(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘‘थानेदार सूरज सिंह’।)
☆ लघुकथा – थानेदार सूरज सिंह ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
एक लड़का टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से निकलकर दौड़ता हांफता शहर के चौराहे के मध्य में आकर रुक गया। थोड़ी देर सुस्ता कर उसने बड़ी श्रद्धा से उगते सूरज को नमस्कार करने की मुद्रा में हाथ जोड़े ही थे कि जालिम थानेदार सूरज सिंह परिहार ठीक उसके सामने आ खड़ा हुआ।
‘क्यों बे, सूरज सिंह परिहार के रहते हुए इस बीते भर के सूरज की क्या विसात है जो उसे सिर नवाता है-ऐं।’
दैत्याकार सूरज सिंह को देखकर लड़का सकपका गया। उसकी बोलती बंद हो गई। जालिम सूरज सिंह की क्रूरता के कई किस्से कई कई बार सुने थे उसने।
लड़का घबराकर बोला-‘सूरज तो आपके पीछे है सर, आपके रहते मुझे उस सूरज से क्या डर, हाथ तो मैंने आपके ही जोड़े थे श्रीमान, भला आपके सामने उस सूरज की क्या विसात है जो—‘
ह: ह:ह: थानेदार सूरज सिंह हंसा – ‘हाथ जोड़ने से पहले अपने आसपास इस सूरज सिंह को जरूर देख लिया कर, समझा—अब फूट यहां से—नेताजी की सवारी निकलने वाली है यहां से—‘
लड़का फिर उसी तरह दौड़ता हांफता शहर की उन टेढ़ी मेढी गलियों में गुम हो गया। थानेदार की हंसी बहुत देर तक उसका पीछा करती रही।
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “अक्सर ही चराग़ों ने जलाया है …”।)
ग़ज़ल # 67 – “अक्सर ही चराग़ों ने जलाया है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। जिन्दगी अभी बाकी है ।।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 59 ☆
☆ मुक्तक ☆ ।। जिन्दगी अभी बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक गावव ग़ज़ल – “बने रिश्तों को हरदम प्रेम जल से सींचते रहिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #123 ☆ गजल – “बने रिश्तों को हरदम प्रेम जल से सींचते रहिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 14 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
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भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महाबीर जब नाम सुनावै।।
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नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा।।
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अर्थ:- आपका नाम मात्र लेने से भूत पिशाच भाग जाते हैं और नजदीक नहीं आते। हनुमान जी के नाम का निरंतर जप करने से सभी प्रकार के रोग और पीड़ा नष्ट हो जाते हैं।
भावार्थ:- महावीर हनुमान जी का नाम लेने से ही बुरी शक्तियां भाग जाती है क्योंकि हनुमान जी अच्छी शक्तियों के स्वामी हैं। अगर हम आधुनिक भाषा में बात करें तो नेगेटिव एनर्जी वाले भूत पिचास हनुमान जी के नाम के पॉजिटिव एनर्जी के कारण समाप्त हो जाते हैं।
हनुमान जी के नाम का एकाग्र होकर पाठ करने से समस्त प्रकार की पीड़ाएं समाप्त हो जाती हैं। समस्त प्रकार की पीड़ा से यहां पर तात्पर्य दैहिक, दैविक और भौतिक समस्त प्रकार के कष्ट एवं दुख से है।
संदेश:- श्री हनुमान जी का नाम जपने से आप भय मुक्त बनते हैं। आपको डर नहीं लगता है और विरोधियों का नाश होता है।
इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाले लाभ :-
भूत पिसाच निकट नहिं आवै। महाबीर जब नाम सुनावै।।
लाभ:- इस चौपाई के बार बार पाठ करने से बुरी आत्मा, भूतप्रेत आदि अगर आपके पास आ गए हैं तो दूर भाग जाएंगे अन्यथा आपके पास नहीं आएंगे।
नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा।।
लाभ:- इस चौपाई के बार बार पाठ करने से समस्त प्रकार के रोग और पीड़ाओं का अंत हो जाएगा।
विवेचना:- इन पंक्तियों की विवेचना करने से पहले यह जानना पड़ेगा कि भूत और पिशाच आदि क्या है। यह होता हैं या नहीं होता है।
सनातन हिंदू धर्म ग्रंथ गरुड़ पुराण के अनुसार आत्मा पृथ्वी पर हमारे भौतिक शरीर में निवास करती है तब वह जीव या जीवात्मा कहलाती है। मृत्यु के उपरांत आत्मा सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश कर जाती है और इस सूक्ष्मात्मा कहते हैं। अगर व्यक्ति की कामनाएं मृत्यु के बाद भी जिंदा रहती हैं और तो वह कामनामय सूक्ष्म शरीर में निवास करती है। इस आत्मा को भूत, प्रेत, पिशाच, शाकिनी, डाकिनी आदि कहा जाता है। धर्म शास्त्रों में 84 लाख योनियों का जिक्र है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार हमारे पास अब तक करीब 30 लाख प्रकार के जीव जंतु और पेड़ पौधों के बारे में जानकारी है।
गरुड़ पुराण के अनुसार जीव एक निश्चित अवधि तक भूत योनि में रहता है। जिन लोगों के मृत्यु के उपरांत नियमानुसार कर्मकांड नहीं होते हैं वे प्रेत योनि में चले जाते हैं अन्यथा 13 दिनों के उपरांत वे आत्माएं फिर से जन्म लेती हैं।
विभिन्न धर्मों में अलग-अलग नाम से इनको पुकारा जाता है जैसे हिंदू धर्म में प्रेत पिशाच ब्रह्मराक्षस और चुड़ैल। ईसाई धर्म में मूल रूप से पिशाच चुड़ैल होते हैं। मुस्लिम धर्म में जिंन्न कहे जाते हैं। हिंदू धर्म में प्रेत और इसी तरह की अन्य आत्माएं क्यों होती हैं उसके बारे में हम ऊपर बता चुके हैं, बाकी धर्मों के मान्यता के बारे में अब हम बता रहे हैं।
छोटे बच्चे जब बीमार पड़ जाते हैं और दवा से ठीक नहीं होते हैं तो हमारी माता बहने कहती हैं इस को नजर लग गई है। मिर्ची घुमाकर या अन्य तरह से नजर उतारी जाती है और बच्चा ठीक हो जाता है। मैं इन बुद्धिमान लोगों से यह पूछना चाहूंगा क्या ये इसका कोई कारण बता सकते हैं।
हम जिस चीज को नहीं जानते हैं उसको पता करना विज्ञान है परंतु हम जिस को नहीं जानते हैं उसको साफ साफ झूठा कह देना विज्ञान का अजीर्ण है।
अगर हम भूत और पिशाच को केवल डर मान ले तो यह सत्य है कि इस प्रकार के डर हनुमान जी का नाम लेने भर से नष्ट हो जाते हैं। बचपन में या आज भी अगर हमें कहीं डर सताता है तो हम हनुमान जी का नाम लेते हैं। डर दूर भाग जाता है।
ईशान महेश जी जो कि एक उपन्यासकार और धार्मिक पुस्तकों के भी लेखक हैं उन्होंने एक कहानी बताई है। उनका कहना है एक बार वे गोमुख यात्रा पर गए थे। इनके कैंप में दो लोगों में बहस हो गई। एक कह रहा था कि भूत प्रेत होते हैं दूसरा कह रहा था कि भूत प्रेत नहीं होते हैं। दूसरे ने ईशान जी से कहा कि आप इनको समझाओ कि भूत प्रेत नहीं होते हैं। ईशान जी ने कहा कि मैं उनको और आपको दोनों को समझाने का प्रयास करूंगा। दूसरे व्यक्ति ने कहा कि अभी समझाइए उन्होंने कहा नहीं रात में जब घूमने चलेंगे तब बात करेंगे। रात में वे उस व्यक्ति को लेकर बाहर चल दिए। थोड़ी ही देर में उस व्यक्ति ने कहा कि अब हम वापस लौटें, डर लग रहा है। ईशान जी ने कहा कि हनुमान जी हनुमान जी कहो। देखो डर जाता है या नहीं। दूसरा व्यक्ति हनुमान जी हनुमान जी कहने लगा। 2 मिनट बाद ईशान जी ने पूछा कि अभी तुम्हें डर लग रहा है या नहीं। उसने कहा नहीं। अब डर नहीं लग रहा है। ईशान जी ने कहा अब वापस चलते हैं तुम्हारा डर ही भूत है, प्रेत है। हनुमान जी का नाम का जाप करने से तुम्हारा डर भाग गया।
आज आदमी भय से डरपोक बना है। हमारा सारा जीवन भय से भरा हुआ है। हम जीवन में सीधे रास्ते से चल रहे हैं इसका कारण डर है। संस्कृत का श्लोक है:-
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयवित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रुपे जराया: भयम्।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम्
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां विष्णों: पदं निर्भयम्।।
जो निर्भय हैं उनके पास भगवान का गुण है। जो भयभीत हैं वे मानव हैं। विपुल मात्रा में भोग की सामग्री होते हुए भी व्यक्ति को रोग का भय रहता है। जिस व्यापारी के पास में शक्कर के बोरे होते हैं वह डायबिटीज का मरीज होता है। वह शक्कर नहीं खा सकता है। अगर आप का जन्म ऊंचे खानदान में हुआ है तो उसे अपने कुल की इज्जत के जाने का डर रहता है। जिसके पास विपुल मात्रा में धन होता है उसे धन के जाने का डर बना रहता है। उसको रात में नींद नहीं आती है। अगर समाज में आपकी बहुत इज्जत है तो आपको हमेशा मानहानि का डर बना रहेगा। सत्ताधीशों को तो हमेशा अपनी कुर्सी जाने का डर रहता है। इनको अपने मित्रों और शत्रु दोनों से डर लगता है।
देवताओं में सबसे ज्यादा डरपोक सत्ताधारी इंद्रदेव हैं। जब भी कोई मुनि ज्यादा बड़ा तप करने लगता है इंद्रदेव का राज सिंहासन डोलने लगता है। बलवान को अपने शत्रुओं से डर लगता है। बलवान व्यक्ति के शत्रुओं की संख्या बहुत अधिक होती है। कौन शत्रु कब आघात कर देगा इसका भय बलवान के पास हमेशा रहता है। रूपवान को कुरूप होने का भय रहता है। समय के साथ-साथ रूप क्षीण होता जाता है। युवक के पास वृद्ध होने का भय रहता है। शास्त्रों के जानकार के पास वाद विवाद का डर होता है। उनको इस बात का हमेशा डर रहता है कि वाद-विवाद में उनको कोई हरा न दे। अच्छे लोगों को बुरे मनुष्यों का डर रहता है। पुण्यात्मा को परलोक का डर होता है।
अर्थात जिसके पास कुछ है उसके पास डर निश्चित रूप से रहता है। अगर आपको इस डर को भगाना है तो आप शिव के अवतार और पवन तनय की पूजा करें। ऐसे में उनका सुमिरन करने से नकारात्मक शक्तियों का नाश होता है।
दुनिया में मशहूर भूत भागने का मंदिर जिसे हमें मेंहदीपुर बालाजी के नाम से जानते हैं वह हनुमान जी के बालाजी अवतार का हैं। ऐसा कहा जाता है कि हनुमान जी रक्षक की तरह आज भी मौजूद हैं। जब भी कोई व्यक्ति प्रेत बाधा में हो, हनुमान जी की पूजा करने के वह दूर हो जाती है।
आगे लिखा है “महावीर जब नाम सुनावे।” हनुमान चालीसा का प्रारंभ जय हनुमान ज्ञान गुण सागर से किया गया है। हनुमान चालीसा में हनुमान शब्द 6 बार आया है परंतु जब मारपीट की नौबत आई तब नाम लिया गया महावीर का। इसका क्या कारण है। आराम से कहा जा सकता था हनुमान जब नाम सुनावे। तुलसीदास जी को यहां महावीर कहना उचित लगा।
हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी ने बचपन में भगवान सूर्य को अपने मुख में दबा लिया था। इसके का उनका मुंह अभी भी फूला हुआ है। इंद्रदेव ने देखा कि यह बालक मेरे सत्ता को चैलेंज दे रहा है। उन्होंने हनुमान जी पर वज्र का प्रहार किया और उनकी हनु टूट गई। इसलिए हनुमान जी का नाम हनुमान पड़ा। इंद्रदेव के वज्र से हनुमान जी के मूर्छित होने के कारण यह उनकी कमजोरी का लक्षण है। भूत को भगाने के लिए अत्यंत वीर व्यक्ति चाहिए। हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी का दूसरा नाम महावीर भी है। महावीर शब्द से हनुमान जी के बल और पोरूष का आभास होता है। भूत और प्रेत को भगाने के लिए या आपके डर को भगाने के लिए आपको एक सशक्त सहायता चाहिए। सशक्त सहायता महावीर नाम ही दे सकता है। महावीर का नाम लेने से ही आपके अंदर अलग से एक ताकत आ जाएगी। इसीलिए यहां पर तुलसीदास जी ने हनुमान शब्द के स्थान पर महावीर शब्द का प्रयोग किया है।
रामचरितमानस के उत्तरकांड में दो चौपाइयां हैं जो राम राज्य के बारे में बताती हैं।
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
(रामचरितमानस /उत्तरकांड)
भावार्थ :-‘रामराज्य’ में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं॥
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥
(रामचरितमानस /उत्तरकांड)
भावार्थ:-छोटी अवस्था में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है। सभी के शरीर सुंदर और निरोग हैं। न कोई दरिद्र है, न दुःखी है और न दीन ही है। न कोई मूर्ख है और न शुभ लक्षणों से हीन ही है॥
राम राज्य में यह स्थिति महाराजाधिराज श्री रामचंद्र जी के प्रताप के कारण थी। अगर हमारे यहां या हमें किसी तरह का रोग हो जाए कोई पीड़ा हो जाए तो हमको क्या करना चाहिए। इस संबंध में हनुमान चालीसा कि हनुमान चालीसा की अगली चौपाई में बताया गया है कि:-
“नासे रोग हरे सब पीरा जपत निरंतर हनुमत बीरा “।।
अर्थात आपको या साधारण जनमानस को हनुमान जी का नाम का जाप करना चाहिए।
नासे शब्द का एक ही अर्थ होता है समाप्त करना। इस चौपाई में तुलसीदास जी कहना चाहते हैं कि अगर हम निरंतर हनुमान जी का नाम लेते रहें तो हमारे सभी रोग और सभी पीड़ायें समाप्त हो जाएंगी। जैसे पहले की चौपाई में था। भूत को भगाने के लिए महावीर का नाम लीजिए, उसी प्रकार इस चौपाई में है कि दुख दर्द को मिटाने के लिए हनुमान जी का नाम लीजिए। क्योंकि हनुमानजी और महावीर जी एक ही हैं अतः हम कह सकते हैं कि इन सभी कार्यों के लिए हनुमान जी का नाम लेना है।
आइए अब रोग शब्द पर चर्चा करते हैं।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार रोग अर्थात अस्वस्थ होना का क्या अर्थ है। यह चिकित्साविज्ञान की मूलभूत संकल्पना है। प्रायः शरीर के पूर्णरूपेण कार्य करने में किसी प्रकार की कमी होना ‘रोग’ कहलाता है। जिस व्यक्ति को रोग होता है उसे ‘रोगी’ कहते हैं।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार केवल दो प्रकार के कारणों से रोग हो सकता है।
1- जैविक (biotic / जीवाणुओं से होने वाले रोग)
2- अजैविक (abiotic / निर्जीव वस्तुओं से होने वाले रोग)
रोग की और भी परिभाषाएं हैं जिन में कुछ को नीचे दिया जा रहा है :-
रोग वह अवस्था है जिसमें शरीर का स्वास्थ्य बिगड़ जाय और जिसके बढ़ने पर शरीर के समाप्त हो जाने की आशंका हो। इसे बीमारी, मर्ज, व्याधि, भी कहते हैं
रोग की दूसरी परिभाषा के अनुसार रोग शरीर में उत्पन्न होनेवाला कोई ऐसा घातक या नाशक विकार है जो कुछ विशिष्ट कारणों से उत्पन्न होता है, और जिसके कुछ विशिष्ट लक्षण होते हैं।
शरीर में उत्पन्न घातक विकार जैसे कष्टकारक आदत या लत, उदाहरण के रूप में- तंबाकू पीने का रोग।
सभी धर्मों में रोगों के बारे में कुछ न कुछ कहा गया है। पहले हम सनातन धर्म के अलावा बाकी धर्मों में रोग के संबंध में कही गई बातों की चर्चा करेंगे।
यहूदी और इस्लामी कानून अस्वस्थ लोगों को व्रत करवाते हैं। उदाहरण के लिए, योम किप्पुर पर या रमजान के दौरान उपवास रखना। (और इसमें भाग लेने की वजह से) यह कभी कभी जीवन के लिए खतरनाक हो सकता है।
यीशु के न्युटैस्टमैंट में इसे रोगमुक्त होकर चमत्कार करने के रूप में वर्णित किया गया है।
बीमारी उन चार दृश्यों में से एक था, जिसे गौतम बुद्ध द्वारा सामना किए गए चार दृष्टियों से संदर्भित किया जाता है।
कोरियाई शमानिज़्म में “आत्मीय रोग” शामिल है।
पारंपरिक चिकित्सा सामूहिक रूप से बीमारी और चोट के इलाज़, प्रसव प्रक्रिया में सहायता और स्वस्थता का अनुरक्षण करने की परम्परागत क्रियाविधि है। यह “वैज्ञानिक चिकित्सा” से अलग भिन्न ज्ञान है।
सामान्य और बीमारी के बीच की सीमा व्यक्तिपरक हो सकती है। उदाहरण के लिए, कुछ धर्मों में, समलैंगिकता को एक बीमारी माना जाता है।
आयुर्वेद के ग्रन्थ तीन शारीरिक दोषों (त्रिदोष = वात, पित्त, कफ) के असंतुलन को रोग का कारण मानते हैं और समदोष की स्थिति को आरोग्य।
रामचरितमानस में 3 तरह के रोग बताए गए हैं। दैहिक दैविक भौतिक। रामराज्य की प्रशंसा में तुलसीदास जी की चौपाई लिखी है उसमें उन्होंने लिखा है :-
“दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा”॥
(रामचरितमानस /उत्तरकांड)
इस शरीर को स्वतः अपने ही कारणों से जो कष्ट होता है उसे दैहिक ताप कहा जाता है। इसमें व्यक्ति या व्यक्ति की आत्मा को अविद्या, राग, द्वेष, मू्र्खता, बीमारी आदि से मन और शरीर को कष्ट होता है।
कुछ ऐसे कष्ट भी होते हैं जिन पर मानव का नियंत्रण नहीं होता है अतः उनको दैविक ताप कहा जाता है। जैसे अत्यधिक गर्मी, सूखा, भूकम्प, अतिवृष्टि आदि अनेक कारणों से होने वाले कष्ट को इस श्रेणी में रखा जाता है।
तीसरे प्रकार का कष्ट इस जगत के बाह्य कारणों से होता है। इस प्रकार के कष्ट को भौतिक ताप कहा जाता है। शत्रु आदि स्वयं से परे वस्तुओं या जीवों के कारण ऐसा कष्ट उपस्थित होता है।
पीरा या पीड़ा शब्द का अर्थ है शारीरिक या मानसिक कष्ट; वेदना; व्यथा; दर्द। अर्थात रोग के कारण से जो आप वेदना या कष्ट या दर्द महसूस करते हैं उसको पीड़ा कहते हैं। अर्थात जीवन रूपी वृक्ष के मूल में रोग है और पीड़ा उस वृक्ष का फल है। अगर हम किसी प्रकार से रोग को समाप्त कर दें तो पीड़ा अपने आप समाप्त हो जाएगी। हम सभी जानते हैं कि बुखार की वजह से हमारे शरीर का तापमान बढ़ जाता है और हमारे शरीर में दर्द भी होता है। अगर यह बुखार अर्थात रोग समाप्त हो जाए तो शरीर का तापमान सामान्य हो जाएगा और शरीर का दर्द स्वयमेव समाप्त हो जाएगा। इस प्रकार हम को रोग को समाप्त करना है पीड़ा अपने आप समाप्त हो जाएगी।
अगर तुलसीदास जी अगर केवल दैहिक रोग विशेषकर मानसिक रोग की बात कर रहे होते तो हम कह सकते थे हनुमान जी का नाम लेने से यह रोग समाप्त हो जाएगा। जैसे कि जब छोटे बच्चों को नजर लग जाती है तो हमारे घर की माता बहने उनका नजर उतारतीं हैं। नजर लगने की स्थिति में कई बार आधुनिक चिकित्सा पद्धति काम नहीं कर पाती है। नजर लगी है या नहीं लगी है इसको देखने की पद्धति का विश्लेषण भी आधुनिक विज्ञान नहीं कर पाता है।
यहां पर हम सभी तरह के रोग के समाप्त करने की बात कर रहे हैं। तो क्या हनुमान जी चिकित्सक हैं ,जो दवा देंगे और समस्त रोग समाप्त हो जाएंगे। रोग समाप्त करने का काम चिकित्सक का है। चिकित्सक दवा देता है इससे रोग समाप्त होता है। देवताओं के यहां भी धनवंतरी जी है। अतः हम इस भ्रम को नहीं चलाएंगे कि अगर आप बीमार पड़े हैं तो केवल हनुमान जी का नाम ले और आप ठीक हो जाएंगे।
हनुमानजी का जप करने से मानसिक आरोग्य तथा शारीरिक आरोग्य प्राप्त होता है। तुलसीदास का आग्रह जप करने के लिए है वह केवल शारीरिक रोग दूर करने के लिए नहीं साथ ही साथ मानसिक विकारों को दूर करने के लिए भी है। मनुष्य के अन्त:करण में भगवत्प्रेम बढना चाहिए। जब भगवत प्रेम बढ़ेगा तो आपकी मानसिक स्थिति मजबूत होगी। मानसिक स्थिति मजबूत होने के कारण आपकी इच्छा शक्ति भी मजबूत हो जाएगी। जब आपके अंदर आपकी इच्छा शक्ति मजबूत होगी तो आप मानसिक रोगों से पूर्णतया मुक्त हो जाएंगे और शारीरिक रोगों से भी मुक्त होने की तरफ चल देंगे।
हनुमान जी भी आपकी परीक्षा लेते हैं। तभी वह मानते हैं कि आपने उनका नाम जप किया है। हम ऐसी परीक्षाओं में साधारणतया असफल रहते हैं। जैसे कि एक व्यक्ति ने बारह महिने ठण्डे पानी से नहाने का नियम किया। एक वर्ष के बाद उससे पूछा, तुमने उस नियम का पालन किया? उसने कहा हाँ! परन्तु जाडे के दो महिने छोडकर। अब आप बताइए उसको कितने प्रतिशत अंक मिलना चाहिए। मेरे विचार से 0% अंक उसको मिलना चाहिए। क्योंकि परीक्षा के दिन तो जाड़े के दिन ही थे। बाकी दिन तो हर कोई ठंडे पानी से ही नहता है। जाड़े में वह ठंडे पानी से नहीं नहाया।अतः वह परीक्षा में पूरी तरह से फेल हो गया और उसको 0% अंक मिले। विपत्ति मे ही परीक्षा होती है। अत: प्रतिकूल परिस्थिति मे ही मानसिक आरोग्य संभालना है। प्रतिकूल परिस्थिति में खडा रहने के लिए मन को शक्तिशाली बनाने के लिए, आपकी इच्छा शक्ति का निरोगी होना आवश्यक है। प्रतिकूल परिस्थिति तो आयेगी ही, परन्तु ‘बाहर’ के प्रवाह से मेरा ‘स्व’ मलिन नहीं बनेगा’ ऐसा ‘स्व‘ का प्रवाह होना चाहिए।
हमारे समाज में धन का अत्यधिक महत्व है अगर आप निर्धन है तो आपकी मित्रों की संख्या अत्यंत कम हो जाएगी। विद्वान कहते है—–
दूसरे के गुणों को जाननेवाले विरले हैं। निर्धनपर प्रेम विरले ही करते हैं, दूसरे के दु:ख में दु:खी होनेवाले विरले ही होते हैं।
परंतु अगर आप धनी है तो क्या आप के हजारों मित्र हो जाएंगे – नहीं होंगे। ये मित्र केवल अपने स्वार्थ के लिए आपके साथ रहेंगे। जैसे ही उनको लगेगा उनका स्वार्थ अब नहीं बन रहा है वे आपका साथ छोड़ देंगे।
मेरा क्या है ? यह दूसरा प्रश्न है। इस जगत मे मेरे साथ क्या जानेवाला है ? मेरा बंगला बहुत सुन्दर है, परन्तु क्या उसे मै अपने साथ ले जा सकूंगा? मेरा बैंक बैलन्स बहुत बडा है, परन्तु मुझे उसे यहीं छोडकर जाना पडेगा। फिर मेरे साथ क्या आयेगा? वेदान्त समझाता है —–
देहचितायांं परलोक मार्गे कर्मानुगो गच्छति जीव एक:।।
धन भूमि में, पशु गोष्ठ में, पत्नी घर के दरवाजे तक, सगे सम्बन्धी शमशान तक साथ जाते है। देह को चिता पर रखने के बाद साथ कौन जाता है? कर्मानुगो गच्छति जीव एक ! अर्थात केवल आपका कर्म आपके साथ जाता है। अतः आपको सदैव अच्छे कर्म करना चाहिए। जिससे विश्व का, आपके राष्ट्र का, आपके समाज का, आपके धर्म का और आपके आसपास के लोगों का कल्याण हो।
अब हम बताते हैं नाम जप का क्या महत्व है। नाव मे बैठकर, पैर गीले हुए बिना, नदी को पार किया जा सकता है वैसे ही नाम-जप से बिना तकलीफ के भवसागर पार कर सकते हैं।
सोच समझकर नाम-जप करना चाहिए। लोग पूछते है, ‘नाम लेने मे क्या है? नाम में शक्ति है। ‘इमली’ कहने पर मुँह में पानी भर आता है। शब्द में शक्ति है, परन्तु उसके लिए शब्द का अर्थ मालूम होना चाहिए। आपको श्रीराम इस जगत में क्यों लाए ? क्या मालूम है ? बहुत सारे लोगों को तो यह भी नहीं मालूम होगा कि श्रीराम कौन थे। लोगों को ऐसा लगता है कि, इसकी अपेक्षा हम घर में बैठकर हुक्का पीते हुए राम नाम का जप करेंगे तो हमें इच्छित फल मिल जायेगा। मनुष्य को नाम-जप समझकर करना चाहिए।
जप का इतना महत्व क्यों है? जप से विकार कम कर सकते हैं। मानव देह में ‘जीव’ और ‘शिव’ दोनों है। उनके बीच विकार का पर्दा है। यह विकार का पर्दा हटाना चाहिए। विषय विकारों को किस प्रकार हटायेंगे? विकारों को हटाने के लिए जप का उपयोग करना चाहिए। उसके स्थान पर आज विकार बढाने के लिए जप का उपयोग किया जाता है। विकार बढाने के लिए नही, अपितु विकार कम करने के लिए जप करना चाहिए।
आप अपने शरीर के विकारों को हनुमान जी का नाम लेकर दिल से नाम लेकर पूरी तन्मयता और एकाग्रता से नाम लेकर अपने शरीर से हटा सकतें है।शर्त एक ही है की एकाग्रता भंग नहीं होनी चाहिए। जय श्री राम।
कधी काळी सुवर्णभुमी म्हणून प्रख्यात असणारा आपला भारत देश जगाला संस्कारांचे , संस्कृतीचे, मानवतेचे विश्वबंधुत्वाचे , आदर्श राजकारणाचे, मार्गदर्शन करण्यात आघाडीवर होता. आपली भरतीय संकृती अति पुरातन आहे. रोम, ग्रीक, संस्कृतीपेक्षाही श्रेष्ठ तर आहे . हे जगन्मान्य आहे. आपल्या पुरातन वैभवशाली मात्रृभुमीने भारतीय स्त्रियांच्या अतिउच्च संस्कारांचे महान आदर्श संपूर्ण जगाला दिले आहेत . जगाने ते वंदनीय व सर्वश्रेष्ठ असल्याचे मान्य केले आहे. त्याना अनुकरणीय मानले आहे . आपल्या देशाने पारतंत्र्य ही अनुभवले आणि त्यातून प्राणपणाने लढून स्वातंत्र्यही मिळवले . या लढ्यात अनेक विरांगणानी परमोच्या त्यागाचे , औदार्याचे ,स्वसंरक्षणाचे वस्तूपाठ समाजाला दिले आहेत. आजच्या काळातही ते आदर्श असून समाजप्रबोधनाचे कार्य करत आहेत. भारतीय मातांनी अनेक तेजःपुंज आपत्याना जन्मदेउन त्यांना उत्तम प्रकारे घडवून त्याच्याकडून सामाजिक , सांस्कृतिक, धार्मीक,क्रांती घडवून आणली आहे. आज तगायत ती तशीच घडतेय . मातृसत्ताक, किंवा पितृसत्ताक पध्दतीत स्रियांची कुटुंबावरची पकड कधीच कमी झालेली नाही . म्हणूनच “जिच्या हाती पळण्याची दोरी ती जगा उद्धारी” असे म्हटले जाते.
पुरातन, ऐतिहासिक, आणि वर्तमान काळातही स्त्री शक्तीची धगधगती मशाल सातत्याने तेवतरहून समाजहिताचे समर्थपणे संरक्षण करत आहे.
पाश्यात्य संस्कारांच्या आणि संस्कृतीच्या मोहजालाच्या आहारी जावून काही नवी स्थित्यंतरे घडत आहेत. ती सारीच तकलादू व असमर्थनीय आहेत असे नाही. पण आपले आदर्श बाजूला ठेवून त्यांचेच अनुकरण करावे इतकी ती प्रतिष्ठीत आहेत असेही नाही. आपण आपल्या सदसद्विवेकबुद्धी ने त्यातील श्रेष्ठ कनिष्ठ निवडून घेवूनच त्यांची अंमलबजावणी करावी हेच हितकारक ठरेल.
काही बदल झाला तरी तो वरपांगी असेल. आपली मुळातली आणि तळागाळातील संस्कृती कायम टिकून राहील यात शंकाच नाही. भारतीय महिला संघटनांच्या माध्यमातून या निवडीला योग्य दिशा देण्याचे कार्य सुरू आहे . त्याला बळ दिले जावे आणि आपल्या भारतमातेच्या पुरातन पण परिवर्तनीय जलजाज्वल संस्कृतीला मानाचे स्थान प्राप्त व्हावे हीच अपेक्षा. आपले आदर्श आपलेच आहेत. त्याना सुरक्षीत ठेवून पुढची सांस्कृतिक वाटचाल आदर्श करण्यासाठी . आता महिलांनीच पुढाकार घेण्याचे नियोजन करावे. ही आग्रही विनंती
मिथिलाचे हात यांत्रिकपणे काम करत होते, पण मन मात्र सैरभैर झालं होतं. तेवढ्यात दारावरची बेल वाजली म्हणून मिथिला किचनमधून पटकन बाहेर आली आणि दार उघडून तिनं पेपर आत घेतला. टिपॉयवर पेपर ठेवताना, सवयीनं तिची नजर हेडलाईनकडे वळली. ‘ पंतप्रधानांची पाकिस्तानला ताकीद’, आणि त्याच्या बाजूलाच दुसरी बातमी आणि फोटो.. ‘सावनी सुमंत यांना नृत्य मयूरी पुरस्कार ‘ बाजूला हातात चांदीची मोराची प्रतिमा असलेला सावनीचा हसरा फोटो . हिरकणी या नृत्य नाटिकेतील उत्कृष्ट नृत्याभिनयाबद्दल, सावनीला हा विशेष पुरस्कार देण्यात आला होता.
हं, पेपर बाहेर ठेवायलाच नको, असा विचार करून तिनं तो चक्क आपल्या वॉर्डरोबमध्ये कोंबला.’ निदान सकाळी उठल्या उठल्या सगळ्यांचा मूड खराब व्हायला नको.’
कालच लेकीची- नुपुरची आठवीची परीक्षा संपली होती. मग संध्याकाळी ती मैत्रिणींबरोबर सिनेमा बघायला गेली होती. सिनेमा संपल्यावर पावभाजी आणि आईस्क्रीम हादडून घरी पोचायला साडेदहा वाजले होते. सुट्टी लागल्यामुळे बाईसाहेब काही आज लवकर उठणार नव्हत्याच. दुसरा शनिवार म्हणून सौमित्रलाही सुट्टी होती.
मिथिलाला रात्री नीट झोप लागलीच नव्हती. पण सातला ती उठलीच. नुपुरच्या फर्माइशीनुसार नाश्त्यासाठी सँडविचची सर्व तयारी तिनं करून ठेवली. काकडी, कांदा, टोमॅटोच्या चकत्या, हिरवी चटणी टेबलवर नीट झाकून ठेवली. मिथिलाचे सासू-सासरे मॉर्निंग वॉक करून घरी येण्याची वेळ झाली होतीच. त्यांच्या चहाचं आधण ठेवावं म्हणून भांड्यात पाणी घ्यायला ती वळली आणि तिच्या डोळ्यांपुढे एकदम अंधारी आली. कशीबशी ती जवळच्या खुर्चीवर टेकली. तेवढ्यात सासू-सासरे घरात आलेच.
‘काय ग, बरं वाटत नाही का? चल आतमध्ये जाऊन जरा पड बघू. आराम कर, मी बघते चहाचं.’, असं म्हणत त्या तिला हाताला धरून बेडरूममध्ये घेऊन गेल्या. त्यांच्या चाहुलीनं सौमित्र जागा झाला.
‘आई, काय झालं?’ म्हणत त्यानं मिथिलाला हात धरून बिछान्यावर झोपवलं.
‘ झोप झाली नसेल रे नीट टेंशनमुळे! आधीच खूप हळवी आहे ती!’
काल रात्री नुपुर घरी आली, तेव्हा मिथिलानं तिची तब्येत बरी नाही, असं तिला सांगितलं. त्यामुळे बाईसाहेबांचा मूड खराब झाला होता.कारण उद्या आई-बाबांबरोबर बाहेर पडून धमाल करायचा प्लॅन होता तिचा. परीक्षेच्या आधीपासून ठरलंच होतं मुळी त्यांचं. ‘दोन दिवस ताप येतोय, तुझी परीक्षा चालू होती म्हणून बोलले नाही , हे स्पष्टीकरण देताना मिथिलाचा चेहरा कावराबावरा झाला होता. पण परीक्षा संपल्याच्या आनंदात नुपुरच्या ते लक्षात आलं नाही.
असं काही होईल याची मिथिलानं स्वप्नातही कल्पना केली नव्हती. सावनीनं तिच्या वकिलामार्फत नुपुरला भेटण्याची मागणी केली होती. सावनी ही सौमित्रची पहिली बायको. सौमित्र मुंबईत राहणारा तर सावनी रतलाम.. मध्यप्रदेशची. सौमित्रच्या नात्यातल्या कोणीतरी स्थळ सुचवलं आणि हे लग्न जमलं. सावनी संगीत विषय घेऊन बी. ए. झाली होती आणि कथ्थकही शिकत होती. रंगानं गोरी, चारचौघांत उठून दिसणारी! ‘मला नोकरी करायची इच्छा नाही’, हे तिनं लग्नाआधीच सौमित्रला सांगितलं होतं. सौमित्र , मेकॅनिकल इंजिनिअर होता आणि एका बहुराष्ट्रीय कंपनीत उच्च अधिकारी. त्यामुळे बायकोनं नोकरी करावी, असा त्याचा आग्रह नव्हता. दादरला त्याचा चार खोल्यांचा प्रशस्त फ्लॅट होता. सौमित्र एकुलता एक मुलगा. त्याच्या आई-बाबांबरोबर एकत्र राहायची सावनीची तयारी होती.
कामानिमित्त सौमित्रला अनेकदा बाहेरगावी जावं लागत असे. मुंबईत असला तरी सकाळी साडेआठला तो कंपनीत जाण्यासाठी बाहेर पडायचा. घरी परत यायला आठतरी वाजायचे. कधीकधी त्याहीपेक्षा उशीर व्हायचा. शनिवार-रविवार मात्र सुट्टी असायची. मग दोघांची भटकंती चालायची. सावनीला मुंबई-दर्शन घडवायला सौमित्र घेऊन जायचा. कधी कारमधून, कधी ट्रेन तर कधी बस. सासू-सासरेही सूनबाईंचे लाडच करायचे.
एक वर्ष कसं उडून गेलं ते कोणाला कळलंच नाही. नव्याची नवलाई संपली आणि रूटिन सुरू झालं.
सौमित्रला प्रमोशन मिळालं आणि त्याच्या परदेश वाऱ्याही सुरू झाल्या. आठ-आठ दिवस तो घरी नसायचा. सावनीला मग कंटाळा यायचा. घरात सासूबाई पण सगळं करणाऱ्या होत्या. वरकामाला बाई होती. त्यामुळे सावनीला काम तरी किती असणार ?
एक दिवस दादरला बाहेर फिरता फिरता कथ्थक नृत्य मंदिराची पाटी दिसली आणि तिच्या मनात आपलं राहिलेलं शिक्षण पूर्ण करायचा विचार आला. येऊन-जाऊन दीड-दोन तासच वेळ जाणार होता. बरं क्लासही चार ते सहाच्या वेळेत. तिला तेवढाच विरंगुळा,म्हणून घरात कोणी विरोध करण्याचा प्रश्नच नव्हता. सावनीचा क्लास सुरू झाला. सावनी अधून-मधून क्लासमध्ये किंवा मुंबईत नृत्याच्या कार्यक्रमात भाग घेऊ लागली. अजून सुटवंग असल्याने सरावासाठी थोडा जास्त वेळ द्यावा लागला, तरी सावनीला ते जमत होतं. शक्य असेल तेव्हा, सौमित्र आणि त्याचे आई-बाबा कौतुकाने या कार्यक्रमांना हजेरीही लावत.दोन वर्षांनी सावनी कथ्थक विशारदही झाली. सुमंतसरांनी गळ घातल्यामुळे, तिच्या क्लासमध्येच ती नवीन विद्यार्थ्यांना शिकवायला जाऊ लागली. तिचा बराच वेळ क्लास आणि कार्यक्रम यातच जाऊ लागला.
आता सौमित्रच्या आई-बाबांना आपलं नातवंड यावं, असं वाटायला लागलं. सौमित्रलाही बाबा व्हायचं होतंच. त्यानं सावनीजवळ तसं बोलूनही दाखवलं. आणि लवकरच ती गोड बातमी आली. घरात आनंदाला उधाण आलं. सासू-सासरे, सूनबाईंचे आणखीनच लाड करू लागले, काळजी घेऊ लागले. सौमित्रही खूष होता. मुंबईबाहेर जाणंही तो शक्यतो टाळू लागला. सावनीचे डोहाळे पुरवण्याचा, तिला खूष ठेवण्याचा जास्तीत जास्त प्रयत्न करू लागला. पण मध्येच ती कुठेतरी हरवल्यासारखी वाटायची. ‘ या अवस्थेत कधीकधी बायका तऱ्हेवाईकपणे वागतात, मनावर ताणही असतोच ‘, असं आईनं म्हटल्यावर, त्याने याबाबत तिला फारसं छेडलं नाही.
सातव्या महिन्यात डोहाळजेवण झालं आणि सावनीचे आई-बाबा तिला बाळंतपणासाठी माहेरी घेऊन गेले. सावनीनं एका गोड छोकरीला जन्म दिला. सौमित्र , आई-बाबांसह लेकीला भेटायला लगेच रतलामला गेला. तिथून घरी परततअसताना वाटेतच, त्याला फोनवर, पुढच्या प्रमोशनची बातमी मिळाली. पंधरा दिवसांनी त्याला कंपनीच्या कॅनडाच्या युनिटमध्ये हजर व्हायचं होतं. मग सर्वानुमते बाराव्या दिवशीच बारसं करून घ्यावं, असं ठरलं. सगळी धावपळच होणार होती. पण बारसं थाटात पार पडलं. बाळाचं नाव ‘नुपुर’ ठेवलं. सावनी जरा नाराज वाटली,’ पण तू आता कॅनडाला जाणार नं’ असं तिनं म्हटल्यावर, त्याला पटलं. लेकीला लवकर भेटता येणार नाही, याचं त्यालाही वाईट वाटत होतंच. पण प्रमोशन कसं नाकारणार? पॅकेजमध्येही जबरदस्त वाढ मिळणार होती. ‘ पहिली बेटी, धनाची पेटी’, असं म्हणत सगळ्यांनीच आनंद साजरा केला. सौमित्र कॅनडाला रवाना झाला. वेळ मिळेल तसा फोन, व्हिडिओ कॉलवरून सावनी आणि नुपुरची खबरबात घेऊ लागला.