हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 242 ⇒ आज का दिन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आज का दिन।)

?अभी अभी # 242 ⇒ आज का दिन… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज का दिन अभी उगा नहीं, लेकिन कल, चला गया। रात अभी बाकी है, लेकिन एक नई सुबह हो ही गई। क्या एक रात में वक्त बदल जाता है, तारीख बदल जाती है, बरस बदल जाता है। अगर नहीं बदलता, तो बस इंसान नहीं बदलता।

आज के दिवाकर के उदय होने के पूर्व ही, कल सोशल मीडिया पर दिनकर चले, और खूब चले ! दिनकर चले गए, उनकी कविता चलती रही। विचार एक धारा है, विचार में धार होती है, चाकू में धार होती है, तलवार में धार होती है। चाकू से सब्ज़ी काटी जाती है, तलवार से इंसानों को भी गाजर मूली की तरह काटा जाता था। इसलिए बंदर के हाथ में आजकल तलवार नहीं दी जाती, उसे एक विचारधारा पकड़ा दी जाती है। वह जीवन भर उसकी ही धार तेज करता रहता है।।

यह आज तो मेरा है, पर यह बरस मेरा नहीं ! केवल दिनकर का ही नहीं, कइयों का नया वर्ष, चैत्र वर्ष प्रतिपदा, हिन्दू कैलेंडर के अनुसार, गुड़ी पड़वा से शुरू होता है। हम हर जगह तेरा मेरा तो कर सकते हैं, अपनी मान्यता अनुसार नया वर्ष भी निर्धारित कर सकते हैं लेकिन वक्त को नहीं बदल सकते।

पुरुषार्थ क्या नहीं कर सकता। क्या आपने देखा नहीं, पहले कैसा वक्त था और हमने वक्त के पहिए बदल दिए, वक्त की चाल बदल दी, जंग लगी तलवार बदल दी, ढाल बदल दी। बस नहीं बदल पाए तो किसी की तकदीर नहीं बदल पाए।।

शुभ दिन का इंतज़ार नहीं किया करते। अगर बहारें मुहूर्त देखती तो चौघड़िए आड़े आ जाते। फूल को रोज खिलना है। कुदरत का हर पल, हर लम्हा, एक मुहूर्त है। प्रकृति भी अपने उत्सव मनाती है। उसके लिए पतझड़ भी एक उत्सव है। उसे आप कायाकल्प भी कह सकते हैं।

हमें भी बहारों का इंतज़ार है।

हमारा भी कायाकल्प होना है। क्यों न आज ही वह शुभ घड़ी साबित हो। शुभ संकल्प के लिए मुहूर्त नहीं तलाशे जाते, सिर्फ कृत – संकल्प होने से ही काम चल जाता है। मत मानें दिनकर की तरह आप भी इस आज के दिन को वर्ष का पहला दिन, लेकिन एक अच्छा दिन तो मान ही सकते हैं। सूरज अभी उगा नहीं, अगर हमारे इरादें नेक हैं तो उम्मीद का सूरज भी आज ही निकलेगा जो कल से बेहतर होगा। आज का आपका दिन शुभ हो। वर्ष २०२४ मानवता के लिए मंगलमय हो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 252 ☆ कविता – कैलेंडर बदला ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता – कैलेंडर बदला)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 252 ☆

? कविता – कैलेंडर बदला ?

(चैट जी पी टी से लिखी गई, किंचित परिष्कृत कविता)

नया साल आया, नयी राहें बनीं,

 जिंदगी में, नई संभावनाएं बनी ।

 

बीता हुआ कल, हुआ आज अतीत,

नए साल के संग, नयी बने रीत।

 

मिलकर लिखें, जिदंगी की कहानी नई,

 पल पल में हो खुशियों की रवानी नई

 

सफलता  सर्वत्र, मिले संपन्नता विपुल

इस साल में हों, सब स्वस्थ सुखी अतुल।

 

दिन की रौशनी, नई रचे इबारत

रात हो, खुशियों से भरी  इबादत

 

भूलें गुजरे समय की कटुता,

वैमनस्य

नये साल के साथ, नए

हों सामंजस्य ।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #28 ☆ कविता – “किस्मत…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 28 ☆

☆ कविता ☆ “किस्मत…☆ श्री आशिष मुळे ☆

किस्मत क्या है

शतरंज की इक चाल है

जिसकी ना कोई पहचान है

बस खेल ही उसकी जान है

 

वो तो अपनी चालें चलेगी

बुद्धि तुम्हारी सुलगेगी

प्रतिचाल तुम्हारी बोलेगी

दो कदम पीछे कभी आगे चलेगी

 

चालें तो आती ही रहेंगी

प्यादे कटाती रहेगी

प्यादों को प्यादे न रहने देना

वजीर उन्हें बना देना

 

कभी आगे कभी पीछे

तुम बस चलते रहना

एक दिन चालें उसकी ख़त्म होगी

उस वक़्त तक, तुम बस

काबिल-ए-कदम रहना…

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 188 ☆ बाल गीत – खेलें – कूदें करें धमाल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 188 ☆

☆ बाल गीत – खेलें – कूदें करें धमाल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

आर्यन बाबू बड़े कमाल।

खेलें – कूदें करें धमाल।।

 

कभी खेलते छूई – छूआ

कविता उनकी बिल्ली – चूहा

नव नूतन गाएँ दे ताल।

आर्यन बाबू बड़े कमाल।।

 

बड़े शौक से फल वे खाते।

गाजर , खीरा चट कर जाते।

मौसम से वे पूछें हाल।

आर्यन बाबू बड़े कमाल।।

 

अ आ इ ई पढ़ें पहाड़े।

क, ख , ग , घ व्यंजन सारे।

ए , बी , सी , डी लगे गुलाल।।

आर्यन बाबू बड़े कमाल।।

 

तरह – तरह की मोटर गाड़ी।

परियों को पहनाएँ साड़ी।

हाथी , भालू पीटें ताल।

आर्यन बाबू बड़े कमाल।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नववर्षाचे स्वागत ☆ सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी) ☆

सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी)

? कवितेचा उत्सव ?

🍁 नववर्षाचे स्वागत🍁 सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी) 

ऋतू मागूनी ऋतू हे येतील

रोज नव्याची ओळख देती

नववर्षाच्या प्रथम दिनाची

हर्षभराने महती गातीला ||

   

पूर्व दिशेला क्षितिजा वरती

केशर रंगी शिंपण होईल

नव्या दिशेसह नव आशेची

सूर्यकिरणे देतील चाहूल ||

 

मनामनांच्या तिमिरामधले

दूर सारुनी सगळे वादळ

आज सुंदर आणि शुभंकर

आपण सारे उचलू पाऊल ||

 

मिळूनी आपण एक दिलाने

नववर्षाचे स्वागत करूया

आयुष्याच्या या वळणावरती

कला गुणांचा आस्वाद घेऊया ||

 

हास्यांची जमवू मैफिल

निरामय हे जीवन होईल

स्मरण ठेवू या परमेशाचे

नववर्ष हे सुखमय होईल ||

प्रस्तुती – शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी)

कोथरूड-पुणे.३८.

   मो.९५९५५५७९०८ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य # 183 ☆ आठवण… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 183 ☆ आठवण☆ श्री सुजित कदम ☆

किती सांभाळावे स्वतःला कळत नाही

तुला आठवण हल्ली माझी येत नाही…!

तू येशील असे मला रोज वाटते बस्

तुला भेटण्याची ओढ जगू ही देत नाही…!

मी लपवून ठेवतो तुझ्या आठवणींचा पसारा

हे हसणे ही वरवरचे कितीदा रडू देत नाही…!

© श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मैत्रीचा गाव … ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆

श्री विश्वास देशपांडे

? विविधा ?

☆ मैत्रीचा गाव… ☆ श्री विश्वास देशपांडे

काही दिवसांपूर्वी मी पुण्यात होतो. माझे चाळीसगावचे एक अतिशय जवळचे सहकारी सुद्धा पुण्यातच त्यांच्या मुलाकडे वास्तव्यास होते. परवाच्या दिवशी सकाळी मला अचानक त्यांचा फोन आला. त्यांचा आवाज अगदी खोल गेला होता. मला म्हणाले, ‘ सर, माझे हृदयाचे ऑपरेशन झाले आहे. मला एकदा भेटायला येऊन जा. ‘ त्यांचे आणि माझे नाते जरी मैत्रीचे असले तरी ते माझ्यापेक्षा वयाने मोठे आहेत. आम्ही सगळेच त्यांना अण्णा म्हणतो. अशा या अण्णांचा फोन आला आणि आम्ही दोघं तातडीनं त्यांना भेटायला गेलो. आम्ही आल्याचा अण्णांना कोण आनंद ! तशाही अवस्थेत त्यांच्या चेहऱ्यावर स्मित झळकलं. काय सांगू, किती सांगू आणि कसं सांगू अशी त्यांची अवस्था झाली होती. शेवटी त्यांचा मुलगा म्हणाला, ‘ अण्णा, तुम्ही बोलू नका. मी सगळं सांगतो. ‘

गंमत म्हणजे आदल्या दिवशीच अण्णांना हॉस्पिटलमधून घरी सोडले होते. अण्णांना जास्त बोलायला डॉक्टरांनी मनाई केली होती. अण्णांनी पूर्ण विश्रांतीच घ्यावी, त्यांना कोणाच्याही फोनचा त्रास होऊ नये या हेतूने मुलांनी त्यांचा फोन काढून घेतला होता. पण तशाही परिस्थितीत अण्णांनी कुठून तरी फोन शोधला आणि पहिला फोन मला केला. त्यांना का वाटलं असेल की मला फोन करावा ? कुठून येते ही ओढ ? मी तर काही अण्णांचा जवळचा नातेवाईक नव्हतो. पण माणुसकीच्या आणि प्रेमाच्या नात्याने मी त्यांचा सगळ्यात जवळचा नातेवाईक होतो. आणि ते नातं होतं मैत्रीचं ! हे नातं रक्तापलीकडचं असतं. या नात्यात कोणी कोणाकडून काही घेत नाही आणि कोणी कोणाला काही देत नाही. देवघेव असते ती निखळ प्रेमाची. कोणत्याही अपेक्षेशिवाय प्रेम करणारं हे नातं म्हणजे मनुष्य जीवनातील एक सुंदर मुक्कामाचं ठिकाण. हा मैत्रीचा गाव प्रत्येकाचं जीवन आनंदानं उजळून टाकतो. अण्णांची भेट घेऊन आम्ही निघालो. अण्णा अगदी खुश होते. डॉक्टरांनी दिलेली औषधे तर त्यांच्याजवळ होतीच पण हा मैत्रीच्या औषधाचा डोस पोटात जाताच अण्णांचे दुखणे कुठल्या कुठे पळाले. लवकर बरे होण्यासाठी त्यांना आणखी ऊर्जा मिळाली.

अलीकडे सगळ्या गोष्टींसाठी काही अटी असतात. कोणतीही जाहिरात पहा. तिथे कुठेतरी स्टारमार्क करून अगदी छोट्या अक्षरात का होईन पण ‘ अटी लागू ‘ असे लिहिलेलं असतं. मैत्रीच्या या नात्याला मात्र कुठल्याच अटी लागू  नसतात. किंबहुना अटी असतील तर ती मैत्री कसली ? तो तर व्यवहार ! मैत्री काही मागत नाही. ना वय, ना जातपात, ना धर्म, ना लिंग. कशाकशाचीही आवश्यकता नसते. मैत्री या सगळ्यांच्या पलीकडे असते. रक्ताच्या नात्यात निवडीला चॉईस नसतो. मैत्रीत मात्र तो मुबलक असतो. आवडणाऱ्या मित्रांशी मैत्री होते असे म्हणण्यापेक्षा ती त्यांच्यासोबत जुळते, फुलते आणि खुलते. तिचे रेशमी बंध घट्ट होत जातात.

मैत्रीचं लावलेलं रोपटं बहरावं म्हणून काही काळजी जरूर घ्यावी लागते. मैत्रीत काही मिळण्याची अपेक्षा तर नसतेच ( म्हणजे ती नसावीच ! ) पण द्यायचं मात्र असतं आणि तेही परतीच्या अपेक्षेनं नाहीच. त्यात व्यवहार नसतोच ! मित्रानं विश्वासानं एखादी गोष्ट तुम्हाला सांगितली तर ती प्राणापलीकडे जपायची असते. उद्या चुकून मैत्रीत अंतर पडलं तरी ती गोष्ट फक्त तुमच्यापाशीच ठेवायची असते. आणि सच्चे दिलदार मित्र या गोष्टी पाळतातच.

खूप वर्षांपूर्वी अमिताभचा ‘ जंजीर ‘ हा चित्रपट आला होता. त्यात अमिताभ आणि प्राण यांच्या फार सुरेख भूमिका होत्या. प्राण आणि अमिताभ असतात सुरुवातीला एकमेकांचे वैरी. पण नंतर त्यांची मैत्री होते आणि मग या मैत्रीच्या अनोख्या नात्याचे प्रेक्षक साक्षीदार होतात. या चित्रपटातील मन्ना डे यांनी गायीलेलं गाणं फार सुदर आणि अर्थपूर्ण आहे. ते प्राणच्या तोंडी आहे. ‘ यारी हैं इमान मेरा, यार मेरी जिंदगी ‘ हे ते गाणं ! या गाण्यातल्या पुढील ओळी फार सुंदर आहेत…

छुपा ना हमसे हाल-ए-दिल सुना दे तू

तेरे हंसी की किमत क्या हैं ये बता दे तू

आपला मित्र उदास आहे, हसत नाही हे पाहिल्यावर सच्च्या मित्राला दुःख होते. त्याच्या फक्त एका हसण्यासाठी तो वाटेल ती किंमत मोजायला तयार असतो.

कहे तो आसमांसे चाँदतारे ले आऊं

हंसी जवां और दिलकश नजारे ले आऊं

असे असतात खरे मित्र. अनेक चित्रपटातून ही दोस्तीची अजरामर कथा चित्रित झाली आहे. शोले मधील ‘ ये दोस्ती हम नही तोडेंगे..’ किंवा याराना मधील ‘तेरे जैसा यार कहाँ ‘ किंवा ‘ बने चाहे दुश्मन जमाना हमारा… हे दोस्ताना चित्रपटातील गीत असो. अशी गाणी ही हृदयाला हात घालतात.

श्रीकृष्ण आणि सुदामा, श्रीराम आणि सुग्रीव यांच्या मैत्रीच्या कथा तर प्रसिद्धच आहेत. दुर्योधन आणि कर्णाची मैत्रीही प्रसिद्ध आहे. पण त्या मैत्रीत थोड्या नकारात्मक छटा आहेत. दुर्योधन कर्णाकडे अर्जुनाचा प्रतिस्पर्धी म्हणून पाहतो तर कर्ण हा दुर्योधनाच्या मैत्रीच्या ओझ्याखाली दबलेला असतो. आपण दुर्योधनाची बाजू घेतो हे योग्य आणि न्याय्य नाही हे त्याला माहिती असते पण तो काही करू शकत नाही.  सगळ्यात भावणारी मैत्री श्रीकृष्ण आणि सुदामा यांची आहे. श्रीकृष्ण द्वारकेचा राजा आहे पण त्याला भेटायला जाताना गरीब सुदामा फक्त पोहे घेऊन जातो आणि श्रीकृष्णही अत्यंत आवडीने ते भक्षण करतो. जेव्हा द्वारपाल सुदाम्याला अडवतात हे श्रीकृष्णाला कळते, तेव्हा तो स्वतः त्याच्या स्वागताला जातो. त्याची नगरी सोन्याची करतो. या सगळ्यात केवळ निखळ मैत्री आणि प्रेम आहे. खरं तर श्रीकृष्ण आणि सुदामा या दोघांच्या आर्थिक आणि सामाजिक परिस्थितीत कमालीचा विरोधाभास आहे. पण ती परिस्थिती त्या दोघांच्या मैत्रीत कुठेही आड येत नाही. श्रीकृष्ण आणि अर्जुन, श्रीकृष्ण आणि द्रौपदी यांची मैत्रीही अशीच मनभावन आहे.

हे वर्ष आता संपत आले आहे. हे वर्ष आणि गेल्या  अनेक वर्षांनी मैत्रीची संजीवनी देत मला जगवलं आहे. गेल्या काही वर्षात खूप जिवलग मित्र मैत्रिणी मिळाल्या. त्यातील काही तर माझ्यापेक्षा वयाने, ज्ञानाने आणि मानाने मोठे आहेत पण कुठल्याही अपेक्षेशिवाय ही मैत्री पुढे जाते आहे. मैत्रीच्या बिया छान रुजल्या आहेत. त्या जोपासतो आहे. मैत्रीबद्दल बोलताना पु ल देशपांडे म्हणतात

रोज आठवण व्हावी असे काही नाही

रोज भेट व्हावी असेही काही नाही

रोज बोलणं व्हावं असंही काही नाही

पण मी तुला विसरणार नाही ही झाली खात्री

आणि

तुला याची जाणीव असणं ही झाली मैत्री.

मैत्रीबद्दल लिहिताना मला सुचलेल्या काही ओळी

प्रत्येकाच्या हृदयात मैत्रीचा एक गाव असावा

त्या गावात असावेत हक्काने राहणारे मित्र मैत्रिणी

कधी वाटले काही सांगावेसे तर

वे खुशाल हक्काने त्यांच्याकडे

कराव्या मोकळ्या आपल्या भावना

मैत्रीत वाटून घेता येते सारे

उणावते दुःख आणि दुणावतो आनंद

अशा मित्रांकडे काही काळ जावे

सुखदुःख सारे वाटून घ्यावे

असावा असा मैत्रीचा गाव

मित्र मित्र म्हणता म्हणता वाढत जावा

मैत्रीचा परीघ

वाढता वाढता तो विश्वव्यापी व्हावा.

माझ्या वाचन आणि लेखनाच्या छंदामुळे मला अनेक नवे मित्र मिळाले आहे. माझे अनेक वाचक सुद्धा माझ्या जिवाभावाचे मित्र बनले आहेत. काहींना प्रत्यक्ष भेटलो आहे तर काहींची अजून भेट नाही. पण त्या सगळ्यांची या निमित्ताने आठवण करतो आणि पुढील येणाऱ्या अनेक वर्षात ही मैत्री अशीच ‘ अभंग ‘ राहील असे वचन देऊन थांबतो. हा लेख माझ्या सर्व मित्र-मैत्रिणींना समर्पित !

© श्री विश्वास देशपांडे

चाळीसगाव

प्रतिक्रियेसाठी ९४०३७४९९३२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ।। योगायोग ।। – भाग-2 ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? जीवनरंग ❤️

☆ ।। योगायोग ।। – भाग-2 ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले 

(नीताची नोकरी संपली आणि  नीता रिटायर झाली.होणाऱ्या निरोप  समारंभाला तिने निक्षून नकार दिला आणि घरी परत आली. आता ती करेल तेवढ्या वाटा तिला बोलावत होत्या.) इथून पुढे —

मेघनाने नीताला फोन केला आणि म्हणाली, “आई आता जर कारणं सांगितलीस तर बघच. झाली ना नोकरी पूर्ण? मग कधी येतेस माझ्याकडे ते सांग.” तिने न विचारता नीताला तिकीटच पाठवलं आणि नीताला मग मात्र अमेरिकेला जाण्याशिवाय पर्याय उरला नाही. एअरपोर्टवर आलेल्या गोड नातीनं आजीच्या कमरेला मिठी मारली आणि ‘ आज्जू ‘ अशी हाक मारल्यावर नीताचे डोळे भरूनच आले. मेघनाने तिला जवळ घेतले आणि कारमध्ये बसवलं. वाटेत नात अस्मि नुसती चिवचिवत होती आणि तिला खूप आनंद झाला आपली आज्जू आली म्हणून. किती तरी साठलेलं बोलून घेतलं मायलेकींनी आणि दिवस कसे जात हेच समजेना नीताला. मेघनाला नीताने सांगितलं नव्हतं की ती ब्रेल शिकली आणि ब्लाइंड स्कूलमध्ये जाते. तिला मुद्दाम सांगायची वेळच आली नाही.

त्या दिवशी नीताला घेऊन मेघना आणि अस्मि तिथल्या लायब्ररीत  गेल्या होत्या. सहज बघितलं तर नीताला तिकडे एक सम्पूर्ण सेक्शन ब्रेल पुस्तकांचा दिसला. नीता अतिशय   एक्साइट होऊन त्या सेक्शनमध्ये गेली. तिकडे वाचनाचीही सोय होती. काही मोठी अंध मुलं, काही लहान मुलं ब्रेल पुस्तकं घेऊन वाचत होती. नीताचे हृदय भरून आलं. त्या अंध छोट्या मुलाजवळ ती  आपण होऊन गेली आणि म्हणाली “ खूप सुंदर पुस्तक आहे ना हे? फेअरी टेल्स? तू हॅन्स अँडर्सनच्या परीकथा वाचल्या आहेस का? जरूर वाच हं. आहेत बरं का त्या ब्रेल मध्ये.”  तिने त्याला एक गोष्ट वाचून दाखवली. तो मुलगा इतका खूष झाला. “ आंटी, प्लीज आणखी एक स्टोरी वाचाल का? तुम्ही इंडियन आहात का? तुमचा एक्सेन्ट अमेरिकन नाही, पण तुम्ही छान वाचता. थँक्स.” त्याच्या आईच्या डोळ्यात पाणी आलं.  म्हणाली, “ माझा ख्रिस जन्मांध नाही पण हळूहळू त्याची दृष्टी कमी होत गेली. खूप उपाय केले आम्ही पण नाही उपयोग झाला. तुम्ही किती सहज ब्रेल पुस्तक वाचले.मला येईल का हो शिकता? “ नीता म्हणाली “ नक्की येईल. इथे अशा संस्था नक्की असतील ज्या तुम्हाला ब्रेल शिकवतील. करा चौकशी. नाही तर मी शिकवींन तुम्हाला. मी इथे आहे अजून चार महिने “ नीताचा फोन नंबर घेऊन त्या आभार मानून निघून गेल्या. मेघना हे थक्क होऊन बघत होतो. “आई,अग काय हे ! कधी शिकलीस तू हे? कित्ती ग्रेट आहेस ग! “ नीता मेघना अस्मि घरी आल्या. अतुलला हे सगळं मेघनाने सांगितलं..,तो म्हणाला, “ आई खरच ग्रेट आहात हो तुम्ही.”

नीताच्या डोळ्यात पाणी आलं. तिनं आपल्या मैत्रिणी आपल्याशी कशा  वागल्या ,माणसं कशी लगेच बदलतात हे सांगितलं आणि म्हणाली, “ माझा आता त्यांच्यावर राग नाही ग. मला उलट ही नवी वाट सापडली म्हणून मी आभारच मानेन त्यांचे. नाहीतर बसले असते पिकनिक करत आणि वेळ वाया घालवत.” मेघना आणि अतुलला अतिशय कौतुक वाटले नीताचे. मिसेस वॉल्सने ही बातमी सगळ्या मैत्रिणींना सांगितली आणि नीताचे कौतुक केले. ख्रिसची शाळा बघायला याल का असा फोन आला मेघनाला. पुढच्या आठवड्यात  नीताला घेऊन अस्मि मेघना अतुल ब्लाइंड स्कूलमध्ये गेले. ती छोटी छोटी अंध मुलं बघून अस्मि रडायला लागली आणि सगळ्यांचे डोळे पाणावले. ख्रिस नीता जवळ आला आणि म्हणाला, “ ही आंटी माझी फ्रेंड आहे. हो ना आंटी?” नीता म्हणाली “ हो तर !माझा छोटा मित्र ख्रिस आणि तुम्हीही सगळे माझे नवीन छोटे दोस्त. मी आता तुम्हाला माझ्या भाषेतली ,पण तुमच्यासाठी मी इंग्लिश ट्रान्सलेट केलेली गोष्ट वाचून दाखवू का?” मुलं आनंदाने हो म्हणाली. नीताने त्यांना बिरबलाची सुंदर गोष्ट वाचून दाखवली. तिथल्या प्रिंसिपलला फार आश्चर्यआणि कौतुक वाटले नीताचे. तुम्ही आमच्या या मुलांसाठी दर वीकला एकदा येत जाल का?” त्यांनी विचारले. नीता म्हणाली “अगदी आनंदाने येईन मी ! ब्रेल लिपी फार अवघड नाही. तुम्ही या मुलांच्या पालकांना शिकवा ना,, ही लिपी..घ्या त्यांचेही   क्लासेस.”

नीता आनंदाने  घरी परतली.मेघनाला अतिशय आश्चर्य आणि कौतुक आणि अभिमान वाटला आपल्या आईचा. दर आठवड्याला नीताला शाळेची बस न्यायला यायला लागली आणि या मुलांना शिकवताना, त्यांचे नवीन नवीन साहित्य बघताना नीताही खूप काही शिकली या शाळेतून.  बघता बघता नीताचा इथला मुक्काम संपत आला. एक दिवस लाजरा ख्रिस म्हणाला “आंटी माझ्या घरी याल? मला आमचं घर आणि माझी रूम दाखवायची आहे तुम्हाला.” नीताला गहिवरून आलं.” नक्की येईन ख्रिस!” ती म्हणाली. ती जाण्याच्या आधी शाळेतल्या मुलांनी तिला तिने शिकवलेली गाणी म्हणून दाखवली, नाच करून दाखवले. शाळेने नीताचा छोटासा सत्कार केला आणि पुन्हा पुन्हा या ,आमच्या मुलांना तुमच्या भाषेतली गाणी शिकवा, गोष्टी सांगा, असं म्हणत निरोप दिला.

नीताचा हा यावेळचा मुक्काम अतिशय अविस्मरणीय झाला. सहज ती त्या लायब्ररीत जाते काय आणि ब्रेल पुस्तकं तिला दिसतात काय आणि चिमुकला ख्रिस तिथे भेटतो काय ! नीताला अतिशय आनंद झाला. भारतातून आणलेली छोटी ब्रेल पुस्तकं तिने शाळेला दिली आणि ख्रिसला तर आणखी स्पेशल पुस्तक आणि वाजणारे टॉय. मेघना आणि अतुल घरी आले आणि मेघनाने आईला मिठीच मारली. “ आई किती ग कौतुक करु तुझं मी. स्वप्नातसुद्धा वाटलं नाही की तू हे शिकली असशील. खूप मोठं काम करते आहेस ग तू ! मेघनाचे डोळे भरून आले. बाबा गेल्याचे दुःख तर अजूनही आहेच ग.. पण तू धीराने सावरलंस स्वतःला.आणि ही वेगळी वाट निवडलीस याचा अभिमान आहे आम्हाला. आम्ही या  इथल्या शाळेला देणगी देऊच पण हा चेक तुझ्या पुण्यातल्या शाळेला अस्मिकडून.”

“ आज्जू,आता तू दरवर्षी ये आणि  त्या ब्लाइंड स्कूलमध्ये अशीच जात जा आणि ख्रिससारख्या मुलांना

भेट. आज्जू,किती आपण लकी ग.. आपल्याला डोळे आहेत. आणि मी हट्ट करते की मला हेच हवं आणि हाच ड्रेस हवा. आज्जू,थँक्स.मी आता कधीही हट्ट करणार नाही आणि नेहमी मॉमबरोबर ख्रिसला भेटायला जाईन.” चिमुकली अस्मि म्हणाली. नीताने तिला जवळ घेतले. गहिवरून ती मेघनाला म्हणाली, ” मेघना, हे सगळं घडायला संजयला जायलाच हवं होतं का ग? त्याला किती अभिमान वाटला असता ना.”

मेघना म्हणाली, “आई नको रडू तू. बाबा जिथे कुठे असतील तिथून हे नक्की बघत असतील. पण अस्मि म्हणते तशी दर वर्षी येत जा ग.”

नीता त्यांचा निरोप घेऊन परत आली. तिची इथली गरीब मुलं, तिची शाळा, तिची वाट पहात होती. कुठेही गेलं, कोणतीही भाषा-देश-वर्ण कोणताही असला तरी दुःखाची भाषा मात्र एकच असते हे त्या चिमुकल्या  अंध मुलांना बघून पुन्हा एकदा नीताला प्रकर्षाने जाणवलं.

– समाप्त – 

© डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “२०२४ मध्ये…” ☆ श्री मंगेश मधुकर ☆

श्री मंगेश मधुकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ “२०२४ मध्ये…” ☆ श्री मंगेश मधुकर

अजून एक वर्ष संपलं .. .. 

सरत्या वर्षाला निरोप देताना,

नवीन वर्षातसुद्धा आजूबाजूला, 

भावनांवर ताबा नसणारे,

कशानंही ‘ईगो’ दुखावणारे,

रागावर कंट्रोल नसणारे,

कायम अस्वस्थ असणारे,  

विचार न करता वागणारे,

जाईल तिथं स्वार्थ पाहणारे,

मुखवटे घालून बोलणारे,

नात्यांपेक्षा व्यवहाराला महत्व देणारे, 

स्वतःच्या आगाऊपणाचं कौतुक वाटणारे,

नेहमीच दुसऱ्यांच्या चुका दाखवणारे,

ईएमआय, इंटरनेट, इमोशन्स यात गुरफटून 

वर्षातले ३६५ दिवस टेंशनसोबत जगणारे,

सुशिक्षित असूनही अडाण्यासारखं वागणारे,

पैशाचा माज दाखवणारे,

फालतू गोष्टीवर वारेमाप खर्च करणारे,

सेलिब्रेशनसाठी निमित्त शोधणारे,

उथळ गोष्टीत आनंद मानणारे,

सार्वजनिक ठिकाणी मूर्खासारखं वागणारे,

निर्लज्जपणे वाहतुकीचे नियम तोडणारे,

गर्दीत बेफाम गाडी चालवणारे,

फोनवर बोलत ड्रायव्हिंग करणारे, 

स्वतःबरोबर दुसऱ्याचा जीव धोक्यात घालणारे,

कुठंही वेडयावाकड्या गाड्या पार्क करणारे,

रस्त्यावर अतिक्रमण करून दुकानं थाटणारे,

अशा दुकानातून खरेदी करणारे,

रस्त्यावर कचरा टाकणारे,

कुठंही पचकन थुंकणारे, 

अन्न फेकून देणारे,

डॉक्टर असूनही व्यापाऱ्यासारखं वागणारे,

दुकानासारखं हॉस्पिटल चालवणारे, 

वाढदिवस सार्वजनिक साजरा करणारे,

जागोजागी फ्लेक्स लावून स्वतःची टिमकी वाजवणारे,

फुटकळ कामाचे वारेमाप प्रदर्शन करणारे,

शोभत नसताना विचित्र फॅशन करणारे,

सोयीनुसार रूढी-परंपरा पाळणारे,

‘आमच्यावेळी असं नव्हतं’ हे सतत ऐकवणारे,

वेळ कसा घालवावा या विवंचनेत असणारे,

वय वाढलं तरी हेका न सोडणारे,

माणसांपेक्षा मोबाईलला जवळचा मानणारे, 

सतत फोनवर बोलणारे,

हेडफोडवर गाणी ऐकत चालणारे,

सोशल मीडियाला भुलणारे,

खाजगी गोष्टी चव्हाट्यावर मांडणारे, 

लाईक्स,कमेंट हेच आयुष्य मानणारे,

चुकीचे मेसेज फॉरवर्ड करणारे,

राजकारणाचे खेळ आणि 

खेळातले राजकारण पाहत गप्प बसणारे,

अजूनही नेत्यांच्या भूलथापांना बळी पडणारे,

आणि आपसात भांडणं करणारे,

आणि 

नव्या वर्षात यंव करायचं, त्यांव करायचं 

असं नित्य नियमानं ठरवणारे आरंभशूर,

 

…… असे मी, तुम्ही, आम्ही, आपण सारे एकाच माळेचे मणी……..

 

सो कॉल्ड मॉडर्न लाईफमध्ये 

अस्वस्थता, बेचैनी आणि मोबाईल सतत सोबत,

जावं तिथं गर्दी आणि गोंगाट, 

सगळी सुखं आहेत तरी मन शांत नाही 

माणसं असूनही किडा-मुंगीसारखं जगणं.

त्याच त्या चक्रात फिरत राहणं.  

स्वप्न,अपेक्षा पूर्ण करण्याच्या धावपळीत 

तब्येतीला फारच गृहीत धरलं जातयं.

डायबेटिस, ब्लड प्रेशर, हार्ट अटॅक हे कायमचे सोबती 

फार लवकर आयुष्यात येऊ लागलेत… वेळीच काहीतरी करायला हवं.

नाहीतर दिवसेंदिवस हे वाढत जाणार.

जीव तोडून कमावलेला पैसा, 

जीव टिकवण्यासाठीच खर्च होणार, 

तेव्हा …… 

नंतरचा पश्चात्ताप टाळण्यासाठी थोडा विचार करा…  

नक्की काय चुकतंय हे शोधा….. 

 

समाजासाठी, घरच्यांसाठी आणि स्वतःसाठी…… 

2024 मध्ये…….फक्त कॅलेंडरच नाही …. तर काही सवयीसुद्धा बदलू या.

‼सर्व वाचकांना नवीन वर्षातला प्रत्येक दिवस मनासारखा, आरोग्य संपन्न जावो हीच सदिच्छा‼

© श्री मंगेश मधुकर

मो. 98228 50034

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ जागे होऊ या… – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ.बिल्वा शुभम् अकोलकर ☆

? मनमंजुषेतून ?

☆ जागे होऊ या… – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ.बिल्वा शुभम् अकोलकर 

मला आज पहाटे ४ वाजता स्वप्न पडून जाग आली.  मी भारतातील सर्वात मोठ्या DLF मॉलमध्ये मोजे आणि  टाय खरेदी करू पाहत होतो.

 _मी आत गेल्यावर मला एक स्वेटर दिसला ज्याची किंमत 9000 रुपये  .स्वेटरच्या शेजारी एक जीन्सची जोडी होती 10000 रुपये .मोजे 8000 रुपये  !  आणि आश्चर्य  टाय ची किंमत चक्क 16,000/- 

मी विक्रेत्याच्या शोधात गेलो आणि घड्याळ विभागात एक सापडला

_तो एका माणसाला घड्याळ दाखवत होता.  225/- रोलेक्स घड्याळ.   4 कॅरेटची हिऱ्याची अंगठी.. रु. 95/- 

आश्चर्यचकित होऊन मी विक्रेत्याला विचारले “रोलेक्स घड्याळ रु. 225/- मध्ये कसे विकले जाऊ शकते? आणि  स्वस्त मोजे रु. 8000/- ला कसे विकले जाऊ शकतात”? 

तो म्हणाला “काल रात्री कोणीतरी दुकानात घुसले आणि त्याने प्रत्येक गोष्टीचे price tag बदलले”.

“आपले पण बहुधा असेच झालेले आहे…प्रत्येकजण गोंधळलेला आहे.  “ते कमी किमतीच्या गोष्टींसाठी खूप किंमत द्यायला तयार असतात आणि मोठ्या किमतीच्या गोष्टींसाठी खूप कमी पैसे देतात”

“खरंच काय मौल्यवान आहे आणि काय नाही हे त्यांना कळत नाही” .  मला आशा आहे की आम्हाला लवकरच योग्य किंमतीचे टॅग परत मिळतील …. “

मी चकित होऊन उठलो आणि गोंधळलो आणि तेव्हापासून विचार केला…

_कदाचित आपलं आयुष्य या स्वप्नासारखं असेल.

_कदाचित कोणीतरी, काहीतरी आपल्या आयुष्यात शिरले आणि प्रत्येक गोष्टीची किंमत (VALUE) बदलली.

कदाचित  स्पर्धा, पद, पदव्या, प्रसिद्धी, पदोन्नती, शो-ऑफ, पैसा आणि शक्ती यांचे मूल्य खूप अधिक !

…आणि आनंद, कौटुंबिक, नातेसंबंध, मन:शांती, समाधान, प्रेम, ज्ञान, दयाळूपणा, मैत्री, संस्कृती धर्म ईश्वर स्वतःचे दिव्यत्व… यांची किंमत कवडी इतकी ….

कदाचित आपण सर्वजण कमी अधिक प्रमाणात हे स्वप्न जगत आहोत…

जिथे खरी किंमत चुकवायला पाहिजे तिथे आपण खूप कंजूसपणा करीत आहोत आणि ज्याला कवडीची पण किंमत नाही त्याच्यावर आपले सर्वस्व उधळित आहोत

मला आशा आहे…… आपण जागे होऊ,….  योग्य वेळेत.

लेखक : अज्ञात 

संग्रहिका: सौ.बिल्वा शुभम् अकोलकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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