(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “अदब की महफ़िलें आबाद रहीं…”।)
ग़ज़ल # 75 – “अदब की महफ़िलें आबाद रहीं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “~ सार ~”. We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जुगाली”।)
अभी अभी # 38 ⇒ || जुगाली ||… श्री प्रदीप शर्मा
भोजन करने के बाद भी दिन भर चरते रहने को जुगाली करना कहते हैं। खाली पेट जुगाली नहीं होती। गाय, बैल और भैंस जैसे पालतू घास चरने वाले चौपाया जानवर पर्याप्त घास चरने के बाद दोपहर को सुस्ताते हुए जुगाली किया करते हैं। यह वह पाचन प्रक्रिया है, जिसमें पहले से चबाया हुआ चारा ही मुंह में रीसाइकल हुआ करता है, जिससे आनंद रस की निष्पत्ति होती है और जिसकी तुलना सिर्फ पंडित रविशंकर के सितार वादन और तबला वादक अल्ला रखा के तबला वादन की जुगलबंदी से ही की जा सकती है।
आदमी बंदर की औलाद तो है लेकिन वह नकल में अकल का इस्तेमाल नहीं करता। वह पहले तो पेट भर स्वादिष्ट भोजन कर लेता है, फिर उसके पश्चात् भी दिन भर कुछ न कुछ तो चरा ही करता है।
मानो उसका पेट, पेट नहीं, कोई चरागाह हो। वैसे समझदार लोग स्वादिष्ट और संतुष्ट भोजन के पश्चात् भी एक मीठे पत्ते पान का सेवन करना नहीं भूलते। यह वाकई उन्हें जुगलबंदी का अहसास करवाती है। भोजन के पश्चात् तांबूल सेवन जुगाली नहीं, जुगलबंदी ही तो है। ।
लेकिन ऐसे लोगों का क्या किया जाए जो खाली पेट ही सुबह से शाम तक पान, गुटखा और तंबाकू की जुगाली किया करते हैं। रस, रस तो सब आत्मसात कर लिया करते हैं और चारा चारा बाहर, यत्र यत्र सर्वत्र, थूक दिया करते हैं। बड़े भोले भंडारी होते हैं ये जुगाली पुरुष, अनजाने ही गरल को अमृत समझ पान किया करते हैं। कैसे नादान हैं, कैंसर को हवा दिया करते हैं।
जो इंसान लोहे के चने नहीं चबा सकता, वह एक चौपाए की नकल कर खाली पेट दिन रात च्यूइंग गम चबाया करता है। क्या करें ऐसे इंसानों का, जो दिन भर या तो जुगाली किया करते हैं, या बस किसी को बेमतलब गाली दिया करते हैं। जो व्यर्थ का कचरा, ना तो चबाया जा सकता है, और ना ही पचाया जा सकता है, वही विष तो इंसान के मुख से गाली बनकर बाहर आया करता है। जुगाली और गाली में शायद बस इतना ही अंतर है। ।
शायद इसीलिए मनुष्य, मनुष्य है, और पशु पशु। पशु केवल एक जानवर है, जब कि इंसान अक्लमंद, समझदार, बुद्धिमान! पशु संघर्षरत रहते हुए, प्रकृति के नियमों का पालन करता है जब कि इंसान अपने नियम खुद बनाता है, पशुओं को गुलाम बनाता है। वह तो इतना पशुवत है, कि इंसानों को भी गुलाम बनाने से नहीं चूकता।
एक चौपाये और हमारे पाचन तंत्र में जमीन आसमान का अंतर है। पशुओं के लिए कोई गाइडलाइन नहीं, कोई कोड ऑफ कंडक्ट नहीं, फिर भी वे अपने दायरे में रहते हैं। जो प्राणी शाकाहारी है, वह शाकाहारी है, और जो मासाहारी, वो मांसाहारी। जंगल में शेर है तो मंगल है। शहर में इंसान है तो दंगल है, हिंसा है डकैती है, अनाचार, व्यभिचार है।
आज संसार को हिंसक पशुओं से खतरा नहीं, इस इंसान से ही खतरा है। जंगल में सिर्फ लड़ाई होती है, जब कि इंसानों के बीच, विश्व युद्ध। ।
जितना पचाएं, उतना ही खाएं। एक पशु जो खाता है, उसी को जुगाली के जरिए पचाता है, जो इंसान भरपेट भोजन के बाद भी कुछ चरता रहता है, वह केवल अपने साथ अत्याचार करता है। यह कोई स्वस्थ जुगलबंदी नहीं, अक्लमंदी नहीं, फिर क्या है, जुगाली करें, खुद जान जाएं..!!
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित ग़ज़ल – “काम होना चाहिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #131 ☆ ग़ज़ल – “काम होना चाहिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆