हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #227 – 114 – “राह में कोई मेहरवान कद्रदान मिलता है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल राह में कोई मेहरवान कद्रदान मिलता है…” ।)

? ग़ज़ल # 114 – “राह में कोई मेहरवान कद्रदान मिलता है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

शायरों ने कहा दिलों में मुहब्बत होती है,

हमने कहा जनाब इंसानी क़ुदरत होती है।

*

आती है जवानी जिस्म परवान चढ़ता है,

दिलफ़रेब अन्दाज़ उनकी ज़रूरत होती है।

*

राह में कोई मेहरवान कद्रदान मिलता है,

बहकना-बहकाना मजबूर फ़ितरत होती है। 

*

जिंस बाज़ार में खुलते हैं सफ़े दर सफ़े,

अरमानों की खुलेआम बग़ावत होती है।

*

मुहब्बतज़दा दिलों में झाँकता है ‘आतिश’

आशिक़ी फ़रमाना सबकी क़ुदरत होती है।

*

दिलों में मुहब्बत का खेल शुरू होता है,

ज़हन में ग़ुलाम परस्त हसरत होती है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विचार (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – विचार (2) ? ?

तुम सहमत मत होना

मेरे विचार से,

यदि हो भी जाओ

तो मत करना समर्पण,

बचा रखना

झीनी-सी अंतर-रेखा..,

अंतर-रेखा के इस पार मैं,

अंतर-रेखा के उस पार तुम,

मनन करना, मंथन करना,

मेरे-तुम्हारे

विचारों की बिलोई

उत्पन्न करेगी नया आविष्कार..,

आविष्कार उस आग का

जो चकमक के आपसी घर्षण से

जन्मती है और सचमुच

गलानेे लगती है दाल,

सेंकने लगती है रोटियाँ,

उन अर्थों में नहीं

जिन्हें मुहावरों के आवरण में

बदनाम कर रखा है शब्दकोशों ने,

आग से सचमुच

भरता है भूख का कुआँ;

बुझती है पेट की आग..,

आग को, अंतर्भूत अग्नि को

सदैव जलाये और

जिलाए रखना मित्रो!

© संजय भारद्वाज  

(14 जुलाई 2017, प्रातः 9:04 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। 🕉️

💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। कल शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 311 ⇒ न ख रे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “न ख रे।)

?अभी अभी # 311 ⇒ न ख रे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

न खरे होते हैं,  न खोटे होते हैं,  नखरे,  सिर्फ नखरे होते हैं। नखरों पर किसी का कॉपीराइट नहीं,  बालिग,  नाबालिग,  स्त्री – पुरुष,  बड़े- बूढ़े,  समझदार – सयाने,  स्वदेशी – विदेशी तो ठीक,  यहां तक कि संत महात्मा भी नखरों में किसी से पीछे नहीं रहते। लेकिन न जाने क्यूं,  नखरे महिलाओं,  रूपसी स्त्रियों,  और नाजुक सुंदरियों को ही शोभा देते हैं।

पुरुष तो सिर्फ भाव खा सकता है, नखरे तो स्त्रियों को ही शोभा देते हैं। हमें नहीं,  ज़रा शैलेंद्र जी और किशोर कुमार जी का नया अंदाज़ देखिए, और हमें माफ़ कीजिए ;

नखरे वाली,  नखरे वाली

देखने में देख लो है कैसी भोली भाली।

अजनबी ये छोरियां

दिल पे डालें डोरियां

मन की काली …

शहर की आधुनिक नारियों को छोड़िए,  आइए गांव चलें। गोरी चलो न हंस की चाल,  ज़माना दुश्मन है,  तेरी उमर है सोलह साल,  जमाना दुश्मन है।

क्या पुरुषों के शब्दकोश में ऐसे शब्द पाये जाते हैं ;

– उई मां उई मां,  ये क्या हो गया !

उनकी गली में दिल खो गया ….

या फिर ;

दैया रे दैया,  लाज मोहे लागे,  पायल मोरी बाजे।।

अब बेचारा पुरुष इतनी नज़ाकत और मासूमियत कहां से लेकर आए। जिसका काज उसी को साजे। नखरे करना,  हमारे बस का नहीं। हम तो खोटे ही भले।।

हमारे स्कूल में एक बिड़वई सर थे,  वे जब हमारी ओर पीठ करके ब्लैक बोर्ड पर कुछ लिखते थे,  तो उन्हें दोनों पांवों पर खड़े रहने में कुछ परेशानी होती थी,  अतः उनका आधा भार एक नितंब को वहन करना पड़ता था। जब थक जाते,  तब दूसरे नितंब की सेवाएं ली जाती। चलते वक्त भी पीछे से उनकी मटकती चाल हमारे लिए किसी मतवाली चाल से कम नहीं थी। उनकी अनुपस्थिति में लड़के लोग,  क्लास में उनकी चाल की नकल निकाला करते थे। रुस्तम की चाल तो हमने नहीं देखी,  लेकिन बिड़वई सर की चाल आज तक याद है।

नखरे कौन नहीं करता ! खाने पीने के नखरे,  पहनने के नखरे,  पसंद नापसंद,  नखरे का ही दूसरा रूप है। लेकिन हमारे जैसे वैराग्य शतक वाले श्रृंगार शतक के बारे में क्या जानें। आईने के सामने खड़े हुए,  शेव की,  और चलते बने। होठों पर कभी लिपस्टिक और उंगलियों में नेल पॉलिश कभी लगाई हो,  कानों में कभी झुमका पहना हो,  तो नखरे दिखाएं। जब घर से बाहर निकलते हैं तो यह भी होश नहीं रहता,  पांव में चप्पल पहनी है या जूते। और वहां महिलाओं को मैचिंग का कितना खयाल रखना पड़ता है। नखरे नहीं,  इंसान की मजबूरी है। हम समझ सकते हैं,  दुनिया इसे नखरा कहे तो कहे।।

नारियों के नखरों के साथ अगर लाज जुड़ जाए,  तो सोने में सुहागा !

लाज शब्द पुरुषों को शोभा नहीं देता। उनके लिए तो फ्रेंड्स लॉज ही काफी है। औरतों को जितना नाज़ नखरों पर है उतनी ही अपनी लाज पर भी। इसीलिए पुरुष अपनी पत्नियों के नाज नखरे खुशी खुशी उठाता है। हम तो अपनी कहते हैं,  जग की नहीं !

अगर श्रीमती जी के नाज नखरे नहीं उठाए,  तो वे आसमान सर पर उठा लेती हैं। चलो बुलावा आया है,  सुबह सुबह एक कप गर्म चाय का प्याला बुलाया है…!!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-2 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-2 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

(बीवी की साड़ियाॅं, खुद के कपड़े खरीदते वक्त बदरंग, फटी साड़ियाॅं पहन रही माॅं उन दोनों को कभी याद ही नहीं आयी। तब पहली बार उसके मन पर खरोंच आयी।) अब आगे…

वैसे भी उसका आहार बहुत कम था। लेकिन उसकी एक आदत थी। जो छोडे नहीं छुटती थी। जो उसने सालों से भूख मिटाने की दवाई के रूप में डाल रखी थी। वह थी चाय पीने की आदत। .. एक बार सुबह अच्छी अदरक वाली, और ज्यादा चीनी वाली चाय!… फिर दिन भर खाने को कुछ भी ना मिले कोई फर्क नहीं पड़ता था। बहू इस बारे में अनजान हो ऐसी भी कोई बात नहीं थी। यह रोज सुबह जल्दी उठती थी, अपनी और बेटे बहू की भी चाय बनाती थी।

एक दिन की बात…. रात देर से नींद आयी, सुबह जल्दी ऑंखें नहीं खुली। उसने रसोई में देखा पति-पत्नी दोनों की चाय बनी हुई थी। ब्रश किया, हाथ  पोंछती हुई  रसोई में आई। देखा, तो चाय का पतेला फिर गैस पर चढ़ा हुआ था। उसके सामने ही पतेला उतार कर उसके कप में पानी जैसी पतली चाय और ऊपर थोड़ा सा दूध डाला गया। वह समझ गई उन दोनों की चाय छानने के बाद छननी पर जो चाय पत्ती थी, उसमें ही पानी डालकर उसके लिए चाय उबाली गई थी। यहाॅं मन पर दूसरी बार खरोंच आयी। … मन लहू लुहान हो गया। मन कहने लगा, ‘बस्स, अब और नहीं!’

बेटे को आवाज दी, तब  ऑंखों में आंसू छलक रहे थे,

“क्या मैं इतनी गयी बिती  हो गयी हूॅं, की एक कप अच्छी चाय भी मेरे नसीब में नहीं है?”

” क्या हुआ?”

”  देखी यह चाय ?”

“हाॅं, देखी…आगे!”…

“देखो, एक बार चाय छानकर छननी पर पड़ी चायपत्ती से मेरी चाय बनाई गयी है। क्या इतने गरीब है हम लोग?  या तुम दोनों के लिये बोझ बन गई हूॅं मैं?”…..

वह कुछ भी नहीं बोला सिर्फ हल्के से त्योरियाॅं चढ़ाकर उसने बीवी की तरफ देखा। बीवी फटाक् से उठ खड़ी हुई, उसने तेजी से सास के सामने पड़ा हुआ चाय का कप उठाया, मुॅंह को लगायाऔर सारी चाय वह पी गई….. फिर कैची की तरह उसकी  जुबान चलती रही,

“कोई जहर देकर मार नहीं डाल रही थी तुम्हें। मेरी एक बात, एक चीज भी पसंद आती हो तो जानू! खुद अपने आप बनाकर क्यों नहीं पी? शरीर में जान नहीं है, फिर भी इतने नखरे! अगर हट्टी कट्टी होती तो रोज जूते की मार ही मेरे नसीब में होती। मानो जैसे आजतक अमृत पीकर जी रही थी, जो इस चाय को देखकर नाक भौ सिकुड़ रही है। “

…. बोलते बोलते उसका रोना भी शुरू हो गया। सामने घटित  तमाशा देखकर यह अपना अपमान, दु:ख भी भूल गई। बेटा खंबे जैसा खड़ा था।

यह उठकर अपने कमरे में जाकर लेट गई। दिन भर न पानी पिया न खाना खाया। पूरे दिन बेटा बीवी को प्यार से समझाता रहा।

शाम को माॅं के कमरे में झाॅंककर बोला,

“अम्मा जी, आपने यह क्या शुरू कर दिया है ?”

“मैंने शुरू कर दिया?”

” देखो अम्मा, मुझे घर में शांति चाहिए बस्स, बैठे ठाले तुम्हें दो वक्त की रोटी मिलती है। फिर भी तुम्हारा यह बर्ताव!थोड़े सब्र से, प्यार से रहने में तुम्हारी क्या चव्वल खर्च होती है ?”

खाली पेट उसने, बेटे से दो वक्त की रोटी  खिलाने का बड़प्पन सुना…. और वह गुस्से से आग बबूला हो गई। जोर से चिल्ला कर बोलना चाहती थी पर बोलते वक्त हाॅंपने लगी।

” कितना सब्र करूॅं?

जैसे तुम लोग जिलाओगे वैसे जिऊॅं? अपने मन की हत्या करके ?…  वह … तुम्हारी बीवी, बहू है मेरी, कोई दुश्मन नहीं है। दुश्मन के प्रति भी मैंने बुरा व्यवहार नहीं किया। जरूरत थी तब अपनी खुद की गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए मैंने चकला बेलन लेकर चार घरों में काम किया है। अब शरीर नहीं चल रहा है। कम से कम मेरे सफेद बालों की और सुखकर काटा हुए शरीर की  तो इज्जत.”…

“लेकिन अम्मा, “….

“मुझे दो वक्त के भोजन से मतलब नहीं है, ….. प्यार के दो शब्दों की भूखी हूॅं मैं! बुरे वक्त पर मैंने मेहनत की वह सिर्फ मेरे दो कौर रोटी के लिए नहीं। कभी दो समय का खाना मिला, कभी नहीं!  जो भी मिला वह पहले तुम्हें खिलाया। …. तुम्हें खिलाया- पिलाया, लिखाया- पढ़ाया, बड़ा किया, “…..

सुनते ही बहू तीर के समान अंदर आ गई।

“देखना मॉंजी, यह तो आपका कर्तव्य था। कोई एहसान नहीं किया। हम भी अपने होने वाले बच्चों के लिए ये सब करेंगे। कोई उनको कुडा घर में नहीं फेंकेंगे। “

“बहू तुम्हारी सारी बातों से दिल खुश हुआ। … इन सारे बातों से एक बात मेरी समझ में आ गई है कि मैं तुम्हें एक ऑंख नहीं सुहाती। …. कोई बात नहीं, जहाॅं काम करती थी वहाॅं भी इज्जत से रही, बेज्जती का जहर वहाॅं भी किसी ने मुझे नहीं परोसा। मैंने मेरे बेटे का पालन पोषण किया कोई एहसान नहीं किया…. सही बात है। लेकिन एक बात आप लोग भूल रहे हैं। अब जिम्मेवारी निभाने का, अपने कर्तव्य का पालन करने का, जिम्मा आपका। आप उसको नकार नहीं सकते। आपकी घर गृहस्थी आपको मुबारक!….. मेरे लिए कहीं पर एक किराए का कमरा ढूॅंढ लो। और जब तक शरीर में जान है तब तक खर्चे के लिए कुछ पैसे भेजते रहो। …. इसमें मेरे पर  एहसान जताने वाली कोई बात नहीं है। बेटा, … यह तुम्हारे प्रति मैंने निभाये कर्तव्य  का पुनर्भुगतान समझो। “…

” हाॅं जी हाॅं ऽ, भेजेंगे ना, यहां पैसों की खुदान है। …. या कोई गुप्त धन का भंडार हाथ लगा है?”

….बहू बोलते जा रही थी और बेटा सिगरेट सुलगाकर धुए के छल्ले पर नजर गढाए  बैठा था।

**क्रमशः* 

मूल मराठी कथा (जगावेगळी) –लेखक: श्री अरविंद लिमये

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 106 ☆ मुक्तक – ।।वंदना, मां सरस्वती, मां शारदे, मां वीणापाणी, की।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 106 ☆

☆ मुक्तक – ।।वंदना, मां सरस्वती, मां शारदे, मां वीणापाणी, की।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

हे मां ,हंसवाहिनी, मां शारदे आए तेरी शरण में,

कल्याण कर हमारा, हम सबको तार दे।

 *

हे मां विद्या की देवी मानवता ज्ञान की पुकार है,

स्नेह से दुलार दे, सब के लिए सरोकर दे।

 *

तू ही मां सरस्वती, है बुद्धि प्रदाती,

आए हम तेरे द्वारे, सबको ज्ञान का नव प्रकाश दे।

 *

हे मां वीणापाणी तू निकाल हर विकार दे,

हर मन में भाव परोपकार दे, ऐसा विचारों में उद्धार दे।

 *

तू जगतारिणी, तू है दया प्रेम की देवी,

महिमा आपार तेरी, इस भवसागर से पार दे।

 *

हे मां वागेश्वरी, जगतपालिनी, कमल पर तू विराजित,

कष्ट सबका उतार दे, अपने आशीष का हमें उपहार दे।

 *

हे मां श्वेतवस्त्र धारण, पुस्तकें तेरे ही तो कारण,

आए तेरे वंदन को, अंतर्मन को तू झंकार दे।

 *

हे मां मधुरभाषिणी, वीणावादिनी, ह्रदय के अंधेरे को,

तू सूर्य का उज्जवल प्रकाश दे।

 *

हे मां भुवनेश्वरी, तेज तेरा असीम अनंत आपार,

तुझसे होता है आलोकित सम्पूर्ण संसार, हर शत्रु को तू संहार दे।

 *

तुझको शीश वंदन करते हैं, पूजा अर्चना तेरी करते हैं,

हे मातेश्वरी, बस अपना हाथ शीश पर वार दे।

हम सब को सुधार दे। बस ये एक उपकार कर।।

बस ये एक उपहार दे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 168 ☆ बदलते मौसम में घिर रही हैं… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक अप्रतिम रचना  – “बदलते मौसम में घिर रही हैं ..। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘बदलते मौसम में घिर रही हैं  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

मुसीबतों से बचा वतन को जो अपने खुद को बचा न पाये

उन्हीं की दम पै हैं दिख रहे सब ये बाग औ’ घर सजे सजाये

तुम्हारे हाथों है अब ये गुलशन सब इसकी दौलत भरा खजाना

जिसे ए बच्चों बचा के रखना तुम्हें औ’ आगे इसे बढ़ाना ॥

 *

बदलते मौसम में घिर रही हैं घने अंधेरों से सब दिशाएँ है

तेज बारिश कड़कती बिजली कँपाती बहती प्रबल हवाएँ भची है

भगदड़ हरके दिशा में समाया मन में ये भारी डर है

न जाने कल क्या समय दिखाये, मुसीबतों से भरा सफर है।

 *

मगर न घबरा, कदम-कदम बढ़ निराश होके न बैठ जाना

बढ़ा के साहस, समझ के चालें, तुम्हें है ऐसे में पार पाना।

चुनौतियों को जिन्होंने जीता उन्हीं का रास्ता खुला रहा है

बहादुरों, तुम बढ़ो निरन्तर, जमाना तुमको बुला रहा है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सौ.मंजिरी येडूरकर – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सौ.मंजिरी येडूरकर

💐अ भि नं द न 💐

शब्दसेतू साहित्य मंच, पुणे यांनी मराठी भाषा गौरव  दिनानिमित्त आयोजित केलेल्या काव्यस्पर्धेत लावणी या प्रकारात, आपल्या समुहातील ज्येष्ठ  साहित्यिका  सौ.मंजिरी येडूरकर  यांना उत्कृष्ट  काव्य लेखन पुरस्कार  प्राप्त  झाला आहे.

💐 ई-अभिव्यक्ती परिवारातर्फे सौ.मंजिरी येडूरकर यांचे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि पुढील वाटचालीसाठी हार्दिक शुभेच्छा. 💐

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ लावण्यवती ☆ सौ.मंजिरी येडूरकर ☆

सुश्री मंजिरी येडूरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ लावण्यवती ☆ सौ.मंजिरी येडूरकर

(गीत प्रकार – लावणी- सवाल – जवाब)

माय मराठी गौरव विशेष स्पर्धेतील उत्कृष्ट पुरस्कार प्राप्त  कविता.

प्रश्न – ऐका,

मराठी मायेचं कवतिक करशी, कूळ, मूळ मग सांग तिचं,

कुण्या देशीची, कुण्या वेशीची, काय ठावं या बोलीचं? ग ग ग ग

 

उत्तर –

संस्कृत आहे मूळ तिचं पण, कुळे असती अनेक गं,

म्हाईभटाचं,ज्ञानेशाचं, विनायकाचं अन् कितीक गं, ग ग ग ग

 

कधी वऱ्हाडी, मालवणी कधी,आगरी अन् अहिराणी गं,

तंजावर अन्  झाडी बोली, कधी रांगडी कधी लोणी गं, ग ग ग ग

 

प्रश्न –

कितीक भाषा भारतीयांच्या, श्रेष्ठ ठरे मग कशी ग ती?

सांग पटदिशी ठरो न अथवा, समद्यामंदी कनिष्ठ ती, ग ग ग ग

 

उत्तर –

अभंग, ओव्या, भारुड, लावणी,

कधी फटका, कधी पवाडं गं,

कधी विडंबन,भावगीत कधी, शायरीचं ना वावडं गं, ग ग ग ग

 

कथांचे तर प्रकार किती ते, नीतिकथा, विज्ञान कथा,

वैचारिक अन् अध्यात्मिकही, ललित, विनोदी आणि व्यथा, ग ग ग ग

 

अलंकार किती या भाषेचे, जरा मोजूनी पहा तरी,

एक जन्म ना पुरेल तुजला, फिरुनि येशील भूमीवरी, ग ग ग ग

 

काळासोबत बदलत असते, जरा कधी ना हिला शिवे,

सोळा स्वर मूळ चाळीस व्यंजन, दोन स्वरादी, स्वर दोन नवे, ग ग ग ग

 

एक शब्द घे नमुन्यादाखल, अनेक असती अर्थ इथे,

शब्द किती अन् अर्थ  एकचि, वळेल बोबडी तुझी तिथे, ग ग ग ग

 

नको विचारू पुन्हा प्रश्न हे, मापे सौंदर्या नसती,

कितीक सांगू सारस्वत ते, मुकुटी तियेच्या विराजती, ग ग ग ग

 

माय मराठी अमर असे गं, गुण गौरव ते वाढवती,

नव्या दमाचे, नव्या स्फूर्तीचे, नवे हिरे बघ लखलखती, ग ग ग ग

 

प्रश्नकर्ती-

हरले बाई तुझ्यापुढं मी, बोलती माझी अडली गं,

माय मराठी माझी देखिल, आतापासूनि लाडली गं, ग ग ग ग

 

चला सख्यांनो, करू आरती, माय मराठी भाषेची,

वाजव पेंद्या झांजा तू अन्, जय बोला मराठीची! जी जी र जी, जी  जी र जी,जी जी जी….

© सौ.मंजिरी येडूरकर

लेखिका व कवयित्री, मो – 9421096611

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ माझ्या मातीचे गायन… ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆

श्री विश्वास देशपांडे

? विविधा ?

☆ माझ्या मातीचे गायन… ☆ श्री विश्वास देशपांडे

काल पेपर वाचत असताना एका लेखाने माझे लक्ष वेधून घेतले. दै. पुण्यनगरीत आलेल्या या लेखाचे शीर्षक होते ‘ इस्रायल हृदयात; पण मराठी रक्तात .’ हा लेख चंद्रशेखर बर्वे यांचा आहे. या लेखात त्यांनी सुरुवातीला असे म्हटले आहे की मराठीला संजीवनी देणारे दोन निर्णय जागतिक पातळीवर घेण्यात आले आहेत. पहिला महत्वाचा निर्णय घेतला तो महाराष्ट्र सरकारने. दहावीपर्यंत मराठी सक्तीची करून. आणि दुसरा निर्णय घेतला गेला तो इस्रायलमध्ये. मराठी भाषा आपल्या व्यवहारात सदैव राहावी याची काळजी महाराष्ट्रापेक्षा जास्त बेने इस्रायल यांना वाटते.

खरं म्हणजे या बातमीवर माझा विश्वास बसला नाही. पेपरमध्ये काहीतरी चुकीचे छापले गेले असावे किंवा वाचताना आपलीच काहीतरी चूक होत असावी असे मला वाटले. पण मग मी काळजीपूर्वक तो लेख वाचत गेलो. आणि जसजसा तो लेख वाचत गेलो, तसतसा आपण भारतीय असल्याचा, त्यातही महाराष्ट्रीयन असल्याचा आणि आपली मातृभाषा मराठी असल्याचा अभिमान वाटला . तो आनंद तुमच्यासोबत वाटून घ्यावा म्हणून या लेखाचे प्रयोजन.

इस्रायल हे एक चिमुकले राष्ट्र. पण राष्ट्रभक्ती, शौर्य, जाज्वल्य देशाभिमान इथल्या लोकांच्या नसानसात भिनलेला. तसा या राष्ट्राला चार साडेचार हजार वर्षांचा इतिहास आहे. पण दुसऱ्या महायुद्धानंतर १९४८ मध्ये इस्रायल स्वतंत्र देश म्हणून खऱ्या अर्थाने आकारास आला. जगाच्या पाठीवरील हा एकमेव ज्यू लोकांचा देश. जेरुसलेम ही या देशाची राजधानी. ज्यू, ख्रिश्चन आणि मुस्लिम धर्मीयांसाठी सुद्धा पवित्र असे हे ठिकाण. होली लँड . या देशातल्या लोकांनी वंशविच्छेदाच्या आणि नरसंहाराच्या भयानक कळा सोसल्या. वंशाने किंवा जन्माने ज्यू म्हणजेच यहुदी असणे हाच काय तो एकमेव या लोकांचा अपराध. इंग्लंड, जर्मनी आणि अरब राष्ट्रांनी या लोकांची ना घरका ना घाटका अशी स्थिती केली होती. डेव्हिड बेन गुरियन या बुद्धिमान, लढवय्या आणि दूरदृष्टी नेत्यामुळे हा भूभाग एक स्वतंत्र राष्ट्र म्हणून अभिमानाने उभा राहिला

यानंतर जगभरातून हजारो ज्यू आपल्या देशात म्हणजे इस्रायलमध्ये परतू लागले. भारतातून इस्रायलमध्ये परतणाऱ्यांची संख्या लक्षणीय होती. भारतातून कोचीन, कलकत्ता, गुजरात आदी ठिकाणांहून हे लोक परतले. त्यातही सर्वाधिक संख्या आहे ती महाराष्ट्रातून गेलेल्या लोकांची. या लोकांना तिकडे जाऊन आता जवळपास सात दशके झाली. पण मराठी मातीशी असलेली त्यांची नाळ तुटली नाही. मराठी संस्कृती आणि भारतीय संस्कृती या लोकांनी टिकवून ठेवली आहे. महाराष्ट्रीयन आणि भारतीय खाद्यपदार्थ त्यांच्या रोजच्या जेवणात असतात. महिला साडी नेसतात. जे महाराष्ट्रातून तिकडे गेले आहेत, त्यांच्या घरात मराठी बोलली जाते. ‘ मायबोली ‘ नावाचे मराठी मासिक तेथे गेल्या ३५ वर्षांपासून चालवले जात आहे. तेथील मुलांचे शिक्षण हिब्रू भाषेत होत असल्याने ते हिब्रू भाषा चांगल्या प्रकारे लिहू, वाचू आणि बोलू शकतात. मराठी बोलणे आणि वाचणे त्यांना कठीण जाते. म्हणून या मासिकात हिब्रू भाषेतील सुद्धा काही साहित्य अंतर्भूत करण्याचा निर्णय त्यांनी घेतला आहे. याचा उद्देश हा की हिब्रू वाचता वाचता त्या मुलांचे लक्ष मराठीकडे जावे. मराठी साहित्याचे त्यांनी वाचन करावे, मराठीची गोडी त्यांच्यात निर्माण व्हावी.

५० च्या दशकात तेथे गेलेल्या काही ज्यूंनी तेथे चांगली वागणूक मिळत नसल्याने भारतात परत येण्याची इच्छा व्यक्त केली. तेव्हा तत्कालीन पंतप्रधान पं नेहरूंनी लगेच विमान पाठवून शेकडो ज्यूंना भारतात परत आणले. हे लोक आज भारतीय संस्कृतीचा एक भाग झाले आहेत. त्यांची आडनांवेही अस्सल भारतीय आहेत. त्यांचं हे भारतावरचं प्रेम आणि भारतीय संस्कृतीशी असलेली नाळ कदापिही तुटणे शक्य नाही. सिनेगॉग हे त्यांचे प्रार्थनास्थळ. दिल्लीतील सिनेगॉगचे धर्मगुरू इझिकल इसहाक मळेकर म्हणतात. ” इस्रायल आमच्या हृदयात आहे ; पण मराठी आमच्या रक्तात आहे. या जगाच्या पाठीवर भारतासारखा दुसरा देश नाही. सहनशीलता, वसुधैव कुटुंबकम , अतिथी देवो भव आणि विश्वची माझे घर असं मानणारा कोणता देश या पृथ्वीतलावर असेल तर तो फक्त भारत होय. ” ( संदर्भ दै पुण्यनगरी दि २/३/२०२० )

© श्री विश्वास देशपांडे

चाळीसगाव

प्रतिक्रियेसाठी ९४०३७४९९३२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆सुंदर माझं घर – भाग-1 ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? जीवनरंग ❤️

☆ सुंदर माझं घर – भाग-1 ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले 

बाल्कनीत  बसून निवांत आल्याचा चहा घेताना उमाला शशीचा फोन आला.’काय करते आहेस ग आज? छान नाटक लागलंय बघ.बरेच दिवस आपल्याला बघायचं होतं ना?काढू का तिकिटे?’शशी विचारत होती.’होहो. काढ काढ. जाऊया आपण बघ .’उमा म्हणाली. तेवढ्यात कामाची बाई आली. बाई आज काय करायचा स्वयंपाक? बाई,आज पावभाजी करूया.आम्ही नाटकाला जाणार आहोत चार वाजता.मग शशीताई इकडेच येतील.पावभाजी खूप आवडते तिला.तुमची मस्त होते पावभाजी. आणि साहेबांना पण आवडते.’’बाई बरं म्हणाल्या आणि कामाला लागल्या. काम सांगून उमा हॉल मध्ये येऊनबसली. सगळं काम आवरून बाई निघून गेल्या.उमाला सकाळीच सोनाली चा फोन येऊन गेला.आई, बरी आहेस ना काय चाललंय ?  सोनालीचा फोन म्हणजे उमाला तासाची निश्चिती.तिला भरभरून सांगण्यासारखं खूप खूप असायचं आणि फक्त वीक एन्डलाच तिला वेळ असायचा. खूप खूप मन भरून गप्पा मारून झाल्यावर उमाने  सगळं आवरलं आणि मार्केट मध्ये चक्कर टाकावी म्हणून साडी बदलून तयार झाली. छान मनासारखी खरेदी करून उमा घरी आली.शेजारच्या प्रतिभा काकू सहज म्हणाल्या’उमा,ये ग घरात.टेक जरा.मस्त कॉफी पिऊया .वाटच बघत होते तुझी.’ सुनील आला नाही वाटतं घरी?अहो तो गेलाय चार दिवस ट्रेकला मित्रांबरोबर.माझं एकटीचंच राज्य आता घरी!उमा हसून म्हणाली.

काकू,ही तुमची भाजी,ही बिस्किट्स आणि हा माझ्याकडून तुम्हाला चिवडा. मी केलेला आवडतो ना तुम्हाला?कालच केला बघा.’प्रतिभाकाकू खूष झाल्या.वावा मस्तच ग.थँक्स हं.नेहमी माझं सगळं सामान  अगदी न चुकता मला बाहेर जाताना विचारून  आणतेस बाई!हल्ली कोण करतंय एवढं कोणासाठी?’कॉफीचा मग हातात ठेवत काकू म्हणाल्या. झालं की ग वर्षं तुला अमेरिकेहून परत येऊन ना?आता कधी पुन्हा जाणार लेकीला नातवाला भेटायला?’उमा म्हणाली,बघूया. अजून काही ठरवलं नाही हो मी.’उमा घरी परतली. काकूंचा सहजच विचारलेला प्रश्न तिच्याभोवती फेर धरून नाचू लागला.पुन्हा कधी जाणार तू?उमाच्या मनात उत्तर होतं जाईनच की पुढच्या वर्षी आता..  माझ्या लाडक्या मुलीला नातवंडांना आणि जावयाला भेटायला. उमाचं मन खूप  मागे गेलं. तेव्हाचे दिवस आठवले तिला.सुनील उमा आणि सोनालीचं ते सुंदर जग. उमा तेव्हा बँकेत नोकरी करत होती आणि सुनीलचा छोटासा कारखाना होता. छान चालला होता तो.उमाच्या बँकेतल्या नोकरीचा भक्कम आधार होता सुनीलला.सोनाली सी ए झाली आणि तिने राजीव  गद्रेशी लग्न ठरवलं.चांगलाच मुलगा होता तो.फक्त अमेरिकेला कायम रहाणारा होता. एकुलती एक मुलगी कायमची परदेशी जाणार म्हणून उमा सुनीलला वाईट वाटलं पण सोनालीला त्याचं काहीच नव्हतं.आईबाबा,मला तिकडे छान जॉब मिळेल आणि तुम्हीही तिकडे येऊ शकालच की.जग किती जवळ आलंय ग.असं म्हणत सोनाली लग्न करून निघून गेलीसुद्धा.या घरात उरले फक्त उमा आणि सुनील.  एकदोनदा सुनील उमा सोनालीकडे जाऊन आलेआणि मग मात्र सुनील म्हणाला’,उमा तू एकटीच जात जा.मला फार कंटाळा येतो तिकडे.दिवसभर नुसतं बसायचं आणि ते म्हणतील तेव्हा हिंडून यायचं.मला बोअर होतं. मी मुळीच येणार नाही .तू खुशाल जा.मी इकडे मस्त राहीन.माझं मित्रमंडळ, जिम सगळं सोडून मी येणारनाही.नाईलाजाने उमा या ना त्या कारणाने सोनालीकडे एकटी जात राहिली.दोनदा सोनालीच्या  बाळंतपणासाठी तर ती सहा सहा महिने राहिली. सुनील मजेत एकटा रहायचा.

त्यानेही आता कारखान्याचे व्याप कमी करत आणले होते.  अचानक सोनालीचा फोन आला. राजीवला एक वर्षासाठी मलेशियाला जावे लागणार होते. आईबाबा,तुम्ही दोघे याल का इकडे?मी तर तिकडे जाऊ शकत नाही आणि मुलांना बघायला आणि नोकरी दोन्ही मला जमणार नाही  बाबा,याल का?’सुनीलने सांगितले हे बघ सोनाली,मी तर असा वर्षभर कारखाना बंद ठेवू शकणार नाही.मी फार तर दोन महिने येईन.तुझ्या आईला विचार ती काय म्हणते ते.’ उमा विचारात पडली.वर्षभर तिकडे राहायचं म्हणजे कठीणच होतं. इकडे सुनील एकटा आणि तिकडे ती एकटी.पण सोनालीची अडचण लक्षात घेऊन उमा म्हणाली,’हे बघ सोनाली,मी सहा महिने येईन.मग सासूबाईंना बोलावून घे किंवा मग चांगल्या क्रेश मध्ये ठेवूया मुलांना.मी आले की मग बघूया.’ठरल्या वेळी सुनील उमा सोनालीच्या घरी पोचले. दोन्ही नातवंडं उमा आणि आजोबांना चिकटली. राजीव दुसऱ्याच दिवशी मलेशियाला निघून गेला.

सोनाली सकाळी सातला घर सोडे, ती संध्याकाळी 5 ला घरी येई.मुलं अजून लहान होती.त्यामुळे  शाळेत पोचवायची तरी  जबाबदारी नव्हती.

सोनाली एकुलती एक असल्याने लाडावलेली, कामाची सवय नसलेली आणि हुशार हुशार म्हणून उमानेच तिला घरात काहीच करू दिले नव्हते.

कौतुकाने उमा म्हणायची,सोनाली हुशारआहे.पन्नास नोकर ठेवेल कामाला. उमाच्या सासूबाई आणि आई सुद्धा म्हणायच्या,उमा चूक करते आहेस तू.मुलीच्या जातीला सगळं यायला हवं ग बाई.शिकव तिला सगळं नीट. घर आवरायचं,नीट नेटकं ठेवायचं, स्वयंपाक सुद्धा आला पाहिजे.तू नाही का सगळं करत बँकेत असूनही?’उमाने ते कधी मनावर घेतलेच नाही.आणि ध्यानीमनी नसताना सोनाली परदेशी गेली.जिथे नोकर मिळणं अशक्य. सोनालीचं घर बघून उमा सुनील चकित झाले.एवढं सुंदर घर पण कुठेही काहीही ठेवलेलं!   स्वयंपाकघरात पसारा.मुलांचे कपडे नीट घड्या न करता कोंबलेले! उमा गप्प बसून हे बघत होती.तिने सगळं घर हळूहळू ताब्यात घेतलं. सोनालीला सांगितलं,मी तुझ्यासाठी असं असं टाइम टेबल केलंय. तुला या प्रमाणे नीट फॉलो केलंस तर काहीही जड जाणार नाही.उमाने सोनालीच्या किचन मध्ये आठवड्याचा मेनू आणि घरातली कामे याचा फळाच लावला.  सोनाली म्हणाली बाई ग!असली शिस्त जमणार का मला? ‘उमा म्हणाली जमवावी लागेल सोनाली. तुझ्याच सारख्या इतर मुलीही नोकरी करतातच.कालच आपण जयाकडे गेलो होतो ना?तीही नोकरी करते.किती सुंदर ठेवलंय घर तिनं. तुलाही जमेल हे. मुलांनाही छोटी छोटी कामं करायला शिकवलीस की तीही शिकतील हे सगळं.’तू आता शनिवार रविवार रोज एक सोपा पदार्थ माझ्याकडून शिक.अग काहीही अवघड नाही तुझ्यासारख्या हुशार मुलीला.’

सोनालीला हे पटलं.परवाच राजीव ओरडत होता,  तू  लॉन्ड्री लावली नाहीस म्हणून माझा एकही शर्ट नीट नाहीये.इस्त्री करणं तर बाजूलाच राहिलं.’सोनालीला वाईट वाटलं. आई बरोबर आहे तुझं. मीच कधी लक्ष दिलं नाही आणि मग कामाचे ढीग साठत  गेले की मग मला आणखीच गोंधळायला होतं. मग ते वाढतच जातं.मी तू सांगतेस तर तसं करायला लागते  ’उमा हसली.

होईल ग सगळं मस्त सोनाली.हुशार माणसाला काहीही अवघड नाही.आपण आधी वरच्या खोल्यांपासून करत येऊ सगळं नीट.’

– क्रमशः भाग पहिला 

© डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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