हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #240 – 125 – “मिलकर भी तुम तो मिल नहीं पाती हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल मिलकर भी तुम तो मिल नहीं पाती हो…” ।)

? ग़ज़ल # 125 – “मिलकर भी तुम तो मिल नहीं पाती हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

तुमको  कहते हैं  लोग  मेरी जाने जाँ,

लेकर मेरा दिल बन गई मेरी जाने जाँ।

*

तुमने मुझ पर नाराज़ होना छोड़ दिया,

 ठीक नहीं है नाराज़ी इतनी जाने जाँ।

*

मिलकर भी तुम तो मिल नहीं पाती हो,

खूब  बहाने  तुम  तो बनाती जाने जाँ।

*

बिजली  सी  चमक  जाती है यकवयक,

तुम  ज़ुल्फ़ें क्यों हो  लहराती जाने जाँ।

*

तुम तो  खोई हो दुनियादारी में जानम,

आतिश को दिखती हो भर्माती जाने जाँ।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ – Unauctioned Entity… – ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem ~ Unauctioned Entity… ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

☆ ~Unauctioned Entity…  ~?

Though the mesmerizing style of

his handing over was so charming

Making me resolutely bewitched by the

night of the first journey itself..

*

Exhaustion of days of sleepless 

nights  consumed  me  totally

The Sun was about to rise, that’s

when  I knocked off  tiredly…

*

Life  did  not  spare  me  the

shame of my impoverishment

It  made  me  stretch  out  my

hand  with  the  begging bowl…

*

Then  I was auctioned slavishly,

considering me to be worthless

Notwithstanding  that,  the  world 

even returned me to the auctioneer..!

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 385 ⇒ असंग्रह (अपरिग्रह)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “असंग्रह (अपरिग्रह)।)

?अभी अभी # 385 ⇒ असंग्रह (अपरिग्रह)? श्री प्रदीप शर्मा  ?

नैतिक नियमों को आप यम नियम कह सकते हैं। आवश्यकता से अधिक संग्रह की वृत्ति हमारी भौतिकता की देन है। अगर जीवन ही सादा होगा तो जीवन कितना फीका फीका होगा, हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

जब हमारा आचरण हमारे सिद्धांतों और आदर्श से मेल नहीं खाता, तो जीवन में कृत्रिमता और

बनावटीपन आ जाता है, सहजता कहीं गायब हो जाती है। कौन नहीं चाहता, अच्छा खाना और अच्छा पहनना। लेकिन जाने अनजाने सुविधाओं की आड़ में हमारे पास कई अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह होता चला जाता है, और हम उनसे बेखबर रहते हैं। ।

आवश्यकता आविष्कार की जननी है, हम आविष्कार किया करते हैं, और हमारी आवश्यकताओं को दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ाते रहते हैं। मूल भूत सुविधा भी आवश्यकता का ही अंग है, लेकिन संपन्नता के साथ सुविधा का ग्राफ भी बढ़ता ही रहता है। छोटे मकान से बड़ा मकान और छोटी गाड़ी से बड़ी गाड़ी समय की भी मांग है, और संपन्नता की निशानी भी। लेकिन जब हर अनावश्यक चीज भी आवश्यक लगने लगे, तब जीवन से यम नियम गायब हो जाता है।

आइना हम रोज देखते हैं, लेकिन हमें आइना दिखाने वाले लोग कम ही होते हैं। असंग्रह और अपरिग्रह की दुहाई देते हुए जब एक दिन अनायास मैने अपने कपड़ों की आलमारी खोली तो मुझे कई ऐसे पुराने कपड़े नजर आए, जो केवल अलमारी की शोभा बढ़ा रहे थे। पत्नी की अलमारी में तो मेरी नजर चली गई, कितनी अनावश्यक साड़ियां हैं, लेकिन अपनी अलमारी से मेरा साक्षात्कार मानो पहली बार हुआ हो। मुझे मेरा मुंह आईने में नजर आ गया, मुझे आज अपने गिरेबान में झांकना ही पड़ा, अपने हाथों से ही अपने कानों को उमेठना पड़ा। ।

एक पंछी को रोज अपने दाना पानी की व्यवस्था करनी होती है। रोजाना अपने बाल बच्चों का भी पेट भरना होता है। आप उसे अपरिग्रह का पाठ नहीं पढ़ा सकते, क्योंकि वह कल के लिए कुछ संग्रह कर ही नहीं सकता। इंसान की बात अलग है, उसे दो जून की रोटी की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। वह परिग्रह की श्रेणी में नहीं आता।

जो अपरिग्रह का पालन करते हैं, वे अनावश्यक वस्तुओं को नेकी के दरिए में बहा देते हैं। लेकिन संग्रह की प्रवृत्ति से छुटकारा पाना इतना आसान भी नहीं। अपने किताबों के संग्रह से कौन मुंह मोड़ सकता है, तिजोरी और लॉकर में रखे गहनों का भी खयाल रखना पड़ता है। ।

कई घरों में आपको संग्रहालय नजर आ जाएंगे। किसी को जूतों का शौक तो किसी को टाइयों का। वॉर्डरोब होता ही काहे के लिए है। शान शौकत पर खर्च और धूमधाम से शादियां, हमारे समाज का ही प्रचलन है। कोई किसी का हाथ नहीं रोकता लेकिन फिर भी इसी समाज में कुछ लोग हैं जो फिजूलखर्ची को अपराध मानते हैं, और संयम और सादगी का जीवन व्यतीत करते हैं।

कल कॉलर ट्यून पर एक गीत बज रहा था, ये मोह मोह के धागे …. आगे के शब्द बेमानी हैं। समाज के नियम अपनी जगह हैं, हमारे जीवन के नियम हमें ही बनाने पड़ते हैं, खुद को अपनी ही कसौटी पर कसना पड़ता है, संयम, संतुलन के साथ तितिक्षा का भी अभ्यास करना पड़ता है। वैराग्य ना सही, विवेक का दामन तो थामना ही पड़ता है ;

बहुत दिया देने वाले ने तुझको।

आंचल ही न समाए

तो क्या कीजे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 118 ☆ मुक्तक – ।। बस यूँ ही किसी किरदार को नाम नहीं मिलता ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 118 ☆

☆ मुक्तक – ।। बस यूँ ही किसी किरदार को नाम नहीं मिलता ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हर किसीको यूँ ही जमीं आसमां नहीं मिलता है।

हर किसीको करने को इम्तिहान नहीं मिलता है।।

वह तो खुशनसीब हैं जिन्हें   आजमाया है गया।

हर क़िरदार को यूं ही नाम इंसान नहीं मिलता है।।

[2]

जिम्मेदारी भी मिलती है   काम करने वाले को।

यह दुनिया भी पूछती है    नाम करने वाले को।।

कर्मशील को तो मिलता  है काम  में ही आनंद।

ये मंजिल मिलती है स्वाभिमान करने वाले को।।

[3]

कल को भूलो आज हम रवानी नई लिखते हैं।

छोड़ कर ये पुरानी बातें कहानी नई लिखते हैं।।

गर छूना आसमान तो उड़ान भरोआज ही तुम।

हौसलों   भरी हुई इक जिंदगानी नई लिखते हैं।।

[4]

जो सिर्फ पानी से नहाते  वो लिबास बदलते हैं।

जो नहाते पसीने से जाकर  इतिहास बदलते हैं।।

उनकी सोच खून पसीना रंग लाता है अलग सा।

वो होकर आदमी आम ही कुछ खास बदलते हैं।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 180 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – आदमी कितना भोला है, नादान है… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “आदमी कितना भोला है, नादान है…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 180 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – आदमी कितना भोला है, नादान है… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

आदमी कितना भोला है, नादान है ।

कोरे सपनों से अपने परेशान है ।।

*

देखते सपने दिन रात उसके नयन सपनों में सदा रहता है अक्सर मगन ।

सपनों में खोया, खुद से पै अनजान है ।। १ ।।

*

सपने आते उसे, सपने भाते उसे किन्तु सपने ही अक्स रुलाते उसे ।

सिर्फ सपनों में जीना न आसान है ।। २ ।।

*

सपनों का बड़ा रंगीन संसार है इंद्रधनुषी है, लेकिन निराधार है ।

कड़ी धरती का कम उसको अनुमान है ।। ३ ।।

*

स्वप्न वे ही भले जो कि साकार हों ठोस जिनके कहीं कोई आधार हों ।

लगन से मन की, जिनकी कि पहचान है ।। ४ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सोड ना अबोला… ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ‘सोड ना अबोला…’ ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

(वृत्त-चंद्रकांत(८+८+८+२))

नकोच सखये रुसवा असला वद ना तू राणी

साहत नाही तुझा अबोला मम नयनी पाणी

*

आम्रतरूवर कोकिळकूजन ऐक ना प्रिये तू

कुठे हरवला पंचम स्वर तव सांग ना सखे तू

*

चुकले माझे काय तरी गे स्मरत नसे मजला

गाल फुगवुनी बैसलीस तू शोभे ना तुजला

*

पहा प्रियतमे तुजसाठी मी चाफा आणियला

अबोल त्याची प्रीत जाणुनी गजरा माळियला

*

पुरे जाहला लटका रुसवा थकलो मी आता

समजुन घे मज माझे राणी तुझाच मी भर्ता

*

तुझ्यावाचुनी नसे कोण मज कोमल तव वाणी

तिलोत्तमा तू अप्सराच जणु ह्रदयाची राणी

*

किती प्रतीक्षा करू सांग ना अधीर तव बोला

पुरे जाहली थट्टा आता सोड ना अबोला

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ हितगूज एकटीशी… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆

सुश्री संगीता कुलकर्णी

? विविधा ?

हितगूज एकटीशी… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆

निवांत क्षण मला खूप आवडतात.स्वतःशी स्वतःचे हितगुज करायला.

कुठलीच साथसोबत न घेता कधी एकट्यानं कुठं भटकायला गेला आहात ? नाही ना.. तर मग रोजच्या या धावपळीत कधीच न जमलेलं स्वतःकडं पाहणं इथं सहज जमून जाईल..

स्वतःचीच सोबत करत एकटं…!

एकटीनं भटकणं मला नेहमीच आवडतं. मुळात ही स्वतः स्वतःला दिलेली वेळ असते. तिथं तुम्हाला फक्त तुमच्या विचारांसाठी वेळ देता येतो.. स्वतःच परीक्षण करणं फार महत्त्वाचं असतं ते अशावेळी आवडून जातं.

आपण कुठलाही मुखवटा न चढवता मुक्त असतो. मला यात वेगळंच समाधान मिळतं…

मनसोक्त उनाड दिवस..!

मगाशी म्हटल्याप्रमाणेच मला एकटीला भटकायला जाणं जाम आवडतं. रोजच्या धकाधकीच्या आयुष्यातून, त्याच-त्याच माणसांमधून निवांतपणा हवा असतो ना तेव्हा मी हमखास बाहेर पडते.. मी मित्र- मैत्रीणी बरोबरही खूप भटकते तेव्हा मजा येतेच पण एकट्यानं भटकण्याचीही मजा काही औरच आहे…!

निसर्गाशी संवाद साधण्यासाठी एकटीनच बाहेर पडावंस वाटतं.. निसर्ग हा हक्काचा दोस्त कारण तो बोलत काहीच नाही फक्त ऐकत राहतो.. एकटं भटकण्यातलं सुख हा उपदव्याप केल्यावरच कळतं. एकट्या रानवाटांवर स्वतःची सोबत अनुभवणं, स्वतःला वेळ देणं अवचित जमून जातं…निसर्गाशी हितगुज करण्यासाठी…

एकांतामध्ये निसर्गाशी हितगुज करायला मिळतं.. निसर्ग माझ्याशी बोलतोय असंच वाटतं. शांतपणे विचार करायला मिळतो. एक प्रकारची प्रसन्नता मिळते… मी स्वतःला आजमावते…यातून स्वतःला चांगल्या-वाईट अनुभवातून ही आजमावता येतं बरं…

निर्णय घेता येतात..

     मनाशीच मी बोलते

   साठवणीचे बोल माझे

  गुज माझे स्वतःशी खोलते

माझी सगळं काही एकटीनं करायची इच्छा असते…

मला एकटीनं भटकण्याची कधी भीती वाटत नाही आणि वाटलीही नाही पण मला असं भटकणं खास करुन याच्यासाठी आवडतं की त्यामुळं स्वतःशी संवाद साधणं जमून जातं. अनेकदा स्वतःला वेळ देणं जमतच नाही. अशावेळी एकटं भटकायला जाणं मन शांत करणारं ठरतं. मनाच्या शांततेसह मला स्वतःशी संवाद साधण्याची संधी मिळते.. निसर्ग तर तुमची प्रत्येक पावलापावलावर सोबत करत असतो. असे अनेक अनमोल क्षण निसर्गानं या भटकंतीत मला दिले आणि नंतर आलेल्या अनुभवातून समृद्ध झाल्याचं समाधान ही मिळालं…

अचिव्हमेंटनं मन भरून आले.. येतं… आयुष्यात आणखी काय हवं नाही ?

      माझ्यात मी गुंतले

   ध्येय माझे माझ्या परीचे

    अंतरीच मी जागविले

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

लेखिका /कवयित्री

ठाणे

9870451020

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सुखाचा चहा… ☆ सुश्री स्वप्ना मुळे (मायी) ☆

सुश्री स्वप्ना मुळे (मायी)

? जीवनरंग ?

☆ सुखाचा चहा… ☆ सुश्री स्वप्ना मुळे (मायी)

रस्त्यातच त्याला पावसाने गाठलं. आधीच सकाळ पासून वैतागलेला तो त्रागा करत त्याने गाडी बाजूला घेतली. रस्ता तसा रोजचा परिचयाचा पण कधी थांबावं लागलं नव्हतं. ह्या सहा महिन्यात पहिल्यांदा तो थांबला, पत्र्याच्या शेड खाली. छोटीशी चहाची टपरी होती. तसही आज सकाळच्या घटनेमुळे चहा प्यायचा राहिला होता आणि आता वातावरणही छान होतं. हा पाऊसही त्याला पुढे जाऊ देणार नव्हता.

टपरीवर एक जोडपं आणि छोटं मूल होतं. ते मूल पत्र्यावरून पडणाऱ्या पन्हाळ्याच्या पाण्याखाली हात नाचवत होतं आणि खळखळून हसत होतं. मध्येच ओला हात आई बाबांवर झटकत होतं आणि त्याचा हा खेळ हे दोघे हसून बघत होते. त्याने चहाची ऑर्डर दिली आणि ओल्या झालेल्या बाकड्यावरचं पाणी झटकत तो बसला. एकदम थंड स्पर्श त्या टेबलाचा त्याला झाला. त्याचं त्यालाच छान वाटलं. समोर रस्त्याच्या पलीकडे दूरवर पसरलेली शेती आणि त्यामागे उभे अवाढव्य हिरवेगार डोंगर. चिंब पावसात धूसर होऊन मजा करत उभे असलेले दिसले, हे सगळं बघताना त्याचा फोन वाजला, बायकोचाच होता. त्याने कट केला. सकाळ पासून हा पाचवा फोन तिचा. काही तरी चुका करत राहते आणि आपला मूड घालवते. लग्नाला अजून चार महिने नाही झाले, पण बोअर झालं हे सहजीवन, या भावनेने त्याने फोन कट केला.

तेवढ्यात चहाचा ग्लास घेऊन तो टपरीवाला समोर आला. आणि तितक्यात त्या बाई कडून काही ग्लास सुटले हातातून आणि त्या शांत वातावरणात खळकन आवाज झाला. ते मुल क्षणभर थबकलं पाण्यात खेळताना. तर त्या माणसाने हाताने आणि मानेनेच इशारा केला, काही नाही खेळ तू. आणि तो काचा भरू लागला. तिने आवाजाच्या दिशेने बघून हात जोडून चुकीची माफी मागितली. तर त्याने फक्त डोक्यावर हात ठेवला. एकूण चार पाच ग्लास फुटले होते, म्हणजे आजची कमाई नक्की शून्य, पण तो माणूस शांत होता. 

आता ह्याची बेचैनी अजून वाढली. ह्याला सकाळचा प्रसंग आठवला. आपणच मध्ये आलो आणि बायकोच्या हातातला कप फुटला तर आपण किती चिडलो. बोललो तिला, पण ती शांत होती. ह्या वातावरणा सारखी आणि आपण ह्या चहासारखं गरम. शब्दांच्या वाफा आपल्या तोंडातून निघत होत्या. आपलं तर फारसं नुकसानही नव्हतं. पण आपण किती रिॲक्ट झालो. त्यामुळे दिवसभर देखिल आपला मूड खराब होता. आणि हा माणूस चिडण्या ऐवजी उलट काचा वेचून परत आपल्या कामाला लागला. खूप काही शिकल्या सारखं वाटलं त्याला ह्या अनुभवातून. तो पैसे द्यायला काऊंटर जवळ आला. वीसची नोट देताच चहावाला म्हणाला, “सर सुट्टे नाही माझ्याकडे १० रु द्यायला. तुमच्याकडे असतील तर बघा.” त्याने खिसा तपासला पण सुट्टे नव्हते. “चॉकलेट देऊ” चहावाला म्हणाला. त्यावर हसून याने नकार दिला आणि म्हणाला, “असू द्या, नाहीतरी तुम्ही मला एक फार मोठी शिकवण दिली. ग्लास फुटले तरी किती शांत राहिलात. मी तर आज एक कप फुटला म्हणून महाभारत करून आलोय घरात.”

चहावाला हसून म्हणाला, “तिला दिसत नाही तरी ती माझ्या कामात मदत करते. कधीतरी चूक होणारच. आपल्या कडूनही होते. फक्त आपल्याला रागावणारं कोणी नसतं. आणि जोडीदाराच्या सतत चुका शोधून त्याला जर अस रागवत राहिलो तर प्रेम करायचं तरी कधी? आयुष्य क्षणभंगूर आहे. होत्याचं नव्हतं कधी होऊ शकतं. आता हिलाच बघा ना, लग्नाच्या वेळी डोळस होती ती, आणि एकाएकी दृष्टी गेली. डॉक्टर म्हणाले, येईल दृष्टी परत. पण कधी ते नक्की नाही. खूप वाईट वाटलं. माझी चिडचिड होत होती. एक दिवस तिनं माझ्या डोळ्यावर पट्टी बांधली म्हणाली, आता मी जे करते ते न चुकता करून दाखवा. मग लक्षात आलं सगळं किती अवघड आहे. त्या दिवसा पासून ठरवलं किती नुकसान झालं तरी तिला रागवायच नाही. माणूस नेहमी स्वतःच्या बाजूनी विचार करतो ना सर? थोडं समोरच्याला समजून विचार केला की लक्षात येतं सगळं.”

ह्याला आता जास्त आश्चर्य वाटलं. अंध बायको असून किती शांतपणे स्वीकारलं आहे हे सगळं. आपण तर जणू चिडणं हा आपला अधिकार आहे, अश्या अविर्भावात असतो सतत. आपली बायको सकाळी किती घाबरली होती. त्याला आठवलं. खरंतर रात्रभर पाय दुःखतात म्हणून कुठले तेल घेऊन मालिश करत बसली होती. तिला चार दिवसाच्या पाळीने अशक्तपणा येतो. मग स्वतःला उभं करायला ती हे प्रकार करते. पण आपण तिच्या या कुठल्याच विश्वात नसतो. त्यालाच एकदम भरून आलं. त्याचे विचार सुरू होते आणि तेवढ्यात मघापासून मोगऱ्याच्या झाडाच्या कळ्या तोडून गजरा बनवून चाचपडत ती टेबलापाशी आली आणि म्हणाली, “दहा रुपये सुट्टे नाहीत तर हा गजरा घ्या. कुणाचे फुकट पैसे नाही ठेवत आम्ही. तसही कपाने महाभारत झालं म्हणता घरात, ह्या गजऱ्याने मिटवून टाका.

कसं आहे कपातलं वादळ लवकर मिटलं, तर संसारात, मजा असते नाही का? इतक्या बारीक चुका पकडून जर संसार केला, तर संसारात एकमेकांना जी मोकळीक द्यायची ती दिली जाईल का? साहेब याच रोडवरून रोज येणं जाणं असेल तर येत जा. अधून मधून गजरा घ्यायला आणि चहा प्यायला.”

तो बघतच राहिला त्या जोडप्याला. एकमेकांना शारीरिक गुणांनी विसंगत असलं, तरी समजून घेणारं जोडपं. आता मुलाला आंनदी होड्या बनवून देत होतं आणि ती दिसत नसलं तरी मनाच्या दृष्टीने ती होडी आनंदी गावाकडे जाणारी बघून हसत होती. हे हास्य खरंच सुखी संसाराची साक्ष होतं. त्याने गजरा घेतला आणि वीस रुपयात खूप काही मिळालं ह्या भावनेने निघाला. गाडीला किक मारताना सहजच टपरीची पाटी बघितली, त्यावर नाव होतं.. ‘सुखाचा चहा !’

© सुश्री स्वप्ना मुळे (मायी)

मो +91 93252 63233

औरंगाबाद

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ पर्यावरण दिनाच्या निमित्ताने… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

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☆ पर्यावरण दिनाच्या निमित्ताने… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

गेल्या काही वर्षात पाच जून हा दिवस पर्यावरण दिन म्हणून शाळा शाळातून साजरा केला जातो. माझा नातू लहान असताना पर्यावरण दिनाच्या दिवशी त्याच्याबरोबर मी शाळेत गेले होते. तेव्हा तेथील वातावरण पाहून मी थक्क झाले! शाळेत प्रवेश करताक्षणी सगळीकडे हिरवाई दिसत होती. हरीत रंगाने विविध प्रकारच्या कलाकृती केलेल्या होत्या.भिंतीवर निसर्ग चित्रे लावलेली होती. मुलांना आधीच सूचना देऊन कुंड्यांमध्ये काही बिया पेरायला सांगितल्या होत्या .कोणी मोहरी,मेथी,हळीव अशा लवकर येणाऱ्या रोपांच्या बिया रूजवल्या होत्या.त्यांची छोटी छोटी रोपे उगवून आली होती.आणि प्रत्येकाला त्या सृजनाचे रूप इतके कौतुकाचे होते की मुले त्या छोट्या कुंड्या मिरवत शाळेत आली होती! वर्गा वर्गातून त्या छोट्या कुंड्या, वनस्पतींची माहिती देणारे बोर्ड तसेच पर्यावरणाचे महत्त्व दाखवणारे प्रसंग आणि ते सांगणारे छोटे विद्यार्थी असे उत्साहाने भरलेले वातावरण होते! त्या वातावरणाने मला भारावून टाकले! लहानपणापासूनच ही जागृती मुलांमध्ये निर्माण झाली तर ही वसुंधरा पुन्हा जोमाने सजेल आणि निसर्गाची वाटचाल चांगली होत राहील, असा विश्वास पर्यावरण दिनाच्या दिवशी माझ्या मनात निर्माण झाला.

घरी येताना मन सहज विचार करू लागले की 50 एक वर्षाखाली असा हा पर्यावरण दिन आपण करत होतो का? नाही, तेव्हा ती गरज जाणवली नाही. मनात एक कल्पना आली की, परमेश्वराने पृथ्वीला मायेने एक पांघरूण घातले आहे. त्या उबदार पांघरूणात ही सजीव सृष्टी जगत आहे. पण अलीकडे या पांघरूणाला न जुमानता मनुष्य प्राणी आपली मनमानी करीत आहे, त्यामुळे एकंदरच सजीव सृष्टीचा तोल बिघडू लागला आहे. काही सुजाण लोकांना याची जाणीव झाली आणि साधारणपणे 1973 सालापासून जागतिक पातळीवर पर्यावरणाचे महत्त्व लोकांना पटवून देण्यासाठी अमेरिकेत “पर्यावरण दिन” साजरा होऊ लागला !

पर्यावरण म्हणजे काय? ही  सजीव सृष्टी टवटवीत ठेवण्यासाठी असलेली सभोवतांची हवा, पाणी, मातीआणि जमीन या सर्वांचे संतुलन! ते जर चांगले असेल तर आपले अस्तित्व चांगले रहाणार!

आपल्याला ज्ञात असलेला मानवी जीवनाचा इतिहास अभ्यासताना असे लक्षात येते की, आदिमानवापासून ते आत्तापर्यंतच्या मानवी इतिहासात खूप बदल हळूहळू होत गेलेले आहेत. गुहेत राहणारा मानव निसर्गाशी आणि इतर प्राण्यांची जुळवून राहत होता. माणसाला मेंदू दिला असल्याने त्याने आपली प्रगती केली आणि त्यामुळे आजचा आधुनिक माणूस आपण निसर्गावर मात केली आहे असे समजतो. पूर्वी यंत्र नव्हती तेव्हा प्रत्येक काम हाताने करणे, वाहने नव्हती तेव्हा प्रवास चालत किंवा प्राण्यांच्या मदतीने करणे, गुहेमध्ये किंवा साध्या आडोश्याला घर समजून रहाणे, अन्नासाठी कंदमुळे, तृणधान्ये, फळे यांचा उपयोग करणे हे सर्व माणूस करत असे.अन्न,वस्त्र, निवारा या प्राथमिक गरजा भागल्या की बास!. पण आज या सर्व गोष्टी बदलल्या आहेत. त्यामुळे नकळत पर्यावरणावर आपण हल्ला केला आहे!

हवेचा विचार केला तर प्रदूषण ही समस्या आपणच निर्माण केली. विविध प्रकारचे कारखाने वाढले. पेट्रोल, डिझेल यासारख्या पदार्थांच्या वापर वहानात होत असल्याने हवा प्रदूषित झाली. रस्त्यांसाठी, घरांसाठी झाडे तोडणे यामुळे हवेतील गारवा कमी झाला. एकंदरच वातावरणातील उष्णता वाढू लागली. सावली देणारी, मुळाशी पाणी धरून ठेवणारी वड, पिंपळासारखी मोठी झाडे  तोडून टाकली. डोंगर उघडे बोडके दिसू लागले. या सर्वाचा परिणाम म्हणजे पर्यावरणाचा समतोल बिघडला. वेळच्यावेळी पाऊस पडेना. त्याचा परिणाम इतर सर्व ऋतूंवर आपोआपच होऊ लागला. पाणी पुरत नाही म्हणून नद्यांचे पाणी आडवणे, धरणे बांधणे यामुळे नैसर्गिक रित्या असलेले पाण्याचे स्त्रोत जमिनीखाली विस्कळीत होऊ लागले. हवा, पाणी, पाऊस, जमीन या सर्वांचा नैसर्गिक असलेला परिणाम जाऊन प्रत्येक गोष्ट अनियमितपणे वागू लागली !

माणसाला याची जाणीव लवकर होत नव्हती. घरात गारवा नाही, एसी लावा.. नळाला पाणी नाही, विकत घ्या! चांगली हवा मिळत नसेल तर ऑक्सिजन विकत घ्या! माणसाचा स्वार्थी स्वभाव त्याच्याच नाशाला हळूहळू कारणीभूत होऊ लागला. जगभर होणारा प्लास्टिकचा वापर

जसजसा वाढू लागला तस तसे हे लक्षात आले की प्लॅस्टिक हे पर्यावरणासाठी मोठा अडथळा आहे. प्लास्टिक कुजत नाही. त्यातील घटकांचे विघटन होत नाही. प्लास्टिक मुळे नाले ,ओढे यांतून नद्यांकडे वाहत जाणाऱ्या पाण्याबरोबर प्लास्टिक ही पुढे समुद्राला जाऊन मिळते. दररोज कित्येक टन प्लास्टिक समुद्रामध्ये वाहत जाते, साठत जाते. या सर्वाचा परिणाम नकळत पर्यावरणावर होत असतो. त्यामुळे प्लास्टिकचा वापर कमी केला पाहिजे. गेल्या काही वर्षात प्लास्टिक वापरावर थोड्या प्रमाणात बंदी आली आहे, त्यामुळे नकळतच प्लास्टिकचा वापर थोडा कमी केला जात आहे..

5 जून 1973 साली अमेरिकेत “पर्यावरण दिन” प्रथम साजरा केला गेला आणि आता जगभर हा दिवस पर्यावरण दिन म्हणून साजरा होतो. पर्यावरण दिनाच्या निमित्ताने माणसाचे लक्ष निसर्गाकडे वेधले जाते. जर प्रदूषण वाढत राहिले तर नकळत आपणच आपला नाश करून घेऊ याची जाणीव थोड्याफार प्रमाणात होत आहे.या दिवशी एक तरी रोप लावावे, एक तरी झाड वाढवावे आणि पर्यावरण चांगले ठेवायला मदत करावी एवढा जरी संकल्प आपण केला तर खऱ्या अर्थाने या वसुधेची  आपण काळजी करतो हे दिसून येईल!

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ सखी मंद झाल्या तारका… ☆ श्री सुनील शिरवाडकर ☆

श्री सुनील शिरवाडकर

? इंद्रधनुष्य ? 

☆ सखी मंद झाल्या तारका… ☆ श्री सुनील शिरवाडकर ☆

नुकताच आलेला ‘स्वरगंधर्व’ पाहिला.. आणि बाबुजींचा एक जुना किस्सा आठवला. वरळीच्या ‘रेडीओवाणी’ या स्टुडिओत काही गाण्यांचं रेकॉर्डिंग सुरु होतं. एक गाणं झालं.. मध्ये थोडा वेळ होता, म्हणुन बाबुजी चहा घेण्यासाठी खाली आले.ते एक छोटं रेस्टॉरंट होतं.

‘एक कप चहा.. एक रुपया ‘ असा बोर्ड होता. चहा आला..तो पूर्ण कपभर नव्हता.. थोडा कमी होता. बाबुजींनी वाद घालायचा सुरुवात केली. प्रश्न पैशाचा नव्हता.. तत्वाचा होता..वाद वाढला,पण तेवढ्यात रेस्टॉरंटचा मालक आला. त्याने बाबुजींना ओळखले.. पूर्ण कप भरुन चहा दिला.. इतकंच नाही तर लोणी लावलेली एक स्लाईसही दिली.. बाबुजी खुश झाले..नंतरचं रेकॉर्डिंग पण झकास झालं.

ते गाणं होतं….. ‘ सखी मंद झाल्या तारका.’ 

या गाण्याच्या खुप आठवणी आहेत. श्रीधर फडके एअर इंडियामध्ये अधिकारी होते. एअर इंडियाचं एक गेस्ट हाऊस होतं.. लोणावळ्याला. तेथे अधुनमधून तो पिकनिक ॲरेंज करायचा. अशीच एक पिकनिक ठरली. सुधीर फडके..राम फाटक.. सुधीर मोघे..श्रीकांत पारगावकर..उत्तरा केळकर अशी बरीच मंडळी होती. बाबुजींनी ठरवलं.. त्यांच्या काही गाण्यांच्या तालमी तेथेच करायच्या. लोणावळ्याच्या रमणीय परिसरात.. तरुण मंडळींच्या सहवासात तालमी छान रंगतील याची सर्वांना खात्री होती.

तर ‘सखी मंद झाल्या तारका ‘या गाण्याची तालीम सुरू झाली. गाण्याचे संगीतकार होते राम फाटक. त्यांचा आणि बाबुजींचा वाद सुरु झाला.

… ‘सखी मंद झाल्या तारका.. आता तरी येशील का..यानंतर पुन्हा एकदा’..येशील का’ असा एक खटका आहे.तो बाबुजींना मान्य नव्हता. राम फाटक म्हणाले..त्या खटक्यामधेच खरी गंमत आहे.पण बाबुजी ऐकायला तयार नव्हते.

शेवटी राम फाटक म्हणाले…. “या गाण्याचा संगीतकार मी आहे “

त्यावर बाबुजी म्हणाले…. “मग मी हे गाणं गाणार नाही असं म्हटलं तर?”

राम फाटक म्हणाले…. “हा तुमच्या मर्जीचा भाग आहे.  ‌म्हणणार नसाल तर आत्ताच सांगा, म्हणजे मला दुसरा आवाज शोधायला सोईचं होईल.”

बाबुजींनी वाद थांबवला. खेळीमेळीच्या वातावरणात रेकॉर्डिंग पार पडलं..गाणंही पुढे खुप गाजलं.

मुळात हे गाणं जन्माला आलं कसं?तो ही एक किस्सा आहे.

१९६७-६८ मधली गोष्ट.राम फाटक नुकतेच पुणे आकाशवाणीवर रुजु झाले होते.त्यांनी एक कार्यक्रम बसवला..’स्वरचित्र’ हे त्याचं नाव.दर महीन्याला एक नवीन गाणं सादर करण्याचा हा कार्यक्रम होता.१९८० पर्यंत हा कार्यक्रम सुरु होता.

या कार्यक्रमात राम फाटकांनी खुप सुंदर सुंदर गाणी सादर केली.एखादं नवीन गीत शोधायचं.. त्याला चाल लावायची.. आणि एखाद्या गायकाकडुन ते गाऊन घ्यायचं अशी या कार्यक्रमाची संकल्पना.

राम फाटक यांनी या कार्यक्रमात पं‌.भीमसेन जोशी यांच्याकडून अनेक गीते गाऊन घेतली.ती गाणी म्हणजे एक अलौकिक ठेवा आहे.

तीर्थ विठ्ठल.. क्षेत्र विठ्ठल..

अणुरणिया थोकडा..

पंढरी निवासा सख्या पांडुरंगा..

नामाचा गजर..

ज्ञानियांचा राजा ..

काया ही पंढरी..

ही सर्व गीते म्हणजे बावनकशी सोनंच आहे..पण ही सर्व गीते अभंग या प्रकारात येतात.राम फाटक यांच्या मनात एकदा आलं की भीमसेन जोशींकडुन एखादं भावगीत गाऊन घ्यावं.त्यादृष्टीने राम फाटक एखादं गाणं शोधु लागले.तोच कवी सुधीर मोघे आले.फाटक यांना एक मुखडा सुचला होता.तो होता..

‘सखी तारका मंदावल्या….. 

गाण्याची संकल्पना फाटक यांनी सुधीर मोघे यांना सांगितली..बरीच चर्चा झाली.. आणि कवी राजांनी थोडासा बदल करून पहिली ओळ लिहिली..

सखी मंद झाल्या तारका……. 

दुसरे दिवशी सुधीर मोघे पुर्ण कविता घेऊन आले.ते एक उत्कृष्ट काव्य होतं.उर्दू शायरीच्या धाटणीचे.राम फाटक यांनी अप्रतिम चालीत ते गुंफले.. यथावकाश पं.भीमसेन जोशी यांच्या आवाजात ते ध्वनीमुद्रीत झालं. काव्य..चाल..गायन या सगळ्यांचीच उत्तम भट्टी जमली.. आणि एका अजरामर गीत जन्माला आलं.

कवी.. संगीतकार..गायक.. आणि अर्थातच समस्त मराठी रसिकांना या गाण्याने सर्व काही दिलं..

या गीतातच म्हटल्याप्रमाणे..

जे जे हवेसे जीवनी .. ते सर्व आहे लाभले.

© श्री सुनील शिरवाडकर

मो.९४२३९६८३०८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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