हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ महाकवि गुणाढ्य और उसकी बड्डकहा (बृहत्कथा) – भाग १ ☆ सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ महाकवि गुणाढ्य और उसकी बड्डकहा (बृहत्कथा) – भाग १ ☆ सुश्री सुनीता गद्रे ☆

लगभग ईसा पूर्व 200 या 300 साल का कालखंड उस समय विंध्य पर्वत के दक्षिण में… मतलब आज का गुजरात, दक्षिण मध्य प्रदेश, उत्तर महाराष्ट्र का हिस्सा… वहाॅं सातवाहन वंश के राजाओं का राज्य था। उसमें से एक सातवाहन राजा के कालावधी में घटी हुई यह कहानी! प्रतिष्ठान (पैठण) प्रदेश में एक छोटा सा गाॅंव था, नाम सुप्रतिष्ठित !वहाॅं सोमनाथ शर्मा नाम के एक विद्वान पंडित रहते थे। उनका पोता गुणाढ्य! बचपन से ही वह बहुत बुद्धिमान था। दक्षिणापथ से विद्या ,ज्ञान अर्जित कर कर वह अपने गाॅंव वापस आया। इस प्रतिभावंत, विद्वान युवक को सातवाहन नरेश ने अपने राज्य का मंत्री पद बहाल किया।

एक दिन की बात!  सातवाहन राजा अपने रानियों के साथ राजमहल के पास बने हुए जलाशय में  जलक्रीड़ा का आनंद ले रहा था। उसकी एक रानी राजा ने किए हुए पानी के वर्षाव से परेशान हो गई थी। वह अचानक बोल पड़ी “मोदकैस्ताडय।” इस संस्कृत वाक्य का जो अर्थ राजा के समझ में आया वह था मुझे मोदकों से मारना। उसने तत्काल सेविकाओं से बहुत सारे मोदक(लड्डू) मंगवाऍं। यह देखकर रानी जोर से हॅंस पड़ी और कहने लगी,” राजन् यहाॅं जल क्रीडा में मोदकों का क्या काम ?मैंने तो आपसे कहा था,”मा उदकै: ताडय!” मतलब मुझ पर पानी मत उड़ाईए। आपको तो संस्कृत व्याकरण के संधि के नियम भी मालूम नहीं है।और तो और… आप परिस्थिति का संदर्भ समझकर मेरे वाक्य का अर्थ भी समझ नहीं सके।”वह रानी संस्कृत की बहुत बड़ी विदुषी थी। उसकी बातें सुनकर दूसरी रानियाॅं हॅंसने लगी। राजा बहुत शर्मिंदा हो गया। पानी से चुपचाप बाहर निकल कर वह अपने महल में चला गया।

यह बात उसके दिल को  शुल की तरह चुभने लगी। वह एकदम मौनसा हो गया। उसने यहाॅं तक सोचा कि अगर संस्कृत भाषा पर वह प्रभुत्व हासिल नहीं कर सका, तो वह प्राण त्याग करेगा।उसने राज दरबार में जाना भी छोड़ दिया।

राजा आजकल उदास रहता है, दरबार में भी नहीं जाता। ये बातें  गुणाढ्य को मालूम थी। लेकिन उसकी वजह मालूम नहीं थी। राज दरबार में शर्ववर्मा नाम का एक मंत्री भी था, शर्ववर्मा और गुणाढ्य  दोनों मिलकर सही समय देखकर राजा से मिलने गए ।राजा का उदास चेहरा देखकर शर्ववर्मा उसको भोर के समय देखे  गए अपने सपने के बारे में बताने लगा ।उसके सपने में आसमान से पृथ्वी पर उतर आया हुआ कमल… उसके पंखुड़ियों को स्पर्श करने वाला देव कुमार… फिर कमल में से प्रकट हो गई हुई सरस्वती माता… वहां से राजा के मुख में प्रवेश करके वही वास्तव्य करने वाली वह माता…. इस तरह की बहुत मनगढ़ंत बातें थी। राजा ने उस पर यकीन भी नहीं किया, लेकिन मौन छोड़कर वह बोलने लगा,

“इतने बड़े राज्य का में नरेश हूॅं। मेरे पास अपार धन संपत्ति है।लेकिन विद्या-सरस्वती- के बिना लक्ष्मी शोभा नहीं देती।” फिर गुणाढ्य की ओर मुखातिब होकर राजा ने पूछा, “कोई एक व्यक्ति जो पूरा परिश्रम करने को तैयार हो, वह व्याकरण सहित संस्कृत कितने दिन में आत्मसात कर सकता है।” गुणाढ्य ने कहा, “राजन् व्याकरण भाषा का आईना होता है और कोई नियमित रूप से पढ़ाई करने को तैयार हो ,तो भी व्याकरण सीखने में बारा साल लग जाते हैं,लेकिन मैं आपको छह साल में व्याकरण सिखाऊॅंगा।” गुणाढ्य को राजा के मन में  संस्कृत अध्ययन करने की तीव्र इच्छा की वजह मालूम नहीं थी।वह इस बात का भी अंदाजा नहीं लगा पाया कि राजा को महा पंडित नहीं बनना है।उसको तो रोजमर्रा की जीवन में उपयुक्त हो इतनी ही संस्कृत पढ़नी है।शर्ववर्मा के मन में वैसे भी गुणाढ्य के प्रति द्वेष था। जलक्रीडा और उसमें हो गया राजा का अपमान इसके बारे में उसको पूरी जानकारी थी।

उस पर यह एक अच्छा मौका उसके हाथ लगा था। उसने बड़े आत्मविश्वास से कहा,”महाराज मैं आपको छह महीने में व्याकरण सहित संस्कृत पढ़ा सकता हूॅं।

गुणाढ्य को यह बात असंभव लगी। उसने भी बड़े आत्मविश्वास के साथ शर्त लगाई,…. अगर शर्ववर्मा आपको सचमुच ही छह महीने में व्याकरण सहित संस्कृत सिखा देगा, तो मैं संस्कृत, पाली, प्राकृत ये तीनों भाषाऍं छोड़ दूॅंगा।” जवाब में  शर्ववर्मा

ने कहा,” अगर मैं इस में सफल नहीं हो पाया, तो आगे बारह साल तक मैं आपके ,मतलब गुणाढ्य के, पादूकाओं को सर पर धारण करूॅंगा।

क्रमशः… 

© सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 391 ⇒ मुफ़्त हवा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुफ़्त हवा।)

?अभी अभी # 391 ⇒ मुफ़्त हवा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब हरि ओम् शरण ने यह भजन गाया होगा ;

ना ये तेरा, ना ये मेरा

मंदिर है भगवान का।

पानी उसका, भूमि उसकी

सब कुछ उसी महान का …

तब शायद उन्हें यह अंदेशा नहीं होगा कि भले ही भूमि और जल पर उस महान का वरद हस्त है, शुद्ध हवा पर अब किसी की नजर लग गई है। आबोहवा अब हवा हो गई, आब अलग हो गया, हवा अलग हो गई। हवा में अब वो आब नहीं। अरे ओ आसमां वाले, तेरे पास भी इसका कोई जवाब नहीं।

तब हम शुद्ध हवा को ही ऑक्सीजन समझते थे। स्कूल कॉलेज के दिनों में उठाई साइकिल, और निकल पड़े कस्तूरबा ग्राम, टिंछा बाल, पाताल पानी और देवगुराड़िया। पीने के लिए पानी की बोतल कभी साथ नहीं रखी, लेकिन साइकिल में पंक्चर और हवा भराने के लिए पैसे ज़रूर रखना पड़ते थे, क्योंकि पग पग रोटी, डग डग नीर की व्यवस्था तो हो सकती थी लेकिन साइकिल के लिए मुफ्त हवा तब भी उपलब्ध नहीं थी।।

एक होता है कृषि विज्ञान जिसे हम एग्रीकल्चर कहते हैं, इसी तरह एक उद्यान विज्ञान भी होता है, जिसे हार्टिकल्चर कहा जाता है। खेती तो किसान ही कर सकता है, महानगरों को हवादार, प्रदूषण मुक्त और पर्यावरण युक्त बनाने के लिए जितना वृक्षारोपण जरूरी है, उतने ही बाग बगीचे भी। एक वर्ष हो गया सुबह घर से निकले, शुद्ध हवा का सेवन किए। मुंह पर मास्क लगाकर शुद्ध हवा तो छोड़िए, मुंह से शुद्ध बोल तक नहीं निकल पाते। मास्क कोई हवा में उड़ता लाल दुपट्टा मलमल का नहीं, एक संस्कारी बहू के पल्ले की तरह, मास्क को कायदे से मुंह पर ही होना चाहिए।

आवश्यकता आविष्कार की जननी है। किसे पता था कि जैन मुनियों की तरह हमें भी पानी को उबालकर और छानकर पीना पड़ेगा, मुंह पर कोरोना से बचाव के लिए मास्क पहनना पड़ेगा। कौन जानता था, अहिंसा के देश में, जहां कीड़े मकोड़ों तक को नहीं मारा जाता, कोई जैविक हथियार इतना शक्तिशाली सिद्ध होगा जो हमें पूरी तरह अशक्त, अहिंसक और असहाय बना देगा। पर्यावरण इतना निस्तेज हो जाएगा कि फेफड़ों में ऑक्सीजन की कमी हो जाएगी और कृत्रिम ऑक्सीजन के अभाव में लाचार इंसान सांस तक नहीं ले पाएगा। किसकी सांस आखरी हो, पता नहीं।।

जहां चाह है, वहां राह है। अच्छे दिनों का इंतजार और अभी, और अभी, और सही। साल भर में कोरोना ने बहुत कुछ सिखाया है, कपूर, अजवाइन, तुलसी, गिलोय, गर्म पानी की भाप और लंबी गहरी सांस। गर्मी तो है, पर लोहा ही लोहे को काटता है। सुबह सुबह तो गर्म पानी पी ही लीजिए। केवल सरकार पर ही नहीं, उस अलबेली सरकार पर भी भरोसा रखें। वेक्सिन का दौर चल रहा है। सभी टीवी सीरियल के पार्ट 2 पर्दे पर आ गए हैं। मोदी सरकार की भी तीसरी पारी शुरू हो गई है। करन अर्जुन आएं ना आएं, हमारे अच्छे दिन आएंगे, आएंगे, जरूर से आएंगे। फिर सबका चेहरा गुलाब सा खिलेगा पर्दा हटेगा, हुस्न का जलवा फिर बिखरेगा। तब हम सब चैन की सांस लेंगे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #236 ☆ लघुकथा – सत्य की राह ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा सत्य- की- राह)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 236 – साहित्य निकुंज ☆

☆ सत्य- की- राह ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

सलोनी ने अपने माता-पिता की मर्जी के खिलाफ अनमोल से शादी की थी। माता-पिता ने भी ज़्यादा कुछ नहीं बोला उन्होंने मंदिर में शादी कर दी। सलोनी के अलावा उनकी चार बेटियाँ और है। उन्होंने सोचा कोई बात नहीं अगर यह चाहती है तो उसे अपनी इच्छा करने दो जो होगा देखा जाएगा। 4 वर्ष हो गए शादी को एक बेटी भी है जिन्दगी खुशहाल है।

अनमोल और सलोनी दोनों की उम्र करीब 22-23 वर्ष की है। अनमोल किसी छोटी कंपनी में काम करता है और अपनी रोजी-रोटी दिल्ली में चलाता है। अभी कुछ दिन पहले परिवार की एक शादी में उससे मुलाकात हुई।

अवकाश के दिन पुरानी कंपनी के बॉस उसके घर आए और उससे कहा – “कि तुमने काम क्यों छोड़ा है इतना बढ़िया काम इतना अच्छा पैसा तुम्हें कहाँ मिलेगा।” अनमोल ने कहा – “नहीं सर मैंने दूसरी कंपनी ज्वाइन कर ली है मैं वह काम नहीं कर सकता।” थोड़ी देर बाद सलोनी चाय बनाकर लाती है और बॉस को नमस्ते कर अंदर चली जाती है। तभी उन्होंने मेरी बीवी को देखा और मुझसे कहा- “इतना बढ़िया खजाना तुमने घर में छुपा रखा है इसे क्या शोकेस में सजाओगे।” सर जब हमने शादी की थी तब मेरा मकसद कुछ और था लेकिन जैसे ही सलोनी की संगत मुझे मिली मेरा मन बदल गया मेरी आत्मा ने मुझे धिक्कारा लड़कियाँ सप्लाई करने का मैं यह ग़लत काम कभी नहीं करूंगा। ठीक है ठीक है तुमने जो सोचा सही सोचा होगा। अगर कभी मन परिवर्तन हो तो तुम्हारे लिए दरवाजे खुले हैं।

अनमोल मन ही मन सोच रहा था कहीं सलोनी ने हम दोनों की बातें न सुन ली हो।

बॉस के जाने के बाद सलोनी अपनी बेटी को लेकर बाहर आती है और कहती है- “आज मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा कर रही हूँ मैं गंदगी में जाने से बची और तुमने सत्य की राह पर चलने का निर्णय लिया।” अनमोल सलोनी की बात सुनकर निशब्द—-हो गया।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #218 ☆ पूर्णिका – किससे कहें हम ये दास्तां हमारी… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है पूर्णिका – किससे कहें हम ये दास्तां हमारी आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 218 ☆

☆ पूर्णिका – किससे  कहें  हम ये  दास्तां  हमारी ☆ श्री संतोष नेमा ☆

जमाने के  हम भी  सताये  हुए  हैं

मुहब्बत में हम  चोट खाये  हुए  हैं

*

मिला दर्द हम को अपनों से ज्यादा

कैसे  बताएँ  गम   छिपाये  हुए  हैँ

*

हैँ मालूम हम को, रिवायत जगत की

फिर भी  ये दिल  हम  लगाए हुए हैं

*

किससे  कहें  हम ये  दास्तां  हमारी

कि कितने सितम हम उठाये हुए  हैँ

*

फरेबी,  दगावाज़   होती  है  दुनिया

अपने भी अब  स्वयं पराये  हुए   हैँ

*

वो  नजरें मिला कर  नजर फेरते  हैँ

फिर भी  निगाहें हम बिछाए हुए  हैँ

*

अब किसी की जरूरत नहीं है हमें

“संतोष” दिल में हम बसाए  हुए हैं

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… नौतपा ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशित। गीत कलश (छंद गीत) और निर्विकार पथ (मत्तसवैया) प्रकाशाधीन। राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 350 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… नौतपा ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(नौतपा और उसके पश्चात की वेला पर आधारित) 

गरमी भीषण पड़ी, जेठ के  महीने अड़ी,

होते गर्म रात- दिन, नौतपा जलाता तन |

*

लू लपेटे फँसे चलें, जल बिन कैसे पलें?

सूरज प्रचंड ताप, आपत को सहे जन ||

*

बाहर को मत जाओ, घर रह सुख पाओ,

तपती है मरुभूमि, हुआ बुरा हाल मन‌।

*

नौतपा पे सब हारे, सूखे नदी वृक्ष सारे,

योगिता काँपते पल, जल थल और वन ||

*

ओ बरखा रानी आओ, बदरा बनके छाओ,

प्यासी है धरती सारी, प्यासे सारे जलचर।

*

बूंदें बन बरसना, गर्मी में है जीव घना,

तीव्र घनघोर जल, शीतल ठंडक कर।।

*

कृषक देखता राह, नव हो जीवन चाह,

चलें कब खेत पर, बनकर हलधर।

*

सौंधी माटी की महक, खत्म देह की दहक,

वृक्ष को लगायें सभी, स्फुरित हो बीज  हर।।

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 225 ☆ प्रतिभेचे चैत्रांगण…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 225 – विजय साहित्य ?

☆ प्रतिभेचे चैत्रांगण…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

गंध बकुळीचा आहे

अलौकिक साहित्याला

शांता शेळके शैलीने

दिला अर्थ लालित्याला..! १

*

इंदापूर जन्म गाव

खेड मंचर आजोळ

बालपण गेले येथे

शब्दांकीत झाली ओळ.! २

*

लोक संस्कृतीचा ध्यास

लोक साहित्याचा पाया

शब्दां शब्दांवर त्यांच्या

केली शारदेने माया.! ३

*

जन जीवन ग्रामीण

साधं सरळ दर्शन

कारूण्यानं भरलेल्या

साहित्याचं आकर्षण.! ४

*

भाषाभ्यास मराठीचा

जोड इंग्रजी संस्कृत

लेखनाच्या व्यासंगाने

काव्य गीत आलंकृत.! ५

*

 लोकप्रिय गीतकार

भावनाट्य शब्दांकन

भाव भावना नाजूक

हळवेले संवेदन.! ६

*

असा बेभान हा वारा

पाण्या वरच्या पाकळ्या

मेघदूत अनुवाद

उमलल्या शब्द कळ्या.! ७

*

धूळ पाटी आत्मकथा

प्रतिभेची दैवी रेघ

कथा कादंबरी गीत

शब्द सौंदर्याचे मेघ…! ८

*

सूक्ष्म तरल भावना

भाषा शैली ओघवती

शुद्ध, निरागस काव्य

गीत शैली खळाळती..! ९

*

देहभान विसरून

निसर्गात रममाण

उत्कटसा आविष्कार

शब्द लालित्य प्रमाण.! १०

*

कधी कळ्यांचे दिवस

कधी फुलांच्याच राती

आनंदाचे झाड असे

आठवांच्या फुलवाती..! ११

*

गीते सुनीते लावणी

कथा लेखन विपुल

बालकथा बालगीते

घालतात रानभूल..! १२

*

आत्मपर लेखनाची

शांताबाई एक यात्री

नाट्य गीते, भक्ती गीते

कोळी गीते नेक गात्री..! १३

*

बहु आयामी लेखिका

साहित्याचे मानांकन

अभिजात दैवी लेणे

प्रतिभेचे चैत्रांगण…! १४

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माझा कुणी नाही..! ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

डॉ.सोनिया कस्तुरे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ माझा कुणी नाही..  डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

तो माझा आहे तरी

माझा कुणी नाही..!

*

सावली हवी तेव्हा

झाड होऊन येई

विरहाच्या भावनी

पाऊस सरी बरसी

*

एकांताच्या क्षणी

कविता दाटे मनी

गाणे होऊन भेटे

वादळ वाटेवरी

*

प्रकाश जेव्हा लागे

सूर्य तो सकाळी

दिप होऊन भेटे

अंधारल्या वेळी

*

तो माझा आहे तरी

माझा कुणी नाही..!

© डॉ.सोनिया कस्तुरे

विश्रामबाग, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:- 9326818354

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मी एक असमंजस… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

मी एक असमंजस ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

या पूर्वी माझा डोळसपणा व माझा कानसेन पणा आपण वाचला आहे. आज तर मला माझ्या समजुती की गैरसमजुती ? शहाणपणा की मूर्खपणा ? यातच गोंधळ होऊ लागला आहे. आणि मी सामान्य नसावी असे वाटू लागले आहे. हे असे वाटण्याची कारणे पण सांगते. मलाच माझ्यावर शंका येऊ लागली आहे.

तर काही दिवसांतील अनुभव सांगते. मी अनेक वर्षे सकाळी लवकर चालायला जात असते म्हणजे आपले मॉर्निंग वॉक. तर यात विशेष काय? सगळेच जातात ना ? असे मला वाटते. पण चालायला आल्यावर छान निसर्ग ( असेल तर ) बघावा. गवतावर चालावे, फुलांचा,गवताचा,झाडांचा मंद सुगंध भरून घ्यावा. स्वतःशी मस्त संवाद करावा. काही काळ फोन,इतर साधने यांना विश्रांती द्यावी. अशी माझी समजूत आहे. म्हणून मी फोन शक्यतो घरी ठेवते. पण यात रमणारी मी मूर्ख ठरते. कारण बघावे त्यांच्या कानात निरनिराळी बटणे ( आपले हेडफोन्स ) दिसतात. एकदा तर चांगलीच गंमत झाली. माझ्या शेजारून चालणारी मुलगी अचानक माझ्याशी बोलू लागली. मला तेच हवे असते. मी कुठेतरी वाचले होते, दोन माणसे एकमेकांशी बोलत आहेत हे सर्वात सुंदर दृश्य आहे. मी तर माणूस वेडी. ती बोलत आहे हे बघितल्यावर मी पण बोलू लागले. आणि थोड्याच वेळात ती माझ्याकडे विचित्र नजरेने बघू लागली. कारण ती त्या बटण सदृश्य हेडफोन मधून अनेक कि.मी. जवळ असलेल्या व्यक्तीशी बोलत होती. आणि मी तिच्याशी. मग माझ्या विषयी तिचे गैरसमज होणारच. अजून एक गंमत अनुभवास येते. बरीच मंडळी जाता येता झाडाची पाने तोडतात व काही अंतरावर टाकून देतात. हे बघून मला मात्र वाईट वाटते. असे वाटते त्या झाडांनी तुमचे काय बिघडवले आहे? तसे सांगण्याचा प्रयत्न केला तर लोक विचित्र नजरेने बघतात. काही मंडळी तर गवतावर बसतात. आणि हाताने त्याच जागेवरचे गवत उपटतात. बरेचदा आपण हे करत आहोत हे पण त्यांच्या लक्षात येत नाही. मी लक्षात आणून दिले की तेच विचीत्रपणे बघणे अनुभवते.

माझा अजून एक मूर्खपणा सांगते. त्याच मॉर्निंग वॉक वरून परतत असताना मला एक वेगळाच छंद जडला आहे. ज्यांचे नळ चालू आहेत व पाणी वाया जात आहे ते बंद करायचे. ज्यांच्या पाण्याच्या टाक्या ओसंडून वहात आहेत त्यांना त्यांच्या घरात जाऊन सांगायचे व वाहणारे पाणी बंद करायला लावायचे. आणि रस्त्यावर वाहणाऱ्या नद्या बंद करायच्या म्हणजेच रस्ते स्वच्छ करणे थांबवायचे. आहे ना वेडेपणा? कारण आम्ही बिल भरतो, आमचा नळ आहे तुम्हाला काय करायचे आहे? अशी मुक्ताफळे ऐकून घ्यावी लागतात. तरी मी काही सुधारत नाही. याच पाण्या बाबत आमचा वेडेपणा सांगते. तर आम्ही काय करतो ते सांगते म्हणजे तुम्हाला पण पटेल. आम्ही  डाळ,तांदूळ,भाज्या धुतलेले पाणी एका छोट्या बादलीत घेतो आणि ते कुंड्यातील झाडांना घालतो. कपडे धुतलेले पाणी सडा टाकायला वापरतो. कपडे पिळलेले पाणी संडास,बाथरुम धुवायला वापरतो.पाणी प्यायला देताना शक्यतो अर्धा ग्लास देतो. लागले तर पुन्हा देता येते. आणि तरीही उरलेच तर एका भांड्यात साठवतो. ते कुठेही वापरता येते. गाड्या नळीने न धुता अशा साठवलेल्या पाण्यातून धुणे/पुसणे करतो. पण पक्ष्यांना मात्र एका मोठ्या भांड्यात आवर्जून पाणी ठेवतो.

आहे ना वेडेपणा?

हीच गोष्ट लाईटची घराबाहेरील लाईट रात्र रात्र चालू असतात. बरे हे काम करायला रस्त्यावरील सरकारी दिवे चालू असतात. काहींच्या घरात संडास, बाथरुम यातील लाईट चोवीस तास चालू असतात. आपल्याला खटकले आणि विनंती करून सांगितले तरी उत्तर तेच मिळते. आम्ही बिल भरतो. आमच्या घरात किंवा बाहेर लाईट ठेवतो. तुम्हाला काय करायचे आहे? आम्ही मात्र प्रत्येकाच्या हाताला व मनाला सवय लावून घेतली आहे, ज्या खोलीतील काम होईल त्या खोलीतील लाईट बंद करायचे. आहे ना वेडेपणा?

एक असाच वेडेपणा नुकताच अनुभवला. मतदान करण्यासाठी सुट्टी मिळाली होती. शनिवार रविवार याला जोडून सुट्टी होती. म्हणजे उत्तम योग. आणि त्याचा फायदा उच्च विद्या विभूषित हुशार लोकांनी घेतला. मस्त जोडून रजा घेऊन छान थंड हवेची ठिकाणे गाठली की. आणि आमच्या वयाची काही मूर्ख माणसे ७/८ तास प्रवास करुन मतदानासाठी पोहोचली. आणि आमच्या सारखे कर्मचारी तर ऊन,तहान सगळे विसरून,स्वतःला होणारे त्रास विसरुन मतदान अधिकारी म्हणून काम करत होते. आहे ना मूर्खपणा?

असे बरेच वेडेपण आहे. जाता जाता अजून एक वेडेपणा सांगते. हल्ली मस्त रात्री केक कापून मोठ्या आवाजात गोंधळ करुन  Happy Birthday साजरा करतात. केक तोंडाला फासतात. आम्ही मात्र वाढदिवस सकाळी साजरा करतो. सुवासिक अंघोळ घालतो. गोडाचे जेवण करतो. औक्षण करतो. देवळात जाऊन आशीर्वाद घेतो. एखाद्या संस्थेत त्या दिवशी जेवणाचा होणारा खर्च देतो. आहे ना वेडेपणा?

इतरांचे उच्च आवाजातील संगीत, डीजेचे व अपरात्री फटाक्यांचे आवाज ऐकणारे आम्ही. स्वतःच्या घरात कुलर लावताना त्याचा आवाज इतरांना त्रास देईल का? हा विचार करून आपला फॅन लावून झोपणारे आम्ही. आहोत ना वेडे?

तर मंडळी असे वेडेपणाचे बरेच किस्से आहेत. नमुना म्हणून काही सांगितले. आणि आपल्याच मंडळींचा सल्ला घ्यावे वाटले. म्हणून हा लेखन प्रपंच केला आहे.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

मेडिटेशन,हिलिंग मास्टर व समुपदेशक.

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “पप्पू पास झाला…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

“पप्पू पास झाला…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

…” अगं रखमे का गं असं कसनुसं त्वांड घेऊन बसलीयास!… कसला एव्हढा पेच पडलाय तुला? … परवाच्या दहावीच्या परिक्षेत तुझा पप्पू पास झाला न्हवं!… आखरीला त्येचं घोडं गंगेत न्हायलं कि!… तू त्यो पास व्हावा म्हनुनशान दर वरसाला कसलं कसलं उपास तपास करत व्हतीस.. हायं ठावं मला!…पप्पू आता लै मोठा झाला… मिळलं कि तालुक्याला त्येला एखादी नोकरी बिकरी!… मगं धाडलं कि पगाराचं पैसं तुला!… सुटका व्हईल बघ तुझी या काबाडकष्टातनं!… खाशील चार घास बघशील सुखाचं चार दिस… अगं आता हातातोंडाशी आलेला घास असताना तू हसत खेळत राहायचं सोडून बैजार का गं?… माझंच बघ कि  समंध तुला ठावं हाय न्हवं… दोन पोरं पोटाला असून बघ कशी बेवारसा परमानं जगणं जिती… जाईल तिकडं त्येंना मुलूख थोडा हायच म्हनायचा..आनि  मागचा दोर त्येंनी कापून कवाच टाकला… सोताचा संसार घरदार केल्लं नि मला म्हातारीला ,आपल्या घरला, गावाला इसरून गेलं… देवाची किरपा म्हनून डुईला छप्पार न  भाताची पेज करून खायला चार दाणं भातं पिकवणारी  जमिन हायं म्हनून तरले बघ… चार कायबाय बोला चालायला तुझ्यासारखी मैतरनी हायती तवा रोजचा दिस सरतो एकल्याला.. न्हाई तर काय बी खरं न्हवतं… परं रखमे तुझं तर लै बेस हाय कि… तरी बी काळजीनं काळी ठिक्कर पडलीयास कि… काय झालं, घडलं ते तर सांगशिल का न्हाई?”…

.”.. काय बोलायचं गोदाक्का!… संसाराचा खेळखंडोबाच लिवलाय माझ्या नशिबात!… त्यो ह्या जल्मात संपतोय का न्हाई कुनास ठावं.?.. सावकाराकडं चाकरीला धनी व्हतं पाच सा वरसा मागं त्येंना त्या सावकाराच्या खुनाच्या भानगडीत जे पकडून नेलया ते तिकडं जेलात… अजून कोर्ट कचेरीत खरा खोट्याचा निवाडा होतोय जनू.. किती दिसं, महिनं का वरिस जातील याला मोजदाद कुठवर करायची?… वकिलाला पैका द्यायला धडुत्यात तो असायला हवा कि!… शेतावर भांगलयाला जातं व्हते त्यावर पोराचं नि माझं प्वाटं तरी भरत व्हतं!… सरपंच देव मानूस बघं त्येनं पोराची शाळंची काळजी घेतली… तवा कुठं दहावी पतुर प्वारं शिकलं बघं.. न्हाई म्हनायला चार पाच येळेला गटांगळ्या खाल्या त्यानं बी.. पन तड गाठली… तुला हे काय म्या नव्यानं सांगायला हवं.!.. तुझ्या समोरच सगळं घडत बिघडतं गेललं दिसतं व्हतंच कि!… त्ये येळेला तू माझी जिवाभावाची भनीवानी आधार देत व्हतीस कि!…पन तुला यातली आतली गोम काय व्हती ती ठावं नसंल.?.. अगं शाळंपायी माझा पप्पू त्या सरपंचांच्या घराकडंच दिसरात गुरावानी दावणीला बांधल्यावानी तिकडचं कि गं!… मीच त्येला जाता येता हाळी मारून बोलयाची… पप्पू बोलायचा ,’आये तू माझी काय बी काळजी करू नगंस.. मी हथं बेस हाय बघ… सरपंच मला म्ह़नातात दहावी झाल्यावर तालूक्याला बाजार समिती वर नोकरीला लावतो म्हनून.. तवर इथली चार पडत्त्याल ती कामं करत जा… ‘चांगलं दिसं येनार ह्या आशेवर पप्पू नि मी राहिलो बघं… पन ते चार दिस आमच्या पतूर कधीच आलं  न्हाईत… अन पप्पू मातर ते दिस येतील या खुळ्या आशेवर बसला नि राबराबत राहिला… संतरंज्या घालन्या काढन्यापासून, घरातली संबंध काम उरकन्यापर्यंत, विलेक्शन च्या मोर्चात, सभंत, लोकांना पैसं, धोतार, लुगडी वाटन्या पतूर.. पोस्टार लावणं म्हनू नको, ते घरघरात जाऊन सरपंचालाच मत द्या असा परचारचं म्हनू नको….. लोकांना मतदानादिवशी घेऊन आणयाला… आनि कशा कशाला पप्पू धावत व्हताचं… त्येला बी आपलं सरपंच निवडून यावं असं लै वाटतं हुतं… अगदी इमानदारीनं खपत हुता…त्या टायमाला  एक दिस बी घराकडं त्यो आला न्हाई कि कवा माझ्या नदरंला पडाया न्हाई… सरपंचा च्या घरला इचारलं तर ‘त्ये बेनं असलं इकडं तिकडं बोंबलत गावातनं.. ‘असं काहीबाही वंगाळ सांगायचे… मला लै भ्या वाटायचं.. पप्पू ची लै काळजी वाटत हूती.. एक दोन बाऱ्या त्येच्या दोस्तांच्या कडं त्येची इचारपूस बी केली.. पन त्येंनी बी’ काय कि पप्पू ला दोन दिसा माघारापासून बघितालाच न्हाई  असं जरा दबकतच बोलले… तोच कोन तरी मधीच त्वांड उघडलाच.. सरकारी हॉस्पिटलात पडलाय तो… कवाधरनं.’.. माझ्या पायाबुडीची वाळूच सरकली नव्हं… म्या तडक हॉस्पिटल गाठलं.. त्येच्या वारड बाहीर पोलीस उभा व्हता… मला त्यांनी आत सोडायची परमिशन न्हाई म्हनून अडवून धरलं.. म्या रडत भेकतं त्या पोलीसाचं पाय धरलं म्हनलं एक डाव नदरनं त्येला माझ्या लेकराला कसा हाय ते बघू द्या.. मगं मी हथनं हालन.. डोळ्याचं पानी खळंना आणि हृदयाचं पानी पानी झालेलं… काय झालं ?कशानं झालं ?कुणा मुळं ?कशा कशाचा पत्तया लागंना… सरपंचाची माणसं सारखी येत जात व्हती… त्या फौजदारी संगट हसत खिदळत बोलत असताना मला कळालं… सरपंच निवडणुकीत हरला व्हता… त्येचा राग धरून सरपंचाची पोरं जितलेल्ल्या  पुढाऱ्यांच्या माणसांना  लाठ्या काठ्या, सुरे तलवारी घेऊन मारायला धावले.. त्यांच्या बरोबर पप्पू पण व्हता.. बरीच हाणामारी, डोकी फुटली, हातपाय तोडले…पप्पूच्या डोक्याला जबराट लागलं… कुणीतरी उचलून त्येला हास्पिटलात टाकला.. सरपंच येऊन फौजदाराला सांगून गेला…’ हि दंगा करणारी माझी माणसं न्हाईत.. कुणीतरी भाडेकरू गुंड आणलेले दिसतात… तुम्ही यांना खुशाल जेलात टाका.. पन माझं नावं मातर कुठचं आणायचं न्हाई… आनि यांच्या घराकडं पन कळवू नका… उगाच माझ्या डोसक्याला न्हाई तो ताप व्हईल… तेपरीस इथचं पडनात का.’.. . एव्हढं त्या पोलीसांनी सांगितलं.. म्या पप्पूला आत जाऊन बघितलं तर त्येच्या डोक्याला प्लॅसटर.. हातपाय बांधलेलै.. नाकाला नळकाडं… बघितलं.. तिथली ती सिस्टर म्हनाली लै सिरियस केस हाय… कधी काय व्हईल काय नेम न्हाई… तवा… म्या तशीच बाहीर येऊन शान डोकं धरून बसून राहिलं… देवाला नवस करत… कोन येनार हायं माझ्या मदतीला अश्या वकताला… दिसरात ततचं काढले… पन अजून काई फरक दिसना..फौजदार मला महनले पोलीस केस झालीया… पप्पूला गुन्हेगार शाबूत केलयं.. जिता राहयला तर जेलात ठिवनार अन त्या आदुगर गेलाच तर केस बंद करून टाकनार…गोदाक्का माझ्या पप्पूनं  आपुनच ती केसच आताच  बंद करून टाकली… घराकडं निघाले तर वाटत तू भेटलीस…गोदाक्का माझा पप्पू इतकं दिसं नापास होत व्हता आनि नेमका यावेळेला तो पास झाला तवा…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ३ अनुवादित लघुकथा – प्रेशरकुकर/यातनांचं गाठोडं/अहिंसावादी पार्टी – मूळ हिंदी लेखक:डॉ. रमेश यादव ☆ मराठी अनुवाद : सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? जीवनरंग ?

☆ ३ अनुवादित लघुकथा – प्रेशरकुकर / यातनांचं गाठोडं / अहिंसावादी पार्टी – मूळ हिंदी लेखक:डॉ. रमेश यादव ☆ मराठी अनुवाद : सौ. गौरी गाडेकर

☆ (१) प्रेशरकुकर… ☆

खचाखच भरलेली चर्चगेट-विरार लोकल मीरा रोड स्टेशनवर थांबताच लोकांची गर्दी, कोंडलेला श्वास सोडत बाहेर पडली. जणू त्यांना एखाद्या गॅस चेंबरमधून मुक्त केलंय आणि आता ते मोकळ्या हवेत श्वास घेत आहेत. 

त्यात शांतिलालही होते. ट्रेनमधून उतरून लांब लांब टांगा टाकत शांतिलाल सरळ जाऊन रिक्षाच्या रांगेत थांबले. जवळजवळ दहा मिनिटांनी त्यांचा नंबर लागला. 

बेल वाजवली. दरवाजा उघडता उघडता पत्नी म्हणाली,” आज पुन्हा उशीर झाला?परवा माझं उद्यापन आहे. सगळं सामान आणलंय ना? की नेहमीसारखाच आजही वेळ नाही मिळाला?” 

पत्नीला बाजूला  सारून शांतिलालजी आत सोफ्यावर डोळे मिटून बसले.

काही वेळाने पत्नीला म्हणाले,” ऐक.ऑफिसात कामाचं खूप प्रेशर आहे. बॉसकडून उलटसुलट बोलणी आणि ओरडा खाण्यापेक्षा उशिरापर्यंत बसून मी आपलं काम कसंबसं पुरं करतो. टार्गेट पुरं झालं नाही, म्हणून बॉस आपली भडास स्टाफवर काढतो. तू तर दिवसभर घरातच असतेस ना? मग आवश्यक ती खरेदी आटपून घेत जा.”

“असं कसं? दोघांनी मिळून केलं,तर पूजेचं सगळं आयोजन व्यवस्थित होईल ना! लग्न करून आले,तेव्हापासूनच  तुमच्या ऑफिसचं रडगाणं ऐकते आहे. मल्टिनॅशनल कंपनीची नोकरीआणि मुंबईचं नाव ऐकून मी लग्नासाठी होकार दिला होता. आमचे बाबा सरकारी ऑफिसात साहेब होते. माझ्या आईला कधी बाजारहाट करावा लागला नाही. दुकानदार नाहीतर बाबांच्या ऑफिसातला प्यून घरी सगळं सामान आणून द्यायचे. तसंही आमच्याकडे बायका बाहेरची कामं करत नाहीत. कुटुंबाच्या इज्जतीचा प्रश्न असतो तो.” 

त्याच वेळी प्रेशरकुकरची शिटी वाजली. शांतिलाल स्वतः किचनमध्ये गेले. पहिल्यांदा त्यांनी लक्षपूर्वक कुकरकडे बघितलं आणि मग ते विचार करायला लागले,’ या कुकरकडे तरी बघा . वरून प्रेशर आहे आणि खालून आग लागते आहे ,तरीही शिटी वाजवत काय मस्त काम करतो आहे! अनावश्यक वाफ बाहेर टाकायची ,हे त्याला बरोबर माहीत आहे.’ 

मग काय? पुढच्याच क्षणी ऑफिसची चिंता सोडून शिटी वाजवत ते पत्नीला सामोरे गेले. 

मूळ हिंदी लेखक:डॉ. रमेश यादव 

अनुवाद: सौ. गौरी गाडेकर. गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई, फोन नं. 9820206306

☆ (२) यातनांचं गाठोडं ☆

हलतडुलत  बस आली आणि वृद्धाश्रमासमोर थांबली. आतापर्यंत पिकनिकच्या मूडमध्ये असणारी मुलं अचानक शांत झाली. 21 ऑगस्ट आंतरराष्ट्रीय ज्येष्ठ नागरिक दिवस म्हणून साजरा केला जातो, म्हणून पिकनिक स्पॉटनंतर त्यांना या वृद्धाश्रमात स्टडीटूरसाठी आणण्यात आलं होतं. वृद्धाश्रमाचे पदाधिकारी त्यांची वाट बघत होते. वही आणि पेन सांभाळत मुलं बसमधून खाली उतरली. एकमेकांची ओळख करून देणं, थोडा खेळ, खाणंपिणं झाल्यावर पाच-पाच मुलांचा गट बनवण्यात आला आणि त्यांना वृद्धांच्या खोलीत त्यांच्याशी बोलण्यासाठी पाठवण्यात आलं. 

निकिता आपल्या गटाबरोबर ज्या खोलीत गेली, तिथे एक आजी झोपल्या होत्या. कर्मचार्‍याने सांगितलं की या आजी हल्लीच आल्या आहेत. त्यांची तब्येत ठीक नाही,म्हणून त्या बाहेर आल्या नाहीत. त्या खोलीत शिरताच मुलांनी आजींना नमस्कार केला. त्यांची चाहूल लागताच आजी उठून बसल्या. आजीचा चेहरा बघताच निकिता सुन्न झाली.दोघींची नजरानजर झाली आणि त्यांच्या अंतःकरणातून प्रेमाचा लाव्हा फुटला. धावत जाऊन निकिता आजीला बिलगली आणि हमसून हमसून रडू लागली. आजीही तिचे पापे घेऊ लागली. समोरचं दृष्य बघून सगळे चकित झाले. रडण्याचा आवाज ऐकून टीचर आणि इतर लोकही तिथे आले.हे काय झालं अचानक? कोणालाच समजत नव्हतं. प्रयत्नपूर्वक टीचरनी दोघींना शांत केलं. 

पाणी पिऊन निकिताने सांगितलं,” टीचर, ही माझी आजी आहे. घरच्यांनी मला सांगितलं की आजी गावी गेली आहे. हा वृद्धाश्रम म्हणजे आजीचा गाव आहे,का टीचर? “

हे ऐकताच खोलीत विलक्षण शांतता पसरली. एकमेकींपासून दूर राहण्याची वेदना निकिता आणि आजी -दोघींच्याही चेहर्‍यावर स्पष्ट दिसत होती. 

“टीचर,मला घरी नाही जायचं. मी आजीबरोबर इथेच राहीन आणि आजीची काळजी घेईन. जेव्हा मी आजारी पडायचे, तेव्हा आजीला दिवस-रात्र एक करताना पाहिलंय मी. मम्मी-पापा तर ऑफिसात निघून जायचे. टीचर,ही माझी फक्त आजी नाही, माझी मैत्रीणही आहे. जिथे  कुठे राहू, आम्ही दोघी एकत्र राहू .मम्मी-पापा माझ्याशी खोटं का बोलले कोणास ठाऊक! ” 

निकिताचा दबलेला ,घुसमटलेला आवाज शांततेला चिरून जात होता. बालमनाला लागलेल्या  ठेचेने सगळ्यांच्या  यातनांचं गाठोडं उघडलं गेलं होतं. 

मूळ हिंदी कथा: ‘पीडा की गठरी’

मूळ लेखक : डॉ. रमेश यादव

अनुवाद: सौ. गौरी गाडेकर. गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई, फोन नं. 9820206306

☆ (३) अहिंसावादी पार्टी ☆

जंगलात निवडणुकीचा धूमधडाका चालू होता. त्यामुळे प्राणी आणि प्राणिनेत्यांच्या भेटीगाठी वाढल्या होत्या. लहानसहान पुढारी आपली रोटी भाजून घेण्यासाठी अचानक सक्रिय होऊन मांड्या ठोकत होते. लोकांना आकर्षित करण्यासाठी हिंसक पुढार्‍यांनी अहिंसेचा जप सुरू केला होता. एकजूट करून निवडणूक लढण्याच्या इराद्याने लहान पक्षांच्या काही प्राणिनेत्यांनी जंगलाबाहेर तलावाकाठी गुपचूप भेटायचं ठरवलं होतं. कोल्हा,अस्वल,लांडगा, बोका,बगळा वगैरे पुढारी अगोदरच पोहोचले होते. दुसर्‍याची विचारपूस करता करता आपलंच घोडं पुढे दामटत होते. या सर्वपक्षीय पार्टीचा नेता कोण होणार आणि जनतेला आपल्याकडे कसं वळवायचं , यावर चर्चा चालली होती. स्वतःविषयी सांगत नेतेपदासाठी आपणच कसे पात्र आहोत,हे सांगत होते. अस्वलानंतर  लांडग्याने आपली बाजू मांडली,” मित्रांनो, आमच्या टोळीने शिकार करणं पूर्णपणे बंद केलं आहे. शिळंपाकं खाऊन आम्ही कसंबसं भागवतोय. खरं सांगायचं तर परस्परांचा आदर-सन्मान करत आपण सर्वांनी बंधुभावाने राहिलं पाहिजे.त्यामुळे गरीब आणि असाहाय्य लोकांवर जुलूम होणार नाही. या त्यागामुळे या दलाचा नेता आमच्या समाजातीलच असला पाहिजे. ” सर्वांनी लांडग्याच्या समाजाच्या त्यागवृत्तीची प्रशंसा केली. 

हे ऐकून बोका म्हणाला,” बंधूंनो, माझ्याबरोबरच माझ्या समाजानेही शपथ घेतली आहे,की आता आम्ही उंदरांची शिकार करणार नाही. लोककल्याणासाठी एवढा त्याग तर केलाच पाहिजे. म्हणून नेता आमच्या समाजातीलच असायला हवा.”

आता बगळ्याची पाळी होती. आपलं समर्थन करताना तो बोलला,” मित्रांनो, माझ्यावर विश्वास ठेवा. मेलेले मासे खाऊन आणि पाणी पिऊन आम्ही गुजराण करत आहोत. त्यामुळे नेतेपदाचा आम्हालाही अधिकार आहे. “

संयुक्त दलाच्या नेतेपदाविषयी एकमत होत नाही, म्हटल्यावर कॉमन मिनिमम प्रोग्रॅम आणि सिटांचं वाटप यावर चर्चा सुरू झाली. या मुद्द्यांवरून खूप बाचाबाची झाली; पण ते ठाम निर्णयापर्यंत पोहोचले नाहीत. 

तेव्हा बगळाभगत म्हणाला,” मित्रांनो,तुम्ही चर्चा चालू ठेवा. मी पटकन तलावाचं ताजं पाणी पिऊन येतो.” आणि तो तलावाच्या दिशेने चालू लागला. थोडं लांब गेल्यावर त्याने मागे-पुढे बघितलं आणि एका पोहोणार्‍या माशावर पटकन आपल्या चोचीने झडप घातली. पोटपूजा झाल्यावर तो पुन्हा सभास्थानी आला. त्याच्या चेहर्‍यावरची टवटवी बघून लांडगाही पाणी प्यायला म्हणून तिथून निघाला. थोडं पुढे गेल्यावर एक कोंबडी त्याच्या नजरेस पडली. त्याने पुढचामागचा विचार न करता लगेच तिला पकडलं. मागून कोल्हा येत होता,हे बघून शिकारीचा थोडा हिस्सा त्यालाही दिला. ढेकर देत दोघेही सभास्थानी पोहोचले. बोका थोडाच मागे राहणार होता? “जरा जाऊन येतो,” म्हणून थोडा पुढे गेला, तोच त्याला शेतात काही उंदीर दिसले. सफाईदारपणे त्याने त्यांच्यावर हल्ला केला आणि दोन उंदरांना गट्टम केलं. जेव्हा तो सभास्थानी पोहोचला,तेव्हा बघितलं तर,झाडावर तीन कावळे कावकाव करत आपल्या भाषेत ओरडत होते,” राज की बात कह दूं तो…” 

सगळ्यांना धक्का बसला.मग सर्व नेत्यांनी मिळून त्यांना आश्वासन दिलं,” बंधूंनो, काळजी करू नका. तुमच्या समाजासाठीही काही खास व्यवस्था करण्यात येईल.” 

यानंतर सर्वसंमतीने संयुक्त मोर्चाची घोषणा करण्यात आली. पार्टीचं नाव ठेवलं-अहिंसावादी पार्टी’.त्याबरोबरच सगळ्यांना सांगण्यात आलं,की सर्वोच्च नेतेपदाची निवड निवडणुकीनंतरच केली जाईल. या घोषणेनंतर प्रेस नोट जारी करण्यात आली.

मूळ हिंदी कथा: डॉ.रमेश यादव 

मराठी अनुवाद :सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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