हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 132 – भाव हमारे, भाव तुम्हारे… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – भाव हमारे, भाव तुम्हारे…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 132 – भाव हमारे, भाव तुम्हारे…  ✍

भाव हमारे, भाव तुम्हारे, ज्यों नदिया के कुल किनारे

 

जैसा जैसा सोचा तुमने

वैसा वैसा सोचा हमने

हुए पराये पल में अपने

पलने लगे आँख में सपने

सपने भी तो लगते प्यारे, सपन तुम्हारे, सपन हमारे।

 

जनम जनम तड़पाया तुमने

खूब प्यास भोगी है हमने

अब जाकर पहचाना तुमने

तुमको सबकुछ माना हमने।

 

मुश्किल खुले अघर के द्वारे, धन्यवाद दो शब्द उचारे

ढाई आखर भाव तुम्हारे, ढाई आखर भाव हमारे।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 131 – “ऐसी क्या सामाजिक रचना होती है शहरी?…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  ऐसी क्या सामाजिक रचना होती है शहरी?)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 131 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

ऐसी क्या सामाजिक रचना होती है शहरी?… ☆

कपडा धोने की मशीन को

देख देख महरी

मेरी कब होगी यह उसकी

इच्छा है गहरी

 

हाथों में छाले मलकिन क्यों

भोंका करती है

बात बात पर उसको यों ही

टोका करती है

 

इतना समझाती पर मेरी

सुनती नहीं कभी

मुझ को लगता हो बैठी वह

निश्चित ही बहरी

 

एक रबर की इक टायर की

चप्पलको पहने

एल्यूमिनियम के हाथों में

शोभित हैं गहने

 

और क्षीण जर्जर साड़ी

का मतलब बेमानी

इसकी काया पर लोगों की

नजरें हैं ठहरी

 

शीश झुका लोगों के घर में

आती जाती है

बेचारी मरते खटते

खुद से शरमाती है

 

लोगो की आदत स्वभाव को

जान चुकी रमिया

ऐसी क्या सामाजिक रचना

होती है शहरी ?

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

15-03-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 182 ☆ विश्व रंगमंच दिवस विशेष – जगत रंगमंच है ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 182 विश्व रंगमंच दिवस विशेष – जगत रंगमंच है ?

‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।

यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख सिद्ध होगा।

जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर नहीं किया अपितु रंगमंच को जिया, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थियेटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।

फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है यह रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।

रंगमंच के इतिहास और विवेचन से ज्ञात होता है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृत्ति सामुदायिक रही। सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊँच, न नीच। हर तरफ से देखा जा सकनेवाला। सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।

लोकनाट्य में सूत्रधार था, कठपुतलियाँ थीं, कुछ देर लगाकर रखने के लिए मुखौटा था। कालांतर में आभिजात्य रंगमंच ने दर्शक और कलाकार के बीच अंतर-रेखा खींची। आभिजात्य होने की होड़ में आदमी ने मुखौटे को स्थायीभाव की तरह ग्रहण कर लिया।

मुखौटे से जुड़ा एक प्रसंग स्मरण हो आया है। तेज़ धूप का समय था। सेठ जी अपनी दुकान में कूलर की हवा में बैठे ऊँघ रहे थे। सामने से एक मज़दूर निकला; पसीने से सराबोर और प्यास से सूखते कंठ का मारा। दुकान से बाहर तक आती कूलर की हवा ने पैर रोकने के लिए मज़दूर को मजबूर कर दिया। थमे पैरों ने प्यास की तीव्रता बढ़ा दी। मज़दूर ने हिम्मत कर अनुनय की, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ सेठ जी ने उड़ती नज़र डाली और बोले, ‘दुकान का आदमी खाना खाने गया है। आने पर दे देगा।’ मज़दूर पानी की आस में ठहर गया। आस ने प्यास फिर बढ़ा दी। थोड़े समय बाद फिर हिम्मत जुटाकर वही प्रश्न दोहराया, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ पहली बार वाला उत्तर भी दोहराया गया। प्रतीक्षा का दौर चलता रहा। प्यास अब असह्य हो चली। मज़दूर ने फिर पूछना चाहा, ‘सेठ जी…’ बात पूरी कह पाता, उससे पहले किंचित क्रोधित स्वर में रेडिमेड उत्तर गूँजा, “अरे कहा न, दुकान का आदमी खाना खाने गया है।” सूखे गले से मज़दूर बोला, “मालिक, थोड़ी देर के लिए सेठ जी का मुखौटा उतार कर आप ही आदमी क्यों नहीं बन जाते?”

जीवन निर्मल भाव से जीने के लिए है। मुखौटे लगाकर नहीं अपितु आदमी बन कर रहने के लिए है।

सूत्रधार कह रहा है कि प्रदर्शन के पर्दे हटाइए। बहुत देख लिया पर्दे के आगे मुखौटा लगाकर खेला जाता नाटक। चलिए लौटें सामुदायिक प्रवृत्ति की ओर, लौटें बिना मुखौटों के मंच पर। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएँ। जीवन का रंगमंच आज हम से यही मांग करता है।

विश्व रंगमंच दिवस की हार्दिक बधाई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ माइक्रो व्यंग्य # 180 ☆ “उगलत लीलत पीर घनेरी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका  एक  माइक्रो व्यंग्य – “उगलत लीलत पीर घनेरी...”।)

☆ माइक्रो व्यंग्य # 180 ☆ “उगलत लीलत पीर घनेरी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

कुछ दिनों से गंगू को कोई वामपंथी कहकर चिढ़ाता तो कोई दक्षिणपंथी कहता। गंगू जब तंग हो गया तो उसने अपने आप को टटोला, कुछ हरकतें वामपंथी जैसी दिखीं कुछ आदतें दक्षिणपंथी से मेल खाती मिलीं।

मां से पूछा -जब हम पैदा हुए थे तो वामपंथी जैसे पैदा हुए थे या दक्षिणपंथी जैसे ?

मां ने ज़बाब दिया- बेटा तुम्हारे पिता जी वामपंथी थे और मैं जन्म से दक्षिणपंथी थी जब तुम पैदा हुए थे तो तुम उल्टा पैदा हुए थे, ऊपर से दक्षिणपंथी और अंदर से वामपंथी।

मां की बातें सुनकर गंगू परेशान हो गया था, जंगल की तरफ भागकर गांव के पीपल के नीचे बैठकर चिंतन मनन करने लगा। थोड़ी देर बाद एक गांव वाला लोटा लिए कान में जनेऊ बांधे शौच को जाते दिखा।  गंगू ने रोककर पूछा – भाई ये बताओ कि इन दिनों मीडिया में वामपंथी और दक्षिणपंथी ‌की खूब चर्चा हो रही है। गांव वाले को जोर की लगी थी जनेऊ कान में उमेठते हुए बोला – जो जनेऊ न पहनें और जनेऊ बिना कान में बांधे शौचालय जाए फिर बाहर निकलकर  हाथ न धोये  वो वामपंथी और जो कान में जनेऊ लपेटकर दक्षिण दिशा में बैठकर शौच करे वो दक्षिणपंथी…

गंगू सुनकर सोचने लगा आगे चिंतन मनन करूं कि नहीं।

“फासले ऐसे भी होंगे, 

ये कभी सोचा न था,”

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 122 ☆ # ये तख्त रहेगा ना ताज रहेगा… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# ये तख्त रहेगा ना ताज रहेगा… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 122 ☆

☆ # ये तख्त रहेगा ना ताज रहेगा… # ☆ 

ये तख्त रहेगा ना ताज रहेगा

ये महल रहेगा ना राज़ रहेगा

जहां सज रही थी रंगीन महफ़िले

ये रंगमहल रहेगा ना साज रहेगा

कुछ पल की ये रंगीनियां हैं

नाचती तितलियों की झलकियां हैं

कुछ प्रेम कहानियां बनी थी

वो आज भी अमर कहानियां हैं

ये ऊंचे ऊंचे महल ऐश्वर्य  बताते हैं

अपने वैभव की झलक दिखाते हैं

जिन्होंने जीती है कठिन लड़ाइयां

अपने शौर्य की निशानियाँ दर्शाते हैं

कितने हुए राजे रजवाड़े

उन्हें आज कौन याद करते हैं

जिन्होंने लगा दी जान की बाजी

ऊन शूरवीरों को जांबाज कहते हैं

उनके ही लगे हैं स्टेच्यू

हर शहर, हर चौराहे पर

उनके चरण छूकर ही

आजादी का आगाज़ करते हैं

जिन्होंने गद्दारी की वे मिट गये जमाने में

जिन्होंने मक्कारी की वे तिरस्कृत हैं फसानों में

जमाना वीरों को याद रखता है

जो गीत बनकर गाए जाते हैं दीवानों में

अहंकार, घमंड विनाश की राह है

छल कपट से आक्रमण बुजदिलों की चाह है

सत्य की जगह झूठ को मानने वाले

इतिहास में कायर, डरपोक, कमजोर और तानाशाह हैं /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मातारानी के दोहे” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

“मातारानी के दोहे” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

मातारानी है नमन्,सदा झुका यह माथ।

जननी तेरा नित रहे,मेरे सिर पर हाथ।।

नौ रूपों में आप तो,रहतीं हरदम भव्य।

रोशन तेरी दिव्यता,महिमा हर पल श्रव्य।।

साँचा है दरबार माँ,है कितना अभिराम।

जिसने भी श्रद्धा रखी,बनते उसके काम।।

माँ तुम हो नेहमय,देतीं हो आलोक।

सिंहवाहिनी की दया,करे परे हर शोक।।

नवरातें मंगल करें,शुभ करती हैं नित्य।

दिवस उजाला कर रहे,बनकर के आदित्य।।

विन्ध्यवासिनी माँ तुम्हें,बारंबार प्रणाम।

तुम से ही बनते सदा,मेरे बिगड़े काम।।

भक्त आपका कर रहे,श्रद्धामय हो जाप।

प्रबल शक्ति,आवेग है,प्रखर आपका ताप।।

संयम को मैं साधकर,शरण आपकी आज।

माता हे! सुविचारिणी,सब पर तेरा राज।।

माता हरना हर व्यथा,देना जीवनदान।

चलूँ धर्मपथ,नीतिपथ,कर पूरण अरमान।।

सदा आप में है भरा, ज्ञान, भक्ति, तप,योग।

हरतीं हो हे मातु ! नित,काम,क्रोध अरु रोग।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नवसंवत्सर… ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित संग्रह प्रकाशाधीन विविध छंद कलश।राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 200 से अधिक पुरस्कारों / सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ नवसंवत्सर… ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

चैत्र मास तिथि प्रतिपदा , बहुत हर्ष है आज।

नवसंवत्सर वार है , बनते शुभमय काज।।1!!

भजते माँ अम्बे रहे , नवसंवत्सर वार।

जले ज्योति है नौ दिवस , माँ करती उद्धार।।2!!

माँ अम्बे का सज रहा , खूब बड़ा दरबार।

रखे मात अम्बे कदम, हरती कष्ट अपार।।3!!

पूजा घर पर ही करें , भगवा ध्वज फहराय।

चरण शरण मैया पड़े , जीवन का सुख पाय।।4!!

धर्म जाति कोई रहे , माने खुश त्योहार।

भक्ति भाव मन में सजे , सुखद बने संसार।।5!!

नव कलिका मन की खिली , अब आनन्द विभोर।

नव संवत्सर की किरण , मन मे करती शोर।।6!!

चैत्र शुक्ल संवत रहे , सुखमय हो परिवेश।

बुरी बला जग से मिटे , मिले सुखद संदेश।।7!!

भारतीय नव वर्ष में , मना रहे त्योहार।

सत्य सनातन धर्म यह , नवसंवत शुभ सार।।8!!

जले ज्योति हर घर  सजे , हुआ तिमिर का नाश।

कलश स्थापना कर रहे , करते दूर निराश।।9!!

जीवन जी इस वर्ष में , करना सदा विशेष ।

ऊँचाई छूना सदा , अंतस मत रख द्वेष ।।10!!

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वसंतोत्सव… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वसंतोत्सव… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

 

नवचैतन्ये वसंत नटला

तरुवेलींचा सुगंध सुटला ||धृ ||

 

      ‌ बहावा तरी सुंदर सजला

       पर्णपाचुतुनी बहरु लागला

       पीतफुलांनी डोलत सुटला

       पांथस्थांना खुणवु लागला ||१||

 

गुलमोहराच्या पायघड्यांनी

रस्ता सारा मखमली बनला

रक्तवर्ण हा तळपु लागला

ग्रीष्मासंगे फुलुनी आला ||२||

 

       पळस,पांगिरा,फुलांनी नटला

       हिरव्या कोंदणी ,ठसा उमटला

       मनासी वेधत,खुलवु लागला

       संगतीने ग्रीष्मात हरवला ||३||

 

आम्रतरुही मोहरुनी आला

कैरीफळांचे तोरण ल्यायला

कोकिळ कूजनी रंगुनी गेला

आमराईचे भूषण बनला ||४||

 

© सुश्री दीप्ती कोदंड कुलकर्णी

कोल्हापूर.

भ्र.९५५२४४८४६१

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 123 ☆ कृष्ण देव आठवतो… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 123 ? 

कृष्ण देव आठवतो

(अष्टअक्षर..)

 

मज आवडे एकांत, नको वाटतो लोकांत

वेळ पुरेसा मिळता, होई जप भगवंत.!!

 

मज आवडे एकांत, कृष्ण देव आठवतो

रूप त्याचे मनोहर, मनी माझ्या साठवतो.!!

 

मज आवडे एकांत, क्षण माझा मी जोपासे

धूर्त ह्या जगाची कधी, भूल पडे त्याच मिसे.!!

 

मज आवडे एकांत, शब्दाचे डाव मांडतो

नको कुणा व्यर्थ बोल, मीच मला आवरतो.!!

 

मज आवडे एकांत, राज हे उक्त करतो

शब्द अंतरीचे माझे, प्रभू कृपेने लिहितो.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 62 – स्वामी विवेकानंदांचं राष्ट्र-ध्यान – लेखांक तीन ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 62 –   स्वामी विवेकानंदांचं राष्ट्र-ध्यान –  लेखांक तीन ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

आपल्या समाजातील अज्ञान आणि दारिद्र्य दूर कसे होईल आणि भारताचे पुनरुत्थान कसे होईल?त्याच्या आत्म्याला जाग कशी येणार? याच प्रश्नावर जास्त वेळ चिंतन करत होते.

प्राचीन ऋषीमुनींनी दिलेले उदात्त आध्यात्मिक विचार आणि जीवनाची श्रेष्ठ मूल्ये खालच्या थरातील माणसांपर्यंत पोहोचवण्याची गरज आहे असे त्यांना तीव्रतेने वाटत होते. सामान्य माणसाच्या सेवेसाठी आणी उन्नतीसाठी आपण प्रयत्न करायचा असा स्वामीजींचा निर्णय झाला. हे करण्यासाठी पाच दहा माणसं आणि पैसा हवाच. पण या दरिद्री देशात पैसे कुठून मिळणार? त्यांना आलेल्या अनुभवा नुसार धनवान मंडळी उदार नव्हती.

आता अमेरिकेत सर्वधर्म परिषद भरते आहे. तिथे जाऊन त्यांना भारताच्या आध्यात्मिक संस्कृतीचा परिचय करून द्यावा आणि तिकडून पैसा गोळा करून आणून इथे आपल्या कामाची ऊभारणी करावी. आता उरलेले आयुष्य भारतातल्या दीन दलितांच्या सेवेसाठी घालवायचे असा संकल्प स्वामीजींनी केला आणि शिलाखंडावरून ते परतले. समाजाला जाग आणण्याचा आणि आपल्या देशातील बांधवांचे पुनरुत्थान घडवून आणण्याचा संकल्प त्यांनी केला. त्याच बरोबर स्वतविषयी अहंकार असणार्‍या पाश्चिमात्यांना आपल्या पौर्वात्त्यांच्या अनुभवापुढे नम्र होण्यास स्वामीजी प्रवृत्त करणार होते. आणि त्यासाठी भारताचा अध्यात्मिक संदेश जगभर पोहोचविणार होते. कारण सर्व मानव जातीने स्वीकारावीत अशी शाश्वत मूल्ये आपल्याला आपल्या पूर्वजांनी दिली आहेत. हे त्यांनी अनुभावातून आणि वाचनातून जाणून घेतलं होतं. 

स्वामीजींनी ध्यान केलं होतं जगन्मातेचं आणि चिंतन केलं होतं भारतमातेचं. तीन दिवस तीन रात्रीच्या चिंतनातून प्रश्नाचं उत्तर स्वामीजींना मिळालं होतं. २५ ,२६, २७ डिसेंबर १८९२ ला स्वामीजींच्या वैचारिक आंदोलनाने सिद्ध झालेल्या याच शिलाखंडावर भव्य असे विवेकानंद शिलास्मारक उभे आहे.

कन्याकुमारीचे विवेकानंद शिला स्मारक हा धर्म कार्याच्या विकासाचा पहिला टप्पा होता. त्यानंतर विवेकानंद केंद्र राष्ट्रीय पातळीवर सुरू झाले हा दूसरा टप्पा तर विवेकानंद केंद्र इंटरनॅशनल  ही पुढची संकल्पना . या पातळीवर स्वामीजींच्या स्वप्नातले विश्वव्यापी काम सुरू आहे.

स्वामीजींचे जीवन पाहता त्यांचे चरित्र आणि त्यांनी दिलेला संदेश खूप सुसंगत आहेत. ते हिंदुत्वाचे सर्वोत्कृष्ट प्रतींनिधी तर होतेच पण, ते सर्वाधिक थोर आणि जाज्वल्य असे आंतरराष्ट्रीयवादी ,आधुनिक भारतीय सत्पुरुष होते .  

स्वामीजी कन्याकुमारीला पोहोचले तेंव्हा ते एक संन्यासी होते. पण या तीन दिवसांनंतर परिवर्तन होऊन तो, राष्ट्र उभे करणारा श्रेष्ठ नेता,जगाला त्याग आणि सेवेचा नवा संदेश देणारा श्रेष्ठ गुरु, एक खरा देशभक्त म्हणून जगन्मान्य झाला. स्वामीजींच्या स्वप्नातल्या कार्ययोजनेला प्रत्यक्ष स्वरूप देणारं हे  वैचारिक आंदोलन केंद्रच आहे. आज ही श्रीपाद शिला विवेकानंद शिला म्हणून सर्वदूर परिचित आहे. या स्मारकाचे प्रेरणास्थान एकनाथजी रानडे आहेत. १९६३ मध्ये स्वामी विवेकानंद यांच्या जन्मशताब्दी निमित्त त्यांची आठवण म्हणून हे शिला स्मारक करण्याचा निर्णय घेतला. अनेक अडचणी आल्या.पण हे स्मारक आज या इतिहासाची साक्ष तर देतच आहे आणि कामासाठी प्रेरणा व विचार पण देतंय.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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