हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – असहाय औरत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  असहाय औरत ??

आकाश आज

फिर उतरा था

ज़मीन पर,

जाति संघर्ष में

पति और

दो मासूम बच्चों की

चिता जलाती

असहाय औरत के लिए

धरती छोटी पड़ गई थी।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 8 – मुफ्ताटैक ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अजीब समस्या)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 8 – मुफ्ताटैक ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

राजस्व विभाग में मेरा काम मुफ्त में हो गया। इतनी खुशी मुझे जीवन में कभी नहीं मिली थी। एक बार के लिए मैं मूर्छित होने वाला था। वो तो मेरे परिजनों ने मुझे सही समय पर डॉक्टर के पास पहुँचाया। डॉक्टर ने मेरे परिजनों को बताया कि मुझे मुफ्ताटैक का दौरा पड़ा है। इन्हें ज्यादा खुश होने के अवसर मत दीजिए। नहीं तो आगे इन पर फिर से इस तरह का दौरा पड़ सकता है।

मुझे घर पर लाया गया। कुछ दिन बीते। एक दिन अचानक मेरी बंजर भूमि के लिए किसान फसल योजना के पैसे मेरे खाते में जमा होने लगे। मैं दिल्ली का किसान हूँ। यहाँ केवल राजनीति नहीं होती। कभी-कभी चमत्कार भी होते हैं। मैंने जीवन में कभी खेती नहीं की। इसलिए बिन उगाई फसल के लिए पैसे मिलने लगे तो किसे खुशी नहीं होगी। मुझे फिर से मुफ्ताटैक का दौरा पड़ने ही वाला था कि बेटे ने आकर बताया कि सरकार ने केवल आधे पैसे जमा किए हैं और आना बाकी है। जैसे-तैसे मैं मुफ्ताटैक से बच पाया।

मैं आधार कार्ड से बूढ़ा हो चला हूँ। इसलिए वृद्ध पेंशन योजना का लाभार्थी हूँ। असलियत में मेरी उम्र कुछ और है। उम्र ऐसी कि मैं कहीं भी नौकरी कर सकता हूँ। लेकिन जब बैठे-बिठाए चार पैसे मिल रहे हों, तो भला कोई नौकरी क्यों करेगा। कभी-कभी मेरा ईमान जाग उठता था। चुल्लू भर पानी में डूब मरने की इच्छा भी होती थी। हाय मैं यह भी न कर सका, क्योंकि सरकार मुफ्त का पानी चुल्लू भर की मात्रा से अधिक देती थी।     

मैं अपनी इकाई से कम सरकार की इकाई से ज्यादा चलता हूँ। सरकार ने फलाँ इकाई तक बिजली मुफ्त कर दी थी। इसलिए मैंने उस इकाई को कभी पार नहीं की जहाँ मुझे सरकार को एक रुपया भी देना पड़े। कहते हैं मुफ्त की आदत पड़ जाए तो कैंसर और एड़स की बीमारियाँ भी बौने लगने लगती हैं। कभी-कभी तो लगता है कि मुफ्त की फिनाइल पैसे देकर खरीदे गए दूध से भी अधिक मजा देता होगा। मैं जब भी टीवी चलाता हूँ तो एक नई उम्मीद जाग उठती है कि आज सरकार कौनसी मुफ्त योजना लाने जा रही है। अब मुझे मुफ्तखोरी की आदत पड़ गई है। बीवी-बच्चों को भी मुफ्तभोगी बनने की ट्रेनिंग देता रहता हूँ। वे समझदार हैं। इसीलिए काम की तलाश से ज्यादा मुफ्त स्कीमों की खोज में लगे रहते हैं। मुझे गर्व है कि वे मुझ पर गए हैं। अब तो डॉक्टरों का कहना है कि मुझे मुफ्ताटैक का दौरा नहीं पड़ सकता, क्योंकि उन्होंने मुझे अनंत इच्छाओं की डोज़ वाली दवा लेने की सलाह जो दी है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 287 ☆ आलेख – राष्ट्रीय एकता के प्रवर्तक “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” उर्फ शहीद उधमसिंह ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – राष्ट्रीय एकता के प्रवर्तक “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” उर्फ शहीद उधमसिंह। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 287 ☆

? आलेख – राष्ट्रीय एकता के प्रवर्तक “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” उर्फ शहीद उधमसिंह ?

सरदार उधमसिंह की फिलासफी सदैव सर्वधर्म समभाव और राष्ट्रीय एकता की रही।

उन्होने आत्मनिर्भर होते ही अमृतसर में पेंटर केरूप में एक दूकान शुरू की थी, जिस पर अपना नाम “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” लिखा था, तब उनकी आयु मात्र २० बरस रही होगी । डायर की हत्या के बाद भी जब उनकी उम्र ४० बरस थी उन्होंने पोलिस को अपना यही स्वयं से स्वयं को दिया गया नाम “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” ही बताया था। वे इस नाम को हिन्दू, मुस्लिम, सिख एकता के प्रतीक केरूप में देखते थे। जीवन पर्यंत सरदार उधमसिंह राष्ट्रीय एकता के प्रबल समर्थक रहे, वे दुनियां भर में हर भारतवंशी को अपने भाई की तरह भारतीय ही देखते रहे।

आज जब देश में धर्म और जातिगत ध्रुवीकरण, आरक्षण की राजनीति हो रही है तो यदि वे होते तो उन्हें कितना दुख होता, कल्पनातित है। आज जब सरदार उधमसिंह की जाति कम्बोज, अर्थात पंजाब के चर्मकार ढ़ूढ़ ली गई है, और देश की आजादी में दलित जातियों का योगदान जैसे विषयों पर दिल्ली के विश्वविद्यालय में संगोष्ठी के आयोजन हो रहे हैं, या ऐसे राष्ट्रीय एकता के विघटनकारी विषयों पर पी एच डी के शोध कार्य किये जा रहे हैं, तो भले ही सामाजिक अध्ययन की दृष्टि से यह सब कितना ही उचित क्यों न हो किन्तु यह उस शहीद उधमसिंह की आत्मा को शांति देने वाला नहीं हो सकता जिसने अपना नाम ही “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” रख लिया था  ।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 383 ⇒ प्यार की भूख… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ककहरा।)

?अभी अभी # 383 ⇒ प्यार की भूख? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भूख प्यास का आपस में वही संबंध है, जो दुःख दर्द का है, धूप छांव का है, दिन रात का है, जमीन आसमान का है, शरीर और आत्मा का है। हमें भूख भी लगती है और प्यास भी। भूख भोजन से ही मिटती है, और प्यास सिर्फ पानी से ही। कभी हम प्यासे मरते हैं, तो कभी भूखे। प्यासे को पानी, और भूखे को रोटी ही चाहिए।

प्यास कई तरह की होती है। हम यहां प्यार की प्यास की बात कर रहे हैं।

प्यार की प्यास किसे नहीं होती। क्या धरती और क्या आकाश, सबको प्यार की प्यास। प्यास और प्यार की कोई परिभाषा नहीं। संसार में इन दोनों का कोई विकल्प नहीं।।

क्या प्यार की भूख भी होती है। क्या भूख और प्यास की तरह हमें प्यार की प्यास और प्यार की भूख का भी अहसास होता है। शायद होता हो, लेकिन हमने कभी इस पर ध्यान ही नहीं दिया। प्यार की भूख प्यास क्या अलग अलग होती है।

कहीं कहीं, केवल प्यार से बोले दो मीठे शब्द ही यह काम कर जाते हैं, तो कहीं कहीं स्पर्श की भी आवश्यकता होती है। गर्मजोशी से हाथ मिलाना, गले मिलना, मां को बच्चे को बेतहाशा चूमना चाटना यह प्यार की प्यास है या प्यार की भूख, कहना आसान नहीं। बच्चे को भी प्यार की भूख होती है, हम उसके गाल पर पप्पी देते हैं, उसकी भूख शांत हो जाती है। आवेश, आलिंगन भी प्यार की भूख प्यास के ही संकेत हैं। अगर आप इसे अलग कर सकें तो करें।।

प्यार के मनोविज्ञान में हम नहीं चाहते, महात्मा फ्रायड दखलंदाजी करें। क्योंकि यही प्यार की भूख प्यास जब मीरा की राह पकड़ लेती है, तो मामला जिस्मानी से रूहानी हो जाता है। शायर इसे अपनी जबान में इस तरह बयां करता है ;

ये मेरा दीवानापन है

या मोहब्बत का सुरूर।

तू ना समझे तो है ये

तेरी नजरों का कुसूर।।

इंसान के पास तो जुबान है, वह अपनी बात कह सकता है, लेकिन जो पशु पक्षी बेजुबान हैं, क्या उनको भी प्यार की भूख प्यास का अहसास होता है। बिना प्रेम के कोई पशु पक्षी आपके पास नहीं फटकने वाला। जो सभी बेजुबान पशु पक्षियों को एक ही लठ से हांकते हैं, उन्हें जल्लाद कहा जाता है, इंसान नहीं।

गाय कुत्तों से हमारा बचपन से साथ रहा है। हमने इन्हें कभी पाला नहीं, बस जब कभी सामने आए, एक रोटी डाल दी और उन्हें पुचकार लिया, गाय की पीठ पर हाथ फेर दिया। गाय का शरीर प्रेम का स्पर्श पा सिहर उठता है, और कुछ ही देर में वह मुंह ऊंचा कर देती है, इस अपेक्षा के साथ कि आप उसकी गर्दन पर भी हाथ फेर देंगे। चौपायों के कहां हाथ होते हैं। इस वक्त हमें हमारी पीठ याद आ जाती है, जहां तक हमारे पूरे हाथ नहीं पहुंच पाते।।

पालतू पशु पक्षियों की अच्छी देखभाल होती है, अतः सावधानीपूर्वक उन्हें स्पर्श किया जा सकता है।

कुत्ता तो वैसे ही स्वामिभक्ति के लिए बदनाम है। स्वामी के लिए भक्ति का भाव कहें, अथवा कृतज्ञता का भाव, वह उसके चेहरे पर साफ झलकता है। इन प्राणियों का भाव इनकी आंखों में आसानी से पढ़ा जा सकता है। इनकी आंखें प्यार के लिए तरसती हैं, ये हमेशा प्यार के भूखे होते हैं।

उम्र और समझ में छोटे, लेकिन आकार में बड़े, इनके साथ बच्चे भी खेलते हैं, और बड़े भी।

बच्चों को इनके पिल्लों के साथ खेलने में बड़ा मजा आता है। आखिर उस उम्र में उनमें कहां भेद बुद्धि। फिर भी बड़ों की डांट तो खानी ही पड़ती है, छि: चलो घर, चलो हाथ पैर धोओ।

अगर इन पालतू कुत्तों को अनुशासित नहीं किया जाए, तो कभी कभी इनका प्यार महंगा भी पड़ सकता है। वह नासमझ प्राणी चाहता है, आप उसके साथ बच्चों की तरह खेलो। इस लाड़ प्यार में कभी उसके नाखून तो कभी उसके दांत आपको नुकसान पहुंचा सकते हैं। आखिर है तो वह जानवर ही।।

पक्षियों को पिंजरे में रखना अपराध है, फिर भी तोता पालना हमारी पुरानी परम्परा है। भागवत कथाओं में तो आपको, कहीं ना कहीं, एक शुकदेव जी पिंजरे में नजर आ ही जाएंगे। प्यार तो प्यार है, घरों में मछलियां भी पाली जाती हैं और कछुआ और खरगोश भी।

अजीब है यह, प्यार की भूख प्यास, कभी लौकिक, कभी अलौकिक ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #173 – लघुकथा – एक और फोन कॉल… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा एक और फोन कॉल..)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 173 ☆

☆ लघुकथा – एक और फोन कॉल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

फोन की घंटी बजती तो पूरे परिवार में सन्नाटा छा जाता। किसी की हिम्मत ही नहीं होती फोन उठाने की। पता नहीं कब, कहाँ से बुरी खबर आ जाए। ऐसे ही एक फोन कॉल ने तन्मय के ना होने की खबर दी थी।  तन्मय कोविड पॉजिटिव होने पर खुद ही गाडी चलाकर गया था अस्पताल में एडमिट होने के लिए। डॉक्टर्स बोल रहे थे कि चिंता की कोई बात नहीं, सब ठीक है। उसके बाद उसे क्या हुआ कुछ समझ में ही नहीं आया।अचानक एक दिन अस्पताल से फोन आया कि तन्मय नहीं रहा।  एक पल में  सब कुछ शून्य में बदल गया। ठहर गई जिंदगी। बच्चों के मासूम चेहरों पर उदासी मानों थम गई।  वह बहुत दिन तक समझ ही नहीं सकी कि जिंदगी  कहाँ से शुरू करे। हर तरह से उस पर ही तो निर्भर थी अब जैसे कटी पतंग। एकदम अकेली महसूस कर रही थी अपने आप को। कभी लगता क्या करना है जीकर ? अपने हाथ में कुछ है ही नहीं तो क्या फायदा इस जीवन का ? तन्मय का यूँ अचानक चले जाना भीतर तक खोखला कर गया उसे।

ऐसी ही एक उदास शाम को फोन की घंटी बज उठी, बेटी ने फोन उठाया।  अनजान आवाज में कोई कह रहा था – ‘बहुत अफसोस हुआ जानकर कि कोविड के कारण आपके मम्मी –पापा दोनों नहीं रहे।  बेटी ! कोई जरूरत हो तो बताना, मैं आपके सामनेवाले फ्लैट में ही रहता हूँ।’

बेटी फोन पर रोती हुई, काँपती आवाज में जोर–जोर से कह रही थी – ‘मेरी मम्मी जिंदा हैं, जिंदा हैं मम्मा। पापा को कोविड हुआ था, मम्मी को कुछ नहीं हुआ है। हमें आपकी कोई जरूरत नहीं है। मैंने कहा ना  मम्मी —‘

और तब से वह जिंदा है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 207 ☆ वेदवाणी माँ सरस्वती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 207 ☆

वेदवाणी माँ सरस्वती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

वेदवाणी माँ सभी का

आप ही जीवन सँवारो

ज्ञान का आलोक देकर

तमस से सबको उवारो।।

दूर हो अज्ञान सब ही

आप संशय को मिटा दो

जगत की करके भलाई

हर तमिस्रा को हटा दो

 *

तेज से परिपूर्ण कर दो

दुर्गणों से आप तारो।

ज्ञान का आलोक देकर

तमस से सबको उबारो।।

 *

आप ही सद्बुद्धि देना

विश्व का कल्याण करना

मन , हृदय में प्रेम भरकर

नव सुरों की तान भरना

 *

पाप, कष्टों से बचाकर

जिंदगी को आप वारो।

ज्ञान का आलोक देकर

तमस से सबको उबारो।।

 *

दुःख सारे दूर कर दो

कीर्तियों से आप भर दो

मूर्खता, आलस्य, जड़ता

आदि सब अज्ञान हर दो

 *

आप हो ऐश्वर्यशाली

हर बुराई आप मारो।

ज्ञान का आलोक देकर

तमस से सबको उबारो।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ निवडणूक ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ निवडणूक… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

धूम धडाका अजब तडाखा निवडणुकीचा वाजे डंका

चला उठा हो मामा काका जाहिर झाल्या पहा तारखा

*

सावध होऊन घ्या कानोसा पत्रकांवरी नको भरोसा

शुभ कार्याला विलंब कैसा मतदारांची यादी तपासा

*

उमेदवार दाराशी येतील हसून मुजरा तुम्हा घालतिल

“मायबाप” तुम्हाला म्हणतील आशीर्वाद वाकून मागतिल

*

ठणकावून सांगावे त्यांना जोगवा मागत नका फिरू

तुंबडी अपुली भरण्यासाठी नका आम्हाला गृहित धरू

*

 सभेतील डरकाळी गर्जना मिळतो टाळ्यांचा नजराणा

झटपट होता तुम्ही धनवान अमुच्या माथी मात्र वंचना

*

उक्ती मनोहर शून्य कृती तळमळतो आहे मतदार

शिकवील तुम्हा धडा चांगला अमुच्या धमन्यातील एल्गार

*

बदल आम्हा अमुलाग्र हवा विचार हा पक्का झाला

या मतपेटीमधून आता, उठतिल क्रांतीच्या ज्वाला

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अपेक्षांच्या वेलीवर… ☆ मेहबूब जमादार ☆

मेहबूब जमादार 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अपेक्षांच्या वेलीवर… ☆ 🖋 मेहबूब जमादार

अपेक्षांच्या वेलीवर समस्यांची फुले

स्वप्नांचा झोपाळा मुक्त हवेवर झुले ….

*

मोकळ्या हवेत उडत जाती पक्षी

पहा कशी नभात सुंदरशी  नक्षी

आनंदाच्या तरंगी  नाचती सारी मुले …..1

*

निसर्ग देतो सारे  तरी सारे उणे

सारे असता मनी प्रश्नांचे तुणतुणे

का उठतो कल्लोळ सारे असे  खुले …..2

*

कमी करा गरजा  नाही लागत पैसा

रहा  समाधानी जरी रिकामा खिसा

वठलेल्या  झाडांना कशी येतील  फळे …3

*

पाहिले परी हटेना क्षितीजावरिल धूळ

 समजावले मना तरी धरून तेच  खूळ

सारवले कितीदा तरी उखडून जाते खळे …4.

*

अपेक्षा आणि गरजांचा धरू नको राग

शांतवेल ज्वालामुखी निवळेल  त्याची धग

मृग  बरसता   फुलतील आनंदाचे मळे…5

© मेहबूब जमादार

मु. कासमवाडी,पोस्ट -पेठ, ता. वाळवा, जि. सांगली

मो .9970900243

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ११ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ११ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- मी प्रकाशवाटेच्या उंबरठ्यावर उभा होतो.ते सर्वांना दिलासा देणारं असं एक अनोखं वळण होतं. आता अनिश्चिततेचा लवलेशही माझ्या मनात नव्हता. मला सोमवारी स्टेट बँकेच्या वरळी ब्रॅंचला जॉईन व्हायचं होतं. त्या क्षणी यापेक्षा जास्त आनंददायी दुसरं कांही असूच शकत नव्हतं. त्या आनंदासोबत मनात होती एक प्रकारची आतूर उत्सुकता! पण..? ते सगळं माझ्यासाठी अळवावरचं पाणीच ठरणार होतं याची मला कल्पना कुठं होती?)

रविवारी मी अंथरुणाला पाठ टेकली पण रात्रभर झोप लागलीच नाही. मनातला अंधार विरून गेला होता. मन हलकं होऊन स्वप्नरंजनात तरंगत होतं. त्यामुळे पुरेशी झोप झाली नसूनही रात्र क्षणार्धात सरुन गेल्यासारखं वाटलं.पहाट होताच मी उत्साहाने उठलो.लगबगीने सगळं आवरलं. बहिणीने दिलेला पोळी-भाजीचा डबा घेऊन मी बँकेत जाण्यासाठी तयार झालो. देवाला आणि घरी सर्वांना नमस्कार करून बाहेर पडलो.

बसमधून उतरताच चटके देणाऱ्या उन्हात झपाझप चालत स्टेट बँकेच्या वरळी ब्रॅंचसमोर येऊन क्षणभर थबकलो. वरळी ब्रॅंचची समोरची ही प्रशस्त इमारत हेच आता मला उत्कर्षाकडे नेणारं माझं भविष्य होतं जे माझ्या स्वागतासाठी जणू सज्ज होतं! स्वप्नवत वाटाव्या अशा त्या क्षणी मी भारावून गेलो होतो.त्याच मनोवस्थेत ब्रॅंचचं काचेचं जाड प्रवेशद्वार अलगद ढकलून मी आत पहिलं पाऊल टाकलं. रणरणत्या उन्हातून आत आलेल्या माझं ए.सी.च्या गारव्याने प्रसन्न स्वागत केलं होतं! जणूकांही त्याक्षणी मला जे हवं ते हवं त्यावेळी प्रथमच मिळत होतं!

मी रिसेप्शन काऊंटरकडे गेलो.

“येस प्लीज..?” रिसेप्शनिस्टने माझं हसतमुखाने स्वागत केलं. तिला विश करून मी माझं ‘जॉईनिंग लेटर’ तिच्याकडे सुपूर्द केलं. तिने त्या पत्रावरून नजर फिरवली.माझं नाव वाचताच ती थोडी गंभीर झालीय असा मला भास झाला. मी तो विचार क्षणार्धात झटकून टाकला. ती काही बोलेल म्हणून वाट पहात उभा राहिलो. क्षणभर विचार करून तिने मला बसायला सांगितलं आणि ती इंटरकाॅम वरून कुणाशीतरी बोलू लागली.

‘असू दे. इट इज अ पार्ट ऑफ हर जॉब ‘.. माझ्या मनानं तिच्या शब्दात माझी समजूत घातली. मी तिचं बोलणं संपायची वाट पहात राहिलो.

एक एक क्षण मला आता युगायुगासारखा वाटू लागला.

रिसिव्हर खाली ठेवून लगेचच तिनं मला बोलावलं.ती काहीशी गंभीर झाली होती.

“मि.लिमये…आय अॅम साॅरी.. पण… तुम्हाला जॉईन करून घेता येणार नाहीये…”

“कां..?”

“युवर मेडिकल रिपोर्ट इज नॉट फेवरेबल. यू आर मेडिकली अनफिट…”

ऐकून मला धक्काच बसला. माझ्या पायाखालची जमीन सरकत असल्याचा मला भास झाला. खुर्चीचा आधार घेत मी स्वतःला सावरलं. माझ्या हातातून खूप मौल्यवान असं कांहीतरी निसटून जात होतं आणि ते प्राणपणाने घट्ट धरून ठेवण्यासाठी मीच धडपड करायला हवी होती.

“क..काय?कसं शक्य आहे हे? मी..मी..ब्रॅंच मॅनेजरना भेटू..? प्लीज…?”

“ही इज आॅल्सो हेल्पलेस.जस्ट नाऊ आय टाॅक्ड वीथ हिम ओन्ली.यू मे कॉल ऑन अवर मेडिकल आॅफिसर, डाॅ.आनंद लिमये.ही इज द राईट पर्सन टू टेल यू द करेक्ट रिझन…”

मी नाईलाजाने मनाविरुद्ध जड पावलांनी पाठ फिरवली. सोबतचा बहिणीने निघताना दिलेला पोळीभाजीचा डबा मला आता खूप जड वाटू लागला. नि:शक्त झाल्यासारखी हातापायातली शक्तीच निघून गेली जशीकांही.

मी मघाच्या त्याच काचेच्या जाड दारापाशी येऊन थबकलो. काही वेळापूर्वी अतिशय उत्साहाने हेच दार ढकलून मी आत आलो होतो तेव्हा ए.सी.च्या थंडाव्याने केलेलं माझं स्वागत ही एक हूलच होती तर. आता तेच दार ढकलून मी पुन्हा बाहेरच्या रणरणत्या उन्हात पाऊल टाकलं तेव्हा बाहेरच्या उन्हाचे चटके अधिकच तीव्र झालेले होते!

‘कां?’आणि ‘कसं?’ या मनातल्या प्रश्नांना त्या क्षणी तरी उत्तर नव्हतंच.’आता पुढं काय?’

हा प्रश्न अनुत्तरीत होऊन मनातच लटकत राहिला. त्याही परिस्थितीत मी स्वतःला कसंबसं सावरलं.आता ‘डॉ.आनंद लिमये’ हाच एकमेव आशेचा किरण होता. त्यांचं सौम्य,हसतमुख, तरुण व्यक्तिमत्त्व नजरेसमोर आलं आणि त्यांचा खूप आधार वाटू लागला….!

माझी पावलं नकळत त्यांच्या क्लिनिकच्या दिशेने चालू लागली. मी अंधाराच्या खोल गर्तेत ढकलला गेलो होतो आणि आता काडीच्या आधारासाठी धडपडत होतो! मला अचानक बाबांनी दिलेल्या दत्ताच्या फोटोची आठवण झाली. एखाद्या प्रतिक्षिप्त क्रियेसारखा मी माझ्या शर्टचा खिसा चाचपला.पण….?पण.. तो फोटो नेहमीसारखा आठवणीने खिशात ठेवलेलाच नव्हता. सकाळी निघतानाच्या गडबडीत माझ्याही नकळत मी तो घरीच विसरलो होतो! त्या अस्वस्थतेतही माझी पावलं मात्र न चुकता ‘डॉ.आनंद लिमये’ यांच्या क्लिनिक समोर येऊन थांबली होती…!

माझं भवितव्य आता सर्वस्वी फक्त त्यांच्याच हातात होतं!!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अत्रंगी… लेखक : रवीकिरण संत ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? जीवनरंग ?

☆ अत्रंगी… लेखक : रवीकिरण संत ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर ☆

तीन हा माझा अत्रंगी आतेभाऊ! वयाने माझ्याहून चार वर्षे लहान. बालपण त्याने आणि मी पुरेपूर एन्जॉय केले. आमची जाॅइंट फॅमिली नव्हती, पण घरे जवळ होती. त्यामुळे बरेचदा एकत्र रहाणे,जेवणे व्हायचे.

बाळाचे पाय पाळण्यात दिसतात, तसे त्याचे उद्योग आम्हाला चढत्या क्रमाने पहायला मिळाले. घरातील वातावरण बऱ्यापैकी धार्मिक. संध्याकाळी नितीन दिवेलागणीला हातपाय धुवून देव्हाऱ्यासमोर हात जोडून ‘शुभंकरोती’ म्हणायचा. कारण ह्यामुळे देव चांगली बुद्धी देईल, असे आत्याने त्याच्या मनावर बिंबवले होते.

नितीन अजिबात अभ्यास करत नसे. पहिलीत असताना सहामाही परीक्षेत नापास झाला, म्हणून आत्याने त्याला चांगलेच बदडले. त्यानंतर रात्री निजानीज झाल्यावर स्वयंपाक घरातून खलबत्त्याने कुटण्याचा आवाज येऊ लागला. आत्याने उठून, दिवा लावून पाहिले, तो काय, हा देव्हाऱ्यातल्या देवांना खलबत्त्यात घालून कुटत होता !

“अरे हे काय करतोस?” असे आत्याने विचारल्यावर ,” ह्यांचं इतकं केलं,पण काही जाण आहे का बघ! ” हे आत्याने नणंदाना कधीतरी उद्देशून बोललेले वाक्यच त्याने चपखलपणे तिला ऐकवले.

व्हा नितीन सात वर्षांचा झाला, तेव्हापासून जास्तच मस्ती करू लागला. माझी आत्या त्याच्या उपद्व्यापांनी हैराण व्हायची. त्यावरून त्याला ओरडाही मिळे. एकदा तो आत्याला म्हणाला,” आई, तूझ्या अशा आरडाओरड्याने चाळीत मला वेडीचा मुलगा म्हणतात!” ह्यावर आत्याला हसावे की रडावे हे कळेना.

तो चौथीत असताना, १९७० सालच्या १४ नोव्हेंबरला शाळेत बालदिनानिमित्त वक्तृत्व स्पर्धा ठेवली होती. एकामागून एक मुले चाचा नेहरूंबद्दल भरभरून बोलत होती. पण नितीनचे भाषण हे स्वयंभू होते. नितीन बोल्ड तर होताच, पण सभाधीटही आहे हे मला त्यावेळी कळले. मी तेव्हा आठवीत होतो.        नितीन स्टेजवर उभा राहिला. एक नजर सर्वांवर फिरवून तो बोलू लागला –

“आज मी आपल्या सर्वांचे लाडके चाचा नेहरू यांच्याबद्दल चार शब्द सांगणार आहे.

चाचा नेहरूंचा जन्म १४ नोव्हेंबरला झाला. त्यांना मुले फार आवडायची. मुले दिसली की सर्व कामे सोडून ते मुलांत खेळत बसायचे. ते मोठे असल्यामुळे मुलेही त्यांना चाचा चाचा असे म्हणायची.

ते मुलांची खूप मस्करी करीत,” पुढे नक्कल करत नितीन सांगू लागला –

“चाचा त्यांना जीभ काढून वेडावून दाखवत.

त्यांचे केस ओढत.

त्यांचे गालगुच्चे घेत.

त्यांना टपला मारीत.

त्यांचे नाक ओढत.

त्यांच्या पोटाला चिमटे काढत.

त्यांच्या काखेत गुदगुल्या करत.

त्यांचे कान ओढून लांब करत.

त्यांना उचलून सूर्याची पिल्ले दाखवत.”

– – अशा रीतीने स्वतः करत असलेले सर्व चाळे तो नेहरूंच्या नावावर खपवू लागला तसतसे सर्व शिक्षक खो खो हसू लागले.हसण्याच्या गदारोळात आम्हाला पुढचे महत्त्वाचे मुद्दे ऐकूच आले नाहीत!

नितीनला बक्षीस मिळाले नाही, पण पुढचे बरेच दिवस ते भाषण आठवून सर्वजण, विशेषतः शिक्षक हसत होते.

त्यानंतर तो पाचवीत असताना १ ऑगस्टला टिळक पुण्यतिथीनिमित्त शाळेने वक्तृत्व स्पर्धा ठेवली होती. गतवर्षीच्या अनुभवानंतर एक अट ‘सांस्कृतिक शिक्षणा’च्या सरांनी स्पर्धेसाठी  घातली होती, ती म्हणजे कोणीही भाषणात शेंगा-टरफले आणि संत-स न त-सन्त हे शब्द जरी आणले तर याद राखा, इतर काहीही चालेल. याला कारण असे होते की बहुतेक सर्व मुले हेच किस्से अगदी अजीर्ण होईपर्यंत सांगत.

त्यामुळे प्रथमच मंडालेच्या तुरुंगात लिहिलेला गीतारहस्य ग्रंथ, ‘सरकारचे डोके ठिकाणावर आहे का?’सारखा अग्रलेख वगैरे नवी माहिती मिळाली.

मग नितीनचा भाषणासाठी नंबर आला. नेहमीच्या सहजपणे त्याने “लोकमान्य टिळकांचा जन्म रत्नागिरी जिल्ह्यातील चिखली ह्या गावी झाला,”अशी दमदार सुरवात केली. – –  ” टिळकांची आई त्यांना रोज जेवणाचा डबा द्यायची. पण काही मुलांच्या आयांनी एकदा तो दिला नाही. मग त्या मुलांना खूप भूक लागली. शेवटी नाईलाजाने शाळेबाहेर गाडी लावून बसणाऱ्या भय्याकडून ते काही खाण्याच्या वस्तु घेऊन आले. त्या कोणत्या ते मी तुम्हाला सांगणार नाही.(असे म्हणून त्याने एकदा ‘सांस्कृतिक शिक्षणा’च्या सरांकडे पाहिले.) त्या वस्तू खाल्ल्यावर साहजिकच वर्गात कचरा झाला. सरांनी ‘हा कोणी केला’, असे दरडावले. कोणीच कबूल करेना, तेव्हा त्यांनी सर्वांना छडीने मारायला सुरवात केली. टिळकांपाशी येताच ‘मी तर डबा आणला होता’ असे म्हणून आपला रिकामा डबा त्यानी दाखवला व छडी घ्यायला नकार दिला. तसेच ‘इकडे तिकडे लक्ष न देता जेवण खाली मान घालून जेवावे अशी आईची शिकवण आहे म्हणून मी कचरा करणाऱ्यांकडे पाहिलेही नाही’ असेही ते म्हणाले.”

पुढे तो सांगू लागला, “एकदा मराठीच्या तासाला निबंध लिहीत असताना एकच शब्द तीन वेळा आला. तो कोणता हे मी तुम्हाला सांगणार नाही.( इथे पुन्हा एकदा नितीनने ‘सांस्कृतिक शिक्षणा’च्या सरांकडे पाहिले तर ते रागाने थरथर का कापताहेत हे त्याला कळेना ) पण टिळकांनी तीनही वेळेला तो वेगवेगळ्या प्रकाराने लिहिला. तेव्हा त्यांचे सर रागावले आणि त्यांनी फक्त पहिला बरोबर ठरवून पुढचे दोन शब्द चुकीचे ठरवले. पण टिळकांनी विक्रमादित्यासारखा आपला हट्ट सोडला नाही. ते म्हणाले, ” जर माझे पुढचे दोन शब्द चुकीचे असतील, तर माझ्या डोक्याची शंभर छकले होऊन माझ्याच पायावर लोळू लागतील.” यावर सरांनी पाच मिनिटे वाट पाहिली. पण तसे काही न झालेले पाहून पुढचे दोन्ही शब्द बरोबर ठरवले. तर मुलांनो, यातून आपल्याला खूप शिकण्यासारखे आहे. एवढे बोलून मी माझे भाषण संपवतो. जय हिंद.”

यावेळीही त्याला बक्षीस मिळाले नाही. पण त्यानंतर त्याच्या भाषणाला सर्व शिक्षक आवर्जून हजेरी लावू लागले.

नितीन नेहमी ऐकीव गोष्टीत आपला मालमसाला मिसळून ठोकून भाषण करीत असे. 

सातवीत असताना एकदा तर त्याने कहरच केला आणि त्यानंतर त्याची शाळेत मुख्याध्यापकांनी यथेच्छ धुलाई केली.

त्याचे असे झाले की २ ऑक्टोबरला गांधी जयंतीनिमित्त शाळेत वक्तृत्व स्पर्धा आयोजित केली होती.

नितीनने, “अध्यक्ष महोदय, उपस्थित गुरूवृंद आणि वर्गमित्रांनो,” अशी छान सुरुवात केली.

महात्मा गांधींचा जन्म २ ऑक्टोबरला पोरबंदर येथे झाला. लोक त्यांना आदराने बापूजी म्हणायचे. ते अभ्यासात हुशार होते.  वकिली परीक्षा पहिल्या फटक्यात पास झाले.

त्यावेळी आपला भारत देश पारतंत्र्यात होता. इंग्रजांचे राज्य होते. इंग्लंडच्या कारखान्यात बनलेल्या वस्तूंनी बाजार भरले होते. अशावेळी बापूजींनी गावोगाव हिंडून स्वदेशीचा प्रचार केला. पॅण्ट- शर्ट घालणे सोडून ते फक्त पंचा वापरू लागले. एका हातात काठी आणि कमरेला पंचा अशी त्यांची मूर्ती पायी फिरून जनजागृती करू लागली. पंचाचा एक फायदा असा की प्रवासात सामानाचे ओझे नको. आंघोळ केली की आदल्या दिवशी घातलेल्या पंचाने अंग पुसायचे मग तो ओला झालेला पंचा वाळत टाकायचा आणि दुसरा वाळलेला गुंडाळला की झाले!   

लोकांना त्यांनी निर्भय होऊन इंग्रजांशी सामना करा, पण अहिंसा पाळा असे सांगितले. इथे लोक थोडे विचारात पडले, की मग काठी कशासाठी? बर्‍याच विचाराअंती लोकांच्या लक्षात आले की रात्री- अपरात्री फिरताना जर भटकी कुत्री मागे लागली तर त्यांना हाकलण्यासाठी ते योग्य साधन होते. 

बापूजी नेहमी बकरीचे दूध पित. कारण सतत बाहेर राहिल्यामुळे घरची गाय त्यांना ओळखेनाशी झाली. ते दूध काढण्यासाठी समोरून गेल्यावर ती शिंगे उगारू लागली व पाठीमागून गेल्यावर लाथा झाडू लागली. मग कंटाळून त्यांनी बकरीच्या दुधाचा पर्याय निवडला. 

आता भाषण ऐकणार्‍या शिक्षक वृंदात थोडी चुळबुळ सुरू झाली. मुख्याध्यापक अस्वस्थपणे ह्या हातातील वेताची छडी त्या हातात फिरवू लागले. आणि अचानक नितीनने बाॅम्ब टाकला !

” गांधीजींना दोन पत्न्या होत्या, एक कस्तुरबा आणि दुसरी विनोबा…” नितीनचे वाक्य पूर्ण व्हायच्या आत चार ढेंगात मुख्याध्यापक त्याच्यापर्यंत पोहोचले. सपकन् वेताची छडी त्याच्या पायावर बसली. तसा तो कळवळून खाली बसला. पुढे त्याची यथेच्छ धुलाई झाली. पालकांना बोलावण्याचे फर्मान सुटले. 

नंतर त्याला कोणत्याही विषयावर भाषण करण्याची मनाई केली गेली, असे कळले.

पुढे मी SSC होऊन काॅलेजला गेलो. त्यानंतर इंजिनीअर होऊन नोकरीसाठी बाहेरगावी गेलो. नितीनच्या भेटी कमी झाल्या. माझ्या लग्नाला मात्र तो आत्यासह आला होता. पुढे तोही B.Com होऊन महाराष्ट्र बँकेत नोकरीला लागल्याचे कळले. 

एकदा गणपतीत १० दिवसांची सुट्टी घेऊन घरी आलो असता नितीनच्या लग्नाची तयारी सुरू असल्याचे कळले. मी लगोलग आत्याच्या घरी गेलो. तेथे आत्या चार- सहा मुलींचे फोटो व माहिती घेऊन बसली होती. ती शनिवारची दुपार होती. नितीनचे वडील ऑफिसातून घरी आले नव्हते. नितीनला सेकंड सॅटरडेची सुट्टी होती. घरात आत्या, नितीनची आजी आणि नितीन ह्यांच्याबरोबर मीही फोटो बघण्याच्या कार्यक्रमात सामील झालो.

त्यातील एक मुलगी फोटोवरून नितीन आणि आत्याला आवडली. तिची माहितीही चांगली वाटली. कुणास ठाऊक, पण नितीनच्या आजीला ती फारशी आवडल्याचे दिसले नाही. आत्या सांगू लागली, 

 “मुलगी गोरीपान आहे.”

 ” रंग काय चाटायचाय?”आजी उत्तरली.

” मुलीचे डोळे किती सुंदर आहेत!”

 “डोळे काय चाटायचेत ?” आजी नाक मुरडत म्हणाली.

 ” मुलीकडे फर्स्ट क्लास डिग्री आहे.”

” डिग्री काय चाटायचीय?” आजी तिरसटपणे म्हणाली.

आता मात्र नितीनचा संयम सुटला. वळून तो म्हणाला, ” आज्जी, नक्की काय चाटायचं असतं, ते जरा सांगशील का?” 

या अनपेक्षित प्रश्नाने आजी कावरीबावरी झाली.

पण लगेच माझ्या आत्याने पुढे सरसावत त्याच्या साटकन् कानाखाली वाजवली आणि तिथून चालते व्हायला सांगितले. 

मी हळूच काढता पाय घेतला. माझ्यामागून नितीनही गाल चोळत बाहेर पडला. रस्त्यात मला म्हणाला, ” दादा, पुढे बायकोसमोरही आई मला असेच मारेल का रे?” 

मी गंभीरपणे म्हणालो,

” पुरुषाची कधीही मारापासून सुटका नसते. शहाणा असेल तर शब्दाने, मूर्ख असेल तर व्यवहारात, नेभळट असेल तर समाजात आणि चावट असेल तर असाच कधीतरी मार तो खातो.”

“दादा, तू यातल्या कोणात बसतोस?” नितीनने मौलिक प्रश्न केला, पण मला उत्तर द्यायचे नव्हते !

लेखक :श्री. रविकिरण संत

©  सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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