मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ कोण असे हा ? ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? कोण असे हा ? ?  सुश्री वर्षा बालगोपाल 

डोंगरावर कोण साधू

ध्यान लावून बसला 

चैतन्याची आभा पसरे 

चराचर जागला ||

*

का असे हा कोणी वैद्य 

दुरून रेकी देणारा 

वठलेले तरु पण तरारती 

प्राण तयात फुंकणारा ||

*

आहे का ही शक्तिदा 

शक्ती स्रोत वाहणारी 

ममतेचे हस्त ठेऊन शिरी 

अपत्यांना जागवणारी ||

*

कोण आहे माहित नाही 

युगानुयुगे कर्म आपले करत राही 

दर्शन याचे उठल्या बरोबर 

आरोग्यदान पदरात येई ||

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #233 – बाल कविता – “करें ज्ञान विज्ञान की बातें…”☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम  बाल कविता – करें ज्ञान विज्ञान की बातें” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #233 ☆

☆ बाल कविता – करें ज्ञान विज्ञान की बातें… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

करें ज्ञान विज्ञान की बातें

क्यों होते दिन होती रातें।

*

तारे टिमटिम क्यों क tvरते हैं

दूर गगन में क्यों रहते हैं।

क्यों मंडराते नभ में बादल

कैसे होती है बरसातें।

करें ज्ञान विज्ञान की बातें।।

*

चंदा क्यों बढ़ता घटता है

सूरज क्यों हर दिन तपता है

सप्त ऋषि तारे क्या कहते

क्यों ध्रुव तारा देख लुभाते।

करें ज्ञान विज्ञान की बातें।।

*

खारा क्यों होता है सागर

भाटा ज्वार में क्या है अंतर

कैसे बिजली पैदा करते

नदियों पर क्यों बांध बनाते

करें ज्ञान-विज्ञान की बातें।।

*

क्यों किसान खेतों को जोते

बीज अंकुरित कैसे होते

कैसे टीवी चित्र दिखाएं

और  रेडियो  गाने गाते।

करें ज्ञान विज्ञान की बातें।।

*

चलो चलें हम जल्दी शाला

हल होगा सब वहीं मसाला

टीचर जी समझायेंगे सब

जैसे  और  प्रश्न समझाते।

करें ज्ञान विज्ञान की बातें।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 57 ☆ धर्म ध्वजा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “धर्म ध्वजा…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 57 ☆ धर्म ध्वजा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

पाप-पुण्य की

इस नगरी में

धर्म हमारी ध्वजा रही है ।

 

तिनका- तिनका जोड़ जतन से

एक घोंसला सुघर बनाया

ना जाने कब कौन शिकारी

की पड़ गई अमंगल छाया

 

छन कर आती

धूप नहीं अब

छाँव अँधेरे सजा रही है ।

 

मिलजुल कर बोया फसलों को

काट रहे हैं अपनी-अपनी

ढो-ढो कर रिश्तों की गठरी

पीठ हो गई छलनी-छलनी

 

हवा हुई बे-शर्म

यहाँ की

गंध सुवासित लजा रही है ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मूल्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  मूल्य  ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

तुम्हारी चुप्पी मूल्यवान है

जितना चुप रहते हो

उतना मूल्य बढ़ता है,

वैसे तुम्हारी चुप्पी का मूल्य

कहाँ  तक पहुँचा?

…और बढ़ेगा क्या..?

मैं फिर चुप लगा गया।

© संजय भारद्वाज  

1.9.18, रात 11:40 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सभी है मुसाफिर यहाँ चार दिन के… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “सभी है मुसाफिर यहाँ चार दिन के“)

✍ सभी है मुसाफिर यहाँ चार दिन के… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

 कहीं कारवां क्या मिला पूछते हैं

सफ़र में जो बिछड़े पता पूछते हैं

दिया दर्द जो हमसे नादान उससे

जो आराम दे वो दवा पूछते हैं

 *

जिन्हें ख़्याल रखना सिरे से न आया

वही मुझसे क्या है गिला पूछते हैं

 *

जिन्हें हर खुशी है मयस्सर जहां में

वो बेअक्ल क्या है ख़ुदा पूछते हैं

 *

बहुत हमने सोचा समझ में न आया

मिले गर कभी वो तो क्या पूछते हैं

 *

तिज़ारत समझते है जो आशिक़ी को

मुहब्बत में मुझसे नफ़ा पूछते हैं

 *

अगर चोर दिल में नहीं है जो तेरे

बता क्यों तेरा सर झुका पूछते हैं

 *

सभी है मुसाफिर यहाँ चार दिन के

हमारा तुम्हारा है क्या पूछते हैं

 *

कहाँ छीनकर मौत ले जाती सारे

ये हम प्रश्न तुझसे ख़ला पूछते हैं

 *

हमें और कितने कराएगी फांके

तुझे बेंच दे क्या अना पूछते हैं

 *

अरुण उनकी दरिया दिली देखिये तो

ख़ता की न उसकी सजा पूछते हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 389 ⇒ थप्पड़… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – ” थप्पड़…।)

?अभी अभी # 389 ⇒ थप्पड़ ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

थप्पड़ तेरे कितने नाम, चांटा, तमाचा, रेपटा, झापड़ तमाम। अगर थप्पड़ का संधि विच्छेद किया जाए, तो जो थप से पड़े, वह थप्पड़। थप शब्द भी तबले की थाप का करीबी ही प्रतीत होता है, थाप में प्रहार भी है, और ध्वनि भी।

जिस तरह क्रिकेट, हॉकी और फुटबॉल जैसे खेल मैदान में खेले जाते हैं, थप्पड़ का दायरा सिर्फ गाल तक ही सीमित होता है। ईश्वर ने दो गोरे गोरे गाल शायद इसीलिए बनाए हैं, कि अगर आप अहिंसा के पुजारी हो, तो कोई अगर आपके एक गाल पर थप्पड़ मारे, तो आप उसे दूसरा गाल भी पेश कर सकें।।

जो अहिंसा में विश्वास रखते हैं, वे भले ही किसी को थप्पड़ ना मारें, लेकिन थप्पड़ खाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। हमारा जन्म तो थप्पड़ खाने के लिए ही हुआ था। पैदा होते से ही अगर नहीं रोओ, तो कभी नर्स तो कभी दाई से थप्पड़ मानो हमारा पैदाइशी तोहफा था। बाद में तो थप्पड़ ही हमारा स्कूल का होमवर्क था, और थप्पड़ ही हमारी पढ़ाई का सबक।

हमने बचपन में जवाब देने पर भी थप्पड़ खाया है और चुप रहने पर भी। हमें याद नहीं, कभी पिताजी ने हमें प्यार से चपत मारी हो, ऐसा सन्नाकर चांटा मारते थे, कि पांचों उंगलियां गालों पर नजर आ जाती थी। लेकिन बाद में मां का प्यार दुलार थप्पड़ का सारा दर्द सोख लेता था, और वही पिताजी रात को हमारे लिए कुल्फी लेकर आते थे, और अपने हाथों से, प्यार से खिलाते थे। हमें तब कहां दबंग का यह डायलॉग याद था, पिताजी आपके थप्पड़ से नहीं, प्यार से डर लगता है।।

कुछ छड़ीमार गुरुजन शिष्यों में विद्या कूट कूटकर भरना चाहते थे। मुक्का, घूंसा, लप्पड़, और जब स्केल और पेंसिल से काम नहीं हो पाता था, तो इंसान से मुर्गा बनाकर भी देख लेते थे। बाद में थक हारकर यही उद्गार व्यक्त करते थे, इन गधों को इंसान नहीं बनाया जा सकता।

आज भले ही हमें थप्पड़ मारने वाला कोई ना हो, लेकिन पिताजी और गुरुजनों के थप्पड़ का सबक हमें आज तक याद है। काश, आज भी कोई हमारे कान उमेठे, थप्पड़ मारे।

जो लोग शाब्दिक हिंसा के पक्षधर होते हैं, वे केवल शब्दों के प्रहार से ही अपने प्रतिद्वंदी के मुंह पर ऐसा तमाचा जड़ते हैं, कि वह तिलमिला जाता है। स्मरण रहे, शब्द रूपी तमाचा, गाल पर नहीं, मुंह पर जड़ा जाता है।।

कूटनीति का नाम राजनीति है। यहां बल की जगह बुद्धि का प्रयोग अधिक किया जाता है। बुद्धि बल से बड़ा कोई बल नहीं। चरित्र हनन से लगाकर इनकम टैक्स और ईडी के छापों से जो काम कुशलतापूर्वक संपन्न किया जा सकता है, वह बल प्रयोग द्वारा नहीं किया जा सकता।

राजनीति काजल की कोठरी है, इसका फायदा उठाकर कई राजनेता यहां काले कारनामे भी कर जाते हैं, और अपनी छवि भी स्वच्छ बनाए रखना चाहते हैं। लेकिन जब ऐसे नेता मुंह की खाते हैं, तो जनता से सरे आम थप्पड़ भी खाते हैं, चेहरे पर कालिख पुतवाते हैं, छापे भी पड़वाते हैं और जेल की हवा भी खाते हैं। कहती रहे जनता, आप तो ऐसे न थे।।

हिंसा हिंसा है, शाब्दिक हो अथवा शारीरिक ! खेद है, शाब्दिक हिंसा का खेल आजकल राजनीति में इतना बढ़ गया है कि प्रतिकार स्वरूप आम जनता भी शारीरिक हिंसा पर उतर आई है। शब्दों का घाव अधिक गहरा होता है, यह फिर भी तमाचा खाने वाला नहीं समझ पाता ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 27 – बचपन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बचपन।)

☆ लघुकथा – बचपन श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

रीना एक पढ़ी-लिखी समझदार महिला है। वह सॉफ्टवेयर इंजीनियर है और अपने पति के समान ही नौकरी करती है फिर भी जानी क्यों अनुराग हमेशा दोस्त जमता रहता है अपने आप को  सुपीरियर दिखता है अपने ही हम में खोया रहता है। रोज-रोज के झगड़े और किस-किस से अब मेरे सब्र का बांध टूटने लगा है इस तरह रीमा विचार कर रही थी तभी अचानक अनुराग ने झगड़ा शुरू कर दिया तुम क्या करती रहती हो सारा काम करने के लिए घर में नौकर लगा के रखे हैं फिर भी ढंग से ना खाना मिलता है और ना घर में साफ सफाई होती है खुद ही चादर झटकना पड़ता है सोने के लिए और सारे कपड़े भी अपने खुद ही रखने पड़ते हैं रीना ने कहा तो अपना काम करने में क्या बुराई है मैं घर परिवार बच्चे क्या-क्या देखूं ठीक है तुम कुछ मत देखो मैं तुमसे तलाक ले लेता हूं। बिट्टू और पिंकी भी पास में खड़े होकर यह बातें सुन रहे थे वह डर के मारे चुपचाप अपने कमरे में चले गए थोड़ी देर के बाद उनके कमरे से चिल्लाने की आवाज आई दोनों पति-पत्नी भाग कर अपने बच्चों के पास आए तो देखिए बिट्टू ने कहा पापा मैं भी पिंकी से तलाक ले लूंगा यह बात सुनकर दोनों मां-बाप को आपस अपने आप में शर्मिंदगी महसूस हुई और उन्होंने कहा बेटा आप ऐसा नहीं कर सकती हो क्यों आपने तो कहा – अब तुम लोग बड़े हो गए हो और मैं बच्चा हो गया हूं। अनुराग और रीमा दोनों मुस्कुराने लग गए। बेटा हम लोग दोनों बच्चे हो गए थे और बचपन में हमसे यह गलती हो गई अब हम आपसे माफी मांगते हैं।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत – प्रेम ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

 

☆ गीत – प्रेम  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

गुज़ारें प्रेम से जीवन,नफ़रती सोच को छोड़ें।

हम अपने सोच की शैली अभी से,आज से मोड़ें।।

*

अँधियारे को रोककर,सद्भावों का गान करें।

मानव बनकर मानवता का नित ही हम सम्मान करें।।

अपनेपन की बाँहें डालें ,नव चेतन मुस्काए।

दुनिया में बस अच्छे लोगों को ही हम अपनाएँ।। 

जो दीवारें खड़ी बीच में आज गिरा दें।

अपने जीवन की शैली को आज फिरा दें।।

*

लड़ें नहिं,मत ही झगड़ें,कुछ भी नहीं मिलेगा।

किंचित नहीं नेह के आँगन में फिर फूल खिलेगा।।

देखें हम पीछे मुड़कर के,क्या-क्या नहीं गँवाया।

तुमने नहिं,नहिं मैंने लड़कर कुछ भी तो है पाया ।।

जो फैलाती हैं कटुता ताक़तें,उनको तो छोड़ें।।

गुज़ारें प्रेम से जीवन,नफ़रती सोच को छोड़ें।

हम अपने सोच की शैली अभी से,आज से मोड़ें।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ “मिट्टी का आँगन” ☆ श्रीमति उषा रानी ☆

श्रीमति ऊषा रानी

☆ संस्मरण- “मिट्टी का आँगन”श्रीमति ऊषा रानी

मेरा घर और मिट्टी का आँगन मुझे आज भी बहुत याद आता है।

मैं, अपने भाई-बहनों में तीसरी संतान, बहुत नटखट, जिद्दी और चंचल थी। मम्मी, मेरा बहुत ध्यान रखती थी।  हमारे घर में मिट्टी का आँगन था। मेरी मम्मी, मिट्टी से आँगन लीपती थी।

हम सब भाई-बहन और पड़ोस के बच्चें आँगन में खेलते थे लेकिन मिट्टी का आँगन, मुझे बहुत लुभाता था। आंगन भी मुझे देख कर प्रसन्न रहता था, लेकिन मई-जून का माह और स्कूल के ग्रीष्म अवकाश में सूर्य का तेज मुझे और आँगन को बहुत सताता था, घर पूरब दिशा में होने के कारण प्रात: सूर्य की किरणें, आँगन में प्रवेश कर जाती थी। आँगन में ही रसोई वो भी खुली थी, रसोई से लगी सीढियां छत की ओर जाती उसी सढियों के नीचे रसोईघर था।मम्मी प्रातः ही भोजन बनाती और बाबू जी हमे नहला देते थे। मम्मी, रसोई का काम समाप्त कर, हमें कमरे में अंदर रखती और धूप की तरफ से हल्का दरवाजा फेर लेती थी।

गर्मी की तपन मुझे और आँगन को बुरी तरह झुलसाती थी। आँगन में जगह-जगह मिट्टी की पपड़ी बन कर उतरती थी, मुझे आँगन की यह हालत देखी ना जाती थी। मम्मी शाम को आँगन में, झाडू लगा कर पानी का छिड़काव करती तब और ज्यादा गर्मी हो जाती लेकिन कुछ समय बाद आंसमा में चांद,तारों का शीतल व्यवहार आंगन को कुछ राहत देता था इसी तरह से गर्मियों की छुट्टियां बीतती। जुलाई माह में स्कूल का खुलना और मौसम का करवट बदलना    मुझे बहुत अच्छा लगता था।

बरसात के मौसम में आंधी के साथ पेड़ के सूखे पत्तों का आँगन में आ जाना, मुझे बहुत आर्कषित करता था, मन ख्वाबों की उड़ान भरता और सोचता कि विशाल पेड़ के पत्ते जिन्हें में छू नही पाती थी, आज मेरे आँगन में मेरे साथ खेलेगे। मैं बहुत खुश होती और हाथ फैला कर लट्टू की तरह घूम जाती फिर पत्तों को देखती, ये क्रम चलता रहता।

फिर आसमां में घटा का घिरना, नन्ही-नन्ही बूंदों का आंगन को स्पर्श करना, मानों कई माह की बिछड़न बाद एक-दूसरे को गले लग रहे है।

तपस हीं दूरियां समाप्त करती धरा का आलिगंन करना प्रकृति को स्वत: हरा- भरा कर देता है, वर्षा रुपी मोती से आंगन का भर जाना फिर धरा- अम्बर का मिलना मेरे कल्पना रुपी आंगन को, मिट्टी की  सौंधी-सौंधी खुशबू से  महका कर, वातावरण को सुगंधित बना देता है।

फिर तेज बारिश में, भीगने को आँगन में दौड़ना, मिट्टी में फिसलना और गिर जाना, मम्मी को अच्छा नही लगता इस लिए अक्सर मम्मी मुझे बारिश में भीगने नही देती।

मैं कमरे से ही आँगन में बारिश का बरसना और पानी में बुलबुले बनाना, बिखरना निहारती थी, ये प्रकृति क्रीड़ा मुझे, अपनी ओर आर्कषित करती थी, बूंदों का तड़- तड़ की आवाज करना मानों सरगम का स्वर होना मन मयूर नृत्य करने को मजबूर कर देता।

 पानी का, आँगन में भरना और तेजी से जल निकासी से बाहर जाना मुझको अच्छा लगता था, मिलकर दूर जाना, मुझे आज  भी एकांकी ओर ले जाता है, शायद मिलना- बिछड़ना प्रकृति में विद्यमान है।

आज भी मैं बारिश में नही निकलती हूँ। हवा के झोकों, वर्षा की फुहार में मम्मी का मेरे साथ होना महसूस होता है। मम्मी का हाथ पकड़ना,बारिश में नही जाने देना, मेरे स्मृति चिन्ह में आ जाता है।

मुझे “मिट्टी का आँगन” रह-रह कर, आज भी याद आता है। बहुत तड़पाता है मेरी मम्मी की याद दिलाता है आंखों में पलकों को भिगोकर चला जाता है।

मुझे आज भी  “मिट्टी का आंगन” याद आता है।

*

© श्रीमति ऊषा रानी (स०अ०)

सहायक अध्यापक 

संपर्क – कम्पोजिट विद्यालय खाता, विकास क्षेत्र- मवाना, जिला- मेरठ (उ०प्र०) मो नं – 9368814877, ईमेल – – [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सौ. पुष्पा प्रभुदेसाई – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सौ. पुष्पा प्रभुदेसाई

🏆 हार्दिक  अ भि नं द न 🏆

‘चला जाणूया नदीला’,

महाराष्ट्र शासनाचा उपक्रमसांगली मिरज कुपवाड महानगरपालिका यांच्या संयुक्त विद्यमाने आणि लोकमान्य टिळक स्मारक मंदिर सांगली यांनी आयोजित केलेल्या निबंध स्पर्धेत, आपल्या समुहातील  ज्येष्ठ  लेखिका सौ.पुष्पा प्रभुदेसाई  यांना प्रथम पुरस्कार मिळाला आहे. निबंधाचा विषय होता “नदीचे प्रदूषण थांबविण्यासाठी वैयक्तिक व सामाजिक जबाबदारी”.

समुहातर्फे त्यांचे मनःपूर्वक  अभिनंदन  आणि शुभेच्छा !💐

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares