मी सौ.मनिषा विजय चव्हाण फार्मासिस्ट म्हणून मेडिकल मध्ये रूजू आहे. वाचनाची आवड आहे,पुस्तके वाचून अभिप्राय लिहिते. कविता लिहिते.
पुस्तकावर बोलू काही
☆ ‘अस्तित्व’ – सुश्री सुधा मूर्ती – अनुवाद – प्रा ए आर यार्दी ☆ संवादिनी – सौ. मनिषा विजय चव्हाण ☆
पुस्तक – अस्तित्व
लेखिका – सुश्री सुधा मूर्ती
अनुवाद – प्रा ए आर यार्दी
प्रकाशक – मेहता पब्लिशिंग हाउस, पुणे
पृष्ठसंख्या – १०४ पाने
पुस्तकाचे मूल्य – ११0 रुपये
संवादिनी – सौ. मनिषा विजय चव्हाण
मुकेश उर्फ मुन्ना याच्या जिवनपटावर आधारीत कादंबरी ‘अस्तित्व’.स्वतःचे अस्तित्व किती महत्वाचे आहे.अस्तित्व असणे ,ते जपणे म्हणजे जणू लढाईच.स्वतःचे अस्तित्व हरविलेल्या माणसाची अवस्था अतिशय दयनीय होते .
हिच गोष्ट आपणास ‘अस्तित्व’ कादंबरी वाचल्यावर कळते.
मुन्नाच्या अस्तित्वाचा प्रश्न निर्माण होतो.
मग माझी आई कोण?तिने मला का टाकले? तिच्यावर अशी कोणती वेळ आली कि तिने मला दुस-याच्या स्वाधीन केले? हे शोधण्यासाठीचा त्याचा प्रवास,त्याने केलेला संपत्तीचा त्याग.आईवडिलांवरील त्याची श्रद्धा,प्रेम,त्याच्या स्वभावातील खरेपणा.सत्य स्विकारण्याची त्याची मानसिकता.सर्व काही ह्रदयाला भिडते.
स्त्रीचे परमपावन स्वरूप म्हणजे ‘आई’.
त्या आईची तीन रूपे यात अनुभवायला मिळतात.
जन्म देणारी आई, दूध पाजणारी आई.
पाळणारी, घडवणारी,संस्कारक्षम पूर्ण माणूस बनवणारी आई.
महान अश्या थोर मनाच्या माता यात दिसतात.दोघीही त्यांच्या ठिकाणी योग्य आहेत.दिला शब्द पाळताना,वचन निभावताना,सगळ्या गोष्टींसाठी झगडताना
करावा लागलेला त्याग, मनाचा मोठेपणा, विश्वास दिसून येतो.
आणखी एक म्हणजे जन्म कोणत्याही कुळात,गोत्रात ,देशात होऊ देत.माणूस घडतो तो फक्त आणि फक्त त्याच्यावर केल्या गेलेल्या योग्य संस्कारांमुळे हे या कादंबरी मध्ये प्रकर्षाने जाणवते.
रावसाहेबांच्या रूपात एक सच्चा दिलदार माणूस,खरेपणा जपणारा प्रेमळ बाप दिसतो.रक्ताचा नसताना,पोटी जन्म न झालेला, ज्याला आपला मानला तो आपलाच.तसेच अतिशय व्यवहारकुशल माणूस.
आपण म्हणतो भावनेच्या आहारी जाऊन निर्णय घेऊ नका पण इथे भावनेला प्राधान्य देऊनच रावसाहेबांनी संपत्तीचे वाटे केले.ही संपत्ती माझी नसून मी याचा मालक नाही.ही सारी संपत्ती मुन्नाची आहे,तोच या सा-या संपत्तीचा एकमेव मालक आहे.ही त्यांची भावना,हा विचार उद्दात्त आहे.सत्यप्रिय,निष्ठावान,असेच त्यांचे व्यक्तित्व आहे.
संपत्तीचा मोहन बाळगता ती स्वतःहून दुस-याच्या स्वाधीन करणारा त्यांचा मुलगा मुकेश उर्फ मुन्ना पाळलेला नसून त्यांचा सख्खा मुलगाच शोभतो ना?
यापेक्षा नात्यातील गोडवा अजून काय असू शकतो?
आजच्या काळात अश्या संस्कारांची अतिशय गरज आहे अतिशय सोप्या भाषेत मांडणी…
वाचताना भावनाविवश व्हायला होते….
खूपच सुंदर आणि वाचनिय…
खरचं सगळ्यांनी वाचायला हवेच….
संवादिनी – सौ. मनिषा विजय चव्हाण
सांगली, मो. नंबर….9767090659
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ामोश रिश्ते। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 194 ☆
☆ ख़ामोश रिश्ते☆
‘मतलब के बग़ैर बने संबंधों का फल हमेशा मीठा होता है’… यह कथन कोटिशः सत्य है। परंतु हैं कहां आजकल ऐसे संबंध? आजकल तो सब संबंध स्वार्थ के हैं। कोई संबंध भी पावन नहीं रहा। सो! उनकी तो परिभाषा ही बदल गई है। ‘पहाड़ियों की तरह ख़ामोश हैं/ आज के संबंध और रिश्ते/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ ही नहीं आती।’ यह बयान करते हैं, दर्द के संबंधों और उनकी हक़ीक़त को, जिनका आधिपत्य पूरे समाज पर स्थापित है। रिश्ते ख़ामोश हैं, पहाड़ियों की तरह और उनकी अहमियत तब उजागर होती है, जब आप उन्हें पुकारते हैं, अन्यथा आपके शब्दों की गूंज लौट आती है अर्थात् आपके पहल करने पर ही उत्तर प्राप्त होता है, वरना तो अंतहीन मौन व गहन सन्नाटा ही छाया रहता है। इसका मुख्य कारण है– संसार का ग्लोबल विलेज के रूप में सिमट जाना, जहां इंसान प्रतिस्पर्द्धा के कारण एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है और अधिकाधिक धन कमाना… उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। वह आत्मकेंद्रितता के रूप में जीवन में दस्तक देता है और अपने पांव पसार कर बैठ जाता है, जैसे वह उसका आशियां हो। वैसे भी मानव सबसे अलग-थलग रहना पसंद करता है, क्योंकि उसके स्वार्थ एक-दूसरे से टकराते हैं। वह सब संबंधों को नकार केवल ‘मैं ‘अर्थात् अपने ‘अहं’ का पोषण करता है; उसकी ‘मैं’ उसे सब से दूर ले जाती है। उस स्थिति में सब उसे पराये नज़र आते हैं और स्व-पर व राग-द्वेष के व्यूह में फंसा आदमी बाहर निकल ही नहीं पाता। उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता और स्वार्थ-लिप्तता के कारण वह उनसे मुक्ति भी नहीं प्राप्त कर सकता।
आधुनिक युग में कोई भी संबंध पावन नहीं रहा; सबको ग्रहण लग गया है। खून के संबंध तो सृष्टि- नियंता बना कर भेजता है और उन्हें स्वीकारना मानव की विवशता होती है। दूसरे स्वनिर्मित संबंध, जिन्हें आप स्वयं स्थापित करते हैं। अक्सर यह स्वार्थ पर टिके होते हैं और लोग आवश्यकता के समय इनका उपयोग करते हैं। आजकल वे ‘यूज़ एंड थ्रो’ में विश्वास करते हैं, जो पाश्चात्य संस्कृति की देन है। समाज में इनका प्राधान्य है। इसलिए जब तक उसकी उपयोगिता-आवश्यकता है, उसे महत्व दीजिए; इस्तेमाल कीजिए और उसके पश्चात् खाली बोतल की भांति बाहर फेंक दीजिए…जिसका प्रमाण हम प्रतिदिन गिरते जीवन-मूल्यों के रूप में देख रहे हैं। आजकल बहन, बेटी व माता-पिता का रिश्ता भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहा। इनके स्थान पर एक ही रिश्ता काबिज़ है औरत का…चाहे दो महीने की बालिका हो या नब्बे वर्ष की वृद्धा, उन्हें मात्र उपभोग की वस्तु समझा जाता है, जिसका प्रमाण हमें दिन-प्रतिदिन के बढ़ते दुष्कर्म के हादसों के रूप में दिखाई देता है। परंतु आजकल तो मानव बहुत बुद्धिमान हो गया है। वह दुष्कर्म करने के पश्चात् सबूत मिटाने के लिए, उनकी हत्या करने के विमिन्न ढंग अपनाने लगा है। वह कभी तेज़ाब डालकर उसे ज़िंदा जला डालता है, तो कभी पत्थर से रौंद कर, उसकी पहचान मिटा देता है और कभी गंदे नाले में फेंक… निज़ात पाने का हर संभव प्रयास करता है।
आजकल तो सिरफिरे लोग गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री, बहन-भाई आदि सब संबंधों को ताक पर रख कर– हमारी भारतीय संस्कृति की धज्जियां उड़ा रहे हैं। वे मासूम बालिकाओं को अपनी धरोहर समझते हैं, जिनकी अस्मत से खिलवाड़ करना वे अपना हक़ समझते हैं। इसलिए हर दिन उस अबला को ऐसी प्रताड़ना व यातना को झेलना पड़ता है… वह अपनों की हवस का शिकार बनती है। चाचा, मामा, मौसा, फूफा या मुंह बोले भाई आदि द्वारा की गयी दुष्कर्म की घटनाओं को दबाने का भरसक प्रयास किया जाता है, क्योंकि इससे उनकी इज़्ज़त पर आंच आती है। सो! बेटी को चुप रहने का फरमॉन सुना दिया जाता है, क्योंकि इसके लिए अपराधी उसे ही स्वीकारा जाता है, न कि उन रिश्तों के क़ातिलों को… वैसे भी अस्मत तो केवल औरत की होती है… पुरुष तो जहां भी चाहे, मुंह मार सकता है… उसे कहीं भी अपनी क्षुधा शांत करने का अधिकार प्राप्त है।
आजकल तो पोर्न फिल्मों का प्रभाव बच्चों, युवाओं व वृद्धों पर इस क़दर हावी रहता है कि वे अपनी भावनाओं पर अंकुश लगा ही नहीं पाते और जो भी बालिका, युवती अथवा वृद्धा उन्हें नज़र आती है, वे उसी पर झपट पड़ते हैं। चंद दिनों पहले दुष्कर्मियों ने इस तथ्य को स्वीकारते हुए कहा था कि यह पोर्न- साइट्स उन्हें वासना में इस क़दर अंधा बना देती हैं कि वे अपनी जन्मदात्री माता की इज़्ज़त पर भी हाथ डाल बैठते हैं। इसका मुख्य कारण है…माता- पिता व गुरुजनों का बच्चों को सुसंस्कारित न करना; उनकी ग़लत हरक़तों पर बचपन से अंकुश न लगाना …उन्हें प्यार-दुलार व सान्निध्य देने के स्थान पर सुख -सुविधाएं प्रदान कर, उनके जीवन के एकाकीपन व शून्यता को भरने का प्रयास करना…जिसका प्रमाण मीडिया से जुड़ाव, नशे की आदतों में लिप्तता व एकांत की त्रासदी को झेलते हुए, मन-माने हादसों को अंजाम देने के रूप में परिलक्षित हैं। वे इस दलदल में इस प्रकार धंस जाते हैं कि लाख चाहने पर भी उससे बाहर नहीं आ पाते।
आधुनिक युग में संबंध-सरोकार तो रहे नहीं, रिश्तों की गर्माहट भी समाप्त हो चुकी है। संवेदनाएं मर रही हैं और प्रेम, सौहार्द, त्याग, सहानुभूति आदि भाव इस प्रकार नदारद हैं, जैसे चील के घोंसले से मांस। सो! इंसान किस पर विश्वास करे? इसमें भरपूर योगदान दे रही हैं महिलाएं, जो पति के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही हैं। वे शराब के नशे में धुत्त, सिगरेट के क़श लगा, ज़िंदगी को धुंए में उड़ाती, क्लबों में जुआ खेलती, रेव पार्टियों में स्वेच्छा व प्रसन्नता से सहभागिता प्रदान करती दिखाई पड़ती हैं। घर परिवार व अपने बच्चों की उन्हें तनिक भी फ़िक्र नहीं होती और बुज़ुर्गों को तो वे अपने साये से भी दूर रखती हैं। शायद!वे इस तथ्य से बेखबर रहते हैं कि एक दिन उन्हें भी उसी अवांछित-अप्रत्याशित स्थिति से गुज़रना पड़ेगा; एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ेगा और उनका दु:ख उनसे भी भयंकर होगा। आजकल तो विवाह रूपी संस्था को युवा पीढ़ी पहले ही नकार चुकी है। वे उसे बंधन स्वीकारते हैं। इसलिए ‘लिव-इन’ व विवाहेतर संबंध स्थापित करना, सुरसा के मुख की भांति तेज़ी से अपने पांव पसार रहे हैं। सिंगल पैरेंट का प्रचलन भी तेज़ी से बढ़ रहा है। आजकल तो महिलाओं ने विवाह को पैसा ऐंठने का धंधा बना लिया है, जिसके परिणाम-स्वरूप लड़के विवाह- बंधन में बंधने से क़तराने लगे हैं। वहीं उनके माता- पिता भी उनके विवाह से पूर्व, अपने आत्मजों से किनारा करने लगे हैं, क्योंकि वे उन महिलाओं की कारस्तानियों से वाकिफ़ होते हैं, जो उस घर में कदम रखते ही उसे नरक बना कर रख देती हैं। पैसा ऐंठना व परिवारजनों पर झूठे इल्ज़ाम लगा कर, उन्हें जेल की सीखचों के पीछे भेजना उनके जीवन का प्रमुख मक़सद होता है।
ह़ैरत की बात तो यह है कि बच्चे भी कहां अपने माता-पिता को सम्मान देते हैं? वे तो यही कहते हैं, ‘तुमने हमारा पालन-पोषण करके हम पर एहसान नहीं किया है; जन्म दिया है, तो हमारे लिए सुख- सुविधाएं जुटाना तो आपका प्राथमिक दायित्व हुआ। सो! हम भी तो अपनी संतान के लिए वही सब कर रहे हैं। इस स्थिति में अक्सर माता-पिता को न चाहते हुए भी, वृद्धाश्रम की ओर रुख करना पड़ता है। यदि वे तरस खाकर उन्हें अपने साथ रख भी लेते हैं, तो उनके हिस्से में आता है स्टोर-रूम, जहां अनुपयोगी वस्तुओं को, कचरा समझ कर रखा जाता है। इतना ही नहीं, उन्हें तो अपने पौत्र-पौत्रियों से बात तक भी नहीं करने दी जाती, क्योंकि उन्हें आधुनिक सभ्यता व उनके कायदे-कानूनों से अनभिज्ञ समझा जाता है। उन्हें तो ‘हेलो-हाय’ व मॉम-डैड की आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति पसंद होती है। सो! मम्मी तो पहले से ही ममी है, और डैड भी डैड है…जिनका अर्थ मृत्त होता है। सो! वे कैसे अपने बच्चों को सुसंस्कारों से पल्लवित-पोषित कर सकते हैं? कई बार तो उनके आत्मज उन्हें माता-पिता के रूप में स्वीकारने व अहमियत देने में भी लज्जा का अनुभव करते हैं; अपनी तौहीन समझते हैं।
आइए! आत्मावलोकन करें, क्या स्थिति है मानव की आधुनिक युग में, जहां ज़िंदगी ऊन के गोलों की भांति उलझी हुई प्रतीत होती है। मानव विवश है; आंख व कान बंद कर जीने को…और होम कर देता है, वह अपनी समस्त खुशियां और परिवार में समन्वय व सामंजस्यता स्थापित करने के लिए सर्वस्व समर्पण। वास्तव में हर इंसान मंथरा है… ‘मंथरा! मन स्थिर नहीं जिसका/ विकल हर पल/ प्रतीक कुंठित मानव का।’ चलिए ग़ौर करते हैं, नारी की स्थिति पर ‘गांधारी है/ आज की हर स्त्री/ खिलौना है, पति के हाथों का।’ और ‘द्रौपदी/ पांच पतियों की पत्नी/ सम-विभाजित पांडवों में / मां के कथन पर/ स्वीकारना पड़ा आदेश/ …..और नारी के भाग्य में/ लिखा है/ सहना और कुछ न कहना ‘…इस से स्पष्ट होता है कि नारी को हर युग में पति का अनुगमन करने व मौन रहने का संदेश दिया गया है, अपना पक्ष रखने का नहीं। जहां तक नारी अस्मिता का प्रश्न है, वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। चलिए विचार करते हैं, आज के इंसान पर… ‘आज का हर इंसान/ किसी न किसी रूप में रावण है/ नारी सुरक्षित नहीं/ आज परिजनों के मध्य में/ … शायद ठंडी हो चुकी है /अग्नि/ जो नहीं जला सकती/ इक्कीसवीं सदी के रावण को।’ यह पंक्तियां चित्रण करती हैं– आज की भयावह परिस्थितियों का… जहां संबंध इस क़दर दरक चुके हैं कि चारों ओर पसरे…’परिजन/ जिनके हृदय में बैठा है… शैतान/ वे हैं नर-पिशाच।’ …जिसके कारण जन्मदाता बन जाता है/ वासना का उपासक/ और राखी का रक्षक/ बन जाता है भक्षक/ या उसका जीवन साथी ही/ कर डालता है सौदा/ उसकी अस्मत का/ जीवन का।’ रावण कविता की अंतिम पंक्तियां समसामयिक समस्या की ओर इंगित करती हैं…हिरण्यकशिपु व हिरण्याक्ष भी अधिकाधिक धन-संपत्ति पाने और जीने का हक़ मिटाने में भी संकोच नहीं करते। कहां है उनकी आस्था… नारायण अथवा सृष्टि-नियंता में…आधुनिक युग में तो सारा संसार ऐसे लोगों से भरा पड़ा है। यह सब उद्धरण 2007 में प्रकाशित मेरे काव्य-संग्रह अस्मिता से उद्धृत हैं, जो वर्तमान का दस्तावेज़ हैं। विश्रृंखलता के इस दौर में संबंध दरक़ रहे हैं, अविश्वास का वातावरण चहुंओर व्याप्त है…जहां भावनाओं व संवेदनाओं का कोई मूल्य नहीं। सो! मानव के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कैसे संभव है?
‘हमारी बात सुनने की/ फ़ुर्सत कहां तुमको/ बस कहते रहते हो/ अभी मसरूफ़ बहुत हूं’ इरफ़ान राही सैदपुरी की ये पंक्तियां कारपोरेट जगत् के बाशिंदों अथवा बंधुआ मज़दूरों की हकीक़त को बयान करती है। वैसे भी इंसान व्यस्त हो या न हो, परंतु अपनी व्यस्तता के ढोल पीट, शेखी बघारता है…जैसे उसे दूसरों की बात सुनने की फ़ुर्सत ही नहीं है। सो! चिन्तन-मनन करने का प्रश्न कहां उठता है? ‘बहुत आसान है /ज़मीन पर मकान बना लेना/ परंतु दिल में जगह बनाने में /ज़िंदगी गुज़र जाती है’ यह कथन कोटिश: सत्य है। सच्चा मित्र बनाने के लिए मानव को जहां स्नेह-सौहार्द लुटाना पड़ता है, वहीं अपनी खुशियों को भी होम करना पड़ता है।सुख-सुविधाओं को दरक़िनार कर, दूसरों पर खुशियां उंडेलने से ही सच्चा मित्र अथवा सुख-दु:ख का साथी प्राप्त हो सकता है। वैसे तो ज़माने के लोग अजब-ग़ज़ब हैं. उपयोगितावाद में विश्वास रखते हैं और बिना मतलब के तो कोई ‘हेलो हाय’ करना भी पसंद नहीं करता। लोग इंसान को नहीं, उसकी पद-प्रतिष्ठा को सलाम करते हैं; जबकि आजकल एक छत के नीचे अजनबी-सम रहने का प्रचलन है। सो! वाट्सएप, ट्विटर व फेसबुक से दुआ-सलाम करना आज का फैशन हो गया है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद, अहं में लीन, सामाजिक सरोकारों से बहुत दूर… प्रतीक्षा करते हैं, एक-दूसरे की…कि इन विषम परिस्थितियों में वार्तालाप करने की पहल कौन करे…उनके मनोमस्तिष्क में यह प्रश्न बार-बार दस्तक देता है।
काश! हम अपने निजी स्वार्थों, स्व-पर व राग-द्वेष के बंधनों से, ‘पहले आप,पहले आप’ की औपचारिकता से स्वयं को मुक्त कर सकते… तो यह जहान कितना सुंदर, सुहाना व मनोहारी प्रतीत होता और वहां केवल प्रेम, समर्पण व त्याग का साम्राज्य होता। हमारे इर्द-गिर्द खामोशियों की चादर न लिपटी रहती और हमें मौन रूपी सन्नाटे के दंश नहीं झेलने पड़ते। वैसे रिश्ते पहाड़ियों की भांति खामोश नहीं होते, बल्कि पारस्परिक संवाद से जीवन-रेखा के रूप में बरक़रार रहते हैं। संबंधों को शाश्वत रूपाकार प्रदान करने के लिए ‘मैं हूं न’ के अहसास दिलाने अथवा आह्वान मात्र से, संकेत समझ कर वे चिरनिद्रा से जाग जाते हैं और उनकी गूंज लम्बे समय तक रिश्तों को जीवंतता प्रदान करती है।
रिश्तों को स्वस्थ व जीवंत रखने के लिए प्रेम, त्याग समर्पण आदि की आवश्यकता होती है, वरना वे रेत के कणों की भांति, पल-भर में मुट्ठी से फिसल जाते हैं। अपेक्षा व उपेक्षा, रिश्तों में सेंध लगा, एक-दूसरे को घायल कर तमाशा देखती हैं। सो! ‘न किसी की उपेक्षा करो, न किसी से अपेक्षा रखो’…यही जीवन में सफलता प्राप्ति का मूल साधन है और मूल-मंत्र व शुभकामनाएं तभी फलीभूत होती हैं, जब वे तहे- दिल से निकलें। ‘खामोश सदाएं व दुआएं, दवाओं से अधिक कारग़र व प्रभावशाली सिद्ध होती हैं, परंतु खामोशियां अक्सर अंतर्मन को नासूर-सम सालती व आहत करती रहती हैं। वे सारी खुशियों को लील, जीवन को शून्यता से भर देती हैं और हृदय में अंतहीन मौन व सन्नाटा पसर जाता है; जिससे निज़ात पाना मानव के वश में नहीं होता। सो! सम+बंध अर्थात् समान रूप से बंधे रहने के लिए, संशय, संदेह व शक़ को जीवन से बाहर का रास्ता दिखा देना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि स्नेह-सौहार्द, परोपकार, त्याग व समर्पण संबंधों को चिर-स्थायी बनाए रखने की संजीवनी है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी दो एक संवेदनशील लघुकथा – मन )
☆ लघुकथा – मन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
मनोहर को गुज़रे बारह दिन हो गए थे। हर गुज़रे दिन साढ़े तीन साल के पोते नुराज़ ने अपने दादा को याद किया था। उसे बताया गया था कि उसके दादा भगवान जी से मिलने गए हैं। आज नुराज़ ने अपने पिता से कहा, “पापा, दादा जी को भगवान के पास गए बहुत दिन हो गए हैं। वे भगवान जी से अच्छी तरह मिल चुके होंगे। अब तो उन्हें वापस बुला लो।”
“अभी भगवान जी के साथ उनका ख़ूब मन लगा हुआ है, दादा भगवान जी के साथ मस्ती कर रहे हैं, अभी और मस्ती करने दो।”
“दादा जी तो कहते थे कि मेरे बिना कहीं भी उनका मन नहीं लगता। क्या भगवान जी मुझसे भी ज़्यादा अच्छे हैं?”
अब माहौल में सन्नाटा था। एक तरफ़ बिछोह से उत्पन्न गाढ़ी उदासी के साथ दादा के लौट आने की मासूम आश्वस्ति थी, दूसरी तरफ़ बेबस ख़ामोशी में लिपटा रुदन।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे…”।)
(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन)हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं। इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक प्रेरक संस्मरणात्मक प्रसंग ‘मेल जोल बढ़ाइए, उम्र भी बढ़ जाएगी…’।)
☆ जीवन यात्रा – मेल जोल बढ़ाइए, उम्र भी बढ़ जाएगी… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆
(वानप्रस्थ ने मनाया 92 वर्षीय वरिष्ठतम सदस्य एच पी सरदाना का जन्मदिन)
हिसार। बड़ी उम्र के लोगों से अक्सर यह सवाल किया जाता है कि उनकी सेहत का क्या राज़ है। जीवन के 93 बसंत देख चुके हरप्रकाश सरदाना का सीधा सा जवाब है कि दैनिक जिंदगी में खानपान और जीवन शैली में अनुशासन बनाए रखिए और सबसे जरूरी यह कि मेलजोल बनाए रखिए।
वरिष्ठ नागरिकों की संस्था वानप्रस्थ में उन्होंने अपना 93वां जन्मदिन मनाया। संस्था की तरफ से उन्हें एक पौधा, शाल और फूलों के गुलदस्ते देकर सम्मानित किया। उन पर फूलों की वर्षा कर सभी सदस्यों ने हैप्पी बर्थडे टू यू का गीत गाते हुए उनके अच्छे स्वास्थ्य और उनकी दीर्घायु की कामना की।
सरदाना जी ने इस अवसर पर अपने अनुभव सांझा किए। देश के विभाजन के समय वे 16 साल की उम्र में कराची से समुद्री जहाज़ के द्वारा शरणार्थियों के एक दल में गुजरात पहुंचे थे।
“सब कुछ सामान्य था। किसी को यकीन ही नहीं आ रहा था कि उन्हें अपने पुरखों के घर छोड़ कहीं और जाना पड़ेगा। फिर कुछ हिंसक घटनाएं हुई और सरकार ने सभी हिन्दू सिखों को कराची छोड़ गुजरात जाने के लिए कहा और सभी चल पड़े, अपने घरों को ताले लगा कर चाबी पड़ोसियों को देकर। उम्मीद जल्द लौटने की थी, पर यह तो स्थाई विस्थापन था।
गुजरात से आगरा आए। पिता मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस में थे । बाद में सरदाना भी एम ई एस में ही भर्ती हुए और इंडियन एयर फोर्स के कई स्टेशनों पर काम किया। उत्तर प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश व दिल्ली सहित अनेक राज्यों में काम किया। दार्जिलिंग में एवरेस्ट विजेता तेनजिंग से मिले। बंगाल में कलाईकोंडा एयरफील्ड पर पाकिस्तानी हमले को देखा।
एकमात्र पुत्री सुनीता की शादी सरदाना जी ने एयरफोर्स के अपने एक मित्र के पुत्र नवीन मेहतानी से करा दी जो मैरिन इंजीनियर थे और समुद्री जहाज़ों पर ही दुनिया में घूमते रहते थे। चीफ़ इंजीनियर पद से सिंगापुर से सेवानिवृति के बाद नवीन अब भी कंसल्टेंसी कर रहे हैं । किसी दुर्घटना में फंसे समुद्री जहाज़ को बचाने या निकालने के काम में लगे रहते हैं। सुनीता और नवीन के एक बेटा मन्नन और एक बेटी तारिणी हैं जो जॉब कर रहे हैं।
पिता सरदाना की देखभाल पुत्री सुनीता मेहतानी करती हैं पर उनके जन्मदिन पर पूरा परिवार इकट्ठा होता है। वानप्रस्थ संस्था में वे लंच का इंतजाम करती हैं और संस्था के सदस्य बड़े उत्साह के साथ गीतों और गजलों से उन्हें बधाई देते हैं। वे खास सदस्यों से खास गीतों की फरमाइश भी करते हैं और खुद कोई बांग्ला या इंग्लिश भाषा का गीत सुनाते हैं।
सुनीता मेहतानी कहती हैं कि कुछ वर्ष पहले उनके पिता सरदाना जी की तबियत काफ़ी खराब रहती थी। “हर दूसरे तीसरे दिन उन्हें डॉक्टर के पास ले जाना पड़ता था। जबसे वे वानप्रस्थ में आए हैं, उनकी तबियत में बड़ा सुधार हुआ है। अब महीने दो महीने में डॉक्टर से मिलना होता है।”
“सरदाना जी बुधवार व शुक्रवार को वानप्रस्थ की निर्धारित बैठक के लिए 9 बजे ही तैयार होकर बैठ जाते हैं और मुझे कहते हैं कि आज जाना है, जल्दी तैयार हो जाओ।”
“किसी और दिन इनको उदास देखती हूं, तो किसी मित्र को फोन कर कहती हूं, डैडी आपको याद कर रहे हैं। आप के साथ चाय पीने के लिए आना चाहते हैं। मित्र स्वाभाविक रूप से तुरंत बुला लेते हैं और फिर चाय पर गपशप से उदासी फुर्र हो जाती है।”
प्रथम पंक्ति – वरिष्ठतम सदस्य एच पी सरदाना को सम्मानित करते वानप्रस्थ के सदस्य।
द्वितीय पंक्ति – वानप्रस्थ की गोष्ठी का दृश्य, सावन के गीत प्रस्तुत करती प्रो दीप कौर पुनिया व उनकी सखियां
वानप्रस्थ में सरदाना जी के जन्मोत्सव में प्रो दीप कौर पुनिया ने हरियाणा के सावन के लोकगीतों के मुखड़े पेशकर समा बांध दिया। प्रो पुष्पा खरब, सुनीता जैन, संतोष डांग, इंदु गहलावत व कमला सैनी ने उनका साथ दिया। सरदाना जी की फरमाइश पर दूरदर्शन के पूर्व समाचार निदेशक अजीत सिंह ने फैज़ अहमद फैज़ की मशहूर ग़ज़ल, हम देखेंगे गाकर पेश की। आलम यह था कि सभी श्रोता भी स्थायी टेक पर लगातार साथ देने लगे।
प्रो पुष्पा खरब, प्रो राज गर्ग, प्रो स्वराज कुमारी, वीना अग्रवाल, प्रो रामकुमार सैनी, करतार सिंह व एस पी चौधरी ने विभिन्न रंग के गीतों और ग़ज़लों की प्रस्तुति दी।
प्रो सुनीता श्योकंद, सुनीता मेहतानी, प्रो सुनीता जैन तथा वानप्रस्थ के जनरल सेक्रेटरी जे के डांग ने सभा का संचालन किया।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “काली टोपी लाल रूमाल“।)
अभी अभी # 116 ⇒ काली टोपी लाल रूमाल… श्री प्रदीप शर्मा
सन् १९५९ में एक फिल्म आई थी, काली टोपी लाल रूमाल, वैसे वह समय भी टोपी और रूमाल का ही था। महिलाएं तो ठीक, पुरुष भी खुले सिर नहीं घूमते थे। टोपी कहें या पगड़ी, असली इज्जत वही थी।
गांधीजी ने कभी टोपी नहीं पहनी, लेकिन गांधीवादी लोग सफेद टोपी पहनने लगे। नेहरू आधुनिक विचारों के होते हुए भी, टोपी पहनते थे। राजनीति में टोपी पहनी भी गई, जनता को पहनाई भी गई, और दूसरों की टोपी उछाली भी गई।।
वह समय था जब हर सज्जन और सभ्रांत पुरुष काली टोपी पहनता था। ग्रामीण अंचल में किसान पगड़ी बांधते थे, और पसीना पोंछने के लिए रूमाल नहीं, लाल गमछा रखते थे, कहीं कहीं यह अंगोछे की शक्ल का भी होता था।
हमारा विद्यालय तब एक तरह से सरस्वती का मंदिर ही था, बस उसका नाम गणेश विद्या मंदिर था। शहर की महाराष्ट्र साहित्य सभा उसका संचालन करती थी, और अधिकांश वरिष्ठ शिक्षकों का परिधान धोती, कुर्ता, कुर्ते पर खुले गले का कोट, काली टोपी और आंखों पर चश्मा ही होता था। वे तब के शिक्षा, संस्कार और नैतिकता के ब्रांड एम्बेसडर थे। उनका आचरण छात्रों के लिए अनुकरणीय होता था।।
वह समय था, जब घरों में, मोटी मोटी दीवारों में खूटियां हुआ करती थीं, जिन पर छाता, कुर्ता और टोपी टांगी जाती थी।
हम आज भले ही वाहन चलाते वक्त सुरक्षा हेतु हेलमेट ना पहनें, लोग घर से बाहर जाते समय सर पर टोपी लगाना और हाथ में छाता ले जाना नहीं भूलते थे।
जब परिवेश बदलता है तो परिधान भी बदलता है। सर की टोपी और पगड़ी आजकल गायब हो चुकी है, विदेशी परिवेश में धोती कुर्ते की जगह सूट बूट ने ले ली है और गले के रूमाल का स्थान टाई ने ले लिया है। पहले कैप आई और पश्चात् मंकी कैप।।
सर पर टोपी अथवा पगड़ी अनुशासन और अस्मिता का प्रतीक है। पुलिस, और फौज में आज भी वर्दी और कैप अनिवार्य है। पब्लिक स्कूलों में आज भी यूनिफॉर्म अनिवार्य है। बेचारा रूमाल तो आजकल शर्म के मारे छोटा होकर पर्स का नैपकिन हो गया है।
हमारे परिवार में पिताजी की आज एक ही तस्वीर उपलब्ध है, जिसमें उन्होंने काली टोपी लगा रखी है।
क्या समय था, जब मांगलिक अवसरों पर की जाने वाली पुरुषों की कपड़ा रस्म में धोती कुर्ता, रूमाल अथवा अंगोछे के साथ टोपी भी रखी जाती थी।।
महिलाएं आज भी धार्मिक स्थलों में जाते वक्त सर पर पल्लू ले लेती हैं, कई पूजा स्थलों में पुरुष को भी सर ढंकना होता है, जेब का रूमाल तब बहुत काम आता है। लोग तो रूमाल रखकर, बस की सीट तक रोक लेते हैं। सर कहें अथवा मस्तक, यह अगर सदके में झुकता है तो गर्व से उठता भी है।
आज भले ही टोपी हमारे सर से गायब हो गई हो, रूमाल ने आज भी हमारा साथ नहीं छोड़ा। हमारी साख ही हमारी पगड़ी है। दूल्हा आज भी जीवन में एक बार ही सही, पगड़ी जरूर पहनता है। जो आज भी अपनी अस्मिता और गौरव को बनाए रख रहे हैं, उनके लिए टोपी और पगड़ी आभूषण है, सम्मान, सादगी और अभिमान का प्रतीक है।।
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी “संतोष के दोहे…”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈