English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 193 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 193 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 193) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

 

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

 

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 193 ?

☆☆☆☆☆

रूह से जुड़े रिश्तों पर

फरिश्तों के पहरे होते हैं

कोशिशें कर लो तोड़ने की

ये और भी गहरा जाते हैं…

☆☆

Soul-related relationships

are guarded by the angels

If you try breaking them

they consolidate further…

☆☆☆☆☆

नींद लेने का मुझे ऐसा

कोई शौक भी नहीं

मगर तेरे ख्वाब न देखूँ

तो गुजारा भी नहीं होता…

☆☆

Though not so very

fond of falling asleep…

But then can’t even live

without seeing your dreams

☆☆☆☆☆

छोटा सा लफ्ज है मुहब्बत

मगर तासीर है इसकी गहरी

गर दिल से करोगे इसे तुम

तो कदमों में होगी ये दुनिया सारी…

☆☆

Love is a little word, though

But its effect is so deep

If you do it with all your heart

Whole world lies at your steps

☆☆☆☆☆

लोग  तलाशते  हैं  कि

कोई  तो  फिकरमंद  हो,

वरना कौन ठीक होता है

यूँ ही सिर्फ हाल पूछने से…

☆☆

People  keep   searching  for    

someone who is worried, but then

How could  anyone ever get  fine

Just by inquiring his well-being!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Poetry ☆ The Grey Lights# 51 – “Motivation…” ☆ Shri Ashish Mulay ☆

Shri Ashish Mulay

? The Grey Lights# 51 ?

☆ – “Motivation ☆ Shri Ashish Mulay 

Bad, outrageous or impudent

call them anything you want

but do not call them ugly

For She is their mother

Though I am the father of my words

 *

like fire ignites the wick

and the lamp gives the light

though the shine is of lamp

but with different fire it is born

she is that fire

 *

like a fragrance is carried

by the might of wind

and wind becomes a fragrant breeze

by the power of tiny flower

she is that flower

I am that passionate wind

that she makes to fragrant breeze

I am that wick soaked in agony

she lightens me to a lamp

I am just a man

she gives me meaning….

© Shri Ashish Mulay

Sangli 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 399 ⇒ एक दिन पिता का… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक दिन पिता का।)

?अभी अभी # 399 ⇒ एक दिन पिता का? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक दिन पिता का (father’s day)

माता पिता का बराबरी का सौदा होता है, अगर मदर्स डे है तो फादर्स डे भी।  महिला दिवस की तर्ज पर पुरुष दिवस कब मनाया जाता है, शायद इन तथाकथित “days” यानी “दिनों” का कोई कैलेंडर उपलब्ध हो, क्योंकि कभी कभी तो एक ही दिन में दो दो days टपक जाते है।

खैर हमें इससे क्या, जिस तरह सुबह होती है, शाम होती है, इसी तरह कोई ना कोई day आता है, और चला जाता है।  ऐसे ही पितृ दिवस यानी फादर्स डे कब आया और कब चला गया, हमें पता ही नहीं चला।  हम भी कभी पिता थे, अब तो लोगों ने हमें अंकल से नाना जी और दादाजी बना दिया है। ।

हमने पिता को तो देखा है, लेकिन कभी परम पिता को नहीं देखा।  पिता का और हमारा साथ 33 वर्ष का ही रहा।  उसके बाद एक दिन हमारे पिता, परम पिता में विलीन हो गए, यानी हमारे सर से पिता का साया छिन गया और पिछले 42 वर्ष से हमें पिता का प्यार नहीं मिला।  तब से हमने परम पिता को ही अपना पिता मान लिया है।

ईश्वर एक है, आप उसे खुदा कहें अथवा परम पिता परमेश्वर।  लेकिन जिन अभागों ने अपने बाप को बाप नहीं माना, वे किसी पत्थर की मूरत को भगवान कैसे मान लेंगे।  वास्तव में सबका मालिक एक का मतलब भी यही है, सबका बाप एक। ।

जिस तरह ईश्वर एक है, उसी तरह माता -पिता एक इकाई है, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, और शायद इसीलिए उन्हें सम्मिलित रूप से पालक का दर्जा दिया गया है और साफ साफ शब्दों में कह दिया गया है, “त्वमेव माता च पिता त्वमेव”।  अंग्रेजी में एक शब्द है spouse, जिसका प्रयोग पति पत्नी दोनों के लिए किया जाता है, यानी दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।

पिताजी के गुजर जाने के बाद, जब तक माता का साया सर पर रहा, पिताजी का अभाव इतना नहीं खला, लेकिन मां के गुजर जाने के बाद महसूस हुआ, एक अनाथ किसे कहते हैं, और तब केवल नाथों के नाथ जगन्नाथ की शरण में जाना ही पड़ा।  क्योंकि वही तो पूरे जगत का नाथ है। ।

जिंदगी तो ठहरती नहीं, लेकिन वक्त ठहर सा जाता है।  अतीत में झांकने से अब क्या हासिल होना है, हां एक पछतावा जरूर होता है, क्योंकि हमने भी माता पिता की कदर जानी ना, हो कदर जानी ना।  

शायद इसीलिए हमारी संस्कृति में पितृ पक्ष की व्यवस्था भी है।  उस पखवाड़े में श्रद्धा के प्रतीक स्वरूप ही श्राद्ध कर्म किया जाता है।  श्रद्धा का अर्पण ही वास्तविक तर्पण है।  पछतावे की भरपाई है।  भूल चूक लेनी देनी का सत्यापन है।  उनके प्रति नतमस्तक होना, उस परम पिता परमेश्वर के समक्ष नतमस्तक होने के बराबर है।  आज की पीढ़ी के लिए ही शायद यह गीत लिखा गया है ;

ले लो दुआएं

मां बाप की।

सर से उतरेगी

गठड़ी पाप की।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 192 ☆ सॉनेट – याद ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – याद…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 192 ☆

☆ सॉनेट – याद ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

याद झुलाती झूला पल पल श्वासों को,

पेंग उठाती ऊपर, नीचे लाती है,

धीरज रस्सी थमा मार्ग दिखलाती है,

याद न मिटने देती है नव आसों को।

*

याद न चुकने-मिटने देती त्रासों को,

घूँठ दर्द के दवा बोल गुटकाती है,

उन्मन मन को उकसाती हुलसाती है,

याद ऊगाती सूर्य मिटा खग्रासों को।

*

याद करे फरियाद न गत को बिसराना,

बीत गया जो उसे जकड़ रुक जाना मत,

कल हो दीपक, आज तेल, कल की बाती।

*

याद बने बुनियाद न सच को ठुकराना,

सुधियों को संबल कर कदम बढ़ाना झट,

यादों की सलिला, कलकल कल की थाती।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२.४.२०२४ 

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दखनी तडका ☆ सौ. जस्मिन रमजान शेख  ☆

? कविता ?

 ☆ दखनी तडका ☆ सौ. जस्मिन रमजान शेख  

(भारत में 15 से 20 किलोमीटर में भाषा बदल जाती है। यहाँ तक कि हिन्दी में भी क्षेत्रीय भाषाओं का पुट मिलने लगता है। जैसे जैसे हम उत्तर से दक्षिण कि ओर चलते हैं हिन्दी का स्वरूप भी  बदलने लगता है। जब हम उत्तर से मध्य भारत की बढ़ते हैं तो हम क्षेत्रीय भाषाओं जैसे अवधी, बृज, बुंदेलखंडी आदि से रूबरू होते हैं। इसी प्रकार दखनी हिन्दी का भी अपना अस्तित्व आंध्र और दक्षिण महाराष्ट्र में है। स्थानीय हिन्दी साहित्य का अस्तित्व भी जीवित रहना चाहिए। आज प्रस्तुत है सौ. जस्मिन रमजान शेख जी की एक दखनी कविता दखनी तड़का।   – संपादक )

नानीअम्मा सोकोच हैं

कित्ते दिनांशी

क्याबी खाती नै

घरमें क्या नै बी खाने को

 

मेरी अम्मा चार घरांमेंशी

मंगको लाती चार निवाले

चार गाल्यांकेसात

हमे खाली पेटांशी देकते बैटतैं

मा बेटी का भुका प्यार

 

एक दिन नानीअम्मा गई

अल्ला के घरकू

फिर चारघरके लोकांने

लेको आए ढीगभर खाना

मरेसो नानी के वास्ते

हमेच खाय नानीके नामपर

नानीमरी पर हमारा पेट भरी

 

कलशी भाई बिमार पडे

और हमना भुका लगैं

छोटा मुन्ना पुचतै अम्मा को,

अम्मा,भैया कब मरींगा गे?

साभार – सौ. उज्ज्वला केळकर, सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

© सौ. जस्मिन रमजान शेख

मिरज जि. सांगली

9881584475

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ लघुकथा लेखन सर्टिफिकेट से सम्मानित – अभिनंदन ☆

☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ लघुकथा लेखन सर्टिफिकेट से सम्मानित – अभिनंदन ☆

भोपाल, 20 जून, 2024: ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ को रबींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय, मानविकी एवं उदार कला संकाय, प्रवासी भारतीय साहित्य एवं संस्कृति शोध केंद्र द्वारा आयोजित लघुकथा लेखन कौशल, सर्टिफिकेट कोर्स त्रैमासिक पाठ्यक्रम (01.11.2023-30.01.2024) पूर्ण करने के उपरांत यह लघुकथा लेखन सर्टिफिकेट प्रदान किया गया।

यह सर्टिफिकेट उन्हें भोपाल में आयोजित केरबींद्रनाथ टैगोर दीक्षांत समारोह में प्रदान किया गया। श्री क्षत्रिय ने वर्ष 2024 की परीक्षा 91% अंकों के साथ उत्तीर्ण की थी।
दीक्षांत समारोह का आयोजन रबींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय की कथा भवन में किया गया था। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के कुल उपकुलपति डॉक्टर संगीता जौहरी, मानविकी की सभापति रुचि मिश्रा तिवारी, कोर्स के प्रवक्ता डॉक्टर अशोक भाटिया, कोर्स की कोऑर्डिनेटर कांता राय, आई सेक्ट प्रभारी सहित पूरी टीम उपस्थित थी। समारोह में भारत भर से पधारे हुए विद्यार्थी भी शामिल हुए।

यह उल्लेखनीय है कि रबींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय भारत का एकमात्र विश्वविद्यालय है जिसने लघुकथा लेखन में सर्टिफिकेट कोर्स शुरू किया है।
ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ के बारे में:

ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ एक हिंदी लेखक, बाल साहित्यकार और उपन्यासकार हैं। वे रतनगढ़, नीमच, मध्य प्रदेश के रहने वाले हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं के लिए कई पुरस्कार प्राप्त किए हैं, जिनमें बाल साहित्यकार मास्टर श्री गेंदालाल जायसवाल बाल साहित्यकार सम्मान 2024, नेपाल-भारत साहित्य सेतु सम्मान-2018, नेपाल-भारत अंतरराष्ट्रीय रत्न सम्मान-2018 (बीरगंज नेपाल) और विशिष्ट प्रतिभा सम्मान 2019 शामिल हैं।

यह सम्मान ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ के लिए एक बड़ी उपलब्धि है और उनके साहित्यिक क्षेत्र में किए गए योगदान को दर्शाता है।

💐 ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ जी को इस विशिष्ट उप्लब्धि के लिए हार्दिक बधाई 💐

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पहिला पाऊस ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ पहिला पाऊस !  ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

धारा कोसळता मृगाच्या 

भेगाळल्या धरतीवर

मृदगंधाच्या गंधाने

जाई व्यापून चराचर

*

नाचे आनंदाने निसर्ग

झाडे वेली प्रफुल्लित होती

झटकून धूळ अंगावरची

वाऱ्यासवे डोलू लागती

*

ओहोळ सारे माथ्यावरले

आता होतील जलप्रपात

दरीत उतरून खळाळत

होतील समर्पित सागरात

*

अंग झटकून कासकर

लागे पेरणीच्या कामाला

ढवळ्या पवळ्या खुशीने

घेती जोडून नांगराला

*

पीक घेणार बळीराजा

यंदा शेतात सोन्याचे

विनवी प्रमोद प्रभूला

रक्षण करा धान्याचे

रक्षण करा धान्याचे

 

© प्रमोद वामन वर्तक

संपर्क – दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ दोन छत्र्या… ☆ सुश्री त्रिशला शहा ☆

सुश्री त्रिशला शहा

? कवितेचा उत्सव ?

दोन छत्र्या… ☆ सुश्री त्रिशला शहा ☆

दोन छत्र्या रस्त्यात भेटल्या

हाय, हँलो म्हणून खुदकन् हसल्या 

*

किती दिवसांनी भेट झाली

विचार दोघींच्या आला मनी

*

भेटलोच आहोत तर गप्पा मारू

सुखदुःखाच्या चार गोष्टी करू

*

काय चाललय सध्या तुझं

इतके दिवस तू होतीस कुठं

*

काय सांगू बाई तुला

असा कसा गं जन्म आपला

*

उन्हात तापायच,पावसात भिजायच

रस्त्यावर नुसत गरगर फिरायच

*

तुझी सुध्दा हीच नं कथा

दुसऱ्यांसाठीच जन्म आपला

*

दोघींनीही मोकळे केले मन

किती दिवसांची मनाची तगमग

*

अजूनही थोड बोलायच होत

मनातल सार सांगायच होत

*

पण हाय रे दैवा

आमच्याकडे एवढा वेळ कुठला

*

खसकन् माझ नाक दाबल

ड्युटीवर रूजू व्हावच लागल

*

दोघीही मनातून खट्टू झाल्या

मालकिणीसंग विरूद्ध दिशेला गेल्या

© सुश्री त्रिशला शहा

मिरज

 ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ लुप्त होत असलेल्या व्यक्ती – शेजार ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

लुप्त होत असलेल्या व्यक्ती – शेजार  ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

जाता जाता सहज एक संवाद कानावर पडला. बागेत फिरायला आलेल्या व्यक्तींची ओळख झाली आणि बोलता बोलता त्यांना समजले आपण शेजारी आहोत. त्या दोन शेजारी राहणाऱ्या शेजाऱ्यांची ओळख बागेत झाली. किती जग पुढे गेले आहे ना  (?)

त्या मानाने आमची पिढी फारच मागास म्हणावी लागेल. कारण आम्ही म्हणजे घरातली भाजी आवडली नाही म्हणून हक्काने शेजारी जाऊन जेवत होतो. आपल्या घरात काय चालले आहे याची माहिती शेजाऱ्यांना असायची. लग्नाच्या मुलीला बघायला पाहुणे येणार असतील तर तिचे आवरणे (मेकअप) शेजारच्या घरात होत होता. आणि जास्त पाहुणे आले तर शेजारी त्यातील काही पाहुणे स्वतःच्या घरी नेत होते.आणि त्यांचा व्यवस्थित पाहुणचार करत होते. हे सर्व वाडा किंवा चाळ संस्कृतीत होत होते. अगदी वाटीभर  साखर,चार लसूण पाकळ्या,दोन मिरच्या,दोन कोथिंबीरीच्या काड्या यांची हक्काने देवाण घेवाण चालायची आणि गरम पोहे,भाजी आपुलकीने घरात यायची. सगळी मुले सगळी घरे आपलीच असल्या प्रमाणे वावरत होते. आणि शेजारी हक्काने प्रेम व शिक्षा दोन्ही करत होते. आणि त्यावर कोणाची काहीच हरकत नव्हती. ठराविक वेळेत घराचे दार उघडले नाही तर शेजारी चौकशी करत होते. जर उशिरा उठायचे असेल तर आदल्या दिवशी शेजारी सांगावे लागत होते.

सामान आणायला गेल्यावर दुकानदार हक्काने कोणताही पाढा किंवा कविता म्हणायला लावायचा. आणि काही चुकले तर घरी रिपोर्ट जायचा. आमच्या घरा जवळचे एक दुकानदार दुकानात येणाऱ्या मुलांना पाढे म्हणायला लावायचे आणि पाढा आला नाही तर वस्तू द्यायचे नाहीत. मग त्यांच्याकडे तो पाढा पाठ करून जावे लागत होते. अशी समाजाकडून प्रगती होत होती.

त्यामुळे बाहेर वावरताना एक धाक होता. आपले काम सोडून कोणी मूल इतरत्र दिसले तर शेजारी हक्काने कान पकडून घरी आणत होते. आणि घरातील व्यक्ती म्हणायच्या असेच लक्ष असू द्या. त्यामुळे  मुले बिघडण्याचे प्रमाण खूप कमी होते. प्रत्येक घरात संध्यादीप लागले की शुभंकरोती म्हंटले जात होते. सर्व मुले एकत्रित पाढे,कविता म्हणत होते. आणि एखाद्या मुलाला घरी यायला उशीर झाला तर सगळे शेजारी त्याला शोधायला बाहेर पडत होते.

अगदी लग्न ठरवताना वधू किंवा वर यांची चौकशी समाजातील किराणा दुकानदार, न्हावी, शिंपी यांच्याकडे केली जात होती. कारण ती चर्चेची ठिकाणे होती. आणि त्यांनी वधू किंवा वर यांची वर्तणूक चांगली आहे असे सांगितले की, ते लग्न निश्चित ठरायचे. अशा खूप आठवणी आहेत. 

पण माणसे प्रगत झाली. शेजारचे जवळचे नेबर झाले. घरे फ्लॅट झाली. शेजारचे काका अंकल झाले. ज्यांची ओळख आपोआप होत होती त्यांची ओळख बागेत होऊ लागली. शेजाऱ्यांच्या घरातील वावर कमी झाला. शेजारी फोन करून घरी आहात का? येऊ का? असे विचारु लागले. दोन घरात एकच भिंत असून मनात दुरावा वाढला. तुम्हाला काय करायचे आहे? किंवा  आपल्याला काय करायचे? अशी भूमिका दोन शेजाऱ्यांच्या मनात निर्माण झाली. आणि सर्वांनाच अपेक्षित पण घातक  स्वातंत्र्य मिळाले. सध्याच्या काही मुलांच्या बाबतीतल्या  घटना बघितल्या की वाईट वाटते. आणि कुठेतरी हे ओढवून घेतलेले स्वातंत्र्य याला कारण असावे असे वाटते. आपुलकीचा शेजार असेल तर नकळत संस्कार होतात. मुलांना थोडा धाक असतो. हल्ली पालक वारेमाप पैसा मिळवतात. आणि मुलांना पुरवतात. कोणाचाच धाक नाही. आम्ही काहीही करु तुम्ही कोण विचारणारे? असे विचार वाढत आहेत. याला कोणते स्वातंत्र्य म्हणायचे हेच कळत नाही.

माझ्या सारख्या शेजाऱ्यांच्या प्रेमात व धाकात वाढलेल्या ( सध्या याला मागासलेले म्हणतील ) व्यक्तीला हे अती स्वातंत्र्य खुपते आणि चिंता वाटते. सगळे माझ्या मताशी सहमत असतील असे नाही.पण मला लुप्त होत असलेले  शेजारी आठवतात. आणि आवश्यक वाटतात.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

मेडिटेशन,हिलिंग मास्टर व समुपदेशक.

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बॅटरी – भाग 2 – डॉ हंसा दीप ☆ भावानुवाद – सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ ☆

सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ

? जीवनरंग ?

☆ बॅटरी – भाग 2 – डॉ हंसा दीप ☆ भावानुवाद – सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ 

डॉ हंसा दीप

(ती श्वास रोखून त्या गाडीच्या निघून जाण्याची वाट बघत होती. तेवढ्यात त्या गाडीचे ब्रेक जोरात दाबले गेले आणि चर्र करत ती थांबली.) – इथून पुढे — 

कोणीतरी तिच्या गाडीवर टक टक केलं. काहीतरी धोका आहे, नाहीतर हा गाडीवाला का थांबला असेल? हे जे काही आहे, ते या रात्रीतलं आणखी एक चक्रीवादळच आहे! ती श्वास रोखून पडूनच राहिली, अजिबात न हलता.

“हॅलो! मी मदत करू शकतो, दार उघडता का?”

ती गप्पच राहिली.

“मी पाहिलं आहे तुम्हाला, तुम्ही इथे गोठून जाल. घाबरू नका.”

आता काही पर्यायच नव्हता. तिनं कसाबसा दरवाजा उघडला आणि बोलली—“माझी बॅटरी डेड झाली आहे, फोन पण डेड आहे आणि मी पण मरणारच आहे. तुम्ही जा.”

“मी तुमची गाडी जंप स्टार्ट करून देऊ शकतो.”

सोफिनी काही म्हणायच्या आत तो अगांतुक तिच्या गाडीचं बॉनेट उघडू लागला. तो थंडीने कुडकुडत होता, आणि तीच परिस्थिती सोफीची पण होती. बोलण्यासाठी तिनं फक्त तोंड उघडं ठेवलं होतं, बाकी सगळं गुरफटलेलंच होतं. बोलताना तोंडातून भरपूर वाफ बाहेर पडत होती. दोघंही थंडीमुळे थरथरत होते. सोफीची थरथर त्याच्यापेक्षा कितीतरी पटींनी अधिक होती. थंडी आणि भीति दोन्हींचा एकत्र हल्ला झालेला होता तिच्यावर. त्याने जंप स्टार्ट करून दिली गाडी आणि म्हणाला, “आता गाडी बंद करू नका, इंजिन चालूच ठेवा. मी तुमच्या मागून गाडी चालवत रहातो.”

“तुम्ही गेलात तरी चालेल, मी ठीक आहे आता. मी फोन पण लावते चार्जला.”

“हवा फार वाईट आहे, मी तुमच्या मागेच राहीन. तुमची गाडी अर्धा तास सतत चालू राहिली नाही, तर परत बंद पडू शकते.”

तो सोफीच्या मागेच रहात होता. दोन्ही गाड्या मंदगतीने सरपटत चालल्या होत्या. थोडा जरी वेग वाढला, तरी गाडी घसरण्याचा धोका होता. शंभरच्या गतीने जाण्याजोग्या रस्त्यावर वीसच्या गतीने गाड्या चालवाव्या लागत होत्या. असा प्रवास की ज्याच्या शेवटाचा पत्ता नव्हता! याच प्रकारे जावं लागणार होतं. सोफीची भीति वाढत गेली—नक्कीच कुठल्याही क्षणी तो गाडी पुढे आणून मला थांबवेल आणि मग….!

त्यानं इतके कपडे घातले होते, स्वेटर, मफलर, टोपी, की त्यात गुंडाळलेला माणूस कोण, कसा आहे, काही कळायला मार्गच नव्हता. फक्त त्याचा आवाज येत होता. दहा मिनिटं ते असे गेले असतील, नसतील, तेवढ्यात तो परत तिच्या बाजूला आला, आणि त्यानी हॉर्न दिला, आणि गाडी थांबवण्याची खूण केली. एकटी स्त्री असण्याची भीति परत तिच्या मनात दाटून आली.  हात पाय कापू लागले. कसेबसे तिने ब्रेक दाबले. मरणाच्या भीतीपेक्षाही ही भीति जास्त विक्राळ स्वरुप घेऊन तिच्यासमोर उभी राहिली.

तो गाडीतून बाहेर आला नाही, फक्त खिडकी उघडायची खुण त्याने केली. “दहा मिनिटात एक सर्व्हिस एरिया येईल, तिथून मी गरम कॉफी घेऊन येतो, तुम्ही गाडी बंद नका करू. पार्किंग लॉटमधे थांबून रहा.”

सोफिने मान हलवली. खरंच तिचा घसा कोरडा पडला होता, कॉफी मिळेल, या सुखद जाणिवेपेक्षा त्याचं काही कट कारस्थान तर नाही ना, ही भीति मोठी होती. कोणजाणे, याच्या मनात काय आहे! संशय येत होता, की कॉफी द्यायचं निमित्त करून हा गाडीत तर घुसणार नाही? आणि कॉफीत काहीतरी मिसळलं असेल तर? आसपास बर्फाशिवाय काहीच दिसत नव्हतं. कोणाला बोलावणार मदतीला? तो जे म्हणेल, ते करण्याशिवाय तिच्या हातात काहीच नव्हतं. पण तो लगेचच कॉफी घेऊन आला. बहुतेक मशीनची कॉफी असावी. अशा थंड रात्रीत कॉफी हाऊसमधे कोण असणार होतं? तो आला आणि तिला कॉफी देऊन त्याच्या गाडीत परत गेला.

भीतिच्या सावटाखाली असल्याने कॉफीची चवच लागत नव्हती. बेचव! एकदा वाटलं, बेशुद्ध करण्यासाठी काहीतरी घातलेलं असणार. बरंच होईल, बेशुद्ध झाल्यावर यातना तरी जाणवणार नाहीत. ती तशीच कॉफी पीत राहिली. कॉफीचा गरमपणा कणाकणानी शरीरात भरत होता. निघण्याचा इशारा मिळाल्यावर दोघं निघाले परत एकमेकांच्या मागे. तो तिच्यापेक्षा हळू गाडी चालवत होता, कारण त्याला तिच्या मागेच रहायचं होतं.

सोफीचं थंडीनं थरथरणं आता कमी झालं होतं, गाडीच्या हिटिंग सिस्टिमने थंडी काही प्रमाणात कमी केली होती. पण तिची भीति वाढतच चालली होती. सुनसान रस्त्यावर, मिट्ट अंधारात दोन्ही गाड्या चालल्या होत्या. आणि फिसफिस आवाज करत वायपर्स काचेवर साठणारा बर्फ सतत दूर करत होते.  परत दहा मिनिटं गेल्यावर त्यानं परत एकदा थांबण्याचा इशारा केला.

या वेळी तर भीतिने सोफिचे प्राणच कंठात आले! या अनोळखी माणसाचा काय इरादा होता? आता शिकार पुरती आपल्या ताब्यात आली आहे, असं तर वाटत नाहिये याला? मुलगी आता बेशुद्ध व्हायच्या बेतातच असेल? मग तिच्या लक्षात आलं, “मी तर पूर्णपणे शुद्धीवर आहे! कॉफी पिऊन तरतरी आली आहे, नशा नाही!”  काय करावं ते कळेनासं झालं होतं तिला, पण बघितलं, तर परत त्यानं तशीच तिच्या बाजूला गाडी आणत तिला ओरडून सांगितलं, “तुमच्या गाडीच्या मागच्या दिव्यांपैकी एक लागत नाहिये, अजून जरा गाडी हळू चालवा.”

आणि परत सोफीच्या गाडीच्या मागे जाऊन गाडी चालवू लागला. या वेळी दहा मिनिटांपेक्षा जास्त वेळ गेला. सोफिने आरशात पाहिलं, तो अजूनही तशीच तिच्या मागे गाडी चालवत होता. मिनिटा-मिनिटांनी पुढे जाणा-या या दोन गाड्या जशा काही वर्षानुवर्षे प्रवास करत होत्या. एखाद्या नवशिक्या ड्रायव्हरप्रमाणे थरथरणारे हात कसेबसे गाडी नियंत्रित करत होते.

परत एकदा त्याची गाडी तिच्या गाडीच्या बाजुला आली. तशाच पद्धतीने गाडी थांबवून त्याने सांगितलं- “ तुमची बॅटरी आता काही त्रास देणार नाही. आता मी जातो.” आणि तो गाडी पुढे काढून, तिला बाय करून निघून गेला.

हतप्रभ झालेल्या सोफिने हात हलवून त्याला निरोप दिला, त्याने ते पाहिलं की नाही कोणजाणे! तिने मनातल्या मनातच त्याचे आभारही मानले. जातानाची त्याची गाडी एखाद्या देवदूताच्या विमानासारखी वाटली, ज्याने आकाशातून उतरून एका मुलीचा जीव वाचवला होता. आता शरीराची थरथर बंद झाली होती.

संकटांच्या एका लांबलचक रात्रिची इतिश्री झाली होती. आता पहाट फटफटायला लागण्याची लक्षणंही दिसायला लागली होती. हिमवर्षाव पण आता थकून परतेल असं वाटायला लागलं होतं. पुढे दूर अंतरावर, रस्त्यांवर मीठ टाकणाऱ्या ट्रक्सचे दिवे चमकताना दिसू लागले होते. शहराच्या जवळ आल्याच्या खुणाही दिसू लागल्या होत्या. मृत्युच्या भीतीतून सुटका झाल्याबरोबर सोफीला तहान, भूक या सगळ्याची जाणीव होऊ लागली. कित्येक तासात काहीही खाल्लेलं नव्हतं. धिम्या गतीने चालणारी गाडी एका हाताने सांभाळत तिचा दुसरा हात शेजारच्या सीटवर ठेवलेल्या खाण्याच्या वस्तू धुंडाळू लागला, जेणे करून तिची बॅटरी पण उतरणार नाही!

तिच्या डोळ्यांसमोर एका पाठोपाठ एक बॅटरीची रूपं दिसू लागली— गाडीची बॅटरी, फोनची बॅटरी, तिची स्वतःची आणि खास करून त्या अनोळखी देवदूताची, जो आपल्या मदतीच्या बॅटरीने जीवनभरासाठी एक सुखद, ऊर्जादायी जाणीव ठेवून गेला होता. आता त्याला परत एकदा भेटलं पाहिजे या जाणीवेने तिचं मन उतावळं झालं. त्याला डोळेभरून बघायला हवं या इच्छेने उचल खाल्ली आणि तिच्या पायांनी ताबडतोब गाडीची गती वाढवली 

– समाप्त – 

मूळ लेखिका – डॉ  हंसा दीप, कॅनडा

मराठी भावानुवाद  –  सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ

संपर्क – 1565, सदाशिव पेठ, ‘लक्ष्मी सदन’, पी. जोग क्लास लेन, पुणे, ४११०३०. मो. 7709014058.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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