श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अंग्रेजी की टांग।)  

? अभी अभी # 88 ⇒ अंग्रेजी की टांग? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हमारे हिंदी के एक अध्यापक थे, उनका तकिया कलाम था, पिताजी की टांग। वे पढ़ाते पढ़ाते, अचानक ही किसी सुस्त और अलसाये से छात्र को खड़ा कर कोई कठिन सा प्रश्न दे मारते। उसे महसूस होता, मानो किसी ने पानी के छींटे मारकर उसे जबर्दस्ती उठा दिया हो। वह बेचारा हड़बड़ाया, सकपकाया, क्या जवाब देता, बगलें झांकने लगता। बस, वे शुरू हो जाते ! मलाई में पड़े हो, कहां है तुम्हारा ध्यान।

परीक्षा में क्या लिखोगे, पिताजी की टांग ?जाओ, पहले मुंह धोकर आओ।

हमारी दो टांगें हैं, जिनके सहारे ही हम खड़े हो पाते हैं और चल पाते हैं। आजकल चलना भी व्यायाम की श्रेणी में आ गया है। एक समय था, जब इंसान थक जाता था, तो किसी सवारी की सहायता लेता था। घोड़ा, तांगा, बैलगाड़ी और घोड़ा गाड़ी पर चलते चलते वह कब साइकिल, साइकिल से स्कूटर और स्कूटर से कार और कार से हवाई जहाज तक पहुंच गया, कुछ पता ही नहीं चला, और उसने दुनिया नाप ली। ।

जो टांग सिर्फ चलने के काम आती थी, इंसान उससे और भी कई काम लेने लग गया। सबसे पहले, सबसे बड़ा काम उसने यह किया, दूसरे के काम में टांग अड़ाना शुरू कर दिया। हो सकता है, टांग अड़ाने का यह अभ्यास उसने फुटबॉल के मैदान से सीखा हो।

यह खेल ही टांगों से खेला जाता है। पेले, सबसे पहला फुटबॉल का प्रसिद्ध खिलाड़ी हुआ। एक और खेल है हॉकी, कौन भूल सकता है हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को। इसमें एक स्टिक ही सब काम करती है, लेकिन दौड़ना तो इसमें भी टांगों के सहारे ही पड़ता है। जब तक गोल ना हो जाए, तसल्ली नहीं होती। ।

यही हॉकी की स्टिक खेल के मैदान के बाहर भी टांग तोड़ने के काम आती है। कॉलेज के दो गुटों में झगड़ा हुआ, उठाई हॉकी की स्टिक और निकल पड़े कल के छेनू और श्याम। याद कीजिए गुलजार और मीनाकुमारी की मेरे अपने। बड़बोले शत्रुघ्न सिन्हा और छैल छबीले, गठीले विनोद खन्ना।

हमारी भी टांगें भी आज तक सिर्फ इसीलिए ही साबुत बची हैं कि बचपन में अम्मां और बाबूजी ने कई बार लाख शैतानी करने पर टांगें तोड़ने की चेतावनी जरूर दी, लेकिन कभी तोड़ी नहीं। उनकी सीख और सबक के कारण ही आज हम अपने पैरों पर खड़े हुए हैं। आज तो हमें मास्टर जी की छड़ी भी, बरसात की झड़ी नजर आती है। उधर छड़ी की छमछम इधर बारिश भी झमाझम। ।

हिंदी हमारी मातृभाषा ही नहीं, राष्ट्रभाषा भी है। हिंदी का अपमान हमारी मां का और मातृ भूमि का अपमान है। कोई हिंदी की टांग तोड़े, हम यह बर्दाश्त नहीं कर सकते लेकिन अंग्रेजी का क्या है, वह तो उन अंग्रेजों की भाषा है, जिन्होंने कभी हम पर राज किया था। हम आज भी उनसे नाराज हैं। काले गोरे में भेद करने वालों की

मैकाले की पद्धति हमें वैसे भी कभी रास नहीं आई।

भला हो लोहिया जी का, जो उन्होंने हमें अंग्रेजी विरोध का एक मौका तो दिया। हमने तबीयत से अंग्रेजी की बारह बजाई। जितने भी बाजारों में, शहरों में, कस्बों में गांवों में, दीवारों पर अंग्रेजी में विज्ञापन और अंग्रेजी के साइनबोर्ड की हमने तोड़फोड़ कर, वो दुर्गति की कि हमने अंग्रेजी को उसकी सात पुश्तें याद दिला दी। ।

इतना ही नहीं, तिरंगे झंडे तले, हमने अंग्रेजी नहीं सीखने की कसम भी खा ली। लेकिन सबै दिन एक ना होय गोपाला। हमारी लाख कोशिशों के बावजूद, हमारी इच्छा के खिलाफ हमें अपने बच्चों के भविष्य के कारण टूटी फूटी अंग्रेजी सीखनी ही पड़ी।

जब बच्चों को अच्छी शिक्षा के लिए कॉन्वेंट स्कूल में गए, तो वे हमारा ही अंग्रेजी में साक्षात्कार लेने लग गए। मत पूछिए, हमें तो साक्षात भगवान ही याद आ गए। लेकिन हमने भी हार नहीं मानी और कपिल देव वाला रेपीडेक्स इंग्लिश वाला कोर्स कर लिया। तब से आज का दिन है, हमने अंग्रेजी की टांग तोड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ा। ।

जैसे फिल्म शोले में, गब्बर से बदला लेने के लिए, ठाकुर के पांव ही काफी थे, उसी प्रकार अंग्रेजी की टांग खींचने के लिए हमारा तो सिर्फ मुंह ही काफी है। वैसे मौके और दस्तूर को देखते हुए अंग्रेजी की टांग तोड़ने के साथ साथ ही अगर कांग्रेस की टांग भी खींच ली जाए तो एक पंथ दो काज हो जाए। हर बात के लिए नेहरू जिम्मेदार, अगली सरकार, मोदी सरकार।

जी हां, वह कांग्रेस का ही जमाना था। एक स्वास्थ्य मंत्री थे, जब उन्हें किसी अस्पताल के रेडियोलॉजी विभाग का उद्घाटन करने बुलाया तो वे बड़े खुश हुए। बोले, चलो अच्छा हुआ, अब मरीजों के मनोरंजन के लिए रेडियो का इंतजाम भी हो गया। ।

हमारा एक मित्र था, बेचारा आज इस दुनिया में नहीं है,

जब भी परेशान होता, मुझसे अपना दर्द बयां करता। दोस्त, जीवन में सेटिस्फिकेशन नहीं है, कभी कभी तो मन करता है, स्लीपिंग पाइल्स खाकर आत्महत्या कर लूं। वैसे यह नौबत ही नहीं आई, दिल का दौरा ऐसा आया, हमारा सबका दिल तोड़ गया।

अंग्रेजी की टांग हम जान बूझकर नहीं तोड़ते। हम नहीं मानते, हमारी अंग्रेजी कमजोर है, हमारा यह मानना है कि इंग्लिस में ही कम ज़ोर है। कहीं P साइलेंट तो कहीं L साइलेंट। यानी लिखो talk और बोलो टॉक। डरावनी फिल्म psycho को हम पहले पिस्को ही कहते थे। बस वहीं से शायद अंग्रेजी का डर अंदर समा गया है, लेकिन अंग्रेजी का भूत फिर भी ऐसा सर चढ़ा हुआ है कि हर हिंदी वाक्य में अंग्रेजी शब्द आ धमकते हैं। परमानेंट को प्रेगनेंट कहना तो खैर स्लिप ऑफ

टंग्यू हो सकता है, लेकिन जब डेथ (death) देठ हो जाती है और शिक्षक महोदय के ट्रांसफर पर बैन (ban) की जगह बैंड लग जाता है, तो अंग्रेजी की आत्मा मुक्ति के लिए छटपटाने लगती है, लेकिन अंग्रेजी जीये या मरे, हम तो उसकी टांग तोड़कर ही रहेंगे। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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