हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #182 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 182 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… ☆

लू

लू -लपटों की आग से, बढ़े ग्रीष्म का जोर।

गरम हवाएँ चल रही, तपन बढ़ी हर ओर।।

लपट

लपट से सब बचे रहे,  साथ रखिए प्याज।

जेठ महीना तप रहा, करना है सब काज।।

ग्रीष्म

पड़े ग्रीष्म- अवकाश जब, खूब जमेगा रंग।

तरह – तरह के खेल में,  संगी साथी संग।

प्रचंड

गर्मी पड़े प्रचंड जब , घर में रहते बंद।

पशु-पक्षी भी हो रहे, हत-आहत निस्पंद।।

अग्नि

अग्नि विरह की जल रही, जाने कैसा रोग।

पिया मिलन के पर्व का, कब होगा संयोग।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 44 ⇒ खुलना और खिलना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खुलना और खिलना”।)  

? अभी अभी # 44 ⇒ खुलना और खिलना? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

खुलना और बंद होना, दिन और रात की तरह होना है। उजाला खुलना है, अंधेरा बंद होना है। हमारी पलकें देखिए, इन्हें चैन ही नहीं, कभी खुलती हैं, कभी बंद होती हैं, खुलना बंद होना ही इनका जागना है। जब ये सोती हैं तो फिर खुलना भूल जाती हैं।

एक हमारी सांस है, वह खुलती बंद नहीं होती, बस चलती ही रहती है, बिलकुल सीने की धड़कन की तरह, उसे तो माधुरी दीक्षित की तरह २४x७ बस धक धक ही करना है। नो कमर्शियल ब्रेक, नो कैजुअल लीव, नो प्रिविलेज लीव। सिक लीव की बात अलग है। ।

गर्मी के दिनों में, रात को हम पंखे, कूलर और ए सी ऑन करके सोते हैं, लेकिन खिड़की दरवाजे, टीवी, मोबाइल, लाइट, सब बंद करके सोते हैं।

हमारी आंखें जब तक बंद नहीं हो जाती, हम जागते रहते हैं। एक बार हमारी आंखें बंद हुई, सारा जगत सो जाता है। जीवन विराम ले रहा है।

सुबह जब आंख खुलती है, तो एक नया दिन नजर आता है, सब कुछ खुला खुला। सबसे पहले उबासी आई, मुंह खुला, तबीयत से खुला, मानो नया दिन अंदर प्रवेश कर गया। खिड़की खोली, आसमान भी खुला नजर आया। क्या रात को किसी ने ढंक दिया था। शायद अंधेरे ने ढंक दिया हो, चलो अच्छा हुआ, आसमान ने भी चैन की नींद ले ली। हमेशा उल्टा लटका पड़ा रहता है, एक उल्लू की तरह। ।

अरे यह क्या, अब तो सब कुछ खुलता ही नजर आ रहा है। चौकीदार दरवाजा खोल रहा है, पत्नी सुबह सुबह दूध की थैली खोल रही है। फ्रिज खोलकर ठंडा पानी निकाल रही है। बॉटल का ढक्कन खोल ठंडा पानी लाकर पेश कर रही है, सुबह प्यास जो लगती है, मुंह सूखने लगता है। जब गला गर्म गर्म चाय से तर होगा तब ढंग से आंखें खुलेंगी, अलसाया हुआ शरीर खुलेगा।

खुलेगा, अभी तो बहुत कुछ खुलेगा। बच्चों का स्कूल खुलेगा, हमारा दफ्तर भी खुलेगा, सुबह मॉर्निंग वॉक के लिए कॉलोनी का बगीचा भी खुलेगा। कितनी जल्दी होती है सुबह सबको खुलने की, सुबह काम पर लगने की।

लो, सर्विस रोड पर ठेले वाले की पोहे की दुकान भी खुल गई, चाय, जलेबी और पोहा, तैयार हो रहा है। घूमने के भी पैसे वसूल।

पापा घूमने जाएंगे, तो जलेबी पोहे बंधवा भी लाएंगे। एक पंथ दो काज। ।

उधर विविध भारती पर गीत चल रहा है, महक रही फुलवारी ! अचानक बगीचे का ख्याल आया, गमलों में कितने फूल खिल गए हैं।

हमारी छोटी सी बगिया के भाग खुल गए हैं। यह हरियाली और खिले फूल बस यही तो हमारी फुलवारी है। फूल समान ही तो हैं हमारे बच्चे, खिलते खिलखिलाते, मन को लुभाते।

उधर सूर्य नारायण भी खुलकर मैदान में डटे हैं, सुबह तो अंधेरा हटाया, आसमान साफ किया, अपनी अमृत किरणों से धरा को तृप्त किया, भक्तों का अर्घ्य भी ग्रहण किया, लेकिन बस, अब तमतमाना शुरू!

अब ये गिरगिटी तेवर इनके दिन भर ऐसे ही रहेंगे। खुद भी तपते रहेंगे और हमें भी तपाते रहेंगे। नवतपा तक। ।

सभी तो खुला है आज। बैंकें भी खुली, दफ्तर भी खुले, स्कूल कॉलेज भी खुले, शेयर मार्केट और वायदा बाजार। सब्जी मंडी, फल फ्रूट मंडी, होटल, मॉल और जिम और मैरिज रिजॉर्ट।

कितना अच्छा लगता है सब कुछ खुला खुला, सबके चेहरे खिले खिले, बस यही हमारे आज की कमाई हो, उपलब्धि हो, जब शाम ढले, तो मन में एक शांति हो, तसल्ली हो, संतोष हो। ।

दिन भर की आपाधापी के बाद शाम के फुर्सत के क्षणों में जब आंखें बंद करके सोचते हैं, आज का दिन अपना कितना अच्छा गुजरा। बस इतना सा सुख ही काफी है, मन को सदा के लिए खिला खिला रखने के लिए। अब जब आज रात आंख बंद होंगी तो कल एक नई तकदीर खुलेगी। फिर एक नई सुबह होगी, और अच्छी, और बेहतर। एक और अच्छा दिन। आमीन !!

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #168 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 167 ☆

☆ “संतोष के दोहे …☆ श्री संतोष नेमा ☆

सिरफिरों ने कर दिया, चाहत को बदनाम

प्रेम दिखावा,  क्रूर मन,  करते कत्लेआम

संस्कार और संस्कृति, कभी न छोड़ें आप

अपनी यह पहचान है, जिसकी मिटे न छाप

बहूरूपियों से बचें, इनका दीन न धर्म

ये निकृष्टजन स्वार्थवश, करते खोटे कर्म

राह चलें हम धर्म की, करें नेक सब काज

रखें आचरण संयमित, मेरे ये अल्फ़ाज़

धर्म सनातन कह रहा, ईश्वर हैं माँ-बाप

मान रखें उनका सदा, बन कृतज्ञ सुत आप

बेटा हों या बेटियाँ, रखो धर्म की लाज

छोड़ें मत माँ-बाप को, कर मरज़ी के काज

कभी भरोसा मत करें, करके आँखे बंद

नकली हैं बहु चेहरे, जिनके नव छल-छंद

माना जीवन आपका,  करें फैसले आप

ध्यान रखें पर कभी भी, दुखी न हों माँ-बाप

मात-पिता के प्यार से, बढ़कर  कोई प्यार

हुआ न होगा कभी भी,  गाँठ बाँध लो यार

युग की नई विडंबना,  आडंबर का जोर

बिन सोचे समझे चलें, जिसका ओर न छोर

किया प्रेम के नाम पर, मानवता का खून

जिसने तन टुकड़े किये, उनको डालो भून

जब भी बहकीं बेटियाँ, हुआ गलत अंजाम

छिनता है ‘संतोष’ तब, उल्टे होते काम

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “माता का देवत्व” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

“माता का देवत्व☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

पीड़ा, ग़म में भी रखे, अधरों पर मुस्कान ।

इसीलिये तो मातु है, आन, बान, नित शान।।

नारी से ही जग चले, इसीलिये वह ख़ास।

माता पर भगवान भी, करता है विश्वास ।।

माता से ही धर्म हैं, माता से अध्यात्म ।

माता से ही देव हैं, माता से परमात्म ।।

माता से उपवन सजे, माता है सिंगार ।

माता गुण की खान है, माता है उपकार ।।

माती शोभा विश्व की, माता हैआलोक ।

माता से ही हर्ष है, बिन नारी है शोक।।

माता फर्ज़ों से सजी, माता सचमुच वीर ।

साहस, कर्मठता लिये, माता हरदम धीर ।।

माता की हो वंदना, निशिदिन स्तुति गान।

माता के सम्मान से, ही है नित उत्थान ।।

माँ है मीठी भावना, माँ पावन अहसास। 

माँ से ही विश्वास है, माँ से ही है आस।। 

वसुधा-सी करुणामयी, माँ दृढ़ ज्यों आकाश। 

माँ शुभ का करती सृजन, करे अमंगल नाश।। 

माँ बिन रोता आज है, होकर ‘शरद’ अनाथ। 

सिर पर से तो उठ गया, आशीषों का हाथ।। 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #175 ☆ माय…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 175 – विजय साहित्य ?

☆ माय…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

लाख संकटे भोवती

तरी माय झुंजतसे

लेकराच्या सुखासाठी

जखमांनी गुंजतसे. ..!

 

अशी धाडसी करारी

माय लेकरा घडवी

नियतीच्या आघातात

भल्या भल्यांना रडवी …!

 

दिस आजचा भागला

चिंता उद्याची लागली

लेकराला घेऊनीया

माय रानात धावली. ..!

 

हाल अपेष्टा सोसून

माय पुढे चाललेली.

तिच्या घरची लक्ष्मी

कडेवरी निजलेली. ..!

 

संकटाशी झुंजायाचं

बाळकडू देते माय

ऊन वारा पावसात

माय सोबतीला र्‍हाय. ..!

 

दारीद्र्याच भोग असे

कधी पांग फिटणार

लेकराच्या सुखासाठी

माय स्वप्ने झेलणार…!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साठी… ☆ सुश्री प्रणिता प्रशांत खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता प्रशांत खंडकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ साठी… ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

(चाल… रूणझुण त्या पाखरा)

  आली आली आता साठी,

  नको कपाळाला आठी,

  खोलू कवाडे मनाची,

  जरा बदलूया दृष्टी.

  आली आली आता साठी..||१||

 

  लोकं काय म्हणतील?

  नकोच हा बागुलबुवा,

  फालतू बंधनांना आता,

   देऊन टाकूया ना रजा. 

   आली आली आता साठी.. ||२||

 

   अनुभव जालीम दवा,

   शहाणपणा शिकविला,

   आपल्यांना ओळखताना,

   आता होणार ना चुका.

  आली आली आता साठी..||३||

 

   काय हवे आहे मला,

   शोध मीच घ्यावयाचा,

   आनंदाने जगण्याचा,

   मनी जपायचा वसा.

   आली आली आता साठी..||४||

 

   आयुष्याच्या प्रवासाचा,

   हा तर स्वल्पविराम,

   उमेदीने आता नव्या,

   लिहू पुढचा अध्याय.

   आली आली आता साठी..||५||

© सुश्री प्रणिता खंडकर

संपर्क – सध्या वास्तव्य… डोंबिवली, जि. ठाणे.

ईमेल [email protected] केवळ वाॅटसप संपर्क.. 98334 79845.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ झुळूक… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? विविधा ?

☆ झुळूक… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

‘वाटते सानुली मंद झुळुक मी व्हावे,घेईल ओढ मन तिकडे स्वैर झुकावे’माझ्या बाल्कनीतल्या झोक्यावर संध्याकाळी बसलं की मन असे स्वैर पणे फिरत असते! सध्या बाहेर फिरणे कमी झाले आहे,पण या बाल्कनीतल्या झोक्यावर बसून मन मात्र भरपूर फिरून येते! दिवसभराच्या उन्हाच्या काहिलीनंतर येणारी संध्याकाळची वार्याची झुळुक तन आणि मन दोन्ही शांतवून टाकते!थंडी किंवा पावसाळ्यात या झुळुकेचे तितके महत्त्व नाही,

पण उन्हाळ्यात ही झुळुक खूपच छान वाटते. दु:खानंतर येणारं सुख जसं जास्त आनंद देते तसेच आहे हे!सतत सुखाच्या झुल्यावर झुलणार्याला ती झुळूक कशी आहे हे फारसे जाणवणार नाही, पण खूप काही कष्ट सोसल्या नंतर येणारे सुखाचे क्षण मात्र मनाला आनंद देतात आणि गार वार्याच्या झुळुकीचा आनंद देतात!

हीच झुळुक कधी मायेची असते. एखाद्याला घरात जे प्रेम मिळत नाही, पण दुसऱ्या कुणाकडून तरी,अगदी जवळच्या नात्यातून, शेजारातून किंवा मित्र मैत्रिणींकडून मिळते.

तो प्रेमाचा सुखद ओलावा त्याच्या मनाला मिळालेली आनंदाची झुळुक असते.

कधीं कधीं साध्या साध्या गोष्टीतून ही आपण आनंद घेतो.

गर्दीने भरलेल्या बसमध्ये कशीबशी जागा मिळून बस जेव्हा सुटते तेव्हा खिडकीतून येणारी वार्याची झुळुक आपल्याला ‘हुश्श् ‘ करायला लावते! कधीं अशी झुळुक एखाद्या बातमी तून मिळते! अपेक्षा नसताना एखादी चांगली गोष्ट घडली तर ती सुखद झुळूक च असते. माणसाचे आयुष्य सतत बदलते असते. कधी एका पाठोपाठ एक इतकी संकटे येतात की या सर्वाला कसे तोंड द्यावे कळत नाही, पण अशावेळी अचानक पणे एखादी चांगली गोष्ट घडते की त्यामुळे आयुष्याला कलाटणी मिळते.

माझ्या परिचित एका मैत्रिणीची गोष्ट. तिच्या नवर्या चा अॅक्सिडेंट झाला. जीव बचावला, पण हाॅस्पिटलमध्ये दोन महिने पडून रहावे लागले. दोन लहान मुलं होती तिला, नवर्याचा व्यवसाय बंद पडलेला,रहायला घर होते, पण बाकी उत्पन्नाचे साधन नव्हते. पण अचानकपणे तिने अर्ज केलेल्या नोकरी चा काॅल आला,ट्रेनिंगसाठी एक महिना जावं लागणार होतं,मुलांना कुणाजवळ तरी सोपवून ती ट्रेनिंग पूर्ण करून आली. नोकरी कायम स्वरुपी झाली. आणि आयुष्यात सुखाची झुळूक आली.

वादळवार्यात झाडं, घरं, माणसं सारीच कोलमडतात. वादळ अंगावर घेण्याची कुवत प्रत्येकात

असतेच असे नाही, पण झुळुक ही सौम्य असते. ती मनाला शांति देते.

लहानपणी अशी झुळुक परीक्षेनंतर मिळायची. भरपूर जागरणे, कष्ट करून अभ्यास करायचा,आणि मग पेपर्स चांगले गेले की मिळणारा आनंद असाच झुळुकीसारखा वाटायचा. रिझल्ट ऐकला की मन अगदी हलकंफुलकं पीस व्हायचं आणि वार्यावर तरंगायला लागायचं! अशावेळी कृतकृत्यतेची झुळुक अनुभवायला मिळायची!

वेगवेगळ्या काळात,वेगवेगळ्या रूपात ही ‘झुळुक’ आपल्या ला साथ देते. कधी कधी

आपण संकटाच्या कल्पनेनेही टेंशन घेतो. प्रत्यक्ष संकट रहातं दूर, पण आपलं मन मात्र जड झालेले असते. अचानक कुणीतरी सहाय्य करतं,संकट जाते आणि एका आगळ्या झुळुकेचा अनुभव मनाला येतो.

मध्यंतरी कोरोनाच्या काळात आपण कठीण काळातून जात होतो. मन साशंक झाले होते., अस्थिर होते.

जीविताची काळजी तर होतीच, पण भविष्याची होती. अचानकपणे आलेल्या कोरोनाच्या संकटाला तोंड देताना लोक अगदी हवालदिल झाले होते. प्रकृती आणि नियती दोन्ही आपल्या हातात नाहीत! रोजच्या बातम्या आपल्या ला आशा – निराशेवर झुलवत होत्या. लवकरच हे ‘कोरोना’ चे संकट दूर होईल असं ऐकलं की समाधानाची झुळुक येत होती तर पुढील दहा दिवस धोकादायक आहेत ऐकलं की मनात ्वादळ उठतं होतं!आता हे रोगाचं उच्चाटन हळूहळू होत जाईल ही आशा आपल्या मनी होती. निसर्गाने हिरावून घेतलेलं आपलं स्वातंत्र्य परत मिळवून आपण जर जाणीवपूर्वक वापरले तरंच आपल्याला ही सुखाची झुळूक मिळणार! याची जाणीव माणसाला होत होती.

संध्याकाळी येणारी वाऱ्याची झुळूक ही अशीच सौम्य,आनंद देणारी आहे. तिच्यामध्ये सोसाट्याचा वारा आणि त्यांचे थैमान नसते. ती हळूहळू अंगात भिनते. तिचा आस्वाद घेता आला पाहिजे.

कोरोनाचे वादळ घोंघावत होतं ते हळूहळू शांत होत गेले. लोकांनी संयमाने आणि धीराने तोंड दिले.

अशावेळी कुठून तरी आशादायी स्वर येतात, ‘दिस येतील, दिस जातील. . . गाण्याचे! हे संकटाचे वादळ जाऊन झुळुक येईल आशेची, आनंदाची!

वादळ जेव्हा परमोच्च क्षमतेवर असतं तेव्हा कधी तरी ते लयाला जाणारच असते!

ते वादळ जाऊन शांत झुळूक येईल या आशेवर प्रत्येक भारतीय आलेल्या वादळाला धीराने,संयमाने तोंड देऊन त्या शीतल झुळुकीचे सर्वांत करण्यास तयार होता! सुदैवाने त्या कोरोनाच्या वादळाला आपण धैर्याने तोंड दिले आणि ती जीवनातील शीतल झुळूक अनुभवता आली हे आपले भाग्यच!

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ तीन अनुवादित लघुकथा ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

? जीवनरंग ?

☆ तीन अनुवादित लघुकथा ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

(1) निगेटिव रिपोर्टची कमाल – अज्ञात (2) कर्जमुक्त – श्री अशोक दर्द (3) कोरोनाची भाकरी – श्री घनश्याम अग्रवाल 

☆ निगेटिव रिपोर्टची कमाल – अज्ञात ☆ भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ 

दहा दिवसांच्या प्रयत्नांनंतर एक माणूस आपला करोंनाचा निगेटिव्ह रिपोर्ट हातात घेऊन हॉस्पिटलच्या रिसेप्शनजावळ उभा होता.

आसपासचे काही लोक टाळ्या वाजावत होते. त्याचं अभनंदन करत होते. युद्ध जिंकून आला होता ना तो. त्याच्या चेहर्‍यावर मात्र बेचैनीची गडद छाया होती. गाडीतून घरी येताना त्याला रस्ताभर ‘आयसोलेशन’ च्या त्या काळातली असह्य मन:स्थितीची आठवण येत होती.

कमीतकमी सुविधा असलेली ती छोटीशी खोली, काहीशी अंधारी, मनोरंजनाचं कुठलंच साधन नाही. कुणी बोलत नव्हतं की जवळही येत नव्हतं. जेवण देखील प्लेटमध्ये भरून सरकवून दिलं जायचं.

ते दहा दिवस त्याने कसे घालवले, त्याचं तोच जाणे. 

घरी पोचताच त्याला दिसलं, त्याची पत्नी आणि मुले दारात त्याच्या स्वागतासाठी उभी आहेत. पण त्यांच्याकडे दुर्लक्ष करत तो घराच्या एका उपेक्षित कोपर्‍याकडे वळला. तिथल्या खोलीत त्याची आई गेली पाच वर्षे पडून होती. आईचे पाय धरून तो खूप रडला आणि आईला धरून घेऊन बाहेर आला.

वडलांच्या मृत्यूनंतर गेली पाच वर्षे ती आयासोलेशन ( एकांतवास ) भोगत होती. तो आईला म्हणाला, ‘ आई, आजपासून आपण सगळे एकत्र, एका जागी राहू.’

आईला आश्चर्य वाटलं. पत्नीसमोर असं सांगण्याची हिंमत आपल्या मुलाने कशी केली? इतकं मोठं हृदयपरिवर्तन एकाएकी कसं झालं? मुलाने आपल्या एकांतवासाची सारी परिस्थिती आईला सांगितली आणि म्हणाला, आता मला जाणीव झाली, एकांतवास किती दु:खदायी असतो.

मुलाचा निगेटिव्ह रिपोर्ट आईच्या जीवनाचा पॉझिटिव्ह रिपोर्ट बनला होता. 

मूळ कथा – निगेटिव रिपोर्ट की कमाल –  मूळ लेखक – अनाम लेखक

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

☆ कर्जमुक्त – श्री अशोक दर्द  ☆ भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ 

एक काळ असा होता, शेठ करोडीमल आपल्या मोठ्या व्यवसायामुळे आपला मुलगा अनूप याच्यासाठी वेळ देऊ शकत नव्हते. मुलाला चांगलं शिक्षण मिळावं आणि आपल्या व्यवसायातही व्यवधान निर्माण होऊ नये, म्हणून त्यांनी आपल्या मुलाला दुरच्या शहरातील बोर्डिंग स्कूलमध्ये ठेवलं. वर्षभराने सुट्टी लागली की ते नोकराला पाठवून मुलाला घरी आणत. सुट्टी संपली की त्याला पुन्हा त्याच शाळेत पाठवलं जायचं.

काळ बदलला. आता अनूप शिकून मोठा व्यावसायिक बनला. शेठ करोडीमल म्हातारे झाले. वडलांचं अनूपवर मोठं कर्ज होतं. त्याने चांगल्या शाळेत घालून त्याला शिकवलं होतं.

वडलांचा कारभार आता मुलाने आपल्या हातात घेतला. त्यात खूप वाढ केली. कारभारात अतिशय व्यस्तता असल्यामुळे अनूपला आता आपल्या म्हातार्‍या बापाकडे लक्ष द्यायला फुरसत नसे. त्यामुळे त्याने आता वडलांना शहरातील चांगल्या वृद्धाश्रमात ठेवलं. वेळ झाला की त्यांना घरी नेण्याचं आश्वासन दिलं आणि तो पुन्हा आपल्या व्यवसायात रमून गेला. वृद्धाश्रमातला मोठा खर्च करून, त्याला आपण कर्जमुक्त झालो, असं वाटू लागलं होतं.

मूळ कथा – कर्जमुक्त – मूळ लेखक – श्री अशोक दर्द  मो. – मो. 9418248262

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☆ कोरोनाची भाकरी – श्री घनश्याम अग्रवाल  ☆ भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ 

करोंनाचा रिपोर्ट पॉझिटिव्ह आला. घरात शांतता पसरली. म्हातार्‍याला आयसोलेशन्समध्ये ठेवलं गेलं. सून दोन वेळचा चहा आणी जेवणाची थाळी घाबरत घाबरत खोलीच्या उंबरठ्यावर ठेवायची. मग हात सॅनिटायझराने स्वच्छ धुवायची.

म्हातार्‍याने आज तीनपैकी दोनच भाकरी खाल्ल्या. उरलेल्या तिसर्‍या भाकरीचं काय करणार? वाटलं, बाहेर जाऊन एखाद्या भिकार्‍याला किंवा गायीला घालावी. पण खोलीपुढे १४ दिवासांची लक्ष्मणरेषा ओढलेली होती. अखेर त्याने भकारी उंबर्‍यावर ठेवत सुनेला म्हंटलं, ‘भाकरी फुकट जायला नको. बाहेर कुणाला तरी देऊन टाक.’

‘हा म्हातारा म्हणजे नं…. कुणाला देणार त्याचा हात लागलेली भाकरी?….’ अखेर तिने चिमट्यात धरून ती भाकरी उचलली आणि पेपरमध्ये गुंडाळून बाहेरच्या गेटपाशी गेली कचराकुंडीत भाकरी टाकायला. पण कचराकुंडी दूर होती. अचानक तिला म्हातारा भिकारी हात पसरत येत असलेला दिसला. द्यावी त्याला? पण तोही माणूसच ना! तिने त्याला जवळ बोलावले. कागदात गुंडाळलेली भाकरी त्याला देत ती म्हणाली, ‘ ही कचराकुंडीत टाक. करोना पॉझिटिव्हवाल्याचा हात याला लागलाय याला आणि हे घे पाच रुपये तुला.’

करोंनाची इतकी भीती  आणि चर्चा होती की भिकारीदेखील त्याबद्दल काही बाही  ऐकत होते. दोन दिवसांचा भुकेजलेला असूनही त्याने विचार केला, करोंनावाल्याचा हात लागलेली ही भाकरी… नाही… नाही…मी ही खाणार नाही. ही कचराकुंडीत टाकून पाच रूपायांची भाकरी विकत घेऊन खाईन मी. भाकरी विकत घेण्याच्या विचाराने त्याच्या चालीत एकदम रुबाब आला. पहिल्यांदाच तो भाकरी विकत घेऊन खाणार होता.

कचरापेटीपर्यंत येता येता त्याच्या मनात विचार आला, त्याला भाकरी विकत कुठे मिळणार? सगळी हॉटेल्स, खानावळी बंद आहेत. त्याचे हात भाकरी टाकता टाकता थबकले.

मग त्याने भाकरी नीट निरखून बघितली. त्याला कुठे काही व्हायरस दिसला नाही. मग त्याने ती दोनदा झटकली. असला व्हायरस तर पडून जाईल. मग त्याने भाकरीकडे पाहिले. करोना पॉझिटिव्ह आणि निगेटिव्ह दोघेही भाकरी खातात. भाकरी पॉझिटिव्ह – निगेटिव्ह कशी असेल? भाकरी भाकरीच असते. शिवाय कुणा भिकार्‍याला कोरोना झालेला ऐकला नाही. कुणा भिकार्‍याला क्वारंटाईन झालेलं पाहीलं नाही. भुकेने सगळे सोयिस्कर तर्क केले. त्याने पुना भाकरी झटकली नि मनाशी म्हणाला, ‘ समाजा एखादा व्हायरस पोटात गेलाच, तर काय होईल? या रोटीमुळे इतकी इम्युनिटी मिळेलच, की ती त्या व्हायरसला मारून टाकेल. आता तो इतका प्रसन्न होऊन भाकरी खाऊ लागला की जसा काही तो कोरडी भाकरी खात नाही आहे, तर भाजीबरोबर भाकरी खात आहे.

मूळ कथा – कोरोना की रोटी  –  मूळ लेखक – श्री घनश्याम अग्रवाल मो. 94228 60199

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

अनुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170 ईमेल  – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी फजिती !… लेखक – श्री सुहास  टिल्लू ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? मनमंजुषेतून ?

☆ माझी फजिती !… लेखक – श्री सुहास  टिल्लू ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

माझी फजिती !

सन 1969 मधे 1 मे रोजी अस्मादिक विवाहबद्ध झाले. जागतिक कामगार दिनाचा मुहूर्त साधून, जन्मभरासाठी स्वतःला वेठीला धरून ठेवले.मी एक वेठबिगार झालो. एक आझाद पँछी पिंजडेमें बंद हो गया !

आमचे लग्न म्हणजे, पूरब पश्चिम असा प्रकार होते, कारण मी राजस्थानात कोट्याला नोकरी करत होतो. तर ही छत्तीसगड मधील रायपूरची !

‘नेमेची येतो मग पावसाळा ‘… प्रमाणेच नेमेची येणारा चातुर्मास फार लवकर आला. हिला माहेरी घेऊन जाण्यासाठी सासू- सासरे आले होते.

‘अभी अभी तो आयीं हो

अभी अभी जाना है ।’

असे सगळे होते.

मग विरह म्हणजे काय असतो, ते कळले. कारण बाईसाहेब गणपतीपर्यंत नसणार होत्या.  घरच्या गणपती करता म्हणून ही मुंबईला येणार होती. व मीसुद्धा मुंबईला जाणार होतो. तोपर्यंत हा विरह सहन करावा लागणार होता…. ज्यावर्षी नील आर्मस्ट्राँगने चंद्रावर पहिले पाऊल ठेवले, त्याचवर्षी एक व्याकूळ चकोर, चंद्रमेच्या अमृतकणांकरता प्यासा झाला होता !

थोडेसे विषयांतर ! विरहव्यथेचे व लेखणीचे काय साटेलोटे आहे, देवजाणे ! लेखणी हाती घेतली की ती लगेच झरझरा कागदांवर शब्दांचा पाऊस पाडते.

त्या काळात पत्र लिहिणे हा संपर्कात रहाण्याचा एकमेव पर्याय होता. विरहव्यथा इतकी जबरदस्त होती की, बायकोला पत्र लिहायला सुरुवात केली की दहाबारा पाने कधी लिहून संपत ते कळत नसे. एका मोठ्या लिफाफ्यात ते पत्र घालावे लागत असे व वजन जास्त झाल्याने जास्तीची टपाल तिकीटे लावावी लागत. ते पत्र रायपूरला जेव्हा डिलिव्हर होई, तेव्हा ते उघडून पुन्हा बंद केले आहे हे लक्षात येत असे. त्याबाबत फिर्याद केली तेव्हा पोस्ट ऑफिसकडून एक विलक्षण कारण सांगण्यात आले…’ राजस्थानातून अफूची तस्करी करण्यासाठी असे जाडजूड लिफाफे वापरले जातात म्हणून आम्ही ते उघडून पहातो.’   त्या भागात मराठी माणसांची संख्या बरीच जास्त आहे. कुणी मराठी कर्मचारी जर आतला मजकूरही वाचत असेल तर त्याला चंद्रकांत काकोडकरांचे लिखाण वाचण्याचा आनंद मिळाला असेल.

माझे एक चुलत सासरे पोस्टातच नोकरीला होते. त्यांनी ह्याला पुष्टी दिली होती. हे काका मुंबईतच रहात होते. व लग्न झाल्यानंतर त्यांच्याकडे जाण्याचा योग आला नसल्याने, त्यांनी अगदी आग्रहपूर्वक जावयाला व पुतणीला भोजनाचे निमंत्रण दिले होते. चुलत सासूबाई आमच्या चौल अलिबागकडल्या होत्या. त्यामुळे त्यांना जावयाचे जरा जास्त कौतुक होते. त्यांनी जेवणाचा बेत खास ‘अष्टाघरी ‘ केला होता…. जावयास जेवणात ब-याच खोड्या आहेत हे माहीत नसणे स्वाभाविक होते.

भरपूर ओला नारळ वापरून सगळे पदार्थ केले होते. पानगी, खांडवी, व डाळिब्यांची उसळ असा मेनू होता. ह्या डाळिंब्यांना बिरडे असेही म्हणतात. मी आजवरच्या आयुष्यात डाळिंब्या किंवा वाल पानावर घेतले नव्हते. चाखून पहाण्याचा तर प्रश्नच नव्हता ! तर सासूबाईंना शंभर टक्के खात्री होती की, जावयाला त्या डाळिंब्या नक्कीच आवडत असणार !!  खरेतर डाळिंब्या खूपच चविष्ट झाल्या होत्या. किंचित गोडसर, गुळचट व भरपूर ओला नारळ घातला होता. भिडस्तपणामुळे आज मला त्या खाणे भाग होते. ‘ पानावर वाढलेले सगळे संपवलेच पाहिजेत ‘ ही घरची शिस्त असल्याने, मी पहिल्या घासातच वाढलेल्या डाळिंब्या खाऊन टाकल्या व इतर आवडीच्या पदार्थांचा समाचार घेऊ लागलो. आणि तिथेच ब्रह्म घोटाळा झाला होता….. 

…. सासूबाई माझ्या पानावर लक्ष ठेवून होत्या. त्या डाळिंब्यांचा वाडगा घेऊन पुढे सरसावल्या व ” मला खात्री होती की डाळिंब्या तुम्हाला खूप आवडत  असतील,” असे म्हणत त्यांनी संपूर्ण वाडगा माझ्या पानात रिकामा केला. … ‘ पानात काहीही टाकायचे नाही. शेवटी पान चाटून स्वच्छ करायचे ‘ अशा शिस्तीचे पालन करणे आवश्यक होते. काय करणार ! आलिया भोगासी सादर होण्यावाचून गत्यंतरच नव्हते.! आयुष्यात मी डाळिंब्या खायला सुरवात अशा जम्बो क्वांटिटीने केली होती.

मंडळी, नंतरच्या आयुष्यात मात्र जे पदार्थ ह्या ‘ आझाद पंछीने ‘ चाखलेही नव्हते ते, पिंजडेके पंछीला न कटकट करता खाण्याची सवय लावली गेली, हे वेगळे सांगायला नकोच !

ह्या आझाद पंछीला जिने  पिंज-यात बंद केले, ती काय म्हणते पहा !

(तिचे शिक्षण हिंदीत झाल्याने तिची भाषा अशी झाली आहे)…. 

“ शादीके लिये श्रमिक दिन फायनल केला

मैने एक लडका हेरून ठेवला

उडता पंछी पिंजडेमे बंद केला

आयुष्यभरच्या आरामाचा मुहूर्त साधला “ …. 

– इति मंगल टिल्लू

लेखक : श्री सुहास टिल्लू

संग्राहक : सुहास रघुनाथ पंडित

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २४ : ऋचा : ११ ते १५ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २४ : ऋचा : ११ ते १५ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २४ (अनेक देवतासूक्त)

ऋषी – शुनःशेप आजीगर्ति : ऋचा ११ – १५ : देवता वरुण 

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील चोविसाव्या  सूक्तात शुनःशेप आजीगर्ती  या ऋषींनी अनेक देवतांना आवाहन केलेले  असल्याने हे अनेक देवता सूक्त म्हणून ज्ञात आहे. यातील पहिली ऋचा प्रजापतीला, दुसरी ऋचा अग्नीला, तीन ते पाच या ऋचा सवितृ देवतेला आणि सहा ते पंधरा या ऋचा वरुण देवतेला  आवाहन करतात. 

आज मी आपल्यासाठी वरुण देवतेला उद्देशून रचलेल्या अकरा ते पंधरा  या ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे. 

मराठी भावानुवाद ::

तत्त्वा॑ यामि॒ ब्रह्म॑णा॒ वन्द॑मान॒स्तदा शा॑स्ते॒ यज॑मानो ह॒विर्भिः॑ ।

अहे॑ळमानो वरुणे॒ह बो॒ध्युरु॑शंस॒ मा न॒ आयु॒ः प्र मो॑षीः ॥ ११ ॥

नमन करोनीया स्तवनांनी तुमच्या समीप येतो

अर्पण करुनी हविर्भाग हा भक्त याचना करतो

क्रोध नसावा मनी आमुच्या जवळी रहा जागृती 

दीर्घायू द्या तुमची कीर्ती दिगंत आहे जगती ||११||

तदिन्नक्तं॒ तद्दिवा॒ मह्य॑माहु॒स्तद॒यं केतो॑ हृ॒द आ वि च॑ष्टे ।

शुनः॒शेपो॒ यमह्व॑द्गृभी॒तः सो अ॒स्मान्राजा॒ वरु॑णो मुमोक्तु ॥ १२ ॥

अहोरात्र उपदेश आम्हा सारे पंडित करिती

मना अंतरी माझ्या हाची कौल मला देती

बंधबद्ध शुनःशेप होता तुम्हा आळविले

तुम्हीच आता संसाराच्या बंधनास तोडावे ||१२||

शुन॒ःशेपो॒ ह्यह्व॑द्गृभी॒तस्त्रि॒ष्वादि॒त्यं द्रु॑प॒देषु॑ ब॒द्धः ।

अवै॑नं॒ राजा॒ वरु॑णः ससृज्याद्वि॒द्वाँ अद॑ब्धो॒ वि मु॑मोक्तु॒ पाशा॑न् ॥ १३ ॥

शुनःशेपाचे त्रीस्तंभालागी होते बंधन 

धावा केला आदित्याचा तोडा हो बंधन 

ज्ञानवान या वरूण राजा कोण अपाय करीत 

तोच करी या शुनःशेपाला बंधातुन मुक्त ||१३||

अव॑ ते॒ हेळो॑ वरुण॒ नमो॑भि॒रव॑ य॒ज्ञेभि॑रीमहे ह॒विर्भिः॑ ।

क्षय॑न्न॒स्मभ्य॑मसुर प्रचेता॒ राज॒न्नेनां॑सि शिश्रथः कृ॒तानि॑ ॥ १४ ॥

शांतावावया तुम्हा वरुणा अर्पण याग हवी

तुम्हा चरणी हीच प्रार्थना आम्हा प्रसन्न होई

रिपुसंहारक ज्ञानःपुंज वास्तव्यासी येई

करोनिया क्षय पातक आम्हा पुण्य अलोट देई ||१४||

उदु॑त्त॒मं व॑रुण॒ पाश॑म॒स्मदवा॑ध॒मं वि म॑ध्य॒मं श्र॑थाय ।

अथा॑ व॒यमा॑दित्य व्र॒ते तवाना॑गसो॒ अदि॑तये स्याम ॥ १५ ॥

ऊर्ध्वशीर्ष मध्यकाया देहाच्या खाली 

तिन्ही पाश आम्हा जखडती संसारी ठायी

शिथिल करा हो त्रीपाशांना होऊ पापमुक्त

आश्रय घेण्याला अदितीचा आम्ही होऊ पात्र ||१५||

(या ऋचांचा व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक देखील मी शेवटी देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.) 

https://youtu.be/hDxy0-AHmcg

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Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 24 Rucha 11-15

Rugved Mandal 1 Sukta 24 Rucha 11-15

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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