हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 230 ☆ व्यंग्य – साहित्य में फौजदारी तत्व ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – साहित्य में फौजदारी तत्व। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 230 ☆

☆ व्यंग्य –  साहित्य में फौजदारी तत्व

मुकुन्दीलाल ‘दद्दा’ नगर के सयाने कवि हैं। वैसे ‘दद्दा’ हर विधा में दख़ल रखते हैं। रचना की कूवत यह कि रात भर में सौ डेढ़-सौ पन्ने की किताब लिखकर फेंक देते हैं। अब तक तिरपन किताबें छपवा चुके हैं। नगर के साहित्यकारों में उनका पन्द्रह बीस का गुट है जो उन्हें ‘दद्दा’ कह कर पुकारते हैं। इसीलिए मुकुन्दीलाल जी ने अपना उपनाम ही ‘दद्दा’ रख लिया है।

‘दद्दा’ के गुट के लोग उनके प्रति समर्पित हैं। उनके इशारे पर उनके विरोधियों पर शब्द-बाण चलाते हैं। ज़रूरत पड़ने पर असली लाठी भाँजने को भी तैयार रहते हैं। तीन-चार सेवाभावी चेले सबेरे गुरू जी के घर पहुँच जाते हैं। गुरुपत्नी के आदेश पर बाजार से सौदा-सुलुफ ले आते हैं।

‘दद्दा’ के शिष्यों का उनके प्रति भक्ति-भाव ऐसा है कि उन्होंने आपस में निर्णय कर लिया है कि ‘दद्दा’ के स्वर्गवासी होने पर उनकी मूर्ति नगर के किसी चौराहे पर लगवाएंँगे, जैसी साहित्यकारों की मूर्तियाँ रूस में लगी हैं। साथ ही यह निर्णय हुआ है कि ‘दद्दा’ के घर की गली को ‘दद्दा मार्ग’ का नाम भी दिलाया जाएगा। ‘दद्दा’ के स्वर्गवासी होते ही इस दिशा में युद्ध-स्तर पर काम शुरू हो जाएगा।

फिलहाल खबर यह है कि ‘दद्दा’ जी को लेकर एक सनसनीखेज़ घटना घट गयी। नगर के गांधी भवन में ‘दद्दा’ की चौंवनवी किताब पर कार्यक्रम था। किताब ‘दद्दा’ के निबंधों की थी। शीर्षक था ‘दद्दाजी कहिन’। किताब पर बोलने के लिए ‘दद्दा’ जी के एक शिष्य ने नागपुर के एक विद्वान श्री विपिन बिहारी ‘निर्मम’ का नाम सुझाया था। ‘निर्मम’ जी की स्वीकृति भी प्राप्त हो गयी थी और उन्हें किताब भेज दी गयी थी।

‘दद्दा’ जी के चेलों ने कार्यक्रम की पूरी तैयारी की थी। चालीस पचास लोगों को बार-बार फोन करके खींच लाये। एक भूतपूर्व मंत्री को अध्यक्षता के लिए ले आये। सभी स्थानीय अखबारों में समाचार दे दिया।

कार्यक्रम के संचालक ‘दद्दा’ जी के शिष्य थे। उन्होंने ‘दद्दा’ जी का परिचय देते हुए उन्हें प्रेमचंद और ‘प्रसाद’ की पाँत का लेखक बता दिया। इसके बाद बोलने की बारी ‘निर्मम’ जी की आयी। उन्होंने शुरू में किताब की खूबियाँ बतायीं, फिर खामियों पर आ गये।

‘निर्मम’ जी ने कहा कि ‘दद्दा’ जी की भाषा अच्छी और प्रभावशाली है, लेकिन उनके सोच में आधुनिकता और वैज्ञानिकता का अभाव दिखता है। कई निबंधों में उनकी सोच रूढ़िवादी दिखायी पड़ती है। दुनिया अब बहुत आगे बढ़ गयी है और आदमी के जीवन और व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन हो गये हैं। ‘दद्दा’ जी इन परिवर्तनों को उस हद तक नहीं पकड़ सके हैं जैसी उनसे उम्मीद थी।

‘निर्मम’ जी अभी बोल ही रहे थे कि श्रोताओं में से ‘दद्दा’ जी के एक शिष्य ने उठकर उनके हाथ से माइक छीन लिया, बोला, ‘आप यह बकवास बन्द करें। आपमें ‘दद्दा’ जी के लेखन को समझने की क्षमता नहीं है। ‘दद्दा’ जी को समझने के लिए बहुत गहरे उतरना पड़ता है। यह काम आपके बस का नहीं है। हमसे गलती हुई जो इस कार्यक्रम में आपको बुला लिया।’

‘निर्मम’ जी सिटपिटाकर बैठ गये। श्रोताओं में से एक चिल्लाकर बोला, ‘आप बाहर आइए। हम आपका आलोचना का सारा भूत उतार देंगे। आपकी इतनी हिम्मत कि हमारे ‘दद्दा’ जी की आलोचना करते हैं? बाहर निकलिए, फिर हम आपको बताते हैं।’

‘निर्मम’ जी भयभीत होकर कुर्सी में धँसे रह गये। जैसे तैसे अध्यक्ष जी का भाषण हुआ। कार्यक्रम समाप्त होने पर ‘दद्दा’ जी के शिष्य बाहर ‘निर्मम’ जी का ‘अभिनन्दन’ करने के लिए उनका इन्तज़ार करने लगे।

‘निर्मम’ जी ने हवा का रुख भाँप लिया। ‘दद्दा’ जी के जिन शिष्य ने उन्हें बुलाया था उनसे 100 नंबर पर फोन कराके पुलिस की मदद माँगी। थोड़ी देर में पुलिस की जीप आ गयी और उनकी कैफियत लेकर उन्हें रेलवे स्टेशन ले गयी जहाँ उन्हें रेलवे पुलिस की अभिरक्षा में सौंप दिया गया। कार्यक्रम स्थल से जीप चली तो पीछे से ‘दद्दा’ जी के शिष्य चिल्लाये, ‘बच्चू, इस बार तो बच गये। अगली बार हमारे शहर में आओगे तो बिना पूजा कराये नहीं जा पाओगे।’

रेलवे पुलिस के थाने में पहुँचकर ‘निर्मम’ जी एक कुर्सी में दुबके राम राम जपते रहे। उनकी गाड़ी रात में थी। गाड़ी का समय हुआ तो उन्होंने थानेदार से इल्तिजा की कि उनके साथ दो सिपाहियों को भेज दें जो उन्हें डिब्बे में बैठा दें और गाड़ी रवाना होने तक वहीं रुके रहें।

अन्ततः गाड़ी रवाना हुई तो चोटी पर चढ़े ‘निर्मम’ जी के प्राण वापस उतरे।

आइए,अब  हम सब मिलकर मनाएँ  कि जैसे ‘निर्मम’ जी अपने घर सुरक्षित वापस लौटे वैसे ही सब आलोचक सुरक्षित अपने घर वापस लौटें।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 292 ⇒ कंधा और बोझ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कंधा और बोझ।)

?अभी अभी # 292 ⇒ कंधा और बोझ… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हाथ जहां से शुरू होते हैं, उसे कंधा कहते हैं जितने हाथ उतने ही कंधे।

अक्सर हम जिन हाथों को मजबूत करने की बात करते हैं, वे खुद मजबूत कंधों पर आश्रित होते हैं।

अगर कंधा कमजोर हुआ, तो हाथ किसी काम का नहीं। फिल्म नया दौर में दिलीप साहब हाथ बढ़ाने की बात करते हैं। साथी हाथ बढ़ाना साथी रे। एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना। यहां पूरा बोझ तो कंधों पर है, और श्रेय हाथ ले रहे हैं।

एक फिल्म आई थी जागृति। उसमें भी कुछ ऐसा ही गीत था। हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के। इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के। यानी पूरा बोझ बेचारे मासूम बच्चों पर। क्या आपको उनके कंधों पर लदे भारी बस्ते का बोझ नजर नहीं आता। और पूरे देश का बोझ उन पर लादने चले हो। बच्चे की जान लोगे क्या।।

हम जब छोटे थे तो कुछ औरतों को सर पर टोकनी उठाए देखते थे। किसी में सब्जी तो किसी में बर्तन।

ये मोहल्ले में फेरी लगाती थी। बर्तन वाली औरतें घर के पुराने कपड़ों के एवज में नए घर गृहस्थी के बर्तन देती थी। एक तरह का एक्सचेंज ऑफर था यह।

कपड़े दे दो, बर्तन ले लो, पैसे दे दो, जूते ले लो, की तर्ज पर। याद कीजिए फिल्म, हम आपके हैं कौन।

ऐसी ही कोई कपड़े बर्तन वाली औरत राह चलते, हमें रोक लेती थी। बोझा जब जमीन पर होता है, तो उसे सर पर लादने के लिए किसी की मदद लेनी पड़ती है। जब वह हमसे मिन्नत करती, बेटा जरा हाथ लगा दो, बहुत भारी है, तो हम पहले आसपास देखते थे, लेकिन फिर अनिच्छा से ही सही, हाथ लगा ही देते थे। वाकई, बोझा बहुत भारी होता था। कुछ समय के लिए हम सोच में भी पड़ जाते थे, इतना वजन, यह औरत कैसे उठा लेती है, लेकिन फिर सजग हो, अपने रास्ते चल पड़ते थे। उसकी दुआ जरूर हमें सुनाई देती थी, जिसे हम भले ही अनदेखा कर देते थे, लेकिन मन में किसी को मदद की संतुष्टि का भाव फिर भी आ ही जाता था।।

किसके कंधों पर कितनी जिम्मेदारियों का और कितनी मजबूरियों का बोझ है, यह केवल वह ही जानता है। शरीर के बोझ से मन का बोझ अधिक भारी होता है, लेकिन आप मानें या ना मानें, वह बोझ भी यही कंधे ढोते रहते हैं।

किसी के झुके हुए कंधों से ही पता चल जाता है, यह बेचारा, काम के बोझ का मारा, कुछ लेते क्यों नहीं, हमदर्द का सिंकारा।

जब बच्चे थे, तो पिताजी के कंधे पर बैठकर घूमने जाते थे। बड़े खुश होते थे, हम कितने बड़े हो गए हैं। जब असल में बड़े हुए तो असलियत पता चली, हमारे कंधों पर कितना बोझ है।।

चलो रे, डोली उठाओ कहार, पीया मिलन की रुत आई। लेकिन आजकल कहां कहार भी डोली उठाते हैं। चार पहियों की चमचमाती कार से, ब्यूटी पार्लर से सज धजकर आई दुल्हन, विवाह मंडप में प्रवेश करती है। कंधों से अधिक, कानों पर डायमंड इयररिंग्स का बोझ।

जमाना कितना भी आगे बढ़ जाए, जब इंसान यह संसार छोड़ता है तो चार कंधों की अर्थी पर ही जाना पड़ता है। यानी जन्म से अंतिम समय तक कंधे का साथ नहीं छूटता। अर्थी का बोझ भी मजबूत कंधे ही उठा पाते हैं। हमने तो जिधर भी कंधा लगाया है, अर्थी उधर ही झुकी है। कहीं से लपककर मजबूत कंधे आते हैं, और अर्थी से अधिक हमें राहत महसूस होती है। ईश्वर ना करे, हमें कभी किसी को कंधा देना पड़े, बोझ के मारे, हमारा कंधा उतर भी सकता है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 230 – चुंबकत्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 230 ☆ चुंबकत्व ?

यात्रा पर हूँ और गाड़ी की प्रतीक्षा है। देख रहा हूँ कि कुछ दूर चहलकदमी कर रही चार- पाँच साल की एक बिटिया अपनी माँ से मोबाइल लेकर जाने किससे क्या-क्या बातें कर रही है। चपर-चपर बोल रही है। बीच-बीच में ज़ोर से हँसती है। ध्यान देने पर समझ में आया कि मोबाइल के दोनों छोर पर वही है। जो डायल कर रहा है, वही रिसीव भी कर रहा है। माँ के आवाज़ देने पर बोली, ‘अरे मम्मा, फोन पर बात कर रही हूँ, झूठी-मूठी की बात…’ और खिलखिला पड़ी। अलबत्ता उसके झूठमूठ में दुनिया भर की सच्चाई भरी हुई है। सच्चे मोबाइल पर सच्ची सहेली से बातें। सब कुछ इतना सुथरा, इतना पारदर्शी, इतना सच्चा कि मोबाइल सैटेलाइट की जगह मन के तारों से कनेक्ट हो रहा है।

छोटे बच्चों के चेहरे तपाक से कनेक्ट कर लेते हैं। निष्पाप, सदा हँसते, ऊर्जा से भरपूर। उनकी सच्चाई का कारण स्पष्ट है, जो डायल कर रहा है, वही रिसीव कर रहा है। भीतर-बाहर कोई भेद नहीं। भीतर-बाहर एक। द्वैत भीड़ में अद्वैत।

इस एकात्म ‘डायलर-रिसीवर फॉर्मूले को क्या हम नहीं अपना सकते? याद कीजिए, पिछली बार अपने आप से कब बातचीत की थी? अपने आप से बात करना याने अपने सर्वश्रेष्ठ मित्र से बात करना, ऐसी आत्मा से बात करना जिससे अपना भीतर आ-बाहर कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता। अपने आप से वार्तालाप याने परमात्मा से संवाद।

एकाएक बिना कोई नंबर फिराए अपने आप से बात कर रहा हूँ। अनुभव कर रहा हूँ कि यों चपर- चपर बोलना और खिलखिलाना ज़रा भी कठिन नहीं। भीतर नई ऊर्जा प्रवाहित हो रही है।

संभव है कि मेरी बातों से तुम मेरी ओर खिंचे चले आओ, पर सुनो! सदा लौह बने रहने के बजाय चुंबक बनने का प्रयास करो। खुद को डायल करो, खुद रिसीव करो, चुंबकत्व खुद तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाएगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 176 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 176 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 176) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IMM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 176 ?

☆☆☆☆☆

तूफ़ां के से  हालात  है

ना किसी सफर में रहो.

पंछियों से है गुज़ारिश 

रहो सिर्फ अपने शज़र में

☆☆ 

There’re stormy conditions

Don’t set sail for any voyage

Pleading with the avian-world

To keep nestled in their trees

☆☆☆☆☆

ईद का चाँद बन, बस रहो 

अपने ही घरवालों के संग,

ये उनकी खुशकिस्मती है

कि बस हो उनकी नज़र में…

☆☆ 

Even in once in blue moon,

Don’t step out, be with family

It’s a  blissful  fortune only

That you’re before their eyes

☆☆☆☆☆

माना बंजारों की तरह

घूमते ही रहे डगर-डगर…

वक़्त का तक़ाज़ा है अब 

☆☆ 

Agreed like gypsies, you’ve

Been wandering endlessly

It’s  the  need  of  hour that

You stay in your own town…

☆☆☆☆☆

रहो सिर्फ अपने ही शहर में …

तुमने कितनी खाक़ छानी 

हर  गली  हर  चौबारे  की,

थोड़े  दिन की  तो बात है 

बस रहो सिर्फ अपने घर में…

☆☆ 

Much did you wander around

Every nook and every corner,

It’s a matter of few days only

Keep staying in your house…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Poetry ☆ The Grey Lights# 35 – “Choice & Chance” ☆ Shri Ashish Mulay ☆

Shri Ashish Mulay

? The Grey Lights# 35 ?

☆ – “Choice & Chance” – ☆ Shri Ashish Mulay 

In meadow of thorns lies a flower

only friend of him is a rain shower

in his struggle of surviving

he dreams of thriving

 

But comes the day

that tests his power

where comes the wind

riding on scorching summer

 

a season in his life

that makes him bend over

but for the thorns

who only get sharper

 

little flower makes the choice

to close his wings

the stubborn thorns choose

to play their innings

 

by the time that goes by

the flower barely surviving

and the thorns go stiff

when they get hardening

 

then nature gives the chance

so rains come pouring

flexible flower takes the chance

lifeless thorns get flushing

 

and thrives the flower

only to make another choice

thorns keep waiting

for a chance to rejoice

© Shri Ashish Mulay

Sangli 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 175 ☆ सॉनेट – सैनिक ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – सैनिक।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 175 ☆

☆ सॉनेट – सैनिक ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

सीमा मुझ प्रहरी को टेरे।

*

फल की चिंता करूँ न किंचित।

करूँ रक्त से धरती सिंचित।।

*

शौर्य-पराक्रम साथी मेरे।।

अरिदल जब-जब मुझको घेरे।

*

माटी में मैं उन्हें मिलाता।

दूध छठी का याद कराता।।

महाकाल के लगते फेरे।।

*

सैखों तारापुर हमीद हूँ।

होली क्रिसमस पर्व ईद हूँ।

वतन रहे, होता शहीद हूँ।।

*

जान हथेली पर ले चलता।

अरि-मर्दन के लिए मचलता।

काली-खप्पर खूब से भरता।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१७-२-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ताळेबंद… ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

? कवितेचा उत्सव ?

😳 ताळेबंद 😀 ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

आयुष्याच्या ताळेबंदात

ॲसेटस् किती

नि लायबिलिटीज् किती

निरखुन पाह्यलं तेव्हा कळलं

कशी झाल्येय दारुण स्थिती …

 

ताळेबंद जुळतच नव्हता

दोन्ही बाजूत फरक होता

मालमत्तेच्या मूल्यापेक्षा

जबाबदाऱ्या जास्त होत्या …

 

पुण्यकर्मे पापकृत्ये

पुन:पुन्हा ताडून पाहिली

एकमेका छेद जाउनी

बाकी त्यांची शून्य राहिली …

 

डोके पिकले विचार करता

तोच बोलले कोणी काही

कसा जुळावा ताळेबंद

“अखेर शिल्लक” धरलीच नाही …

 

😨ओह्, अखेर शिल्लक !!!😳

 

झोळीत शिल्लक काय माझ्या

ज्याचे ओझे जड होते

आप्त स्वकीय मित्रांच्या ते

निस्सिम प्रेमाचे होते …

 

प्रेमाच्या निरपेक्ष भावना

फेड तयांची कशी करावी

बहुमोलाची ठेव जणू ही

जबाबदारी कां मानावी …

 

आनंदाच्या ऋणातून या

कधी न वाटे व्हावे मुक्त

“अखेर शिल्लक” वर्धित व्हावी

स्वकीय मित्रांच्या स्नेहात …

 

माथ्यावरती सदैव पेलिन

प्रेमाचे हे वैभव संचित

लाख लाख मोलाची ठेविन

“अखेर शिल्लक” या झोळीत …

© सुहास सोहोनी

दि. २२-२-२०२४

रत्नागिरी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ क्षणभर स्वतःसाठी ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

 

क्षणभर स्वतःसाठी ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट

सध्याचं प्रत्येकाचं जीवनमान हे खूप धकाधकीचे, घाईगडबडीचे झाले आहे.पर्यायाने ते कसल्यातरी तणावाचे पण झाले आहे.आपल्या नित्य दैनंदिन कामकाजात आपण खूप लोकांशी संवाद साधतो.त्या संवादातून, जवळीकेतून कधी मदतीच्या भावनेने आपली कामे इतरांकडून करुन घेतो वा आपण इतरांची कामे करुन देतो.हे सगळं आपण करतो खरं पण अजूनही आपल्याला पूर्णत्वाचा,संतोषाचा,  समाधानाचा कळसोध्याय हा पूर्णच झाल्या नसल्याचे उमगते.आणि मग कारणं शोधतांना एक महत्वाचे कारण सापडते तो म्हणजे आपल्या आतील मनाचा आवाज ऐकण्याचा अभाव.आपले अंतर्मन नेहमी आपल्याला ज्या हव्याहव्याशा वाटणा-या गोष्टी सांगतं त्या खुणावणा-या गोष्टींकडं आपण कधी गरज म्हणून तर कधी संकोच म्हणून, कधी आडमुठेपणा तर कधी संस्कारांचा पगडा म्हणून चक्क कानाडोळा करतो. ह्याचे परिणाम लगेच दिसतं नसले तरी मनावर खोल दूरगामी उमटतं असतात.त्यामुळे सगळं हातातच असून वाळू निसटल्यागतं सारखा गमावल्याचा भास होतो आणि हा भासच आपल्याला आनंदी राहण्यापासून वंचित ठेवत़ो.हा विचार करतांना ह्या मला सुचलेल्या काही ओळी खालीलप्रमाणे……… 

कधी कधी मज रहावे वाटते एकटे,

स्वतःच स्वतःशी बोलावे वाटते नीटसे,

डोकवावे वाटते कधी स्वतःच्याच अंतरी,

कधीतरी न दाबता खंत करावी मोकळी ।।।

*

श्वास घ्यावा मोकळा,दडपण हे संपवावे,

ऊत्तरायणातील दिवस हे मनासारखे जगावे,

सताड उघडोनी कवाडे,स्वातंत्र्याचे वारे प्यावे,

सल मनीचा तो काढून,मुक्तमनाने बागडावे।।।

*

सगळ्यांचा विचार करतांना फार न त्यात गुंतावे,

जखम मनीची ओळखून त्यावर हलकेच फुंकावे,

आपल्यांना साभाळतांना कधी स्वतःलाही जपावे,

नुसतेच झोकून देतांना,”मी”चे महत्व पण जाणावे।।

*

काय हवे हो नेमके मनी एकदातरी पुसावे,

इतरांसाठी जगतांना थोडे आपल्यासाठी पण जगावे,

सगळ्यांना देता देता आपुले न निसटू द्यावे,

झोकून देतांनाही क्षणभर स्वतःसाठी थबकावे

झोकून देतांनाही क्षणभर स्वतःसाठी थबकावे।।

*

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ एस ए ग्रुप… – भाग-३ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ एस ए ग्रुप … – भाग-३ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

(संगीता आपल्या मावसभावाच्या संपर्कात होती, ऍम्ब्युलन्स हॉस्पिटलमध्ये पोचायच्या आधी प्रणिताचा बेड तयार होता.) – इथून पुढे — 

ॲम्बुलन्स हॉस्पिटलजवळ आली. लगेच मनीषने सर्व कागदपत्र हॉस्पिटलच्या ऑफिसमध्ये नेऊन दिले. दोन मिनिटात प्रणिता स्पेशल रूममध्ये ऍडमिट झाली. मग भराभर सर्व टेस्ट घेतल्या गेल्या. ऑक्सीजन सिलेंडर जोडला गेला, अंगात भराभर इंजेक्शन दिली गेली. सलाईन मधून औषधं दिली गेली.

रात्री दहाच्या सुमारास मनिषच्या मोबाईलवर प्रणिताच्या भावाचा फोन आला, मनीषने त्याला ज्युपिटर हॉस्पिटल जवळ बोलावले. तिचा भाऊ हॉस्पिटलकडे आला, त्याची व मनीषची ओळख झाली. मनीषने त्याला आपल्या एस ए ग्रुप मधील मंडळीची ओळख दिली.

भाऊ – कशी आहे तिची तब्येत? आणि कोठे अपघात झाला आणि कसा?

वंदना – तिचा अपघात झाला नाही, पण ती काल सकाळी फोन उचलेना तेव्हा मी तिच्या घरी गेले.  तेव्हा ती बेशुद्ध पडली होती. मी लगेच आमच्या ग्रुपवर ही बातमी कळवली आणि तिला काल दुपारी वाशीमधील सरकारी हॉस्पिटलमध्ये आणि मग सायंकाळी या हॉस्पिटलमध्ये ऍडमिट केले.

तिचा फेसबुक वर पाहिलेला फोटो आणि पोलिसांनी फोडलेले दार या सर्व गोष्टी तिच्या भावापासून लपविल्या.

भाऊ – मग डॉक्टरांचे काय म्हणणं आहे?

मनिष – सध्या आम्हाला कोणाला तिला भेटायला देत नाही आहेत, त्यामुळे डॉक्टरांचे म्हणणे एवढ्यात कळणार नाही. ती शुद्धीवर आली की सर्व काही कळेल. तिची आई येते आहे का?

भाऊ –हो, आरती माझ्या आई बाबांना घेऊन येते आहे. एवढ्यात पुण्यापर्यत आली आहे.

संगीता – तिचे बाबा पण येत आहेत का, बरं झालं .

तोपर्यंत प्रणिताच्या बाबांचा फोन भावाच्या मोबाईलवर आला. तिच्या भावाने आपण हॉस्पिटलजवळ पोहोचल्याचे सांगितले. तिची सर्व मित्रमंडळी म्हणजेच त्यांचा एस ए ग्रुप तिच्यासाठी धडपडत आहे, त्यामुळे तुम्ही सावकाश आनंदाने या असा निरोप दिला.

आत डॉक्टर्स प्रांणिताच्या ऑक्सिजन लेवलवर लक्ष ठेवून होते, ब्लडप्रेशर वर येण्यासाठी धडपडत होते.

बाहेर एस ए ग्रुपचे शंभराहून जास्त मेंबर्स चांगल्या बातमीची वाट पहात होते. तसेच प्रणिताची आई वडील येणार, त्याची वाट पहात होते.

पहाटे चार वाजता हॉस्पिटलकडून सांगण्यात आले की प्रणिताची ऑक्सिजन लेव्हल 90 पर्यंत आली आहे, ब्लडप्रेशर नॉर्मल होत आहे. एस ए ग्रुपच्या मेंबर्सनी आनंदाने जल्लोष केला. प्रणिताच्या भावाच्या डोळ्यात अश्रू आले. कोण कुठलीही अनोळखी मुले, नाटक सिनेमाच्या वेडापोटी इकडे जमा झाली आहेत, अजून पाय स्थिर नाहीत, आज काम आहे तर उद्या नाही अशी परिस्थिती, पण प्रेमाने एकमेकाला धरून राहिले आहेत 

पहाटे चार वाजता आरती प्रणिताच्या आई-बाबांना घेऊन हॉस्पिटल जवळ आली. प्रणिताचा भाऊ बाहेर होताच. काळजीत पडलेल्या तिच्या आई-बाबांना त्याने धीर दिला, तसेच तिची तब्येत संकटातून बाहेर पडल्याचे त्याने त्यांना सांगितले. ही सर्व मुलं प्रणिताची मित्रमंडळी, तिच्यासारखी नाटक सिनेमा मालिकाच्या वेडापायी घरदार सोडून या पट्ट्यात राहत आहेत. कधी जेवण मिळते कधी नाही. कधी काम असते कधी नसते. पण सर्वजण एका ग्रुपवर  मैत्री सांभाळतात. आज सकाळपासून हीच मंडळी प्रणिताच्या आजूबाजूला आहेत. या मंडळींना कळले की ती रूममध्ये बेशुद्ध पडली आहे. त्यावेळीपासून ही मुलं ती बरी होण्यासाठी धडपडत आहेत… प्रणिताच्या आईने सर्वाकडे प्रेमाने पाहिले, बाबा पण सदगदित झाले.  त्यांनी मनिषच्या खांद्यावर थोपटले.

एव्हडयात हॉस्पिटल मधून बातमी आली, प्रणिता शुद्धीवर आली आहे. एस ए ग्रुप ने आनंदोत्सव सुरू केला. सकाळी सहा वाजता प्रणिताच्या आईला तिला भेटायची परवानगी मिळाली. आईला बघतल्यावर प्रणिता पुन्हा रडू लागली. मग तिचे बाबा, भाऊ आत गेले. प्रणिताच्या लक्षात येत नव्हते, आपण कुठे आहोत? आजूबाजूला सलाईन, ऑक्सीजन मॉनिटर  दिसतो आहे, म्हणजे आपण हॉस्पिटलमध्ये असणार. मग आपल्याला इकडे कुणी आणले?

सकाळी नऊ वाजता डॉक्टरांची टीम तपासण्यासाठी आली. त्यांनी तिला तपासले आणि आता ती संकटातून बाहेर आल्याचे तिच्या आई-बाबांना सांगितले. बाबांनी डॉक्टरांना विचारले .. 

“पण ती बेशुद्ध का झाली?

डॉक्टर – तिला ड्रग्सचे व्यसन आहे, ड्रग्सचा जास्त डोस तिच्या शरीरात गेला होता, आता ड्रग्सपासून तिला लांब ठेवायला हवे. ती वेळेत या हॉस्पिटलमध्ये पोचली म्हणून.. अन्यथा तिचा कालच अंत झाला असता.

प्रणिताचे आई-बाबा सुन्न झाले. काय आपल्या या मुलीची परिस्थिती? प्रणिताच्या बाबांच्या मनात आले, आपण सुद्धा तिच्या या परिस्थितीला जबाबदार आहोत. तिची आवड निवड आपण लक्षात घेतली नाही. तिच्याशी संबंध तोडले. तिच्या आईला पण तिला भेटायला बंदी केली. जर तिच्या आवडीला आपण सुद्धा प्रोत्साहन दिले असते, तर ती एकटी पडली नसती. प्रणिताची आई गप्प बसून होती, तिचा भाऊ पण गप्प बसून होता, ड्रगचे व्यसन लागलेल्या आपल्या या बहिणीला त्यातून कसे बाहेर काढायचे याचा तो विचार करत होता. प्रणिताची आई मनात म्हणत होती, आपल्या घरी किंवा माहेरी कुणाला सुपारीचे सुद्धा व्यसन नाही, उलट तिचे बाबा कोण व्यसनी दिसला तर त्याचे व्यसन कसे सुटेल, यासाठी धडपड करतात, आणि आमची मुलगी….

दुपारी प्रणिता पूर्णपणे शुद्धीवर आली, पण आता तिच्या ड्रग्स घेण्याची वेळ झाली होती, त्यामुळे ती रेस्टलेस होऊ लागली, आळोखे पाळोखे देऊ लागली, तिची बुबूळ वर खाली होऊ लागले. पुन्हा डॉक्टर धावत आले, त्यानी तिला झोपेचे इंजेक्शन दिले तशी ती झोपी गेली.

दुपारी प्रणिताचे बाबा आणि भाऊ बाहेर आले, बाहेर एसए ग्रुपचे मेंबर्स उभे होते. एवढ्या कडकडीत दुपारी सुद्धा 50 पेक्षा जास्त मंडळी बाहेर उभी असल्याचे पाहून बाबांना गहिवरून आले.

बाबांनी मनीषला जवळ घेऊन सांगितले,

” डॉक्टर म्हणतात तिला ड्रग्सचे व्यसन लागले आहे. मघा ती जागी झाली, पुन्हा तिचे शरीर ड्रग्स मागू लागले, ती रेस्टलेस झाली, डॉक्टरांनी झोपेचे इंजेक्शन देऊन झोपून ठेवले आहे, पण पुढे काय? या ड्रग्सच्या विळख्यातून ती बाहेर कशी पडणार?

एस ए ग्रुप मधील पूर्वा बोलू लागली

” अंकल, याकरता तिला व्यसनमुक्ती केंद्रात ठेवायला हवे. माझा मामेभाऊ असाच ड्रगच्या विळख्यात अडकला होता, पण पुण्यातील डॉक्टर अवचटांच्या व्यसनमुक्ती केंद्रात त्याच्यावर योग्य उपचार झाले आणि तो त्याच्या व्यसनातून बाहेर पडला. तुम्ही जर हो म्हणालात तर मी माझ्या भावाकडे चौकशी करून थोड्या वेळात तुम्हाला सांगते.” 

प्रणिताच्या बाबानी होकार देताच तिने त्वरित आपल्या भावाला फोन लावला. त्याच्याकडून व्यसनमुक्ती केंद्राचा फोन नंबर घेतला. आणि तेथूनच व्यसनमुक्ती केंद्राला फोन लावून प्रणिताची केस सांगितली. व्यसनमुक्ती केंद्राने प्रणिताला आपल्या केंद्रात आणण्याची परवानगी दिली. चार दिवसांनी प्रणिता ठणठणीत बरी झाली आणि आई बाबा, भाऊ यांनी तिला व्यसनमुक्ती केंद्रात नेण्याची तयारी केली. प्रणिताचे आई बाबा एस ए ग्रुप मेंबर्सना भेटले. “ तुमच्यासारखी धडपडी प्रेमळ मुलं आहेत म्हणून जगात माणुसकी शिल्लक आहे हे म्हणायचे, “ असे म्हणताना ते भावुक झाले. “ या एसए ग्रुप मुळेच माझी मुलगी मला मिळाली, असेच एकत्र रहा, एकमेकांसाठी धावा, एकमेकांना मदत करा. तुमचे उपकार न फेडण्यासारखे “.  प्रणिताची आई सर्वाना सांगलीत येण्याचे आमंत्रण देत राहिली.

शेवटी प्रणिता आपल्या ग्रुप मेम्बर्सना भेटली, विशेष करून वंदना आणि मनीष, त्यांनी धावपळ करून घर फोडून आपल्याला हॉस्पिटल मध्ये नेले नसते तर….

प्रणिता व्यसन मुक्ती केंद्रात जाताना पुन्हा सर्व एस ए ग्रुप हजर होता. सर्वांनी तिला निरोप दिला.

त्या व्यसनमुक्ती केंद्रात ती दीड वर्ष राहिली पेशंट म्हणून, व्यसनातून पूर्ण बाहेर पडली आणि त्याच व्यसनमुक्ती केंद्रात मार्गदर्शक म्हणून काम करू लागली.

पण तिच्या मनात एस ए ग्रुप बद्दल कृतज्ञता कायम राहिली.

– समाप्त – 

 © श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “हे सोहळे की देखावे…….” – लेखिका : सुश्री ज्योती चौधरी ☆ प्रस्तुती – सौ.स्मिता पंडित ☆

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☆ “हे सोहळे की देखावे….…” – लेखिका : सुश्री ज्योती चौधरी ☆ प्रस्तुती – सौ.स्मिता पंडित

नाना आमचे स्नेही.. परवा त्यांचा सहस्त्रचंद्रदर्शन सोहळा मोठ्या थाटामाटानं संपन्न झाला खरंतर हा सोहळा त्यांच्या मनाविरुद्धच, कारण त्यांना त्यांचा जन्मसोहळा नव्हे तर 81 वी जीवनयात्रा त्यांच्या ठराविक स्नेह्यांसमवेत  घरी साजरी करायची होती पण मुलांसाठी सुनांसाठी अन नातवंडांसाठी ही एक पर्वणी होती स्वतः चे हितसंबंध जपण्याची ! 

आता बघा नाना रिटायर्ड -80 पूर्ण तर  नानी 75 वर्षाच्या!  तिन्ही मुलं फ्लॅट संस्कृतीत रमणारे, गावातच राहतात अन बैठ्या घरात नाना नानी एकटेच राहतात ! जमत नाही हल्ली स्वयंपाक करणं म्हणून एका मावशींकडचा डबा  सकाळीच येतो. खरं तरं गरमागरम जेवण ही नानांची तरुणपणची आवडच ! 

“ बरेच दिवस झालेत गरमागरम जेवण जेवून “..  चार दिवसापूर्वीच ते नानींना म्हणालेत ! पोळी चावत नाही, भाजी तिखट असते म्हणून नानी मिक्सरमधून  पोळी काढून वरणासोबत देतात. घरकामास अनेक  वर्षांपासून मदतीला असते मालू ! 

आठ दिवसांपूर्वी मुलं सुना सर्वजण नानींकडे जमले, नानींना कोण आनंद झाला. लगेच त्यांनी श्रीखंडाच्या वड्या सर्वांच्या हातावर ठेवल्या. धाकट्या सुनेनं येण्याचं  प्रयोजन सांगितलं .. ‘ आम्हा सगळ्यांना नानांचा सहस्त्रचंद्रदर्शन सोहळा करायचाय,’  क्षणभर शांतता.!.

.. हल्ली असले  सोहळे आणि तो दिखावू थाट नाही सहन होत म्हणून नानांनी विषय बंद केला ,नानी म्हणाल्या, ” छान घरी करू साजरा यांचा वाढदिवस, तुमच्या किलबिलाटानं घरं हसेल, आनंदून मोहरेल . यांना आवडेल असे गरमागरम दोन पदार्थ अन् मऊसा वरण- भात- तूप ठेवू, त्यांचे समवयस्क  स्नेही 

बोलवू !”  …..पण नवीन पिढीला नव्या पद्धतीने करायचं होतं सेलिब्रेशन.. परवा नाना-नानींना  सत्कार मूर्ती   बनवून बॅंक्वेट हॉलच्या सजवलेल्या सोफ्यावर बसवलं, नाना कडक सफारीत तर नानी  भारी भक्कम पैठणीत आणि दागिन्यांनी मढवलेल्या..चेहरा थकलेला न् शरीर दमलेलं ! येणारे पाहुणे कुणीच ओळखीचे नसल्यानं आलेली, भेदरलेली भावना ! 

मुलांचे बॉस.. सहकारी.. मित्र मंडळ.. नातवंडांचे कॉलेज कंपू.. सुनांचे किटी ग्रुप्स.. सोशल नेटवर्किंग, यात 250 माणसं झाली  मग झालं काय…नाना अन् नानींचे 8-10 जण ‘ उगीचच वाढतात ‘ म्हणून बोलवले गेलेच  नाहीत..! त्यामुळे सोहळा नक्की कुणाचा याचा नाही म्हटलं तरी नानींना राग आलेला ! बरं दणक्यात सोहळा करायचा तर पदार्थही वेगवेगळे हवेत ! कुणाला चायनीज आवडतं तर कुणाला पंजाबी ..साउथ इंडियन डिशसुद्धा आपली स्टाईल दाखवत होत्या..महाराष्ट्रीयन पदार्थ नेहमीच होतात म्हणून त्यांना सुट्टी दिलेली ! आईस्क्रीम अन्  विविध पदार्थांची  रेलचेल ..पण नाना नानींना गोडबंदी होती, मग खायचं काय..?दात नसलेल्या सत्कारमूर्तींसाठी खाण्याचा पार आनंदच होता ! बरं खाण्याच्या टेबलपर्यंत जायचं कसं? मॅनर्स पाळायला हवेत म्हणून आजी आजोबा गेल्या तीन तासापासून नुसतेच सूप पिवून गप होते ! 

एकदाचा सत्कार सोहळा दिमाखात  संपन्न झाला अन आता रात्रीचे 10:30  झालेत. ‘ जेवण  जात  नाही रे बाबाsss ‘ म्हणत दोघांनी जरासं पुन्हा सूपच घेतलं !  मुलांनी रात्री 11वाजता नानांना  घरीच रिलॅक्स वाटतं म्हणून बैठ्या घरी आणून सोडलं…!

 ….. …. 

सकाळी मालू आली.. जणू सगळं जाणणारी… 

नानांचा सहस्त्रचंद्रदर्शन सोहळा याचा नीट उच्चारही करता न येणा-या, न समजणा-या तिनं  मात्र आज त्यांच्या आवडीचा  गरमागरम वरण भात घरून करून  आणला अन् वरून तुपाची धार ओतत ती म्हणाली, 

” माह्या मायबापाले मी तं पायलं नाय जी, पर तुमी मायेनं मले वागोता यातच मले माहे बावाजी भेटले.. माह्याकडून काय द्यावा इचार केल्लो अन् आठोलं तुमाले गरम वरन भात लै आवडते..नानी नं दिवाडीले देल्लेल्या जास्तीच्या  पैशातनं तूप आनलं.. नाई मनू नका जी..! “ 

… काय बोलणार  होते दोघं …. डबडबलेल्या डोळ्यांनी नानींनी नानांना वरण भाताचा घास भरवला.. 

मालू आज दोघांसाठी ख-या अर्थी अन्नपूर्णा होती. ! 

लेखिका : ज्योती चौधरी

प्रस्तुती : स्मिता पंडित

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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