मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ घाई…कवयित्री : सौ. विदुला जोगळेकर ☆ प्रस्तुती – सौ. दीप्ती गौतम ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ घाई…कवयित्री : सौ. विदुला जोगळेकर ☆ प्रस्तुती – सौ. दीप्ती गौतम ☆

फार घाई होते हल्ली…

प्रत्येक क्षणावर कशाची तरी मोहर उमटलीच पाहिजे म्हणून घाई…

क्षण फुकट वाया गेला म्हणून

लगेच गळे काढायची पण घाई…

 

माझ्याजवळ काही आलंय की जे अजून मलाही नीट नाही उमगलंय…

ते पटकन जगाला दाखवायची घाई….

जगापर्यंत ते पोहचलंय की नाही हे आजमावायची घाई…

पोहचलं असेल तर त्याचे निकष जाणून घ्यायची घाई….

 

गर्भातल्या श्वासांना डोळे भरुन बघायची घाई….

व्हेंटिलेटरवरच्या श्वासांना निरोप द्यायची घाई….

 

Quality मुखातून पडलेला शब्द अवकाशात विरायच्या आधी पकडायची घाई…

 

विचारांना अविचाराने बाजूला सारायची घाई….

 

नजरेत दृश्य येताक्षणी कॅमेऱ्यात बंद करायची घाई…

विचाराचा कोंब फुटताक्षणी,कृतीत उतरायची घाई…

फळाफुलांना हंगामाआधी पिकवण्याची घाई….

बोन्सायच्या टोपीखाली निसर्ग दडवायची घाई….

मेमधला गोडवा जानेवारीतच चाखायची घाई….

 

बोबड्या बोलांना इंग्रजीत ठासून बसवायची घाई…!

चिमखड्या आवाजांना लता/किशोर व्हायची घाई.

बालांना किशोर व्हायची घाई…

किशोरांना यौवनाची चव चाखायची घाई तर..

काल उंबरा ओलांडून आलेल्या मुलीला सगळे अधिकार हातात घ्यायची घाई….

 

तिन्हीसांजेच्या परवच्याला नृत्य/लावणीची घाई…

दिवसभराच्या बुलेटिनला जगाच्या घडामोडी कानावर ओतायची घाई…

 

प्रसंग टेकताक्षणी शुभेच्छा द्यायची घाई…

श्वास थांबता क्षणी श्रद्धांजली वाहायचीसुद्धा घाई…!

 

मुक्कामाला पोहचायची घाई….

कामावरुन निघायची घाई…

 

सिग्नल संपायची घाई….

पेट्रोल/डिझेलच्या रांगेतली अस्वस्थ घाई…

 

सगळंच पटकन उरकायची घाई…

आणि स्वातंत्र्यावर थिरकायची घाई…

 

आठ दिवसांत वजन कमी करायची घाई…

महिनाभरात वजन वाढवायची देखील घाई….!

पाच मिनिटांत गोरं व्हायची घाई…

पंधरा मिनिटांत केस लांब व्हायची घाई…

 एक मिनिटात वेदना शमवायची घाई…

एनर्जी ड्रिंक पिवून वडीलधाऱ्यांना दमवायची घाई…

 

साऱ्या या घाईघाईने जीव बिचारा दमून जाई…

भवतालचा काळ/निसर्ग गालात हसत राही….

मिश्कीलपणे माणसाच्या बुद्धीला सलामी देई…!!!

 

घाईघाईने मारलेल्या उड्या

कमी कर रे माणसा थोड्या

बुद्धी पेक्षा ही आहे काळ मोठा

कधीतरी जाण वेड्या…

 

कवयित्री : सौ. विदुला जोगळेकर

संग्राहिका :सुश्री दीप्ती गौतम

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ नूपूर आणि बेडी… (विषय एकच… काव्ये दोन) ☆ श्री आशिष बिवलकर आणि सुश्री वर्षा बालगोपाल  ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ?  नूपूर आणि बेडी… (विषय एकच… काव्ये दोन) ? ☆ श्री आशिष बिवलकर आणि सुश्री वर्षा बालगोपाल  ☆

(जे जे स्कूल ऑफ आर्टचा स्कल्प्चर गोल्डमेडॅलिस्ट श्री.सुहास जोशी, देवगड याने पाठवलेलं चित्र.)

श्री आशिष बिवलकर   

( १ ) 

कुणा पायात  घुंगरू,

कुणा पायात शृंखला !

जीवनाच्या रंगमंचाचा,

वास्तववादी  दाखला !

मेहंदीने रंगले पाय कुणाचे,

कुणाचे रंगले ओघळत्या लाल रक्ताने !

रंगमंची कोणी दंग झाला,

स्वातंत्र्याचा यज्ञ मांडला देशभक्ताने !

कोणी बेधुंद नाचून ऐकवीत होता,

छुमछुमणाऱ्या घुंगरांचा चाळ !

कोणी आनंदाने मिरवीत होता,

अंगावर अवघड बेड्यांची माळ!

कुणा टाळयांचा कडकडाट,

होऊन मिळत होती दाद !

कुणा चाबकाने फटकारत,

देशभक्ती ठरवला गेला प्रमाद !

कुणी नटराज होऊन,

करीत होता कलेचा उत्सव !

कुणी रुद्र रूप धारण करून,

स्वतंत्रतेसाठी मांडले रुद्र तांडव !

कुणी नृत्याने शिंपडत होता,

आनंदात नृत्यकलेचे अमृतजल !

कोणी कठोर शिक्षा भोगून,

प्राशन करत होता हलाहल !

नृत्य कलाकार त्याच्या परी थोर,

साकारला रंगदेवतेचा कलोत्सव!

स्वातंत्र्य सैनिकांना त्रिवार वंदन,

अनुभवला स्वातंत्र्याचा अमृतमहोत्सव!

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

(२) 

एक पाय बंधनातील

एक पाय हा मुक्तीचा

दोन्ही मध्ये एकच सीमा

प्रश्न फक्त उंबर्‍याचा॥

एक घर सांभाळते

एक घर साकारते

आजची स्त्री परंतु

दोन्ही भूमिका निभावते॥

बंधनातही मुक्त जीवन

मुक्तीमधेही अनोखे बंधन

जणू हेच अध्यात्म सांगे कृतीतून 

रुदन – स्फुरणाचे एकच स्पंदन॥

बंधनाच्या श्रृंखला वा

कलेची ती मुक्त रुणझुण

नारी जीवन कसरतीचे

कधी बेडी कधी पैंजण॥

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #190 – 76 – “मिल गए ज़िंदगी में जो तुम…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “मिल गए ज़िंदगी में जो तुम…”)

? ग़ज़ल # 76 – “मिल गए ज़िंदगी में जो तुम…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

हसीन हो जवाँ हो  कुछ तो इशारे होने चाहिए,

एक तरफ़ हम दूसरी तरफ़ नजारे होने चाहिए।

तराशा है संदल बदन चमकता हुआ चहरा तेरा,

तुम्हारा दिलवर एक नहीं बहुत सारे होने चाहिए।

असर मुहब्बत का महबूब को देखकर वाजिब है,

उधर घटा महकती हुई इधर दिलारे होने चाहिए। 

मिल गए ज़िंदगी में जो तुम हमको ए हमसफ़र,

मिल कर हम को अब प्यार में प्यारे होने चाहिए।

हम तुम मुश्किलों से मिलकर यूँही गुज़र जाएँगे,

चश्मतर आतिश अश्क़ों के नहीं धारे होने चाहिए।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माँ!… ☆ सुश्री तृप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

(मराठी लेखिका सुश्री तृप्ती कुलकर्णी जी की एक भावप्रवण कविता ‘माँ’।)

☆ कविता ☆ माँ!… सुश्री तृप्ती कुलकर्णी 

तुम तो अब रही नहीं…

तो तुम्हें कहाँ ढूँढूँ? तुम्हें कैसे देखूँ ?

 

मुझे तुम्हारी याद हर पल आती है,

मैं खयालों में डूब जाती हूँ

वे पल, जो मैंने तुम्हारे साथ गुज़ारे थे

वे फिर से जीना चाहती हूँ…

तुम्हारा ख़्याल मुझे अक्सर

यादों के आंगन में ले जाता है

डूब जाती हूँ उन पलों में,

जो हमने साथ गुजारे थे…

वे पल फिर से जीना चाहती हूँ

 

माँ!

इसलिए मैं अब हर रोज इस नदी किनारे आती हूँ,

इस रेत पर तुम्हारी बहुत सी यादें बिछी हुई हैं

मुझे उस पानी में अब भी दिखाई देती हैं

वे कश्तियाँ जो हमने मिलकर बहाई थीं

 

कई बार हमने इसमें दिया अर्पित किया था

उनकी टिमटिमाहट आज भी तरंगों में झलकती है

बहुत देर, तक नंगे पाँव बैठे रहते थे हम दोनों

छोटी-छोटी मछलियाँ  पैर गुदगदा कर जाती थीं

लगता, एक मछली मेरी चुग़ली तुमसे कर जाती

और एक तुम्हारी शरारत मुझसे कह ज़ाती थी

हम तो खामोश रहते थे…

लेकिन वे छोटी-छोटी मछलियाँ कहती रहती थीं

 

मुझे कभी भाता नहीं था सूरज का डूबना…

लेकिन तुम्हें तो बहुत पसंद था

सूरज का डूब जानेवाला प्रतिबिंब

कई बार देखें हैं तुम्हारे आंखों में आँसू,

जब सूरज पूरा ढल जाता था

मैं समझ न पाती थी उस दर्द को,

जो कहने से ज्यादा तुम्हें सहना पसंद था…

 

मंदिर की घंटियाँ बजते ही

बरबस हमारे हाथ जुड़ जाते,

हम खड़े हो जाते

तुम आगे-आगे चला करती 

मैं पीछे तुम्हारा हाथ थाम कर,

तुम्हारे क़दमों के निशान पर पैर जमाती

मैं चलती रहती थी…

बड़े विश्वास के साथ

न फिसलने का डर था,

न अंधेरे के घिर आने का!

 

आज तुम नहीं,

तुम्हारा साथ नहीं

लेकिन वह गीली मिट्टी है न माँ!

जो हमेशा गीला ही रहना पसंद करती है

वह मुझे फिसलने नहीं देती

शायद उसने तुम्हारे दिल को अच्छी तरह से पढ़ा है माँ!

 

इसीलिए मेरे पैरों को छूकर

तुम्हारे कोमल स्पर्श सा एहसास देती है

लहरें मेरे कानों में हौले से कह जाती हैं

मैं हूँ ना तुम्हारे साथ, हमेशा हमेशा

माँ!

तुम खोई कहाँ हो…

तुम साथ नहीं, पर आस-पास हो

तुम इस नदी में समा गई हो,

सूरज के प्रतिबिंब जैसी 

 

माँ!

अब मैं भी देखती हूँ

सूरज डूबने का वह दृश्य

मेरे भी आँसू बहते हैं

डूबता हुआ सूरज देखकर

अब मैं जान गई हूँ, माँ!

मन की तरलता में यादों की छवि देखने के लिए

कुछ बातें कहने से,  सहना ज्यादा अच्छा होता है

माँ! 

तुम्हारी बहुत-बहुत याद आती है

©  सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – खोज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – खोज ??

ढूँढ़ो, तलाशो,

अपना पता लगाओ,

ग्लोब में तुम जहाँ हो

एक बिंदु लगाकर बताओ,

अस्तित्व की प्यास जगी,

खोज में ऊहापोह बढ़ी,

कौन बूँद है, कौन सिंधु है..?

ग्लोब में वह एक बिंदु है या

ग्लोब उसके भीतर एक बिंदु है..?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए। 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 68 ☆ ।। मैं तेरी बात करूँ, तू मेरी बात करे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।। मैं तेरी बात करूँ, तू मेरी बात करे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हाथों में सबके  ही  सबका हाथ हो।

एक दूजे के लिए  मन से  साथ   हो।।

जियो जीने दो,एक ईश्वर की संतानें।

बात ये दिल में हमेशा जरूर याद हो।।

[2]

सुख सुकून हर किसी   का आबाद हो।

हर किसी लिए संवेदना ये फरियाद हो।।

हर किसी लिए सहयोग बस हो सरोकार।

मानवता रूपी  एक  दूसरे से संवाद हो।।

[3]

हर दिल में  स्नेह  नेह का ही लगाव हो।

दिल भीतर तक बसता प्रेम का भाव हो।।

प्रभाव नहीं हो किसी पर घृणा  दंश का।

आपस में मीठेबोल का कहीं नअभाव हो।।

[4]

हर कोई दूसरे के जज्बात की ही बात करे।

विश्वास का बोलबाला न घात प्रतिघात करे।।

स्वर्ग से ही हिल मिल  कर रहें धरती पर हम।

मैं बस तेरी बात करूं, और तू मेरी बात करे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 45 ⇒ नारियल पानी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नारियल पानी “।)  

? अभी अभी # 45 ⇒ नारियल पानी ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

एक कहावत आम है, आम के आम, गुठलियों के दाम ! हमने तो अक्सर आम खाया और गुठली फेंक दी। हमने आम के भी दाम दिए और गुठलियों के भी। आम से हमको मतलब, गुठली से क्या लेना।

लेकिन प्रकृति हमें आम भी देती है और एक गुठली फिर से उगकर आम का पेड़ बन जाती है। आम की सिर्फ  गुठली ही नहीं, पूरा पेड़ उपयोगी है, पत्ती से लेकर तने तक। ठीक इसी प्रकार आम की तरह नारियल का भी मामला है। एक नारियल अगर   हमें गुणकारी पानी देता है तो वही नारियल हमें खोपरे का तेल भी देता है। यानी एक ही नारियल में पानी का कुआं भी है और तेल का भी। नारियल, एक कितनी छोटी गागर, लेकिन इसमें समाए हुए सभी सागर। ।

पूरी सृष्टि हो या हमारा शरीर, पांच तत्व, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्व ही इसका आधार है। कहा जाता है इस पृथ्वी पर तीन चौथाई समुद्र है। हमारे शरीर में अगर जल तत्व की मात्रा कम हो, तो हमारा जीवन खतरे में पड़ सकता है। सभी तरह की शारीरिक व्याधियों में नारियल पानी एक रामबाण औषधि है, संजीवनी है। जो काम अस्पताल में सलाइन करती है, वही काम नारियल पानी भी करता है। इसमें अगर  क्षार है तो मिठास भी। An apple a day की कहावत तो सबने सुनी है लेकिन अगर रोज नारियल पानी का नियम से सेवन किया जाए तो यह भी किसी डॉक्टर से कम नहीं।

इसी नारियल को श्रीफल भी कहते हैं जो पूजा में भी काम आता है और सारस्वत सम्मान में शॉल श्रीफल बन किसी की साहित्य साधना का फल बन जाता है। साधक शॉल ओढ़े और खोपरा खाए। सुना है, इसी खोपरे से खोपड़ी में सरस्वती यानी ज्ञान की देवी प्रवेश करती है। ।

ऊपर से कड़क और अंदर से पानी पानी, नारियल पानी की यही कहानी ! अक्सर समुद्री तटों के आसपास ही नारियल के पेड़ होते हैं। एक और फल कदली अर्थात् केले के वृक्ष  का तो एक पत्ता ही डायनिंग टेबल का काम कर जाता है। नारियल का ही पानी, नारियल की ही चटनी और नारियल का तेल। अद्भुत है नारियल का खेल।

समुद्र का पानी खारा होता है, उसे आप पी नहीं सकते। एक नारियल समुद्र से सिर्फ नमक ही नहीं लेता, उसे साफ कर, उसमें मिश्री भी घोल देता है। उसे एक सुरक्षित पात्र में एकत्रित कर देता है और आप जब चाहें तब, प्यास लगने पर कुआं खोदने की जगह, नारियल छीलकर पानी पी सकते हैं। पेट की सभी बीमारियों और कमजोरियों में स्वादिष्ट पेय, नारियल पानी। ।

किसी भी पूजा का फल श्रीफल के बिना निष्फल है। पूजा के नारियल में गीरी होती है, जो खोपरा कहलाता है और प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। सूखने पर इसी खोपरे के कई व्यंजन बनते हैं। इस खोपरे की गिनती सूखे मेवे के रूप में होती है जिसका तेल हम सर में लगाते भी हैं और खाते भी हैं।

सर्दी में रोज सवेरे सर से पांव  तक, पूरे बदन में, खोपरे का तेल लगाएं, खुश्की से बचें ! ठंड में खोपरा खाएं, सेहत बनाएं, पेट की गर्मी, डिहायड्रेशन सहित पेट की सभी बीमारियों के लिए नियमित नारियल पानी का सेवन करें। सभी मिनरल कंटेंट युक्त, १०० प्रतिशत शुद्ध प्राकृतिक पेय, और ज़रा इसका सुरक्षित पैकिंग तो देखिए, कच्चा नारियल हो, या पूजा का नारियल, और दांतों तले उंगलियां दबाइए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 132 ☆ “रूख बदलता जा रहा है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित ग़ज़ल – “रूख बदलता जा रहा है…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #131 ☆ ग़ज़ल – “रूख बदलता जा रहा है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

ले रहा करवट जमाना मगर आहिस्ता बहुत।

बदलती जाती है दुनियाँ मगर आहिस्ता बहुत।।

 

कल जहां था आदमी है आज कुछ आगे जरूर

फर्क जो दिखता है, आ पाया है आहिस्ता बहुत।

 

सैकड़ों सदियों में आई सोच में तब्दीलियां

हुई सभी तब्दीजियां मुश्किल से आहिस्ता बहुत।

 

गंगा तो बहती है अब भी वहीं पहले थी जहां

पर किनारों के नजारे बदले आहिस्ता बहुत।

 

अंधेरे तबकों में बढ़ती आ चली है रोशनी  

पर धुंधलका छंट रहा है अब भी आहिस्ता बहुत।

 

रूख बदलता जा रहा है आदमी अब हर तरफ

कदम उठ पाते हैं उसके मगर आहिस्ता बहुत।

 

निगाहों में उठी है सबकी ललक नई चाह की

सलीके की चमक पर दिखती है आहिस्ता बहुत।

 

मन ’विदग्ध’ तो चाहता है झट बड़ा बदलाव हो

गति सजावट की है पर हर ठौर आहिस्ता बहुत।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… प्रीति ने ही निखारा है… ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशनाधीन ।राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 200 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… प्रीति ने ही निखारा है☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(विधा-अनुष्टुप्छन्दः)

यह एक संस्कृत छंद है, जिस पर भगवत गीता के श्लोक भी लिखे गये है‌ ‌।

कैसे भूलूँ सहारा हो जानो माधो सदैव ही ।

है तेरी याद सौगातें नैना भीगे वियोग में ।।1!!

 

चाहा तुम्हीं किनारा हो बहे प्रीति बहाव में।।

चैन भी देख खोते हैंं तुझे ढूँढ़ें अभाव में ।।2!!

 

दर्श की आस माधो है कौन देवे सुझाव को ।

साध प्रेमा पिपासा को ज़िन्दगी है लगाव में ।।3

 

नैन प्यासे जहाँ ताके बीते रैना उदास हो ।

आओ प्यारे नहीं रूठो तेरा हृद प्रवास हो ।।4!!

 

प्रीति ने ही निखारा है, रहती हूँ प्रभाव में।

प्रेम पंथ बुहारी हूँ, माधव मान लो अभी  ।।5!!

☆ 

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश

(दोहा कलश (जिसमें विविध प्रकार के दोहा व विधान है) के लिए मो 8435157848 पर संपर्क कर सकते हैं ) 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सखे… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सखे… 🧚 ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

मन रानात-वनात

मन श्रावण थेंबात

मन  प्रतिबिंब माझे

तुझ्या डोळ्यांच्या ऐन्यात

 

मन सावळ्या मेघात

मन आकाशी ताऱ्यात

मन निवांत हे संथ

तुझ्या मनाच्या डोहात

 

मन पावसाची धारा

मन खट्याळसा वारा

मन गुंफले गं माझे

त्या ओलेत्या रुपात

 

मन  आठवांचे तळे

मन गंधाळले मळे

माझे हळवे गं गीत

तुझ्या केशर ओठात

 

मन भिजते दंवात

मन प्राजक्त गंधात

मन पाणीदार मोती

तुझ्या मनी कोंदणात

 

मन माझे गं ओढाळ

मन चांदणं मोहोळ

मन घुटमळे सखे

तुझ्या चाहूल वाटेत

 

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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