हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 12 – हमने हार न मानी है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – हमने हार न मानी है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 12 – हमने हार न मानी है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

रही उजड़ती हर दम

अपनी छप्पर-छानी है

पर अत्याचारों से

हमने हार न मानी है

 

लोहा तपता, पिटता है

लोहारों से

पुन: चमकता है तपकर

तलवारों से

संघर्षो से लिखी

प्रगति की नई कहानी है

 

चीटी गिर-गिरकर भी

चढ़ती कठिन पहाड़ी है

तू भी हार न मान

कि विपदा दिखती गाढ़ी है

पर्वत को भी धूल चटाई

जब-जब ठानी है

 

काटा जाता वृक्ष

ठूंठ रह जाती बाकी है

निकल वहीं से कोंपल ने

फिर दुनिया झाँकी है

अँगड़ाई लेकर,

हरियाली चादर तानी है

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 89 – सजल – वक्त भी ठहरा हुआ है…  ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “सजल – वक्त भी ठहरा हुआ है… …”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 89 – सजल – वक्त भी ठहरा हुआ है ☆

(सजल :: मात्रा – 14, समांत – हरा, पदांत –हुआ है)

 मौन कुछ गहरा हुआ है।

वक्त भी ठहरा हुआ है।।

आइए हम साथ जी लें,

प्रेम का पहरा हुआ है।

गर्म साँसों की दहक से,

सुर्ख सा चेहरा हुआ है।

थाम रक्खो हाथ मेरा,

सूर्य अब बहरा हुआ है।

कामनाओं की इमारत,

विजय का सेहरा हुआ है।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – शिलालेख ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – शिलालेख ??

कविता नहीं मांगती समय,

न शिल्प विशेष,

न ही कोई साँचा

जिसमें ढालकर

छत्तीस-चौबीस-छत्तीस

या ज़ीरो फिगर गढ़ी जा सके,

कविता मांग नहीं रखती

लम्बे चौड़े वक्तव्य

या भारी-भरकम थीसिस की,

कविता तो दौड़ी चली आती है

नन्ही परी-सी रुनझुन करती;

आँखों में आविष्कारी कुतूहल

चेहरे पर अबोध सर्वज्ञता के भाव,

एक हाथ में ज़रा-सी मिट्टी

और दूसरे में कल्पवृक्ष के बीज लिए,

कविता के ये क्षण

धुंधला जाएँ तो

विस्मृति हो जाते हैं,

मानसपटल पर उकेर लिये जाएँ तो

शिलालेख कहलाते हैं..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 17 – हमारी ग्रीस यात्रा – भाग 1 ☆ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…हमारी ग्रीस यात्रा – भाग 1)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 17 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – हमारी ग्रीस यात्रा – भाग 1  ?

(अक्टोबर 2017)

हमारी ग्रीस की यात्रा – ज़मीं से जुड़े लोग

हम अपने नाती को साथ लेकर इटली और ग्रीस की यात्रा पर निकले थे। इटली की सैर पूरी हो गई तो हम ग्रीस के लिए रवाना हुए। हमारी पहली मंजिल क्रीट थी।

क्रीट ग्रीस का एक सुंदर और सबसे बड़ा द्वीप है। एक तरफ पहाड़ का सुंदर हरा-भरा दृष्य है और दूसरी तरफ आकर्षक शांत, गहरे नीले रंग का समुद्र। क्रीट का हवाई अड्डा भी समुद्र किनारे से सटा हुआ है।

आसमान में उड़ते – उड़ते, सागर पर चलते जहाज़ों को निहारते रहे और अचानक हवाई जहाज़ के पहियों ने धरा को छू लिया। मेरी नज़रें अब भी स्थिर होकर शांत नीले समंदर को निहार रही थी। अचानक तंद्रा टूटी। अनाउंसमेंट ने बेल्ट न खोलने और बैठे रहने की हिदायत दी। थोड़ी देर बाद एयरो ब्रिज से विमान जा लगा और उतरने की इजाज़त दी।

सारा दृष्य मन को आह्लादित कर रहा था।

हमारे रहने की व्यवस्था भी ऐसे ही एक रमणीय स्थल पर था। बस हर वक़्त दिल बाग – बाग हो उठता, हर दृष्य मनमोहक ही था। मुझे प्रकृति से बहुत लगाव है, पेड़ – पौधे, पहाड़, समुद्र, बाग- बगीचे मुझे बहुत भाते हैं। बलबीर मेरी इन छोटी – छोटी बातों का ध्यान रखते हैं। इसलिए क्रीट में भी हमारी बुकिंग ‘ विलेज हाईट गॉल्फ रिज़ोर्ट में किया गया था जो पहाड़ पर, समुद्र के किनारे स्थित था।

इस रिज़ोर्ट तक पहुँचने के लिए रिज़ोर्ट की ही गाड़ी हमने भारत में बैठकर ही ऑनलाइन बुक की थी। गाड़ी हमें एयरपोर्ट पर लेने आई। ड्राइवर अंग्रेजी बोलने में समर्थ था। वह प्लैकार्ड लेकर ही खड़ा था। रोम से क्रीट की दूरी 1299 किमी.है। यात्रा दिन के समय और सुखद रही। हम रिज़ोर्ट पहुँचे।

विशाल परिसर, आला दर्ज़े की व्यवस्थाएँ, छोटे -छोटे दो बेडरूम हॉल, किचन, डाइनिंग रूमवाले यात्रियों के लिए बनाए गए अस्थायी निवास स्थान।

रिज़ोर्ट से मुख्य शहर तक शटल चलती है, निःशुल्क। अतएव सैलानी शहर जाकर आवश्यक भोजन सामग्री खरीद लाते और अपने निवास स्थान पर भोजन पकाने की व्यवस्था होने के कारण भोजन पकाकर ही खाते। मैं स्वयं निरामिषभोजी हूँ अतएव यह व्यवस्था हमारे परिवार के लिए अत्यंत सटीक बैठती है।

यह बताना यहाँ आवश्यक है कि विदेश में बाहर भोजन खाना बहुत महँगा पड़ता है। हमारे रुपये को विदेशी मुद्रा में परिवर्तित करने पर इस बात का अहसास होता है। योरोप में इंग्लेंड को छोड़कर अधिकांश स्थानों में यूरो ही प्रचलित है। एक यूरो 84 भारतीय रुपये के बराबर हैं। ये समय- समय पर ऊपर नीचे होते रहते हैं।

हम भी सात दिन वहाँ रहने के लिए आवश्यक वस्तुएँ बाज़ार से खरीद लाए। रिज़ोर्ट के भीतर भी एमरजेंसी में आवश्यक सामान मिलते हैं जैसे ब्रेड, मक्खन, चीज़, अंडे, ज्यूस, स्थानीय फल आदि। इस स्थान को टक इन कहते हैं।

पहले दिन तो हमने रिज़ोर्ट का आनंद लिया। सुंदर लायब्रेरी, फिल्म देखने के लिए सी.डी उपलब्ध थे। शाम के समय मनोरंजन के कार्यक्रम होते हैं। उस दिन ग्रीक जादूगर मनोरंजन के लिए आया था। उसने हमारा न केवल मनोरंजन किया बल्कि हमें खूब हँसाया। हम भारतीयों को देखकर वह भी बहुत ही खुश हो रहा था।

दूसरे दिन हम शहर घूमने निकले। शटल से हम शहर के मुख्य भाग तक पहुँचे और वहाँ छोटी लाइन की धीरे चलनेवाली ट्रेन में बैठे। यह ट्रेन सारा शहर घुमाता है। वैसे क्रीट कोई बहुत बड़ा शहर नहीं है।

शहर घूमने के बाद हमने अन्य द्वीपों का सैर प्रारंभ किया। हम जिस दिन ‘सिसी’ नामक द्वीप में जाने के लिए रवाना हुए तो पता चला वह इस साल के सीज़न का आखरी दिन था। दूसरे दिन से छोटे द्वीपों के भ्रमण हेतु जहाज़ बंद होने जा रहे थे।

अब वहाँ ठंडी भी बढ़ने लगी थी।

क्रीट ग्रीस द्वीप समूह का सबसे बड़ा और घनी आबादीवाला द्वीप है। यह एजीयन सागर के दक्षिण में स्थित है। यह संसार का अट्ठ्यासीवाँ सबसे विशाल द्वीप है।

कहा जाता है कि मेडिटेरियन सागर का यह पाँचवा विशाल द्वीप है। सिसिली, सार्डीनिया साइप्रस, और कॉरसिका आदि स्थानों के बीच यह क्रीट द्वीप बसा है।

हम जहाज़ से सिसी जाने के लिए टिकट खरीदकर समुद्र किनारे स्थित एक काॅफ़ी शाॅप में आकर बैठ गए। वहाँ की काॅफ़ी का आनंद लेते रहे और आपस में वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता की चर्चा भी करते रहे। समुद्र में उठती लहरें और पछाड़ खाकर पत्थर की दीवारों से उसका टकराना अत्यंत मोहक दृश्य था।

पास की मेज़ पर एक परिवार बैठा था। यद्यपि वे भारतीय दिखते थे परंतु आपस में इंग्लिश में बातचीत कर रहे थे। उनकी ज़बान में विदेशीपन का ऐक्सेंट था। ज़ाहिर था वे काफ़ी समय से देश से बाहर थे।

अचानक अनाउंसमेंट हुआ कि पंद्रह मिनिट में जहाज़ रवाना होनेवाला था। आसपास बैठै सभी यात्री उठने को उद्यत हुए।

विदेशों में अक्सर बहुत बड़े से मग में काॅफ़ी देते हैं, हम भी उसका मज़ा ले रहे थे।

अनाउंसमेंट सुनते ही हम भी शीघ्रता से काॅफ़ी गटकने लगे। मैंने काॅफ़ी के कप में एक बूंद काॅफ़ी न छोड़ी। मेरा नाती ज़ोर से हँसकर बोला, ” नानी, कप में एक बूंद काॅफ़ी न छोड़कर साढ़े चार यूरो वसूल कर रही हो!!” यह सुनकर हम तीनों ज़ोर से हँस पड़े। हम हिंदी में बातचीत कर रहे थे, शायद हँसी मज़ाक़ करते हुए हमारी आवाज़ थोड़ी बढ़ गई जो पड़ोस की मेज़ तक पहुँची। यहाँ स्मरण कराना उचित है कि समस्त योरोप में लोग बहुत धीमे स्वर में बातचीत करते हैं। मोबाइल पर भी उनकी आवाज़ धीमी ही होती है। पास खड़ा व्यक्ति भी कुछ नहीं सुन सकता। भारतीयों का स्वभाव इसके विपरीत है। हम सबकी आवाज़ ऊँची है, शायद हम लोग अधिक सुरीले भी हैं। हमारा परिवार कोई अपवाद नहीं।

हमारी बातचीत सुनकर पड़ोस में बैठै भारतीय परिवार के सज्जन हमारे पास आए और बोले, आप पंजाबी हो? मेरे पति महोदय रीऍक्ट करते उससे पूर्व ही मैंने हामी भर दी। और जनाब ठेठ पंजाबी में शुरू हो गए। बलबीर सिंह ऐसे मौकों पर ज़रा गश खाने लगते हैं क्योंकि उन्हें अपनी मातृभाषा नहीं आती तब मुझे ही मैदान संभालने के लिए आगे आना पड़ता है। हालाँकि यह मेरी भी मातृभाषा नहीं बल्कि ससुराली भाषा है। ख़ैर जनाब ने पंजाबी में अपना परिचय दिया। मैं उनसे बातें करती रही।

अब जहाज़ छूटने का वक्त हो रहा था। शिवेन हमारा नाती टॉयलेट गया था। टॉयलेट का उपयोग करने के लिए 2 यूरो देने पड़ते हैं। उसने बाहर आकर बताया कि टॉयलेट के अंदर प्रवेश करते ही सारा कमरा अंधकारमय हो गया। पॉट के पास खड़े होने पर ऊपर लगे सेंसर के कारण बत्ती जल उठी। फ्लश करने की आवश्यकता नहीं होती, वह स्वयं कुछ समय बाद फ्लश चलने लगता है तथा पॉट स्वच्छ होता हैं। उसके इस अनुभव से हमने भी नई टेक्नोलॉजी के बारे में जानकारी हासिल की। यह बिजली की और पानी की बचत की दृष्टि से की गई व्यवस्था होती है। लोग अक्सर टॉयलेट में बत्ती जलाकर ही लौट जाते हैं।

हम सब जहाज़ में बैठे, वे जनाब हमारे साथ ही बैठ गए। फिर से बातचीत का सिलसिला जारी रहा। उनका परिवार हमारी बातचीत में कोई रुचि नहीं ले रहा था। बनिस्बत वे जहाज़ी सैर का मज़ा ले रहे थे। पर ये जनाब फर्राटे से ग्रामीण भाग में बोली जानेवाली लहज़े में पंजाबी बोल रहे थे। बलबीर सिंह बीच – बीच में मुस्कराते और सिर हिलाते रहे। कभी – कभी इंग्लिश में जवाब देते पर जनाब बस पंजाबी में यों बोल रहे थे मानो ज़बान को किसी ने वर्षों से बाँध रखा था जो आज खुल गई।

बातचीत से ज्ञात हुआ कि जनाब का नाम था हरविंदर सिंह, नौ साल की उम्र में वे अपने पिता के साथ लंदन चले गए थे। वे जालंधर के निवासी थे। उनकी उम्र पचपन के करीब थी पर चेहरे पर झुर्रियों का ऐसा जाल बिछा था कि वे पैंसठ के ऊपर लग रहे थे। ! अपनी पत्नी, तीन बेटियाँ और एक चार वर्षीय नातिन को लेकर लंदन से सप्ताह भर छुट्टी मनाने तथा पत्नी की पचासवीं वर्षगांँठ मनाने ग्रीस आए थे।

जहाज़ में बैठै वे निरंतर बातचीत करते रहे। कभी – कभी खुशी से भर उठते और बलबीर का हाथ अपने हाथ में ले लेते और बड़ी देर तक सहलाते रहते। कहते रहे कि लंडन में तो जी बड़ी संख्या में पंजाबी रहते हैं, पर वे हमारे जैसे परदेसी हैं जो वहीं उनकी तरह पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं पर हम तो आज भी भारतीय हैं, उनकी नज़रों में हम ख़ास पंजाबी हैं।

उनके बर्ताव से मुझे एक बात स्पष्ट हो रही थी कि इतने वर्षों के बाद भी उनके भीतर अपनी मिट्टी की खुशबू और भाषा की ललक किस क़दर घर किए हुए थी। उनकी पत्नी कीनिया में जन्मी, पली बढ़ी पंजाबी महिला थीं पर उन्हें केवल इंग्लिश और टूटी -फूटी हिंदी आती थी। हरविंदर सिंह मोने थे अर्थात सरदारों की तरह पगड़ी नहीं बाँधते थे पर थे सिक्ख संप्रदायी के। उन्होंने दो घंटे की यात्रा के दौरान अपने सारे इतिहास – भूगोल की जानकारी दे दी। उनके चेहरे पर एक लालिमा सी छाने लगी थी। चेहरे की झुर्रियाँ कुछ चमकने लगी थी। आँखों में एक अलग सी आभा दिखाई देने लगी थी। क्या इंसान के हृदय में देश से दूर रहने पर देशवासियों के लिए इतना स्नेह उमड़ता है ? मैं सोच रही थी कि यदि ऐसा है तो हम देश से दूर क्यों जाकर बसते हैं!

हम सिसी पहुँचे। यह मछुआरों का गाँव था पर कहीं कोई दुर्गंध नहीं, कूड़ा – कचरा नहीं बल्कि साफ़ सुथरे पाॅश रेस्तराँ बने हुए थे। हमने उस छोटे से द्वीप में एक चक्कर लगाया। सुंदर छोटे -छोटे घर बने हुए थे। खिड़कियों के बाहर सुंदर मौसमी फूल गमलों में लगे आकर्षक दिखाई रहे थे। घर की खिड़कियों पर लेस के पर्दे लगे थे जो सुंदर और मोहक दिख रहे थे।

समुद्र से थोड़ी दूरी पर कई छोटे- बड़े रेस्तराँ थे। दोपहर का समय था। हमें भी कहीं भोजन कर लेने की आवश्यकता थी। यहाँ के अधिकांश रेस्तराँ में बीयर के साथ फिशफ्राय या मछली के ही अन्य व्यंजन प्रसिद्ध हैं।

एक सुंदर से रेस्तराँ में हम तीनों भी बैठ गए मैन्यूकार्ड देखते ही मैं चकरा गई। ऐसा लगा जैसे पास रखा बटुआ भी काँप उठा। बारह -पंद्रह यूरो के नीचे कोई डिश न थी। पर खाना तो था। हम लोगों की एक अजीब मानसिकता है कि हम अनजाने में ही विदेशी मुद्राओं को देशी मुद्रा में कन्वर्ट करते हैं और ख़र्च से पूर्व हृदय की गति बढ़ जाती है।

आप पाठकों से यही निवेदन करूँगी कि आप जब विदेश घूमने जाएँ तो करेंसी कन्वर्ट कर तुलना न करें। ऐसा करने पर घूमने का आनंद कम हो जाता है।

खैर हम तीनों ने यही बात आपस में चर्चा की फिर मन को वश में किया और क्या खाएँ इस पर तीनों विचार करने लगे!

इतने में हरविंदर सिंह का परिवार भी वहीं आ गया। उन्होंने हम सबके साथ बैठकर खाने की इच्छा व्यक्त की। ‘ मोर द मेरियर ‘ इस सिद्धांत में हम लोग भी विश्वास रखते हैं। चार टेबल जोड़े गए और सब साथ में बैठे। अब सभी बातचीत करने लगे। कुछ इंग्लिश कुछ हिंदी और कुछ पंजाबी में। हँसी – ठट्ठे भी होने लगे। इतने में हरविंदर जी खड़े हो गए, बलबीर उनके बाँई ओर बैठे थे। उन्होंने बलबीर का हाथ पकड़ा और कहा – ” अब सारा भारतीय परिवार एक साथ खाना खाएगा, यह हमारा सौभाग्य है कि आप मेरे भाई हो, आज का बिल मैं पे करूँगा। “

यह सुनकर हम दोनों पति-पत्नी हतप्रभ हो गए। हम इसके लिए प्रस्तुत नहीं थे। अबकी बलबीर ने मैदान संभालकर कहा, ” हम आपके शुक्रगुज़ार हैं, आप भारत आइए हमें मेहमान नवाज़ी का मौक़ा दीजिए। हम भी आपके पास लंडन ज़रूर आएँगे तब आप अपनी इच्छा पूरी कर लेना। आज माफ़ करें। साथ में खाएँगे ज़रूर पर डच करेंगे। “( अपना ख़र्च उठाना) बलबीर के ज़रा ज़ोर देने पर वे थोड़ी उदासीनता के साथ मान गए। भोजन के पश्चात रेस्तराँ के टिश्यू पेपर पर एक दूसरे को पूरा पता, फोन नं, ई-मेल आई डी आदि दिए गए।

रेस्तराँ में लोकलगीत बज रहे थे और वहाँ पर आए हुए सैलानी खूब पीकर झूम रहे थे। सब अपनी मेज़ से उठ – उठकर नाचने लगे।

सारा माहौल उत्सव – सा बन गया। उपस्थित लोगों के चेहरे पर बेफ़िक्री की छाप थी। जीवन का हर पल आनंद लेने की यह वृत्ति हमें भी अच्छी लगी।

रेस्तराँ के मालिक के साथ उसके दोस्त ने शर्त लगाई तो संगीत के ताल पर वह नृत्य करने लगा और नृत्य करते हुए एक खाली तथा गोलाकार मेज़ को पहले अपने एक हाथ में उठा लिया फिर उसे अपनी उँगलियों पर गोल – गोल घुमाने लगा और नृत्य करने लगा। संगीत समाप्त होने पर रेस्तराँ के मालिक को उसके दोस्त ने पचास यूरो दिए जो शर्त की रकम थी। हमें लोकल लोगों ने बताया कि इस तरह के मनोरंजन ग्रीस में आम बात है। वे जीवन के हर दिन का आनंद लेने में विश्वास करते हैं। हमें उनकी यह जीवन के प्रति दृष्टिकोण अच्छा लगा। फिर बातचीत करते हुए हम जहाज़ पर लौट आए।

ज्यादातर बातचीत हम दोनों ही कर रहे थे क्योंकि जनाब हरविंदर सिंह जी ने तो उस दिन मानो पंजाबी बोलने का व्रत ले रखा था। किसी को बोलने का ख़ास मौका नहीं दे रहे थे। उनके घर के सदस्य उनका उत्साह देखकर बगले झाँकने लगे। पर हमें उनके उत्साह और उमंग देखकर अंदाजा आ रहा था कि वे क्यों इतने उतावले हो रहे थे। सैर करके अपने -रिज़ोर्ट लौट आए।

तीसरे दिन हमने लोकल मार्केट, और साधारण जगहों की सैर की। उस दिन शाम को रिसोर्ट में ब्राज़िलियन नृत्य का आयोजन था। यह नृत्य ब्राज़िलियन ही कर रहे थे। इसे सांबा नृत्य कहते हैं। इनके वस्त्र काफ़ी अलग होते हैं, खूब रंगीन भी होते हैं। नृत्य में शरीर का लचीलापन स्पष्ट दिखाई देता है। नृत्यांगनाएँ बहुत ही दुबली -पतली होती हैं। सिर पर लंबे और रंगीन पंखों जैसी पतली -पतली बेंत लगी रहती हैं। साथ में लाइव म्यूज़िक भी था। हमने दो घंटे के इस कार्यक्रम का खूब आनंद लिया।

चौथे दिन हमें रिसोर्ट में ब्रेकफास्ट के लिए आमंत्रण मिला साथ ही फ्री पैर के मसाज का कुपन दिया गया। यह रिसोर्ट की ओर से कॉम्लीमेंटरी था।

दो दिन हम आस – पास की कुछ और जगहों के दर्शन कर एथेंस के लिए रवाना हो गए।

हद तो तब हो गई जब पूरी छुट्टियाँ काटकर हम अपने घर लौटे। अभी हम टैक्सी से उतरकर लिफ्ट में कदम रखे ही थे कि मेरा फ़ोन बज उठा। उधर से हरविंदर सिंह जी हमारे कुशल पूर्वक घर पहुँचने की बात पूछने के लिए लंडन से फोन कर रहे थे।

सच में लोग परदेसी तो बन जाते हैं पर देश और भाषा दिलो- दिमाग़ में सुप्त रूप से बसे रहती हैं। सच में ऐसे लोग अपनी ज़मीं से जुड़े लोग होते हैं!!!!

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

31/10/17

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 145 – “कोरोना काल में अचार डालता कवि” – लेखक – श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री रामस्वरूप दीक्षित जी द्वारा रचित पुस्तक  कोरोना काल में अचार डालता कविपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 145 ☆

☆ “कोरोना काल में अचार डालता कवि” – लेखक – श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कोरोना काल में अचार डालता कवि

रामस्वरूप दीक्षित

भारतीय ज्ञानपीठ

२०० रु, पृष्ठ १०८

हिन्दी व्यंग्य और कविता में रामस्वरूप दीक्षित जाना पहचाना नाम है। वे टीकमगढ़ जेसे छोटे स्थान से साहित्य जगत में बड़ी उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं। हिन्दी साहित्य सम्मेलन में सक्रिय रहे हैं तथा इन दिनो सोशल मीडीया के माध्यम से देश विदेश के रचनाकारों को परस्पर चर्चा का सक्रिय मंच संचालित कर रहे हैं। भारतीय ज्ञान पीठ से २०२२ में प्रकाशित ५३ सार्थक नई कविताओ के संग्रह कोरोना काल में अचार डालता कवि के साथ उन्होंने वैचारिक दस्तक दी है। इसे पढ़ने के लिये भारतीय ज्ञानपीठ से किताब का प्रकाशन ही सबसे बड़ी संस्तुति है। किताब में परम्परा के विपरीत किसी की कोई भूमिका नहीं है। वे बिना प्राक्कथन में कोई बात कहे पाठक को कविताओ के संग साहित्यिक अवगाहन कर वैचारिक मंथन के लिये छोड़ देते हैं। हमारे समय की राजनैतिक तथा सामाजिक  स्थितियों की विवशता से सभी अंतर्मन से क्षुब्ध हैं। समाज विकल्प विहीन किंकर्तव्यमूढ़ जड़ होकर रह जाने को बाध्य बना दिया गया है। रामस्वरूप दीक्षित जी जैसे सक्षम शब्द सारथी कागजों पर अपने मन की पीड़ा उड़ेल लेते हैं। वे लिखते हैं ” यूं तो कविता कुछ नहीं कर सकती, उसे करना भी नहीं चाहिये, कवि के अंतर्मन के भावों का उच्छवास ही तो है वह…  किन्तु, वे अगली पंक्तियों में स्वयं ही कविता की उपादेयता भी वर्णित करते हैं…कविता कह देती है राजा से बिना डरे कि तुम्हारी आँखो में उतर आया है मोतिया बिंद  ” इस संग्रह की प्रत्येक कविता में साहस के यही भाव पाठक के रूप में मुझे अंतस तक प्रभावित करते हैं। वे अपनी कविताओ में संभव शाब्दिक समाधान भी बताते हैं किन्तु दुखद है कि जमीनी यथार्थ दुष्कर बना हुआ है। लोगों के मनों में शाश्वत मूल्यों की स्थापना के लिये इस संग्रह जैसा चेतन लेखन आवश्यक हो चला है।

श्री रामस्वरूप दीक्षित

युद्ध की जरूरत में वे लिखते हैं कि जंगल बिना आपस में लड़े बिना बचाये रखते हैं अपना हरापन, …मनुष्य ही है जिसे खुद को बचाने के लिये युद्ध की जरूरत है। हत्यारे शीर्षक से लम्बी कविताओ के तीन खण्ड हैं। तारीफ की बात यह है कि भाव के साथ साथ कोरोना काल में अचार डालता कवि की सभी कविताओ में नई कविता के विधान की साधना स्पष्ट परिलक्षित होती है। मट्ठरता की हदों तक परिवेश से आंखें चुराने वाले समाज के इस असहनीय आचरण को इंगित करते हुये वे लिखते हैं कि ” जब खोटों को पुरस्कृत और खरों को बहिृ्कृत किया जा रहा था तब आप क्या कर रहे थे ? के उत्तर में हम कहेंगें कि हम सयाने हो चुके थे और हमने चुप रहना सीख लिया था “। राम स्वरुप जी की कवितायें जनवादी चिंतन से भरपूर हैं। कुछ शीर्षक देखिये गूंगा, बाज, भेड़िये, मुनादी, मजदूर, ताले, इतवार, खतरनाक कवि, तानाशाह, आदि सभी में मूल भाव सदाशयता और मानवीय मूल्यों के लिये आम आदमी की आवाज बनने का यत्न ही है। पिता, पिता का कमरा, माँ के न रहने पर वे रचनायें हैं जो रिश्तों की संवेदना संजोती हैं। संग्रह की शीर्षक रचना कोरोना काल में अचार डालता कवि में वे लिखते हैं कि अचार डालने में डूबा कवि भूल गया कि बाहरी दुनियां में जिस रोटी के साथ अचार खाया जाता है वह तेजी से गायब हो रही है। इन गूढ़ प्रतीको को डिकोड करना पाठक को साहित्यिक आनंद देता है। अनेक बिन्दुओ पर कथ्य से असहमत होते हुये भी मैने दीक्षित जी की सभी रचनायें इत्मिनान से शब्द शब्द की जुगाली करते हुये तथा उनके परिवेश को परिकल्पित करते हुये पढ़ीं और उनके विन्यास, शब्द योजना, रचना काल तथा भाषाई ट्विस्ट का साहित्यिक आनंद लिया। संग्रह पढ़ने मनन करने योग्य है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 102 ⇒ बाल लीला और बचपन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बाल लीला और बचपन।)  

? अभी अभी # 102 ⇒ बाल लीला और बचपन? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आप छोटे से बड़े हो सकते हैं, बालक से युवा हो सकते हैं, युवावस्था के पश्चात् वृद्ध भी हो सकते हैं, लेकिन वापस बालक नहीं बन सकते। विकास की यही मजबूरी है, विकास अब बड़ा हो गया है, बच्चा नहीं रह गया। बेचारा अबोध बालक विकास अपनी समस्त बाल लीलाएं, बाल क्रीड़ाएं भूल चुका है। विकास पहले वयस्क हुआ, और आज विकास बाबू बूढ़े हो गए हैं।

कहते हैं, बूढे और बच्चे एक जैसे होते हैं। लेकिन हमने तो सिर्फ बाल लीला का ही आनंद लिया है, क्या वृद्धावस्था क्रीड़ा और बाल लीला की उम्र है। एक अबोध बालक का कोई अतीत नहीं होता, उसकी स्लेट कोरी की कोरी है, वह नित्य, मुक्त है, उसका भविष्य अभी परमात्मा लिख रहा है, वह स्वयं आज आनंद मूर्ति है, साक्षात बाल कृष्ण है, अयोध्या में जन्मे कौशल्या के राम हैं। ।

ईश्वर की भी लीला देखिए, ज़रा जर्जर जरा, यानी किसी के बुढ़ापे की ओर देखिए, जहां सफेद बाल है, चेहरे पर झुर्रियां हैं, बीमारियों का अंदेशा है, अब विकास की कोई संभावना नहीं। इस अवस्था में लोग ईश्वर से क्या मांगते हैं, ययाति ने तो वापस जवानी ही मांगी थी। बेचारा भोला शायर निदा फ़ाज़ली वापस अपना बचपन मांगता है, खेल खिलौने और नानी की कहानी मांगता है।

कोई लौटे दे मेरे बीते हुए दिन ! बीते हुए दिन, वो मेरे प्यारे प्यारे दिन। लेकिन, जो चला गया, उसे भूल जा। कल, आज और कल की साइकिल के पैडल उल्टे मारने से, साइकिल पीछे नहीं चली जाती। ।

हम भी मनुष्य जीवन की तुलना केवल फलों के राजा आम से कर सकते हैं। आम की भी दो ही अवस्थाएं होती हैं, कच्ची कैरी अथवा अमिया और पका हुआ हापुस आम।

आम के आम, और गुठली के दाम, है ना हमारी भी सदाबहार अमराई। दूधों नहाओ और पूतों फलो वाला आशीर्वाद।

हम भी बूढ़े नहीं, हापुस, खुशबू वाले आम हैं, हमारी भी बड़ी कीमत है, आम की बहार जैसी ही तो है हमारी भी जिंदगी की बहार। आंधी तूफान, महामारी और कोराेना बहार को खिजां में बदल देती है। यही आम दस्तूर है। ।

विकास बाबू, अब आप क्या करोगे, अतीत में जाने से तो रहे, जवान भी होने से रहे, तो क्यों न जीवन कुछ चटपटा, रसीला और मसालेदार हो जाए। कभी आमरस, तो कभी आम का अचार और आम का ही पापड़। और हां, देखिए आप तो अब बच्चे भी नहीं बन सकते तो क्या करें।

बड़ा व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का दोहराया हुआ विचार है, क्यूं न किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए। अजी आप क्या किसी को हंसाओगे, एक बच्चा ही तो कल का लाफिंग बुद्धा है।

वही आज का परमानंद है।

बस किसी अबोध बालक की बाल लोलाओं में अपने आपको पूरी तरह डुबो दीजिए, वह आपसे कुछ नहीं मांगेगा, लेकिन उसके पास साक्षात परमानंद सहोदर है। बच्चा हमारा आपका नहीं होता, सगा सौतेला नहीं होता, बाल रूप में स्वयं साक्षात परम परमेश्वर होता है। बच्चे में है भगवान। ।

अरे अष्ट छाप के कवि सूरदास तो प्रज्ञा चक्षु थे, फिर भी उनका बालकृष्ण की लीलाओं का वर्णन हमें चमत्कृत और भाव विभोर कर देता है। वे कृष्ण के प्रति बाल सखा भाव ला सकते हैं, तो क्या हम किसी साधारण शिशु के प्रति कृष्ण का भाव नहीं ला सकते। सभी बाल गोपाल ही तो बाल गोपाल हैं, कृष्ण गोपाल हैं ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 164 – श्रावण पर्व विशेष – कांवड़ यात्रा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है श्रावण पर्व पर विशेष प्रेरक एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा कांवड़ यात्रा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 164 ☆

☆ श्रावण पर्व विशेष ☆ लघुकथा – 🚩 कांवड़ यात्रा 🚩 

एक छोटा सा गाँव। बड़ी श्रद्धा  से कांवड़ यात्रा निकली थी। सावन सोमवार का दिन हजारों की संख्या में लोग महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। रिमझिम बारिश की फुहार, भीड़ अपार, ऊपर से कांवड़ यात्रा।

अपने में मस्त भगवान भोलेनाथ की जय कार लगाते लोग बढ़ते चले जा रहे थे। गाँव में आने-जाने के परिवहन के साधन की कमी रहती है, और इस माहौल पर रिक्शा चालक तो पहले से ही कांवड़ यात्रा में शामिल हो चुके होते हैं।

गाँव में अचानक एक गरीब परिवार दीपा और सोहन लाल की  एक वर्ष की बच्ची की तबीयत खराब हो गई। देखते देखते वह गंभीर अवस्था में पहुँच गई । उसके पास साइकिल था। साइकिल पर बच्चे को ले दीपा बैठ गई, और जाने लगे ।

कांवड़ यात्रा के बीच में पुलिस वालों का सख्त आदेश था… ‘बीच में अन्य कोई भी ना आए।’ अब सोहन और दीपा के लिए बहुत मुश्किल मार्ग हो गया, क्योंकि अस्पताल और मंदिर दोनों गाँव से बाहर ही बने  थे और दूर भी बहुत थे। 

किनारे-किनारे साइकिल पर चलते जा रहा था। बारिश का मौसम फिर कोई उसे रोक देता, गरीब कुछ कह नहीं पाता। उसकी अपनी मजबूरी बताते हुए किसी तरह आगे बढ़ रहा था। थोड़ी दूर पर स्वागत के लिए टेबल लगाया गया था। जहाँ पर फूल माला और फल, शरबत, ठंडा पानी का इंतजाम था। दीपा सोची हम यहां से जल्दी निकल जाए।

परंतु धक्का-मुक्की में सोहन की  साइकिल दस कदम दूर पीछे चली गई। अचानक शरबत बाँटते संतोष की नजर उस पर पड़ी। वह भी कांवड़ लिए चल रहे थे।

वे कई वर्षों से लगातार कावड़ यात्रा में शामिल होते थे, गाँव के एक अच्छे इंसान थे। एक गगरी में जल और दूसरी गगरी में दूध भरा रहता था। सोहन और उसकी पत्नी साथ में बच्चे को देख कर समझ गए कि मामला कुछ ठीक नहीं है, मुसीबत में फंसा है।

उसने आगे बढ़ कर एक दुकानदार से उसकी दो पहिया गाड़ी को मांग लिया। पहचान होने के कारण उसे दे दिया। सोहन की साइकिल वहाँ लगा। सोहन और उसकी पत्नी को पीछे बिठा अस्पताल की ओर चल पड़ा।

अस्पताल पहुँचकर संतोष ने सबसे पहले बच्ची का इलाज शुरू करवा दिया। कांवड़ एक किनारे रखा हुआ था। वहाँ सभी एक दूसरे को देख रहे थे। आज अस्पताल में कांवर कैसे आ गया है। संतोष थोड़ी देर बाद निकल कर एकदम शांत दिखाई दे रहे थे और जितने बाहर बैठे थे उनसे कहा.. “जिसको दूध लेना है और जल लेना है अपना गिलास ले आए।”

देखते-देखते अस्पताल परिसर में भीड़ लग गई। आज संतोष  ने गगरी का दूध और जल सभी जरूरतमंद को बांट दिए।

मन में धैर्य और श्रद्धा से भरे हुए कांवड़ को लेकर गाड़ी में बैठ अपने घर की ओर बढ़ चले। आज की कांवड़ यात्रा अब तक की कांवड़ यात्रा से बहुत अद्भुत थी।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 43 – देश-परदेश – हमें क्या ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 43 ☆ देश-परदेश – हमें क्या ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त चित्र में जल सप्लाई के लिए एक पत्थर (बाधा/ व्यवधान) को दूर किए बिना थोड़ा अतिरिक्त पाइप लगा कर कार्य किया गया हैं। आप कह सकते हैं, कि पत्थर हटाने का कार्य तो पाइप लाइन बिछाने वाले का था ही नहीं वो क्यों हटाता। सरकारी कार्य है, ऐसा ही होता है, जी नहीं हम सब निजी जीवन में भी ये ही सब कर रहे हैं। लकीर के फकीर बन जाते हैं, हम लोग जब भी कहीं समाज या सार्वजनिक व्यवधान होता है, हम उसे दूर करने के स्थान पर येन-केन अपना कार्य कर लेते हैं, दूसरे भले ही परेशान या मुश्किल में पड़ जाएं।

हमारे समाज में और धर्म में भी तो “सर्वजन हिताय : सर्वजन सुखाय” का उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है।

अधिकतर राह में कोई छोटी बाधा को दूर करने के बजाय हम लंबे मार्ग से जाकर अपना कार्य कर लेते हैं। छोटी छोटी कमियों को दूर करने में सक्षम होते हुए भी हम सार्वजनिक कार्य में हाथ नहीं लगाते हैं। लेकिन जब निजी समस्या हो तो दिन भर शारीरिक श्रम से कार्य को अंजाम देने में सकुचाते नहीं हैं। क्या हुआ हमारी संस्कृति और सामाजिक मूल्यों का? इतना पतन हो चुका है, हमारी मान्यताओं का शायद शिक्षा और विशेष रूप से नैतिक मूल्य गिर कर पाताल में जा चुके है।

सामाजिक परिवर्तन, संयुक्त परिवार नीति का समापन, धर्म से दूरी और विशेष कर पश्चिम का अनुसरण हम सब को अपने प्राचीन रीति रिवाज से दूर कर चुका है।

 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सौ. राधिका भांडारकर – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌺 सौ. राधिका भांडारकर  अभिनंदन 🌺

आपल्या समुहातील  ज्येष्ठ  साहित्यिका सौ. राधिका भांडारकर यांना, त्यांच्या ‘पावसाच्या कविता’ या रचनेसाठी; शुभंकरोती साहित्य परिवाराकडून सन्मानित  करण्यात आले आहे. त्यांचे ई-अभिव्यक्ती समुहाकडुन मनःपूर्वक अभिनंदन आणि शुभेच्छा.!  💐

संपादक मंडळ

 ई-अभिव्यक्ती मराठी.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विठूची रखुमाई… ☆ श्री राहूल लाळे ☆

श्री राहूल लाळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ विठूची रखुमाई… ☆ श्री राहूल लाळे

रखुमाई नाजूकशी

सावळा रांगडा विठ्ठल

जोडी जमली कशी

मला पडे नवल

 

नाथांच्या घरी

हा भरे पाणी

जनीच्या मागे धावे

शेण्या उचलूनी

 

कबिर गाई दोहे

हा विणतो शेला

नाम्यासाठी हा

उष्टावतो काला

 

ज्ञानोबांसाठी हा

भिंत चालवतो

तुकोबांचे बुडलेले

अभंग वाचवतो

 

दामाजीनी गरीबांसाठी

रीती केली कोठारे

विठू महार होऊनी

हा परत ती भरे

 

चोखामेळा , गोरा कुंभार

याच्या भक्तांची किती गणती

आस लागलेल्या बायकोची

याला नसे काही भ्रांती

 

काळाचेही रहात नाही

याला काही भान

वाटेकडे डोळे रख्माईचे

लावूनी तनमन

 

भक्तांच्या हाकेला

हा सदा धावून जातो

शेजारच्या रखमाईला

मात्र विसरुनी जातो

 

मुलखाची भाबडी

माय भोळ्या भक्तांची

भाळली काळ्यावर

युगत ना कळली तयाची

 

विठूसंगे नाव सदा

येते रखुमाई

बरोबर असून नसे जवळ

रुसतसे बाई

 

याच्यासंगे राबे ही

सर्व भक्तांच्या घरी

बोल कोणा लावावा

तिचाच तो सावळा हरी….

© श्री राहुल लाळे

पुणे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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