हिन्दी साहित्य – कविता ☆ न हमदम न साथी न… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “न हमदम न साथी न“)

✍  न हमदम न साथी न… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

गरीबों की ख़ातिर घरौदा बनाना

न मस्जिद शिवाला कलीसा बनाना

न मांगी दुआ में कभी कोठी गाड़ी

मुझे सिर्फ़ इंसान अच्छा बनाना

नहीं एक के वश की है बात समझो

हमें स्वच्छ भारत है अपना बनाना

समुंदर से खारे हुए नाम पाकर

अगर बन सको खुद को झरना बनाना

न हमदम न साथी न हमराज़ जायज़

मुझे सिर्फ तुम अपना साया बनाना

अलग तेरी पहचान तब ही बनेगी

नया अपनी मंजिल का रस्ता बनाना

डुबाने में सारी ही दुनिया लगी है

अरुण सबको तुम पर किनारा बनाना

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 72 – पानीपत… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 72 – पानीपत… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

जिस राजसिंहासन पर हमारे नवपदोन्नत मुख्य प्रबंधक विराजमान हो रहे थे, उसकी महिमा राजा विक्रमादित्य के बत्तीस पुतलियों वाले सिंहासन से कम नहीं थी, अंतर सिर्फ यह था कि पुतलियों ने अपनी काया की सर्जरी करवा ली थी और पुतलों में बदल गये थे. इनका काम पदस्थ राजा के दमखम का आकलन करना और उसकी रपट दैनिक आधार पर अपने बहुत बहुत बड़े बॉस को करना था. साथ ही ये नवपदस्थ राजा से बड़ी उद्दंडता पूर्वक सवाल करने की भी हिमाकत करते रहते थे. कोई न कोई पुतला, कभी न कभी, कोई न कोई सवाल दाग ही देता था. जैसे पहले दिन ही :

“रुक जाओ राजन! क्या तुम वाकई खुद को इस सिंहासन में बैठने की योग्यता रखते हो”. अक्सर चतुर राजन यही जवाब देते कि “अगर बैंक ने समझ लिया है और मान भी लिया है तो फिर किसको दिक्कत है. भोले भाले राजन ये भूल जाते थे कि बैंक के इतर भी बहुत विभूतियां होती हैं जो इस तरह के फॉस्ट ट्रेक कैडरलैस धावकों पर सवाल उठाती रहती हैं. आसमां को छूता उनका अहंकार ये बर्दाश्त नहीं कर पाता कि जब इनको ही राजा बनाना था तो हमारे लोगों को क्यों बुलाया. फिर शक्तिशाली कुर्सी से शंका का समाधान किया जाता कि बैंक रूपी समंदर में कुछ “बरमूडा ट्रायंगल्स” भी होते हैं जहाँ हम अपने टाइटेनिक नहीं डुबाना चाहते.

Scapegoats are always required and allowed to play in high profile brain games or you can say  blame games, without hockey sticks, shoes and body protecting pads.

खैर, कहानी आगे बढ़ती है नवपदोन्नत मुख्य प्रबंधक जी के सिंहासन ग्रहण प्रक्रिया के बाद परिचय और आकलन की. नवागत तो परिचय और नाम याद करने की कसरत में उलझ जाता है पर परिचय के उस छोर पर विराजित जन अपने अपने हिसाब से, मानदंडों और मापदंडों से नापतौल करने में लग जाते हैं. ये सब “मुन्नाभाई एमबीबीएस के बोमन ईरानी बन जाते हैं जिनका दृढ़तापूर्वक यह मानना होता है कि “सर जी, ये शाखा तो गरम गुलाबजामुन है, न निगल पाओगे न उगल पाओगे, जब तक हमसे सेटिंग नहीं होगी.

वैसे तो ये स्थान रेल से वेल कनेक्टेड था पर अनिभिज्ञ प्रबंधक बाद में समझ पाते थे कि रेल कभी कभी उनके कैरियर या नौकरी की सलामती के ऊपर से भी गुजर सकती है. वर्कलोड और रिस्क फैक्टर में प्रतिस्पर्धा थी कि कौन ज्यादा घातक है. पर इन सबके बावजूद इस शाखा की कुछ खासियत भी थी कि यहाँ कुछ बहुत अच्छे और समर्पित कारसेवक भी थे जो राहत और सुकून के मामले में ईश्वर के उपहार थे. ऐसे लोग आमतौर पर दुर्लभ ही होते हैं जो हर आपदा में हर चुनौती में आपके साथ खड़े होते हैं. आपकी मन:स्थिति, उदासी, बेचैनी, निराशा, गुस्सा, फ्रस्ट्रेशन, नाउम्मीदी को दूर करने की कोशिश करते रहते हैं. जब आप दस बजे से चार बजे तक लगातार डिमांडिंग और आक्रामक कस्टमर्स से उलझते हुये, सर को दोनों हाथों के बीच टिकाकर परेशान और थकित बैठे रहते हैं तो ये एक हवा के ठंडे झोंके की तरह आते हैं और अपनी राहतभरी आवाज से कहते हैं “चलिए सर, काम तो चलता रहेगा, अभी तो बाहर ठंडी हवाओं के बीच अदरक वाली कड़क चाय पीने का मौसम है”और आपको लगभग खींचकर अपने साथ ले जाते हैं. इन लम्हों को और इस अन ऑफीशियल अंतरंगता को कभी भूला नहीं जाता बल्कि अपनी सुनहरी यादों के लॉकर में संभाल कर रख लिया जाता है.

यद्यपि शाखा की “विश्वस्तरीय कस्टमर सर्विस को अंगूठा दिखाती सेवा”, तो विख्यात थी ही, फिर भी आने वाले “दिल है कि मानता नहीं” की भावना के साथ बड़ी उम्मीद लेकर आते थे और काम न होने पर भी खुद को ईशकृपा पाने के अयोग्य समझ कर वापस चले जाते थे. यही आत्मसंतोष उन्हें उस रात की नींद और फिर दूसरे दिन आने का हौसला और उम्मीद प्रदान करता था. जिनका काम उस दिन हो जाता, वे इसे अपने पूर्व जन्म के सुकर्मों का प्रतिफल मानकर खुश होते. इस स्थिति के लिए शाखा का प्राचीन दोमंजिला भवन, उसकी लोकेशन, शहर की बारहमासी गर्मी, भवन के मालिक का व्यवसायिक स्थल के मुताबिक किराया नहीं मिलने से उपजा असंतोष, संकरी सड़क भी जिम्मेदार थे. शहर व्यवसाय की असीम संभावनाओं से ओवरफ्लो हो रहा था और प्रतिस्पर्धा के नाम पर चुनौती देने वाले बैंक दूर दूर तक कहीं नहीं थे. इस कारण बैंक की स्थिति 1952 की कांग्रेस या 2023 की भाजपा सी अजेय थी. (राजनैतिक तुलनात्मक संदर्भ के लिए क्षमा). शाखा में एक दो केजरीवाल जैसे ज्ञानी भी थे (फिर से क्षमा) जो बैंक से और उसके उच्चाधिकारियों से लीगल टक्कर लेने की योग्यता रखते थे और ये नहीं सोचा करते थे कि यही प्रतिभा अगर बैंक के काम आती तो स्थिति कितनी अलग और बेहतर होती. बैंक में उन्हें क्या करना चाहिए इससे परे, प्रबंधन की क्या ड्यूटी है और कस्टमर की क्या, इसका उन्हें जबरदस्त ज्ञान था. बैंक में निर्देशानुसार कौन सी संकेतक पट्टी नहीं लगी है इसका ज्ञान वे समय समय पर प्रबंधन को देते रहते थे जबकि कस्टमर्स इस पट्टिका के मायाजाल से परे सिर्फ और सिर्फ अपनी बैंकिंग की जरूरतों का समाधान चाहते थे. चूंकि यह शहर  एक बहुत बड़े और उच्च राजनैतिक प्रभुत्व पाये महापुरुष की विशाल इंडस्ट्रियल प्रोजेक्ट से भी संपन्न था तो ये इनके आधुनिक, तकनीकी रूप से उच्च प्रशिक्षित और डिमांडिंग कर्मचारियों को भी बैंकिंग की आधुनिकतम सेवाएं मिलने की उम्मीद से, शाखा के मुख्य द्वार तक ले आता था. व्यवसाय के रास्ते हर तरफ से हर तरह के कस्टमर्स को, बैंक की ओर भेजते थे, सिर्फ कृषि और शासकीय व्यवसाय और शासकीय कर्मचारियों को छोड़कर. पर फिर भी असंतोष ही ऐसी खुशबू थी जो शाखा के परिसर में हमेशा बहती रहती थी, कस्टमर्स, स्टाफ, अधिकारी, भवन स्वामी सभी सब कुछ ए-वन संतुष्टि चाहते थे और इस सब को डिलीवर करने का दायित्व बस दो लोगों का ही माना जाता था. शाखा के बड़े नायक अपर फ्लोर पर और छोटे वाले भूतल पर पाये जाते थे. 

पानीपत युद्ध जारी रहेगा.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 188 ☆ सांजवेळी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 188 ?

सांजवेळी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आयुष्याच्या सांजवेळी,

आठवत राहतात….

काही फुलपंखी क्षण…

मनःपूत जगलेले!

 

आयुष्याला पडलेली,

सुंदर स्वप्नंच असतात ती,

कधीकाळी पाहिलेली…

काळजात खोलवर जपून ठेवलेली !

 

ती नाकारता येत नाहीत,

आणि इतर कोणाशी,

शेअर ही करता येत नाही,

आपला शाश्वत इतिहास..

 

म्हणूनच स्वतःशीच,

करतो उजळणी आपण,

कारण अगदी “हमराज”

असणारेही असतात अनभिज्ञ,

आपल्या मानसिकते पासून!

 

ते स्वतःच्या इतिहासापासूनही,

नामानिराळे!

नाकारतात स्वतःचा भूतकाळ,

अगदी निकराने !

कदाचित तेच अधिक सोयीस्कर,

वाटत असावे त्यांना !

 

पण एखाद्याचा स्वभाव असतो,

अधिकाधिक गुंतण्याचा,

गुंतून पडण्याचा !

 

केवढा मोठा कालखंड,

तेवीस चोवीस वर्षाचा….

निरंतर मनात रूंजी घालत असलेला !

 

पण नाही देता येत,

“ओ ” त्या हाकेला….

किंवा या हळव्या निमंत्रणाचा,

नाहीच करता येत स्वीकार!

 

म्हणून घालूनच घ्यावं,

एक कुंपण स्वतःभोवती !

आणि लागूही देऊ नये “भनक”

कुणालाच त्या कासाविशीची !!

– २६ जून २०२३

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- sonawane.prabha@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ येरे येरे पावसा… ☆ सौ.वनिता संभाजी जांगळे ☆

सौ.वनिता संभाजी जांगळे

?  कवितेचा उत्सव ?

☆ येरे येरे पावसा… ☆ सौ. वनिता संभाजी जांगळे ☆

डोंगर-दरी घुमवित

तापल्या रानाची

तहान भागवित

 

रोहिणीत केला पेरा

मृगाच्या भरवशी

कोरड्याच मृगाने

कल्लोळ काळजाशी

 

भेगाळल्या रानाची

कळ काळजाला

आशाळल्या नजरेनी

राजा न्याहाळतो आभाळा

 

तुझ्याच जीवावर

बळीराजा तो उदार

श्रध्दा ठेवून विठूवर

माया मातीवरी अपार

 

भिजून सरींत तुझ्या

हा कल्लोळ विझूंदे

ये रे पावसा धावून

हिरवं सपान फुलूंदे

© सौ.वनिता संभाजी जांगळे

जांभुळवाडी-पेठ

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वारी थेंबांचे… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल 

?  कवितेचा उत्सव ?

☆ वारी थेंबांचे… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

मनात धरती। उरातही प्रिती।

माउलीच्या भेटी। जावे वाटे॥

 

तुझ्याच ओढीने। वाफेच्या रुपाने।

घनाच्या स्थितीने । सज्ज झालो॥

 

ज्येष्ठ महिन्यात। मृदुंग नादात।

गर्जना घोषात । प्रस्थावलो॥

 

दर वर्षातली । भेटीची ही वारी।

माउलीच्या घरी । सौख्य देई॥

 

झिम्मा फुगड्यात।दंगूनी गाण्यात।

या वेळापुरात। धावलो मी॥

 

वर्षभर स्मरी। आनंद लहरी।

भेट उराउरी । माऊलीची॥

 

हा माहेरवास। देई सौख्य घास।

ओढ हमखास । लावे वारी॥

 

असूनी संसारी। मनात पंढरी।

अद्वैताच्या सरी । नेहमीच॥

 

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “नात…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

श्री कौस्तुभ परांजपे

? विविधा ?

☆ “नात…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

जोडल तर आपल असत. तोडल तर मात्र ना….. ते….. आपल असत. आणि नाही ते समोरच्याच.

नात म्हणजे एकाच नाण्याच्या दोन बाजू असतात. अगदी एकमेकांच्या पाठीला पाठ लावून असतात. या दोन बाजूमुळेच नात्याला किंमत असते.

या पैकी कोणतीही एक बाजू दुसऱ्या बाजूपासून वेगळी करता येत नाही. आणि करण्याचा प्रयत्न केला तर त्याची किंमत रहात नाही.

आपण सोबत असलो तरच आपल्याला किंमत आहे हे दोन्ही बाजूंनी समजून घ्यायच असत. आणि हे सगळ्या नात्यांच्या बाबतीत आहे. बऱ्याचदा तर काही नात्यामुळेच आपली ओळख असते.

नोटांच बांधून ठेवलेल बंडल आपण अनेक वेळा अनेक ठिकाणी पाहिल असेल. जेव्हा एक एक नोट या बंडलमध्ये जाते तेव्हा प्रत्येक नोटेची किंमत जरी तेवढीच रहात असली तरी बंडलची एकूण किंमत मात्र वाढत असते. तसच या बंडल मधून नोट काढल्यावर त्या नोटेची किंमत तेवढीच रहात असली तरी बंडलची एकूण किंमत मात्र कमी होते.  यापेक्षा आणखीन काहीही वेगळ नात्यांमध्ये नसत. आपल्या नात्याची किंमत एकत्र राहिल्यानेच वाढते.

नात्यानुसार, वयानुसार व्यक्तिची किंमत वेगळी असली तरी जेव्हा ते नातं म्हणून ओळखल जात तेव्हा दोघांची किंमत असते. आणि आपल्यामुळे दुसऱ्या बाजूला किंमत राहणार आहे हे लक्षात ठेवायच असत.

लहान मुलाला चालतांना आधार म्हणून आपण आपल बोट धरायला देतो. तसच वृध्द व्यक्तीला देखील देतो. त्यांना आधाराची गरज असते ती आत्मविश्वास यावा म्हणून. आणि तो आधार दिला की आत्मविश्वास येतो हे नात शिकवत. मग ते अगदी काही वेळासाठीच असल तरी सुद्धा.      

सगळी नाती कायम स्वरुपाचीच असतात अस नाही. फक्त ते जोडायची मनाची तयारी असली पाहिजे.

नात हे बंधनात अडकवत. पण नात हे रक्ताचच असल पाहिजे अस बंधन अजीबात नसत. रक्ताच्या नात्या इतकीच घट्ट ती असू शकतात.

नात हि अशी गोष्ट आहे की ती एकाच व्यक्तीला वेगवेगळ्या नात्याने स्वतः कडे आणि इतरांकडे बघायला शिकवते. जबाबदारीची जाणीव करून देते. एक नात जोडल की अनेक वेगवेगळी नाती त्या सोबत आपोआप जोडली जातात. आणि एक तुटल की अनेक तुटतात.

नात जोडायचा मोठेपणा मनात असला की नात्यातला मोठेपणा आपोआप मिळतो. नात एकमेकांना जवळ आणत. तसच जवळ आलेली एकमेकांत नात्याने बांधली जातात.

नात मग ते कोणतेही असो. हा ठेवा आहे‌. नाती होती, आणि आहेत, ती राहतील सुध्दा…….जर आपण ती समजून घेतली, फुलवली, आणि सांभाळली तर….. नात्यात रंगलो की नाती आपोआप रंगतात. ती रंगवावी लागत नाही.

©  श्री कौस्तुभ परांजपे

मो 9579032601

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अठरा अतिलघु कथा… ☆ सौ.प्रभा हर्षे ☆

सौ. प्रभा हर्षे

? जीवनरंग ?

☆ अठरा अतिलघु कथा☆  सौ. प्रभा हर्षे 

. आयुष्य संथ झालं म्हणून तक्रार करत होतो. तेव्हा मैलाचा दगड भेटला अन म्हणाला ; 

“मी स्थिर आहे म्हणूनच लोकांना त्यांची गती मोजता येत्ये रे!”

 

. माझ्या एका सत्कार समारंभात मला आकाश भेटलं कानात कुजबुजत म्हणालं, “एवढ्यात शेफरलास ?

जी मोजता येत नाही ती खरी उंची.”

 

. कुठलीही गोष्ट हसण्यावारी नेतो म्हणून मी मित्रावर रागावलो. तो मला समुद्रकिनारी घेऊन गेला आणि त्याने मला विचारलं, ” या समुद्राची खोली किती असेल सांगू शकशील? ” तेव्हापासून मी मत बनवत नाही कुणाबद्दल. 

 

. मला वाटलं कठीण हृदयाच्या माणसांना सौंदर्य कसं समजणार ? 

एक हिरा लुकलुकला.  म्हणाला, “वेडा रे वेडा !!” 

 

. कमी मार्क मिळाले म्हणून एका कोकराला कोणीतरी बदडत होतं.  त्या कोकराच्या डोळ्यातले भाव वाचले मी ! ते म्हणत होतं, ‘ करून बघायचं कि बघून करायचं, ठरवू दे की मला मी कसं जगायचं !’

 

७. एका वाढदिवसाला मला आयुष्यानं विचारलं 

“जगलास किती दिवस?”

 

. प्रेताने सरणावरच्या लाकडांना विचारलं –

“माझ्याबरोबर तुम्ही का जळताय?”

लाकडं म्हणाली, ” मैत्री म्हणजे काय ते कळलं नाही का अजूनही तुला? “

 

. पांगळ्या मुलाला भर उन्हात खांद्यावरून उतरवून रस्त्याच्या कडेला एका फाटक्या पोतेऱ्यावर बसवल्यावर त्याचा घाम आपल्या नवखंडी पदराने पुसून ती माऊली एकुलती एक कोरडी शिळी पोळी त्याला भरवताना म्हणाली ,” बाळा दमला असशील ना? खा पोटभर !!”

 

o. माणसानी देवाला विचारलं “ संकटं का पाठवतोस ? “

देव म्हणाला “ माणसाला होणाऱ्या माझ्या विस्मरणावरचं हमखास औषध आहे ते. “

 

११. ‘विश्वास’ या शब्दात “श्वास” का आहे?

दोन्हीही एकदा जरी तुटले तरी संपतं सगळं !

 

१२. दरवेश्याचं माकडाशी वागणं बघून मला माकडाची दया आली

माझ्या मनाचा मला लगेच प्रश्न, ” माकडाची येते पण माझी नाही येत दया तुला? “

त्यावर माझा मनाला प्रतिप्रश्न. ” माकडानं दरवेश्याला खेळवताना पाहिलं आहेस कधी? “

 

१३. नाती का जपायची ?

रेशमाच्या धाग्याचा गुंता सोडवून पहा एकदा… 

 

१४. आठवणींची एक गम्मत आहे.

त्याच्यात गुंतून राहिलात तर नवीन निर्माण नाही होत !! 

 

१५. माणूस देवाला म्हणाला ” माझा तुझ्यावर विश्वासच नाही.”

देव म्हणाला ” वा !!  श्रद्धेच्या खूप जवळ पोहोचला आहेस तू. प्रयत्न सुरु ठेव.”

 

१६. गवई एकदा तानपुऱ्याला म्हणाला,” तू नसलास तर कसं होईल माझं? “

तानपुरा म्हणाला ,” अरे वेड्या ! माझी गरज लागू नये हेच तर ध्येय आहे.”

 

१७. विठु माऊली एकदा एकादशीला दमून खाली बसली. मी विचारलं,”काय झालं ?”

विठुराय म्हणाले, ” पुंडलिकाचा गजर करतात लेकाचे, पण मायपित्यांना एकटं सोडून अजून माझ्याच पायाशी येऊन झोंबतात..  वेडे कुठले. !”

 

१८. एकटं वाटलं म्हणून समुद्रावर गेलो एकदा. त्याला विचारलं “कसा  एकटा राहतोस वर्षानुवर्ष ?”

तो म्हणाला “एकटा कुठला, मीच माझ्यात रमावं म्हणून ईश्वराने लाटा दिल्या आहेत ना मला.” 

मी विचारलं “माझं काय?”

तो हसून म्हणाला —  ” नामस्मरण आणि माझ्या लाटांमध्ये काहीच साम्य दिसत नाही का तुला ? “

 

लेखक : अज्ञात

प्रस्तुती : प्रभा हर्षे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “विठ्ठल ! विठ्ठल !” ☆ श्री कौस्तुभ केळकर नगरवाला ☆

? मनमंजुषेतून ?

☆ विठ्ठल ! विठ्ठल !☆ श्री कौस्तुभ केळकर नगरवाला ☆

विठोबा. मला मनापासून आवडतो.अगदी लहान असल्यापासनं. कमरेवर हात ठेवून उभा ठाकलेला.. .गालातल्या गालात खुदकन् हसणारा. काळासावळा.साधासुधा. आपला देव वाटतो.

पंढरपूरला गेलो की सहज भेटायचा. आपुलकीनं बोलणार. ‘ काय, कसा काय झाला प्रवास ? यावेळी अधिकात येणं झालं. जरा गर्दी आहे. चालायचंच. सगळी आपलीच तर माणसं. असं करा.उद्या सक्काळी सक्काळी या. काकडआरतीला. मग निवांत बोलू.’ मला पटायचं. 

दुसऱ्या दिवशी भल्या पहाटे पाचच्या सुमारास मी एकटाच मंदिरात जायचो. फारशी गर्दी नसायचीच. विठोबा निवांत भेटायचा. वेगळ्याच दुनियेत गेल्यासारखं वाटायचं. काकडआरती चाललेली. धूप उदबत्तीचा  सुगंध. सगळं अदभुत. एवढ्या गर्दीतसुद्धा विठोबा माझ्याकडेच बघायचा. डोळ्यातल्या डोळ्यात हसायचा. “अरे वा ! आज सकाळी सकाळी दर्शन. वा ! वा! आनंद वाटला. काय कसा काय चाललाय अभ्यास ? तेवढं गणिताकडे लक्ष द्या. पुढच्या वेळी याल तेव्हा पाढे पाठ पाहिजेत हं तीसपर्यंत. जरा लिहायची सवय ठेवा. आम्ही पाठीशी आहोतच.तरीही तुम्ही मेहनतीत कमी पडता कामा नये. बाकी अक्षर छान आहे हो तुमचं…”

मला भारी वाटायचं. “तीसपर्यंत पाढे नक्की पाठ करतो. गाॅडप्राॅमीस.” मी गाॅडप्राॅमीस म्हणलं की विठोबा गालातल्या गालात गोड हसायचा. “बरं बरं..”

देवाशपथ सांगतो. लहान असताना विठोबाशी असं सहज चॅटींग व्हायचं. माझे आजी आजोबा. पालघरला  रहायचे. दरवर्षी दोघंही वारीला जायचे. चातुर्मासात चार महिने पंढरपूरला जाऊन रहायचे. दरवर्षी आम्हीही जायचो पंढरपूरला. साधारण 80 ते 85 चा सुमार असेल. चार पाच वर्ष सलग जाणं झालं पंढरपूरला. तेव्हा महापूजा असायच्या. आजोबांच्या पंढरपूरात ओळखी फार. माझे दोन्ही मामा मामी, आई बाबा सगळ्यांना महापूजेचा मान मिळाला. गाभाऱ्यातला विठोबा आणखीनच जवळचा झाला. हिरव्याकाळ्या तुळशीची माळ काय छान शोभून दिसायची विठोबाला. त्याच्या कपाळावरचं ते गंध. दूध दह्यानं घातलेली आंघोळ. विठोबाच्या चेहऱ्यावरील अलौकिक तेज. त्याचे ते अलंकार. लगोलग हात जोडले जायचे. असं वाटायचं पूजा संपूच नये कधी….

पंढरपूरला आजी आजोबा बांगड धर्मशाळेत रहायचे. धर्मशाळा नावालाच. अतिशय उत्तम सोय. सेल्फ कंटेन्ड रूम्स. भल्यामोठ्या. दोन खोल्यात आजीआजोबांचा संसार मांडलेला असायचा. गॅसपासून सगळी सोय. आम्ही गेलो की दोन खोल्या अजून मिळायच्या. प्रत्येक खोलीसमोर रूमएवढीच भलीमोठी गॅलरी. तीन चार मजली मोठी इमारत. नवीनच बांधलेली. अतिशय लख्ख स्वच्छ. धुडगूस घालायला पुरेपूर स्कोप. समोरचा वाहता रस्ता. गॅलरीत रेलिंगला टेकून रस्त्यावरची गंमत बघायला मला जाम आवडायचं. ही जागा मंदिरापासून पाच मिनिटांच्या अंतरावर. पंढरपूरला गेलो की दोन दिवस रहाणं व्हायचंच व्हायचं. सकाळी महापूजा आवरली की दिवस मोकळा. मी चौथी पाचवीत असेन तेव्हा.

सक्काळी सक्काळी जाग यायची. लाऊडस्पीकरवर भीमसेन आण्णांचा आवाज कानी पडायचा. “माझे माहेर पंढरी…”. आपण युगानुयुगे पंढरपूरला रहातोय इतकं प्रसन्न वाटायचं. सगळं आवरून मी शून्य मिनिटात तयार व्हायचो. मग आजोबांबरोबर चंद्रभागेतीरी. बोटीत बसायला मिळावं ही प्रामाणिक इच्छा. मी पडलो नगरवाला. पाऊस, पाणी, नदी, बोटींग या गोष्टी परग्रहावरल्या वाटायच्या. नदी पाण्यानं टम्म फुगलेली. माझी बोटींगची इच्छा विठोबा, थ्रू आजोबा सहज पूर्ण करायचा. चूळूक चूळूक आवाज , ओल्या पाण्याचा हवाहवासा वास, घाटांवर विसावलेली असंख्य कळसांच्या भाऊगर्दीत हरवलेली पंढरी. अलंकापुरी. हे स्वर्गसुख बघायला दोन डोळे पुरायचे नाहीत. 

चंद्रभागेला भेटून पुन्हा बांगड धर्मशाळेत परतायचं. तोवर आजीचा स्वयंपाक झालेला असायचा. जेवण झालं की मी पुन्हा गुल. तेव्हाही पंढरपूरात गर्दी असायचीच. तरीही आजच्याइतकी नाही. भलीमोठी दर्शनरांग, दर्शनमंडप वगैरे नसायचं. दिवसातून ईन्फाईनाईट टाईम्स मी मंदिरात जायचो. दहा पंधरा मिनिटात सहज दर्शन व्हायचं. विठोबाशी मैत्र जुळायचं. कंटाळा आला की नामदेवाच्या पायरीपाशी जाऊन बसायचो. 

मला आठवतंय, एके दिवशी सकाळी नामदेवपायरीपाशी गेलेलो. एक वारकरी नाचत होता. हातात चिपळ्या. गळ्यात वीणा आणि तुळशीच्या माळा. कपाळी गंध. कुठलातरी अभंग म्हणत होता. दिवसभरात चार पाच वेळा चकरा झाल्या माझ्या तिथं. प्रत्येक वेळी तो भेटला. भान हरपून नाचणारा. मला रहावलं नाही. सुसाट धर्मशाळेत गेलो. आजीला सगळं सांगितलं. ” सकाळपासून नाचतोय बिचारा. जेवला सुद्धा नाही गं.” आजी खुदकन् हसली. “तोच खरा विठोबा. जा नमस्कार करून ये त्याला.” मी रिवर्स गिअरमधे पुन्हा मंदिरात. त्याला वाकून नमस्कार केला. तो मनापासून हसला. मला कवेत घेतलं. गळ्यातली तुळशीची माळ माझ्या गळ्यात घातली. धन्य. धन्य. काय सांगू राव? त्याच्या डोळ्यात विठोबा हसत होता.

धर्मशाळेत मॅनेजरची खोली होती. विठोबा, ज्ञानेश्वर, तुकाराम आणि इतर अनेक संतांच्या तसबिरी होत्या. वीस पंचवीस असतील. मॅनेजरकडे मोठ्ठी सहाण होती. गंध उगाळायला अर्धा तास सहज लागायचा. मग प्रत्येक तसबिरीला गंध लावणं., जुना हार काढून ताजा हार घालणं, उदबत्ती लावणं. मला हे सगळं बघायला खूप आवडायचं. मॅनेजर माझी परीक्षा घ्यायचे. संतांची मांदियाळी मी बरोबर ओळखायचो. मॅनेजर खूष. बक्षीस म्हणून विठोबाला हार मी घालायचो. बत्तासा मिळायचा. मला भारी वाटायचं.

धर्मशाळेत खालच्या मजल्यावर कुठलेतरी कीर्तनकारबुवा आलेले असायचे. सकाळी त्यांची पूजा आटोपली की रियाज असायचा. मी जाऊन बसायचो. रात्री त्यांचं मंदिरात किर्तन असायचं. साथीदार तयारीचे…  मृदुंगाला शाई लावली जायची. टाळ चिपळ्यांचा आवाज घुमायचा. बुवांची रसाळ  वाणी. प्रेमळ चेहरा. लाईव्ह परफाॅर्मन्स. श्रोता मी एकटाच. कीर्तन मस्त रंगायचं. माझा चेहरा बघून बुवा खूष व्हायचे. सहज शेजारी लक्ष जायचं. वाटायचं विठोबाच शेजारी बसून प्रसन्न चित्ताने कीर्तन ऐकतोय. भारीच.

दुसऱ्या मजल्यावर एक चित्रकार असायचे. संस्थानाच्या कामासाठी आलेले. महाभारत, रामायण, विठोबाची अप्रतिम चित्रं काढायचे. एकदम जिवंत. भल्यामोठ्या कॅन्व्हासवर. मी गुपचूप तिथं जाऊन बसायचो. तासन्तास. हरवून जायचो. मोठा कसबी कलाकार. तासाभरानं त्यांचं माझ्याकडे लक्ष जायचं. मी पटकन् विचारायचो, ” इतकी छान चित्रं कशी काय  काढता ?” ते नुसतेच हसायचे. “मी नाही काढत. विठोबाच रंगवून घेतो माझ्याकडनं.”. झालं. मला कमरेवरचे हात काढून, ब्रश घेवून चित्र रंगवणारा विठोबा दिसू लागायचा. नंतर कळायचं. त्यांनीच काढलेली अप्रतिम चित्रं मंदिरात लावली आहेत. त्यांचं म्हणणं पटायचं.

पंढरपुरातले दोन दिवस शून्य मिनिटात संपून जायचे. दोन दिवसात ईन्फाईनाईट टाईम्स, ईन्फाईनाईट रूपात विठोबा भेटायचा. जड पावलांनी टांग्यात बसायचं. स्टॅन्डवर पोचलो की नगरची गाडी तयारच असायची. टिंग टिंग. डबलबेल. खिडकीतून बाहेर लक्ष जायचं. “या पुन्हा पुढच्यावर्षी…” विठोबा हात हलवून निरोप द्यायचा. डोळ्यात चंद्रभागा दाटून यायची.

नंतर पुन्हा फारसं पंढरपूरला जाणं झालं नाही. आज ठरवून  पासोड्या विठोबाला भेटलो. विठोबा ओळखीचा हसला.

“काय चाललंय ? झाले का पाढे पाठ ?” .मी जीभ चावली.

“बरं…बरं. असू देत.एकदा हेडआॅफीसला जावून या.”

“नक्की…”.मी पंढरपूरचं प्लॅनिंग करायला लागतो.

विठ्ठल ! विठ्ठल…||

©  श्री कौस्तुभ केळकर नगरवाला

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ ऐ वतन, मेरे वतन… भाग-1 ☆ सुश्री सुनीला वैशंपायन ☆

सुश्री सुनीला वैशंपायन 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ ऐ वतन, मेरे वतन… भाग-1 ☆ सुश्री सुनीला वैशंपायन 

बारा-चौदा वर्षांपूर्वीची ही गोष्ट आहे. इंदौरमधल्या एका नामवंत शाळेत, आठवड्याभराची कार्यशाळा संपवून मी रेल्वेने मुंबईला परत निघाले होते. 

एसी २-टियरच्या डब्यात, पॅसेजमधला खालचा बर्थ मला मिळाला होता. सूटकेस बर्थखाली ठेवून आणि हँडबॅग खुंटीला लटकावून, हुश्श म्हणत मी बसले. रात्रभराच्या शांत झोपेची मला नितांत गरज होती.

आतील बाजूच्या कूपेमधले चारही प्रवासी आधीच आलेले होते. दोन पुरुष आणि दोन स्त्रिया. एकंदर सोबत तर ठीकठाक वाटत होती. त्या दोन पुरुषांपैकी, वयाने लहान असलेल्या पुरुषाचा चेहरा एका बाजूने वाकडा आणि ओबडधोबड होता. केसही अगदी बारीक कापलेले होते. एकंदरीत, तो दिसायला जरा विचित्रच होता. पण त्याच्याकडे फार काळ रोखून पाहणे वाईट दिसेल, म्हणून मी नजर वळवली. 

एकदाची गाडीत बसून स्थिरावल्यावर, मी मोबाईल बाहेर काढला. नौदल अधिकारी असलेल्या माझ्या नवऱ्याला, माझी हालहवाल, (म्हणजे नौदलाच्या भाषेत, SITREP किंवा Situation Report) कळवणे आवश्यक होते. माझे वडील, सासरे, आणि नवरा अशा तीन ‘फौजी’ लोकांसोबत अनेक वर्षे राहिल्यामुळे, सैन्यदलात वापरले जाणारे कित्येक शब्द माझ्या बोलण्यात आपसूकच येतात!

मी फोनवर बोलत असताना, दणकट शरीरयष्टीचे तीन तरुण आले आणि काहीही न बोलता-विचारता खुशाल माझ्या बर्थवर बसले. नवऱ्याला फोन चालू ठेवायला सांगून मी त्या तरुणांकडे प्रश्नार्थक मुद्रेने पाहिले. त्यांच्यापैकी एकाने वरच्या बर्थकडे बोट करून, तो बर्थ त्याचा असल्याचे मला खुणेनेच सांगितले. तात्पुरते समाधान झाल्याने मी पुन्हा नवऱ्यासोबत बोलू लागले. 

त्या तिघांनी, आपसात गप्पा आणि हास्यविनोद करत-करत, हळू-हळू माझ्या बर्थवरची बरीच जागा बळकवायला सुरुवात केली. अंग चोरून बसता-बसता, शेवटी बर्थच्या एका कोपऱ्यात माझे मुटकुळे झाले. मग मात्र मी फोन बंद केला आणि त्या तिघांना उद्देशून सांगितले की मला आडवे पडायचे असल्याने त्यांनी आता माझ्या बर्थवरून उठावे. त्यांच्यापैकी एकाने, बर्थच्या वर लिहिलेली नोटीस बोटानेच मला दाखवली आणि म्हणाला, “रात्री नऊनंतरच बर्थ झोपण्यासाठी वापरता येतो. तोपर्यंत त्यावर बसूनच राहावे असा नियम आहे.”

त्याला चांगले खरमरीत उत्तर मी देणारच होते. पण कुणाला काही कळायच्या आत, कूपेमधला तो विचित्र चेहऱ्याचा मनुष्य उठून माझ्या शेजारी येऊन उभा राहिला. कमालीच्या थंड नजरेने त्या तिघांकडे पाहत, अतिशय मृदू आवाजात, व सौम्य शब्दात, त्याने त्या तिघांनाही दुसऱ्या डब्यात निघून जाण्यास सांगितले. त्यांपैकी एकजण उलटून त्याला काही बोलण्याच्या तयारीत होता. पण माझ्या त्या ‘रक्षणकर्त्या’ च्या थंड नजरेतली जरब त्याला जाणवली असावी. तिघेही मुकाट्याने उठून चालते झाले. 

मी “थँक यू” म्हणताक्षणी त्याच्या तोंडून आलेल्या, “Not at all, Ma’am” या वाक्यामुळे, तो फौजी असणार हे मी बरोबर ताडले. तरीही खात्री करून घेण्यासाठी मी विचारले, “तुम्ही सैन्यदलात आहात का?” 

“होय, मॅडम. मी इन्फन्ट्री ऑफिसर आहे.  महूला एका छोट्या ट्रेनिंग कोर्सकरिता आलो होतो.”

“अच्छा. माझे मिस्टर नौदलात आहेत. माझे वडील आणि सासरे आर्मीमध्ये होते.”

सहजपणे आमच्या गप्पा सुरु झाल्या. देशातील एकंदर वातावरण, आणि विशेषतः काश्मीरमधल्या परिस्थितीकडे आपसूकच बोलण्याचा ओघ वळला. एक-एक करीत इतर सहप्रवासीदेखील आमच्या गप्पात सहभागी झाले. त्या सगळ्यांपैकी कोणीही दिल्लीच्या पुढे उत्तरेला कधीच गेलेले नसल्याने, माझ्यापेक्षा त्यांनाच काश्मीर खोऱ्यातील ‘आँखोंदेखी’ ऐकण्यात अधिक रस होता. पुढचे दोन-तीन तास, अक्षरशः आपापल्या जागेवर खिळून, आम्ही त्या मेजरचे एकेक थरारक अनुभव ऐकत राहिलो. (त्या मेजरचे नाव मी सांगू इच्छित नाही). 

ट्रेनिंग संपवून ज्या दिवशी तो युनिटमध्ये अधिकारी म्हणून दाखल झाला, त्याच दिवशी त्याच्या हातून एक मनुष्य (अर्थातच पाकिस्तानी अतिरेकी) मारला गेला होता, आणि तोही अगदी काही फुटांच्या अंतरावरून! 

ती कारवाई संपल्यानंतर मात्र, जेमतेम २०-२२ वर्षांच्या त्या तरुण अधिकाऱ्याचे मन अक्षरशः सैरभैर होऊन गेले होते. युनिटमधल्या वरिष्ठ अधिकाऱ्यांनी त्याची अवस्था ओळखून, त्याची काळजी घेतली आणि योग्य शब्दात त्याची समजूत घातली. एक सेनाधिकारी म्हणून स्वतःचे कर्तव्य पार पाडताना, त्याला अशा अनेक प्रसंगांना सामोरे जावे लागणार आहे याची त्याला जाणीव करून दिली. जणू काही अर्जुनाला भगवान श्रीकृष्णच भेटले! 

युनिटमधल्या सर्व अधिकारी व जवानांमध्ये असणारा बंधुभाव आणि एकमेकांवरचा विश्वास लाखमोलाचा असतो हे त्या मेजरने आम्हाला आवर्जून सांगितले. कारण, याच  भावना आणि हेच  घनिष्ट  परस्परसंबंध, अनेक वेळा जीवन आणि मृत्यू यांच्यामध्ये अभेद्य भिंत बनून उभे राहतात!

मला जाणवले की तो मेजर खराखुरा हाडाचा सैनिक होता. “सैनिकाने लढताना नीतिमत्ता विसरता कामा नये” हे वाक्य बोलताना त्याच्या चेहऱ्यावर एक वेगळीच चमक होती. उदाहरण म्हणून, कारगिल युद्धातली एक सत्य घटना त्यानेे सांगितली.

– क्रमशः भाग पहिला 

मूळ इंग्रजी अनुभव लेखिका : सौ. स्मिता (भटनागर) सहाय. [भारतीय नौदलातील कॅप्टन सहाय यांच्या पत्नी]

मराठी भावानुवाद : कर्नल आनंद बापट [सेवानिवृत्त]— ९४२२८७०२९४ (#केल्याने भाषाटन) 

संग्रहिका : सुश्री सुनीला वैशंपायन

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ होतं असं कधी कधी… ☆ प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला पै ☆

? वाचताना वेचलेले ?

⭐ होतं असं कधी कधी… ☆ प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला पै ⭐

एखादा छान ड्रेस आवडतो आपल्याला.

दुकानात असलेल्या कपड्यांच्या गर्दीत

तो साधा वाटतो, पण तरीही आवडतो. तरीही

काहीतरी दुसरेच घेऊन बाहेर पडतो आपण.

परतताना मनात विचार येतो की,

‘तो ड्रेस घ्यायला हवा होता…’

होतं असं कधी कधी.

 

सिग्नलला गाडी थांबते.

चिमुरडी काच ठोठावते.

गोड हसते, पण भीक मागत आहे ,

हे लक्षात घेऊन तिच्या त्या हसण्याकडे

फार लक्ष देत नाही आपण.

२-३ रुपये द्यावे असे मनात येते.

रेंगाळत सुटे शोधता-शोधता

“देऊ का नको, ” हा धावा मनात सुरू असतो.

तेवढ्यात सिग्नल सुटतो.

गाडी पुढे घ्यायची वेळ येते.

थोडे पुढे गेल्यावर मन म्हणते,

” सुटे होते समोर, द्यायला हवे होते त्या चिमुरडीला.”

होतं असं कधी कधी

 

जेवणाच्या सुट्टीत

ऑफिसातला मित्र त्याच्या घरातला त्रास

फार विश्वासाने सांगतो,

त्याच्या डोळ्यात व्यथांचे ढग दाटलेले दिसतात.

वाईट वाटते खूप.

नशीब आपण त्या परिस्थितीत नाही,

असेही मनोमनी पुटपुटून आपण मोकळे होतो.

‘” काही मदत हवी का ?’” असे विचारायचे असूनही

आपण गप्प राहतो.

जेवणाची सुट्टी संपते.

तो त्याच्या आणि आपण आपल्या कामाला लागतो.

क्षणभर स्वत:चा राग येतो,

मदत  विचारली नाही,

निदान खांद्यावर सहानुभूतीचा हात

तरी ठेवायला हवा होता मी!

होतं ना असं कधी कधी?

 

असंच होतं नेहमी,

छोट्या-छोट्या गोष्टी राहून जातात…

खरं तर या छोट्या गोष्टीच

जगण्याचे कारण असतात.

 

गेलेले क्षण परत येत नाहीत.

राहतो तो ” खेद “,

करता येण्यासारख्या गोष्टी न केल्याचा.

 

जगण्याची साधने जमवताना

जगणेच राहून जात नाहीयेना

ते चेक करा.

 

आनंद झाला तर हसा,

वाईट वाटलं,तर डोळ्यांना

बांध घालू नका.”

 

चांगल्या गोष्टीची दाद द्या,

आवडले नाही तर सांगा,

पण घुसमटू नका.

 

त्या-त्या क्षणी जे योग्य वाटते ते करा.

नंतर त्यावर विचार करून काहीच साध्य नाही.

 

आयुष्यातल्या छोट्या गोष्टींना महत्त्व द्या,

त्या छोट्या क्षणांना जीवनाच्या धाग्यात

गुंफणे म्हणजेच जगणे.

 

आवडलेल्या गाण्यावर मान नाही डुलली

तर ” लाईफ ” कसले ?

 

आपल्यांच्या दु:खात डोळे नाही भरले

तर ” लाईफ ” कसले?

 

मित्रांच्या फालतू विनोदांवर

पोट दुखेस्तोवर हसलो नाही

तर ” लाईफ ” कसले ?

 

आनंदात आनंद

आणि

दु:खात दु:ख नाही जाणवले

तर ” लाईफ ” कसले…?

संग्राहिका : सौ. उज्ज्वला पै 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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