एक वरून पांढरा आणि खालून काळा असलेला ढग. त्यातून ठिबकणारे पाणी. असा ढग पेलणारा एक हात.
असे चित्र पहिले आणि मन विचारात गुंतले. या ठिबकणाऱ्या थेंबाप्रमाणे अर्थाचे एक एक सिंचन होऊ लागले.
१) पहिल्यांदा गाणे आठवले जगी ज्यास कोणी नाही त्यास देव आहे… निराधार आभाळाचा तोच भार साहे. खरंच निराधार आभाळाला पेलणारा अदृश्य हात दृश्य झाला तर कदाचित असाच दिसेल.
२) एक ढग जो पांढरा आहे तोच भरून आला तर काळा होतो आणि आपुलकीचा स्पर्श झाला की आपोआप ठिबकू लागतो.
३) कितीही मोठ होऊन आभाळाला हात लावले तरी आभाळाचं मन पाणी रूपाने येऊन जमिनीची ओढ घेते
४) आभाळ कवेत घेऊ पाहणाऱ्या हाताचा स्पर्श झाला की आभाळ ही बोलके होऊन थेंब रूपाने बोलू लागते
५) आभाळाला हात टेकवणारी व्यक्ती नक्कीच सामर्थ्यशाली असते
६) आभाळाचा अर्थ जीवनाशी संलग्न घेतला तर जीवनातील दुःखाने रडू येते किंवा सुखाने ही डोळ्यात आसू येतात त्याचप्रमाणे वेगवेगळ्या वेळच्या आभाळातून डोकावणारे पाणी हे वेगवेगळे भाव दाखवून जाते
७) पावसाळी महिन्यातील वेगवेगळया महिन्यामध्ये आभाळाचे वेगवेगळे रूप दिसते आणि त्यातून पडणारा जो पाऊस असतो त्याचाही वेगळा वेगळा अर्थ जीवनाशी संदर्भात लागू शकतो
अशा विचारांमध्ये मग्न होत असतानाच लक्ष पुस्तकाच्या शीर्षकाकडे जाते मन आभाळ आभाळ मग त्याच्या संलग्न असे वेगवेगळे अर्थही यातून उध्रुत होतात.
८) मनाचे आभाळ ही वरून पांढरे दिसले तरी त्याच्या तळाशी खोल गाळ साचून ते काळे झालेले असते दुःखाच्या या काळेपणा आलेले अश्रू आपल्यातच सहन केले जातात.
९) मनातले विचार हे भावनांच्या रूपाने बरसत असतात. त्या बरसण्याचे रूप वेगवेगळे असते.
१०) आनंद ओसंडतो मेघ आभाळी पाहुनी
पण मनातला पाऊस पाहिला ना कोणी
११) सृजन काळ जवळ आलेला आहे त्यामुळे आकाशातील पाऊस जमिनीवर पडल्यावर काहीतरी अंकुरणार आहे तसेच मनातले आभाळ दाटून आले की विचार पावसाने काहीतरी लेखन निश्चित घडणार आहे
१२) मनातल्या पावसाला हात घातला की विचारांचे ओघ बाहेर पडून भावनांना अंकुर फुटतात
१३) कवयित्री स्त्री जाणिवा जाणत असल्यामुळे हे स्त्रीचे मन आहे असे धरले तर स्त्री आपले दुःख कोणाला दाखवत नाही ती वरच्या ढगाप्रमाणे असते आणि दुःख हे हृदयात ठेवलेले असते खालच्या काळ्या ढगाप्रमाणे आणि हा आपल्या आतच बरसत असतो.
१४) मन म्हणजे काय हे समजणे अवघड असले तरी मन हे आभाळासारखे असे मानले तर या मनाला पकडण्याचे मोठी ते घेण्याचे धैर्य सामर्थ्य घेऊन त्याला ओंजळीत पकडण्याचा प्रयत्न केला आहे.
अशा कितीतरी अन्वयार्थाने भावार्थानी सजलेले हे साधे से चित्र अरविंद शेलार यांनी काढलेले असून परिस पब्लिकेशन नी त्याची मुखपृष्ठ म्हणून निवड केली आणि कवयित्री वंदना इन्नाणी यांनी त्यास मान्यता दिली म्हणून त्यांचे मनःपूर्वक आभार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा – ‘बछेड़ा ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 226 ☆
☆ कहानी – बछेड़ा ☆
मुकुन्द को दयाल साहब के परिवार की सेवा करते हुए पन्द्रह साल से ऊपर हुए। अब वह इस परिवार का अंग बन चुका है। जब वह इस घर में आया था तब बड़े दयाल साहब पैंतालीस साल के फेरे में थे, अब वे रिटायर हो चुके हैं।
मुकुन्द की इस परिवार में खासी पकड़ है। धीरे-धीरे पूरा परिवार उस पर निर्भर हो गया है। ज़रूरत पड़ने पर परिवार के सदस्य पूरे घर को उसके भरोसे छोड़ कर चल देते हैं। घर में मुकुन्द की बात कम ही कटती है। सामान्यतया उसके निर्णय पर सब की मौन मुहर लग जाती है।
मुकुन्द खाना बनाने से लेकर घर के सब कामों में कुशल है। सफाई और टेबिल मैनर्स तक सब बातों में चाक-चौबन्द है। दूसरे मालिक अपने नौकरों को पटरी पर रखने के लिए उसका उदाहरण देते हैं। मुकुन्द दूसरे नौकरों के साथ बैठकर फालतू गपबाज़ी नहीं करता, न ही उसने कोई ऐब पाले हैं। अपने मालिक के घर में इज़्ज़त से रहना ही उसे पसन्द है।
बड़े दयाल साहब चार-पाँच साल पहले डायबिटीज़ की चपेट में आ गये। तब से उनके खाने-पीने पर परिवार की नज़र रहती है। ड्राइंग रूम में मेहमानों के बीच बैठने पर मिठाइयों पर झपट्टा मारने की कोशिश करते हैं। उन पर हर वक्त मुकुन्द की थानेदार जैसी नज़र रहती है। मेहमानों के उठते ही वह सारी मिठाइयाँ समेट कर ले जाता है और बड़े दयाल साहब खूनी नज़रों से उसे देखते रह जाते हैं। जानते हैं कि ज़्यादा गड़बड़ करने पर परिवार तक उनकी हरकत की रिपोर्ट पहुँच जाएगी।
बड़े दयाल साहब की पत्नी यानी माँ जी घुटनों के दर्द से परेशान रहती हैं। जाड़े में धूप की तलाश में रहती हैं, लेकिन आजकल मकानों में आँगन के लिए जगह छोड़ना बेवकूफी और कीमती जगह का दुरुपयोग समझा जाता है। इसलिए घर की महिलाओं को धूप और हवा के लिए छत पर ही जाना पड़ता है। माँ जी के लिए यह दुष्कर है। यह मुकुन्द की ज़िम्मेदारी होती है कि वह उन्हें सहारा देकर सीढ़ियाँ चढ़ाए और फिर वापस उतार कर लाए।
इस घर में पन्द्रह साल से अधिक की सेवा में मुकुन्द ने कभी एक बार में एक हफ्ते से ज़्यादा की छुट्टी नहीं ली, वह भी साल दो-साल में एक बार। बस दौड़ा दौड़ा गाँव जाता है और दौड़ा दौड़ा वापस आ जाता है। घर में सब कुशल क्षेम है तो और क्या चाहिए? नौकरी को मज़बूत बनाये रखना ज़रूरी है, वर्ना घर को हिलते देर नहीं लगेगी।
लेकिन इस बार मुकुन्द को लंबी छुट्टी चाहिए, कम से कम एक माह की। गाँव में बेटी जवान हो गयी है, उसके हाथ पीले करने हैं। जवान बेटी गाँव में हो तो बाप का मन हर वक्त आशंकित रहता है। इसी के लिए पेट पर गाँठ लगा लगा कर मुकुन्द ने पैसा बचाया है।
मुकुन्द ने दयाल साहब के परिवार को आश्वासन दिया है कि वह एक माह के लिए अपने गांँव से कोई अच्छा लड़का ले आएगा ताकि परिवार को दिक्कत न हो। गाँव में बेरोज़गार लड़कों की भीड़ है। एक को बुलाओ तो दस आकर खड़े हो जाते हैं। ‘काका, हमको ले चलो। आप जो तनखा दिलाओगे, हम ले लेंगे।’ सोचते हैं निठल्लेपन के कारण घर में दिन-रात जो लानत- मलामत होती है उससे बचेंगे।
मुकुन्द एक पन्द्रह सोलह साल के लड़के को ले आया है, नाम है नकुल। नकुल को बंगलों में काम का अनुभव नहीं है, लेकिन है तेज़ और फुर्तीला। कोई चिन्ताजनक आदतें भी नहीं हैं। बाकी मुकुन्द ने अच्छी तरह हिदायत दे दी है— ‘ठीक से काम करना। गाँव की नाक मत कटाना। छिछोरापन करोगे तो आगे कहीं काम नहीं मिलेगा। हम छुट्टी से लौट कर किसी अच्छे बंगले में लगवा देंगे।’ नकुल समझदार की तरह सहमति में सिर हिलाता है।
मुकुल निश्चिंत होकर बेटी को विदा करने चला गया है। इधर नकुल बंगले में काम में रम गया है। ज़िम्मेदारी समझता है, सिखाने पर जल्दी सीखने और फिर गलती न करने की कोशिश करता है। घर पर लोग उसके काम से खुश हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उसके बदन में सुस्ती नहीं है। सबेरे एक आवाज़ पर उठकर खड़ा हो जाता है। कभी रात को उठाना पड़े तो बिना माथा सिकोड़े तुरन्त उठ जाता है। कहीं भी बुलाए जाने पर उड़ता हुआ सा तत्काल पहुँच जाता है।
अब बड़े दयाल साहब भी खुश हैं क्योंकि नकुल उन्हें मिठाई चुराते देख नज़र फेर लेता है। अभी वह उनकी बीमारी के बारे में ज़्यादा समझता भी नहीं है। माँ जी को भी उसकी देहाती बोली-बानी सुहाती है। अभी उसके मुँह से अपने अंचल के शब्द फूलों की तरह टपकते रहते हैं। माँ जी उन्हें सुनकर मगन हो जाती हैं। एक दिन उनके हाथ से कोई काम बिगड़ने पर नकुल बोला, ‘अरे अम्माँ जी, आपने तो सब बिलोर दिया’, और माँ जी हँसते हँसते लोटपोट हो गयीं। उस दिन से ‘बिलोरना’ और ‘बिलोरन’ घर के वार्तालाप के ज़रूरी अंग बन गये। रोज़ दस बीस बार घर के सदस्यों द्वारा इन शब्दों का उपयोग होने लगा। लेकिन माँ जी जानती हैं कि कुछ दिन में नकुल भी शहर की संस्कृति में ढल जाएगा और फिर अपनी बोली को हेय समझ कर शहर की बेजान भाषा में रमने की कोशिश करेगा।
परिवार में नकुल के काम की तारीफ होती रहती है जिसे सुनकर वह खुश हो जाता है। काका लौटेंगे तो वे भी सुनकर संतुष्ट होंगे।
नकुल ने ज़िन्दगी में पहली बार स्वतंत्र रूप से पैसे रखने का सुख उठाया है। पैसे की ताकत को महसूस किया है। पैसे रखना और उन्हें सँभालना उसे खूब अच्छा लगता है।
मुकुन्द के लौटने की तिथि नज़दीक आने के साथ घर में कुछ विचार-मंथन शुरू हो गया है। नकुल की तुलना मुकुन्द से की जाने लगी है जिसमें निष्कर्ष हमेशा नकुल के पक्ष में जाता है। बड़े दयाल साहब बीच-बीच में कह देते हैं कि मुकुन्द अब बूढ़ा हो रहा है, अब घर में किसी जवान लड़के को रखना उचित होगा।
नकुल से धीरे धीरे पूछा भी जा चुका है कि अगर उसे मुकुन्द की जगह रख लिया जाए तो क्या वह पसन्द करेगा? माँ जी उसे धीरे-धीरे समझाती हैं कि उसे मुकुन्द ने भले ही वहाँ रखा हो लेकिन उसे लिहाज छोड़कर ज़िन्दगी में अपनी राह बनाना चाहिए। अपने काम को इतनी प्रशंसा मिलते देख नकुल को खुशी होती है, लेकिन काका की जगह लेने के प्रस्ताव पर वह असमंजस में है।
मुकुन्द बेटी को विदा कर निश्चिंत लौट आया है। अब नकुल को कहीं चिपकाने की कोशिश करेगा।
लेकिन घर की फिज़ाँ में उसे कुछ बदलाव लगता है जो उसकी समझ में नहीं आता। अब घर के सदस्यों में उसके प्रति पहले जैसी गर्माहट नहीं है। उसके काम में कुछ ज़्यादा ही मीन-मेख निकाला जाने लगा है। बड़े दयाल साहब जब तब बोल देते हैं, ‘अब तुमसे नहीं होता। तुम रिटायर हो जाओ।’
आखिर एक दिन बड़े दयाल साहब ने साफ बात करने का बीड़ा उठा लिया। मुकुन्द से बोले, ‘हम सोचते हैं अब नकुल ही यहाँ काम करता रहे। तुम सयाने हो गये हो। अब तुम्हें गाँव लौट जाना चाहिए।’ यह बात कान में पड़ते ही नकुल कहीं छिप गया।
मुकुन्द सब समझ गया। उसकी समझ में आ गया कि नकुल को वहाँ काम पर लगाना उसके लिए भारी पड़ गया। लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था।
दूसरे दिन सबेरे अपना हिसाब- किताब करने के बाद मुकुन्द ने अपना सामान समेटा। नकुल उससे मुँह छिपाता फिर रहा था।मुकुन्द ने उसे नहीं ढूँढ़ा। वह अपना सामान समेट कर रिक्शा पकड़कर बस स्टैंड पहुंच गया। उसके चलते वक्त घर के लोगों ने कोई भावुकता नहीं दिखायी। अभी गाँव जाएगा, उसके बाद आगे की सोचेगा।
इधर मुकुन्द के जाने के बाद नकुल का मन पश्चात्ताप से भर गया। पैसे और प्रशंसा के लोभ में उसने बड़ी गलती कर दी थी। वह मुकुन्द को पछयाता हुआ बस स्टैंड पहुँच गया।
उसके पास पहुँचकर भरी आँखों से बोला, ‘काका, हमसे गलती हो गयी। हम उन लोगों की बातों में आ गये। आप लौट चलो। हम वहाँ नहीं रहेंगे। आप हमें कहीं और लगवा देना, नहीं तो हम गाँव लौट जाएँगे।’
उसके प्रति मुकुन्द की शिकायत पल में धुल गयी। स्नेहसिक्त स्वर में बोला, ‘भैया, अब हमारी उस घर में गुज़र नहीं होगी। हमारा दाना-पानी वहाँ से उठ गया। हम लौट भी जाएँगे तब भी अब पहले जैसी बात नहीं रहेगी। तुम जब तक रह सको वहाँ रहो। शहर के रंग-ढंग सीख जाओगे तो आगे का रास्ता बनेगा। धीरे-धीरे अपने बूते शहर में रहना सीख लेना। दूसरों पर बहुत भरोसा मत करना।’
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 225☆ देह से हूँ
समय के प्रवाह के साथ एक प्रश्न मनुष्य के लिए यक्षप्रश्न बन चुका है। यह प्रश्न पूछता है कि जीवन कैसे जिएँ?
इस प्रश्न का अपना-अपना उत्तर पाने का प्रयास हरेक ने किया। जीवन सापेक्ष है, अत: किसी भी उत्तर को पूरी तरह खारिज़ नहीं किया जा सकता। तथापि एक सत्य यह भी है कि अधिकांश उत्तर भौतिकता तजने या उससे बचने का आह्वान करते दीख पड़ते हैं।
मंथन और विवेचन यहीं से आरंभ होते हैं। स्मार्टफोन या कम्प्युटर के प्रोसेसर में बहुत सारे इनबिल्ट प्रोग्राम्स होते हैं। यह इनबिल्ट उस सिस्टम का प्राण है। विकृति, प्रकृति और संस्कृति मनुष्य में इसी तरह इनबिल्ट होती हैं। जीवन इनबिल्ट से दूर भागने के लिए नहीं, इनबिल्ट का उपयोग कर सार्थक जीने के लिए है।
मनुष्य पंचेंद्रियों का दास है। इस कथन का दूसरा आयाम है कि मनुष्य पंचेंद्रियों का स्वामी है। मनुष्य पंचतत्व से उपजा है, मनुष्य पंचेंद्रियों के माध्यम से जीवनरस ग्रहण करता है। भ्रमर और रसपान की शृंखला टूटेगी तो जगत का चक्र परिवर्तित हो जाएगा, संभव है कि खंडित हो जाए। कर्म से, श्रम से पलायन किसी प्रश्न का उत्तर नहीं होता। गृहस्थ आश्रम भी उत्तर पाने का एक तपोपथ है। साधु (संन्यासी के अर्थ में) होना अपवाद है, असाधु रहना परंपरा। सब साधु होने लगे तो असाधु होना अपवाद हो जाएगा। तब अपवाद पूजा जाने लगेगा, जीवन उसके इर्द-गिर्द अपना स्थान बनाने लगेगा।
एक कथा सुनाता हूँ। नगरवासियों ने तय किया कि सभी वेश्याओं को नगर से निकाल बाहर किया जाए। निर्णय पर अमल हुआ। वरांगनाओं को जंगल में स्थित एक खंडहर में छोड़ दिया गया। कुछ वर्ष बाद नगर खंडहर हो गया जबकि खंडहर के इर्द-गिर्द नया नगर बस गया।
समाज किसी वर्गविशेष से नहीं बनता। हर वर्ग घटक है समाज का। हर वर्ग अनिवार्य है समाज के लिए। हर वर्ग के बीच संतुलन भी अनिवार्य है समाज के विकास के लिए। इसी भाँति संसार में देह धारण की है तो हर तरह की भौतिकता, काम, क्रोध, लोभ, मोह, सब अंतर्भूत हैं। परिवार और अपने भविष्य के लिए भौतिक साधन जुटाना कर्म है और अनिवार्य कर्तव्य भी।
जुटाने के साथ देने की वृत्ति भी विकसित हो जाए तो भौतिकता भी परमार्थ का कारण और कारक बन सकती है। मनुष्य अपने ‘स्व’ के दायरे में मनुष्यता को ले आए तो स्वार्थ विस्तार पाकर परमार्थ हो जाता है।
इस तरह का कर्मनिष्ठ परमार्थ, जीवनरस को ग्रहण करता है। जगत के चक्र को हृष्ट-पुष्ट करता है। सृष्टि से सृष्टि को ग्रहण करता है, सृष्टि को सृष्टि ही लौटाता है। सांसारिक प्रपंचों का पारमार्थिक कर्तव्यनिर्वहन उसे प्रश्न के सबसे सटीक उत्तर के निकट ले आता है।
प्रपंच में परमार्थ, असार में सार, संसार में भवसार देख पाना उत्कर्ष है। देह इसका साधन है किंतु देह साध्य नहीं है। गर्भवती के लिए कहा जाता है कि वह उम्मीद से है। मनुष्य को अपने आप से निरंतर कहना चाहिए, ‘देह से हूँ पर देह मात्र नहीं हूँ। ‘ विदेह तो कोई बिरला ही हो सकेगा पर स्वयं को देह मात्र मानने को नकार देना, अस्तित्व के बोध का शंखनाद है। इस शंखनाद के कर्ता, कर्म और क्रिया तुम स्वयं हो।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है दोहा सलिला – अक्षर आराधना)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 171 ☆
☆ मुक्तिका – सुभद्रा☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
☆
वीरों का कैसा हो बसंत तुमने हमको बतलाया था।
बुंदेली मर्दानी का यश दस दिश में गुंजाया था।।
*
‘बिखरे मोती’, ‘सीधे सादे चित्र’, ‘मुकुल’ हैं कालजयी।
‘उन्मादिनी’, ‘त्रिधारा’ से सम्मान अपरिमित पाया था।।
*
रामनाथ सिंह सुता, लक्ष्मण सिंह भार्या तेजस्वी थीं।
महीयसी से बहनापा भी तुमने खूब निभाया था।।
*
यह ‘कदंब का पेड़’ देश के बच्चों को प्रिय सदा रही।
‘मिला तेज से तेज’ धन्य वह जिसने दर्शन पाया था।।
*
‘माखन दादा’ का आशीष मिला तुमने आकाश छुआ।
सत्याग्रह-कारागृह को नव भारत तीर्थ बनाया था।।
*
देश स्वतंत्र कराया तुमने, करती रहीं लोक कल्याण।
है दुर्भाग्य हमारा, प्रभु ने तुमको शीघ्र बुलाया था।।
Anonymous Litterateur of Social Media # 173 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 173)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जाति और राजनीति…“।)
अभी अभी # 265 ⇒ जाति और राजनीति… श्री प्रदीप शर्मा
वैसे तो जाति कहीं आती जाती नहीं, लेकिन यह जहां भी होती है, इसके आसपास राजनीति को आसानी से देखा जा सकता है। जो राज करने की नीति को प्रभावित करे, उसे जाति कहते हैं।
अगर जाति का मूल वर्ण में है, तो राजनीति का मूल जाति में।
जात न पूछो साधु की, हरि को भजे सो हरि का होय।
यही हाल राजनीति का भी है। राजनीति में भी किसी की जाति नहीं पूछी जाती। राजनीति में एक वर्ग कार्यकर्ता का होता है, जिसकी उपयोगिता ही उसकी जाति होती है। जब भी सामाजिक एकता और वर्ग चेतना का जिक्र होगा, राजनीति में उसके योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता।।
लोकतंत्र में मूल रूप से एक आम आदमी को दो ही वर्गों में बांटा जा सकता है, अमीर और गरीब। कोई कितना अमीर है और कौन कितना गरीब, यह उसकी आमदनी पर निर्भर करता है। ईश्वर ने भी शायद दो ही जात बनाई होगी, अमीर जात और गरीब जात। लेकिन आखिर वर्ण व्यवस्था भी तो कोई चीज है। बताओ तुम कौन जात।
राजा अपनी प्रजा में भेदभाव नहीं कर सकता। ईश्वर भी पहले गरीब और दुखी की ही सुनता है। जो जितना वंचित और शोषित है, वह उतना ही अधिक सुविधा का पात्र है। जब अगलों, पिछड़ों से बात नहीं बनती, तो उन्हें भी विशेष वर्ग में बांटा जाता है। जरा देश की जनसंख्या और वंचित और शोषित का अनुपात देखिए।।
अगर पिछड़ों में भी सिर्फ ओबीसी यानी अन्य पिछड़े वर्ग की चर्चा करें, तो भारत की जनसंख्या में इनका अनुपात 40 % से कम नहीं। इनके उत्थान के लिए सरकारें सदा प्रयासरत रही हैं। वास्तव में इनका ऊपर उठना ही देश का ऊपर उठना है।
जातिगत राजनीति से ऊपर उठकर, जब तक यह वर्ग समाज के अन्य वर्ग से कंधे से कंधा मिलाकर आगे नहीं बढ़ेगा, हमारा विकास अधूरा ही रहेगा। अमीर गरीब और गांव और शहर के बीच बढ़ती खाई को आखिर कभी ना कभी तो कम से कमतर करते हुए पाटना पड़ेगा।।
अब तो अयोध्या में प्रभु श्री राम भी बिराज गए। तुलसी के राम तो वही धनुष बाण वाले वनवासी राम हैं, और उनकी अयोध्या में तो राम जी की पादुका ही सिंहासन पर विराजमान है और सेवक भ्राता भरत महाराज अपनी कुटिया से ही रामकाज और राजकाज को समर्पित है। जाति की राजनीति तो प्रजा ने देख की, अब त्याग और समर्पण की राजनीति भी राम जी की कृपा से देखने को मिलेगी। केवट, निषाद सहित सभी वनवासी बड़े हर्षित हैं। आखिर शबरी के प्रभु श्री राम जो अयोध्या पधारे हैं ..!!
“झपूर्झा “म्हणजे काय हे प्रथम खरोखरच माहिती नव्हतं! आधुनिक मराठी काव्याचे जनक म्हणून ओळखल्या जाणाऱ्या कवी केशवसुत यांची”झपूर्झा “ही लोकप्रिय व गाजलेली कविता!
‘झपूर्झा ‘ म्हणजे ‘झपाटले पणाने जगणे’ असा अर्थ घेतला जातो.
‘जा पोरी जा’ हे वाक्य झपाट्याने उच्चारल्यास ‘झपूर्झा’ असा शब्द ऐकल्याचा भास होतो, तसा ध्वनी होतो असे ट्रान्स लिटरेशन फाउंडेशन शब्दकोश नमूद करते.
अर्थाचे असे काही वाद असले तरी ‘झपूर्झा’ खरोखरच आपल्याला ‘जगणे कसे असावे’ हे तेथील प्रदर्शनीतून दाखवून देते. पुण्याजवळ कुडजे, या गावाजवळ हे म्युझियम आहे. प्रसिद्ध सराफ व्यावसायिक अजित गाडगीळ यांनी जुन्या गोष्टींचा संग्रह करून हे म्युझियम उभे केले आहे. राजा रविवर्म्याची चित्रं ,१००/१५० वर्षांपूर्वीचे दागिने, साड्या, पैठण्या यांचे आठ वेगवेगळ्या गॅलरींमध्ये प्रदर्शन आहे. पु. ल. देशपांडे म्हणतात त्याप्रमाणे कला, चित्र, नाट्य, शिल्प या सर्वांशी इथे मैत्री जोडली जाते….
७ जानेवारीला योगा सेंटर ची *झपूर्झा*ला ट्रिप नेण्याचे ठरले आणि आम्ही दोघे त्यांंत सहभागी झालो.१७/१८ जणांची ट्रॅव्हलर गाडी बुक केली होती.. सकाळी १० वाजता निघालो.साधारणपणे पाऊण तासात आम्ही तिथे पोचलो.सकाळचे प्रसन्न वातावरण होते.घरून नाश्ता करून निघालो होतो, तरी वाटेत छोटे छोटेखाद्य पदार्थ खाणे चालूच होते.
‘झपूर्झा’ च्या गेटवर पोहोचल्यावर तिकिटे काढली आणि आत प्रवेश केला.( शनिवार/ रविवार रेट जास्त असतो) आत प्रवेश केल्यावर प्रथमच नटराजाच्या मोठ्या मूर्तीचे दर्शन झाले. केशवसुतांची एक कविता आपले स्वागत करताना दिसली. आणि लक्षात आले की हे नुसतेच प्रदर्शन नाही तर इथे चांगल्या वाचनीय अशाही बऱ्याच गोष्टी आहेत.
शिरीष बेरी या प्रसिद्ध आर्किटेक्टने साडेसात एकर जागेत हे संग्रहालय उभे केले आहे. अतिशय निसर्गरम्य असे वातावरण तिथे आहे. खडकवासला धरणाच्या बॅकवॉटर जवळ हे ठिकाण असल्यामुळे हवेमध्ये चांगला गारवा असतो!
म्युझियमचा एकूण नकाशा पाहता तिथे आठ गॅलरीज्, ॲम्फी थिएटर, कॅफेटेरिया, ऑडिटोरिअम,सुवेनिअर शाॅप अशी सर्व दालने आहेत.
हे सर्व पाहण्यासाठी तीन-चार तास वेळ लागतो. तसेच इथे” पूना गेस्ट हाऊस”चे नाश्ता आणि भोजन यासाठी चांगले उपहारगृह असल्याने बरोबर खाद्यपदार्थ न्यावे लागत नाहीत आणि तशी परवानगीही नाही.
‘लाईट ॲन्ड लाइफ’ या पहिल्या दालनात सर्व प्रकारचे दिवे बघायला मिळतात. पितळ्याचे, चांदीचे, देवापुढील दिवे, समया, असे विविध प्रकारचे दिवे तेथे बघायला मिळतात.
दुसऱ्या दालनास’ ‘प्रिंट अँड इन प्रिंट ‘असे म्हणतात. तेथे छपाई तंत्राचा शंभर वर्षाचा इतिहास तसेच प्रिंटिंग संबंधी सर्व माहिती आहे. राजा रविवर्म्याची पेंटिंग्ज आहेत. चॉकलेटचे डबे, ट्रे,फ्रेम्स अशा जुन्या वस्तूंचे असंख्य नमुने आहेत.
तिसऱ्या दालना मध्ये 1832 च्या दरम्यान असणाऱ्या चांदी सोन्याच्या वस्तू, दागिने, भातुकली, विविध प्रकारच्या फण्या, सौंदर्य प्रसाधनांचे डबे, अत्तर दाण्या, गुलाब दाण्या इत्यादींचे प्रकार पाहायला मिळतात.
चौथ्या दालनात दुर्मिळ पैठण्यांचा संग्रह आहे. तिथे प्रवेश करताच इंदिरा संत यांची “पैठणी” कविता वाचायला मिळते. पेशवाईतील विविध पैठण्या तेथे संग्रहित केल्या आहेत.
स्थापत्य कलेशी संबंधित निसर्गाशी मेळ घालणारे असे पाचवे दालन आहे. तिथून जवळच कॅफेटेरिया आहे. इथे सर्व प्रकारचे खाद्यपदार्थ तसेच उकडीचे मोदक, पुरणपोळी, खास पुणेरी अळू यासह असणारे जेवण मिळते ,त्यामुळे अशा सुंदर जेवणाचा आस्वाद घेऊन पुन्हा फिरायला आणि फोटोग्राफी करायला उत्साह येतो.
बसण्यासाठी सुंदर जागा, समोर दिसणारे धरणाचे पाणी, वाटेत असणारे कमळाचे पाॅड्स आणि शेवटी असणारे शंकराचे मंदिर असा सर्व परिसर बघता बघता वेळ कसा जातो ते कळतच नाही!
साॅव्हनेअर शॉप हे बायकांच्या खरेदीचे आवडते ठिकाण! तिथे विविध प्रकारच्या पिशव्या, टी-शर्टस्, मग्ज्, पेंटिंग्ज, अशा विविध प्रकारच्या वस्तू आहेत. विंडो शॉपिंग आणि थोडीशी खरेदी तेथे होतेच!
एक दिवस निसर्गरम्य परिसरात आनंदात घालवण्यासाठी हे ठिकाण खरोखरच अप्रतिम आहे! अजित गाडगीळ यांनी ‘झपाटलेपणाने जगणे’ हा अर्थ खरोखरच सार्थ केला आहे हे म्युझियम उभारताना!
आमचा सहलीचा दिवस असाच अविस्मरणीय झाला.जेवण आणि फिरणे करून येताना ३ च्या दरम्यान आम्ही सर्वजण योगा सेंटर मधील मनीषा मॅडमच्या घरी चहा, बिस्किटे घेऊन फ्रेश झालो.
लहानशा खेड्यातील त्यांचे घर खूपच छान वाटले. घराभोवती फुलांची झाडे , शेवग्याचे झाड तसेच छोटी छोटी वांग्याची झाडे पाहून आनंद वाटला.. येताना ताजे ताजे मुळे,पालक, चाकवत, शेवगा अशा खास गावाकडच्या ताज्या भाज्या घेतल्या.
निसर्गाचे हे रूप पाहून वाटत होते की, शहराच्या कृत्रिम जीवनापेक्षा हे किती आकर्षक आहे आणि निसर्ग आपल्याला किती देत असतो!
“देता किती घेशील तो कराने..”
अशी आपली अवस्था होते!
संध्याकाळी एकमेकांचा निरोप घेऊन घरी आलो. कालचा संस्मरणीय दिवस मनामध्ये कायमचा घर करून राहीला!