हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 26 – बातों का वजन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बातों का वजन।)

☆ लघुकथा – बातों का वजन श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

तुम लोगों ने बहुत ही अच्छा पिकनिक का प्रोग्राम बनाया, आज तो आनंद आ गया। मां नर्मदे का दर्शन पूजन आरती सब कुछ हो गया इतना सुख और आनंद मिला नाव से उतरते हुए रागिनी जी ने अपनी सखी नेहा से कहा।

नेहा बहन आनंद तो आया पर देखो यहां घाट पर कितनी दुकान लगा ली है जरा भी जगह नहीं छोड़ी है और बर्तनों की सफाई भी यहीं पर कर रहे हैं यह लोग।

अपनी बात नेहा  पूरी नहीं कर पाई थी….. तभी अचानक एक महिला ने कहा बहन जी आप लोग यहां आकर किटी पार्टी करती हैं और चली जाती हैं दीपदान भी करती हैं तो सामान हमारी दुकान से मिलेगा, और यह शाम की आरती के बर्तन है हम उसे साफ कर रहे हैं ।

आपके घरों का कचरा फूल और मूर्तियां भी तो आप यहां पर डालते हो और क्या नाले का पानी यहां पर आकर  मिलता है। आप घरों में मशीन (प्यूरीफायर) का पानी पीती हैं।

यह जल भरकर ले जाती है पूजा करती हैं क्या आप पीती भी हैं ?

मेरी बात पर गौर करना, मेरा नाम आराधना है। गरीब हैं तो क्या हुआ लेकिन मैं भी पोस्ट ग्रेजुएट हूं।

उसकी बात सुनते नेहा, रागिनी  सभी सखियों के चेहरे पर एक चुप्पी छा जाती है और सभी चुपचाप  अपने गाड़ी की तरफ शीघ्रता से कदम बढ़ाती है ।

 तभी  एक सखी ने कहा – बहन तोल  कर बोलना चाहिए?

 बातों में भी वजन होता है आज पता चला…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ – अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२३-२४ – ☆ सभापति – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सभापति – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

🌹– विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर – अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२३-२४ –🌹

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२३-२४ हेतु प्रविष्टियाँ आमंत्रित की जा रही हैं। वर्ष २०२३-२४ में अलंकरणों हेतु निम्नानुसार प्रविष्टियाँ (पुस्तक की २ प्रतियाँ, पुस्तक तथा लेखक संबंधी संक्षिप्त विवरण प्रथक कागज पर तथा सहभागिता निधि ३०० रु., संयोजक आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, सभापति, विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१, विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वाट्सऐप ९४२५१८३२४४ पते पर आमंत्रित हैं।

प्रविष्टि प्राप्ति हेतु अंतिम तिथि ३० जून २०२४ है।

संस्था के निर्णायक मण्डल का निर्णय स्वीकार्य होने पर ही प्रविष्टि भेजें। सहभागिता निधि वाट्सऐप ९४२५१८३२४४ पर भेज कर स्नैपशॉट भेजिए। प्रविष्टि हेतु पुस्तक के साथ लेखक का सूक्ष्म परिचय तथा पुस्तक संबंधी जानकारी अलग कागज पर भेजें तथा संस्थान द्वारा घोषित निर्णय मान्य होने की सहमति भी अंकित करें।

०१. शांतिराज हिन्दी रत्न अलंकरण, ११,००१ रु.समग्र अवदान, पद्य। सौजन्य : आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी, जबलपुर।

०२. परम ज्योति देवी हिन्दी रत्न अलंकरण, ११,००१ रु.समग्र अवदान, गद्य। सौजन्य : इं. ॐ प्रकाश यति,नोएडा।

०३. शकुंतला अग्रवाल नवांकुर अलंकरण,५५०१ रु. प्रथम कृति (वर्ष २०२२ से २०२४)। सौजन्य : श्री अमरनाथ अग्रवाल जी, लखनऊ।

०४. राजधर जैन ‘मानस हंस’ अलंकरण, ५००१ रु., समीक्षा, मीमांसा । सौजन्य : डाॅ. अनिल जैन जी, दमोह।

०५. जवाहर लाल चौरसिया ‘तरुण’ हिंदी भूषण अलंकरण,५१०० रु., निबंध / संस्मरण / यात्रावृत्त। सौजन्य : सुश्री अस्मिता शैली जी, जबलपुर।

०६. धीरेन्द्र खरे स्मृति हिंदी भूषण अलंकरण, ५१०० रु., उपन्यास। सौजन्य : श्रीमती वसुधा वर्मा, श्री रचित खरे, श्री विभोर खरे।

०७. कमला शर्मा स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., हिंदी गजल (मुक्तिका, गीतिका, तेवरी, सजल, पूर्णिका आदि)। सौजन्य : श्री बसंत कुमार शर्मा जी, बिलासपुर।

०८. सिद्धार्थ भट्ट स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., कहानी/लघु कथा (लघुकथा, बोध कथा, बाल कथा, दृष्टांत कथा आदि)। सौजन्य : श्रीमती मीना भट्ट जी, जबलपुर।

०९. डाॅ. शिवकुमार मिश्र स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., छंद (भारतीय/अभारतीय)। सौजन्य : डाॅ. अनिल वाजपेयी जी, जबलपुर।

१०. सुरेन्द्रनाथ सक्सेना स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., गीत, नवगीत । सौजन्य : श्रीमती मनीषा सहाय जी, जबलपुर।

११. डॉ. अरविन्द गुरु स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१०० रु., कविता। सौजन्य : डॉ. मंजरी गुरु जी, रायगढ़।

१२. विजय कृष्ण शुक्ल स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१०० रु., व्यंग्य लेख। सौजन्य : डॉ. संतोष शुक्ला।

१३. शिवप्यारी देवी-बेनीप्रसाद स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१०० रु.। बाल साहित्य (गद्य,पद्य), सौजन्य : डॉ. मुकुल तिवारी, जबलपुर।

१४. डॉ. सोम भूषण लाल स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१०० रु.। 

१५. सत्याशा साहित्य श्री अलंकरण, ११०० रु., बुंदेली साहित्य। सौजन्य : डा. साधना वर्मा जी, जबलपुर।

१६. रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा साहित्य श्री अलंकरण, ११०० रु., राष्ट्रीय देशभक्ति साहित्य। सौजन्य : सुश्री आशा वर्मा जी, जबलपुर।

१७. कवि राजीव वर्मा स्मृति कला श्री अलंकरण, ११०० रु., गायन-वादन-चित्रकारी आदि। सौजन्य : आर्किटेक्ट मयंक वर्मा, जबलपुर।

१८. सुशील वर्मा स्मृति समाज श्री अलंकरण, ११०० रु., वानिकी, पर्यावरण व समाज सेवा। सौजन्य : श्रीमती सरला वर्मा भोपाल।

१९. अतुल श्रीवास्तव स्मृति  साहित्य श्री अलंकरण, ११०० रु., धर्म, अध्यात्म, दर्शन। सौजन्य : श्रीमती तनुजा श्रीवास्तव, रायगढ़।

साक्षात्कार, व्याकरण, पुरातत्व, पर्यटन, आत्मकथा, तकनीकी लेखन, आध्यात्मिक/धार्मिक लेखन, विधि, चिकित्सा, कृषि आदि क्षेत्रों की श्रेष्ठ कृतियों पर अलंकरण तथा पुस्तकोपहार प्रदान किए जाएँगे।

अलंकरण स्थापना

अनुवाद, तकनीकी लेखन, विधि, चिकित्सा, आध्यात्म, हाइकु (जापानी छंद), सोनेट, रुबाई, कृषि, ग्राम विकास, जन जागरण तथा अन्य विधाओं में अपने पूज्यजन /प्रियजन की स्मृति में अलंकरण स्थापना हेतु प्रस्ताव आमंत्रित हैं। अलंकरणदाता अलंकरण निधि के साथ ११००/- (अलंकरण सामग्री हेतु) जोड़कर ९४२५१८३२४४ पर भेज कर सूचित करें।

टीप : उक्त अनुसार किसी अलंकरण हेतु प्रविष्टि न आने अथवा प्रविष्टि स्तरीय न होने पर वह अलंकरण अन्य विधा में दिया अथवा स्थगित किया जा सकेगा। अंतिम तिथि के पूर्व तक नए अलंकरण जोड़े जा सकेंगे।

पुस्तक प्रकाशन

कृति प्रकाशित कराने, भूमिका/समीक्षा लेखन हेतु पांडुलिपि सहित संपर्क करें। संस्था की संरक्षक सदस्यता (सहयोग निधि १ लाख रु.) ग्रहण करने पर एक १५० पृष्ठ तक की एक पांडुलिपि का तथा आजीवन सदस्यता (सहयोग निधि २५ हजार रु.) ग्रहण करने पर ६० पृष्ठ तक की एक पांडुलिपि का प्रकाशन समन्वय प्रकाशन, जबलपुर द्वारा किया जाएगा। संरक्षकों का वार्षिकोत्सव में सम्मान किया जाएगा।

पुस्तक विमोचन

कृति विमोचन हेतु कृति की ५ प्रतियाँ, सहयोग राशि २१०० रु. रचनाकार तथा किताब संबंधी जानकारी ३० जुलाई तक आमंत्रित है। विमोचित कृति की संक्षिप्त चर्चा कर, कृतिकार का सम्मान किया जाएगा।

वार्षिकोत्सव, ईकाई स्थापना दिवस, किसी साहित्यकार की षष्ठि पूर्ति, साहित्यिक कार्यशाला, संगोष्ठी अथवा अन्य सारस्वत अनुष्ठान करने हेतु इच्छुक ईकाइयाँ / सहयोगी सभापति से संपर्क करें।

नई ईकाई

संस्था की नई ईकाई आरंभ करने हेतु प्रस्ताव आमंत्रित हैं। नई ईकाई हेतु कम से कम ११ सदस्य होना अनिवार्य है। वार्षिक सदस्यता सहयोग निधि ११००/-, हर ईकाई १००/- प्रति वर्ष प्रति सदस्य केंद्र को भेजेगी। केंद्र ईकाई द्वारा वार्षिकोत्सव या अन्य कार्यक्रमों में सहभागिता हेतु केन्द्रीय पदाधिकारी भेजेगा। केन्द्रीय समिति के कार्यक्रमों में सहभागिता हेतु ईकाई से प्रतिनिधि आमंत्रित किए जाएँगे।  

सभापति- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ 

अध्यक्ष- बसंत शर्मा 

उपाध्यक्ष- जय प्रकाश श्रीवास्तव, मीना भट्ट 

सचिव – छाया सक्सेना, अनिल बाजपेई, मुकुल तिवारी 

कोषाध्यक्ष – डॉ. अरुणा पांडे 

प्रकोष्ठ प्रभारी – अस्मिता शैली, मनीषा सहाय।

जबलपुर, १५.५.२०२४

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 233 ☆ तू… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 233 ?

☆ तू… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(स्मृति शेष स्व अनिता निकम (न्यूयॉर्क) – 1 जून 2024))

अचानक गेलीस निघून पैलतीरावर,

आणि मनात खूप खळबळ,

असं का व्हावं?

तशी तू अलिप्तच,

पण कधी जुळले सूर,

तुझे माझे ?

अगदी लहानपणापासून–

आवडायचीसच,

 खूपच गोड होतीस,

 

कुरळ्या केसाचं साम्य,

तुझ्यामाझ्यात!

आत्तेमामे भावंडांत असतंच,

तसं थोडं बहुत साम्य!

 

 तू वेगळीच होतीस

 लहानपणापासून….

तुला शोभून दिसायचा..

तो अंगभूत अॅटिट्युड!

 

खूप फिरलो,

सिनेमे पाहिले…

वाचली पुस्तकं, ऐकली गाणी !

खूप लाभली तुझी संगत,

सात -आठ वर्षाचं

अंतर असूनही,

जुळले विचार,

 

वाचलं होतं कुठेतरी,

वृषभ-मकर मित्र राशी !

म्हणूनही असेल,

 

लग्नानंतर गेलीस दूरदेशी…..

तरीही भेटत होतो,

पत्रातून, भेटकार्डातून…

नंतर…

फोन..मोबाईल…व्हाॅटस अॅप वर !

 

 ऐकतेय तुझे व्हाॅईस मेसेज,

वाचतेय वारंवार,

काय सांगत होतीस ते !

तुझ्या बरोबरचे हॉस्पिटल मधले 

दिवस आठवतेय   ….

बरी झालीस..असं वाटलं फक्त!

 

गेले तीन महिने,

भासवलंस …

बरी असल्याचं!

मोबाईलवर बोलत होतीस

 भरभरून!

निघालीस परत आत्मविश्वासाने एकटीच….न्यूयॉर्कला  !

 

आणि त्याच दिवशी संपली ईहलोकीची यात्रा ,

 

“डिसेंबर मधे परत भेटू”

म्हणाली होतीस!

नेमकं कोणतं दुःख, वेदना, आजार ??

घेऊन गेला तुला ?

सारं गुढ ,अनाकलनीयच!

 

 गुडबाय, स्वीट प्रिन्सेस,

तिथेही याच दिमाखात रहा —

 

पण दुःख, वेदना विरहित!!

© प्रभा सोनवणे

३ जून २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आत्मरंगी ऊन… ☆ डॉ. प्राची जावडेकर ☆

डॉ. प्राची जावडेकर

अल्प परिचय 

व्यवसायाने दंत वैद्य, ठाणेकर.

कवयित्री, निवेदिका

श्यामरंग… त्या त्यांचे प्रश्न आणि कृष्ण , राधायन या दोन संगीत नाट्यविष्कारांचे लेखन.

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आत्मरंगी ऊन... ☆ डॉ. प्राची जावडेकर ☆

उन्हाच्याच गावी, उन्हाचेच रस्ते

उन्हाच्याच वाटांत हरवायचे.

*

रुईच्या फुलांना कुणीही विचारा

उन्हाच्या घराला कसे जायचे?

*

खुळी ‘लाजरी’ अंग झोकून देई

उन्हाच्या झळांनी तिला न्हायचे.

*

सुगंधी उन्हे माखुनी अंगअंगी

सुरंगी म्हणे केशरी व्हायचे!

*

कवे घेतसे शीतपुष्पी उन्हाळा

कवडशांतुनी ऊन झिरपायचे.

*

उठे पेटुनी अग्निशीखा ज्वराने

तिच्या प्रीतीने ऊन वितळायचे.

*

मरुत वाहतो या उन्हाच्या पखाली

उन्हाने उन्हालाच भिजवायचे.

*

उन्हाच्या समुद्री उन्हाच्याच लाटा

किनारे उन्हाचेच चमकायचे.

*

मृदेला उन्हाचा लळा लागलेला

उन्हांनी कसे सांग परतायचे?

*

असे हे उन्हाळे जसे की जिव्हाळे

जीवाला उन्हानेच निववायचे!

© डॉ. प्राची जावडेकर

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ बो टं ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

☆ 👆बो टं !👆✌️😅 ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

“काही म्हणा, तुमच्या बोटांत खरंच जादू आहे !”

अशी दाद, आपण एखादे शिल्पकला, चित्रकला किंवा रांगोळी प्रदर्शन पाहून झाल्यावर, जर त्या कलाकाराची कर्म-धर्म संयोगाने प्रत्यक्ष गाठ पडली, तर त्याच्या कलेच कौतुक करतांना आपल्या तोंडातून उत्स्फूर्तपणे बाहेर पडते !

आपल्या हातांची व्याख्या करायची झाल्यास, दंडापासून सुरु होऊन दहा बोटांपर्यंत संपणारा आपल्या शरीराचा एक अवयव, अशी ठोकळ मानाने करायला कोणाची हरकत नसावी.  आणि ज्यांची हरकत असेल त्यांनी स्वतःचे बोटं (कुठले ते त्यांचे त्यांनीच ठरवावे !) आश्चर्याने स्वतःच्या तोंडात घातले तरी चालेल !

काही काही (नशीबवान ?) लोकांना कधी कधी दोन्ही हातांना मिळून अकरा बोटं असल्याचे आपण बघतो. अर्थात त्या अकराव्या बोटाचा ते काय आणि कसा उपयोग करतात, का त्याची त्यांना अडचणच होते, हे त्यांचे त्यांनाच माहित. यावर असे अकरा बोटंवालेच जास्त प्रकाश टाकू शकतील.  त्यामुळे मी उगाच मला असलेल्या दहा बोटांपैकी माझं एखादं बोटं त्यांच्या अकराव्या बोटाकडे दाखवून, त्यांना माझ्याकडे बघून, माझ्या नावाने बोटं मोडायला कशाला लाऊ?

बायकोला जशी नवऱ्याशिवाय आणि नवऱ्याला जशी बायकोशिवाय परिपूर्णता नाही असं म्हणतात (कोण ते माहित नाही !) तदवतच, हातांना कमीत कमी दहा बोटांशिवाय पूर्णता नाही, हे मात्र मी म्हणतो बरं कां मंडळी ! अर्थात काही काही बायकांना आपल्या नवरोबांना नाचवायला (नवऱ्याला नाचवायला नाही) आपल्या हाताची हीच दहा बोटं कमी पडतात, ही गोष्ट अलाहिदा !  तर थोडक्यात काय, आपल्या दोन हातांना असलेल्या या दहा बोटांना, आपल्या रोजच्या जीवनात अनन्य साधारण असं महत्व आहे, हे कोणीही मान्य करेल. बरं या आपल्या बोटांचे हे महत्व आपल्याला आत्ताच कळलय, असं आहे का ? तर तसं अजिबातच नाही ! अगदी पौराणिक काळापासून, आपल्याला या बोटांचे महत्व निरनिराळ्या कथांमधून कळत आलेलं आहे. जसं, श्री कृष्णाने आपल्या एका हाताच्या करंगळीवर अखंड गोवर्धन पर्वत उचलला होता, तसंच द्रोणाचार्यांनी एकलव्य धनुरविद्येत अर्जुनापेक्षा पुढे जावून वरचढ ठरेल, हे ओळखून त्याला आपला अंगठा गुरुदक्षिणा म्हणून देण्यास भाग पाडले होते, इत्यादी इत्यादी !

माझ्या लहानपणी म्हणजे सत्तर वर्षांपूर्वी बाळाला थोडं उभ राहता यायला लागलं, की आई-बाबा, काका-मामा-आत्या, त्यांच्या बोटाचा आधार देवून चालायला शिकवत असतं.  तेंव्हा आताच्या सारखं वॉकरच खूळ नव्हतं. होता तो वडीलधाऱ्यांच्या बोटांचा आश्वासक पर्सनल टच ! त्यामुळेच की काय आमची पिढी अगदी लहान वयातच स्वतःच्या बोटांवर, सॉरी सॉरी, स्वतःच्या पायावर लवकर उभं रहायला शिकली. असो !

छोटया छोटया बाळांना सुद्धा आपल्या कुठल्या बोटांचा कसा उपयोग करायचा, हे कुणीही न सांगता चांगलेच कळतं. काही काही बाळांना आपला अंगठा किंवा करंगळी शेजारील दोन बोटं तोंडात घालून झोपायची सवय असते.  त्यातून त्यांना मिळणारा अवर्णनीय आनंद आपण त्यांच्या झोपेतल्या चेहऱ्याकडे बघितलं की आपल्याला लगेच जाणवतो ! बरं ते बोटं किंवा अंगठा त्याच्या तोंडातून काढून बघा, नाही त्यानं त्याच्या रडण्याच्या आवाजाने तुम्हांला तुमच्या कानात बोटं घालायला लावली तर !

पुढे तरुणपणी बोटां संदर्भात जेवढे म्हणून काही वाक्प्रचार प्रचलित होते आणि कानावर पडत होते त्यात प्रामुख्याने “अमुक तमुक माणसावर अजिबात विश्वास ठेवू नकोस, तो या बोटाची थुंकी त्या बोटावर कधी करेल हे तुला कळणार नाही !” असं ऐकण्याचा योग वडीलधाऱ्यांकडून नेहमी येत असे ! आणि हो, आपल्या पैकी काही जणांना तरुणपणी तोंडात बोटं घालून शिट्टी मारण्याची कला (कोणाकडे बघून ते तुमच तुम्हीच आठवा !) अवगत होती, हे आपण मान्य कराल ! आता त्या शिट्ट्यांचा पुढे काही चांगला परिणाम झाला का दुष्परिणाम झाला, हे ते शिट्टी मारणारे बहाद्दरच जाणोत ! शिट्टी या विषयावर सुद्धा एक लेख लिहायचे डोक्यात आहे, बघूया माझी बोटं तो लिहायला कधी शिवशीवतात ते !

जगातील सात आश्चर्यांपैकी, (सध्या त्यांची संख्या वाढून नक्की किती झाली आहे ते मला माहित नाही, हे पण एक आश्चर्यच आहे, असं आपल्याला वाटल्यास आपण तसं तोंडात बोटं न घालता देखील म्हणू शकता !) एखादे प्रत्यक्ष बघतांना लोकांची बोटे तोंडात जातात, असं आपण प्रवासवर्णनाच्या पुस्तकात वाचतो ! पण हे खरचं घडत नाही, कारण मोठ्यांनी असं तोंडात बोटं घालणं कस दिसेल, या नुसत्या कल्पनेने आपली बोटं (आपल्याच) तोंडात जायची !

“ती आपल्या भावी नवऱ्याच्या,  घनदाट केसातून आपली लांब सडक नाजूक बोटं (त्या काळच्या सर्वच कथा कादंबऱ्यातील नायिकांसाठी अशी बोटं असणं हे जणू एक सक्तीचं क्वालिफिकेशनच होतं जणू !) फिरवत, आपल्या भावी सुखी संसाराची स्वप्न पहात होती !” अशी वर्णनं आपण पूर्वीच्या कथा कादंबऱ्यातून वाचली असतील. पण पुढे त्याच कादंबरीत, ठराविक वर्ष संसार झाल्यावर, तीच बायको आपली बोटं, (आता खरखरीत आणि जाडजूड झालेली)  त्याच नवऱ्याच्या पूर्वीच्या घनदाट केसांच्या जागी सध्या (तिच्यामुळे?) पडलेल्या टकलावर, मिरं वाटण्यासाठी त्यांचा उपयोग करते, असं कधीच माझ्या वाचनात आलं नाही ! आपल्या वाचनात आलं असेल तर मला त्या कादंबरीच आणि लेखकाच नांव नक्की कळवा, म्हणजे मी माझ्या हातांची दहा बोटं जोडून त्याला कोपरापासून नमस्कार करायला मोकळा !

आपल्यापैकी बऱ्याच जणांना दहा बोटांसह दोन हात असतात, पण जी लोकं या बाबतीत काही कारणाने कमनशिबी असतात, अशी लोकं पण या जगात आनंदाने वावरतांना आपण बघतो.  त्यातील काही जण तर आपल्या या व्यंगावर मात करून, आपल्या पायाच्या बोटांच्या मदतीने पेन पकडून, परीक्षा देतांना किंवा त्यात ब्रश धरून उत्तम चित्र साकारतांना आपण पहिले असेलच. त्या सगळ्यांच्या या अनोख्या अशा कर्तृत्वाला माझा मनापसून साष्टांग दंडवत !

पूर्वी लग्न जुळवतांना मध्यस्थ अगदी छातीठोकपणे सांगत, “मुलीच्या/मुलाच्या वागणुकीत बोटं ठेवायला जागा नाही, अगदी निर्धास्तपणे पुढे जा !” पण थोडे अपवाद वगळता, काही लग्ना नंतर, मुलीच्या/मुलाच्या आई बापाला आपले दोन्ही हात जोडायची पाळी येते, हे ही तितकेच खरं !

काही स्त्रिया किंवा पुरुष आपल्या दहा बोटांत, निरनिराळ्या आकाराच्या, रंगीत खड्यांच्या अंगठ्या घालून लोकांचे लक्ष आपल्याकडे वळवण्याचा प्रयत्न करतांना दिसतात. असा एखादा तो किंवा ती मला दिसली, की मी लगेच मनातल्या मनांत समजून जातो, एकतर असं करून ते आपल्या संपत्तीचे प्रदर्शन करताहेत किंवा त्यांच्या बोटांत कुठलीच कला नसावी ! अर्थात आपल्या बोटांचा कोणी कसा उपयोग करायचा हे ज्याने त्याने ठरवायचे असले तरी, दुसऱ्याच्या नावाने बोटं मोडण्यापेक्षा हे असं अंगठ्या घालून मिरवलेल बरं, या माझ्या मताशी तुम्ही पण सहमत व्हाल !

शेवटी, दुसऱ्या कुणीतरी आपल्या स्वभावावर, वागणुकीवर बोटं ठेवून, त्यात खोटं काढू नये, असंच प्रत्येकाला वाटत असतं.  पण त्या दुसऱ्याच्या बोटावर आपले नियंत्रण नसल्याने, त्याने ते कोठे ठेवावे हा सर्वस्वी त्याचा प्रश्न झाला. आपण ते फारसे मनावर न घेणंच इष्ट. नाहीतर सगळ्यांनीच आपल्या एकेका वागणुकीवर बोटं ठेवले आणि ती सगळीच बोटं आपण सुधारायला गेलात, तर आपण आपला मूळचा स्वभावच हरवून बसाल ! अशा वेळी, ऐकावे जनाचे करावे मनाचे, हाच धोपटमार्ग आपण निवडणे हे उत्तम ! बघा पटलं तर आणि नाहीच पटलं तर, आपलीच बोटं आपण आपल्याच तोंडात घालायला कोणाच्या बाची भीती आहे ?

ताजा कलम – वरील लेखात कोणा वाचकाला कोठे बोटं ठेवावं असं वाटलं तर ते तसे ठेवण्यासाठी तो मोकळा आहे, कारण शेवटी बोटं त्याच आहे !😅

© प्रमोद वामन वर्तक

संपर्क – दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ जुळले बंध नात्यांचे — ☆ सौ. राधिका माजगावकर पंडित ☆

सौ राधिका माजगावकर पंडित

? जीवनरंग ?

☆ जुळले बंध नात्यांचे — ☆ सौ राधिका माजगावकर पंडित

आज सकाळपासून देवयानीची धावपळ चालली होती. मावशी येणार होती ना आज तिची तिच्याकडे ! आपला हा आलीशान बंगला, नोकर-चाकर, दागदागिने, बघून केवढा आनंद होईल तिला, आणि हो ! तिच्यासाठी घेतलेली भारी पैठणी बघून किती खुश होईल आपली मावशी.आता माहेरच असं कुणी राह्यलच नाहीय्ये. हो एकुलता एक भाऊ, भावजय, भाची आहे म्हणा. पण आता काय त्याचं ? ती नाती तर केव्हाच तुटलीत. आपली आणि त्याची शेवटची भेट कोर्टात झाली होती. आई-बाबांच्या इस्टेटीची मागणी आपण केली, कोर्टात केस लढवली, आणि निकाल आपल्या बाजूने लागून आपण केस जिंकलो. तेव्हांपासून सबंध तुटले. भावाचं म्हणणं असं होतं की ‘ ताई जरा सबुरीने घे. सध्या मी अडचणीत आहे, त्यातून डोकं वर निघाल की,तुझा सगळा वाटा हिस्सा मी तुला नक्कीच परत करीन. ‘. पण देवयानीला आणि तिच्या मिस्टरांनाही दम नव्हता. हट्टाने वाटा हिस्सा हिसकावून घेतला होता, तिने आणि तिच्या नवऱ्याने. पण जाऊ दे आता काय त्याचं ? आपला वाटा, शिवाय आईची माळ, कर्णफुलं बाबांचे घड्याळ आणि अंगठी तर लाटली ना आपण. आणि आता भावाची, शंकरची परिस्थिती सुधारली असेलच की. मनांतले विचार झटकून तिने ड्रायव्हरला गाडी बाहेर काढायला सांगितली. क्षणभर लहानपणीचा शांत,समजूतदार शंकर तिच्या डोळ्यासमोर आला. आणि तिचं मन गलबललं. मनातला विचार झटकून मावशीला आणायला ती निघाली. मावशी आली.

आपल्या भाचीचा मोठा बंगला, नोकर-चाकर, सारं वैभव बघून मावशिला खूप खूप आनंद झाला. नंतरचे दोन दिवस अगदी मनसोक्त भटकण्यात गेले. रोज आवडीचे पदार्थ झाले. पंचपक्वान्ने झाली. आणि मावशीचा निघायचा दिवस उजाडला. दोन दिवसांपासून बोलू का नको, असा विचार करणारी मावशी आपल्या विचारांशी ठाम झाली. आणि देवयानीला जवळ बसवून म्हणाली ” हे बघ देवयानी, ताई आणि बाबासाहेब गेले तेव्हां मी परदेशात होते, त्यामुळे तुझ्यात आणि शंकर मध्ये कां दुरावा झाला, त्याबद्दल काहीचं माहिती नाही मला. पण एवढं मात्र कळलं की तुझ्या आईची आठवण म्हणून तू ताईचे बरेचसे दागिने हट्टाने शंकरकडून घेऊन आलीस. असं मला तिसरीकडून कळलं. मध्यंतरी शंकरची भेट झाली. तो खूप शांत आणि समजूतदार आहे गं ! त्याने आणि त्याच्या बायकोने काही म्हणजे काहीही तक्रार केली नाही माझ्या जवळ. तो फक्त एवढंच म्हणाला, ” “मावशी,आई बाबा, ताईचे तसे माझेही आई वडील होते. बाकी काही नाही पण, आई-बाबांची आठवण म्हणून आईचा फक्त एखादा दागिना, बाबांचं घड्याळ माझ्यासाठी ठेवलं असत देवयानीताईने, तर बरं झालं असतं. फक्त आई-बाबांची आठवण जवळ हवी म्हणून म्हणतोय. आणि आजीची आठवण असावी म्हणून वैदेहीच्या लग्नात तिला मी आईची माळ देणार होतो. वैदेहीवर फार जीव होता ना आजीचा “. देवयानी तुझ्याबद्दल शंकरनी आणि त्याच्या बायकोने काही म्हणजे काहीही तक्रार केली नाही. याचचं फार कौतुक वाटलं मला. तुझ्याबद्दल अजूनही आदर आहे त्यांच्या मनात. मावशी पुढे म्हणाली, ” देवयानी माझ ऐक, वैदेहीचं लग्न दोन दिवसावर आलं आहे. मदतीसाठी म्हणून मी आधीच इथून परस्पर शंकरकडे जायचं म्हणतेय. मोठं माणूस म्हणून कुणीतरी हवं ना त्यांच्या पाठीशी.. मला वाटतं हेवेदावे मागचं सगळं वैर विसरून तू पण यावंस माझ्याबरोबर”. देवयानी हट्टी होती.पण मनाने चांगली होती. तिच्या मनांत आलं बाई गं ! आपली लाडकी भाची इतकी मोठी झाली ? आपला शंकर तसा खूप हळवा आहे. लेकीच्या लग्नानंतर, तिच्या वियोगाने तो कासाविस होईल. आपल्या लग्नातच किती रडला होता तो. पाठवणीच्या वेळी आपण सासरी निघतांना तो दिसला नाही, म्हणून आपली नजर त्याला शोधत होती. आणि एका कोपऱ्यात हमसाहमशी रडत बसलेला आपला शंकर, आपला धाकटा भाऊ तिला दिसला. आणि मग एकमेकांच्या गळ्यात पडून अश्रूंचा बांध फुटला होता. सारं काही तिला आठवलं. तिचे ओघळलेले अश्रू पुसत शांता मावशी म्हणाली ” देवी तुझी चूक उमगून, तुला आता पश्चाताप झालाय हो नां ? अगं किती झालं तरी रक्ताचं नातं आहे तुमचं. असे सहजासहजी तुटणार नाहीत हे नात्याचे बंध. पश्चाताप झालाय ना तुला ? मग माझ ऐक बाळा! माझ्या बरोबर वैदेहीच्या लग्नाला चल. माझ्यासाठी भारी पैठणी घेतलीस ना, ती शंकरच्या बायकोला दे. मला एवढी जड साडी या वयात नाही ग पेलवत. शंकरला बाबासाहेबांचे घड्याळ दे. आणि तुझ्या लाडक्या भाचीच्या गळ्यात ताईची मोहनमाळ घाल. तुझ्याकडच्या अशा आहेराने खूप खूप आनंदित होतील गं ते तिघजण. तू चलच माझ्याबरोबर लग्नाला. ऐक माझं, देवयानी, ईर्षा आणि अहंकार यात जय शेवटी रक्ताच्या नात्यांचाच होतो, बरं का बाळ.!

आणि मग देवयानीला आपली चूक उमगली. ती ताडकन उठली.भराभर आहेराची तयारी झाली. आणि गाडी वेगाने धावत माहेरच्या वाटेने पळू लागली. माहेरच्या अंगणात मांडव सजला होता. सनईच्या सुरात गृहमखाची तयारी चालली होती. आणि कुणीतरी ओरडलं, “देवयानी आली ” सोवळं नेसलेला शंकर तीरासारखा धावला. आणि ताईच्या गळयात पडला. डबडबलेल्या आनंदाश्रूनी म्हणाला, “माझी ताई आली अहो बघा ! माझी ताई विसरली नाही मला. मुंडावळ्या सांवरत वैदेही पुढे झाली, आणि आत्याच्या कुशीत शिरत म्हणाली, “मला खात्री होती आत्त्या ! तू माझ्या लग्नाला येशील म्हणून”. प्रेमळ वहिनी तिला सोफ्यावर बसवत म्हणाली, ” उन्हातून आलात, दमलात नां वन्स ? हे सरबत घ्या बघू आधी. वहिनीच्या डोळ्यात तिला आईची माया,आईचं वात्सल्य दिसलं. आणि शंकर ! तो तर आनंदाने वेडाच झाला होता. आपल्या ताईला कुठे ठेवू अन् कुठे नाही असं झालं होतं त्याला. तो म्हणाला, “मावशिनी कोर्टापासून दुरावलेले आपल नातं जुळवून आणल. तिचे खूप उपकार आहेत माझ्यावर. देवीताई माय गेली आपली, पण माय सारखी माय माऊली मावशी, आई आपल्या साठी मागे ठेवून गेली आहे “. आणि मग दोघंही मावशीच्या पायाशी वाकले. मावशीने भरभरून आशिर्वाद दिला. “बाळांनो असंचं तुमचं बहीण-भावाचं नातं अतूट राहूं दे. अगदी शेवट पर्यन्त. एकमेकांना कधीही अंतर देऊ नका “.

— तर मंडळी.. असा झाला हा नात्यांचा गोड शेवट. रक्ताची काय आणि मानलेली नाती काय एकदा आपलं म्हटलं की कापलं तरी आपलंच असत. ह्या नात्याचे व्यवहाराच्या करवतीने कधीच दोन भाग करू नका. शेवट गोड झालेली अशी ही नात्यांची गुंफण नक्कीच तुम्हाला आवडेल हो नां ?

© सौ राधिका माजगावकर पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “तुपाची धार…” ☆ सुश्री शीला पतकी ☆

सुश्री शीला पतकी 

? मनमंजुषेतून ?

☆ “तुपाची धार…” ☆ सुश्री शीला पतकी 

सोलापूरपासून जवळच असलेल्या एका खेड्यामध्ये आमचा कार्यक्रम होता कार्यक्रमानंतर आम्ही एका ब्राह्मण कुटुंबाकडे जेवायला गेलो ते वडिलांचे मित्र होते …सोबत आणखीन गावातली दोन ब्राह्मण माणसे होती घरातल्या बाईंनी खूप सुंदर स्वयंपाक केला होता अगदी छोट घर.. परिस्थिती अत्यंत सामान्य… चार माणसांना जेवायला बसता येईल इतकीच जागा आणि थोड्याशा उंचावर बाईंचं स्वयंपाकघर.. त्या मला म्हणाल्या “तु सगळ्या लोकांना वाढशील का म्हणजे मी गरम गरम पोळ्या करेन…” मी तेव्हा सातवीत होते म्हणजे बारा वर्षाचे वय असेल आणि मी म्हंटले हो… मी पानं घेतली. मीठ चटणी लोणचं एक भाजी आमटी भात भातावर वरण हे सगळं मी वाढलं त्या बाई पोळ्या करायला बसल्या! हे सगळं चुलीवर चाललं होतं.  तेव्हा लाईट वगैरे काही नव्हते जेवणाऱ्या मंडळीसमवेत एक कंदील होता आणि बाई स्वयंपाक करत होत्या तिथे एक चिमणी होती .मी सगळं वाढल्यावर त्यांना विचारलं भातावर तूप वाढायचं का? तर त्या म्हणाल्या हो आणि त्यांनी माझ्या हातात एक पितळेची वाटी दिली ज्यामध्ये दूध होतं आणि एक चमचा होता …मला वाटलं त्यांना बहुतेक अंधारात दिसल नव्हत ..मी म्हणाले काकू हे दूध आहे तूप नाही.. त्यांनी हळू आवाजात मला सांगितलं तूप नाहीये , संपले आहे.  दुधाचा एक एक चमचा भातावर वाढ म्हणजे ती मंडळी जेवायला बसतील. त्याप्रमाणे मी दुधाचा एक एक चमचा भातावर वाढला …

मंडळी जेवण करून उठले. माझ्या तोंडावरच प्रश्नचिन्ह त्यांना दिसत असाव बहुधा !मग मी आणि त्या जेवायला बसलो तेव्हा त्या म्हणाल्या.. “ खेडेगावात परिस्थिती खूप बिकट असते. त्यात आमच्या वाटण्या झाल्या.  तूप दररोज जेवणात आता जमत नाही, पण आपला ब्राह्मण धर्म आहे ना ..  भातावर तूप वाढल्याशिवाय कोणी जेवत नाही.. असे जेव्हा असते ना तेव्हा थोडेसे दूध वाढावे ..!” मला त्या फारसं  न शिकलेल्या बाईचं मोठं कौतुक वाटलं …

तेव्हा काही कळत नव्हतं पण तो प्रसंग माझ्या मनात कोरला गेला होता आणि आता त्याचा विचार करताना वाटतं की खरंच आपल्या स्त्रियांनी धर्मसंस्कार संस्कृती आणि आपली असणारी परिस्थिती याच्याशी किती उत्तम सांगड घातली होती आपल्या घरचे न्यून कधीही कोणाला दिसू दिले नाही ती प्रत्येक वेळ साजरी करत होत्या म्हटलं तर चुकीचं होणार नाही.. म्हणूनच स्त्री ही शक्ती आहे तिची भक्ती केल्याशिवाय संसार चालत नाही अडचणीतून मार्ग कसा काढावा याचे उत्तम उदाहरण म्हणजे स्त्री… प्रत्येक प्रश्नाला सोल्युशन कसे मिळवावे याचे उत्तम उदाहरण म्हणजे स्त्री ..किती प्रश्नांची ती सहज सोडवणूक करते आणि ते कुणाला कळतही नाही. आजही मी त्या बाईला मनापासून नमन करते आणि खूपदा गंमत म्हणून वरणभातावरती दूध घेऊन  पाहते त्या प्रसंगाची आठवण म्हणून—–!

© सुश्री शीला पतकी

माजी मुख्याध्यापिका सेवासदन प्रशाला सोलापूर 

मो 8805850279

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ भल्यानें परमार्थीं भरावें… ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ☆

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले

? इंद्रधनुष्य ?

☆ भल्याने परमार्थी भरावे… ☆  श्री संदीप रामचंद्र सुंकले 

भल्यानें परमार्थीं भरावें ।

शरीर सार्थक करावें ।

पूर्वजांस उद्धरावें ।

हरिभक्ती करूनी ॥

— समर्थ रामदास .

अर्थ :- चांगल्या माणसाने हा मनुष्यदेह परमार्थी लावावा व या नरदेहाचे सार्थक करून घ्यावे. त्याने भगवद्‌भक्ती करून स्वतःचा व पूर्वजांचाही उद्धार करून घ्यावा. 

प्रत्येक मात्यापित्याना आपली संतती निकोप निपजावी असे वाटणे स्वाभाविक आहे. यासाठी प्रत्येक आई बाप असो वा पालक असा प्रयत्न करीत असतो. एखाद्याच्या घरात एखादा मुलगा अथवा मुलगी जन्मास आली, पण उपजताच त्यामध्ये व्यंग असेल तर त्याचा आईबापाला आणि समाजाला काय लाभ ? उलट मनःस्तापच व्हायचा. आणिक एक कल्पना करू. मूल सदृढ आहे, हुशार आहे , पण वृत्तीने अगदीच तामसी आहे. काही वर्षांपूर्वी अमेरिकेत जोड मनोरे विमानाच्या धडकीने उद्ध्वस्त केले गेले. ते दोन्ही तरुण उच्च विद्या विभूषित होते, पण कुसंस्कार असल्याने, तामसी असल्याने त्यांनी स्वतःचा नाश केलाच पण अनेक कुटुंबाचा विध्वंस केला. अशी संतती आई बापाचा आणि कुळाचा कसा उद्धार करू शकेल….? याउलट, एखाद्या घरात मूल जन्माला आले ,कदाचित ते रूपवान नसेल, पण गुणवान असेल, शीलवान असेल, तर ते आपल्या आई बापाचा आणि कुळाचे नाव उज्ज्वल करू शकेल….! यापैकी कोणती संतती आपल्या घरी जन्माला यावी असे वाटते….? 

भारतीय इतिहासाचा अभ्यास केला तर आपल्या लक्षात येईल की सात्विकतेचे बीज एका जन्मात वृध्दींगत होत नाही. ती खूप मोठी प्रक्रिया आहे. रामाच्या कुळात अनेक पिढ्यांनी आधी आपल्या शुद्ध आचरणाने सात्विकतेचे बीज संवर्धित आणि सुसंस्कारित केले, त्याचे फळ म्हणून प्रभू श्रीरामांचे दिव्य चरित्र आपल्या समोर आले. समर्थ रामदासांच्या कुळात अनेक पिढ्या सूर्य उपासना होती. हे अनेक संतांच्या बाबतीत पाहायला मिळते. माउलींनी सात्विकतेचे बीज पेरले आणि यथावकाश त्याला छत्रपती शिवाजी महाराजांच्या रूपाने फळ लाभले….! आपण यावर मूलभूत चिंतन करावे, आपल्याला अनेक गोष्टी आपसूक कळून येतील.

हे सर्व सविस्तरपणे सांगण्याचा हेतू हा की याचे महत्व वाचकांच्या मनावर बिंबायला हवे. आपल्या पूर्वजांनी आपले धार्मिक कुलाचार विपद स्थितीत सुध्दा टिकवले, पण चार इयत्ता शिक्षण जास्त झाल्याने लोकांनी कुलाचार आणि श्राद्ध पक्ष करणे बंद केले. माथी  टिळा लावायला आपल्याला लाज वाटू लागली, ….., अशा अनेक गोष्टी आहेत, पटतंय ना ?

महान तत्त्ववेत्ता रेने देकार्त म्हणतात, ” जुने कितीही सदोष वाटू लागले, तरी अगदी निर्दोष नवे हाती येइपर्यंत शहाण्याने हातच्या जुन्याचा त्याग करू नये. “ 

सर्व संतांनी सांगितले की हरि भक्ती करून आपला आणि आपल्या पूर्वजांचा उद्धार करता येतो किंवा उद्धार होत असतो….!आपण त्याच्यावर विश्वास ठेवत नाही. आपण एक उदाहरण पाहू. आधुनिक विज्ञानाच्या भाषेत सांगायचे झाल्यास असे सांगता येईल की जर एखाद्या हार्ड डिस्क वरील काही mb भाग currupt झाला तर पूर्ण हार्ड डिस्क खराब होते, निकामी होते. मनुष्याच्या मेंदूत किती gb ची हार्ड डिस्क भगवंताने बसवली आहे, याचे गणित मानवी बुध्दीच्या बाहेरचे आहे. त्याच्यावरील किती mb आपण  आपल्या दुर्बुद्धी ने currupt केल्या असतील, याचे आपल्याकडे मोजमाप नाही तरीही आपली हार्ड डिस्क बाद करीत नाही तर तो आपल्याला हार्ड डिस्क सुधारण्याची संधी मरेपर्यंत देत असतो. हा भगवंताचा आपल्यावरील सर्वात मोठा उपकार समजायला हवा. हे केवळ मनुष्य देहातच शक्य आहे. आपण यावर स्वतः चिंतन करावे.

असे म्हणता येईल की जेव्हा मनुष्य एकेक नाम घेत जातो, त्या प्रमाणात आपल्या मेंदूतील हार्ड डिस्क मधील एकेक bite शुद्ध होत जाते…

समर्थ आपल्याला हेच सांगतात की कोणत्याही मार्गाने मेंदूतील हार्ड डिस्क शुद्ध करून घ्यावी. आपल्या शरीरात ४६ गुण सूत्रे असतात. त्यातील २३ आई कडील आणि २३ बाबांकडील म्हणता येतील. मनुष्याने ब्रम्हाला जाणून घेतले तर त्याच्या आईकडील २१ आणि बाबांकडील २१ अशा एकूण ४२ पिढ्यांचा उद्धार होत असतो असे आपले धर्म शास्त्र सांगते. 

सर्व संत सांगतात की नर देहाचा मुख्य उपयोग शरीर उपभोगासाठी नसून भगवंताची प्राप्तीसाठी आहे. आपण तसा प्रयत्न करून पाहू.

जय जय रघुवीर समर्थ…

© श्री संदीप रामचंद्र सुंकले

थळ, अलिबाग. 

८३८००१९६७६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ एक छानशी गोष्ट – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

📖 वाचताना वेचलेले 📖

एक छानशी कथा – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर 

एका प्रवासी बोटीचा भर समुद्रात अपघात होतो.

त्याच बोटीवर एक जोडप (पती-पत्नी) प्रवास करत असतात. 

ते दोघेही एकमेकांचे जीव की प्राण असतात. बोटीच्या अपघातामुळे ते एकमेकांना वाचवण्यासाठी आटोकाट प्रयत्न करत असतात. 

त्यांची नजर आधारासाठी काहीतरी शोधण्यासाठी चहूकडे भीरभीरत असते. 

आणि अचानक त्यांना एक जीवरक्षक बोट दिसते. 

एका म्हणीत म्हटलेल आहे की, 

“डुबत्याला काठीचा आधार”

अगदी तसच होते, ते दोघेही जिवाच्या आकांतान त्या जीवरक्षक बोटीजवळ येतात.

परंतु त्यांची घोर निराशा होते.  त्यांना दिसत की, बोटीत फक्त एकच जागा शिल्लक आहे. 

पती, पत्नीला बुडत्या बोटीवर मागे ठेउन जीवरक्षक बोटीत उडी मारतो. 

पत्नी बुडत्या बोटी वर थांबते.

बोट पाण्याखाली जाण्याआधी ती पतीकड़े पाहून जीवाच्या आकांताने काही तरी ओरडून सांगण्यांचा प्रयत्न करते. 

शिक्षक गोष्ट सांगायचे थांबवतात. 

वर्गात निरव शांतता  

वर्गातील प्रत्तेक विद्यार्थी अगदी मन लावून तल्लीन होवून गोष्ट ऐकण्यात गुंग झालेला असतो. 

अनपेक्षितपणे शिक्षकांनी गोष्ट सांगायची का थांबवली हा प्रत्तेकालाच प्रश्न पडलेला असतो. आणि तेवढ्यात शिक्षक  वर्गातील मुलांना विचारतात की, 

पत्नी पतीला काय म्हणाली असेल?

बहुतेक विद्यार्थी तर्क करुन सांगतात की, पत्नी पतीला म्हणाली असेल, 

‘मला तुम्ही धोका दिलात, मी तुम्हाला ओळखलेच नाही, तुम्ही स्वार्थी आहात..!’ 

प्रत्येक विद्यार्थ्यांनी आपआपली मते मांडली. तेवढ्यात शिक्षकांचे एका विद्यार्थ्याकडे लक्ष जाते. 

एक मुलगा मात्र गप्पच असतो.

शिक्षक त्याला विचारतात, “अरे, तुला काय वाटते ते पण सांग!”

तो मुलगा म्हणतो, 

“गुरुजी, मला वाटत, त़ी म्हणाली असेल, मुलांना सांभाळा..!”

शिक्षक चकित होउन विचारतात, “तुला ही गोष्ट माहीत आहे का?”

तो नकारार्थी मान हलवतो आणि म्हणतो, *”नाही गुरुजी, मला माहित नाही. पण; माझी आई वारली तेंव्हा शेवटच्या श्वासाला ती हेच म्हणाली होती!”

“तुझे उत्तर बरोबर आहे!”

शिक्षक हलकेच म्हणाले.

बोट बुडाली. पतीने घरी जाउन, मुलीला एकट्यानेच लहानाचे मोठे केल.

खूप वर्षानंतर, वार्धक्याने त्या पतीला जेंव्हा मरण आले तेंव्हा, त्याच्या पश्चात राहिलेले सामान आवरत असताना, त्याच्या मुलीला एक डायरी सापडते.

त्यातून असे समजते की, तीच्या आईला आधीच दुर्धर आजार झालेला असतो. 

आणि ती त्यातून वाचणार नसते. त्यामुळे पतीला स्वत: जीवंत रहाण्याव्यतिरिक्त दूसरा पर्यायच नसतो.

त्या डायरीत पतीने पुढे लिहिलेले असते, “तुझ्या शेजारीच जलसमाधी घ्यायची माझी किती इच्छा होती. पण आपल्या मुलीसाठी मला तुला त्या सागराच्या तळाशी एकटीलाच कायमसाठी सोडून याव लागल!”

ही गोष्ट आपल्याला सांगण्या मागचा एवढाच उद्देश की,  चांगल्या किंवा वाईट कृतीच्या पाठीमागे, कधी कधी मोठी गुंतागुंत असते. जी आपल्या सहज लक्षात येत नाही.

त्यामुळे वरवर पाहून आपण कुणाहीबद्दल लगेच मत बनवून घेउ नये.

जे कोणत्याही कामात पुढाकार घेतात, ते मुर्ख असतात म्हणून नव्हे तर त्याना त्यांची जबाबदारी कळते म्हणून.

जे भांडल्यावर आधी क्षमा मागतात, त्यांची चुक असते म्हणून नव्हे,तर त्यांना आपल्या माणसांची पर्वा असते म्हणून.

जे तुम्हाला मदत करायला पुढे सरसावतात ते तुमचे काही देणे लागतात म्हणून नव्हे, तर ते तुम्हाला खरा मित्र मानतात म्हणुन…!

लेखक : अज्ञात 

संग्राहिका : सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “गारंबीची राधा” – लेखक : श्री ना. पेंडसे ☆ परिचय – सौ. अलका ओमप्रकाश माळी ☆

सौ. अलका ओमप्रकाश माळी

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “गारंबीची राधा” – लेखक : श्री ना. पेंडसे ☆ परिचय – सौ. अलका ओमप्रकाश माळी  ☆

पुस्तकाचे नाव… गारंबीची राधा

लेखक… श्री. ना. पेंडसे

मैत्रिणींनो यशोदा ह्या श्री. ना. च्या कादंबरीचं  अभिवाचन मी काही दिवसांपूर्वी केलं होत.. त्यामुळे श्री. ना आणि त्यांचं कोकण प्रेम त्यांच्या लिखाणाची शैली आपल्या सगळ्यांना परिचयाची झाली आहे.. खर तर गारंबीची राधा मी खूप वर्षापूर्वी वाचलेलं पुस्तकं आहे.. आज माझ्याकडे तर ते पुस्तक ही नाहीय.. कोणीतरी वाचायला नेलेले दिलेच नाही.. असो.. पण राधा ने अशी काही भुरळ घातली आहे की बरेच प्रसंग अगदी काल वाचल्या सारखे लख्ख आठवतायत त्याच जोरावर मी अभिप्राय लिहिते आहे.. तुम्ही समजून घ्याल च.. खरं तर कोकण प्रदेश त्यातले अनेक लेखक कवी नेहमीच आपल्याला त्यांच्या लिखाणाच्या शैलीमुळे भुरळ घालतात आणि आपण अधाश्या सारखे हे साहित्य वाचतो.. पण ह्या सगळ्या लेखकांमध्ये जास्त आवडतात किंवा लाडके लेखक म्हणू हवं तर ते म्हणजे श्री. ना. पेंडसे.. ह्यांच्या अनेक कादंबऱ्या, कथा संग्रह मी अगदी पारायण केल्या सारखे वाचले आहेत.. कॉलेज लाईफ मध्ये.. श्री. ना. च पहिलं पुस्तकं हातात पडलं ते म्हणजे गारंबीची राधा…ही कादंबरी वाचली आणि मी अक्षरशः श्री. ना. च्या लिखाणाच्या प्रेमातच पडले.. मग काय एका मागून एक त्यांची पुस्तकं वाचली.. गारंबीचा बापू, रथचक्र, लव्हाळी,  ऑक्टोपस, चक्रव्यूह, राजे मास्तर आणि सगळ्यात आवडलेली कादंबरी म्हणजे 1400 पानांची दोन खंडात आलेली कादंबरी तुंबाडचे खोत.. 

गारंबीची राधा  आणि गारंबीचा बापू ह्या अगदी एकाच कथेचे दोन मोठे भाग असावेत असं वाटतं.. कोकणातल्या एका छोट्याशा खेड्यात गारंबी त्या खेड्याच नाव.. तिथे सुरू झालेली ही कहाणी आपल्याला पुन्हा नव्याने कोकणच्या प्रेमात पाडते.. ह्या कादंबरीत अनेक व्यक्ती चित्रण बघायला मिळतात.. मुख्य पात्र तर आहेतच त्यांच्या सोबतच अनेक स्वभावाची वेगवेगळी कोकणी माणसं आपल्याला इथे भेटतात.. कोकणचा प्रदेश, तिथली सामाजिक, आर्थिक परिस्थिती, तिथल्या प्रथा परंपरा, राहणीमान, खानपान ह्याचं अगदी जवळून दर्शन ह्या कादंबरी मध्ये होत.. पुलावरच्या एका बकाल म्हणता येईल अशा वस्तीत.. रावजी च्या हॉटेल मधे काम करणारी राधा एक सामान्य मध्यम वयीन स्त्री.. पण लेखक तिचं तिच्या रुपाच वर्णन करताना म्हणतात राधा म्हणजे पारिजातकाचं टवटवीत फुल. राधा दिसायला सुंदर आहे पण रोज तेलाच्या घाण्यासमोर बसून भजी तळून रापलेली तिची गोरी पान कांती अजूनच तिच्या सौंदर्यात भर घालते.. त्या छोट्याशा टपरी वजा हॉटेलमध्ये रावजी सोबत राधा दिवसभर काम करते, तिथेच तिला गारंबीचा बापू भेटतो. गारंबीमध्ये बापूची ओळख म्हणजे सर्वपित्री अमावस्येला जन्मलेलं एक बिघडलेलं कार्ट अशी आहे.. अशा ह्या उनाड बापू आणि राधाची प्रेम कहाणी ही जगावेगळी आहे.. बापूचा विचित्र स्वभाव आणि राधाचा स्पष्टवक्तेपणा राधेचं खंबीर धीर गंभीर रूप ह्या कादंबरीत वारंवार दिसून येते.. बापू सारखा मन मानेल तसं जगणारा प्रियकर आणि कोणाचाही आधार नसलेली ही राधा यांची प्रेम कहाणी आपल्याला वेड लावते.. प्रत्येक पानावर उत्सुकता अजूनच वाढत जाते…

यासोबत कोकणातील अंधश्रद्धा श्रीमंती थाट जमीनदारांचा मुजोरपणा आणि ह्या सगळ्याशी लढणारा उनाड बापू आपल्याला अधिकच जवळचा वाटू लागतो याच सोबत बापूवर निस्सीम प्रेम करणारी, कुठल्याही बंधनात न अडकलेली ही राधा आपल्या मनात घर करून जाते,… त्या काळी लग्नाशिवाय बापू सोबत एकाच घरात राहून संसार करणारी ती राधा त्या काळची एक आधुनिक विचारांची स्वतंत्र स्त्री या कादंबरीत भेटते,.. गावात असणारे अण्णा खोत, दिनकर भाऊजी ,विठोबा, आणि राधेचा नवरा रावजी ही अशी कित्येक पात्र या कादंबरीत भेटतात,.. रावजी म्हणजे राधाचा नवरा हा एक क्रूर विचारांचा स्त्री स्त्रीला एक भोगवस्तू समजणारा नवरा राधेला याचा तिरस्कार आहे.. राधेच्या सौंदर्यामुळे आपल्या हॉटेलमध्ये गिराईक वाढतील या उद्देशाने हा रावजी राधेला हॉटेलमध्ये बसवत असे,.. 

अशाच एका क्षणी राधेला बापू भेटतो.. आणि रावजीसारख्या माणसाला तो आपल्या ताकतीने हरवू शकतो हे ती काही प्रसंगातून समजून चुकते… एक प्रकारचे सुप्त आकर्षण बापूबद्दल तिला आधीच वाटत असते त्यातूनच ती त्याला अनेक पदार्थ करून पाठवत असे आणि तेही रावजीच्या हातून.. कित्येक दिवसांनी रावजी मरून जातो आणि राधा पुन्हा एकदा एकटी पडते… पण समाजात आधीच गल्ल्यावर बसणारी म्हणून राधेची नाहक बदनामी झालेलीच असते, त्यातच आता तिला एकटेपणा येतो.  या सगळ्यात बापूचा आधार तिला वाटतो,… आणि कोणतीही पर्वा न करता ती बापूसोबत राहायला लागते याचवरून गावात सगळीकडे राधेने बापूला ठेवला अशीच तिची बदनामी सुरू होते… पण बापूचा हळव्या निर्मळ प्रेमामुळे या सगळ्याकडे दुर्लक्ष करून राधा आणि बापूचा संसार सुरू होतो या सगळ्या परिस्थितीत राधेची मानसिक घालमेल सुरू असते… बापूचं कितीही प्रेम असलं तरी या प्रेमाला गावात मान्यता नाही… आपण फक्त एक रखेल म्हणूनच ओळखले जातो याची खंत राधेला नेहमी वाटत असते… 

अशातच एक दिवस आप्पा दामले याची एन्ट्री या कादंबरीत होते… आणि राधा आणि बापूचं आयुष्य बदलून जातं..आप्पा दामले हे राधा आणि बापू विषयी ऐकून असतात आणि राधेच्या मनातील खंत ही त्यांना कळते तेंव्हा ते ह्यांना रजिस्टर लग्न करण्याचा सल्ला देतात.. अर्थात ह्या पुस्तकात दाखवलेला काळ म्हणजे केस ठेवलेला ब्राम्हण औषधाला ही सापडणार नाही इतका पूर्वीचा.. त्यात बापू सारखा उनाड कोकणी विक्षिप्त माणूस.. आधीच तो बदनाम मग हे लग्न कोण मान्य करणार असं बापू म्हणतो.. पण इथे हो राधाची हुशारी तिचं बुद्धी चातुर्य दिसुन येत.. गारंबी म्हणजे जग न्हवे.. म्हणत ती बापू सोबत लग्न करते…ह्या सगळ्या मध्ये बापू आणि राधेचा गांधर्व विवाह ही अगदी रोमँटिक आणि निखळ  प्रेमाचं प्रतिक वाटतं… बापू भल्या पहाटे राधेला बागेत घेऊन जातो आणि एक अनंताच फुलं देऊन तिच्याशी लग्न करतो.. तो क्षण तो परिसर ते लिखाण सगळचं कस मोहवून टाकत… तो पर्यंत बापू सुपारी चा मोठा व्यापारी बनतो आणि ज्या गावाने अक्करमाशा म्हणून हिणवलं तेच गावं बापुच कौतुक करताना थकत नाही.. ह्या सगळ्या प्रवासात बापूला मिळालेली राधेची साथ राधेच्या अजूनच प्रेमात पाडते.. मध्येच बापू एका महाराजांना भेटतो आणि बुवा बनतो तेंव्हा ह्या त्याच्या भोंदू पणाला राधेचा विरोध तिच्यातल वेगळेपण दाखवून देतो.. व्याघ्रेश्वर त्याच्यावर असणारी श्रद्धा जेंव्हा अंधश्रद्धेचे रूप घेते तेव्हा राधा त्याला कडाडून विरोध करते.,. बाळाच्या जन्मानंतर राधेची एक वेगळीच ओळख आपल्यासमोर येते.. बापूचं विक्षिप्त वागणं, घर सोडून बाहेर राहणं, अस असलं तरी राधेचं बापू वरील प्रेम जराही कमी होत नाही.. काही दिवसांनी बापूलाही आपला भोंदूपणा कळतो मग तो तेव्हा तो राधेकडे परत येतो आणि पुन्हा एक नवी कहाणी सुरू होते.. सगळ्यात अजून बऱ्याच घटना घडवून जातात…. काय आहेत किती उत्कंठा वर्धक आहेत.. हे जाणून घेण्यासाठी प्रत्येकीने किमान एकदा तरी गारंबीची राधा आणि गारंबीचा बापू वाचलंच पाहिजे… 

जवळजवळ दहा ते बारा वर्षांपूर्वी वाचलेल्या पुस्तकावर मी आज अभिप्राय लिहिलाय त्यामुळे त्यात बऱ्याच चुकाही असतील,.. प्रसंग मागे पुढे झालेले असतील त्या तुम्ही सगळे पुस्तक वाचाल आणि दुरुस्त कराल याची खात्री आहे…

धन्यवाद..

लेखक : श्री ना. पेंडसे

परिचय : सौ. अलका ओमप्रकाश माळी

मोब. 8149121976

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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