हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 195 ☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – विकलांग श्रद्धा का दौर ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई जन्मशती के अवसर पर उनका सुप्रसिद्ध व्यंग्य – “विकलांग श्रद्धा का दौर)

☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – विकलांग श्रद्धा का दौर ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय  

परसाई जन्मशती पर उनका एक महत्वपूर्ण व्यंग्य  –  “विकलांग श्रद्धा का दौर”

अभी-अभी एक आदमी मेरे चरण छूकर गया है। मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूं, जैसे कोई चालू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पतिव्रता होने लगती है। यह हरकत मेरेसाथ पिछले कुछ महीनों से हो रही है कि जब तब कोई मेरे चरण छू लेता है। पहले ऐसानहीं होता था। हों, एक बार हुआ था, पर वह मामला वहीं रफा-दफा हो गया। कई साल पहले एक साहित्यिक समारोह में मेरी ही उम्र के एक सज्जन ने सबके सामने मेरे चरणछू लिए। वैसे चरण छूना अश्लील कृत्य की तरह अकेले में ही किया जाता है। पर वह सज्जन सार्वजनिक रूप से कर बैठे, तो मैंने आसपास खड़े लोगों की तरफ गर्व से देखा तिलचट्टों देखो मैं श्रद्धेय हो गया। तुम घिसते रहो कलम पर तभी उस श्रद्धालु ने मेरापानी उतार दिया। उसने कहा, “अपना तो यह नियम है कि गौ, ब्राह्मण, कन्या के चरण जरूर छूते हैं। यानी उसने मुझे बड़ा लेखक नहीं माना था। बम्हन माना था। श्रद्धेय बनने की मेरी इच्छा तभी मर गई थी। फिर मैंने श्रद्धेयों की दुर्गति भीदेखी। मेरा एक साथी पी-एच.डी. के लिए रिसर्च कर रहा था। डॉक्टरेट अध्ययन औरज्ञान से नहीं,  आचार्य-कृपा से मिलती है। आचार्यों की कृपा से इतने डॉक्टर हो गए हैं किबच्चे खेल-खेल में पत्थर फेंकते हैं तो किसी डॉक्टर को लगता है। एक बार चौराहे परयहाँ पथराव हो गया। पाँच घायल अस्पताल में भर्ती हुए और वे पाँचों हिंदी के डॉक्टर थे। नर्स अपने अस्पताल के डॉक्टर को पुकारती ‘डॉक्टर साहब’ तो बोल पड़ते थे ये हिंदी के डॉक्टर|

मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टांग खींची है। लंगोटी धोने के बहाने लँगोटी चुराई है। श्रद्धेय बनने की भयावहता मैं समझ गया था। वरना मैं समर्थ हूं।अपने आपको कभी का श्रद्धेय बना लेता। मेरे ही शहर में कॉलेज में एक अध्यापक थे।उन्होंने अपने नेम प्लेट पर खुद ही ‘आचार्य’ लिखवा लिया था। मैं तभी समझ गया था कि इस फूहड़पन में महानता के लक्षण हैं। आचार्य बंबईवासी हुए और वहाँ उन्होंने अपनेको ‘भगवान रजनीश’ बना डाला। आजकल वह फूहड़ से शुरू करके मान्यता प्राप्त भगवान हैं। मैं भी अगर नेम प्लेट में नाम के आगे ‘पंडित’ लिखवा लेता तो कभी का ‘पंडितजी’ कहलाने लगता। सोचता हूं, लोग मेरे चरण अब क्यों छूने लगे हैं? यह श्रद्धा एकाएक कैसे पैदा होगई? पिछले महीनों में मैंने ऐसा क्या कर डाला? कोई खास लिखा नहीं है। कोई साधना नहीं की। समाज का कोई कल्याण भी नहीं किया। दाड़ी नहीं बढ़ाई। भगवा भी नहीं पहना। बुजुर्गी भी कोई नहीं आई। लोग कहते हैं, ये वयोवृद्ध हैं। और चरण छू लेते हैं। वे अगर कमीने हुए तो उनके कमीनेपन की उम्र भी 60-70 साल हुई। लोग वयोवृद्ध कमीनेपन के भी चरण छू लेते हैं। मेरा कमीनापन अभी श्रद्धा के लायक नहीं हुआ है।

इस एक साल में मेरी एक ही तपस्या है टांग तोड़कर अस्पताल में पड़ा रहा हूं। हड्डी जुडने के बाद भी दर्द के कारण टांग फुर्ती से समेट नहीं सकता। लोग मेरी इस मजबूरी का नाजायज फायदा उठाकर झट मेरे चरण छू लेते हैं। फिर आराम के लिए मैं तख्त परलेटा ही ज्यादा मिलता हूं। तख्त ऐसा पवित्र आसन है कि उस पर लेटे दुरात्मा के भी चरण छूने की प्रेरणा होती है। क्या मेरी टांग में से दर्द की तरह श्रद्धा पैदा हो गई है? तो यह विकलांग श्रद्धा है।

जानता हूं, देश में जो मौसम चल रहा है, उसमें श्रद्धा की टांग टूट चुकी है। तभी मुझे भी यह विकलांग श्रद्धा दी जा रही है। लोग सोचते होंगे इसकी टांग टूट गई है। यह असमर्थ हो गया। दयनीय है। आओ, इसे हम श्रद्धा दे दें।हां, बीमारी में से श्रद्धा कभी-कभी निकलती है। साहित्य और समाज के एक सेवक से मिलने में एक मित्र के साथ गया था। जब वह उठे तब उस मित्र ने उनके चरण छू लिए। बाहर आकर मैंने मित्र से कहा- “यार तुम उनके चरण क्यों छूने लगे?” मित्र ने कहा- “तुम्हें पता नहीं है, उन्हें डायबटीज हो गया है?” अब डायबटीज श्रद्धा पैदा करे तो टूटी टांग भी कर सकती है। इसमें कुछ अटपटा नहीं है। लोग बीमारी से कौन फायदे नहींउठाते। मेरे एक मित्र बीमार पड़े थे। जैसे ही कोई स्त्री उन्हें देखने आती, वह सिर पकड़ कर कराहने लगते । स्त्री पूछती “क्या सिर में दर्द है?” वे कहते “हां, सिर फटा पड़ता है।” स्त्री सहज ही उनका सिर दबा देती। उनकी पत्नी ने ताड़ लिया। कहने लगी- “क्यों जी, जब कोई स्त्री तुम्हें देखने आती है तभी तुम्हारा सिर क्यों दुखने लगता है?”

उसने जवाब भी माकूल दिया। कहा “तुम्हारे प्रति मेरी इतनी निष्ठा है कि परस्त्री को देखकर मेरा सिर दुखने लगता है। जान प्रीत रस इतनेहु माहीं ।”

श्रद्धा ग्रहण करने की भी एक विधि होती है। मुझसे सहज ढंग से अभी श्रद्धा ग्रहण नहीं होती। अटपटा जाता हूं। अभी ‘पार्ट टाइम’ श्रद्धेय ही हूं। कल दो आदमीआए। वे बात करके जब उठे तब एक ने मेरे चरण छूने को हाथ बढ़ाया। हम दोनों ही नौसिखुए। उसे चरण छूने का अभ्यास नहीं था, मुझे छुआने का। जैसा भी बना उसने चरण छू लिए। पर दूसरा आदमी दुविधा में था। वह तय नहीं कर पा रहा था कि मेरे चरण छुए या नहीं। मैं भिखारी की तरह से देख रहा था। वह थोड़ा सा झुका। मेरी आशा उठी। पर वह फिर सीधा हो गया। मैं बुझ गया। उसने फिर जी कड़ा करके कोशिश की।

थोड़ा झुका। मेरे पांवों में फड़कन उठी। फिर वह असफल रहा। वह नमस्ते करके ही चला गया। उसने अपने साथी से कहा होगा- तुम भी यार कैसे टुच्चों के चरण छूते हो। मेरे श्रद्धालु ने जवाब दिया होगा काम निकालने को उल्लुओं से ऐसा ही किया जाता है। इधरमुझे दिन-भर ग्लानि रही। मैं हीनता से पीडित रहा। उसने मुझे श्रद्धा के लायक नहीं समझा | ग्लानि शाम को मिटी जब एक कवि ने मेरे चरण छुए। उस समय मेरे एक मित्र बैठे थे। चरण छूने के बाद उसने मित्र से कहा, “मैंने साहित्य में जो कुछ सीखा है,परसाईजी से।” मुझे मालूम है, वह कवि सम्मेलनों में छूट होता है। मेरी सीख का क्या यही नतीजा है? मुझे शर्म से अपने आपको जूता मार लेना था। पर मैं खुश था। उसने मेरे चरण छू लिए थे। 

अभी कच्चा हूं। पीछे पड़ने वाले तो पतिव्रता को भी छिनाल बना देते हैं। मेरे ये श्रद्धालु मुझे पक्का श्रद्धेय बनाने पर तुले हैं। पक्के सिद्ध श्रद्धेय मैंने देखे हैं। सिद्ध मकरध्वज होते हैं। उनकी बनावट ही अलग होती है। चेहरा, आंखे खींचने वाली पांव ऐसे कि बरबस आदमी झुक जाए। पूरे व्यक्तित्व पर श्रद्धेय लिखा होता है। मुझे ये बड़े बौड़म लगते हैं। पर ये पक्के श्रद्धेय होते हैं। ऐसे एक के पास मैं अपने मित्र के साथ गया था। मित्र ने उनके चरण छुए जो उन्होंने विकट ठंड में भी श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए चादरसे बाहर निकाल रखे थे। मैंने उनके चरण नहीं हुए। नमस्ते करके बैठ गया। अब एकचमत्कार हुआ। होना यह था कि उन्हें हीनता का बोध होता कि मैंने उन्हें श्रद्धा के योग्य नहीं समझा। हुआ उल्टा। उन्होंने मुझे देखा और हीनता का बोध मुझे होने लगा- हायमैं इतना अधम कि अपने को इनके पवित्र चरणों को छूने के लायक नहीं समझता। सोचता हूं, ऐसा बाध्य करने वाला रोब मुझ ओछे श्रद्धेय में कब आयेगा। 

श्रद्धेय बन जाने की इस हल्की सी इच्छा के साथ ही मेरा डर बरकरार है। श्रद्धेय बनने का मतलब है ‘नान परसन’ अव्यक्ति हो जाना। श्रद्धेय वह होता है जो चीजों को हो जाने दे। किसी चीज का विरोध न करे जबकि व्यक्ति की, चरित्र की पहचान ही यहहै कि वह किन चीजों का विरोध करता है। मुझे लगता है, लोग मुझसे कह रहे हैं तुमअब कोने में बैठो। तुम दयनीय हो। तुम्हारे लिए सब कुछ हो जाया करेगा। तुम कारण नहीं बनोगे। मक्खी भी हम उड़ाएंगे। और फिर श्रद्धा का यह कोई दौर है देश में? जैसा वातावरण है, उसमें किसी को भी श्रद्धा रखने में संकोच होगा। श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है।

विश्वास की फसल को तुषार मार गया । इतिहास में शायद कभी किसी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीन नहीं किया गया होगा। जिस नेतृत्व पर श्रद्धा थी, उसे नंगा किया जा रहा है। जो नया नेतृत्व आया है, वह उतावली में अपने कपड़े खुद उतार रहा है। कुछ नेता तो अंडरवियर में ही हैं। कानून से विश्वास गया। अदालत से विश्वास छीन लिया गया। बुद्धिजीवियों की नस्ल पर ही शंका की जा रही है। डॉक्टरों को बीमारी पैदा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है। कहीं कोई श्रद्धा नहीं विश्वास नहीं ।अपने श्रद्धालुओं से कहना चाहता हूं- “यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है। मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ।”

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 88 ⇒ अंग्रेजी की टांग… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अंग्रेजी की टांग।)  

? अभी अभी # 88 ⇒ अंग्रेजी की टांग? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हमारे हिंदी के एक अध्यापक थे, उनका तकिया कलाम था, पिताजी की टांग। वे पढ़ाते पढ़ाते, अचानक ही किसी सुस्त और अलसाये से छात्र को खड़ा कर कोई कठिन सा प्रश्न दे मारते। उसे महसूस होता, मानो किसी ने पानी के छींटे मारकर उसे जबर्दस्ती उठा दिया हो। वह बेचारा हड़बड़ाया, सकपकाया, क्या जवाब देता, बगलें झांकने लगता। बस, वे शुरू हो जाते ! मलाई में पड़े हो, कहां है तुम्हारा ध्यान।

परीक्षा में क्या लिखोगे, पिताजी की टांग ?जाओ, पहले मुंह धोकर आओ।

हमारी दो टांगें हैं, जिनके सहारे ही हम खड़े हो पाते हैं और चल पाते हैं। आजकल चलना भी व्यायाम की श्रेणी में आ गया है। एक समय था, जब इंसान थक जाता था, तो किसी सवारी की सहायता लेता था। घोड़ा, तांगा, बैलगाड़ी और घोड़ा गाड़ी पर चलते चलते वह कब साइकिल, साइकिल से स्कूटर और स्कूटर से कार और कार से हवाई जहाज तक पहुंच गया, कुछ पता ही नहीं चला, और उसने दुनिया नाप ली। ।

जो टांग सिर्फ चलने के काम आती थी, इंसान उससे और भी कई काम लेने लग गया। सबसे पहले, सबसे बड़ा काम उसने यह किया, दूसरे के काम में टांग अड़ाना शुरू कर दिया। हो सकता है, टांग अड़ाने का यह अभ्यास उसने फुटबॉल के मैदान से सीखा हो।

यह खेल ही टांगों से खेला जाता है। पेले, सबसे पहला फुटबॉल का प्रसिद्ध खिलाड़ी हुआ। एक और खेल है हॉकी, कौन भूल सकता है हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को। इसमें एक स्टिक ही सब काम करती है, लेकिन दौड़ना तो इसमें भी टांगों के सहारे ही पड़ता है। जब तक गोल ना हो जाए, तसल्ली नहीं होती। ।

यही हॉकी की स्टिक खेल के मैदान के बाहर भी टांग तोड़ने के काम आती है। कॉलेज के दो गुटों में झगड़ा हुआ, उठाई हॉकी की स्टिक और निकल पड़े कल के छेनू और श्याम। याद कीजिए गुलजार और मीनाकुमारी की मेरे अपने। बड़बोले शत्रुघ्न सिन्हा और छैल छबीले, गठीले विनोद खन्ना।

हमारी भी टांगें भी आज तक सिर्फ इसीलिए ही साबुत बची हैं कि बचपन में अम्मां और बाबूजी ने कई बार लाख शैतानी करने पर टांगें तोड़ने की चेतावनी जरूर दी, लेकिन कभी तोड़ी नहीं। उनकी सीख और सबक के कारण ही आज हम अपने पैरों पर खड़े हुए हैं। आज तो हमें मास्टर जी की छड़ी भी, बरसात की झड़ी नजर आती है। उधर छड़ी की छमछम इधर बारिश भी झमाझम। ।

हिंदी हमारी मातृभाषा ही नहीं, राष्ट्रभाषा भी है। हिंदी का अपमान हमारी मां का और मातृ भूमि का अपमान है। कोई हिंदी की टांग तोड़े, हम यह बर्दाश्त नहीं कर सकते लेकिन अंग्रेजी का क्या है, वह तो उन अंग्रेजों की भाषा है, जिन्होंने कभी हम पर राज किया था। हम आज भी उनसे नाराज हैं। काले गोरे में भेद करने वालों की

मैकाले की पद्धति हमें वैसे भी कभी रास नहीं आई।

भला हो लोहिया जी का, जो उन्होंने हमें अंग्रेजी विरोध का एक मौका तो दिया। हमने तबीयत से अंग्रेजी की बारह बजाई। जितने भी बाजारों में, शहरों में, कस्बों में गांवों में, दीवारों पर अंग्रेजी में विज्ञापन और अंग्रेजी के साइनबोर्ड की हमने तोड़फोड़ कर, वो दुर्गति की कि हमने अंग्रेजी को उसकी सात पुश्तें याद दिला दी। ।

इतना ही नहीं, तिरंगे झंडे तले, हमने अंग्रेजी नहीं सीखने की कसम भी खा ली। लेकिन सबै दिन एक ना होय गोपाला। हमारी लाख कोशिशों के बावजूद, हमारी इच्छा के खिलाफ हमें अपने बच्चों के भविष्य के कारण टूटी फूटी अंग्रेजी सीखनी ही पड़ी।

जब बच्चों को अच्छी शिक्षा के लिए कॉन्वेंट स्कूल में गए, तो वे हमारा ही अंग्रेजी में साक्षात्कार लेने लग गए। मत पूछिए, हमें तो साक्षात भगवान ही याद आ गए। लेकिन हमने भी हार नहीं मानी और कपिल देव वाला रेपीडेक्स इंग्लिश वाला कोर्स कर लिया। तब से आज का दिन है, हमने अंग्रेजी की टांग तोड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ा। ।

जैसे फिल्म शोले में, गब्बर से बदला लेने के लिए, ठाकुर के पांव ही काफी थे, उसी प्रकार अंग्रेजी की टांग खींचने के लिए हमारा तो सिर्फ मुंह ही काफी है। वैसे मौके और दस्तूर को देखते हुए अंग्रेजी की टांग तोड़ने के साथ साथ ही अगर कांग्रेस की टांग भी खींच ली जाए तो एक पंथ दो काज हो जाए। हर बात के लिए नेहरू जिम्मेदार, अगली सरकार, मोदी सरकार।

जी हां, वह कांग्रेस का ही जमाना था। एक स्वास्थ्य मंत्री थे, जब उन्हें किसी अस्पताल के रेडियोलॉजी विभाग का उद्घाटन करने बुलाया तो वे बड़े खुश हुए। बोले, चलो अच्छा हुआ, अब मरीजों के मनोरंजन के लिए रेडियो का इंतजाम भी हो गया। ।

हमारा एक मित्र था, बेचारा आज इस दुनिया में नहीं है,

जब भी परेशान होता, मुझसे अपना दर्द बयां करता। दोस्त, जीवन में सेटिस्फिकेशन नहीं है, कभी कभी तो मन करता है, स्लीपिंग पाइल्स खाकर आत्महत्या कर लूं। वैसे यह नौबत ही नहीं आई, दिल का दौरा ऐसा आया, हमारा सबका दिल तोड़ गया।

अंग्रेजी की टांग हम जान बूझकर नहीं तोड़ते। हम नहीं मानते, हमारी अंग्रेजी कमजोर है, हमारा यह मानना है कि इंग्लिस में ही कम ज़ोर है। कहीं P साइलेंट तो कहीं L साइलेंट। यानी लिखो talk और बोलो टॉक। डरावनी फिल्म psycho को हम पहले पिस्को ही कहते थे। बस वहीं से शायद अंग्रेजी का डर अंदर समा गया है, लेकिन अंग्रेजी का भूत फिर भी ऐसा सर चढ़ा हुआ है कि हर हिंदी वाक्य में अंग्रेजी शब्द आ धमकते हैं। परमानेंट को प्रेगनेंट कहना तो खैर स्लिप ऑफ

टंग्यू हो सकता है, लेकिन जब डेथ (death) देठ हो जाती है और शिक्षक महोदय के ट्रांसफर पर बैन (ban) की जगह बैंड लग जाता है, तो अंग्रेजी की आत्मा मुक्ति के लिए छटपटाने लगती है, लेकिन अंग्रेजी जीये या मरे, हम तो उसकी टांग तोड़कर ही रहेंगे। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 137 ☆ # मानसून… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# मानसून… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 137 ☆

☆ # मानसून… #

मानसून की छोटी-छोटी बूंदें

जब तन मन भिगोती है

तब गुजरे जमाने की बातें

दिल में याद आती है

 

बचपन में –

मानसून की पहली बारिश में

बिंदास नंगे बदन भीगना 

बिजुरी की कड़क सुनकर

भय से जोर से चीखना

मस्ती में एक दूसरे पर

पानी उड़ाना

दोस्तों से लड़कर

खुद को छुड़ाना

स्कूल से घर आते वक्त

खुद भीगकर बस्ता बचाना

मां को रो रोकर भीगने के

नये नये बहाने बताना

यह शरारतें बारिश की बूंदें

साथ लाती है

तब गुजरें जमाने की बातें

दिल में याद आती है

 

जवानी में –

वो रिमझिम फुहारें

वो बरसता हुआ पानी

जवानी के दिनों की तो है

रंगीन कहानी

एक छाते में, भीगते हुए

दो बदन चल रहे थे

जलते हुए दावानल से

दोनों जल रहे थे

बारिश हर कदम पर

आग भड़का रही थी

दो जिस्मों को एक होने

तड़पा रही थी

हाथों में हाथ लिए

वो आगे बढ़ रहे थे

एक नयी प्रेम कहानी को

वो दोनों गढ़ रहे थे

घर आया, दोनों जुदा हो गए

एक दूसरे से अलविदा हो गए

जब फिर कोई बारिश

उनको नहीं मिलाती है

तब गुजरे जमाने की बातें

दिल में याद आती है

 

बुढ़ापे में –

ना वो दिन रहे, ना रातें

ना रंगीनियां रहीं

ना दिल लुभाने वाली

वो संगिनियां रही

ना वो दोस्त रहे

जो मुस्कुरा के मिलते थे

गले मिलकर सदा

फूलों की तरह खिलते थे

ना दुनिया में अब

पहले जैसे निश्वार्थ रिश्ते रहे

ना एक दूसरे पर

जान देने वाले फरिश्ते रहे

अपार्टमेंट की बालकनी में

हम पति पत्नी भीगते है

हाथों में हाथ लिए

नया रोमांस सीखते हैं 

हर मानसून की बूंदें

भीगने बुलाती हैं

जीने का नया संदेश लाती है

तब गुजरे जमाने की बातें

दिल में याद आती है /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ चंदेरी क्षण… ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे☆

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ चंदेरी क्षण… ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆

आठवांच्या चांदराती मनास मोहत येती

धुंद मधुर क्षणांची गाणी ओठांवर येती || ध्रु ||

 

सूर लाभले श्वासांना स्पंदनांची गाणी झाली

चांदण्याची अविरत रम्य बरसात झाली

रसिक चंद्र हासला लोभस उर्मी येती

धुंद मधुर क्षणांची गाणी ओठांवर येती || १ ||

 

त्या क्षणांचेच चांदणे मनात भरुनी राही

अजूनही लाजणे ते गाली विलसत राही

अंतरात पुन्हा अशी आनंद स्पंदने येती

धुंद मधुर क्षणांची गाणी ओठांवर येती || २ ||

 

तूच चांद हृदयीचा तूच रम्य कोजागिरी

तुझ्या सवे विहरता होई पोर्णिमा साजिरी

ज्योत्स्नेची हो बरसात चैतन्य लहरी येती

धुंद मधुर क्षणांची गाणी ओठांवर येती || ३ ||

 

आठवांच्या चांदराती मनास मोहत येती

धुंद मधुर क्षणांची गाणी ओठांवर येती ||

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 138 ☆ अभंग – कधीतरी.!! ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 138 ? 

☆ अभंग – कधीतरी.!!

बदल होतात रस्ते वळतात

झाडे वाळतात, कधीतरी.!!

 

माणूस हसतो माणूस रुसतो

माणूस संपतो, कधीतरी .!!

 

नात्यातला भाव, कमीकमी होतो

आहे तो ही जातो, कधीतरी.!!

 

नदी नाले सर्व, विहीर बारव

आटतात सर्व, कधीतरी.!!

 

वाडे पडतात, वांझोटे होतात

उग्र दिसतात, कधीतरी..!!

 

साडे तीन हात, अखेरचे घर

सासर माहेर, अखेरचे.!!

 

कवी राज म्हणे, शेवट कठीण

लागते निदान, कधीतरी.!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सोशल मीडिया पासून सावधान… भाग – १ ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

 🌸 विविधा 🌸

☆ सोशल मीडिया पासून सावधान… भाग – १ ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

आज फक्त Whatsapp विषयी बघू या.पुढील काही वाक्ये बघू.विशेषत: महिलांनी लक्षात घ्यावे.

▪️ डी पी छान आहे.

▪️ Good morning

▪️ काय चालले आहे

▪️ आज काय केले?

▪️ फारच सुंदर डिश

▪️ मग फुलांच्या इमेज

▪️ एकाच ग्रुप वर असेल तर कोणतीही पोस्ट लाईक करणे.

▪️ किती अप्रतिम लिहिता.

▪️ फोन वर बोलू या

हे असे हळूहळू वाढत जाते.किंवा कधीकधी एकतर्फी गैरसमज पण करून घेतले जातात.जसे पोस्ट लाईक केली म्हणजे मी आवडले/आवडलो.संभाषण कसे वाढते हे खूप बघितले आहे. त्यातून उगाच दिवा स्वप्ने पाहिली जातात.जे घडलेच नाही पण मनात असते ते सांगितले जाते.किंवा काही कामा निमित्त फोन झाला तरी अमुक व्यक्ती मला सगळे सांगते.असे समज करून घेणे.या सगळ्यात एक गोष्ट लक्षात येते ती म्हणजे जे कौतुक घरातून मिळत नाही ते मिळू लागले की माणूस त्यात वाहवत जातो.हे सगळे फक्त पुरुष करतात असे नाही.सध्या हे प्रमाण ५०/५०% झाले आहे.बरेच जण या आभासी जगाला खरे मानतात.आणि मानसिक संतुलन गमावतात.

पण हे सगळे चालू असताना डोळे, कान,बुध्दी सगळे उघडे ठेवावे.साधे विचार या आभासी जगाचे वास्तव दाखवतात.साध्या ओळखीवर फुले,good morning येऊ लागले तर हा विचार करावा या व्यक्तीने हे कितीतरी जणींना/जणांना पाठवलेले असू शकते.किंवा असे संभाषण किती व्यक्तींशी चालू असेल.सुरुवातीलाच हा विचार करून बंदी घातली तर पुढचे सगळे टाळता येते.ज्या व्यक्ती फक्त Dp मध्ये बघतो त्यावर विश्वास कसा ठेवायचा?तो फोटो कोणाचाही असू शकतो.किंवा १० वेळा एडिट करून सुंदर बनवलेला असू शकतो.काही दिवसा पूर्वी एक तक्रार आली होती.शोध थोडा तपास लावला तर वेगळेच सत्य समोर आले.त्या महिलेचे अकाऊंट व फोन तिचा नवरा वापरून पुरुषांना नको ते मेसेज करत होता.आणि पुरुष त्यात वाहवत होते.असे संभाषण करून त्याने अनेक लोकांकडून पैसे घेतले होते.असे बरेच वेगवेगळे किस्से माझ्याकडे आहेत.

म्हणून सर्वांना विनंती आहे,या कडे फक्त एक करमणुकीचे साधन म्हणून बघावे.चांगले असेल ते घ्यावे.आणि कोणत्याही भ्रमात राहू नये.येथील ओळखी लाटांप्रमाणे येतात.आणि ओसरतात.मी ९५० नंबर ब्लॉक केले आहेत.

त्या पेक्षा वाचन,व्यायाम,पदार्थ बनवणे,जवळचे मित्र,मैत्रिणी यांच्यात जाणे.कुटुंबात गप्पा मारणे.गाणी ऐकणे,फिरणे,सहलीला जाणे हे करावे. व या आभासी जगा पासून सांभाळून रहावे.

माझ्या कडे समुपदेशनासाठी ज्या व्यक्ती येतात त्यांच्या अनुभवातून हे लिखाण केले आहे.

क्रमशः...

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

सांगवी, पुणे

मोबाईल नंबर – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘‘अंधार‘…’ ☆ सुश्री सोनाली लोहार ☆

सुश्री सोनाली लोहार

(आजची कथा अंधार सोनाली लोहार यांची आहे. त्या लेखिका, कवयित्री, ऑडिओलॉजिस्ट व स्पीच लॅंग्वेज पॅथॅलॉजिस्ट, उद्योजिका आहेत.)

? जीवनरंग ❤️

☆ ‘‘अंधार‘…’ ☆ सुश्री सोनाली लोहार

पुस्तक : गुंफियेला शेला – कथा : अंधार – सुश्री सोनाली लोहार

“मला एक आयफोन हवाय, नवीन मॉडेल..तुम्ही द्याल का आणून कुठून  जरा कमी किंमतीत..?”

त्यानं नवलानं वत्सलाकडे बघितलं.

कोपऱ्यात पडलेल्या तिच्या नोकियाच्या मळकट फोनकडे बघत तो म्हणाला, “एकदम आयफोन…कशाला?? पैसे वर आलेत का तुझे! “

तिनं मान खाली घातली.

“दिपूचा वाढदिवस येतोय पुढच्या महिन्यात, पंधरा पूर्ण होतील..गावाहून आईचा फोन होता, म्हणाली त्याला हवाय.”

त्यानं डोक्याला हात लावला,” पागल आहेस का गं तू!अगं स्वतःकडे बघ जरा काय अवस्था करून घेतलीयस !अंगावर नावाला तरी मांस शिल्लक आहे का?? आणि हे असले महागडे हट्ट पुरवत       बसशील तर पोरगा हातातून कधी गेला ते कळणार पण नाही हां!”

तिच्या डोळ्यात तरारून पाणी आलं , ” हातातून जायला आधी हातात तर असला पाहिजे नं!”

अंधारात तिचं अंग हुंदक्यांनी गदगदून गेलं..न राहवून त्यानं तिला जवळ ओढली. तिच्या पोलक्याची सुटलेली बटणं लावत तो पुटपुटला,” पोराच्या आयुष्यात रंग भरता भरता रिकामी होत    चाललीयस वच्छी, मरशील अशानं एकदिवस! आणतो मोबाईल, पण पैशाचं काय?”

“पैशाची हुईल व्यवस्था, तुम्ही तेव्हढं जरा स्वस्तात मिळतो का बघा देवा”, ती हुशारून म्हणाली.

दारावर बाहेरून थाप पडली. कपडे झटकत तो विटलेल्या गादीवरून उठला आणि पत्र्याची कडी काढून तिच्याकडे न बघता बाहेर पडला. दाराबाहेर थांबलेलं दुसरं किडमिडं गिर्‍हाईक आत शिरलं.

दरवाजा लावताना बाहेर बसलेल्या संभ्याला ती म्हणाली,” आंटी को बोल, जेव्हढी पाठवता येतील तेव्हढी पाठव, पंधरा मिनटाला एक पण चालेल…मैं लेगी.”

त्या सहा बाय चार फुटाच्या पत्र्याच्या खोक्यातला अंधार तिला गिळताना पाय पसरून दात विचकत हसत होता….

❤ ❤ ❤ ❤ ❤

टीप – कथा वाचून आणि चित्र पाहून वाचकांना जर त्या चित्रावर आधारित नवीन कथा, कविता, लेख वगैरे सुचलं, तर त्यांनी ई-अभिव्यक्ती आणि सुश्री सोनाली लोहार यांच्याशी संपर्क साधावा.

चित्र साभार – फेसबुक पेज

©️ सुश्री सोनाली लोहार

मो. – 9892855678

ईमेल- [email protected]  

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ मन वढायं वढायं… ☆ सौ उज्ज्वला केळकर ☆

सौ उज्ज्वला केळकर

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☆ मन वढायं वढायं… ☆ सौ उज्ज्वला केळकर

आयुष्याची ८ दशके सरली. सरली म्हणजे, कशी-बशी गेली नाहीत. छान मजेत गेली. आताशी मी त्याला म्हणते, ‘ये. लवकर ये. मी तयार आहे, गाठोडं बांधून.’ मग माझं मलाच हसू येतं. तो तर माझी कायाही घेऊन जाणार नाहीये. गाठोडं कुठलं न्यायला? तो माझ्यात कुठे तरी असलेलं प्राणतत्त्व घेऊन जाणार. हे सगळं माहीत असतं, तरी मी माझी गाठोडी कवटाळून बसते. दोन गाठोडी आहेत माझी…..  

… पहिले एक गाठोडे आहे… ज्यात सुखद स्मृतींची तलम, मुलायम, नजरबंदी करणारी, बेशकीमती महावस्त्रे आहेत. त्यांच्या आठवणींनी मनावर मोरपीस फिरल्यासारखं वाटतं, पण कसं आणि का, ते कळत नाही, हे गाठोडं क्वचितच कधी तरी उघडलं जातं. दुसऱ्या गाठोडयाच्या तुलनेने हे गाठोडं आहे अगदीच लहान, चिमुकलंच म्हणता येईल, असं.  

… दुसरं आहे, ते आहे एक भलं मोठं गाठोडं….  पर्वताएवढं.. नव्हे त्यावर दशांगुळे उरलेलं….. 

अनेक विवंचना, चिंता, काळज्या, समस्यांच्या चिंध्या, लक्तरे, चिरगुटे…  जगताना घेतलेल्या कटु स्मृतींचे हे गाठोडे. माझ्या बाबतीत कोण, कधी, काय चुकीचे वागले, कुणी माझा जाणीवपूर्वक अपमान केला, कुणी, केव्हा दुर्लक्ष केले, मला तुच्छ लेखले,  या सगळ्या दु:खद आठवणी, .. आणि कुणी कधी दिलेल्या दु:खाचं, केलेल्या अपमानाचं, दुखावलेल्या अस्मितेचं, चिंता काळज्यांचं, ताण- तणावांचं, विवंचनांची चिरगुटं असलेलं …… हे असं सगळं… नकोसं – क्लेशकारक वाटणारं..तरीही मनात घट्ट चिकटून राहिलेलं सगळंसगळं या गाठोड्यातून ओसंडून वहात आहे.  हा कचरा बाहेर टाकून देण्यासाठी मी हे गाठोडं पुष्कळदा उघडते. . कचरा बाहेर काढते. पण बहिणाबाईंनी म्हटले आहे त्याप्रमाणे, 

‘मन वढाय वढाय उभ्या पिकातलं ढोर — 

किती हाकला हाकला फिरी येतं पिकावर’

किती प्रयत्न केला, हा कचरा काढून फेकून द्यायचा…  केशवसुत म्हणाले आहेत  त्याप्रमाणे जाळून किंवा पुरून टाकण्याचा…. पण नाहीच.. हा कचरा जणू अमरत्व लाभल्यासारखा आहे. पुन्हा पुन्हा येऊन गाठोड्यात बसतो. बुमरॅँग जसं ते फेकणार्‍याकडेच परत येतं, अगदी तसंच आहे हे.

हे मोठं गाठोडं, कटू स्मृतींचं….. सतत उघडलं जातं. विस्कटलं जातं. तो सारा कचरा, चिंध्या, चिरगुटं गाठोड्यातून बाहेर काढून फेकून द्यायचं ठरवते. फेकून देतेही. पण त्या पुन्हा लोचटासारख्या गाठोड्यालाच येऊन चिकटतात.

आता साधीशीच गोष्ट. मी एम. ए., एम. एड. पर्यन्त शिकले. 30 वर्षे अध्यापनाची नोकरी केली. निवृत्त होऊनही 20 – 22 वर्षे झाली. नशिबाने आणखी काय द्यायला हवं? पण सारखं मनात येत रहातं , मी पी. डी. सायन्स झाल्यावर आर्टसला का आले? आले तर आले, इकॉनॉमिक्स, मॅथ्स यासारखे चलनी विषय का घेतले नाहीत? ग्रॅज्युएट झाले. नोकरी मिळाली . मग लोकसेवा आयोगाच्या परीक्षा का दिल्या नाहीत? अधिक चांगल्या संधी मिळाल्या असत्या. आता या काळात आणि या वयात या विचारांना काही अर्थ आहे का? त्यांचा काही उपयोग आहे का? पण तो विचार उगीचच येत रहातो आणि मन खंतावत रहातं. ही झाली एक गोष्ट. अशा किती तरी जुन्या गोष्टी अकारणच मनात साठून राहिल्या आहेत आणि पुन्हा पुन्हा उफाळून येत दु:खी करताहेत.

कधी कधी मैत्रिणी जमलो, की सहजच घरातल्या गोष्टी निघतात. ‘ सासू तेव्हा असं म्हणाली, नणंद तसं बोलली. कितीही करा आमच्या विहीणबाईंचा पापड वाकडाच. मुलांसाठी किती केलं, पण त्यांना कुठे त्याची पर्वा आहे.’ असंच काही- बाही बोलणं होतं. मी त्यांना म्हणते, “ नका ना या जुन्या आठवणी काढू ! अशा दु:खद आठवणी काढायच्या म्हणजे तेच जुनं दु:ख आपण पुन्हा नव्याने जगायचं. कशाला ते….”   

अर्थात दुसर्‍याला सांगणं सोपं असतं. स्वत:च्या बाबतीत मात्र ‘ लोकासांगे ब्रह्मज्ञान आपण कोरडे पाषाण ‘ अशीच माझी स्थिती. मीही जुन्या जुन्या दु:खद आठवणी पुन्हा पुन्हा  मनात घोळवत रहातेच.

परवा परवा ‘उमेद’ ग्रुपवर एक पोस्ट वाचली. 1 जून … एक टास्क.. आपल्या मनातील दु:खे, वाईट विचार, चिंता, काळज्या, लिहून काढा आणि त्यातून बाहेर पडा. आपली पाटी स्वच्छ ठेवा. मी म्हंटलं, बरी संधी आहे, आपण मोकळं व्हायला. मनाची पाटी कोरी करायला. मी सगळं लिहून काढलं. नंतर पाटी पुसू लागले. पण ती काही पुसली गेली नाही. त्यावरचं सारं लेखन शीलालेखासारखं अमीट झालं.

सध्या रहाते, तो माझा बंगला छान आहे. 37-38 वर्षे आम्ही या घरात रहातोय. इथले शेजारी-पाजारी चांगले आहेत. कामवाल्या घरच्यांसारख्याच आहेत. गरज पडली तर मदतीला कोणीही येईल, अशी परिस्थिती आहे. छान बस्तान बसलं आहे आमचं सध्याच्या घरी. पण सात-आठ महिन्यात बसेरा बदलायचा आहे. हे घर सोडून नव्या घरी फ्लॅटवर रहायला जाण्याची शक्यता आहे. आम्हा म्हातारा-म्हातारीला जमेल का सगळं? जुनाट वृक्ष नव्या वातावरणात रुजवायचे आहेत. रुजतील? तिथली फ्लॅट संस्कृती पचनी पडेल आमच्या? शेजारी कसे असतील? काही होऊ लागलं, तर कुणाची मदत मिळेल? मुलगा आणि सून आपआपल्या कामातून किती वेळ काढू शकतील? प्रश्न… प्रश्न… आणि फक्त प्रश्न ….खरं तर पुढच्या श्वासाची शाश्वती नाही, असं मी मनाला सतत बजावत असते आणि त्याचवेळी भवितव्याचा अनावश्यक विचार करत व्यथित होते. आपलंच टेन्शन वाढवते. ‘ देवा आजचा दिवस सुखाचा दाखवलास, उद्याची भिस्त तुझ्यावरच रे बाबा !’ असं म्हणण्याइतकी आध्यात्मिक उंचीही मनाने गाठलेली नाही.

अनेक गोष्टी अशा असतात, ज्या बाबतीत मी प्रत्यक्ष काहीच करायचं नसतं. तरीही काही गोष्टी, काही विचार भाकड गायीप्रमाणे मनात हुंदडत असतात आणि मन तणावग्रस्त करतात. आता हेच बघा,     ‘ मुलाला प्रमोशन कधी मिळेल? सुनेला नोकरी मिळेल ना? नातीला मेडीकलला अ‍ॅडमिशन मिळेल ना? नातवाची टी.व्ही. ची क्रेझ जरा कमी होऊन तो थोडा मनापासून अभ्यास करायला लागेल का?’ …. यापैकी कशावरही माझं नियंत्रण नाही. पण तरीही याबाद्दलचे विचार काही मनातून हद्दपार होत नाहीत. आताशी एक विचार मनात घोळू लागलाय. अर्चनाताईची समुपदेशनासाठी अपॉईंटमेंट घावी. बघूया, त्याचा तरी काही उपयोग होतोय का?

अगदी अलीकडे अनघा जोगळेकर यांची .हॅँग टिल डेथ या इंग्रजी नावाची हिन्दी लघुकथा वाचली होती, ती अशावेळी हमखास आठवते. ती कथा मराठीत अशी आहे —

“  हॅँग टिल डेथ 

‘ मीनू, मी बघतोय, जेव्हा जेव्हा तुला वैताग येतो, किंवा तू काळजीत, चिंतेत असतेस, तेव्हा तेव्हा तू खोलीत जाऊन कपाट उघडतेस. तिथेच थोडा वेळ उभी रहातेस. मग थोड्याच वेळात तुझा चेहरा हसरा होतो. अखेर त्या कपाटात असं आहे तरी काय?’

पलाशचं बोलणं ऐकून मीनू हसली.

‘छे छे, केवळ हसून काम भागणार नाही. आज तुला हे रहस्य उलगडून दाखवावंच लागेल. ‘ पलाशच्या आवाजात थोडा आवेश होता. मग नजर चुकवत म्हणाला, ‘तुझ्या अपरोक्ष मी ते कपाट अनेक वेळा उघडून पाहिलं. शोधाशोध केली पण….. अखेर असं आहे तरी काय तिथे?’ तो जवळ जवळ ओरडतच म्हणाला.

मीनू थोडा वेळ त्याच्याकडे बघत राहिली. मग तिने त्याचा हात धरला आणि त्याला खोलीत घेऊन आली. तिने कपाट उघडले.

‘ ते बघ माझ्या खुशीचं रहस्य!’

‘अं… तो तर एक हँगर आहे. …. रिकामा हँगर…’ 

‘ होय पलाश. तो हँगर आहे, पण रिकामा नाही. याच्यावर मी माझ्या सार्‍या चिंता, काळज्या, त्रास, वैताग लटकवून ठेवते आणि कपाट बंद करण्यापूर्वी  त्यांना म्हणते,— ‘ मरेपर्यंत लटकत रहा ! ’ मी माझ्या काळज्या, त्रास, वैताग माझ्या डोक्यावर स्वार होऊ देत नाही. त्या माझ्यापासून दूर केल्यानंतरच त्या निपटून काढते. ‘

… आणि आता त्या कपाटात एकाऐवजी दोन हँगर लटकलेले आहेत….. 

मी सध्या त्या कथेतील मिनूच्या शोधात आहे. एकदा भेटली की विचारणार आहे, “ बाई ग, तू त्या सार्‍या सार्‍या चिंता, काळज्या, त्रास, वैताग रिकाम्या हँगरवर कशा लटकावून ठेवतेस? एकदा प्रात्यक्षिक दाखव ना ! प्लीज…..” 

©️ सौ उज्ज्वला केळकर

संपर्क –17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र

मो. 9403310170, email-id – [email protected] 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ ब्रायटनची ब्राईट कहाणी…! ☆ श्री विश्वास विष्णु देशपांडे ☆

श्री विश्वास विष्णु देशपांडे

? विविधा ?

☆ ब्रायटनची ब्राईट कहाणी… ! ☆ श्री विश्वास विष्णु देशपांडे 

युद्धात धारातीर्थी पडलेल्या भारतीय सैनिकांचे स्मारक भारतात असणे ही नैसर्गिक गोष्ट आहे. ते आपले कर्तव्यही आहे. भारतात युद्धात धारातीर्थी पडलेल्या सैनिकांच्या स्मरणार्थ राष्ट्रीय युद्ध स्मारक नुकतेच इंडिया गेटजवळ बांधण्यात आले आहे. कारगिल युद्धात हुतात्मा झालेल्या सैनिकांचे स्मारक कारगिलजवळ द्रास या ठिकाणी आहे. आपले कुटुंब, सणवार सगळं सगळं बाजूला ठेवून कोणत्याही देशाचे सैनिक प्रतिकूल परिस्थितीही आपले कर्तव्य बजावत असतात. या सैनिकांचा सन्मान करणे, त्यांच्या प्रति कृतज्ञ राहणे हे सरकारचे आणि आपलेही परम कर्तव्य आहे. भावी पिढीला त्यांच्या त्यागापासून प्रेरणा मिळावी हाही एक त्यामागील उद्देश असतो.

पण आपल्याला वाचून आश्चर्य वाटेल की पहिल्या महायुद्धात इंग्लंडसाठी लढणाऱ्या भारतीय सैनिकांचे एक अतिशय सुंदर स्मारक इंगलंडमधील ब्रायटन या शहराजवळ आहे. इंग्लंडमध्ये ज्या ठिकाणी हे स्मारक आहे अशा ब्रायटन गावाची आधी आपण थोडक्यात माहिती घेऊ. ब्रायटन हे इंग्लंडच्या दक्षिणेला समुद्रकिनारी वसलेले एक अतिशय सुंदर आणि निसर्गरम्य गाव. ब्रिटिशांसाठी एक पर्यटन केंद्रच ! आपल्याकडील महाबळेश्वर, माथेरान, पाचगणीची आठवण यावी अगदी तसे. इंग्लंडमधील उमराव, सरदार, उद्योगपती आणि श्रीमंत लोक यांचे या ठिकाणी बंगले. ते सुटी घालवण्यासाठी या ठिकाणी येत. याच ठिकाणी इंग्लंडचा  राजपुत्र असलेल्या चौथ्या जॉर्जने एक बंगला विकत घेतला. हा बंगला आणि त्याचा परिसर अतिशय  विस्तीर्ण होता. कलेची आवड असणाऱ्या जॉर्जने या बंगल्याचा कायापालट केला. बाहेरून भारतीय वास्तुकलेचा आणि आतून चिनी सजावटीचा हा बंगला एक उत्कृष्ट नमुना बनला. या बंगल्याचे नाव मरीन पॅव्हिलियन असे पडले. पुढे हा बंगला ब्रायटनच्या स्थानिक पालिकेने इंग्लंडच्या राजाकडून चक्क विकत घेतला.

एकोणिसाव्या शतकात युरोपातील राजकीय परिस्थिती झपाट्याने बिघडत गेली. वातावरण ढवळून निघाले. ऑस्ट्रियन-हंगेरीचा सम्राट फर्डिनांड आणि त्याची गरोदर पत्नी यांची हत्या झाली आणि पहिल्या महायुद्धाची ठिणगी पडली. इंग्लंड, फ्रांस, रशिया, जर्मनी आणि दोस्त राष्टे असे गट युरोपात तयार झाले. ऑस्ट्रियाने सर्बियाविरुद्ध दंड ठोकले. जर्मनीने ऑस्ट्रियाचा पक्ष घेतला, तर रशिया सर्बियाच्या बाजूने रणांगणात उतरला. लवकरच फ्रान्सने रशियाला आपला पाठिंबा जाहीर केला आणि लष्करी हालचाली मोठ्या वेगाने सुरू केल्या. जर्मन फौजा बेल्जियममार्गे फ्रान्सपर्यंत येऊन धडकल्या आणि मग फ्रान्सचे दोस्त राष्ट्र इंग्लंडसुद्धा या युद्धात सामील झाले.

आतापर्यंत ज्यांच्या साम्राज्यावरचा सूर्य मावळत नाही अशी प्रतिमा असलेल्या इंग्लंडला जेव्हा प्रत्यक्ष युद्धात उतरावे लागले तेव्हा त्यांची खरी पंचाईत झाली. युद्धात सहभागी होण्यासाठी पुरेसे सैन्य इंग्लंडकडे नव्हते. सैन्यात नवीन भरती करून प्रशिक्षण देणेही त्यांना शक्य नव्हते. अशा परिस्थितीत भारत हा देश म्हणजे इंग्लंडच्या हातात असलेला हुकमी एक्का होता. भारतीय सैन्याची मदत मिळवण्यासाठी इंग्लंडने एक धूर्त चाल खेळली. पहिल्या महायुद्धात आपल्याला मदत केली तर आपण भारताला स्वायत्तता देऊ असे ब्रिटिशांनी जाहीर केले आणि लाखो भारतीय सैनिक इंग्लंडसाठी आपल्या प्राणांची आहुती देण्यासाठी तयार झाले.

३० सप्टेंबर १९१४ ला भारतीय सैनिकांची पहिली तुकडी फ्रान्समध्ये दाखल झाली. त्यानंतर यथावकाश आणखीही भारतीय सैन्याच्या तुकडया दाखल झाल्या. फ्रान्स आणि बेल्जीयमच्या आघाड्यांवर जर्मन सैनिकांशी प्राणपणाने लढू लागल्या. वातावरण अत्यंत प्रतिकूल होते. हाडे गोठवणारी थंडी होती. अंगावर पुरेसे गरम कपडे नव्हते. खायला धड अन्न मिळत नव्हते. अशा वातावरणात भारतीय सैनिक इंग्रजांच्या बाजूने लढले. लाखो सैनिक धारातीर्थी पडले तर हजारो सैनिक जखमी झाले. या जखमी झालेल्या सैनिकांना परत भारतात पाठवणे शक्य नव्हते. फ्रान्स किंवा बेल्जीयममध्येही त्यांच्या उपचारासाठी काही सोय करणे शक्य नव्हते.अशा परिस्थितीत त्यांना इंग्लंडच्या दक्षिण किनाऱ्यावर असलेल्या ब्रायटन या ठिकाणी ठेवण्याचे ठरले. हे ठिकाण युद्धभूमीपासून फार लांब नव्हते. शिवाय येथील शांत आणि निसर्गरम्य वातावरणात या सैनिकांना लवकर बरे वाटेल असे इंग्रज सरकारला वाटले.

या सैनिकांच्या उपचारासाठी मोठया आणि सुयोग्य जागेची आवश्यकता होती. ब्रायटन येथे उपचार करायचे ठरले तेव्हा हा राजवाडा म्हणजेच मरीन पॅव्हिलियन हेच ठिकाण राज्यकर्त्यांच्या डोळ्यासमोर आले. मग ताबडतोब येथील उंची फर्निचर आणि इतर सामान हलवून सैनिकांसाठी बेडची व्यवस्था करण्यात आली. जवळपास दोन हजार जखमी भारतीय सैनिकांवर या ठिकाणी उपचार करण्यात आले. यातील बरेचसे सैनिक उपचारांती बरे झाले. फक्त ५७ सैनिक अतिगंभीर जखमा किंवा आजारामुळे दगावले. या ठिकाणी भारतीय सैनिकांवर अनेक ब्रिटिश डॉक्टरांनी उपचार केले. भारतीय सैनिकांची व्यवस्था ब्रिटिशांनी अतिशय उत्तम ठेवली. हिंदू आणि शाकाहारी सैनिकांसाठी वेगळे स्वयंपाकघर, वेगळे आचारी यांची व्यवस्था त्यांनी केली. मुस्लिम सैनिकांसाठी स्वयंपाकाची वेगळी व्यवस्था होती. प्रत्येकाला आपल्या आवडीप्रमाणे जेवण मिळेल याची व्यवस्था केली गेली. भारतीय सैनिक या ठिकाणी उपचार घेत असताना स्थानिक इंग्रज लोक त्यांच्या भेटीसाठी येत. त्यांच्यासाठी भेटवस्तू आणत असत. या दरम्यान या स्थानिक इंग्रज लोकांमध्ये आणि भारतीय सैनिकांमध्ये जिव्हाळ्याचे संबंध दृढ झाले.

स्थानिक लोकांबरोबरच या राजवाड्यातील रुग्णालयाला इंग्लंडचा राजा पंचम जॉर्ज आणि त्याची पत्नी मेरी यांनी २५ ऑगस्ट १९१५ रोजी भेट दिली. त्यांनी या शूर सैनिकांचा आपल्या हस्ते गौरव केला. जखमी झालेल्या सैनिकातील दहा सैनिकांचा मानचिन्ह देऊन सन्मान केला. या सैनिकातीलच एक असलेल्या हवालदार गगन सिंग याचा ‘ इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट ‘ हा पुरस्कार देऊन गौरव केला. या गगन सिंगचा पराक्रम पाहिल्यानंतर आपण स्तिमित होतो. मला तर त्याच्या पराक्रमाबद्दल वाचताना खिंडीत एकट्याने मुघल सैन्याशी लढणाऱ्या बाजी प्रभूंची आठवण झाली. गगन सिंग अत्यंत शूर सैनिक होता. त्याच्या हातात बंदूक असताना त्याने अनेक जर्मन सैनिकांना अचूक टिपले. पण दुर्दैवाने त्याच्या बंदुकीतील गोळ्या संपल्या. पण या पठ्ठयाने हार मानली नाही. आपल्या बंदुकीला बेयोनेट लावून त्याने त्याच्या साहाय्याने आठ जर्मन सैनिकांना यमसदनी पाठवले. पुढे एक वेळ अशी आली की त्याच्या बंदुकीचे बेयोनेटही तुटले. तेव्हा तेथेच पडलेल्या एका जर्मन सैनिकाची तलवार उपसून त्याने युद्ध सुरूच ठेवले. या भयंकर धुमश्चक्रीत तो जबर जखमी झाला आणि रक्तबंबाळ होऊन खाली कोसळला. तरी तो दोन दिवस युद्धभूमीवरच पडून होता. शेवटी इतर सैनिकांनी त्याला उचलून सुरक्षित ठिकाणी हलवले आणि नंतर रुग्णालयात दाखल केले. अशा सैनिकांची हकीगत वाचताना अक्षरशः थरारून जायला होते.

या दरम्यान जे सैनिक मृत झाले त्यांच्या अंत्यसंस्काराची व्यवस्था ब्रिटिशांनी अतिशय चोख केली. हिंदू सैनिकांसाठी अग्निदहन करणे तसेच मुस्लिम सैनिकांसाठी दफनाची व्यवस्था करण्यात आली. जेथे या सैनिकांचा अंत्यसंस्कार करण्यात आला ते ठिकाण होते ब्रायटन जवळचे पॅचम नावाचे उपनगर. या ठिकाणी या धारातीर्थी पडलेल्या सैनिकांच्या स्मरणार्थ एक स्मारक इंग्रज सरकारतर्फे उभारण्यात आले. त्याला ‘ ब्रायटनची छत्री ‘ असे म्हटले जाते. छत्री हा शब्द इंग्रजांनी देखील स्वीकारला आहे. या स्मारकाच्या ठिकाणी नदीकाठी घाट असतो तसे गोल कट्टे आहेत. त्यावर ग्रॅनाईट बसवला आहे. देवळासारख्या मजबूत आणि रुंद खांबावर ही वास्तू उभी आहे. वरती सुंदर असा संगमरवरी घुमट आहे.

या स्मारकाचे उदघाटन पंचम जॉर्ज यांचे चिरंजीव प्रिन्स ऑफ वेल्स यांच्या हस्ते झाले. या प्रसंगी केलेल्या भाषणात त्यांनी भारतीय सैनिकांचा गौरवपूर्ण उल्लेख केला आहे. ते म्हणतात, ” ही लढाई कुठल्या कारणासाठी लढली जात आहे याची पुरेशी कल्पना नसताना आणि या कारणांशी तसा त्यांचा काही एक वैयक्तिक संबंध नसताना आपल्या भारतीय बंधूनी जो अतुलनीय त्याग केला, त्याची जाणीव भावी पिढयांना राहावी म्हणून हे स्मारक आम्ही कृतज्ञतापूर्वक उभारत आहोत. ” या छत्रीसमोर दरवर्षी ब्रिटिश शासनातर्फे मानवंदना दिली जाते. यावेळी तेथील मोठमोठे नेते, मंत्री, उच्चपदस्थ अधिकारी देखील उपस्थित राहतात. आपले भारतीय वीर या ठिकाणी चिरनिद्रा घेत आहेत. त्यांच्या त्यागाचा यथायोग्य सन्मान ब्रिटिश सरकारतर्फे होतो. आपल्या देशाला इंग्रज पुढे स्वायत्तता देतील या आशेने हे सैनिकी पहिल्या महायुद्धात सामील झाले होते. आपले घरदार, देश, मुलेबाळे सोडून परक्या मुलखात येऊन त्यांनी आपल्या प्राणांची आहुती दिली होती. हे सगळे पाहिल्यानंतर, वाचल्यानंतर आपले मस्तक आदराने झुकते आणि ऊर अभिमानाने भरून येतो. या वीरांना सलाम !

©️ श्री विश्वास विष्णु देशपांडे

चाळीसगाव.

 प्रतिक्रियेसाठी ९४०३७४९९३२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ तो सावळा सुंदरू… — लेखिका : सुश्री उल्का खळदकर ☆ प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆  तो सावळा सुंदरू… — लेखिका : सुश्री उल्का खळदकर ☆ प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर ☆ 

तो सावळा सुंदरू । कासे पितांबरू ।।

तो सावळा सुंदर विठ्ठल ! त्याला डोळे भरून पाहण्यासाठी मन आसुसलेलं असतं. सगळ्या भक्तांची तीच असोशी ! ‘ भेटी लागे जीवा लागलीसे आस ‘ असे आर्ततेने म्हणून तुकारामांची जी अवस्था तीच अवस्था एकनाथांची !

कटी पीतांबर तुळशीचे हार ।

उभा सर्वेश्वर भक्त काजा ।।

नामदेवांना विठ्ठल दिसतो असा —         

वाळे वाकी मजे तोड चरणी

नाद झणझणी वाजताती

कास कासियेला पीत पितांबर

लोपे झणकर तेणें प्रभा ।।

तुकारामांनी त्याचे केलेले वर्णन-

सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी

कर कटावरी ठेवूनिया।।

तुळशी हार गळा, कांसे पितांबर, आवडे निरंतर तेचि रुप।।

मकर कुंडले तळपती श्रवणी, कंठी कौस्तुभमणी विराजित।।

सर्व संतांना या विठ्ठलाने वेड लावलं.

जनाबाई दळीता कांडिता म्हणतात-

जनी म्हणे बा विठ्ठला .. जीवे न सोडी मी तुजला।।

तिला तर जळी-स्थळी-काष्ठीपाषाणी  विठ्ठलच दिसायचा.

जनी जाय पाणियासी। मागे जाय ह्रषीकेशी ।।

आणि मग तिने ……

धरिला पंढरीचा चोर । गळा बांधुनिया दोर ।

ह्रदयीं बंदीवान केला । आत विठ्ठल कोंडीला ।

शब्द केले जुडाजुडी । विठ्ठल पायीं घातली बेडी ।

सोहं शब्दाचा मारा केला । विठ्ठल काकुळतीला आला ।

जनी म्हणे बा विठ्ठला । जीवे न सोडी मी तुजला।।

या विठ्ठलाचे वर्णन करताना ज्ञानदेव म्हणतात–

पांडुरंग कांती दिव्य तेज झळकतीं

रत्नकीळा फाकती प्रभा।।

अगणित लावण्य तेज पुंजाळले

न वर्णवे तेथिची शोभा।।

कानडा हो विठ्ठलु कर्नाटकु येणे मज लावियेला वेधु।।

सर्व संतांना त्यानी वेडं केलंच पण सामान्यांनाही तो आपलासा वाटू लागला आणि मग वारकरी संप्रदाय स्थापन झाला. दिंड्या देहू आळंदीहून पंढरपूरला जाऊ लागल्या. हातात टाळ चिपळ्या मृदुंग आणि मुखात विठ्ठलाचं नाव घेत, पायांना पंढरपूरचा ध्यास घेत दिंडी चालली. कुणाच्या तोंडी अभंग, कुणी हरिपाठ म्हणत आज वर्षानुवर्ष दिंडी चालली आहे. तनाने मनाने वारकरी म्हणतात…….

पोचावी पालखी विठ्ठलाचे द्वारी, मिळो मुक्ती तेथ दिंडीच्या अखेरी

देहाची पालखी, आत्माराम आत, चालतसे दिंडी, जीवनाची वाट।।

काही वर्षे या करोना महामारीमुळे या दिंडीला खीळ बसली होती. सारंच कसं आभासी झालं होतं. पण प्रत्येकाच्या मनात विठ्ठल आहे. तीर्थ विठ्ठल, क्षेत्र विठ्ठल,देव विठ्ठल, देवपूजा विठ्ठल… असं कोणी मानतं, तर कुणी मनाने या दिंडीची वाट चालत आहे. जणू काही आपण वारीबरोबर चाललो आहोत ! आज एकादशीला सावळ्या विठ्ठला तुझ्या दारी आले …  विसरून गेले देहभान — मी माझ्या दारात या फुलांच्या कलाकृतीने दिंडी चालत आले. आज त्याची समाप्ती. वारकरी अलोट गर्दीमुळे कळसाचे दर्शन घेऊन माघारी फिरतात. परतवारी मी माझ्या मनाने तुझ्या गाभाऱ्यात पोचले. तुझं सावळं सुंदर

मनोहर रुप पाहतच राहिले. रोजच तुझे रुप मी अनुभवत होते. तुला फुलातून साकारताना तुझी पूजा बांधत होते. माझे वारकरी दिंडी चालत होते. त्याची सांगता !

आता या चातुर्मासाच्या निमित्ताने मी भागवताचे सार लिहिणार आहे. या माझ्या उपक्रमाला तुझ्या आशीर्वाद असू देत रे विठ्ठला !

रंगा येई वो ये …. रंगा येई वो ये

माझ्या या लेखनात अर्थ भरायला ये. तुला मी आईच्या रुपात बघते.

वैकुंठवासिनी विठाई जगत्रजननी

तुझा वेधु माझे मनी

रंगा येई वो ये ……

माझ्या ह्या लेखणीवर तुझी कृपादृष्टी असू देत.

 

लेखिका : सुश्री उल्का खळदकर

प्रस्तुती : श्री अनंत केळकर.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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