हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 248 ☆ व्यंग्य – किताब के कर्मकांड ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य रचना – किताब के कर्मकांड । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 248 ☆

☆ व्यंग्य – किताब के कर्मकांड 

कवि कोमल प्रसाद ‘उदासीन’ का पहला कविता-संग्रह छप पर आ गया है। ‘उदासीन’ जी बहुत प्रसन्न हैं। कल से मोबाइल कान से हट नहीं रहा है। सभी मित्रों, शुभचिन्तकों को खुशखबरी दे रहे हैं। मिलने वालों के लिए मिठाई का इन्तज़ाम कर लिया है।

अगले दिन शहर के तीन चार साहित्यकार मिलने आ गये। सबसे आगे नगर के वरिष्ठ कवि झलकनलाल ‘अनोखे’। सब ने ‘उदासीन’ जी को बधाई दी। ‘अनोखे’ जी बोले, ‘अब आप असली साहित्यकार बन गये। किताब छपे बिना लेखक पक्का साहित्यकार नहीं माना जाता। अब आप हमारी जमात में शामिल हो गये।’

‘उदासीन’ जी खुश हुए। ‘अनोखे’ जी को धन्यवाद दिया।

‘अनोखे’ जी बोले, ‘अब आप बाकी कर्मकांड भी कर डालिए। उसके बिना किताब के प्रति लेखक का फर्ज पूरा नहीं होता।’

‘उदासीन’ जी ने पूछा, ‘कैसा कर्मकांड?’

‘अनोखे’ जी बोले, ‘किताब का विमोचन, किताब की चर्चा, किताब का प्रचार। इनके बिना आजकल लेखन का काम पूरा नहीं होता।’

‘उदासीन’ जी सोच में पड़ गये।

‘अनोखे’ जी बोले, ‘हम इस काम में आपकी मदद करेंगे। ये जो ‘निर्मम’ जी हैं, इन्हें कल आपके पास भेजूँगा। इन्हें अभी बीस हजार रुपये दे दीजिएगा। ये हॉल की बुकिंग वगैरह करा लेंगे, बैनर वैनर बनवा लेंगे, नाश्ते पानी,फोटो वीडियो का इन्तजाम कर लेंगे। मैं दिल्ली के दो कवियों— ‘नश्तर’ जी और ‘खंजर’ जी से बात कर लूँगा। उनसे मेरी रसाई है। जब बुलाता हूँ, आ जाते हैं। उन्हीं के कर-कमलों से किताब का विमोचन हो जाएगा। शाम को किताब पर उनके व्याख्यान हो जाएँगे। फिर होटल में बीस-पच्चीस लोगों का भोजन हो जाएगा। उसमें पत्रकार भी आमंत्रित हो जाएँगे। पत्रकारों को छोटी-मोटी भेंट दे देंगे तो कार्यक्रम का अच्छा प्रचार हो जाएगा। ‘निर्मम’ जी सब प्रबंध कर लेंगे। उन्हें इन बातों का बहुत अनुभव है।

‘नश्तर’ जी और ‘खंजर’ जी के लिए भोजन से पहले कुछ तरल पदार्थ का इन्तजाम करना पड़ेगा। वह भी ‘निर्मम’ जी देख लेंगे। मेरे खयाल से चालीस पचास हजार तक किफायत से सब काम हो जाएगा।’

सुनकर ‘उदासीन’ जी की आँखें माथे पर चढ़ गयीं। भयभीत स्वर में बोले, ‘इतना पैसा कहाँ से लाऊँगा? यह मेरी हैसियत से बाहर है।’

‘अनोखे’ जी कुपित हो गये। बोले, ‘आपको कवि के रूप में अपने को स्थापित भी करना है और अंटी भी ढीली नहीं करनी है। दोनों बातें एक साथ कैसे चलेंगीं?

‘भैया, किताब के कर्मकांड के लिए लोग अपने प्रॉविडेंट फंड का पैसा खर्च कर देते हैं, बेटी के ब्याह के लिए रखा पैसा समर्पित कर देते हैं, और आप ऐसे आँखें फाड़ रहे हैं जैसे हम कोई अनुचित बात कर रहे हों।’

‘उदासीन’ जी बोले, ‘ना भैया, इतना पैसा खर्च करना अपने बस का नहीं है। किताब में दम होगा तो अपने आप प्रचार हो जाएगा।’

‘अनोखे’ जी अपनी मंडली के साथ उठ खड़े हुए, बोले, ‘किताब में कितना भी दम हो लेकिन शुरू में उसे लोगों की आँखों के सामने चमकाना पड़ता है। बिना हर्रा फिटकरी डाले रंग चोखा नहीं होता। सोच लो, मन बदल जाए तो फोन कर देना। हम ‘निर्मम’ जी को भेज देंगे।’

दरवाज़े तक पहुँच कर ‘अनोखे’ जी घूम कर बोले, ‘किताब के कर्मकांड में पैसा तो जरूर खर्च होता है, लेकिन उसकी खुमारी महीने,दो महीने तक रहती है। बाद में कसके तो कसकती रहे।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 247 – दो ध्रुवों के बीच ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 247 ☆ दो ध्रुवों के बीच ?

इसी सप्ताह की घटना है। मैं दोपहिया वाहन से घर लौट रहा था। बाज़ार से दूर स्थित बैंक के पास एक वृद्ध सज्जन खड़े दिखाई दिए। जाने क्यों लगा कि लिफ्ट चाहते हैं पर कह नहीं पा रहे हैं। कुछ आगे जाकर मैं रुका और पूछा कि उन्हें कहाँ जाना है? उन्होंने बताया कि  लम्बे समय से ऑटोरिक्शा की प्रतीक्षा कर रहे हैं पर कोई रिक्शा आया ही नहीं। फिर जानना चाहा कि क्या मैं उन्हें उनके गंतव्य तक छोड़ सकता हूँ? मैंने उन्हें बिठाया और उनके गंतव्य पर छोड़ दिया।

वे धीरे से उतरे। बोले,”रिक्शा की प्रतीक्षा में खड़ा-खड़ा मैं बहत थक गया था। आपने बड़ी सेवा की।” फिर एकाएक उन्होंने मेरे पैर छू लिए।

इस अप्रत्याशित व्यवहार से मैं संकोच से गड़ गया। कुछ कह पाता, उससे पूर्व अप्रत्याशित का कल्पनातीत अगला संस्करण भी सामने आ गया। उन्होंने जेब से रुपये दस का नोट निकाला और फिर बोले,” इतना ही दे सकता हूँ। कृपया इस बूढ़े के पैसे से एक कप चाय पी लीजिएगा।” अपमान और क्रोध से माथा भन्ना उठा। मैंने उन्हें हाथ जोड़े। नोट हाथ में लिए वे खड़े रहे और मैं वहाँ से एक तरह से रफूचक्कर हो गया।

गाड़ी की बढ़ी हुई गति के साथ विचारों को भी हवा मिली। अपने अपमान के भाव से आरम्भ हुआ विचार, वृद्ध के स्वाभिमान तक जा पहुँचा।

निष्कर्ष निकला कि वे स्वाभिमानी व्यक्ति थे। अनेक लोग ऐसे होते हैं जो किसीका एक नए पैसे का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष ऋण अपने ऊपर नहीं चाहते। बैंक से उनके गंतव्य तक संभवत: शेयर रिक्शा दस रूपये ही लेता होगा। फलत:  उन्होंने मुझे दस रुपये देने का प्रयास किया था।

अनुभव हुआ कि ध्रुवीय अंतर है आदमी और आदमी के बीच। एक ओर किसीका किसी भी तरह का ऋण अपने माथे पर ना रखनेवाला यह निर्धन है तो दूसरी ओर वित्तीय संस्थानों के हज़ारों करोड़ डकार जाने वाले कथित धनिक।

अनुभव कहता है कि संस्कार से विचार उद्भूत होता है। विचार, कृति का जनक होता है। कृति, व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करती है।

ऋग्वेद का उद्घोष है-

‘‘अग्निना रयिमश्नवत पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्।’’

संदेश स्पष्ट है कि हम धन अवश्य कमाएँ पर नीति-रीति से ही कमाएँ। अनीति से फटाफट धन की चाह, लोभ उत्पन्न करती है। लोभ अतृप्ति ढोने को अभिशप्त है।

अपनी कविता ‘पुजारी’ स्मरण हो आई-

मैं और वह

दोनों काग़ज़ के पुजारी,

मैं फटे-पुराने,

मैले-कुचले,

जैसे भी मिलते

काग़ज बीनता, संवारता,

करीने से रखता,

वह इंद्रधनुषों के पीछे भागता,

रंग-बिरंगे काग़ज़ों के ढेर सजाता,

दोनों ने अपनी-अपनी थाती

विधाता के आगे धर दी,

विधाता ने

उसके माथे पर अतृप्त अमीरी

और मेरे भाल पर

 समृद्ध संतुष्टि लिख दी..!

संत ज्ञानेश्वर महाराज पसायदान में कहते हैं,

जो जे वांछील तो ते लाहो ।

हरेक अपना वांछित पा सकता है।  तृप्ति या अतृप्ति, तोष या असंतोष, अनन्य मानव जीवन में अपना वांछित स्वयं तय करो।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ लहू के गुलाब – श्री अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ☆ समीक्षक – प्रो. नव संगीत सिंह ☆

प्रो. नव संगीत सिंह

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ लहू के गुलाब – श्री अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ☆ समीक्षक – प्रो. नव संगीत सिंह ☆

पुस्तक चर्चा 

पुस्तक – लहू के गुलाब (हिन्दी गजल संग्रह)

लेखक  – अमृतपाल सिंह ‘शैदा’

प्रकाशक – शब्दांजलि पब्लिकेशन, पटियाला,

पृष्ठ – 96

मूल्य – 200/-

☆ “लहू के गुलाब” ~  सामाजिक विसंगतियों की परिचायक: प्रो. नव संगीत सिंह ☆

अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ग़ज़ल को समर्पित त्रिभाषी कवि हैं। उन्होंने अब तक पंजाबी में 4 संपादित और 2 मौलिक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें ‘गरम हवावां’ (कहानियां, 1985), ‘जुगनू अतीत दे’ (कविताएं, चरणजीत सिंह चड्ढा, 2003), ‘सांझ अमुल्ली बोली दी’ (ग़ज़लें, 2021), ‘सथ्थ जुगनुआं दी’ (कहानियाँ, 2021) (सभी संपादित); ‘फसल धुप्पां दी’ (गज़ल, 2019), ‘टूणेहारी रुत्त दा जादू’ (ग़ज़लें, 2022) (दोनों मौलिक) शामिल हैं। वह सहजता और ठहराव के कवि हैं। पिछले 40 वर्षों से उन्होंने स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कवि दरबारों/मुशायरों सहित त्रिभाषी कवि दरबारों की शोभा बढ़ाई है। उन्होंने दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो कार्यक्रमों में भी भाग लिया है। वे 1979 से ‘त्रिवेणी साहित्य परिषद’ पटियाला से जुड़े हुए हैं और 1985 से वे भाषा विभाग, पंजाब की साहित्यिक गतिविधियों से संबंधित हैं। ग़ज़ल की बारीकियां उन्हें अपने दिवंगत पिता श्री गुरबख्श सिंह शैदा की संगति से मिली।

समीक्षाधीन पुस्तक (‘लहू के गुलाब’, शब्दांजलि पब्लिकेशन, पटियाला, पृष्ठ 96, मूल्य 200/-) अमृतपाल सिंह शैदा की हिंदी ग़ज़लों की पहली मौलिक पुस्तक है, जिसमें 72 ग़ज़लें शामिल हैं। इस पुस्तक की प्रस्तावना एवं तब्सिरा में क्रमशः डाॅ. सुरेश नाइक (राजपुरा, पंजाब) और प्रो. सग़ीर तबस्सुम (पाकिस्तान) ने पुस्तक की विस्तृत और बारीकी से समीक्षा की है। शिरोमणि हिन्दी साहित्यकार डाॅ. मनमोहन सहगल ने भी पुस्तक पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखी है।

दरअसल, वर्तमान समय में ग़ज़ल भी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह आडंबर/फंतासी/शाही दरबारों के चक्र से मुक्त होकर सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को चुनौती देती दिखाई देती है। पुस्तक का शीर्षक “लहू के गुलाब” संघर्ष और प्रगति को दर्शाता है, अर्थात् गुलाब अब केवल सुगंधि या खुशबू का केन्द्र बिन्दु नहीं रहा, बल्कि उसके लाल रंग से कवि को रक्त/क्रान्ति का झंडा लहराता नजर आता है। और जब कवि को कोमल/नाज़ुक चीजों से भी रक्त का संचार दिखाई दे, तो समझ लेना चाहिए कि ‘ताज़ो-तख्त’ गिरने वाले हैं।

शायर ने सभी ग़ज़लों में शेयरों की संख्या सात तक सीमित कर दी है और लगभग हर ग़ज़ल के अंत में अपना उपनाम ‘शैदा’ इस्तेमाल किया है। उन्होंने अधिकतर ग़ज़लों में दो-दो शब्दों के दोहराव से वक्रोक्ति पैदा करने की कोशिश की है। किताब की दूसरी ग़ज़ल में ही यह जादू प्रमुखता से उभरता नज़र आता है:

गुलशन-गुलशन सहरा-सहरा, जंगल-जंगल आग लगी है

आँगन-आँगन मरघट-मरघट, आंचल-आंचल आग लगी है

मौसम-मौसम मातम-मातम, पल-पल-पल-पल आग लगी है

धरती-धरती झुलसी-झुलसी, बादल-बादल आग लगी है

                                                     (पृष्ठ 20)

हर समाज में हर तरह के लोग होते हैं – अच्छे भी और बुरे भी। कुछ मददगार साबित होते हैं, कुछ लूटपाट/हत्या करने में लगे रहते हैं। कवि इस लम्बे चौड़े आख्यान को एक ही शेयर में कैसे समेटता है:

बस्ती पर जब संकट आया, कुछ लोगों ने लंगर खोले

कुछ लोगों ने लूट मचाई, कुछ ने जुगनू बांटे थे

                                                    (पृष्ठ 22)

शीर्षक ग़ज़ल में कई मुद्दों/विषयों को छुआ गया है और काफिया-रदीफ़ में ‘लहू के गुलाब’ का दोहराव है। पूरी दुनिया को जीतने की चाहत रखने वाला सिकंदर आखिरकार खाली हाथ चला गया। कवि ने इस तथ्य को जीवन की सच्चाई से कितनी गहराई से जोड़ा है:

जो चाहता था दुनिया को अपनी मुट्ठी में करना, 

थे हाथ उसके ख़ाली जनाज़े से बाहर

खिलाता रहा उम्र भर ही अना के,

वो अहमक़ सिकंदर लहू के गुलाब।     

(पृष्ठ 24)

क़लम की ताकत को ‘शैदा’ जैसा बुद्धिमान ग़ज़लगो ही समझ सकता है, अन्यथा आम लोग तो लेखक को मूर्ख ही समझते हैं:

तुम नहीं ताक़त क़लम की जानते, सोचो ज़रा

इन्किलाबों का है ये इक कारगर हथियार क्यों

जिस के फ़न को सोने-चांदी से खरीदा जा सके

उसको हम, ‘शैदा’ कहेंगे साहिबे-किरदार क्यों

                                                     (पृष्ठ 26)

आज के मनुष्य के तनावपूर्ण और जटिल जीवन को देखकर ऐसा लगता है कि वह एक ही समय में कई हिस्सों में बंटा हुआ है। वह करता कुछ और है, सोचता कुछ और; देखता कुछ और है, लिखता कुछ और.. और ऐसी परेशानी में उससे कोई काम अच्छे से नहीं हो पाता। मेरा मानना है कि इसका प्रमुख कारण प्रौद्योगिकी है, जिसने मनुष्य के विखंडन में प्रमुख भूमिका निभाई है:

 दिल कहीं, रुह कहीं, जिस्म कहीं पर होगा

तुम हवाओं में उड़ोगे तो बिखर जाओगे

अक़्लमंदों की जो सोहबत में रहोगे ‘शैदा’

अपने क़द से भी कहीं ऊंचा उभर जाओगे

(पृष्ठ 32)

जिंदगी सिर्फ जाम-ओ-सुराही, लबो-रुख़सार के  पेचो-ख़म की उलझनों में ही नहीं उलझी है, बल्कि उसे भूख, अस्तित्व और निजता जैसी कठिनाइयों और चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। मनुष्य की जवांमर्दी इसी में है कि वह ज़ुल्मो-सितम से लड़ने के लिए किसी और के सहारे को न ढूंढे, किसी से मदद मांगने के लिए हाथ न फ़ैलाए, बल्कि अपनी पूरी ताकत से, जितनी तेजी से संभव हो, कूद पड़े। रात चाहे कितनी भी भयानक और अंधेरी क्यों न हो, आने वाला कल अवश्य खुशनुमा होगा। कवि आशावादी सोच और भविष्य के सुनहरे सपनों को प्रमुखता से रेखांकित करते हुए लिखता है:

जुगनू की दिलेरी से, लीजेगा सबक़ कोई

लड़ता है अकेला ही, ज़ुलमात के लश्कर से

नस्लें ही चलो अपनी, पुरनूर सहर देखें

आओ कि लड़ें जमकर, हम रात के लश्कर से

                                                    (पृष्ठ 33)

 शैदा’ एक ऐसा संवेदनशील शायर हैं जो लोगों के दुखों, आंसुओं और परेशानियों से हमेशा विचलित रहता है। कवि ने इस पुस्तक को “संसार की सुख शांति, समृद्धि व सलामती को समर्पित” किया है। सांसारिक समस्याओं से डरना और भागना भी कायरता की निशानी है। सच्चा योद्धा वही होता है जो सिर पर कफ़न बांधकर युद्ध के मैदान में जूझता है:

 मेरे शे’रों में लोगों के दुःख हैं, आँसू हैं, खुशियाँ हैं

हर पल चिंतन और मनन ने हक़ सच का परचम लहराया

जीना बेशक रास न आया, सारा जीवन, ‘शैदा’ मुझ को

पर संघर्ष की राह अपनाई, मर जाना न मन को भाया

(पृष्ठ 34)

 

गहरी नींद से जागो, उट्ठो, और संघर्ष में जूझो

वक्त की नाद सुनो बंधु, तुम को ललकार पड़ी है

                          ‌‌                       (पृष्ठ 53)

पृष्ठ 48 पर कवि ने ‘ऐ दोस्त’ अलग-अलग वर्तनी में लिखे हैं, लेकिन हिंदी में ‘ऐ दोस्त’ ही सही है। शायर ने क़िताब की ग़ज़लों को हिंदी ग़ज़लों का नाम दिया है लेकिन इनमें प्रस्तुत शब्द/वाक्यांश अधिकतर फ़ारसी/अरबी हैं। कवि ने इन्हें अरबी-फ़ारसी के अनुसार लिखा है। इस पुस्तक की ख़ूबी यह है कि अंत में कठिन शब्दों के अर्थ दिये गये हैं। लेकिन सभी कठिन शब्द यहां नहीं आ सके। शब्दार्थ-विधि भी सही नहीं है। उन्हें क्रमांकित या पृष्ठांकित किया जाना चाहिए था या फ़ुटनोट में लिखा जाना चाहिए था। जोश, प्रेरणा और संघर्ष की बातें कहतीं ‘शैदा’ की यह ग़ज़लें तहक़ीक़-ओ-तवारीख़ में भूचाल लाने की क्षमता रखती हैं, ऐसा मेरा मानना है!

© प्रो. नव संगीत सिंह

# अकाल यूनिवर्सिटी, तलवंडी साबो-१५१३०२ (बठिंडा, पंजाब) ९४१७६९२०१५.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 194 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 194 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 194) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 194 ?

☆☆☆☆☆

कहाँ कहाँ  से  तुझे  इकट्ठा  करता फिरूँ

ऐ जिंदगी जहाँ देखता हूँ

तू बिखरी नज़र आती है

☆☆

O’ life! Where all should

I gather you from,

Wherever I look, you    

seem scattered only

☆☆☆☆☆ 

तुम्हारा याद आना भी कमाल होता है,

कभी तो आ कर देखो ह

मारा क्या हाल होता है।

☆☆

It is so wonderful to remember you,

Do come sometime and see my state

☆☆☆☆☆

अच्छा लगता है हर रात तेरे ख्यालों में खो जाना

जैसे दूर होकर भी तेरी बाहों में सो जाना

☆☆

It feels good to get lost in

your thoughts every night,

like falling asleep in your arms

even when you are far away.

☆☆☆☆☆

इतना क्यों सिखाए जा रही है ज़िन्दगी हमें,

कौन सी सदियाँ गुज़ारनी है यहाँ।

☆☆

Why is this life keeps on

teaching us so much,

As if we have to spend

many  centuries  here…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Poetry ☆ The Grey Lights# 52 – “My Blood…” ☆ Shri Ashish Mulay ☆

Shri Ashish Mulay

? The Grey Lights# 52 ?

☆ – “My Blood ☆ Shri Ashish Mulay 

My sons and daughters

don’t fail this blade

nor the sophistication of its hilt

for it’s born of tears and service

 *

be of a service to the species

do the ‘khidmat’ as they say

for it will only bring you contentment

not the gold or the blood or a wine

 *

oh you my firstborn

be the first in service

you are just the representative

of your equal siblings

 *

what great can we do

if not united as single heart

heart full of love and tears

heart full of greatness and values

 *

though the blood binds us

thought merges us

into a single blade of spear

which belongs to all humankind

© Shri Ashish Mulay

Sangli 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 405 ⇒ || ढंग की बात || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| ढंग की बात ||।)

?अभी अभी # 405 ⇒ || ढंग की बात || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कौन नहीं चाहता, अपने मन की बात कहना, कोई कह पाता है, और कोई मन में ही रख लेता है। मन की बात कही तो बहुत जाती है, लेकिन मन की बात सुनने वाला कोई बिरला(ओम बिरला नहीं) ही होता है।

एक होती है मन की बात, और एक होती है ढंग की बात। कहीं कहीं बात करने का ढंग ही इतना प्रभावशाली होता है कि, बात भले ही ढंग की ना हो, श्रोताओं पर अपना प्रभाव जमा लेती है। वैसे मन की बात का वास्तविक उद्देश्य शायद आम आदमी की नब्ज टटोलना ही रहा होगा। देश का प्रधानमंत्री जब आपको संबोधित करता है, तो उसकी कुछ बातें तो अवश्य मन को छू जाती होंगी।।

हम पिछले ११० महीनों से मन की बात कार्यक्रम नियमित रूप से, हर महीने के अंतिम रविवार को सुबह 11:00 बजे आकाशवाणी और दूरदर्शन पर सुनते आ रहे हैं। आम चुनाव के तीन महीने के अंतराल के बाद शायद यह सिलसिला पुनः प्रारंभ हो।

अगर मन की बात कुछ ढंग की हो, तो श्रोता का भी सुनने का आकर्षण बढ़ जाता है। मन की बात के नाम पर केवल अपनी ही तारीफ करना, अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना और केवल अपनी सफलताओं का डंका बजाना कुछ समय तक तो कारगर रहता है, लेकिन बाद में वह नीरस और उबाऊ होता चला जाता है। फिर वह मन की बात नहीं रह जाती ;

फिर तेरी कहानी याद आई

फिर तेरा फसाना याद आया ;

हां अगर मन की बात, साथ साथ में ढंग की बात भी हो, तो क्या कहने। लेकिन ढंग की बात कहना जितना आसान है, लिखना उतना आसान नहीं। अब ढंग को ही ले लीजिए, इसमें ढ के ऊपर तो बिंदी है, लेकिन नीचे नहीं। ढोर, ढोल, ढाल और ढक्कन में भी ढ के नीचे बिंदी नहीं लगती।

लेकिन यही ढ जब शब्द के अंत में आ जाता है, तो आषाढ़, दाढ़ और बाढ़ बन जाता है, यानी ढ के नीचे बिंदी लग जाती है। बढ़िया, सिलाई – कढ़ाई, और पढ़ाई में ढ बीच में है, फिर भी ढ के नीचे बिंदी है।

लेकिन फिर भी ढ के रंग ढंग हमें समझ में नहीं आते। बेढब बनारसी में नीचे बिंदी गायब है। बड़ा बेढंगा है यह ढ। इसकी बढाई की जाए अथवा इसे बधाई दी जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।।

जब ढ के ही ऐसे रंगढंग हैं, तो ढंग की बात कितनी ढंग की हो सकती है यह विचारणीय है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप इस बार मन की बात सुनना चाहते हैं, अथवा ढंग की बात।

हमारे मन की बात तो यही है कि बहुत हो गई मन की बात, अब कुछ ढंग की बात भी हो जाए। संसद में केवल तालियां ही नहीं बजें, किसी की शान में केवल कसीदे ही नहीं कढ़े जाएं, कुछ तर्क वितर्क, सवाल जवाब हो, जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जनता की समस्याओं पर बात करें, केवल अपने नेता की जय जयकार ही नहीं करते बैठें। गहमा गहमी हो, दोनों ओर से संयम और सौहार्दपूर्ण वातावरण का नज़ारा हो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 193 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है दोहा सलिला…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 193 ☆

☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

निज माता की कीजिए, सेवा कहें न भार।

जगजननी तब कर कृपा, देंगी तुमको तार।।

*

जन्म ब्याह राखी तिलक गृह-प्रवेश त्योहार।

सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।

*

कोशिश करते ही रहें, कभी न मानें हार।

पहनाए मंजिल तभी, पुलक विजय का हार।।

*

डरकर कभी न दीजिए, मत मेरे सरकार।

मत दें मत सोचे बिना, चुनें सही सरकार।। 

*

कमी-गलतियों को करें, बिना हिचक स्वीकार।

मन-मंथन कर कीजिए, खुद में तुरत सुधार।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२.४.२०२४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पं च सू त्री ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ पं च सू त्री !  ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

काम करतांना कुठलेही

अधिर व्हायचे नसते,

ते पूर्ण होई पर्यंत तरी

धीराने घ्यायचे असते !

*

बाजूला ठेवून “मी”पणा

सोडून द्या मनातले हट्ट,

नंतर प्रयत्न तरी करा

नाती होण्या सारी घट्ट !

*

ठेवा सवय ऐकायची

दुसऱ्याचे पण बोलणे,

वाजवू नका नेहमी

तुमचेच तुम्ही तुणतुणे !

*

राग येता कधी कोणाचा

नका काढू दुसऱ्यावर,

शिका थोडा ठेवायला 

ताबा आपल्या मनावर !

*

आणि

*

लोकं म्हणतात नेहमी

नाही स्वभावाला औषध,

पण ठेवून बघा जीभेवर

थोडासा मधाळ मध !

थोडासा मधाळ मध !

 

© प्रमोद वामन वर्तक

संपर्क – दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ एक थेंब पावसाचा… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

?  कवितेचा उत्सव ?

☆ एक थेंब पावसाचा… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

एक थेंब पावसाचा

धरतीच्या अंगावर

रत्नखाण झाली तिची

धन्य सारे खरोखर॥

*

एक थेंब पावसाचा

डोंगराच्या माथ्यावर

स्वर्ग लोकातील गंगा

दरी घेई कडेवर॥

*

एक थेंब पावसाचा

कुसुमाच्या पाकळीत

सव्वा लाखाचा हा हिरा

जणू जपला मुठीत॥

*

एक थेंब पावसाचा

बळीराजाच्या कपोली

डोळ्यातील एक थेंब

उराउरी भेट झाली॥

*

एक थेंब पावसाचा

प्रेमिकांच्या कायेवर

चेतावली तने मने

येई प्रेमाला बहर॥

*

एक थेंब पावसाचा

अडव ,जीरव आता

मानवा कल्याण करी

होसी सृष्टीचा तू त्राता॥

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ प्रतिक्षा… ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ प्रतिक्षा… ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट

कुठल्याही व्यक्तीच्या जीवनात कठीण वा परीक्षा बघणारी कोणती गोष्ट असेल तर ती म्हणजे वाट बघणं,प्रतिक्षा. कुठलीही आनंदाची गोष्ट अगदी अचानक मिळाली तर आपण ह्या “वाट बघणं”वा “प्रतिक्षा”फेजला सरळसरळ मुकतो. पण एखाद्या आनंदाच्या गोष्टीची मिळण्याची खात्री असेल तर ह्या फेजमधून आपल्या प्रत्येकाला हे जावंच लागतं. ह्या फेजला आपल्याआपल्या गमतीच्या भाषेत “धाकधूक वा पाकपुक होणं” असं म्हंटतो. पण खर सांगायच़ तर ह्या फेजमधून जाणं तसं अवघड असतं बघा. आणि मजेशीर गोष्ट म्हणजे असं वाटतं ही फेज मेली संपता संपत नाही लवकर. असं वाटतं हा कालावधी खूप प्रदीर्घ आहे. असो

ही फेज आत्ता आठवायचं कारण म्हणजे आता नुकताच पावसाळा सुरू होतोय. तमाम शेतकरी वर्ग चांगल्या दमदार पावसाच्या प्रतीक्षेत असतो.पावसाळा सुरू झाला म्हणजे पाऊस हा येणारच नक्की. त्यामुळे तमाम शेतकरी वर्ग घरातील,स्वतः जवळील असेल नसेल ते पणाला लावून पेरणी,मशागत करायला लागतो. त्याचे डोळे मात्र आभाळाकडे लागलेले असतात आणि मन चित्त सगळं वाट बघण्यात,पावसाच्या प्रतिक्षेत,अगदी चातक पक्षासारखं.

हल्लीची पिढी सुदैवी म्हणावी की नाही ह्या बाबतीत संभ्रमच आहे. कारण नशीबाने ह्या पिढीवर कुठल्याही बाबतीत वाट बघण्याची वेळ फार कमी येते,नशीबाने त्यांनी तोंडातून काढताक्षणी हवे ते मिळण्याचं भाग्य त्यांच्या नशिबी असतं. पण त्यामुळेच का होईना त्यांना वाट बघणं माहित नसल्याने कदाचित त्या मिळणाऱ्या गोष्टीची खरी किंमत ही कळतच नाही हे खरं. आणि ती गोष्ट मिळवितांना देणा-याला आणि घेणाऱ्या ला काय काय कष्ट पडतात हे त्यांचं त्यांनाच माहित.

प्रतिक्षा,सहनशक्ती,धीर संयम ही सगळी सख्खी भावंडच.कुठलिही गोष्ट मिळवितांना जरा प्रतिक्षा करावी लागली तर तिची किंमतही कळते आणि गोडीही जाणवते.ती गोष्ट मिळेपर्यंत धीर धरला,संयम बाळगला,तर आपल्याला पुढील वाटचालीत खूप लाभ हा होतोच.गोष्ट सहजासहजी मिळाली नाही तरी नाउमेद न होण्यासाठी सहनशक्ती कामी येते.

आताही पेरणी झालेल्या शिवारात आभाळाकडे डोळे लावून बसणा-या बळीराजाला बघितले की खरंच पोटात कालवाकालव होते.म्हणूनच त्याला एकाअर्थी बळीराजा हे नाव सार्थ ही वाटतं. असं वाटतं त्याची ही प्रतिक्षा लौकर संपावी व सगळी भुमी सुजलाम सुफलाम व्हावी.

आताही विदर्भात खास करून अमरावती जिल्ह्यात कडक उन्हाचा सामना करतांना अक्षरशः नाकी नऊ येणं म्हणजे नेमके काय हे समजले. परंतू आता कालपासून असं वाटतंय आता एक दोन दिवसांत प्रतीक्षा संपून पावसाच्या जलधारा नक्कीच बरसणार. त्याप्रमाणेच गुरुवारी पहाटे पहाटे थोडा का होईना पाऊस पडल्याने अनेक शेतकऱ्यांना, नागरिकांना दिलासा मिळाला.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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