(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 232☆ धूलिवंदन
क्यों बाहर रंग तलाशता मनुष्य
अपने भीतर देखो रंगों का इंद्रधनुष..,
जिसकी अपने भीतर का इंद्रधनुष देखने की दृष्टि विकसित हो ली, बाहर की दुनिया में उसके लिए नित मनती है होली। रासरचैया उन आँखों में हर क्षण रचाते हैं रास, उन आँखों का स्थायी भाव बन जाता है फाग।
फाग, गले लगने और लगाने का रास्ता दिखाता है पर उस पर चल नहीं पाते। जानते हो क्यों? अहंकार की बढ़ी हुई तोंद अपनत्व को गले नहीं लगने देती। वस्तुत: दर्प, मद, राग, मत्सर, कटुता का दहन कर उसकी धूलि में नेह का नवांकुरण है होली।
नेह की सरिता जब धाराप्रवाह बहती है तो धारा न रहकर राधा हो जाती है। शाश्वत प्रेम की शाश्वत प्रतीक हैं राधारानी। उनकी आँखों में, हृदय में, रोम-रोम में प्रेम है, श्वास-श्वास में राधारमण हैं।
सुनते हैं कि एक बार राधारमण गंभीर रूप से बीमार पड़े। सारे वैद्य हार गए। तब भगवान ने स्वयं अपना उपचार बताते हुए कहा कि उनकी कोई परमभक्त गोपी अपने चरणों को धो कर यदि वह जल उन्हें पिला दे तो वह ठीक हो सकते हैं। परमभक्त सिद्ध न हो पाने भय, श्रीकृष्ण को चरणामृत देने का संकोच जैसे अनेक कारणों से कोई गोपी सामने नहीं आई। राधारानी को ज्यों ही यह बात पता लगी, बिना एक क्षण विचार किए उन्होंने अपने चरण धो कर प्रयुक्त जल भगवान के प्राशन के लिए भेज दिया।
वस्तुत: प्रेम का अंकुरण भीतर से होना चाहिए। शब्दों को वर्णों का समुच्चय समझने वाले असंख्य आए, आए सो असंख्य गए। तथापि जिन्होंने शब्दों का मोल, अनमोल समझा, शब्दों को बाँचा भर नहीं बल्कि भरपूर जिया, प्रेम उन्हीं के भीतर पुष्पित, पल्लवित, गुंफित हुआ। शब्दों का अपना मायाजाल होता है किंतु इस माया में रमनेवाला मालामाल होता है। इस जाल से सच्ची माया करोगे, शब्दों के अर्थ को जियोगे तो सीस देने का भाव उत्पन्न होगा। जिसमें सीस देने का भाव उत्पन्न हुआ, ब्रह्मरस प्रेम का उसे ही आसीस मिला।
प्रेम ना बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा, परजा जेहि रुचै, सीस देइ ले जाय।
बंजर देकर उपजाऊ पाने का सबसे बड़ा पर्व है धूलिवंदन। शीष देने की तैयारी हो तो आओ सब चलें, सब लें प्रेम का आशीष..!
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ महाशिवरात्रि साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
Anonymous Litterateur of Social Media # 180 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 180)
Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.
Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.
He is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!
English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 180
☆☆☆☆☆
देख दुनिया की बेरूखी
न पूछ ये नाचीज़ कैसा है
हम बारूद पे बैठें हैं
और हर शख्स माचिस जैसा है
☆☆
Seeing the rudeness of the world
Ask me not how worthless me is coping
I’m sitting on pile of explosives
And every person is like a fuse…
☆☆☆☆☆
शहरों का यूँ वीरान होना
कुछ यूँ ग़ज़ब कर गया…
बरसों से पड़े गुमसुम
घरों को आबाद कर गया…
☆☆
Desolation of the cities
Did something amazing…
Repopulated the houses
Lying deserted for years…
☆☆☆☆☆
सारे मुल्क़ों को नाज था
अपने अपने परमाणु पर
क़ायनात बेबस हो गई
एक छोटे से कीटाणु पर..!!
☆☆
Every country greatly boasted of
Being a nuclear super power…
Entire universe was rendered
Grossly helpless by a tiny virus…!
☆☆☆☆☆
कितनी आसान थी ज़िन्दगी तेरी राहें
मुशकिले हम खुद ही खरीदते है
और कुछ मिल जाये तो अच्छा होता
बहुत पा लेने पे भी यही सोचते है…
☆☆
O life! How simple were your ways…
We only bought slew of difficulties on our own
Kept craving continuously, even after acquiring a lot,
How nice it would be if only I could get something more
टीवी पर ‘आज गोकुळात रंग खेळतो हरी, राधिके जरा जपून जा तुझ्या घरी’ (आज गोकुल में हरी होरी खेल रहे हैं, राधे, थोड़ा सम्हाल कर अपने घर जइयो!) या ‘होली आई रे कन्हाई, रंग छलके सुना दे जरा बांसुरी’ जैसे कर्णमधुर गाने देखकर एहसास होता है कि, रंगपंचमी बहुत पहले शुरू हो गई थी। गुलाबी और केसरिया रंग के सुगंधित जल में रंगे कृष्ण, राधा और गोपियों के सप्तरंगी होलिकोत्सव के वर्णन से हम भली भाँति परिचित हैं। राधा और गोपियों के साथ कृष्ण की प्रेम से सरोबार रंगलीला को ब्रजभूमि में ‘फाग लीला’ के नाम से जाना जाता है। ब्रज भाषा के प्रसिद्ध कवि रसखान ने कृष्ण द्वारा राधा और गोपियों के संग खेले गए रंगोत्सव का अत्यंत रसीले काव्य प्रकार (सवैयों) में ‘फाग’ (फाल्गुन माह की होली) में वर्णन किया है। उदाहरण के तौर पर दो सवैयों का वर्णन देखिये|
रसखान कहते हैं-
खेलिये फाग निसंक व्है आज मयंकमुखी कहै भाग हमारौ।
तेहु गुलाल छुओ कर में पिचकारिन मैं रंग हिय मंह डारौ।
भावे सुमोहि करो रसखानजू पांव परौ जनि घूंघट टारौ।
वीर की सौंह हो देखि हौ कैसे अबीर तो आंख बचाय के डारो।
(अर्थ: चन्द्रमुखी सी ब्रजवनिता कृष्ण से कहती है, “निश्शंक होकर आज इस फाग को खेलो। तुम्हारे साथ फाग खेल कर हमारे भाग जाग गये हैं। गुलाल लेकर मुझे रंग दो, हाथ में पिचकारी लेकर मेरा मन रंग डालो, वह सब करो जिसमें तुम्हारा सुख निहित हो। लेकिन तुम्हारे पैर पडती हूं, यह घूंघट तो मत हटाओ और तुम्हें कसम है, ये अबीर तो आंख बचा कर डालो अन्यथा, तुम्हारी सुन्दर छवि देखने से मैं वंचित रह जाऊंगी!”)
रसखान कहते हैं-
खेलतु फाग लख्यी पिय प्यारी को ता सुख की उपमा किहिं दीजै।
देखत ही बनि आवै भलै रसखान कहा है जो वारि न कीजै॥
ज्यौं ज्यौं छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजै।
त्यौं त्यौं छबीलो छकै छवि छाक सो हेरै हँसे न टरै खरौ भीजै॥
(अर्थ: एक गोपी अपनी सखी से फाग लीला का वर्णन करती हुई कहती है, “हे सखि! मैंने कृष्ण और उनकी प्यारी राधा को फाग खेलते हुए देखा। उस समय की जो शोभा थी, उसे किस प्रकार उपमा दी जा सकती है! उस समय की शोभा तो देखते ही बनती है और कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो उस शोभा पर न्यौछावर न की जा सके। ज्यों-ज्यों वह सुंदरी राधा चुनौती देकर एक के बाद दूसरी पिचकारी कृष्ण के ऊपर चलाती है, त्यों-त्यों वे उसके रूप के नशे में मस्त होते जाते हैं। राधारानी की पिचकारी को देखकर वे हँसते तो हैं, पर वहाँ से भागते नहीं और खड़े-खड़े भीगते रहते हैं|”)
फागुन के इस महीने में पलाश के पेड़ों पर फूलों की बहार छाई रहती है| ऐसा प्रतीत होता है मानों पलाश वृक्ष केसरिया अग्निपुष्पों का वस्त्र पहने हों| (सुंदर प्राकृतिक नारंगी रंग बनाने के लिए इन्हीं फूलों को पानी में भिगोया जाता है)। होली मथुरा, गोकुल और वृन्दावन का विशेष आकर्षण है जो गुलाल और अन्य प्राकृतिक रंगों से खेली जाती है| यहीं फ़ाग इस दिव्य और पवित्र परंपरा को कायम रखे हुए है। वहाँ यह त्योहार अलग-अलग दिनों में सार्वजनिक रूप से गलियारों और चौक पर खेला जाता है, इसलिए यह होली फाल्गुन पूर्णिमा से एक महीने या पंद्रह दिन पहले ही शुरू हो जाती है।
मथुरा के निकट एक मेडिकल कॉलेज में नौकरी करने का मेरा अनुभव अविस्मरणीय था। फ़ाग का उत्सव जोरों पर था ही, लेकिन चूँकि होलिकादहन के दूसरे दिन कॉलेज में छुट्टी थी, इसलिए होली पूर्णिमा की सुबह ही कॉलेज के सभी गलियारे गुलाल से रंग गये। दोपहर १२ बजे कॉलेज में ऐसी जबरदस्त होरी खेलकर पूरा स्टाफ नौ दो ग्यारह हो गया| इस होली पूर्णिमा पर ही अग्रिम ‘फ़ाग’ के बाद अगले दिन संबंधित इलाकों में सार्वजनिक फ़ाग तो मनाया जाना आवश्यक ही था! हालाँकि, मुझे बरसाना (राधा का पैतृक गाँव) की लट्ठमार होली देखने का पूर्ण अवसर प्राप्त था, परन्तु मैंने वह अवसर खो दिया, इसका मुझे मलाल जरूर है| लट्ठमार होली का यह अद्भुत आकर्षक दृश्य बरसाना की खासियत है| मथुरा, गोकुल, वृन्दावन के और स्थानीय पुरुषों को बरसाना की महिलाओं की लाठियों का प्रतिकार करते हुए देखने में बहुत मज़ा आता है| वैसे भी उस क्षेत्र में राधारानी के प्रति अगाध भक्ति देखने को मिलती है। अक्सर वहाँ के लोग एक-दूसरे का अभिवादन करते समय ‘राधे-राधे’ कहते हैं।
हमारे बचपन में हर घर में बड़ा आंगन होता था और घर-घर होली जलती थी। होली के लिए पुरानी लकड़ियाँ, पुराने पेड़ों की सूखी शाखाएँ, जीर्ण-शीर्ण लकड़ी के सामान आदि एकत्रित किए जाते थे। गोबर इकट्ठा करते हुए उसे छोटे-छोटे उपलों में थापकर प्रत्येक उपले के बीच में एक छेद कर दिया जाता था| उनमें मोटे धागे से गूंदकर मालाएँ बनी जातीं और होली को अर्पण कीं जातीं थीं| अब ऐसी मालाएँ खरीदी जा सकती हैं। इस होलिकोत्सव की प्रसिद्ध कहानी यह है कि, हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को मिले वरदान के कारण आग से भय नहीं था। इस कारण वह हिरण्यकश्यप के पुत्र यानि, विष्णु-भक्त प्रह्लाद को मारने के लिए उसे अपनी गोद में लेकर जलते हुए अग्निकुंड में बैठ गई। लेकिन वास्तविक विष्णु की कृपा के कारण, प्रह्लाद बच गया और होलिका राक्षसी जलकर मर गई। इसके प्रतीक स्वरूप प्रत्येक फाल्गुन पूर्णिमा को अग्नि जलाकर अपने घर और समाज में फैली बुरी चीजों को जलाने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन स्वस्थ वृक्षों को मारकर और वनों की कटाई द्वारा लकड़ियाँ इकट्ठा करके होली जलाना उचित नहीं है। पेड़ों का विनाश यानि पर्यावरण को नुकसान पहुँचाना! है। पहले से ही पेड़ों की अन्दाधुन्द कटाई के कारण प्रदूषित पर्यावरण की समस्या गंभीर होती जा रही है। ऐसे में इस प्रकार होली जलाने के लिए पेड़ों को नुकसान पहुँचाना अनुचित है। आजकल हर बड़े परिसर में होली जलाई जाती है| मेरा मानना है कि, इसके बजाय दो-तीन या आस-पास के परिसर के लोगों को एक साथ आकर एक छोटी सी प्रतीकात्मक होली जलाकर इस त्योहार को मनाना चाहिए।
रंगोत्सव से जुड़ी मेरी बचपन की सबसे प्यारी यादें पानी से जुड़ी हुई हैं। नागपुर में हमारे माता-पिता के घर के सामने बहुत बडा आँगन हुआ करता था| उसमें एक बहुत बड़ी कड़ाही थी| इतनी बड़ी कि, लगभग 3 साल के बच्चे के खड़े होने के लिए वह पर्याप्त थी। उसका उपयोग हमारे १०० से भी अधिक पेड़ों को पानी देने के लिए किया जाता था। यह मेरा पसंदीदा कार्य था| कढ़ाई में पानी भरने के लिए एक नल था और उससे जुडे लंबेसे पाइप से पेड़ों को पानी देना, खासकर गर्मियों में, मेरे लिए ‘अति शीतल’ कार्य होता था। लेकिन रंगीली होरी के दिन उसी पानी में रंग मिलाकर एक-दूसरे को पानी में अच्छी तरह डुबकियाँ लगवाना हमारी पसंदीदा मनोरंजक क्रीड़ा होती थी| ऐसी सीमेंट की टंकी हर किसी के घर में होती थी, उनमें बारी-बारी से स्नान करना और जो भी, जहाँ भी मिल जाए उसे बेझिझक खाकर होरी का जश्न मनाया जाता था।
कराड, कोल्हापुर और सांगली से लगभग ४० किमी दूर इस्लामपुर में २०१६ को नौकरी के सिलसिले में मेरा जाना हुआ। वहाँ रंगोत्सव यानि होली का दूसरा दिन अन्य दिनों की तरह बिल्कुल सामान्य नजर आ रहा था। मैं समझ नहीं पा रही थी, ‘ये क्या हो रहा है?’ पूछ ताछ करने के उपरांत मालूम हुआ कि, यहां ‘रंगपंचमी’ मनाई जाती है (होली पूर्णिमा के बाद का पाँचवा दिन)! लेकिन मैंने यह बात पहली बार सुनी और देखी| छुट्टी मिले या न मिले, यहाँ रंगपंचमी के दिन हर कोई छुट्टी लेता ही है। हमारे मेडिकल कॉलेज के छात्र और छात्राएं भारत के विविध भागों से होने के कारण उन्होंने अपनी डबल व्यवस्था कर ली, मतलब, लगे हाथों होली के दूसरे दिन और पाँचवे दिन ऐसे दोनों दिन मस्ती!
अब रंगोत्सव बड़े-बड़े आवासीय परिसरों में मनाया जाता है। यह सच है कि, जश्न की ख़ुशी में सराबोर होने का कोई निर्धारित मूल्य नहीं| संभवतः पृष्ठभूमि में बजते डिस्को गाने और उस पर एक साथ तल्लीन होकर नाचते सभी उम्र के लोग, यह होरी का अभिन्न अंग बन गया है! इसके अलावा कहीं कहीं (पानी की उपलब्धि कम होने पर भी) कृत्रिम फव्वारों की और उनमें भीगने की व्यवस्था की जाती है| इस प्रकार पानी की बर्बादी वाकई परेशान करने वाली है| इसके साथ ही रंगोत्सव में माँस -मदिरा की पार्टियाँ भी होती हैं। वास्तविक इस त्यौहार की मूल संकल्पना एक-दूसरे के रंग में रंगकर एकात्मकता को वृद्धिंगत करने की है। लेकिन जब इसका विकृत रूप सामने आता है तो क्लेश होता है| त्वचा पर बुरा प्रभाव डालते वाले और जो लगातार धोने पर भी नहीं धुलते, ऐसे केमिकल युक्त भड़कीले रंग, साथ ही कीचड़ में खेलना, अनाप-शनाप बातें, स्त्रियों के साथ छेड़छाड़, अश्लील गालियाँ देना, शराब के नशे में धुत होकर झगड़ा फसाद करना, एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू हो जाना, कभी-कभी तो चाकू से वार करना और हत्या तक कर देना, इस हद तक अपराध होते हैं| इस दिन माहौल ऐसा होता है कि, कुछ जगहों पर महिलाएं घर से बाहर निकलने से भी डरती हैं। होली का यह अकथनीय और बीभत्स रूप हमारी संस्कृति के विरूद्ध है। उपरोक्त सभी असामाजिक गतिविधियाँ बंद होनीं चाहिए| पुलिस अपना कर्तव्य निभाएगी ही, परन्तु सामाजिक चेतना नाम की कोई चीज़ तो है ना! हमें अपना त्योहार मनाते समय यह स्मरण रहे कि, कहीं हम दूसरों की खुशी को जलाकर राख़ तो नहीं कर रहे हैं!
मेरे प्रिय स्वजनों, होली सामाजिक एकता का प्रतीक है, इसलिए राष्ट्रीय एकता के प्रतीक होलिकोत्सव को सुंदर पर्यावरण-अनुकूल सूखे रंगों की विविधता के साथ, पेड़ों को काटे बिना और नशे में लिप्त हुए बिना ख़ुशी ख़ुशी मनाना चाहिये, ऐसा मुझे प्रतीत होता है| आपका क्या विचार है?
टिप्पणी – होली के दो गाने शेअर कर रही हूँ| (लिंक के न खुलनेपर कृपया ऊपर दिए हुए शब्द डालकर YouTube पर खोजें|)
गीत – ‘नको रे कृष्ण रंग फेकू चुनडी भिजते’गीतप्रकार-हे शामसुंदर (गवळण) गायिका- सुशीला टेंबे, गीत– संगीत-जी एन पुरोहित
‘होली आई रे कन्हाई’- फिल्म- मदर इंडिया (१९५७) गायिका- शमशाद बेगम, गीत- शकील बदायुनी, संगीत-नौशाद अली
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जिंदगी के बाद भी…“।)
अभी अभी # 319 ⇒ जिंदगी के बाद भी… श्री प्रदीप शर्मा
क्या जिंदगी के साथ, सब कुछ खत्म हो जाता है, कुछ नहीं बचता ? माना कि जान है तो जहान है, जान गई तो जहान गया, तो क्या वाकई जिंदगी के बाद कुछ नहीं बचता। चलिए, मान लिया हम आए थे, तो कुछ नहीं साथ लाए थे, और जब जा रहे हैं, तब भी खाली हाथ ही जा रहे हैं, ले लो तलाशी, अब तो जान छोड़ो, अब तो जाने दो। बहुत बचा है अभी जिंदगी के बाद भी।
तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया। आपने हमें हमेशा इतना उलझाए रखा जिंदगी के फलसफे में, हम पल पल को जीते रहे, आपके दर्शन को मानते रहे ;
आगे भी जाने न तू
पीछे भी जाने न तू।
जो भी है, बस यही पल ….
पल पल करते, सांसें खत्म हो गईं, जो पलक सदा झपकती रहती थी, वह भी थम गई। ये जिंदगी के मेले तो कम नहीं हुए, वक्त की सुई भी चलती रही, बस सांसें ही तो थमी है।।
क्या जिंदगी के थमने से यात्रा भी खत्म हो जाती है, वह यात्रा जो अनंत है, किसने कहा जिंदगी का आखरी पड़ाव मौत है। आखिर जिंदगी ही तो थमी है, बंदगी तो चल रही है। बंदगी ना तो सांसों की मोहताज है और ना ही किसी हाड़ मांस के चोले की।
जिंदगी भर हम मंजिले मकसूद में ही उलझे रहे।
कभी साहिल, तो कभी किनारा ढूंढते रहे, और जब आखरी मंजिल सामने है, तो यह तो एक नए सफर की शुरूआत ही हुई न। अगर राही हमेशा चलता रहे, तो सफ़र कभी पूरा नहीं होता।।
सफर से थकना ही बुढ़ापा है, उम्मीद की लाठी टेक देना ही जिंदगी का आखरी मुकाम है। अगर लाठी और इरादा मजबूत है, तो फिर नया सफर शुरू। सही मंजिल और असली महबूब को अगर पाना है, तो सब कुछ जिंदगी के बाद भी है। मंजिलें अभी और हैं, जिंदगी के बाद भी।
इस लोक में जब तक रहे, अपने पराए में ही उलझे रहे। इस शरीर को ही अपना मानते रहे। बात भी सही है। न कभी आत्म दर्शन किया, न परमात्म दर्शन, तो बस फिर केवल दर्शन और प्रदर्शन ही तो बच रहा। जीवन का दर्शन जिंदगी के साथ खत्म नहीं होता, जीवात्मा का असली दर्शन तब प्रारंभ होता है जब वह परमात्मा से जुड़ता है।।
जब एक से जुड़ेंगे, तो दूसरे को तो छोड़ना ही पड़ेगा। जीव भ्रम में उलझा था, जीवन मृत्यु मायावी संसार से जुड़े हैं, पर ब्रह्म से नहीं। अपने असली लोक को परलोक कहने वाले और इस लोक को अपना कहने वाले न घर के रहेंगे न घाट के।
जो अनासक्त जीव शुरू से ही इस लोक को पराया अर्थात् परलोक मानता आया है, वही उसके असली लोक में जाने का अधिकारी है। सितारों से आगे जहान और भी हैं, बहुत कुछ है, जिंदगी के बाद भी।।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मुक्तिका : रूप की धूप।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 179 ☆
☆ मुक्तिका : रूप की धूप ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशनाधीन ।राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 200 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)
☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… होली… ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆
☆ “श्रीमंतांची चलती तेथे गरिबांची गळचेपी…” ☆ सौ राधिका भांडारकर☆
*श्रीमंतांची चलती येथे गरिबांची गळचेपी* ही ओळ मुळातच समाजातील विषमता दर्शवते. श्रीमंत आणि गरीब असे दोन निराळे भाग पाडते. श्रीमंत आणि गरीब यांच्यातील दरीचे दर्शन घडवते. शिवाय श्रीमंत कसे पाॅवरफुल आणि गरीब कसे बिच्चारे, दुर्बळ असा एक मनोभेद अधोरेखित करते. नकळतच एकीकडे तिरस्कारयुक्त भावना आणि त्याचवेळी दुसरीकडे सहानुभूतीचा एक दृष्टिकोन आपोआपच तयार होतो.या ओळीत अवरोध आहे. उपहास आहे.
या विषयावर लिहिण्यास सुरुवात करण्यापूर्वी माझ्या मनात एक सहज विचार आला की श्रीमंत कोणाला म्हणायचे आणि गरीब कोणाला म्हणायचे? श्रीमंत आणि गरीब यांच्या नक्की व्याख्या कोणत्या? ढोबळमानाने आपण असं म्हणूया जे धनवान आहेत, ज्यांच्याकडे बंगला आहे, गाडी आहे, जमीन जुमला आहे, ज्यांच्या पायाशी जणू लक्ष्मी लोळण घेते ते श्रीमंत आणि ज्यांना सकाळ संध्याकाळच्या जेवणाची ही भ्रांत आहे, अन्न— वस्त्र— निवारा या प्राथमिक गरजांपासून जे वंचित आहेत ते गरीब. यापेक्षा अधिक निराळ्या व्याख्याही असू शकतात. श्रीमंत ते आहेत ज्यांच्या हाती सत्ता आहे. आणि गरीब ते आहेत ज्यांना सत्ताधारींच्या हाताखाली गुलामगिरीचे जीवन जगावे लागत आहे आणि अशा अहंकारी, अरेरावी करणाऱ्या, सत्तेचा माज असलेल्या लक्ष्मीपुत्रांकडून गरिबांची मुस्कटदाबी होते, गळचेपी होते. लाचारी आणि मानहानीचे जीवन त्यांना जगावे लागते आणि अशा श्रीमंत माणसांच्या मनोवृत्तीमुळे ही दरी अधिकाधिक रुंदावत जाते.
तरीही नक्की कोण किती श्रीमंत आणि कोण किती गरीब हे एका व्यापक सामाजिक दृष्टीतून पाहिले तर ते ठरवणे ही कठीण आहे. ते बरंचसं भोवतालची परिस्थिती, त्या त्या समाजातलं त्यांचं असणं, जीवन पद्धती आणि गरजा यावरही अवलंबून आहे.म्हणजे बघा मी माझ्या मदतनीसाबरोबर माझ्या आर्थिक स्थितीशी तुलना केली तर मी श्रीमंत आहे पण मी माझी अंबानीशी तुलना केली तर गरीबच नाही का? थोडक्यात या आर्थिक स्थितीचं हे गणित काहीसं रिलेटिव्ह आहे.
तुलनात्मक आहे.
मी मुंबईत किंग जाॅर्ज हायस्कूल मध्ये काही काळ शिक्षिका होते. सातवीपर्यंतच्या मुलांना मी भाषा हा विषय शिकवत असे. त्यावेळी मी मुलांना *गरिबी* या विषयावर निबंध लिहायला दिला होता. एकीने लिहिलेला निबंध माझ्या अजूनही लक्षात आहे.
तिने लिहिले होते,
“नंदा माझी मैत्रीण आहे. ही माझी मैत्रीण खूप गरीब आहे. त्यांच्याकडे खूप जुन्या मॉडेलचा फ्रिज आहे. त्यांच्या हॉलमधला गालीचा फाटलेला आहे. त्यांच्या बंगल्यांच्या भिंतींना रंग लावलेला नाही आणि त्यांच्याकडे फक्त एकच गाडी आहे.” आणि असे बरेच काही तिने लिहिले होते जे वाचून मला हसावे की रडावे समजेना. आणि मग जाणवले की श्रीमंतीतच वाढणार्यांना गरिबी कशी समजणार? गरिबी ही एक सोसण्याची स्थिती आहे. “जावे त्याच्या वंशा आणि त्यांनाच कळे” अशी परिस्थिती आहे.
तेव्हां श्रीमंतांची चलती येथे गरिबांची गळचेपी हा या मनोवृत्तीचा परिणाम आहे.
श्रीमंत नेहमीच पुढे जातात आणि गरीब मागे राहतात. *दाम करी काम* किंवा *रुपया भवती फिरते दुनिया* असे म्हटले तर ते मुळीच चुकीचे नाही. कारण ती सत्य परिस्थिती आहे. पैशाने सारे काही विकत घेता येते. दुनिया उलट पालट करता येते. पैशाचा प्रभाव इतका जबरदस्त असतो की कुठल्याही क्षेत्रातलं यश त्यांच्या मुठीत येऊ शकते. पैशाने मतं विकत घेता येतात, सत्ता बळकावता येते, पदवी, नोकरी मिळवता येते,काहीही प्राप्त करण्याचं उद्दीष्ट असू दे ते सहज साध्य होऊ शकते आणि अशा रीतीने पैशाला पैसा जोडला जातो.मात्र याच बाबतीत नेमकी निर्धन माणसाची गळचेपी होते. तो गुणी आहे, लायक आहे, पात्र आहे. केवळ निर्धनतेमुळे लाचार आहे. गरिबांसाठी मात्र परिस्थितीच्या मर्यादा आड येतात त्यांच्याभोवती सारीच विरोधातील प्रतिकूल परिस्थिती असते. आणि या प्रतिकूल परिस्थितीला ओलांडण्याची ताकद नसल्यामुळे जीवनात होणाऱ्या गळचेपीला पर्यायच न उरल्यामुळे सामोरं जावं लागतं.
जेव्हा आपण म्हणतो समाजात भ्रष्टाचार वाढलाय पण हा भ्रष्टाचार एकतर्फी नसतो. त्यात दोन घटक असतात एक देणारा आणि एक घेणारा. देणाऱ्याचा खिसा भरलेला असतो आणि घेणाऱ्याचा रिकामा. पुन्हा या घेणाऱ्यांमध्ये विविध वृत्ती जाणवते, काहींना एका रात्रीत श्रीमंत व्हायचे असते. पैशाचा लोभ असतो. भोगवादी वृत्ती साठी हा शॉर्टकट असतो. पण काही घेणारे मात्र खरोखरच लाचार असतात, त्यांना जीवनात अनेक संसारिक समस्यांना सामोरे जाण्यासाठी केवळ,प्रचलीत स्पर्धेला तोंड देण्यासाठी, असहाय्यतेमुळे हे करावे लागत असेल. मनातल्या स्वप्नपूर्तींची गळचेपी किती सहन करायची या भावनेतूनही हे होत असेल. अर्थात हे समर्थनिय नाही. पण हे एक सामाजिक सत्य आहे हे नाकारता येत नाही.
गरिबांच्या गळचेपी विषयी काही भाष्य करताना मला सहजच एका प्रसंगाची आठवण झाली.
मी कॉलेजमध्ये होते. माझ्या कॉलेजच्या इमारती जवळ काही बांधकाम चालू होतं. आजूबाजूला खडी, सिमेंट, वाळूचा पसारा पडला होता आणि बरेच मजूर तिथे काम करत होते. त्यातला एक मजूर अत्यंत संतप्तपणे बोलत होता. त्याचे एक वाक्य जाता जाता माझ्या कानावर पडलं आणि ते आजही माझ्या आठवणीत आहे…
“ अरे मेरे भैय्या! हम सेठ के तो सेठ नही है लेकिन हमारे दिल के तो सेठ है ना? छोड दुंगा एक दिन मैं ये सब!”
कुठल्यातरी प्रचंड असंतोषातून हे वाक्य त्याच्या तोंडून त्याच्या मनातली आग ओतत होती.
आणि आता असंतोष या शब्दापाशी माझं मन येऊन ठेपतं. गळचेपीतूनच असंतोषाचा भडका उडतो.
श्रीमंत आणि गरीब यामधल्या दरीचा विचार करताना आणखी एक विचार मनात येतो.
श्रीमंतांचे वर्ग आहेत.
काही गर्भ श्रीमंत असतात, काहींना वडिलोपार्जित मालमत्तेचा वारसा मिळतो तर काही मात्र शून्यातून स्वतःची धनराशी जमवतात. सर्वसाधारणपणे ज्यांना आयती संपत्ती मिळालेली असते ते उर्मट, अरेरावी, जुलमी, सत्तांध असतात (काही अपवाद असू शकतात)आणि ते नेहमीच त्यांच्यापेक्षा कमी आर्थिक बळ असलेल्यांवर रुबाब करतात. त्यांच्या जरुरीचा फायदा उठवतात, त्यांना ताब्यात ठेवतात. त्यांच्यावर हुकूम गाजवतात. पण बऱ्याचदा जे शून्यातून वर येतात त्यांना गरिबीची जाण असते आणि ते त्यांची गरिबी दूर करण्याच्या प्रयत्नात असतात. त्यांच्यात धैर्य, चिकाटी, आत्मविश्वास,जिद्द, विरुद्ध दिशेने जाण्याची क्षमता असते. असे लोक उत्पादक ठरतात आणि त्यांच्यावर अवलंबून असणाऱ्या श्रमिकांच्या जबाबदारीची त्यांना जाणीव असते. त्यामुळे या दोघांमधल्या आर्थिक अंतराला मानवतेचे रूप मिळते. इथे देणारा —घेणारा आपुलकीच्या नात्याने जोडले जातात.
आपण नेहमी म्हणतो श्रीमंत अधिक श्रीमंत होतात आणि गरीब गरीबच होत जातो. कधी मनाला प्रश्न विचारा असं का?
आपल्यावर लहानपणापासून असेच संस्कार झालेत.
*अंथरूण पाहून पाय पसरावेत*
*ठेविले अनंते तैसेच राहावे*
*हाती नाही बळ त्याने फुलझाड लावू नये*
या संस्कारांचा मनापासून आदर राखून मी म्हणेन की का नाही आपण आपले अंथरूण विस्तारावे?
का स्काय इज द लिमिट आपल्या स्वप्नांसाठी नसावे?
हातातले बळ वाढवण्याचा का नाही प्रयत्न करावा?
चांगल्या मार्गाने श्रीमंत होताच येत नाही.
तत्वांची प्रचंड गळचेपी करावी लागते.हाही एक समाजमान्य विचार.
क्षणभर लटक्या अस्मितांचे पडदे थोडे दूर सारून आपल्या अंगभूत गुणांचा विकास करून, समाजात एक छान आदर्श उदाहरण आपण रचू नाही का शकत? मला असे सांगावेसे वाटते श्रीमंती विचारांची असावी.जो विचारांनी समृद्ध तो खरा श्रीमंत. आणि वैचारिक दारिद्र्य माणसाची दैना करते. गळचेपी करते.
जाता जाता एकच किस्सा सांगते. लेख लांबच चालला आहे याची कल्पना आहे तरी सुद्धा…
मी स्वतः एका मध्यमवर्गीय कुटुंबात वाढले म्हणजे गरिबीची झळ पोचली नाही पण श्रीमंतीचा तोराही अनुभवला नाही.
माझ्या वर्गात ज्योती ताम्हणे नावाची श्रीमंत बापाची एकुलती एक मुलगी होती. त्या बालवयात मला जगातली ती सर्वात भाग्यवान व्यक्ती वाटायची आणि माझ्या वाटेला का नाही असे भाग्य असेही वाटायचे. माझा नंबर पहिल्या पाचात असायचा तिचा पंधरावा विसावा असा असायचा. पण तरी वर्गात तिचा खूपच रुबाब असायचा. ती माझी वर्ग मैत्रीण होती पण मी तिच्या खास ग्रुप मध्ये नव्हते. खूप वेळा तिच्यापुढे मला न्यूनगंड जाणवायचा. मी तिच्या जीवन पद्धतीपर्यंत कधीच पोहोचू शकत नव्हते.मला दु:ख व्हायचे.
पण आज जेव्हा मी त्या वेळच्या माझ्या मानसिक स्थितीचा विचार करते तेव्हा जाणवतं की मी जर कधी काही हट्ट केला असेल त्यावेळी, तर वडिलांनी तेव्हां असे कधीच म्हटले नाही की,” बाबी आपल्याला हे परवडण्यासारखे नाही.”
मनातून त्यांना मी दुखावलं असेलही. पण ते म्हणायचे,” कर दुनिया मुट्टी मे ..अपना हात जगन्नाथ ही भावना ठेव मग तुझ्या जीवनातही अशी पहाट उगवेल.”
म्हणूनच, *श्रीमंताची चलती येथे गरिबांची गळचेपी* ही सामाजिक भावनाच बदलण्याची गरज आहे. गळचेपी न्युनगंडामुळे जाणवते.म्हणून थिंकटँक बदलला पाहिजे. सोपं नाही पण अशक्यही नाही.
मुळातच हा विषय परिसंवादाचा आहे या विषयाला दोन बाजू आहेत. एक नकारात्मक आणि एक सकारात्मक. कोणी कसा विचार करायचा हे व्यक्तीसापेक्ष आहे.