हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 144 – “मौन” – लेखक – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी द्वारा रचित पुस्तक  मौनपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 144 ☆

“मौन” – लेखक – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक – मौन

लेखक – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

प्रकाशक – पाथेय प्रकाशन जबलपुर

संस्करण – २०२३

अजिल्द, पृष्ठ – ९६, मूल्य – १५०रु

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

किताब के बहाने थोडी चर्चा पाथेय प्रकाशन की भी हो जाये. पाथेय प्रकाशन, जबलपुर अर्थात नान प्राफिट संस्थान. डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जी और कर्ता धर्ता भाई राजेश पाठक का समर्पण भाव. बहुतों की डायरियों में बन्द स्वान्तः सुखाय रचित रचनाओ को साग्रह पुस्तकाकार प्रकाशित कर, समारोह पूर्वक किताब का विमोचन करवाकर हिन्दी सेवा का अमूल्य कार्य विगत अनेक वर्षों से चल रहा है. मुझे स्मरण है कि मैंने ही राजेश भाई को सलाह दी थी कि आई एस बी एन नम्बर के साथ किताबें छापी जायें जिससे उनका मूल्यांकन किताब के रूप में सर्वमान्य हो, तो प्रारंभिक कुछ किताबों के बाद से वह भी हो रहा है. तेरा तुझ को अर्पण वाले सेवा भाव से जाने कितनी महिलाओ, बुजुर्गों जिनकी दिल्ली के प्रकाशको तक व्यक्तिगत पहुंच नही होती, पाथेय ने बड़े सम्मान के साथ छापा है. विमोचन पर भव्य सम्मान समारोह किये हैं. आज पाथेय का कैटलाग विविध किताबों से परिपूर्ण है. अस्तु पाथेय को और उसके समर्पित संचालक मण्डल को वरिष्ट पत्रकार एवं समर्पित साहित्य साधक श्री प्रतुल श्रीवास्तव जो स्वयं एक सुपरिचित साहित्यिक परिवार के वारिस हैं उनकी असाधारण कृति “मौन” के प्रकाशन हेतु आभार और बधाई.

किताब बढ़िया गेटअप में चिकने कागज पर प्रकाशित है.

अब थोड़ी चर्चा किताब के कंटेंट की. डा हरिशंकर दुबे जी की भूमिका आचरण की भाषा मौन पठनीय है. वे लिखते हैं छपे हुये और जो अप्रकाशित छिपा हुआ सत्य है उसे पकड़ पानासरल नहीं होता.

श्री प्रतुल श्रीवास्तव

बिटवीन द लाइन्स के मौन का अन्वेषण वही पत्रकार कर सकता है जो साहित्यकार भी हो. प्रतुल जी ऐसे ही कलम और विचारों के धनी व्यक्तित्व हैं. श्री राजेश पाठक ‘प्रवीण’ ने अपनी पूर्व पीठिका में लिखा है कि बोलना एक कला है और मौन उससे भी बड़ी योग्यता है. मौन एक औषधि है. समाधि की विलक्षण अवस्था है. वे लिकते हें कि प्रतुल जी की यह कृति आत्म शक्ति, आत्म विस्वास और अंतर्मन की दिव्य ढ़्वनि को जगाने का काम करती है.

स्वयं प्रतुल श्रीवास्तव बताते हैं कि जो क्षण मुखर होने से अहित कर सकते थे उन्हें मौन सार्थक अभिव्यक्ति देता है. मौन अनावश्यक आवेगों पर नियंत्रण और संकल्प शक्ति में वृद्धि करता है. मौन के उनके अपने स्वयं के अनुभव तथा साधकों के कथन किताब में शामिल हैं. मौन के रहस्य को समझकर जीवन को तनाव मुक्त और ऊर्जावान बनाना हो तो यह किताब जरूर पढ़िये. पुस्तक में छोटे छोटे विषय केंद्रित रोचक पठनीय तथा मनन करने योग्य २८ आलेख है.

मौन, चुप्पी मौन नहीं, स्वाभाविक मौन छिना, मौन से ऊर्जा संग्रहण, मौन एक साधना, मौन और सृजन, चार तरह के मौन, मौन से जिव्हा परिमार्जन, मौन पर विविध अभिमत, मन के कोलाहल पर नियंत्रण, मौन से शांति-ध्यान और ईश्वर, क्या है अनहद नाद ?, हिन्दू धर्म में मौन का महत्व, मुस्लिम धर्म में मौन, मौन एक महाशक्ति, शब्द संभारे बोलिये, मौन की मुखरता, मौन जीवन का मूल है, मौन से प्रगट हुई गीता, मौन स्वयं से जुड़ने का तरीका, मौन का संबंध मर्यादा से

बातों से प्राप्त क्रोध बर्बाद करता है समय, मौन है मन की मृत्यु, चित्त की निर्विकार अवस्था है मौन, मौनं सर्वार्थ साधनम्, मौन की वीणा से झंकृत अंतस के तार, मौन साधना तथा उसका परिणाम, तथा मौन ध्यान की ओर पहला कदम

शीर्षकों से मौन पर अत्यंत्य सहजता से सरल बोधगम्य भाषा में मौन के लगभग सभी पहलुओ पर विषद विवेचन पुस्तक में पढ़ने को मिलता है.

मौन व्रत अनेक धार्मिक क्रिया कलापों का हिस्सा होता है. हमारी संस्कृति में मौनी एकादशी हम मनाते हैं. राजनेता अनेक तरह के आंदोलनों में मौन को भी अपना अस्त्र बना चुके हैं. गृहस्थी में भी मौन को हथियार बनाकर जाने कितने पति पत्नी रूठते मनाते देखे जाते हैं. पुस्तक को पढ़कर मनन करने के बाद मैं कह सकता हूं कि मौन पर इतनी सटीक सामग्री एक ही जगह इस किताब के सिवाय अंयत्र मेरे पढ़ने में नहीं आई है. प्रतुल श्रीवास्तव जी के व्यंग्य अलसेट, आखिरी कोना, तिरछी नजर तथा यादों का मायाजाल, और व्यक्तित्व दर्शन किताबों के बाद वैचारिक चिंतन की यह पुस्तक मौन उनके दार्शनिक स्वरूप का परिचय करवाती है . वे जन्मना अन्वेषक संवेदना से भरे, भावनात्मक साहित्यकार हैं. यह पुस्तक खरीद कर पढ़िये आपको शाश्वत मूल्यों के अनुनाद का मौन मुखर मिलेगा जो आपके रोजमर्रा के व्यवहार में परिवर्तनकारी शक्ति प्रदान करने में सक्षम होगा.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #5 ☆ कविता – “उसूल…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #5 ☆

 ☆ कविता ☆ “उसूल…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

अगर जलना है

तो जलना ही सही

दुनिया का उसूल है

तो वह भी सही

 

मुरझाए हैं फिर भी

फूल तो फूल ही कहलाते हैं 

टूटे हैं  फिर भी

काटें तो काटें ही कहलाते हैं 

 

कायनात के हम बाशिंदे हैं 

मन से उसे निभाते हैं 

गर कट भी जाएं

फ़िर भी काटें ही हैं 

 

क्या तुम कायनात के

उसूलों पर चल रही हो

मुरझाने पर भी

क्या फूल ही रहती हो

 

हम गर काटें हैं 

तो यूं ही कटते जाएंगे

तुम अगर खिल जाती हो

तो उसूल निभाते जाएंगे

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #143 – “आलेख – सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आलेख – “सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 143 ☆

 ☆ “आलेख – सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

यह प्रश्न जटिल है कि क्या सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है, इसका कोई आसान उत्तर नहीं है। इस मुद्दे के दोनों पक्षों में मजबूत तर्क दिए जाने हैं।

जो लोग मानते हैं कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर गिरता है, उनका तर्क है कि इससे लेखक न्यायाधीशों या दर्शकों को खुश करने के लिए अपनी कलात्मक अखंडता का त्याग कर सकते हैं। उनका यह भी तर्क है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव रचनात्मकता को दबा सकता है और फॉर्मूलाबद्ध लेखन की ओर ले जा सकता है।

दूसरी ओर, जो लोग मानते हैं कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य के स्तर में सुधार हो सकता है, उनका तर्क है कि यह लेखकों को अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने के लिए आवश्यक प्रेरणा और फोकस प्रदान कर सकता है। उनका यह भी तर्क है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव लेखकों को अपने काम के प्रति अधिक आलोचनात्मक होने और उत्कृष्टता के लिए प्रयास करने के लिए मजबूर कर सकता है।

मेरे विचार में, सच्चाई इन दोनों चरम सीमाओं के बीच में कहीं है। हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कुछ लेखकों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, लेकिन यह दूसरों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक भी हो सकता है। अंततः, सम्मान के लिए लिखने से साहित्य के स्तर में सुधार होता है या नहीं, यह व्यक्तिगत लेखक और शिल्प के प्रति उनके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।

अपने तर्क का समर्थन करने के लिए, मैं खेल और साहित्य दोनों से दो उदाहरण प्रदान करूंगा। खेल की दुनिया में, हम अक्सर देखते हैं कि जब एथलीट प्रमुख प्रतियोगिताओं में प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं तो वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रतिस्पर्धा का दबाव उन्हें खुद को अपनी सीमा तक धकेलने और अपना सब कुछ देने के लिए मजबूर करता है। उदाहरण के लिए, माइकल जॉर्डन एनबीए फ़ाइनल में अपने अविश्वसनीय प्रदर्शन के लिए जाने जाते थे। वह अक्सर कहा करते थे कि उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ बास्केटबॉल तब खेला जब दांव सबसे ऊंचे थे।

साहित्य की दुनिया में, हम ऐसे लेखकों के उदाहरण भी देख सकते हैं जिन्होंने दबाव में होने पर भी अपना सर्वश्रेष्ठ काम किया है। उदाहरण के लिए, चार्ल्स डिकेंस धारावाहिक उपन्यास के उस्ताद थे। वह अक्सर समय सीमा के दबाव में लिखते थे और इस दबाव ने उन्हें नियमित आधार पर उच्च गुणवत्ता वाले काम करने के लिए मजबूर किया। उनके उपन्यास, जैसे “ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़” और “ग्रेट एक्सपेक्टेशंस”, अंग्रेजी साहित्य के क्लासिक्स माने जाते हैं।

निःसंदेह, सम्मान के लिए लिखने वाले सभी लेखक महान कार्य नहीं करते। हालाँकि, मेरा मानना ​​है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कई लेखकों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक हो सकता है, और इससे बेहतर काम का उत्पादन हो सकता है।

जिन उदाहरणों का मैंने पहले ही उल्लेख किया है, उनके अलावा, कई अन्य लेखक भी हैं जिन्होंने दबाव में महान कार्य किया है। उदाहरण के लिए, विलियम शेक्सपियर ने सार्वजनिक मंच के लिए नाटक लिखे, और वह जानते थे कि उनके काम का मूल्यांकन दर्शकों द्वारा किया जाएगा। इस दबाव ने उन्हें ऐसे नाटक लिखने के लिए मजबूर किया जो मनोरंजक और विचारोत्तेजक दोनों थे। उनके नाटक, जैसे “हैमलेट” और “किंग लियर”, आज भी साहित्य के अब तक लिखे गए सबसे महान कार्यों में से एक माने जाते हैं।

मेरा मानना ​​है कि लेखकों की अगली पीढ़ी को सम्मान के लिए लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे उन्हें बेहतर काम करने में मदद मिलेगी और लेखक के रूप में सफल करियर बनाने में भी मदद मिलेगी।

अंत में मेरा मानना ​​है कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधर सकता है। प्रतिस्पर्धा के दबाव से बेहतर लेखन हो सकता है, और मान्यता की इच्छा लेखकों को लिखते रहने की प्रेरणा प्रदान कर सकती है। साहित्य और खेल से ऐसे कई उदाहरण हैं जो इस तर्क का समर्थन करते हैं।

हालाँकि, मेरा यह भी मानना ​​है कि लेखकों के लिए अपनी कलात्मक अखंडता बनाए रखना महत्वपूर्ण है। उन्हें जजों या दर्शकों को खुश करने के लिए अपने दृष्टिकोण का बलिदान नहीं देना चाहिए। अंततः, सबसे अच्छा काम तब होता है जब लेखक प्रतिस्पर्धा के दबाव और अपनी आवाज के प्रति सच्चे बने रहने की आवश्यकता के बीच संतुलन बनाने में सक्षम होते हैं।

यहां उन लेखकों के कुछ अतिरिक्त उदाहरण दिए गए हैं जिन्होंने दबाव में भी बेहतरीन काम किया है:

जेन ऑस्टेन: ऑस्टिन ने अपने उपन्यास वित्तीय ज़रूरत के दबाव में लिखे। वह जानती थी कि पैसा कमाने के लिए उसका काम अच्छा होना चाहिए और इस दबाव ने उसे अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने के लिए मजबूर किया।

लियो टॉल्स्टॉय: टॉल्स्टॉय ने अपने उपन्यास अपनी पूर्णतावाद के दबाव में लिखे। वह अपने काम से कभी संतुष्ट नहीं थे और इस दबाव ने उन्हें अपने लेखन को लगातार संशोधित और सुधारने के लिए मजबूर किया।

फ्रांज काफ्का: काफ्का ने अपने उपन्यास अपनी मानसिक बीमारी के दबाव में लिखे। वह गंभीर चिंता और अवसाद से पीड़ित थे और इस दबाव ने उन्हें अपने काम में मानव स्वभाव के अंधेरे पक्ष का पता लगाने के लिए मजबूर किया।

ये उन लेखकों के कुछ उदाहरण हैं जिन्होंने दबाव में भी बेहतरीन काम किया है। हालाँकि लेखकों के लिए अपनी कलात्मक अखंडता बनाए रखना महत्वपूर्ण है, मेरा मानना ​​है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कई लेखकों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक हो सकता है, और इससे बेहतर काम का उत्पादन हो सकता है।

मुझे आशा है कि इस लेख से इस बहस पर कुछ प्रकाश डालने में मदद मिली होगी कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है या नहीं। मेरा मानना ​​है कि उत्तर हां में है, और मैं सभी लेखकों को अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने का प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित करता हूं, भले ही वे पुरस्कार के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हों या नहीं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

04-07-2023 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 91 ⇒ मोहल्ले का कुत्ता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मोहल्ले का कुत्ता”।)  

? अभी अभी # 91 ⇒ मोहल्ले का कुत्ता? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

शहरों की सड़कों और गलियों में आजादी से घूमने वाली इस प्रजाति को अक्सर आवारा अथवा सड़क छाप कुत्ता कहकर ही संबोधित किया जाता है। अन्य समस्याओं की तरह इस समस्या का भी सामना करते हुए एक आम आदमी अपनी जिंदगी काट ही लेता है। समस्या तब और गंभीर हो जाती है, जब उसे कोई कुत्ता काट लेता है।

Barking dogs seldom bite. लेकिन कोई भी कुत्ता काटने के पहले अनुमति नहीं लेता।

एक राहगीर के लिए भले ही वह आवारा सड़क छाप कुत्ता हो, लेकिन उसका भी एक मोहल्ला होता है, उसके भी कुछ संगी साथी होते हैं। ।

सुबह जो लोग टहलने जाते हैं, उन्हें मोहल्ले के ये कुत्ते अक्सर नजर आ जाते हैं इनका एक झुंड होता है, जिसमें बच्चे बूढ़े सभी शामिल होते हैं जिनमें एक बूढ़ी कुतिया भी शामिल होती है। हर घर का बचा भोजन और रोटी इनके लिए सांझा चूल्हा होता है।

इनके छोटे छोटे पिल्लों के साथ मोहल्ले के बच्चे खेला करते हैं, कोई भी पिल्ला मुंह उठाए आपके साथ हो लेता है, भले ही आपको कुत्तों से नफरत हो।

घर की महिलाओं और बच्चों को मोहल्लों के इन कुत्तों से अनायास ही लगाव हो जाता है। केवल सूंघने मात्र से एक अपरिचित, इनके लिए परिचित हो जाता है। कभी कभी कोई परिचित कुत्ता अनायास ही आपके साथ हो लेता है, मानो आप धर्मराज हों। लेकिन इनका एक दायरा होता है, हद होती है, ये उसे क्रॉस नहीं करते। ।

दुश्मन कुत्तों से इन्हें भी खतरा होता है। ये बिना वेतन के अपने मोहल्ले की चौकीदारी करते रहते हैं, कोई बाहरी आदमी आए, तो भौंकना शुरू कर देते हैं, और अगर उसने प्रतिरोध किया अथवा लकड़ी और पत्थर उठाया, तो फिर ये भी अपनी वाली पर आ जाते हैं। भौंकना इनका हथियार है। जब ये समूह में होते हैं, तो रात भर भौंक भौंककर लोगों की नींद हराम कर देते हैं।

हमारी रहवासी मल्टी पूरी तरह सुरक्षित है, वहां आवारा कुत्तों का प्रवेश वर्जित है। यह अलग बात है कि कुछ रहवासी सदस्यों ने ही विदेशी नस्ल के कुत्ते पाल रखे हैं। एक बच्चे से अधिक प्यार और देखभाल उसे लगती है। उसका भी घर के अन्य सदस्यों की तरह एक प्यारा सा नाम होता है। वह भी बीमार पड़ता है, उसका डॉक्टर अलग है, उसका भी अपना एक अलग पार्लर है। ।

सुबह वह बलात् अपने मालिक/मालकिन को टहलने ले जाता है। वह उसका दिशा मैदान का समय होता है। उसके गले में पट्टा और चेन भी होती है। वह अपने मालिक को इतनी फुर्ती से बाहर खुले में ले जाता है, मानो कोई ट्रेन छूट रही हो। लघु शंका के लिए तो प्रशासन ने उसके लिए स्थायी रूप से बिजली के खंभे खड़े कर ही दिए हैं, जिसमें कुछ योगदान सड़क के पास खड़ी आयातित कारों का भी हो जाता है, लेकिन फिर भी दीर्घ शंका के लिए स्वच्छ शहर में मनमाफिक जगह ढूंढना इतना आसान नहीं। जगह जगह, जमीन को सूंघा जाता है, परखा जाता है, उसके बाद ही नित्य कर्म को अंजाम दिया जाता है। स्वच्छ भारत में इनके योगदान से प्रशासन भी अपरिचित नहीं, लेकिन समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण कानून इन पर तो लागू नहीं हो सकता न।

आज स्थिति यह है कि कुछ लोग सुबह अपने पालतू कुत्तों के कारण टहल रहे हैं तो कुछ सड़क के आवारा कुत्तों के कारण नहीं टहल पा रहे हैं। आपको तो कुत्ता कभी भी काट सकता है, लेकिन आप तो कुत्ते को नहीं काट सकते। नेताओं के भाषण सुन सुनकर कान इतने पक गए हैं कि मोहल्ले के कुत्तों का भौंकना अब इतना बुरा भी नहीं लगता लेकिन कुत्ते की समस्या को लेकर न तो हम जागरूक हैं और न ही हमारे कर्णधार। किससे करें शिकायत, कि कुत्तों के शोर ने, हमें और पूरे परिवार को, रात भर सोने भी ना दिया।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 167 ☆ बाल कविता – कैसे होते दिन और रात ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 167 ☆

बाल कविता – कैसे होते दिन और रात ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

टीचर जी समझाती हमको

कैसे होते दिन और रात।

आज समझ में सब कुछ आया

बहुत सरल – सी यह है बात।

 

मुन्ना बोले आओ समझें

रवि , धरा की सत्य कहानी।

ईश्वर की सृष्टि है न्यारी

सबने यही बातें मानी।।

 

पृथ्वी घूमे एक धुरी पर

सदा यह घूमा करती है।

चौबीस घंटे में ये नित ही

चक्कर पूरा करती है।।

 

सूर्यदेव हैं अंतरिक्ष में

सदैव उजाला करते हैं।

स्थिर रहते एक जगह पर

पर लगे कि जैसे चलते हैं।।

 

घूम रही धरती का हिस्सा

जब रवि के सम्मुख आता।

उसी अंश में खूब उजाला

रवि किरण से जगमगाता।।

 

जहाँ न पहुँचे रवि उजाला

वह भाग तम से भर जाता।

वहाँ हो जाती रात घनेरी

सूर्य धरा को रोज नचाता।।

 

नित्य घूमती धरा इस तरह

छोटी – सी विज्ञान की बात।

समझ में सभी आज आ गया

कैसे होते दिन और रात।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ !! गुरु !! ☆ सौ. सुनिता जोशी ☆

सौ. सुनिता जोशी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ !! गुरु !! ☆ सौ. सुनिता जोशी ☆

आक्रमित हा प्रवास, सत्-मार्ग माझा गुरु

अशाश्वत हा निवास, सत्–वास माझा गुरु..

 

बेबंध ही नाती, सत्–बंधन माझा गुरु

बेधुंद ही स्तुती, सत्–मंथन माझा गुरु..

 

चंचल हे मन, सत्–बुद्धी माझा गुरु

नश्वर हे तन, सत्–शुद्धी माझा गुरु..

 

बेगडी ही माया, सत्–प्रीत माझा गुरु

आभासी ही छाया, सत्–मित्र माझा गुरु..

 

अनिष्ट ह्या प्रथा, सत्–निष्ठ माझा गुरु

अरोचक ह्या कथा, सत्–गोष्ट माझा गुरु..

 

दिखाऊ ही विरक्ती, सत्–भाव माझा गुरु

सदोष ही मुक्ती, सत्–ठाव माझा गुरु..

 

अपरिहार्य हे जगणे, सत्–आचार माझा गुरु

अमतितार्थ हे मरणे, सत्–विचार माझा गुरु..

 

© सौ. सुनिता जोशी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #168 ☆ वारकरी…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 168 ☆ वारकरी…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

पंढरीच्या वाटेवर चालतोया वारकरी

विठ्ठलाला भेटण्याची आस असे त्याच्या ऊरी..!

 

टाळ मृदूंगची लय मना मनात घुमते

एक एक अभंगाने देहभान हरपते..!

 

हर एक वारकरी माझ्या विठूचेच रूप

डोक्यावरी टोपी त्याच्या भासे कळसाचे रूप..!

 

इवल्याशा तुळशीने दिंडी शोभून दिसते

दिंडी पताका घेऊन वारी सुखात चालते..!

 

किर्तीनात मृदूंग ही जेव्हा वाजत रहातो

भक्तिभाव तुकयाचा माझ्या अंतरी दाटतो..!

 

वारीमध्ये चालताना मी ही विठूमय झालो

माऊलीच्या सावलीला काही क्षण विसावलो..!

 

नाही म्हणावे कशाला काही कळेनाच आता

कंठ विठ्ठल विठ्ठल गात आहे गोड आता..!

 

© श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सोशल मीडिया पासून सावधान… भाग – ३ ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

 🌸 विविधा 🌸

☆ सोशल मीडिया पासून सावधान… भाग – ३ ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

मागच्या आठवड्यात मला एक फोन आला.लाईट बिल भरले नाही.एम.एस. ई.बी.मधून बोलतो आहे असे सांगणारा.त्यांना बिल भरल्याचे सांगितले.त्यावर पलीकडून पत्ता,बिलाची रक्कम,कसे भरले आहे याचे डिटेल्स सांगण्यात आले.पण त्या ॲप मधून भरल्यामुळे बिल मिळाले नाही असे सांगितले.बिल आज भरले नाही तर वीज कट होईल सांगितले.मी ऑफीसमध्ये जाऊन बघते असे सांगितले.तर म्हणे आम्ही बिल अपडेट करून देतो.फक्त एक ॲप डाऊनलोड करा.आणि त्या वर येणारा ओ टी पी सांगा.बाकीचे आम्ही बघतो असे सांगितले. ओ टी पी पाठवा म्हंटल्यावर मी सावध झाले.डोक्यात धोक्याची घंटा वाजली.मी सांगितले माझे सगळे कॉल आपोआप रेकॉर्ड होतात.हा कॉल पोलिसांना ऐकवते आणि मग ठरवते.हे ऐकल्या बरोबर पलीकडून कॉल कट झाला.आणि मी बँक रिकामी होण्यापासून वाचले.नंतर असे बरेच किस्से समजले.म्हणून हे लिहावे वाटले.

सध्या नेट वरून फसवणुकीचे असे प्रकार खूप वाढले आहेत.आपल्याला घाबरवून अशी माहिती मागवतात आणि त्या आधारे पैसे लुबाडतात.

हे एक प्रकारचे सायबर फिशिंग असते.जसे मासेमारी साठी गळ टाकतात तसेच होते.यात एखादे ॲप किंवा लिंक गळ म्हणून वापरले जाते.ते ॲप डाऊनलोड केले.किंवा लिंक क्लिक केली की आपण त्यात अडकतो.आणि आपली सगळी माहिती गुन्हेगारांना मिळते.

कोणतीही सुविधा आली की त्याचे फायदे तोटे दोन्ही असते.कोणत्याही सुविधा किंवा आधुनिक तंत्रज्ञान वाईट नसते.गरज असते ती आपण पूर्ण माहिती घेऊन ते काळजी पूर्वक वापरण्याची.जसे सिगारेट पाकिटावर वैधानिक इशारा असतो.तसेच इशारे याच सोशल मीडिया वर वारंवार दिले जातात.पण आपण सोयीस्कर दुर्लक्ष करतो.आणि अशा सापळ्यात अडकतो.तरी सावध राहून व्यवहार करावेत.ते आपल्या सोयी साठीच असतात.

अजून एक सांगावेसे वाटते.आपण ज्या देवदेवतांच्या इमेज किंवा संदेश असलेल्या इमेज पाठवतो त्या मुद्दाम फोन मध्ये व्हायरस सोडण्यासाठी बनवलेल्या असतात.अगदी सगळ्याच तशा नसतात.पण आपण काळजी घ्यावी.आपल्याला सुद्धा चांगले विचार सुचतात की,ते टाईप करून पाठवावेत.आणि आलेल्या इमेज डाऊनलोड न करता डिलीट कराव्यात.

आपली थोडी सावधगिरी

नेट घेई भरारी…

अवघड कामे सहज करी

आपली वाचवे फेरी…

मीडिया धरू करी

वेळ श्रम वाचवू परोपरी

तंत्रज्ञानाची कास धरी

परी बाळगू सावधगिरी

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

१०/६/२०२३

सांगवी, पुणे

मोबाईल नंबर – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सावित्री ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता प्रशांत खंडकर

? जीवनरंग ❤️

☆ सावित्री ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सकाळी दहा-साडेदहा वेळ होती माधवजी डोळे मिटून आरामखुर्चीत बसले होते.

पत्नीच्या वियोगाचं दुःख त्यांच्या चेहर्‍यावर स्पष्टपणे जाणवत होतं.  माधवजींची मुलगी निशा आणि मुलगा मुकेश, बाजूलाच सोफ्यावर बसले होते.

नयनाबेनचं दहा दिवसांपूर्वीच निधन झालं होतं . ते कळल्यावर निशा आणि मुकेश दोघेही परदेशातून इकडे आले होते. पण आता त्यांना परतायचे वेध लागले होते. अचानक यावं लागल्याने ते एकेकटेच आले होते. त्यांचे कुटुंबीय तिकडेच होते.

नयनाबेन गेली चार वर्षे अंथरुणालाच खिळून होत्या. पॅरॅलिसिसमुळे त्यांच्या शरीराचा डावा भाग लुळा पडला होता. एका नातेवाईकाच्या लग्नाला जात असताना वऱ्हाडाच्या बसला अपघात झाला, नयनाबेनच्या मेंदूला मार बसला आणि हे अपंगत्व आलं. पण त्यावेळी दोन्ही मुलं काही येऊ शकली नव्हती अथवा नंतरही फिरकली नव्हती. फोनवरून कधीमधी बोलणं, चौकशी व्हायची फक्त.

माधवजींचं नयनाबेनवर मनापासून प्रेम होतं. तिच्या उपचारात त्यांनी कोणतीही हयगय केली नाही. तिच्या सेवेसाठी चोवीस तास बाई–वासंतीला ठेवलं होतं, तरी ते स्वतः देखील शक्य होईल ते तिच्यासाठी प्रेमानं करत होते. आपल्या ‘नयन ज्वेलर्स’ मध्ये जाण्याआधी, रोजचा चहा- नाश्ता, ते नयनाबेनच्या रूममध्येच घ्यायचे, तिच्याशी बोलत. सुदैवाने नयनाबेनच्या बोलण्यावर या आजाराचा फारसा परिणाम झाला नव्हता. बोलताना किंचित अडखळायला व्हायचं, एवढंच!

बहुतेक सगळे सगे-सोयरे येऊन भेटून गेले होते. त्यामुळे घरात आता वर्दळ नव्हती. दहा दिवस सुतक पाळण्याव्यतिरिक्त, कोणतंही कर्मकांड करण्याची रूढी माधवजींच्या समाजात नव्हतीच.

देशमुख वकिलांना  आलेलं  बघून मुलांच्या चेहऱ्यावर प्रश्नचिन्ह उमटलं. पण माधवजींना काही आश्चर्य वाटलं नाही, कारण ते त्यांचे जवळचे मित्र होते आणि दोन्ही कुटुंबांचा चांगला घरोबाही होता. ते मुकेशनं पुढे केलेल्या खुर्चीवर स्थानापन्न झाले आणि त्यांनी आपल्या येण्याचं कारण सांगताच, मुलांइतकेच माधवजीही चकित झाले. नयनाबेननी मृत्युपत्र केलं होतं, आणि मुलांच्यासमोरच त्याचं वाचन व्हावं,यासाठी देशमुख वकील मुद्दाम आले होते. त्यांनी वासंतीलाही तिथे येऊन बसायला सांगितलं, तेव्हा वासंतीसकट सगळेच बुचकळ्यात पडले. पण देशमुख वकिलांचा मान राखून, ती तिथेच पण जरा दूर खुर्ची ओढून बसली.

देशमुख वकिलांनी बॅगेतून एक सीलबंद पाकीट बाहेर काढून सर्वांसमक्ष उघडले आणि वाचायला सुरुवात केली….

‘ मी गेल्या चार वर्षांपासून अंथरुणाला खिळून आहे. माधवजींनी माझ्या उपचारात कोणतीच कसूर केली नाही. स्वतःही प्रेमाने माझी सेवा केली, म्हणूनच कदाचित मी इतके दिवस जिवंत राहिले. पण माझं आयुष्य संपत आलंय असं मला आतून जाणवतंय. माझ्या परिस्थितीत काहीच सुधारणा होत नाहीये. अश्या परावलंबी जिण्याचा खरं तर मला कंटाळाही आला आहे. पण माधवजींची प्रेम आणि वासंतीनं मनापासून केलेली सेवा मला जगायला लावते आहे.  या जगाचा निरोप घेण्याआधी मला माझ्या मनातलं काही सांगायचं आहे.

साधारण तीन वर्षांपूर्वी वासंती आमच्याकडे आली. आमच्या शेजाऱ्यांच्या कामवालीच्या दूरच्या नात्यातली. साताऱ्याजवळ तिचं गाव.

तिला जवळचं कोणी नातेवाईक नाही, म्हणून ती पोटापाण्याचा उद्योग शोधायला इकडे आली. तशी दहावीपर्यंत शिकलेली. आम्हाला चोवीस तास रहाणारी बाई हवीच होती. म्हणून हिला ठेवून घेतलं.

वासंती अगदी प्रेमानं माझं सगळं करायची. शिवाय घरातली इतर कामंही ती स्वतःहून करते. ती खरंतर अबोलच, पण सतत बरोबर राहिल्याने माझ्याशी बोलू लागली. तिची कहाणी ऐकून मी तर सर्दच झाले.

तिचे वडील ती सातवीत असतानाच गेले. साप चावल्याचं निमित्त झालं आणि खेड्यात उपचार वेळेवर मिळू शकले नाहीत. घरची थोडीफार शेती पोटापाण्यापुरती. एकच भाऊ पाचेक वर्षांनी मोठा. तो  शेती बघू लागला आणि आई घर सांभाळायची. हिची दहावीची परीक्षा झाली आणि एकाच मांडवात भाऊ आणि बहिणीचं लग्न उरकण्यात आलं.

वासंतीचा नवरा पण दहावीपर्यंत शिकलेला, घरची शेती आणि भाजीचा मळा होता. आई-वडील आणि ही दोघं असं छोटसं कुटुंब.. खाऊन-पिऊन सुखी. मोठी बहिण लग्न होऊन सासरी साताऱ्यात राहात होती. वासंतीचा नवरा मोटरसायकल घेऊन साताऱ्याला बाजारात जायचा. कधी भाजीचं बियाणं, खतं आणायला, कधी भाजीचे पैसे आणायला. मळ्यातली भाजी रोज साताऱ्याला टेंपोने पाठवली जायची.

आणि एक दिवस बाजारातून घरी येताना, त्याला ट्रकनी उडवलं. बाईकचाही चक्काचूर झाला आणि तो जागीच…

जेमतेम सहा महिने झाले होते लग्नाला. दिवसकार्य झाल्यावर रीत म्हणून भाऊ वासंतीला माहेरी घेऊन आला. आईसोबत, भावजयीनंही तिचं दुःख समजून महिनाभर सगळी खातिर केली. महिनाभरानंतर भाऊ तिला सासरी पोचवायला गेला, तर सासरच्यांनी तिला पांढऱ्या पायाची, अवलक्षणी म्हणून घरात घ्यायचंच नाकारलं.’ आमचा सोन्यासारखा मुलगा गेला आता आमचा हिचा काही संबंध नाही.’

ही भावासोबत परत आली. वर्ष होऊन गेलं तसं भावाने हिचं दुसरं लग्न करून देण्याचा प्रयत्न केला. पण आधीची हकीकत कळली की नकार यायचा. हिचा पायगुण वाईट म्हणून.

अश्या बाबतीत लोकं मागासलेलेच! नणंद कायमचीच इथं राहणार ,या विचारानं भावजयीचं वागणंही बदललं. घरातलं सगळं काम तर वासंती करतच होती. पण तरी भावजय काहीतरी खुसपट काढून वाद घालत होती. आई होती तोवर जरा तरी ठीक होतं. पण आई गेल्यावर तर घरात रोजच भांडणतंटा सुरू झाला. त्याला कंटाळून हिनं भावाचं घर सोडलं आणि इथे आली.

एवढ्या लहान वयात असं झाल्याने, बिचारीला काहीच हौसमौज करता आली नाही. विधवा म्हणून साधं फूल-गजरा माळायची पण चोरी.

माधवजी माझ्यासाठी न चुकता गजरा आणायचे मी आजारी होते तरीही. माझ्या केसात तो माळण्याआधी वास घेताना, वासंतीच्या चेहऱ्यावरचे भाव मी अनेकदा वाचले होते.
काल वटपौर्णिमेच्या आदल्या दिवशी सकाळी, नेहमी प्रमाणे माधवजींनी माझ्या हातात नवीन साडी ठेवली. मी माधवजींनी म्हटलं, ‘ यावर्षी मला एक छानसं मंगळसूत्रही हवंय बरं का!’ त्यांना आश्चर्य वाटलं, कारण मी कधीच कोणत्या दागिन्याची मागणी आजवर केली नाही. पण संध्याकाळी येताना ते घेऊन आले. उद्या पूजा करताना घालेन, म्हणून मी त्यांना कपाटात ठेवायला दिलं.  सकाळी माझी तब्येत एवढी बिघडली की मी फक्त पडल्याजागी हात जोडूनच पूजा केली. दरवर्षी या दिवशी दानधर्म करण्याचा माझा नेम.  पण तोही चुकला.  मी मनाशी काहीतरी ठरवलं,आणि देशमुख काकांना बोलावून त्यांचा सल्ला घेतला आणि नंतर मृत्यूपत्र बनवलं. कारण  या जगातून जाण्याआधी  मला माझा विचार प्रत्यक्षात आणणं शक्य नव्हतं,कायद्याच्या आडकाठीमुळे. म्हणून तुम्ही ते  करावं अशी माझी शेवटची इच्छा आहे.

मी सौभाग्यदान करायचं ठरवलं आहे. माझी इच्छा आहे वासंती आणि माधवजी यांनी लग्न करून एकत्र रहावं. अर्थात त्या दोघांनी आनंदाने संमती दिली तरच. माधवजींचं वय बावन्न  आणि वासंतीचं अडतीस.  जरा वयात  अंतर आहे. पण माधवजींची काळजी ती नीट घेवू शकेल. त्यांच्या आवडीनिवडी तिला नीट माहिती झाल्या आहेत तीन वर्षांत! ती त्यांना नक्कीच सुखात ठेवेल. माधवजींनीदेखील पुढील आयुष्य आनंदात, समाधानात घालवावं , एकटं राहू नये असं मला वाटतं.

दोन्ही मुलं तशीही परदेशातच राहात असल्याने, हे समजून घेतील , अशी मी अपेक्षा करते. निशा-मुकेशच्या शिक्षणासाठी, परदेशी जाण्यासाठी आणि लग्नातही जे द्यायचं ते देऊन झालं आहे. त्यामुळे माझं स्त्रीधन – सर्व दागदागिने वासंतीला द्यावे. जर तिची माधवजींशी लग्न करण्याची इच्छा नसेलच तर दुसरा एखादा चांगला मुलगा बघून तिचं लग्न करून द्यावं आणि त्यासाठी माझं स्त्रीधन वापरावं. सावित्रीने सत्यवानाचे प्राण यमाकडे मागून त्याला जिवंत केलं होतं. मीही माझ्या सत्यवानाला-माधवजींना नवजीवन लाभावं यासाठीच विनंती करते आहे. ‘

‘…… मृत्यूपत्रावर तारीख होती सहा महिन्यांपूर्वीची… वटपौर्णिमा होती त्या दिवशी.

देशमुख वकिलांनी वाचन संपवलं.

वासंतीला हुंदका आवरता आला नाही. या आगळ्यावेगळ्या मृत्यूपत्रानं सगळ्यांना निःशब्द केलं होतं.

© सुश्री प्रणिता खंडकर

संपर्क – सध्या वास्तव्य… डोंबिवली, जि. ठाणे.

ईमेल [email protected] केवळ वाॅटसप संपर्क.. 98334 79845.

ही कथा आवडल्यास लेखिकेच्या नावासह आणि कोणताही बदल न करता अग्रेषित करण्यास हरकत नाही.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ॥ हरिनामाचा सरवा ॥ ☆ सुश्री विनिता तेलंग ☆

सुश्री विनिता तेलंग

? मनमंजुषेतून ?

॥ हरिनामाचा सरवा ॥ ☆ सुश्री विनिता तेलंग ☆

(अगा वैकुंठीच्या राया …)  

विठ्ठल हा मालनीचा जिवलग .त्याला एकदा भेटून तिचं मन निवत नाही. पण संसाराची ,मुलालेकरांची, गायीगुरांची जबाबदारी तिच्यावर असते .ती जबाबदारी तिला दर वारीला जाऊ देत नाही .मग तिला वाटतं की आपण ‘बाईमाणूस’ म्हणून जाऊच नये .पंढरीच्या वाटेवरचं काहीही होऊन रहाणं तिला चालणार आहे .

किंवा कदाचित मनुष्यजन्म सरल्यावरही तिला त्याचा सहवास हवा आहे .तो कसा ? तर 

पंढरपुरीचाऽ           

मी का व्हयीन खराटा ऽऽ

इट्टलाच्या बाईऽ       

लोटंऽन चारी वाटा ऽऽ

पंढरपुरीची ऽ           

व्हयीन देवाची पायरी ऽऽ

ठेवील गऽ पाय ऽ      

सये येता जाता हरी ऽऽ

पंढरपुरीची ऽ           

मी गं व्हयीन परात ऽऽ

विठूच्या पंगतीला ऽ   

वाढीन साखरभात ऽऽ

याचा अर्थ कळण्याजोगा आहे ..पण याचा शेवट मोठा लोभस आहे ! 

पंढरपुरामंदी ऽ          

मी का व्हयीन ऽ पारवा ऽऽ

येचीन मंडपात ऽ        

हरिनामाचा सरवा 

तिला पारवा होऊन हरिनामाचा सरवा वेचायचा आहे !

किती विलक्षण प्रतिभा आहे या मालनीची ..

शेतातल्या पिकाची कापणी, मळणी करताना धान्याचे काही दाणे भुईवर सांडतात .तो सरवा .त्याला पाखरं टिपतात . पंढरपुरात मंदिरात जागोजागी हरिनामाचा गजर होतच असतो .नामसंकीर्तन ,भजन ,कीर्तन झाल्यानंतर भक्त बाहेर पडतात. त्यांच्या मुखातूनही तेच ऐकलेलं नाम बाहेर सांडत असतं .हा नामाचा सरवा तिथं मंदिराच्या सभामंडपात, प्रांगणात सांडून रहातो तो तिला वेचायचा आहे ! 

अशाच एका मालनीला वाटेवरचं गवत होऊन , वारकर्‍यांनाच विठू समजून त्यांचे पाय कुरवाळायचेत ! मातीचा डेरा होऊन त्यांचे पाय आपल्या आतल्या पाण्यानं, मायेनं भिजवायचेत .पण पुढं तिला बाभूळ, तुळस व्हावं वाटतं यामागे मात्र वारकर्‍याचं मोठं मन दिसून येतं .ती म्हणते ,‍

पंढरीच्या वाटं ऽ       

मी तं व्हयीन बाभूळ ऽ ऽ 

येतील मायबाप ऽ    

वर टाकीती ऽ  तांदूळ ऽ ऽ

पंढरीच्या वाटं ऽ     

मी  ग व्हयीन तूळस ऽ ऽ

य‍ेतील मायबाप ऽ   

पानी देतील मंजूळसं ऽ ऽ

वारीला जाताना वारकरी सोबत पीठमीठ घेतात ,तसे तांदूळही घेतात .आपल्यासोबत चालणारा, भेटणारा कुणीही उपाशी रहायला नको ,याकरता ते दक्ष असतात. एकांड्या साधू संन्याशाला ते तयार भाजी भाकरी देतात .कुणाला ते चालत नसलं तर त्याला शिधा म्हणजे तांदूळ देतात .चालताना बाभळीचं झाड आलं की पालवी दाट नसल्यानं त्यावरची पाखरं लगेच दिसतात .मग ते त्यांना तांदूळ टाकतात . पाखरांनाही दाणे फेकलेले दिसतात व खाली येऊन ती ते टिपू लागतात.

बाभळीच्या झाडोर्‍यासारखी ही मालन .तिच्याकडं काहीच साहित्य नाही .पण ही सार्‍यांची सेवा करते.  सामान वहाते, पाणी आणते, भाकर्‍या बडवू लागते ,पाय चेपून देते .ही वारीची लेक होते .मग मायबाप तिलाही दाणा घालतात ,जेवू घालतात .वारीत बाया डोईवर तुळस नेतात .तिला, किंवा वाटेतही तुळस दिसली की तिला पाणी द्यायची रीत आहे .वारकरी या तुळसाबाईलाही जवळचं पाणी देतील .पण ती पिईल कशात ? तर ओंजळीत हलकेच ओतलेलं मंजुळसं पाणी तिला मिळेल ! वारीला जाण्यामागं विठ्ठलाची ओढ तर आहेच पण कदाचित तिच्या रूक्ष, खडतर संसारात तिला न मिळणारी माया, आपलेपणा तिला वारीत मिळतो . रोजच्या कामच्या रगाड्यातून सुटका तर होतेच पण मुक्तपणाचा एक निर्भर आनंदही तिला हवाहवासा वाटत असणार .वारीत सारे सारखे … एकमेकांकडे सख्यभावानं, आत्मीय भावानं पहाणारे.  तिथल्या सार्‍या बंधूंना ती साधू म्हणते .तिथं ती सासुरवाशीण नाही. कपड्याचे, केसाचे -तिच्या संस्कृतीतल्या नियमांचे काच वारीत नसतात .मग तीही जरा सैलावते आणि निगुतीनं तेलपाणी करुन जपलेले आपले केस मोकळे सोडू शकते .वारीत उन्हापावसात चालणं ,कधी घामानं तर कधी पावसानं भिजणं, नदीत स्नान करणं ,यामुळंही ती कायम केस बांधत नाही .कितीतरी मालनी या साध्याशा सुखाबाबत भरभरून बोलतात ..

पंढरीला जातेऽ         

मोकळी माझी येनी 

साधूच्या बराबरी ऽ    

मी ग आखाड्या केला दोनी ऽ ऽ

पंढरीच्या वाटं ऽ       

मोकळा माझा जुडा ऽ ऽ

साधूच्या संगतीत      

मीळाला दूध पेढा ऽ ऽ

पंढरी मी गऽ जातेऽ    

मोकळं माझं क्यास ऽ ऽ

साधूच्या संगतीनं ऽ    

मला घडली एकादस ऽ ऽ 

हे एक प्रकारचं प्रबोधन, एक प्रथा मोडण्याचं इवलं धाडसच ती करते आहे .असे केस सोडले तरीही माझं काही वाईट तर झालं नाहीच ,उलट एकादशा -उपवास- दर्शन यानं मी पुण्यच जोडलं असं ती सांगते ..

पण या प्रतीकात्मक मुक्तीशी मालन थांबत नाही . तिचं सुखनिधानच इतकं उंचावर आहे की त्याच्या ओढीनं ती देहभोगांच्या पार जाते ! 

पंढरीच्या वाटं ऽ       

वाटंऽ पंढरी कीती दूरऽऽ

नादावला जीवऽ      

वाजंऽईना गऽ बिदीवर ऽ ऽ 

पंढरीची वाट, मुक्तीची वाट दूरची खरी .अती खडतर .पण त्या वाटेवर चालताना त्याच्या नामात स्मरणात त्याच्या ओढीत पावलं अशी दंग होतात की कसलंच भान रहात नाही. जीव नादावतो .बीदी म्हणजे वाट .त्या वाटेवर आता तिला नादही ऐकू येईना .ती वाट म्हणजे एकतारीची तार आणि तिची पावलं हाच त्याचा झणात्कार .तिचं चालणंच वीणेचं वाजणं झालंय .आता तिला ना देहाची जाणीव उरलीय ना चालीची .सारं एकच झालंय .सगळ्यातून एकच नाद उमटतोय ..

विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल ….. 

© सुश्री विनिता तेलंग

सांगली. 

मो ९८९०९२८४११

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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