☆ विठूमाऊलीचा प्रसाद ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆
आर्मी सर्व्हिसेस कोरचे कॅप्टन प्रकाश कदम पंढरपूरला विठूमाऊलीच्या दर्शनाला आले होते. आज त्यांची सुट्टी संपत होती. दर्शन झालं की इथून मुंबई आणि मग तिथून पोस्टिंगवर – ड्युटीवर रुजू व्हायचं म्हणून कॅप्टनसाहेब लष्करी गणवेषातच दर्शनाला आले होते.
दर्शन झालं, आता बाहेर पडणार एवढ्यात एका छोट्या मुलीनं त्यांना हटकलं – काका, तुम्हीपण सैन्यात आहात ना ? इथून आता शत्रूशी ढिशूम ढिशूम करायला तुम्ही काश्मीरला जाणार ना ? माझे बाबाही तिथेच आहेत. त्यांच्यासाठी हा विठोबाचा प्रसाद घेऊन जाल ? आई म्हणते बाबा आता कधीच परत येणार नाहीत, त्यांना एवढा प्रसाद तर द्या.
आणि कदमांचा पंढरपूरचा मित्र त्यांच्या कानात कुजबुजत सांगत होता – ही उमंग. शहीद मेजर कुणाल गोसावींची मुलगी. मेजरसाहेब २०१६ साली काश्मीरमध्ये नग्रोटा इथे अतिरेकी हल्ल्यात शहीद झाले, तेव्हा ही फक्त ४ वर्षांची होती….
कदमांच्या डोळ्यात पाणी तरारलं आणि त्यांना पुढचं काही ऐकूच आलं नाही.
लेखक : मकरंद पिंपुटकर
संग्रहिका : स्मिता पंडित
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ दूर राहूनी पाहू नको रे… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆
.. दूर राहूनी पाहू नको रे, प्रीतीची शपथ तुला जाऊ नको रे ,प्रिया जाऊ नको रे!..आकाशीच्या चांदण्या वसुंधेरवर उतरल्या आणि आपल्या प्रियतमाला साद देऊ लागल्या. आकाशी चंद्र आता एकाकी पडला.चांदण्याच्या विरहाची काळी चंद्रकला उदासीचे अस्तर लेवून आभाळभर पसरली.चंद्र अचंबित झाला. त्याला कळेना आज अशा अचानक मला सोडून वसुंधेरवर कुणाच्या मोहात या चांदण्या पडल्या!माझ्याहून सुंदर प्रेमाचा कारक असा वसुंधेरवर कोण भेटला?कालपर्यंत तर माझ्या अवतीभवती राहून आपल्या प्रेमाने रुंजी घालत असणाऱ्यांना, प्रत्येकीला मनातून आपला स्व:ताचाच चंद्र मालकीचा हवा असा वाटत होते.. मी त्यांचे मन केव्हाच ओळखले होते. प्रेमाच्या चंदेरी रूपेरी प्रकाशी त्या सगळयांना मी सामावून घेतलेही होते. कुठेही राग रुसवा, तक्रारीला जागा नव्हती. अगदी दृष्ट लागण्यासारखीच आमची अशी अक्षर प्रीती होती कालपर्यंत. पण आज पाहतो त्या प्रेमाचा माझ्या नकळत त्यांनी ब्रेक अप करावा.. ना भांडण, ना धुसफूस ना शिकवा ना गिलवा. हम से क्या भुल हुई जो हम को ये सजा मिली…एक, दोन गेल्या असत्या तर समजून गेलो असतो.. पण इथं तर एकजात सगळ्याच मला सोडून गेल्या .आपापल्या मालकीचा स्वतंत्र चंद्राबरोबर बसून मलाही त्या दूर राहूनी पाहू नको रे, प्रीतीची शपथ तुला जाऊ नको रे प्रिया जाऊ नको रे.. करून साद देत सांगू लागल्या ये रे ये रे तू देखिल इथं खाली वसुंधेरवर ये आणि तुला आवडणारी एखादी चांदणीशी सुत जुळव . आणि आता आपण सगळेच या वसुंधेरवर प्रीतीचं नंदंनवन करुया… म्हणजे पुन्हा गोकुळात रासलिला.. छे छे किती अनर्थ माजेल… नको नकोच ते.
.. मी त्यांना म्हटलं हा काय वेडेपणा मांडलाय तुम्ही.. त्या वसुंधेरवरची लबाड प्रेमी जन मंडळी आप आपल्या प्रियतमेला हवा तर तुला आकाशीचा चंद्र, चांदण्या आणून देतो असं आभासमय ,फसवं आश्वासन देऊन आपल्या प्रीतीची याचना करतात.. ते आपण इथून दररोज वरून पाहात आलोय कि.. कुणाचं सच्च प्रेम आहे आणि कोण भुलवतयं हे आपल्याला इथं बसून बघताना आपलं किती मनोरंजन व्हायचं.. आणि आणि ते सगळं पाहता पाहता आपण सगळे मात्र नकळत मिठीत बांधले जात असताना, त्या प्रेमाचे टिपूर चांदणे वसुंधेरवर सांडले जात असे… मग असं असताना आज अचानक तुमची मिठी रेशमाची सैल होऊन गळून का जावी.. अगं वेड्या बायांनो दूरून डोंगर.. आपलं वसुंधरा.. साजरे दिसतात हे काय वेगळं सांगायला हवं का मी तुम्हांला… आज तुम्ही ज्याला भुलालय तो जरी तुम्हाला मालकीचा स्वतःचा चंद्र गवसला असलाना तर तो तुमचा भ्रम आहे बरं.. अगं ते चंद्र नाहीत तर चमचमणारा काचेचा चंद्र आहेत.. तुमच्या सौंदर्यावर भाळलेला..भ्रमरालाही लाज वाटेल अशी चंचल वृत्तीची प्रिती असते त्यांची.. मग तुम्हाला ही आकाशीचा तो चंद्र आणून देतो हया फसव्या थापा मारतील.. आणि आणि त्यानंतर हळूहळू जसं जसं तुमचं सौंदर्य अस्तंगत होत जाईल ना तसा तसा तुमच्यातला त्याचा इंटरेस्ट कमी कमी होत जाऊन तो नव्या सौंदर्यवतीच्या शोधात राहिल.. मग तुमची काय गत होईल?..इथं निदान कालगती ने तुम्हाला उल्का होउन खाली तरी जाता येत होतं पण तिथं वसुंधेरवर तुम्हाला उल्का सुद्धा होता येणार नाही…
तेव्हा सख्यांनो हा वेडेपणा सोडा या बरं परत आपल्या ठिकाणी . दिल पुकारे आरे आरे… सुलगते साइनेसे धुवाॅं सा उठता है लो अब चले आओ के दम घुटता है….
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘मोहपाश ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 117 ☆
☆ लघुकथा – मोहपाश☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
मम्मी ! ‘जी पे’ का नंबर बताओ!
क्यों? किसलिए?
पैसे चाहिए और क्या?
सब चीजें तो हैं घर में, अब तुम्हें क्या खरीदना है?
तुम्हें पता है ना कि अब मेरी पेंशन से ही काम चलाना है। तेरी नौकरी अभी तक नहीं लगी है और मुझे मानसी की शादी के लिए भी पैसे बचाने हैं।
वह तुम्हारी जिम्मेदारी है, तुम जानो। ‘पिन’ बता रही हो कि नहीं – बेटा तेजी से लगभग डाँटते हुए बोला।
उसकी तेज आवाज ने उसे कँपा दिया, कुछ वैसे ही जैसे पति का शव सफेद कपड़े में लिपटा देख वह काँपी थी। उसने दोनों बच्चों को बाँहों के घेरे में कसकर जकड़ लिया था। रेशमी धागों की यह जकड़न बच्चों के बड़े होने के साथ-साथ बढ़ती ही गई। जीवन के हर मोड़ पर रेशमी धागों की एक और गाँठ जुड़ जाती। वह समझती रही कि उसकी बाँहों के ये घेरे बच्चों को हर तरह से संभाले हैं पर ———- मंदिरों में बँधे मनौतियों के धागे भी ना जाने कितनों की मन्नतों को अपने में समेटे समय के साथ बेरंग हो जाते हैं।
‘पिन’ बताती क्यों नहीं मम्मी!
हैं — हूँ – उसने चौंककर बेटे की ओर देखा, वह समझ ही ना सकी रेशम की डोर कब जानलेवा रस्सियों में बदल गई।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।)
आदरणीय डॉ कुँवर प्रेमिल जी के विवाह की 50 वीं वर्षगांठ पर ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं 💐 ईश्वर आप दोनों को सदैव स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त रखें यही हमारी मंगलकामनाएं 💐 इस शुभ अवसर पर उपहार स्वरूप आपकी ही एक लघुकथा – ‘ताकि सनद रहे’।
☆ लघुकथा – ताकि सनद रहे ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
पतिदेव आज सुबह-सुबह ही उठ गए। उन्होंने चाय बनाकर अपनी धर्मपत्नी को जगाकर कहा-‘भाग्यवान, अब उठो भी—मेरे हाथ की गरमा-गरम चाय पी कर तो देखो।’
पत्नी हड़बड़ा कर उठी’-यह क्या गजब कर डाला। पूरी जिंदगी मैंने तुम्हें चाय पिलाई और आज आपने उल्टी गंगा बहाई।’
‘मैडम कोई गंगा उल्टी नहीं बही—वह तो अपना मार्ग प्रशस्त करती बहती है। आप भी मेरे घर की गंगा हो। करवट बदल कर उठो और गरमा गरम चाय का लुत्फ़ उठाओ।’
‘सारी जिंदगी मैंने आपको कोई काम नहीं करने दिया। आज नाश पीटी नींद ने कैसा बदला लिया जो–‘
‘अरे, पूरी जिंदगी तुम गंगा बनकर इस परिवार को तृप्त करती रहीं। जिस दिन से ब्याह कर आई उस दिन के बाद शहर में मायका होते हुए भी एक दिन के लिए मायके नहीं गई।’
पत्नी मुस्कुराकर बोली-‘अब बातें ही बनाओगे या चाय भी पिलाओगे’।
‘चाय की चुस्कियां लो और उसके बाद नाश्ता–मैंने गरमागरम आलू के पराठे सेंक लिए हैं। तुम्हें आलू के पराठे पसंद जो हैं -क्यों?’
‘चलो, आप बड़े वो हो, मेरी नींद का फायदा उठाकर आज गृहस्थी की ड्यूटी में मेरी गैर हाजिरी लगवा दी। आपकी चाय ने तो मेरे शरीर में मस्ती सी घोल दी है।’
पति ने शरारती अंदाज में कहा-‘देखो जी, आज हमारी शादी की पचासवीं वर्षगांठ है। आज मैं दिन भर तुम्हें झूला झुलाऊंगा और फूलों के बिस्तर पर शयन कराऊंगा। ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आए। कम से कम एक दिन के लिए पति को भी पत्नी बन कर देखना चाहिए।’
तब तक पत्नी जी सो चुकी थीं और खर्राटे भरने लगी थीं। उनके चेहरे पर आत्म संतोष छलका पड़ रहा था।
पतिदेव भी पूरे उत्साह के साथ चाय के बर्तन धोने चले गए थे।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी सूरत तेरी आँखें”।)
अभी अभी # 36 ⇒ मेरी सूरत तेरी आँखें… श्री प्रदीप शर्मा
अज़ीब अंधेरगर्दी है ! हमें अपनी आँखों से ही अपनी सूरत दिखाई नहीं देती। हमें या तो दूसरों की आँखों का सहारा लेना पड़ता है, या फिर किसी आईने का !
आईने के सामने घण्टों सजने-संवरने के बाद जब सजनी अपने साजन से पूछती है, मैं कैसी लग रही हूँ? तो, किसी किताब में गड़ी आँखों को बिना उठाए, वह जवाब दे देते हैं, ठीक है ! और वह पाँव पटकती हुई किचन में चली जाती है। थोड़ी ही देर में चाय का प्याला लेकर वापस आती है। मिस्टर साजन चाय की पहली चुस्की लेते हुए जवाब देते हैं, हाँ, अब ठीक लग रही हो।।
जिन आँखों से आप पूरी दुनिया देख चुके हो, उन आँखों से अपनी ही सूरत नहीं देख पाना तो उस कस्तूरी मृग जैसा ही हुआ, जो उस कस्तूरी की गंध की तलाश में है, जो उसकी देह में ही व्याप्त है। अगर आईना नहीं होता, तो कौन यक़ीन करता कि, मैं सुंदर हूँ।
इंसान से कई गुना सुंदर पशु-पक्षी इस प्रकृति पर मौजूद है, जिनके बदन पर कोई अलंकारिक वस्त्र-आभूषण मौजूद नहीं, लेकिन इसका उन्हें कोई भान-गुमान नहीं। उनके पास प्रकृति द्वारा प्रदत्त सुंदरता को निहारने का कोई आईना ही नहीं ! जब किसी सुंदर पक्षी के सामने आईना रख दिया जाता है, तो वह उसे कोई अन्य पक्षी समझ आईने पर चोंच मारता है। उसे अपनी सुंदरता का कोई बोध ही नहीं। जब कि उसने कई बार अपनी परछाई पानी में अवश्य देखी होगी।।
अगर आईना नहीं होता, तो क्या सुंदरता नहीं होती ! आईना सुंदर नहीं ! आईने का अपना कोई अक्स नहीं। क्या आपने ऐसा कोई आइना देखा है, जिसमें कुछ भी नज़र नहीं आता? जब भी आप ऐसा आईना देखने जाएँगे, अपने आप को उसमें पहले से ही मौजूद पाएँगे।
केवल शायर ही नहीं, ऐसे कई इंसान हैं जो किसी की आँखों में खो जाते हैं, उन आँखों पर मर-मिटने को तैयार हो जाते हैं। तेरी आँखों के सिवा, दुनिया में रखा क्या है। तीर आँखों के, जिगर से पार कर दो यार तुम। क्या करें ! तेरे नैना हैं जादू भरे।
यही हाल किसी मासूम सी सूरत का है ! हर सूरत कितनी मशहूर है। तेरी सूरत से नहीं मिलती, किसी की सूरत ! हम जहां में तेरी तस्वीर लिये फिरते हैं। सूरत तो सूरत, तस्वीर तक को सीने से लगाकर रखने वाले कई आशिक मौजूद हैं, इस दुनिया में।।
अगर इस खूबसूरत से चेहरे पर आँखें ही न होती तो क्या होता ! आँखें ही रौशनी हैं, आँखें ही नूर हैं। आँखों में परख है, इसीलिए तो हीरा कोहिनूर है। सूरत और आँखों को आप एक दूसरे से अलग नहीं कर सकते।
ऐसा नहीं ! चेहरे बदसूरत भी होते हैं, आँखें कातिल ही नहीं डरावनी भी होती हैं। क्यों कोई हमें फूटी आँखों नहीं सुहाता, क्यों हम किसी की सूरत भी नहीं देखना चाहते? अरे! कोई कारण होगा।
हमारी इन दो खूबसूरत आँखों के पीछे भी आँखें हैं, जो हमें इन आँखों से दिखाई नहीं देती, वे मन की आँखें हैं। वे मन की आँखें सूरत को नहीं सीरत को पहचानती हैं। मन की आँखों ही की तरह हर सूरत में एक सीरत छुपी रहती है। वही अच्छाई है, आप चाहें तो उसे ईश्वरीय गुण कहें या ख़ुदा का नूर।।
संसार ऐसी कई विभूतियों से भरा पड़ा है, जो जन्म से ही दृष्टि-विहीन थे। भक्त सूरदास से लगाकर रवींद्र जैन तक कई जाने-अनजाने नेत्रहीनों का सहारा रही हैं, ये मन की आँखें ! इस दिव्य-दृष्टि के स्वामी को कोई अक्ल का अंधा ही अंधा कहेगा।
यारों, सूरत हमारी पे मत जाओ ! मन की आँखों से हमें परखो। हम दिल के इतने बुरे भी नहीं।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बिनु पद चले, सुने बिनु काना…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 148 ☆
☆ बिनु पद चले, सुने बिनु काना… ☆
प्रकृति ने हर मौसम के लिए अलग- अलग रंग संयोजित किए हैं, किंतु उत्साह का तो एक ही रंग होता है जिसकी चमक सब बयां कर देती है। नेह की भावना जहाँ अपनों को जोड़ कर रखती है वहीं बिन बोले ही वो कह जाती है जो सामने वाला हमसे चाहता है।
आकर्षण, घर्षण, विकर्षण सारे ही व्यवहार में देखने को मिलते हैं, बस ये हमें चयन करना है कि हम किसके साथ चल सकते हैं।
शिखर की चाह में एक -एक कर सबको हटाते जाना फिर जोड़ने की कोशिश करना ; इन्हीं स्थितियों के लिए रहीम दास जी का ये दोहा प्रासंगिक है –
रहिमन माला प्रेम की, जिन तोड़ो चटकाय।
जोड़े से फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।।
पर कोई बात नहीं जैसे ही व्यक्ति सफल होता है, उसे अनेको लोग मिल जाते हैं, उसके प्रशंसक ; ऐसी दशा में क्या जरूरत है ; अड़ंगेबाजों को सिर पर चढ़ाने की ?
परन्तु दूसरी ओर ये बात भी ध्यान रखने योग्य है –
रूठे स्वजन मनाइये, जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिर फिर पोइये, टूटे मुक्ता हार।।
इस दोहे में रहीम दास जी ने स्वयं कहा है रूठे स्वजन को मनाइए, हम सभी मनाते हैं ; लेकिन केवल ऐसे लोगों को जो हमारे लिए उपयोगी होते हैं। असली मोती का हार तो हम नये धागे में पिरो कर सजो लेते हैं; किंतु सामान्य मोती को धागा टूटते ही फेंक देते हैं।ये बात जीवन के सभी क्षेत्रों में लागू होती है। उपयोगी को सहेजो अनुपयोगी को बाहर करो। जोड़- तोड़ के इस चक्कर में जाने अनजाने गलतियाँ होने लगती है। गलतियों से सबक लेना जिसको आ गया या बिगड़ी बात को अपने पाले में पुनः कर लेने की कला जिसको आ गयी समझो वो बाजी जीत ही लेगा।
जीत- हार भले ही एक सिक्के के दो पहलू हों किन्तु विजेता का ताज धारण करने की इच्छा ही समस्त जगत का मूल मंत्र होता है। करते चलो, बढ़ते चलो बस रुकना नहीं चाहिए जब तक मंजिल आपके कदमों तक न आ जाए। इसी क्रम में ये ध्यान रखने की बात है कि-
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – फिटनेस जरूरी क्यों…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 211 ☆
आलेख – फिटनेस जरूरी क्यों…
कहा गया है कि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और चरित्र गया तो सब कुछ गया. यद्यपि यह उक्ति चरित्र के महत्व को प्रतिपादित करते हुये कही गई है किन्तु इसमें कही गई बात कि “स्वास्थ्य गया तो कुछ गया” रेखांकित करने योग्य है. हमारा शरीर ही वह माध्यम है जो जीवन के उद्देश्य निष्पादित करने का साधन है. स्वस्थ्य तन में ही स्वस्थ्य मन का निवास होता है. और निश्चिंत मन से ही हम जीवन में कुछ अच्छा कर सकते हैं.
कला और साहित्य मन की अभिव्यक्ति के परिणाम ही हैं. स्वास्थ्य और साहित्य का आपस में गहरा संबंध होता है. स्वस्थ साहित्य समाज को स्वस्थ रखने में अहम भूमिका अदा करता है. साहित्य में समाज का व्यापक हित सन्नहित होना वांछित है. और समाज में स्वास्थ्य चेतना जागृत बनी रहे इसके लिये निरंतर सद्साहित्य का सृजन, पठन पाठन, संगीत, नाटक, फिल्म, मूर्ति कला, पेंटिंग आदि कलाओ में हमें स्वास्थ्य विषयक कृतियां देखने सुनने को मिलती हैं. यही नहीं नवीनतम विज्ञान के अनुसार मनोरोगों के निदान में कला चिकित्सा का उपयोग बहुतायत से किया जा रहा है. व्यक्ति की कलात्मक अभिव्यक्ति के जरिये मनोचिकित्सक द्वारा विश्लेषण किये जाते हैं और उससे उसके मनोभाव समझे जाते हैं. बच्चों के विकास में कागज के विभिन्न आर्ट ओरोगामी, पेंटिग, मूर्ति कला, आदि का बहुत योगदान होता है.
स्वास्थ्य दर्पण, आरोग्य, आयुष, निरोगधाम, आदि अनेकानेक पत्रिकायें बुक स्टाल्स पर सहज ही मिल जाती हैं. फिल्में, टी वी और रेडियो ऐसे कला माध्यम है जिनकी बदौलत साहित्य और कला का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है.
जाने कितनी ही उल्लेखनीय हिन्दी फिल्में हैं जिनमें रोग विशेष को कथानक बनाया गया है. अपेक्षाकृत उपेक्षित अनेक बीमारियों के विषय में जनमानस की स्वास्थ्य चेतना जगाने में फिल्मों का योगदान अप्रतिम है.
फिटनेस उपकरणों, प्रोटीन, दवाओ, और नेचुरोपैथी, योग, जागिंग, जिम पर जनता करोड़ो रूपए प्रति वर्ष खर्च कर रही है, योग को वैश्विक मान्यता मिली है.
ये सब खान पान रहन सहन आखिर जन सामान्य में लोकप्रिय क्यों है? इसका कारण मात्र यही है की कहीं न कहीं हम सब फिटनेस का महत्व समझते हैं. भले ही आलस्य, समय की कमी या रुपए कमाने की व्यस्तता में हम फिटनेस प्रोग्राम को कल पर टालने की कोशिश करते हैं, क्योंकि शारीरिक मेहनत हमे सहज पसंद नही आती, उसकी जगह हम कोई रेडीमेड फार्मूला चाहते हैं जो हमे तन मन से फिट बनाए रखे. किंतु इस सत्य को स्वीकार कर लेने में ही भलाई है कि फिटनेस का कोई शॉर्ट कट नहीं होता, यह एक नियमित प्रक्रिया है जिसे दिनचर्या का हिस्सा बना लेने में ही भलाई है. स्वस्थ्य रहें, सबल बने, जीवन के हर मैदान में फिट रहें हिट रहें. निरोगी काया के प्रति जागरूख रहें, घर परिवार बच्चों अपने परिवेश में स्वच्छता, खान पान, लिविंग में फिटनेस का वातावरण सृजित बनाए रखें और चमत्कार देखें चिकत्सा में व्यय बचेगा, जीवन में सकारात्मक वैचारिक परिपक्वता के दृष्टिकोण से नौकरी, व्यवसाय, समाज में व्यवहारिक सफलता मिलेगी.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 159 ☆
☆ बाल सजल – मनमौजी हैं तोते राजा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक बाल गीत – “पानी चला सैर को”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 137 ☆
☆ बाल गीत – “पानी चला सैर को” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆