमाशा ही कहलाती है।।

“तमाशा” फ़ारसी का एक उधार शब्द है, जिसने इसे अरबी से उधार लिया है, जिसका अर्थ है किसी प्रकार का शो या नाटकीय मनोरंजन। इसी तरह

तमाशागर = तमाशा करनेवाला। तमाशागाह= क्रीड़ा- स्थल। कौतुकागार। तमाशबीन = तमाशा देखनेवाला।

हम भारतीय तमाशा प्रेमी हैं। चौराहे पर दो सांडों की लड़ाई हमारे लिए तब तक तमाशा बनी रहती है, जब तक एक सांड द्वारा किसी तमाशबीन को पटक नहीं दिया जाता। जिस घर से भी पति पत्नी अथवा सास बहू के लड़ने की आवाज सुनाई देती है, पहले तो पड़ौसी दीवार में कान लगाकर सुनते हैं, लेकिन जब मामला हाथापाई और मारपीट पर आ जाता है, तो न जाने कहां से तमाशबीन घर के बाहर, बारिश बाद के केंचुए की तरह जमा हो जाते हैं।

हमारे तमाशेबाजों की एक भाषा होती है, जहां भी दो पक्षों में लड़ाई हो रही है, अपना जूता उल्टा कर दिया जाए और “उल्टा जूता चेत भवानी” मंत्र का जाप किया जाए। अगर कहीं भवानी नहीं चेतती, तो एक हारे हुए नेता की तरह, मुंह लटकाकर परास्त भाव से, वहां से पतली गली से निकल लेते हैं।।

तमाशबीन वह होता है, जो कहीं से भी तमाशा बीन निकालता है। ऐसे कई तमाशबीन आपको किसी भी नाले अथवा पुलिया के पास प्रचुर मात्रा में नजर आ जाएंगे। चार लोगों की भीड़ में हमें तमाशा नजर आने लगता है। एक जिज्ञासा, देखें क्या हो रहा है, एक राहगीर को साइकल अथवा स्कूटर रोकने को बाध्य करती है।

वह फुसफुसाहट से भांप लेता है, मामला कितना संगीन है। सबकी कल्पना में एक सांप होता है। कभी नजर आता है, कभी नहीं।

हमारे लिए सबसे बड़ा तमाशा कोई दुर्घटना है।

जहां धुंआ होगा, वहां आग भी होगी। आजकल तो गंभीर हादसों और दुर्घटनाओं को भी मोबाइल पर रेकॉर्ड कर उनका तमाशा बनाया जा रहा है। ऐसे कई टीवी पत्रकार, खोजी पत्रकारिता की आड़ में, बोरवेल में गिरे बच्चे की लाइव रेकॉर्डिंग आज तक पर प्रसारित कर देते हैं।।

जो जिंदगी कभी नाटक थी, आज तमाशा बन गई है। हर जगह सस्पेंस और रोमांच ढूंढना ही तमाशबीन होना है। यह सकारात्मकता से नकारात्मकता की तरफ बढ़ता हुआ एक खतरनाक कदम है। हमने राजनीति, पढ़ाई, साहित्य, धर्म और नैतिकता सबको तमाशा बना दिया है।

सड़कों का तमाशा आजकल घरों में भी प्रवेश कर गया है। बुद्धू बक्से का बाप यानी स्मार्ट फोन और लैपटॉप आज आपकी मुट्ठी में है। सेल्फी एक बीमारी हो गई है और सभी तमाशबीन व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के छात्र हो गए हैं। झूठ के साये में अफवाह और पाखंड पनप रहे हैं। अफसोस, तमाशा जारी है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 107 – जीवन यात्रा : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  जीवन यात्रा

☆ कथा-कहानी # 106 –  जीवन यात्रा : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

वो एक्स और वाई क्रोमोसोम से बनता है तो प्रकृति अपनी प्रचलित विधा के अनुसार उसे एक आवास अलॉट करती है, तरल द्रव्य और अंधकारमय. वो अंधेरे से, अकेलेपन से घबराकर ईश्वर से फरियाद करता है तो सांत्वना मिलती है ईश्वर और उसके बीच की ब्रम्हांडीय भाषा में  ” डरने की जरूरत नहीं है अंकुरित वत्स, ये तुम्हारी जीवनयात्रा की सबसे सुरक्षित जगह है जिसे तुम बाद में हमेशा मिस करोगे. तुम्हारी सारी जरूरतें आटोमेटिकली पूरी होती रहेंगी और तुम यहां अकेले नहीं हो. जो इंसान तुम्हारे साथ है और तुम्हें अगले कुछ महीनों carry करेगा, वो तुम्हारे जीवन का, जीवन में और जीवन के लिये सबसे ज़्यादा caring, loving, sacrificing, friendly companionship होगी. ये मेरी ही रचना है पर तुम सौभाग्यशाली हो कि मैं जिससे महरूम हूँ, वह कंपनी तुम्हें मिल रही है. इसके लिये नश्वरता आवश्यक है जो मेरे नसीब में नहीं है. मैं तो जन्म मरण के चक्र से दूर अविनाशी हूँ, अपने ब्रम्हांडीय संचालन के कर्तव्य बोध से बंधा हूं वरना कौन नहीं चाहता कि ये साथ उसे मिले. तुम अभी अंकुरित हुये हो, लगभग अचल हो, गतिशीलता के गुण  धीरे धीरे विकसित होंगे प्रकृति के नियमानुसार. पहले तुम उसके साथ और वह तुम्हारे साथ रहना समझेगी,तुम्हारे साथ तारतम्यता का प्रादुर्भाव होगा जो बाद में ममता के नाम से जानी जायेगी. तुमसे साक्षात्कार की कल्पना, उसे शारीरिक मोह, सुंदरता और दर्द सबसे विरक्त कर देगी. तुम्हें तो खैर क्या मालुम पर जब पहचानने और पोषण की प्रक्रिया से गुजरते हुये तुम ध्वनि से जुड़ी अभिव्यक्ति के द्वार तक पहुंचोगे तो वह पहला ध्वनि युक्त शब्द होगा “मां “ तो डरने की जरूरत नहीं है मेरे अंकुरित अंश, मैं तो रहूंगा ही तुम्हारे साथ पर तुम मुझे महसूस नहीं कर पाओगे पर जो पहला स्पर्श तुम जानोगे, वही मां है, ये जरूर जान लेना.तुमसे गर्भनाल द्वारा linked गर्भाशय रूपी आवास ही तुम्हें जीवन और पोषण की चिंता से मुक्त रखेगा. यही वह वक्त भी है जब हर समय वो तुम्हारे साथ रहेगी.तुम्हारी जीवनयात्रा का ये सबसे सुरक्षित और चिंतामुक्त काल है.तुम्हारे landlord को तुम्हारी चिंता रहेगी पर तुम्हें पाने का एहसास, उसके अंदर प्रकृति की वह शक्ति देगा, जिसके सामने साहस, वेदना, भय, सहनशीलता बहुत बौने हो जाते हैं.तो जो तुम्हारी हलचल से मुदित होकर तुम्हें बाहर से स्पर्श करे, वह तुम्हारी जीवनदायिनी है “मां ” है ,चाहे कुछ भी हो जाये पर इस रिश्ते को गंवाना नहीं.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 28 – मूक मौन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मूक मौन।)

☆ लघुकथा – मूक मौन श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जिंदगी में हर किसी की ख्वाहिश पूरी नहीं होती सब कुछ उसे अदृश्य नाटक की तरह होता है जैसे हम एक पेड़ पर चढ़ने जा रहे हैं आम तो खाना चाहते हैं पर उसे पेड़ पर रहने वाले चींटे, चींटियों एवं पक्षियों के घोंसले सभी के जनजीवन उसमें पलता है। हम उनके घर में जाएंगे तो वह अपनी सुरक्षा के लिए हमारे ऊपर हमला करेंगे ठीक उसी तरह जिस तरह हम घर से बाहर जाते हैं तो अपने घर को ताला देते हैं। इस तरह जीवन भी सबके शहरों से चलता है हर किसी को देखा तो एक दुनिया दिखती है प्रकृति भी मुख मौन होकर हमें बहुत कुछ देती है। हम क्या लेते हैं यह हमारे ऊपर है हम तो सिर्फ लड़ाई झगड़ा और स्वयं के स्वांग में उलझे हैं…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 236 ☆ कामिनी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 236 ?

कामिनी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(कामिनी ची फुलं !)

आज खूप दिवसानंतर…

टेरेसवरच्या झाडांना भेटले,

मदनबाण बहरलाय…दरवळ सर्वदूर!

चाफा, कण्हेर, सदाफुली, झेंडू, बोगनवेलही…

स्वतःचं अस्तित्व टिकवून!

गवतीचहा, कढीपत्ता, लिंबुही हिरवीगार!

अंब्याची कलमंही तग धरून!

कोरफड, तुळशीचं स्वतंत्र अस्तित्व!

दोन वड कुंडीत आपोआपच बोन्साय झालेले !

जुई इवल्या इवल्या कळ्या सावरत !

रातराणी आणि कामिनी,

मोठ्या हौसेने लावलेले….दिसेनात कुठेच!

जीव लावल्याशिवाय काही

झाडं जगत नाहीत,

रातराणी सुकून गेली असावी,

तिच्या मुक्या कळ्या उमलल्याच

नाहीत कधी!

पण कामिनी दिसली ,

आणि हायसं वाटलं,

कामिनीला दुर्लक्षून कसं चालेल ?

सुंदरीच ती ,

या झाडाझुडपातली,

काहीशी दुर्मिळ,

म्हणून अप्रुपही तिचं !

कामिनीचा धुंद गंध

अनुभवायला तरी….

जगायला हवं तिचा मोसम

येईपर्यंत!

© प्रभा सोनवणे

२३ जून २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हळुवार पाऊस… ☆ मेहबूब जमादार ☆

मेहबूब जमादार 

? कवितेचा उत्सव ?

हळुवार पाऊस… ☆ 🖋 मेहबूब जमादार ☆

हळुवार आला पाऊस

थोडं हातंच राखून

चौखुर उधळी खोंड

वास मातीचा पिऊन

*

शहारली झाड वेली

हेलावत गेलं पान

गरजत शिरे वारा

झाडांची मोडली मान

*

दूर डोंगरानी  कसे

होते आभाळ धरून

आली पाऊस धारा

गेली दुधाळ होऊन

*

झाली माती ओलीशार

येती कोंब फाकून

सखे चल जाऊ रानी

घेऊ थोडंसं भिजून…

© मेहबूब जमादार

मु. कासमवाडी,पोस्ट -पेठ, ता. वाळवा, जि. सांगली

मो .9970900243

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ असाही एक वड… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? विविधा ?

असाही एक वड ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

(आणि त्या निमित्ताने वटपौर्णिमे संबंधित विचार..)

वटपौर्णिमेला वडाची पूजा करताना स्त्रिया नवऱ्यासाठी आयुष्याचे आणि स्वतःच्या सौभाग्याचे दान मागत असतात.मी जिथे रहात असे तिथे जवळपास वडाचे झाड नव्हते.म्हणून प्रथम आम्ही वडाची फांदी आणून पूजा करत असू, पण ती गोष्ट मनाला अजिबातच पटत नव्हती!  ज्या झाडाची पूजा करायची त्याचीच फांदी तोडून आणायची! म्हणून ते करणं बंद केलं.. त्यानंतर समोरच्या देवळात एक भटजी  कुंडीमध्ये फांदी घेऊन बसत असे तिथे जाऊन आम्ही पूजा करू लागलो.कुणाकडे तरी बोन्साय वड ही होता.त्या घरची बाई त्याची पूजा कौतुकाने करत असे.आणि आपण कसं घराबाहेर सुध्दा पडत नाही याचंच तिला भारी वाटत असे.ते लोकांना सांगण्यात तिला आनंद मिळे!

नंतर काही दिवसांनी कोपऱ्यावरच्या पानपट्टी जवळ एक वडाचे रोप उगवले होते .पानपट्टी वाल्याने त्याची जोपासना करून ते रोप वाढवले.कारण त्याच्या टपरीवर सावली यावी म्हणून!ते बऱ्यापैकी मोठे झाल्यावर बायका वडाच्या पूजेसाठी तिथे येऊ लागल्या.कारण ते ठिकाण सोयीचे होतं! पानपट्टी वाल्याने स्वतःच्या दुकानात वडाच्या पूजेला लागणारे साहित्य पण ठेवले. त्यात त्याचाही फायदा होता. पहिला जो भटजी होता तो आता तिथे येऊन बसू लागला आणि बायका जे काही वडाजवळ ठेवत ते सगळं तो स्वतःला घेत असे.ते उत्पन्न बऱ्यापैकी वाढल्यावर पानपट्टी वाल्याला थोडा लोभ सुटला. त्यालाही वाटले, हे झाड मी लावले, सावलीसाठी वाढवले आणि आता या झाडाच्या वटपौर्णिमेच्या उत्पन्नात  मला ही  वाटा पाहिजे. दोघांमध्ये छोटंसं भांडण ही झालं! शेवटी काही मोठ्या लोकांनी त्या दोघात कॉम्प्रमाईज केलं आणि त्या दिवशी येणारं सगळं उत्पन्न दोघांनी वाटून घ्यावे असे ठरले. दुसऱ्या वर्षी भटजी आणि पानपट्टी वाला दोघेही त्या वडाजवळ तासन् तास थांबत असत .येणाऱ्या बायका भटजीचे पायावर डोकं ठेवत आणि त्याला फळे,दक्षिणा देत. आणि झाडाजवळ ठेवलेले विडे आणि फळं ,पैसे हे सगळं पानपट्टी वाला घेत असे. दोघांचं भांडण तर मिटलं! पण पुढील विचार मनात आले!

वटपौर्णिमेचा हेतू काय? त्यामुळे मिळणाऱे उत्पन्न असे कितीसे असणार? सत्यवान -सावित्री ची कथा किती जणी वाचतात.त्यातील मूलभूत अर्थ काय! आम्हाला इंग्रजी विषयात SAVITRI हे epic अभ्यासाला होते.तेव्हा योगी अरविंद ह्यांना त्यांत अभिप्रेत असलेला जीवनासाठी चा अर्थ  समजून घेण्याचा प्रयत्न केला.पूर्वीच्या काळी स्त्रियांना घराबाहेर पडायला मिळत नसे, त्यामुळे वटपौर्णिमेची पूजा करण्यासाठी स्त्रिया निसर्गात जात असत. बरेच वेळा वड- पिंपळासारखे वृक्ष गावाबाहेर, रानामध्ये असत. तिथे जाऊन पूजा करून येण्यात मोठा आनंद मिळे. आपल्या हिंदू धर्मामध्ये बऱ्याचशा गोष्टी या धार्मिकतेशी  जोडल्या असल्यामुळे त्या सातत्याने केल्या जात असत. त्यामध्ये धार्मिक, सामाजिक असा सर्व प्रकारचा आनंद घेता येत असे.  आत्ताच्या काळात त्याकडे एक इव्हेंट म्हणून पाहिले जाते. काही का होईना, त्यानिमित्ताने तरुण पिढीला आनंदही मिळतो आणि परंपरा राखण्याचे समाधानही मिळते! स्त्रियांना नटून थटून वडाला जाण्यात तसेच डाएट म्हणून उपवास करण्यातही  वेगळा feel घेता येतो!

शेवटी काय, जीवन आनंदात जगणे हेच सगळ्याचे मूलभूत तत्व आहे. ते सांभाळून आपण आपले सांसारिक जीवन, समाजामधील स्थान या सगळ्या गोष्टी टिकवू शकतो. अलीकडे स्त्रियांना नोकरी, व्यवसाय यामुळे स्वतःच्या आनंदाला बरेच वेळा मुरड घालावी लागते, पण अशा काही परंपरा जोपासताना नकळत हा आनंद त्यांना घेता येतो. मग उगीचच आपल्याला उपास आणि वडपोर्णिमा या अंधश्रद्धा वाटतात असं म्हणण्यात काय बरं अर्थ आहे!

आणि तसेही हे व्रत आपल्या आवडत्या माणसासाठी, नवऱ्यासाठी असेल तर स्त्रियांनी ते जरूर  करावे.

म्हणजे नवराही -सत्यवान ही वडाजवळ चपला सांभाळायला आणि नटलेल्या, सजलेल्या बायकोला पूजा करताना बघायला कौतुकाने येतोच ना!

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बोलायचे राहून गेले – भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळुस्कर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ बोलायचे राहून गेले – भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

(या मूर्ख मुली, डोळयांवर पट्ट्या बांधतात की काय कोण जाणे. स्टेजवरचा हिरो स्वतःच्या आयुष्यात झीरो असतो, हें यांना कळतच नाही.) – इथून पुढे — 

“अश्विन, तुला तुझ्या आईसमोर सांगते, माझ्या बहिणीचा नाद सोड, तिला फोन जरी केलास तर असशील तेथे येऊन तुझे पाय मोडून ठेवीन “

पर्स घेऊन वंदना बाहेर पडली, आता तिची स्कुटी कॉलेज रस्त्याला लागली. गेल्या वर्षीपासून ती फिजिक्स डिपार्टमेंटला लेक्चरर म्हणून लागली होती. आज तिला पहिला तास नव्हता. ती आपल्या खुर्चीवर येऊन बसली. आज तिचे डोके गरम झाले होते. वडील गेल्यानंतर तिने आईला आणि छोटया बहिणीला सांभाळले होते. वडिलांची अर्धी पेन्शन आईला मिळत होती, त्यात दोघींची शिक्षणे पार पडली. लहानपणापासून तिच्यावर जास्त जबाबदारी. तिने मिताला जास्त त्रास होऊ दिला नव्हता. सगळे आर्थिक व्यवहार, घरात काय हवं काय नको, तीच पहात होती. मग तिने M. SC केले आणि गावातील कॉलेजमध्ये लागली. बहिण मिता Bsc झाली, पण पुढे शिकेना किंवा नोकरीसाठी प्रयत्न करेना, म्हणून तिची चिडचिड व्हायची, त्यात आज मिता-अश्विन यांचं  प्रकरण? 

लहानपणापासून जबाबदाऱ्या पडल्याने ती रोखठोक झाली होती. कुणाच्या जास्त जवळ जात नव्हती. नाटकाचा ग्रुप होता पण तो पण नाटकापुरता. एकप्रकारचा कोरडेपणा तिच्या आयुष्यात आला होता. ती खुर्चीत शांत बसलेली पाहून त्याचवेळी आत आलेले जोगळेकरसर  तिच्याकडे पहात म्हणाले “वंदना, आज एकदम गप्प?” 

वंदना याच कॉलेजची विद्यार्थिनी.. ती फायनल इयरला असताना जोगळेकर नवीनच या कॉलेजला आले होते. अतिशय हुशार, देखणे – जोगळेकर सरांबद्दल तिच्या मनात सॉफ्ट कॉर्नर होता. या 

कॉलेजमध्ये फक्त जोगळेकर सरांसोबत तिला बोलायला आवडायचे. त्यांचे बोलणे तिला ऐकत रहावेसे वाटायचे.

“हो सर, थोडी विचारात होते. तुम्ही केव्हा आलात सर?”

“आत्ताच, पहिला तास मला नव्हता म्हणून जरा उशिरा आलो, घरी पण सर्व आवरून यावं लागत ना?”

“सर, मला पण पहिला तास नव्हता आज, म्हणून उशिरा आले. सर, तुम्हाला सायंकाळी थोडा वेळ आहे? थोडा बोलायचं होतं “

“हो, पाचला प्रॅक्टिकल संपतील मग समोरच्या रेस्टॉरंटमध्ये बोलू “

“हो सर, मी वाट पहाते “. 

सर आपल्या वर्गावर गेले. वंदनाने पण वर्गावर जायची तयारी केली. आज सर सायंकाळी भेटणार याने तिला आत्तापासून आनंदी  वाटत होते. सरांना सकाळचा घरचा विषय सांगायचा आणि त्त्यांचा सल्ला घ्यायचा. सर योग्य तेच सांगतील याबद्दल तिला खात्री होती आणि सरांबरोबर कॉफ़ी प्यायला मिळणार होती, मुख्य म्हणजे सर एक फुटावर असणार होते, त्यांच्या डोळ्यात पाहून बोलता येणार होतं..

वंदनाची लेक्चर्स पाचपर्यंत संपली. संपूर्ण दिवस काम केल्याने ती दमली होती, मग ती वॉशरूममध्ये गेली आणि तिने चेहेरा स्वच्छ धुतला. आता थोडया वेळाने सर भेटणार होते म्हणून ती जास्तीत जास्त बरी दिसण्याचा प्रयत्न करत होती. तिने आरशात पाहिले – तशा आपण सावळ्या , आई सारख्या. मिता गोरी, सुरेख बाबासारखी.. तिने परत परत आरशात वळून वळून पाहिले. आपण सावळ्या  असलो तरी चेहेरा तरतरीत आहे, बांधा पण चांगलाच. उंची चांगली. मिता थोडी घारी, उंची थोडी कमी तिची. पण ती गोरी असल्याने आकर्षक दिसते.

सर उंच, कोकणस्थ असल्याने गोरे. आपण सरांना शोभून दिसू का?

पण हे मनातील मांडे. खरंतर सर दिसले की आपली ततपप होते, घाम सुटतो, अंगाला कंप सुटतो. असं  का होतं? इतर पुरुष समोर आले तर आपण बिनधास्त असतो, कुणी जादा धिटाइ केली तर दोन कानाखाली द्यायला कमी करत नाही. मग सर समोर आले की…

सहा वाजता ती रेस्टॉरंटमध्ये जाऊन बसली. पाच मिनिटांनी सर आले. सकाळपासून ते पण कामात होते तरी सर तरतरीत दिसत होते. सरांनी तिला पाहिले, ते हसले आणि तिच्यासमोर येऊन बसले.

“थोडा उशीर झाला, कॉफी घेऊया काय?”

“हो सर “

सरांनी कॉफ़ी मागवली आणि ते म्हणाले 

“बोल, काय बोलायचं होतं?”

वंदना मनात म्हणाली, ‘ खूप बोलायचंय सर, पण शब्द बाहेर पडत नाहीत.

मग ती म्हणाली “सर काही मनात शंका असली की मी तुमच्याशी बोलते, तुमच्याशी बोलले की बरं वाटतं.”

“हो कल्पना आहे, बोल.”

“सर, माझ्या बहिणीबद्दल मी काळजीत आहे, तिने स्वतः चे लग्न जमवलेय. जो मुलगा तिने निवडलाय तो माझा मित्र, नाटकातल्या ग्रुपमधील. पण तो स्वतः काही कमवत नाही, बरं त्याची या आधी दोन प्रेमप्रकरणे मला माहित, म्हणून मी विरोध केला, कोणत्याही परिस्थितीत लग्न होऊ देणार नाही असे तिला सांगितले. त्यामुळे मी डिस्टर्ब आहे सर..मी काय करावं अशा परिस्थितीत?”

“तुझी बहीण म्हणजे मिता ना? ओळखतो मी तिला. ती पण माझीच विद्यार्थिनी. काय असतं  वंदना, हे वय वेडे असते. या वयात आंधळेपणाने प्रेम होते, म्हणून सांभाळले पाहिजे. मला वाटते सध्याच्या काळात स्त्री ने पण स्वावलंबी असायला हवं, आर्थिक आणि विचाराने सुद्धा. तुझी बहीण सध्या काही काम करत नाही, पैसे मिळवत नाही, त्यामुळे तिच्या डोक्याला आराम मिळतो, म्हणून हे असे उद्योग सुचतात. तू या लग्नाला विरोध केलास हें योग्यच, कारण पुरुष जर स्वतः साठी दोन पैसे कमवत नसेल तर उद्याच्या संसाराची जबाबदारी कशी निभावेल ? अर्थात तूझ्या बहिणीला यातून बाहेर काढणे, हें तुझे कौशल्य असेल. तिला कोणत्या तरी कामात अडकवून ठेवायचं किंवा तिचे लक्ष दुसरीकडे वळवायचं म्हणजे ती हें सारं विसरेल.” 

“हो सर, तुम्ही योग्य बोललात, तिचे लक्ष दुसरीकडे वाळवायला हवे, म्हणजे कसे?”

“तिला कोणता तरी जॉब मिळत असेल तर पहा म्हणजे तिचे लक्ष तिकडे जाईल “

“हो सर, मी बघते, काहीतरी प्रयत्न करते “

“आणि माझी काही मदत हवी असल्यास सांग, मी तुझी काळजी दूर करण्यासाठी नेहेमीच असेन, बरं  निघूया..” 

सर उठले पाठोपाठ वंदना उठली. सरांनी कॉफ़ीचे बिल दिले आणि स्कुटर सुरु करून सर गेले. सर गेले त्या दिशेकडे वंदना पहात राहिली, लांब दूर जाईपर्यत..

वंदनाला कविता आठवली 

“रोज इथे मी तुला भेटते, बोलायचे राहून जाते…. “ 

आजही सरांना मनातील.. अगदी आतल्या मनातील बोलायचे.. सांगायचे राहूनच गेले..

वंदना घरी आली तरी सरांच्या बोलण्याचा विचार करत राहिली. मिताला कुठे बिझी ठेवावे? तिला कसलीच  आवड नाही, पण अश्विनपासून तिला लांब ठेवावेच लागेल.

  

– क्रमशः भाग दुसरा 

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “बोललं पाहिजे…” ☆ श्री मंगेश मधुकर ☆

श्री मंगेश मधुकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ “बोललं पाहिजे” ☆ श्री मंगेश मधुकर 

घड्याळात रात्रीचे साडे आठ वाजलेले पाहून आशानं ताबडतोब फोन केला पण अंजूनं उचलला नाही.इतक्यात दारावरची बेल वाजली. 

“सकाळी सातला गेलेली आत्ता उगवतेस.”

“आई,रोजचाच प्रश्न विचारून डोकं पिकवू नकोस.महत्वाचं काम होतं म्हणून उशीर झाला.”

“चकाट्या पिटणं हे महत्वाचं काम नाहीये.”सुरेश कडाडल्यावर बापलेकीत जुंपली.

कॉलेजला जायला लागल्यापासून अंजूचं घराबाहेर राहण्याचं प्रमाण वाढलं. सकाळीच जाणारी अंजू रात्री आठ पर्यंत यायची.आल्यावर सुद्धा फोनवर बोलणं चालूच. मैत्रिणी, मित्र आणि मोबाईल यातच गुंग.घरात अजिबात लक्ष नाही.सगळी कामं आशाच करायची.अंजूच्या बेफिकीर वागण्याची आशाला काळजी वाटत होती.खूपदा समजावलं पण काहीही उपयोग नाही.एकीकडे लेकीचं असं वागणं तर नवऱ्याची दुसरीच तऱ्हा. .घरात पैसे देण्याव्यतिरिक्त कोणतीच जबाबदारी घेत नव्हता, मात्र जरा काही मनाविरुद्ध झालं की वाट्टेल ते बोलायचा.चिडचिड करायचा.अंजूच्या वागण्याविषयी दोष द्यायचा.आशा सगळं निमूट सहन करत होती.

सुरेश आणि अंजूमध्ये वाद तर रोजचेच. त्यासाठी कशाचंही निमित्त पुरायचं.घरातल्या कटकटी वाढल्या. दोघंही आपला राग आशावरच काढायचे.नवरा आणि मुलीच्या एककल्ली वागण्याचा प्रचंड ताण आशावर होता.सहन होईना अन सांगता येईना अशी अवस्था. सगळे अपमान,अवहेलना ती आतल्याआत साठवत होती. मनमोकळं बोलावं असं तिच्या आयुष्यात कोणीच नव्हतं. शेजारी राहणाऱ्या मंगलबरोबर आशाची छान गट्टी जमायची, पण सहा महिन्यापूर्वी मंगल दुसरीकडं रहायला गेली अन आशा पुन्हा एकाकी झाली.हळूहळू तिनं बोलणं कमी केलं.फक्त विचारलेल्या प्रश्नांना उत्तरं द्यायची.घरात भांडणं सुरु झाली की कोरड्या नजरेनं पाहत बसायची. मनावरच्या ताणाचे परिणाम दिसायला लागले.तब्येतीच्या तक्रारी सुरू झाल्या.निस्तेज चेहरा,डोळ्याखाली काळी वर्तुळ जमा झाली. खाण्या-पिण्यातलं लक्ष उडालं.वजन कमी झालं.खूप दिवसांची आजारी असल्यासारखी दिसायला लागली.आशामधला बदल आपल्याच धुंदीत जगणाऱ्या सुरेश आणि अंजूच्या  लक्षात आला नाही.आशानं सूड म्हणूनच स्वतःकडे दुर्लक्ष केलं.

एके दिवशी नेहमीसारखी बापलेकीत वादावादी चालू असताना किचनमधून ‘धाडकन’ पडल्याचा आवाज आला.अंजून पाहिलं तर जमिनीवर पडलेली आशा अर्धवट शुद्धित अस्पष्ट बोलत होती.लगेच हॉस्पिटलमध्ये नेलं. सगळ्या तपासण्यांचे रिपोर्ट नॉर्मल आले.तीन दिवसांनी घरी सोडलं पण तब्येतीत फारसा फरक नव्हता.डॉक्टरांनी औषधं बदलली पण उपयोग नाही.खरंतर आशाला वैफल्य आलेलं.हताश,निराश मनस्थितीमुळे तब्येत सुधारत नव्हती.नाईलाजाने का होईना सुरेश,अंजू काळजी घेत होते, तरी आपसातली धुसफूस चालूच होती.आशाची ही अवस्था आपल्यामुळेच झालीय याची जाणीव दोघांना नव्हती. मन मारून जगणाऱ्या आशाचा त्रास समजून घेणारं कोणीच नव्हतं.वेदना बाहेर पडायला जागा नसल्यानं दिवसेंदिवस आशाची तब्येत खालावत होती. 

वरील घटनेतील ‘आशा’ हे एक प्रातिनिधिक उदाहरण. तिच्यासारखंच  मानसिक ओझं घेऊन जगणारे अनेकजण आहेत. 

नुकताच पावसाळा सुरू झालाय.धो धो कोसळणारं पाणी वाट मिळेल तिथून पुढे सरकते पण तेच पाणी नुसतंच साठत राहिलं तर ??? अनर्थ होईल –. तोच निकष मनाला लागू पडतो.

रोज अनेक गोष्टींना सामोरं जाताना अनेकदा मनाविरुद्ध वागावं लागतं.अपमान सहन करावे लागतात.राग,संताप गिळून गप्प बसावं लागतं.नोकरदारांना तर हा अनुभव रोजचाच.या सगळ्या तीव्र भावना मनात साठल्या जातात.अशा नकारात्मक भावनांचा साठा वाढत जातो.वेळच्या वेळी निचरा होत नाही.ताणामुळे शारीरिक त्रास सुरू होतात.

पूर्वी मन मोकळं करण्यासाठी नातेवाईक,शेजारी,मित्र-मैत्रिणी अशी जिवाभावाची माणसं होती.एकमेकांवर विश्वास होता.त्यांच्याबरोबर बोलल्यानं मन हलकं व्हायचं.एकमेकांची अनेक गुपितं बोलली जायची.सल्ला दिला घेतला जायचा.थोडक्यात मनातला कचरा वेळच्या वेळी काढला जायचा.आता सगळं काही आहे– फक्त मनातलं बोलायला हक्काचं माणूस नाहीये.सुख-सोयी असूनही मन अस्थिर.आजच्या मॉडर्न लाईफची हीच मोठी शोकांतिका. बदललेली कुटुंबपद्धती,फ्लॅट संस्कृती आणि मी,मला,माझं याला आलेलं महत्त्व .. .यामुळे कोणावर पूर्णपणे  विश्वास ठेवणं अवघड झालंय.मनातलं बिनधास्त बोलावं अशा जागा आता नाहीत.खाजगी गोष्टी सांगितल्यावर त्याचा गैरफायदा तर घेतला जाणार नाही ना?या शंकेनं मनातलं बोललंच जात नाही.मनाची दारं  फ्लॅटप्रमाणे बंद करून मग तकलादू आधार घेऊन जो तो आभासी जगासोबत एकट्यानं राहतोय.खूप काही बोलायचंय पण विश्वासाचा कान मिळत नाही.

— 

रोजचा दिवस हा नवीन,ताजा असतो.आपण मात्र जुनी भांडणं,टेन्शन्स,चिंता,मतभेद यांना सोबत घेऊन दिवसाला सामोरे जातो.शिळं,फ्रीजमधलं दोन-तीन दिवस ठेवलेलं अन्न खात नाही परंतु वर्षानुवर्षे मनात अपमान,राग,वाद जपून ठेवतो.संबधित व्यक्ती अनेक वर्षानंतर जरी भेटली तरी साऱ्या कटू आठवणी लख्खपणे डोळ्यासमोर येतात.भावना तीव्र होतात.राग उफाळून येतो आणि स्वतःलाच त्रास होतो.विचारात लवचिकता आणली तर कोणत्या गोष्टीला महत्व द्यायचं आणि काय सोडून द्यायचं हे ठरवता येतं.

इतरांच्या वागण्याचा स्वतःला त्रास करून घेणं…. सोडून द्या 

क्षुल्लक गोष्टींचे ताण घेणं…. सोडून द्या 

ऑफिसचं टेंशन घरच्यांवर काढणं….  सोडून द्या 

विनाकारण राग,द्वेष करणं ….  सोडून द्या 

इतरांचं वागणं नियंत्रित करू शकत नाही.तेव्हा….  सोडून द्या 

सगळंच नेहमी मनासारखं होणार नाही तेव्हा….  सोडून द्या. 

सर्वात महत्वाचे,

आजचं जग फार प्रॅक्टिकल आहे.वारंवार इमोशनल होणं… सोडून द्या 

आयुष्यात असं कोणीतरी असलं पाहिजे,ज्याच्याशी मनातलं सगळं बिनधास्त बोलता येतं 

हे वाचताना ज्याची आठवण झाली तोच तुमचा जिवलग.हे नक्की… त्याच्याशी बोला.वेळच्या वेळी भावनांना वाट करून द्या . .साठवण्यापेक्षा बोलून मोकळं व्हा.

पाणी आणि मनभावना वाहत्या असल्या तरच उपयोगी नाहीतर..

© श्री मंगेश मधुकर

मो. 98228 50034

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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